प्रेम और विवाह की समस्या

prem aur vivah ki samasya

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

प्रेम और विवाह की समस्या

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

    यह तो स्पष्ट है कि समाज की गति के साथ साहित्य भी गतिशील होता है। जो सच्चा साहित्यकार होता है, उसकी वाणी में युग की वाणी रहती है। ऐसे साहित्यकारों की रचनाओं में समस्त देश की आत्मा प्रस्फुट हो जाती है। उनके स्वर में देश की उच्चतम आकांक्षा की ध्वनि निकलती है। उनकी कृति में देश का आह्वान रहता है। ऐसे साहित्यकारों की अनुभूति में इतनी व्यापकता रहती है कि वे समस्त देश को अपना सकते हैं। उनकी अनुभूति किसी एक वर्ग में ही बद्ध नहीं रहती। अनुभूति के साथ उनमें रचना-शक्ति की भी एक ऐसी कुशलता होती है, जिससे वे अनायास ही पाठकों की सहानुभूति भी प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी शक्ति और अनुभूति के अभाव से भावों में जो एक स्थूलता जाती है, उसके कारण कला में भी कृत्रिमता जाती है। भावों की स्थूलता को छिपाने के लिए जब शब्दों का कृत्रिम जाल निर्मित होता है, तब शैली की विलक्षणता में ही कला का चमत्कार देखा जाता है। अनुभूति का स्थान आवेश ले लेता है। उस आवेश में दंभ रहता है, अभिमान रहता है। और उसी के कारण एक कृत्रिम स्फूर्ति भी उत्पन्न हो जाती है। उसमें जीवन की यथार्थता की परीक्षा नहीं होती। परंतु अपनी अहंवृत्ति के कारण अपनी ही दृष्टि से हम जो कुछ देखते हैं, उसी को एकमात्र सत्य मानकर उसे दृढ़तापूर्वक पकड़ लेते हैं।

    आधुनिक युग के प्रांरभ में पाश्चात्य सभ्यता के संघर्ष से भारतीय सभ्यता पर आघात अवश्य पहुँचा। आदर्शों के संघर्ष से सत्य की परीक्षा के लिए सभी साहित्यकारों में एक आग्रह हुआ। उसी के कारण भारतीय समाज के भीतर सुधार की भी भावना उत्पन्न हुई। भारतवर्ष के सामाजिक जीवन में जो दोष उत्पन्न हो गए थे, उनका निराकरण करने के लिए चेष्टा की गई। आधुनिक युग के प्रारंभिक काल में कितने ही सुधारक हुए। परंतु यह तो सभी जानते थे कि दो-चार या दस-पाँच सुधार कर देने से सामाजिक जीवन की जीर्णावस्था या निश्चेष्टता दूर नहीं हो सकती। ज्यों-ज्यों समाज, परिवार और व्यक्ति के जीवन की परीक्षा की गई, त्यों-त्यों नव समाज और नव सामाजिक आदर्श के निर्माण के लिए व्यग्रता होने लगी। नव समाज के निर्माण का यह प्रयास केवल भारतवर्ष में ही बद्ध नहीं था। सारे विश्व में यही चेष्टा प्रारंभ हुई। उसी के कारण समाज-नीति के साथ राजनीति और साहित्यनीति में भी आमूल परिवर्तन की भावना प्रकट होने लगी। कितने विज्ञों ने यह कहा कि “दुनिया को बदलो और जो सड़ चुका है, उसे छोड़ दो; नवीनताओं को अपनाओ, समाज की रूढ़ियों को तोड़ डालो, नए मनुष्य को जन्म दो।”

