संस्कृति की प्रवृत्ति महाफल देनेवाली होती है। सांस्कृतिक कार्य के छोटे से बीज से बहुत फल देनेवाला बड़ा वृक्ष बन जाता है। सांस्कृतिक कार्य कल्पवृक्ष की तरह फलदायी होते हैं। अपने ही जीवन की उन्नति, विकास और आनंद के लिए हमें अपनी संस्कृति की सुध लेनी चाहिए। आर्थिक कार्यक्रम जितने आवश्यक है, उनसे कम महत्त्व संस्कृति संबंधी कार्यों का नहीं है। दोनों एक ही रथ के दो पहिए हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कुशल नहीं रहती। जो उन्नत देश हैं, वे दोनों कार्य एक साथ संभालते हैं। वस्तुतः उन्नति करने का यही एक मार्ग है। मन को भुलाकर केवल शरीर की रक्षा पर्याप्त नहीं है। संस्कृति मनुष्य के भूत, वर्तमान और भावी जीवन का सर्वांगपूर्ण प्रकार है। हमारे जीवन का ढंग हमारी संस्कृति है। संस्कृति हवा में नहीं रहती, उसका मूर्तिमान रूप होता है। जीवन के नानाविध रूपों का समुदाय ही संस्कृति है। जब विधाता ने सृष्टि बनाई, तो पृथ्वी और आकाश के बीच विशाल अंतराल नाना रूपों से भरने लगा। सूर्य, चंद्र, तारे, मेघ, षड्ऋतु, उषा, संध्या आदि अनेक प्रकार के रूप हमारे आकाश में भर गए। ये देवशिल्प थे। देवशिल्पों से प्रकृति की संस्कृति भुवनों में व्याप्त हुई। इसी प्रकार मानवी जीवन के उषाकाल की हम कल्पना करें। उसका आकाश मानवीय शिल्प के रूपों से भरता गया। इस प्रयत्न में सहस्रों वर्ष लगे। यही संस्कृति का विकास और परिवर्तन है। जितना भी जीवन का ठाट है, उसकी सृष्टि मनुष्य के मन प्राण और शरीर के दीर्घकालीन प्रयत्नों के फलस्वरूप हुई है। मनुष्य-जीवन रुकता नहीं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ता है। संस्कृति के रूपों का उत्तराधिकार भी हमारे साथ चलता है। धर्म, दर्शन, साहित्य, कला उसी के अंग हैं।
संसार में देश भेद से अनेक प्रकार के मनुष्य हैं। उनकी संस्कृतियाँ भी अनेक हैं। यहाँ नानात्व अनिवार्य है, वह मानवीय जीवन का झंझट नहीं, उसकी सजावट है। किंतु देश और काल की सीमा से बँधे हुए हमारा घनिष्ठ परिचय या संबंध किसी एक संस्कृति से ही संभव है। वही हमारी आत्मा और मन में रमी हुई होती है और उनका संस्कार करती है। यों तो संसार में अनेक स्त्रियाँ और पुरुष हैं, पर एक जन्म में जो हमारे माता-पिता बनते हैं, उन्हीं के गुण हम में आते हैं और उन्हें ही हम अपनाते हैं। ऐसे ही संस्कृति का संबंध है, वह सच्चे अर्थों में हमारी धात्री होती है। इस दृष्टि से संस्कृति हमारे मन का मन, प्राणों का प्राण और शरीर का शरीर होती है। इसका यह अर्थ नहीं कि अपने विचारों को किसी प्रकार संकुचित कर लेते हैं। सच तो यह है कि जितना अधिक हम एक संस्कृति के मर्म को अपनाते हैं, उतने ही ऊँचे उठकर हमारा व्यक्तित्व संसार के दूसरे मनुष्यों, धर्मों, विचारधाराओं और संस्कृतियों से मिलने और उन्हें जानने के लिए समर्थ और अभिलाषी बनता है। अपने केंद्र की उन्नति बाह्य विकास की नींव है। कहते हैं कि घर खीर तो बाहर भी खीर; घर में एकादशी तो बाहर भी सब सूना। एक संस्कृति में जब हमारी निष्ठा पक्की होती है, तो हमारे मन की परिधि विस्तृत हो जाती है, हमारी उदारता का भंडार भर जाता है। संस्कृति जीवन के लिए परम आवश्यक है। राजनीति की साधना उसका केवल एक अंग है। संस्कृति राजनीति और अर्थशास्त्र दोनों को अपने में पचाकर इन दोनों से विस्तृत मानव मन को जन्म देती है। राजनीति में स्थायी रक्तसंचार केवल संस्कृति के प्रचार, ज्ञान और साधना से संभव है। संस्कृति जीवन के वृक्ष का संवर्धन करनेवाला रस है। राजनीति के क्षेत्र में तो उसके इने-गिने पत्ते ही देखने में आते हैं। अथवा यों कहें कि राजनीति केवल पथ की साधना है, संस्कृति उस पथ का साध्य है।
भारतीय राष्ट्र अब स्वतंत्र हुआ है। इसका अर्थ यह है कि हमें अपनी इच्छा के अनुसार अपना जीवन ढालने का अवसर प्राप्त हुआ है। जीवन का जो नवीन रूप हमें प्राप्त होगा, वह अकस्मात् अपने आप आ गिरनेवाला नहीं है। उसके लिए जान बूझकर निश्चित विधि से हमें प्रयत्न करना होगा। राष्ट्र संवर्धन का सबसे प्रबल कार्य संस्कृति की साधना है। उसके लिए बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करना आवश्यक है। देश के प्रत्येक भाग में इस प्रकार के प्रयत्न आवश्यक हैं। इस देश की संस्कृति की धारा अति प्राचीन काल से बहती चली आई है। हम उसका सम्मान करते हैं, किंतु उसके प्राणवंत तत्व को अपनाकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। उसका जो जड़ भाग है, उस गुरुतर बोझ को यदि हम ढोना चाहें, तो हमारी जाति में अड़चन उत्पन्न होगी। निरंतर गति मानव जीवन का वरदान है। व्यक्ति हो या राष्ट्र, जो एक पड़ाव पर टिका रहता है। उसका जीवन ढलने लगता है। इसलिए 'चरैवेति चरैवेति' की धुन जब तक राष्ट्र के रथ-चक्रों में गूँजती रहती है, तभी तक प्रगति और उन्नति होती है, अन्यथा प्रकाश और प्राणवायु के कपाट बंद हो जाते हैं और जीवन रुँध जाता है। हमें जागरूक रहना चाहिए; ऐसा नहीं कि हमारा मन परकोटा खींचकर आत्मरक्षा की साधना करने लगे।
पूर्व और नूतन का जहाँ मेल होता है, वही उच्च संस्कृति की उपजाऊ भूमि है। ऋग्वेद के पहले ही सूक्त में कहा गया है कि नए और पुराने ऋषि दोनों ही ज्ञानरूपी अग्नि की उपासना करते हैं। यही अमर सत्य है। कालिदास ने गुप्तकाल की स्वर्णयुगीन भावना को प्रकट करते हुए लिखा है कि जो पुराना है, वह केवल इसी कारण अच्छा नहीं माना जा सकता, और जो नया है, उसका भी इसलिए तिरस्कार करना उचित नहीं। बुद्धिमान दोनों को कसौटी पर कसकर किसी एक को अपनाते हैं। जो मूढ़ हैं, उनके पास घर की बुद्धि का टोटा होने के कारण वे दूसरों के भुलावे में आ जाते हैं। गुप्त-युग के ही दूसरे महान् विद्वान श्री सिद्धसेन दिवाकर ने कुछ इसी प्रकार के उद्गार प्रकट किए थे—“जो पुरातन काल था, वह मर चुका। वह दूसरों का था, आज का जन यदि उसको पकड़कर बैठेगा, तो वह भी पुरातन की तरह ही मृत हो जाएगा। पुराने समय के जो विचार हैं, वे तो उनके प्रकार के हैं। कौन ऐसा है, जो भली प्रकार उनकी परीक्षा किए बिना अपने मन को उधर जाने देगा।”
अथवा ‘जो स्वयं विचार करने में आलसी है, वह किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता। जिसके मन में सही निश्चय करने की बुद्धि है, उसी के विचार प्रसन्न और साफ़-सुथरे रहते हैं। जो यह सोचता है कि पहले आचार्य और धर्मगुरु जो कह गए, सब सच्चा है, उनकी सब बात सफ़ल है और मेरी बुद्धि या विचारशक्ति टुटपुँजिया है, ऐसा बाबावाक्यं प्रमाणम् के ढंग पर सोचनेवाला मनुष्य केवल आत्महनन का मार्ग अपनाता है’—