    क्रांति की यह भावना कथा-साहित्य में विशेष रूप से स्पष्ट हुई। व्यक्ति के साथ परिवार का और परिवार के साथ समाज का जो संबंध है, उसका एक नैतिक आधार है। उसी नैतिक आधार के कारण समाज में पाप-पुण्य और सदाचार-दुराचार का निर्णय होता है। नीति के उस मूल आधार पर परंपरागत संस्कारों का भी प्रभाव पड़ता है। इसीलिए जब नीति की वैज्ञानिक परीक्षा आरंभ हुई, तब जो संस्कार जीवन में बद्धमूल हो चुके थे, उन पर भी कठोर आघात होने लगा। इसी से दांपत्य प्रेम और विवाह के आदर्शों ने साहित्य में एक समस्या का रूप धारण कर लिया और निर्बाध प्रेम अथवा उन्मुक्त प्रेम के चित्र कथा-साहित्य में विशेष रूप से अंकित होने लगे। प्रेम के लिए कोई मर्यादा अथवा सीमा बाह्य जगत् में नहीं रही। उसमें भी आर्थिक हीनता के कारण जो कष्ट स्त्रियों को भोगना पड़ता है, उसको प्रधानता देकर उन्मुक्त प्रेम के आदर्श का प्रचार होने लगा।

    यह तो स्पष्ट है कि आर्थिक कष्ट की कोई सीमा निर्दिष्ट नहीं की जा सकती। जब लोगों में विलास की भावनाएँ प्रबल हो जाती हैं, तब किसी भी एक स्थिति में संतोष नहीं होता। जहाँ एक ओर निर्धनता है, दुर्भिक्ष है और अत्याचार तथा उत्पीड़न है और दूसरी ओर संपत्ति और ऐश्वर्य का विलास है, वहाँ असंतोष की भावना और भी प्रबल हो जाती है। यही कारण है कि कथा-साहित्य में प्रेम के ऐसे जो चित्र अंकित हुए, उनमें कर्तव्य की गरिमा, प्रेम की सहिष्णुता, उदारता और त्याग का वर्णन नहीं हुआ। उसमें वासना की अतृप्ति, असंतोष और विलास की प्रचंड भावना ही प्रधान है। विचारणीय यह है कि व्यक्ति के चरित्र में जो एक गौरव रहता है, उसका आधार कहाँ है। यह तो सभी स्वीकार करेंगे कि व्यक्तिगत जीवन में उच्छृंखलता जाने से समाज अथवा राष्ट्र का हित नहीं हो सकता। अतएव उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि नव समाज के निर्माण में भी जो नव आदर्श निर्मित हों, उनमें व्यक्तिगत उच्छृंखलता को स्थान दिया जाए।

    व्यक्तिवाद अथवा समाजवाद या राष्ट्रवाद में कोई विरोध की भावना नहीं रहती। एक स्थान में व्यक्ति सबसे पृथक् रहता है। वहाँ उसका अपना व्यक्तित्व ही सबसे अधिक स्पृहणीय होता है। उसी के विकास में उसके जीवन की सार्थकता है। परंतु दूसरी ओर वह एक होकर भी अनेकों से ऐसा संबंध स्थापित कर लेता है कि वह अपने व्यक्तिगत जीवन को किसी प्रकार उनसे पृथक नहीं कर सकता। वह मानो एक होकर भी अनेक हो जाता है। उसी संबंध के कारण वह क्षुद्र होकर भी महान् होता जाता है। उसके व्यक्तित्व का विकास उसके उसी संबंध के विकास पर निर्भर हो जाता है। वासना का संबंध एकमात्र उसके व्यक्तिगत जीवन से है; परंतु कर्तव्य का संबंध दूसरों से हो जाता है। वही कर्तव्य जब एक धर्म का रूप धारण कर लेता है, तब वह सभी व्यक्तियों को एक परिवार, समाज, राष्ट्र अथवा मानव-जाति के रूप में संगठित कर देता है। उस संगठन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता रहने पर भी व्यक्तिगत उच्छृंखलता नहीं रह सकती। उस समय स्वार्थ के साथ लोक-कल्याण की भावना काम करती है। उस लोक-कल्याण में ही चरित्र का सच्चा माहात्म्य प्रकट होता है। स्वार्थों में एक क्षुद्रता हो जाती है और लोक-भावना में एक गौरव जाता है।

    यह कहने की आवश्यकता नहीं कि एकमात्र बाह्य शासन अथवा शक्ति की प्रेरणा से मनुष्य के हृदय में यह विशाल संवेदना अथवा सहानुभूति नहीं उत्पन्न नहीं हो सकती। उसके लिए अंत: प्रेरणा ही होनी चाहिए। मनुष्यों के हृदय में प्रेम की जो सहज भावना है, उसी के विकास से मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास करता है और उसी से वह लोक-कल्याण और विश्व-मैत्री या विश्व बंधुत्व की भावना को स्वायत्त कर लेता है। प्रेम की इस विशुद्ध भावना में त्याग की प्रवृत्ति बलवती हो जाती है। इसी से प्रेम के भाव से मनुष्य स्वेच्छा से कष्ट सहता है। तब कष्ट की यह यातना यातना नहीं रह जाती, वह तपस्या हो जाती है। वासनाओं का संयम अथवा दमन उसकी आनंद-वृत्ति को संकुचित नहीं करता, विस्तृत कर देता है। एकमात्र रूढ़िवाद कहकर चरित्र के इस गौरव का तिरस्कार नहीं किया जा सकता। आज घर-घर कष्ट होने पर भी जो सुख और शांति का एक वातावरण है, उसका कारण वही पारिवारिक स्नेह, ममता और प्रेम है, जिसके कारण सेवा और त्याग में जीवन की सच्ची सार्थकता देखी जाती है।

    व्यक्तिगत जीवन की अपनी समस्याएँ होती हैं; परंतु समाज की भी पृथक् समस्याएँ होती हैं। समाज में व्यक्तियों का समूह रहने पर भी कुछ ऐसी नीति या व्यवस्था का प्रचलन हो जाता है, जिसके कारण किसी विशिष्ट वर्ग का प्रभुत्व बढ़ जाता है। उस समय उसी विशिष्ट वर्ग के संकुचित हित के लिए एक विशेष व्यवस्था की स्थापना भी हो जाती है। 'बहुजनहिताय' के लिए सभी युगों में चेष्टा की जाती है। पर उस बहुजन में एक विशिष्ट वर्ग का ही हित समाविष्ट हो जाता है। तभी समाज में किसी-न-किसी रूप में शोषण नीति का प्रचार हो जाता है। जो दारिद्र-व्रत व्यक्तिगत जीवन में स्वेच्छा से स्वीकृत होकर तपस्या का रूप धारण करता है, वह सामाजिक जीवन में अधिकांश जनों के लिए अभिशाप हो जाता है। उस दरिद्रता के मूल में ऐश्वर्य और प्रभुत्व का दंभ विद्यमान रहता है। उस दंभ में दया अथवा परोपकार की भावना भी मानव-जीवन की हीनावस्था को प्रकट करती है। जहाँ लोक की लोलुपता प्रभुत्व की स्वेच्छाचारिता से युक्त हो जाती है, वहीं मनुष्यों की पाशविक वासनाएँ भी उद्दीप्त हो जाती हैं और तभी अत्याचार और उत्पीड़न की भी वृद्धि होती है। व्यक्तिगत जीवन में भी उसका प्रभाव लक्षित होता है। यह नहीं कहा जा सकता कि सभी स्थितियों में समाज के प्रति विद्रोह की ही भावना मनुष्यों को समाज की व्यवस्था या नीति को भंग करने के लिए प्रेरित करती है। फिर भी सामाजिक परिस्थितियों की विवशता से मनुष्यों को अपने अंत: करण के विरुद्ध भी काम करने पड़ते हैं। पाश्चात्य साहित्य के सुप्रसिद्ध उपन्यास 'क्राइम एंड पनिशमेंट' में परिस्थिति की विवशता ही जघन्य कृत्यों के लिए प्रेरित करती है। परंतु 'अन्ना केरेनिना' के व्यक्तिगत जीवन में परिस्थिति की वही विवशता नहीं है। उसके हृदय में वासना की जो आँधी आई, उसी ने उसके जीवन को नष्ट कर दिया।