मनुष्य के चरित्र मनुष्यों के कारण स्वयं मनुष्यों द्वारा ही निश्चित किए गए हैं। यदि कोई बुद्धि का आलसी या विचारों का दरिद्री बनकर हाथ में पतवार लेता है, तो वह कभी उन चरित्रों का पार नहीं पा सकता, जो अथाह हैं और जिनका अंत नहीं जिस प्रकार हम अपने मत को पक्का समझते हैं, वैसे ही दूसरे का मत भी तो हो सकता है। दोनों में से किसकी बात कही जाए? इसलिए दुराग्रह को छोड़कर परीक्षा की कसौटी पर प्रत्येक वस्तु को कसकर देखना चाहिए’ गुप्तकालीन संस्कृति के ये गूँजते हुए स्वर प्रगति, उत्साह, नवीन पथ संशोधन और भारमुक्त मन की सूचना देते हैं। राष्ट्र के अर्वाचीन जीवन में भी इसी प्रकार का दृष्टिकोण हमें ग्रहण करना आवश्यक है। कुषाण-युग के आरंभ की मानसिक स्थिति का परिचय देते हुए महाकवि अश्वघोष ने तो यहाँ तक कहा था कि राजा और ऋषियों के उन आदर्श चरित्रों को, जिन्हें पिता अपने जीवन में पूरा नहीं कर सके थे, उनके पुत्रों ने कर दिखाया—
नए और पुराने के संघर्ष में इस प्रकार का सुलझा हुआ और साहसपूर्ण दृष्टिकोण रखना आवश्यक है। इससे प्रगति का मार्ग खुला रहता है, अन्यथा भूतकाल कंठ में पड़े खटखटे की तरह बारबार टकराकर हमारी हड्डियों को तोड़ता रहता है। भारतवर्ष जैसे देश के लिए यह और भी आवश्यक है कि वह भूतकाल की जड़पूजा में फँसकर उसी को संस्कृति का अंग न मानने लगे। भूतकाल की रूढ़ियों से ऊपर उठकर उसके नित्य अर्थ को ग्रहण करना चाहिए। आत्मा को प्रकाश से भर देनेवाली उसकी स्फूर्ति और प्रेरणा स्वीकार करके आगे बढ़ना चाहिए। जब कर्म की सिद्धि पर मनुष्य का ध्यान जाता है, तब वह अनेक दोषों से बच जाता है। जब कर्म से भयभीत व्यक्ति केवल विचारों की उलझन में फँस जाता है, तब वह जीवन की नई पद्धति या संस्कृति को जन्म नहीं दे पाता। अतएव आवश्यक है कि पूर्वकालीन संस्कृति के जो निर्माणकारी तत्व हैं, उन्हें लेकर हम कर्म में लगें और नई वस्तु का निर्माण करें।
इसी प्रकार भूतकाल वर्तमान का खाद बनकर भविष्य के लिए विशेष उपयोगी बनता है। भविष्य का विरोध करके पदे-पदे उससे जूझने में और उसकी गति कुंठित करने में भूतकाल का जब उपयोग किया जाता है, तब नए और पुराने के बीच एक खाई बन जाती है। और समाज में दो प्रकार की विचारधाराएँ फैलकर संघर्ष को जन्म देती हैं। हमें अपने भूतकालीन साहित्य में आत्मत्याग और मानव-सेवा का आदर्श ग्रहण करना होगा। अपनी कला में से अध्यात्म भावों की प्रतिष्ठा और सौंदर्य-विधान के अनेक रूपों और अभिप्रायों को पुनः स्वीकार करना होगा। अपने दार्शनिक विचारों में से उस दृष्टिकोण को अपनाना होगा, जो समन्वय, मेल-जोल, समवाय और संप्रीति के जीवन-मंत्र की शिक्षा देता है, जो विश्व के भावी संबंधों का एकमात्र नियामक दृष्टिकोण कहा जा सकता है। अपने उच्चाशयवाले धार्मिक सिद्धांतों को मथकर उनका सार ग्रहण करना होगा। धर्म का अर्थ संप्रदाय या मतविशेष का आग्रह नहीं है। रूढ़ियाँ रुचि-भेद से भिन्न होती रही हैं और होती रहेंगी। धर्म का मथा हुआ सार है प्रयत्नपूर्वक अपने आपको ऊँचा बनाना। जीवन को उठाने वाले जो नियम हैं, वे जब आत्मा में बसने लगते हैं, तभी धर्म का सच्चा आरंभ मानना चाहिए। साहित्य, कला, दर्शन और धर्म से जो मूल्यवान सामग्री हमें मिल सकती है, उसे नए जीवन के लिए ग्रहण करना, यही सांस्कृतिक कर्म की उचित शिक्षा और सच्ची उपयोगिता है।
sanskriti ko pravrtti mahaphal denevali hoti hai. sanskritik kaary ke chhote se beej se bahut phal denevala baDa vriksh ban jata hai. sanskritik kaary kalpavrksh ki tarah phaldayi hote hain. apne hi jivan ki unnati, vikas aur anand ke liye hamein apni sanskriti ki sudh leni chahiye. arthik karyakram jitne avashyak hai, unse kam mahattv sanskriti sambandhi karyon ka nahin hai. donon ek hi rath ke do pahiye hain, ek dusre ke purak hain. ek ke bina dusre ki kushal nahin rahti. jo unnat desh hain, ve donon kaary ek saath sambhalte hain. vastut unnati karne ka yahi ek maarg hai. man ko bhulakar keval sharir ki rakhsha paryapt nahin hai. sanskriti manushya ke bhoot, vartaman aur bhavi jivan ka sarvangpurn prakar hai. hamare jivan ka Dhang hamari sanskriti hai. sanskriti hava mein nahin rahti, uska murtiman roop hota hai. jivan ke nanavidh rupon ka samuday hi sanskriti hai. jab vidhata ne sirishti banai, to prithvi aur akash ke beech vishal antral nana rupon se bharne laga. surya, chandr, tare, megh, shaDritu, usha, sandhya aadi anek prakar ke roop hamare akash mein bhar gaye. ye devshilp the. devshilpon se prakrti ki sanskriti bhuvnon mein vyaapt hui. isi prakar manavi jivan ke ushakal ki hum kalpana karen. uska akash manaviy shilp ke rupon se bharta gaya. is prayatn mein sahasron varsh lage. yahi sanskriti ka vikas aur parivartan hai. jitna bhi jivan ka thaat hain, uski sirishti manushya ke man paran aur sharir ke dirghakalin pryatnon ke phalasvarup hui hai. manushya jivan rukta nahin, piDhi dar piDhi aage baDhta hai. sanskriti ke rupon ka uttaradhikar bhi hamare saath chalta hai. dharm, darshan, sahity, kala usi ke ang hain.
sansar mein desh bhed se anek prakar ke manushya hain. unki sanskritiyan bhi anek hain. yahan nanatv anivary hai, wo manaviy jivan ka jhanjhat nahin, uski sajavat hai. kintu desh aur kaal ki sima se bandhe hue hamara ghanishth parichai ya sambandh kisi ek sanskriti se hi sambhav hai. vahi hamari aatma aur man mein rami hui hoti hai aur unka sanskar karti hai. yon to sansar mein anek striyan aur purush hain, par ek janm mein jo hamare mata pita bante hain, unhin ke gun hum mein aate hain aur unhen hi hum apnate hain. aise hi sanskriti ka sambandh hai, wo sachche arthon mein hamari dhatri hoti hai. is drishti se sanskriti hamare man ka man, pranon ka paran aur sharir ka sharir hoti hai. iska ye arth nahin ki apne vicharon ko kisi prakar sankuchit kar lete hain. sach to ye hai ki jitna adhik hum ek sanskriti ke marm ko apnate hain, utne hi unche uthkar hamara vyaktitv sansar ke dusre manushyon, dharmon, vichardharaon aur sanskritiyon se milne aur unhen janne ke liye samarth aur abhilashai banta hai. apne kendr ki unnati baahy vikas ki neenv hai. kahte hain ki ghar kheer to bahar bhi kheer; ghar mein ekadashi to bahar bhi sab suna. ek sanskriti mein jab hamari nishtha pakki hoti hai, to hamare man ki paridhi vistrit ho jati hai, hamari udarta ka bhanDar bhar jata hai. sanskriti jivan ke liye param avashyak hai. rajaniti ki sadhana uska keval ek ang hai. sanskriti rajaniti aur arthshastr donon ko apne mein pachakar in donon se vistrit manav man ko janm deti hai. rajaniti mein sthayi raktsanchar keval sanskriti ke parchar, gyaan aur sadhana se sambhav hai. sanskriti jivan ke vriksh ka sanvardhan karnevala ras hai. rajaniti ke kshaetr mein to uske ine gine patte hi dekhne mein aate hain. athva yon kahen ki rajaniti keval path ki sadhana hai, sanskriti us path ka saadhy.