    जीवन में क्या सत्य है और क्या असत्य, इसका निर्णय सहसा नहीं किया जा सकता। कार्य के रूप में बहिर्जगत में जो कुछ होता रहता है, वही एकमात्र सत्य नहीं होता। अंतर्जगत् में भी भावों के घात-प्रतिघात से जो विप्लव होता रहता है, उसकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। स्त्रियाँ यदि पुरुषों के द्वारा कुपथगामिनी हो जाती हैं, तो उसमें एकमात्र पुरुषों का ही उत्तरदायित्व नहीं रहता। इसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि पुरुष अपनी वासना की तृप्ति के लिए स्त्रियों को कुपथ पर नहीं ले जाते। अधिकांश पुरुषों और स्त्रियों के जीवन में कर्तव्यों की भावनाओं से ही उन पाशविक वासनाओं का दमन हो जाता है, जिनके कारण व्यक्तिगत जीवन दुःखमय हो जाता है। शरत् बाबू के 'गृहदाह' में एकमात्र भावों के घात-प्रतिघात से ही वह परिस्थिति उत्पन्न हो गई है, जिसके कारण नायक और नायिका दोनों अपने जीवन के लक्ष्य से च्युत हो गए। उसी के कारण दोनों के जीवन में दुख की एक घटा गई और उनके प्रेममय गृह का दाह हो गया।

    समाज और राष्ट्र के भीतर रहकर भी अपने व्यक्तित्व के कारण सभी मनुष्यों के चरित्र में वैचित्र्य रहता है और उसी के कारण उनके जीवन की गति में भी भिन्नता रहती है। उपन्यासों में समाज की पृष्ठभूमि पर व्यक्ति के जीवन की ही कथा रहती है। इसीलिए उनकी कथा में एक असाधारणता जाती है। विचारणीय यही है कि जिन परिस्थितियों में उपन्यास के नायक अथवा नायिका के जीवन का विकास प्रदर्शित हुआ है, उनमें भाव के साथ कर्म का सच्चा मेल हुआ है अथवा नहीं, तभी चरित्र की विशेषता लक्षित होती है।

    जीवन में जो वासना है, वह वासना ही है। उसकी उग्रता और उद्दामता पर जीवन में क्या सत्य है और क्या असत्य, इसका निर्णय सहसा नहीं किया जा सकता। मनुष्य यदि अपने अंतस्तल की सच्ची परीक्षा करने बैठे , तो वहाँ वह वासनाओं की संचित पंकराशि देखेगा। उच्च या नीच, उत्कृष्ट या निकृष्ट, सभी श्रेणियों के मनुष्यों के भीतर वासना की एक ऐसी लोलुपता किसी-न-किसी रूप में बनी रहती है। परंतु उसी के साथ एक ऐसी भी प्रवृत्ति मनुष्य के मन में रहती है, जिसके कारण वह अपनी उन वासनाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेता है।

    समाज के प्रति विद्रोह की भावना से जब हिंदी कथा-साहित्य में पाशविक भावनाओं को ही एकमात्र उत्तेजना दी जाती है, तब ऐसा जान पड़ता है कि मानव-जीवन में सुप्रवृत्तियों के लिए कोई स्थान ही नहीं, मानो एकमात्र वासना ही स्वाभाविक है और उन वासनाओं की निर्बाध तृप्ति में ही चरित्र का गौरव और जीवन का माहात्म्य है।

    एक आख्यायिकाकार द्वारा कल्पित शेखर के प्रति सुमित्रा का प्रेम किसी भी बाधा को स्वीकार नहीं करता था। इसीलिए एक रात जब सुमित्रा का स्वामी कहीं बाहर चला गया था और सुमित्रा अकेली रह गई थी, तब बड़ी रात बीते शेखर की नींद खुली। नारी की भूख उसमें जाग उठी थी। वह उठकर सुमित्रा के समीप गया और उस सोई हुई नारी को जगाकर उसने कहना चाहा कि सुमित्रा उठो, लाज का पर्दा फाड़ दो। कब तक नारी को अपने अंदर बंद रखोगी? समाज भले ही इसे अपराध माने, पर समाज ने कब किसे खुलकर खेलने की आज़ादी दी है?