bharatiy rashtra ab svatantr hua hai. iska arth ye hai ki hamein apni ichha ke anusar apna jivan Dhalne ka avsar praapt hua hai. jivan ka jo navin roop hamein praapt hoga, wo akasmat apne aap aa girnevala nahin hai. uske liye jaan bujhkar nishchit vidhi se hamein prayatn karna hoga. rashtra sanvardhan ka sabse prabal kaary sanskriti ki sadhana hai. uske liye buddhipurvak prayatn karna avashyak hai. desh ke pratyek bhaag mein is prakar ke prayatn avashyak hain. is desh ki sanskriti ki dhara prati prachin kaal se bahti chali i hai. hum uska samman karte hain, kintu uske pranvant tatv ko apnakar hi hum aage baDh sakte hain. uska jo jaD bhaag hai, us gurutar bojh ko yadi hum Dhona chahen, to hamari jati mein archan utpann hogi. nirantar gati manav jivan ka vardan hai. vekti ho ya rashtra, jo ek paDav par tik rahta hai. uska jivan Dhalne lagta. isliye charaiveti charaiveti ki dhun jab tak rashtra ke rath chakron mein gunjti rahti hai, tabhi tak pragti aur unnati hoti hai, anyatha parkash aur pranavayu ke kapat band ho jate hain aur jivan rundh jata hai. hamein jagaruk rahna chahiye; aisa nahin ki hamara man parkota khinchkar atmaraksha ki saadh karne lage. poorv aur nutan ka jahan mel hota hai, vahi uchch sanskriti ki upjau bhumi hai. rigved ke pahle hi sookt mein kaha gaya hai ki nae aur purane rishi donon hi gyanrupi agni ki upasna karte hain. yahi amar saty hai. kalidas ne guptkal ki svarnayugiy bhavna ko prakat karte hue likha hai ki jo purana hai, wo keval isi karan achchha nahin mana ja sakta, aur jo naya hai, uska bhi isiliye tiraskar karna uchit nahin. buddhiman donon ko kasauti par kaskar kisi ek ko apnate hain. jo mooDh hain, unke paas ghar ki buddhi ka tota hone ke karan ve dusron ke bhulave mein aa jate hain. gupt yug ke hi dusre mahan vidvan shri siddhsen divakar ne kuch isi prakar ke udgaar prakat kiye the—jo puratan kaal tha, wo mar chuka. wo dusron ka tha, aaj ka jan yadi usko pakaDkar baithega, to wo bhi puratan ki tarah hi mrit ho jayega. purane samay ke jo vichar hain, ve to unke prakar ke hai. kaun aisa hai, jo bhali prakar unki pariksha kiye bina apne man ko udhar jane dega.
janoऽyamanyasya mritः puratanः puratananairev samo bhavishyati.
puratnevityanvasthiteshu ka puratnoktanyaprikshya rochyet॥
athva jo svayan vichar karne mein aalsi hai, wo kisi nishchay par nahin pahunch pata. jiske man mein sahi nishchay karne ki buddhi hai, usi ke vichar prasann aur saaf suthre rahte hain. jo ye sochta hai ki pahle acharya aur dharmaguru jo kah gaye, sab sachcha hai, unki sab baat safal hai aur meri buddhi ya vicharashakti tutpunjiya hai, aisa babavakyan prmanam ke Dhang par sochnevala manushya keval atmahnan ka maarg apnata hai—
manushya ke charitr manushyon ke karan svayan manushyon dvara hi nishchit kiye gaye hain. yadi koi buddhi ka aalsi ya vicharon ka daridri bankar haath mein patvar leta hai, to wo kabhi un charitron ka paar nahin pa sakta, jo athah hain aur jinka ant nahin jis prakar hum apne man ko pakka samajhte hain, vaise hi dusre ka mat bhi to ho sakta hai. donon mein se kiski baat kahi jaye? isliye duragrah ko chhoDkar pariksha ki kasauti par pratyek vastu ko kaskar dekhana chahiye. gupt kalin sanskriti ke ye gunjte hue svar pragti, utsaah, navin path sanshodhan aur bharamukt man ki suchana dete hain. rashtra ke arvachin jivan mein bhi isi prakar ka drishtikon hamein grahn karna avashyak hai. kushan yug ke arambh ki manasik sthiti ka parichai dete hue mahakavi ashvghosh ne to yahan tak kaha tha ki raja aur rishiyon ke un adarsh charitron ko, jinhen pita apne jivan mein pura nahin kar sake the, unke putron ne kar dikhayah—
ragyam ripinam charitani tani kritani putrai rakritani parveः.