    खुलकर खेलने की आज़ादी में ही जीवन की सार्थकता समझकर एक दूसरे आख्यायिकाकार की नायिका लीला अपने सुख के उस सपने को रूप देने के लिए अपने पति को छोड़कर चली गई, क्योंकि वह बंदीगृह से मुक्त होना चाहती थी। शृंखलाओं को तोड़कर पिंजरे से भाग जाना चाहती थी। वासनाओं की तृप्ति को ही प्रधान मानकर एक अन्य आख्यायिकाकार की नायिका उर्मिला ने कहा—प्रत्येक बात का एक युग होता है। यौवन का भी एक मदभरा युग होता है, जिसमें विलास की स्वाभाविक भावनाएँ निहित रहती हैं। उसी में भावनाओं की तृप्ति मानव के लिए अवश्यांभावी है। यौवन का युग समाप्त हो जाने पर, विलास की स्वाभाविक भावनाएँ मुरझा जाने पर उनकी तृप्ति के साधन यदि उपलब्ध हुए, तो वे असामयिक हैं। इसीलिए हिंदी के अधिकांश आधुनिक कथाकारों में निर्बाध प्रेम का आदर्श काम कर रहा है। वे यही कहना चाहते हैं कि जब तक शरीर और बुद्धि को खुलकर खेलने के लिए कोई उद्देश्य और तदनुकूल क्षेत्र मिले, तब तक व्यक्ति की प्रवृत्तियाँ पंगु हैं।

    यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि आधुनिक कथासाहित्य का अधिकांश भाग आधुनिक समाज के यथार्थ जीवन से बिलकुल पृथक् है। उनमें जीवन की यथार्थता नहीं है। उनमें समाज और व्यक्ति की सच्ची समस्याएँ भी नहीं हैं। उनमें एकमात्र तारुण्य की उद्दाम वासनाओं के ग्लानि कर चित्र अंकित हुए हैं और उन्हीं में कला की कुशलता मानी गई है। संसार में दुख है, दरिद्रता है, कष्ट है, उत्पीड़न है और अत्याचार है। उनके कारण कितने ही लोगों का जीवन भार-रूप हो गया: है पर उन सब विषम परिस्थितियों के बीच भी मनुष्यों के अंत: करण में सद्भावों की भी विद्यमानता है। उन्हीं के कारण सभी परिस्थितियों का अतिक्रमण कर मनुष्य उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है। धन की हीनता से उसमें चरित्र की हीनता नहीं जाती। यदि परिस्थिति की विवशता से वह कोई ऐसा काम करता है, जिससे उसके आत्म-गौरव की हानि होती है, तो अंत:करण की विशुद्धि के कारण वह उस विवशता में भी एक गौरव का अनुभव करता ही है। तभी वह उस विवशता के प्रति विद्रोह करता है। विद्रोह की यह भावना उसे उच्च स्थिति को ले जाती है। वह सच्चे न्याय और सुनीति का पथ ग्रहण करता है। वह पाशविक भावनाओं को महत्ता नहीं देता। वह अपने भीतर एक ऐसी अंतर्शक्ति का अनुभव करता है, जिसके कारण वह सभी बाधाओं को अतिक्रमण करने के लिए उद्यत हो जाता है। क्रांति की यही सच्ची भावना है, जो सभी युगों में प्रकट होती है। उसी में सच्ची आत्मशक्ति है। आत्मशक्ति के ही कारण क्रांति सफ़ल होती है। मार्टिन लूथर हो या कबीर, समाज में प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध उनमें विद्रोह की भावना जाग उठती है। हिंदी के आधुनिक कथा-साहित्य में विद्रोह की भावना के नहीं, कामुकता के ग्लानिकर चित्र अंकित हुए हैं। अभी तो उन्हीं के प्रति विद्रोह की आवश्यकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-4 (पृष्ठ 446)
    • संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
    • रचनाकार : पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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