nae aur purane ke sangharsh mein is prakar ka suljha hua aur sahaspurn drishtikon rakhna avashyak hai. isse pragti ka maarg khula rahta hai, anyatha bhutakal kanth mein paDe khatakhte ki tarah barbar takrakar hamari haDDiyon ko toDta rahta hai. bharatvarsh jaise desh ke liye ye aur bhi avashyak hai ki wo bhutakal ki jaDpuja mein phansakar usi ko sanskriti ka ang na manne lage. bhutakal ki ruDhiyon se upar uthkar uske nity arth ko grahn karna chahiye. aatma ko parkash se bhar denevali uski sphurti aur prerna svikar karke aage baDhna chahiye. jab karm ki siddhi par manushya ka dhyaan jata hai, tab wo anek doshon se bach jata hai. jab karm se bhaybhit vekti keval vicharon ki uljhan mein phans jata hai, tab wo jivan ki nai paddhati ya sanskriti ko janm nahin de pata. atev avashyak hai ki purvakalin sanskriti ke jo nirmankari tatv hain, unhen lekar hum karm mein lage aur nai vastu ka nirman karen.
isi prakar bhutakal vartaman ka saad bankar bhavishya ke liye vishesh upyogi banta hai. bhavishya ka virodh karke pade pade usse jujhne mein aur uski gati kunthit karne mein bhutakal ka jab upyog kiya jata hai, tab nae aur purane ke beech ek khai ban jati hai. aur samaj mein do prakar ki vichardharayen phailkar sangharsh ko janm deti hain. hamein apne bhutakalin sahity mein atmatyag aur manav seva ka adarsh grahn karna hoga. apni kala mein se adhyatm bhavon ki pratishtha aur saundarya vidhan ke anek rupon aur abhiprayon ko pun svikar karna hoga. apne darshanik vicharon mein se us drishtikon ko apnana hoga, jo samanvay, mel jol, samvay aur sanpriti ke jivan mantr ki shiksha deta hai, jo vishv ke bhavi sambandhon ka ekmaatr niyamak drishtikon kaha ja sakta hai. apne uchchashayvale dharmik siddhanto ko mathkar unka saar grahn karna hoga. dharm ka arth sanpraday ya matavishesh ka agrah nahin hai. ruDhiyan ruchi bhed se bhinn hoti rahi hain aur hoti rahengi. dharm ka matha hua saar hai pryatnpurvak apne aapko uncha banana. jivan ko uthane vale jo niyam hain, ve jab aatma mein basne lagte hain, tabhi dharm ka sachcha arambh manna chahiye. sahity, kala, darshan aur dharm se jo mulyavan samagri hamein mil sakti hai, use nae jivan ke liye grahn karna, yahi sanskritik karm ki uchit shiksha aur sachchi upyogita hai.
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bharatiy rashtra ab svatantr hua hai. iska arth ye hai ki hamein apni ichha ke anusar apna jivan Dhalne ka avsar praapt hua hai. jivan ka jo navin roop hamein praapt hoga, wo akasmat apne aap aa girnevala nahin hai. uske liye jaan bujhkar nishchit vidhi se hamein prayatn karna hoga. rashtra sanvardhan ka sabse prabal kaary sanskriti ki sadhana hai. uske liye buddhipurvak prayatn karna avashyak hai. desh ke pratyek bhaag mein is prakar ke prayatn avashyak hain. is desh ki sanskriti ki dhara prati prachin kaal se bahti chali i hai. hum uska samman karte hain, kintu uske pranvant tatv ko apnakar hi hum aage baDh sakte hain. uska jo jaD bhaag hai, us gurutar bojh ko yadi hum Dhona chahen, to hamari jati mein archan utpann hogi. nirantar gati manav jivan ka vardan hai. vekti ho ya rashtra, jo ek paDav par tik rahta hai. uska jivan Dhalne lagta. isliye charaiveti charaiveti ki dhun jab tak rashtra ke rath chakron mein gunjti rahti hai, tabhi tak pragti aur unnati hoti hai, anyatha parkash aur pranavayu ke kapat band ho jate hain aur jivan rundh jata hai. hamein jagaruk rahna chahiye; aisa nahin ki hamara man parkota khinchkar atmaraksha ki saadh karne lage. poorv aur nutan ka jahan mel hota hai, vahi uchch sanskriti ki upjau bhumi hai. rigved ke pahle hi sookt mein kaha gaya hai ki nae aur purane rishi donon hi gyanrupi agni ki upasna karte hain. yahi amar saty hai. kalidas ne guptkal ki svarnayugiy bhavna ko prakat karte hue likha hai ki jo purana hai, wo keval isi karan achchha nahin mana ja sakta, aur jo naya hai, uska bhi isiliye tiraskar karna uchit nahin. buddhiman donon ko kasauti par kaskar kisi ek ko apnate hain. jo mooDh hain, unke paas ghar ki buddhi ka tota hone ke karan ve dusron ke bhulave mein aa jate hain. gupt yug ke hi dusre mahan vidvan shri siddhsen divakar ne kuch isi prakar ke udgaar prakat kiye the—jo puratan kaal tha, wo mar chuka. wo dusron ka tha, aaj ka jan yadi usko pakaDkar baithega, to wo bhi puratan ki tarah hi mrit ho jayega. purane samay ke jo vichar hain, ve to unke prakar ke hai. kaun aisa hai, jo bhali prakar unki pariksha kiye bina apne man ko udhar jane dega.
janoऽyamanyasya mritः puratanः puratananairev samo bhavishyati.
puratnevityanvasthiteshu ka puratnoktanyaprikshya rochyet॥
athva jo svayan vichar karne mein aalsi hai, wo kisi nishchay par nahin pahunch pata. jiske man mein sahi nishchay karne ki buddhi hai, usi ke vichar prasann aur saaf suthre rahte hain. jo ye sochta hai ki pahle acharya aur dharmaguru jo kah gaye, sab sachcha hai, unki sab baat safal hai aur meri buddhi ya vicharashakti tutpunjiya hai, aisa babavakyan prmanam ke Dhang par sochnevala manushya keval atmahnan ka maarg apnata hai—
manushya ke charitr manushyon ke karan svayan manushyon dvara hi nishchit kiye gaye hain. yadi koi buddhi ka aalsi ya vicharon ka daridri bankar haath mein patvar leta hai, to wo kabhi un charitron ka paar nahin pa sakta, jo athah hain aur jinka ant nahin jis prakar hum apne man ko pakka samajhte hain, vaise hi dusre ka mat bhi to ho sakta hai. donon mein se kiski baat kahi jaye? isliye duragrah ko chhoDkar pariksha ki kasauti par pratyek vastu ko kaskar dekhana chahiye. gupt kalin sanskriti ke ye gunjte hue svar pragti, utsaah, navin path sanshodhan aur bharamukt man ki suchana dete hain. rashtra ke arvachin jivan mein bhi isi prakar ka drishtikon hamein grahn karna avashyak hai. kushan yug ke arambh ki manasik sthiti ka parichai dete hue mahakavi ashvghosh ne to yahan tak kaha tha ki raja aur rishiyon ke un adarsh charitron ko, jinhen pita apne jivan mein pura nahin kar sake the, unke putron ne kar dikhayah—
ragyam ripinam charitani tani kritani putrai rakritani parveः.
nae aur purane ke sangharsh mein is prakar ka suljha hua aur sahaspurn drishtikon rakhna avashyak hai. isse pragti ka maarg khula rahta hai, anyatha bhutakal kanth mein paDe khatakhte ki tarah barbar takrakar hamari haDDiyon ko toDta rahta hai. bharatvarsh jaise desh ke liye ye aur bhi avashyak hai ki wo bhutakal ki jaDpuja mein phansakar usi ko sanskriti ka ang na manne lage. bhutakal ki ruDhiyon se upar uthkar uske nity arth ko grahn karna chahiye. aatma ko parkash se bhar denevali uski sphurti aur prerna svikar karke aage baDhna chahiye. jab karm ki siddhi par manushya ka dhyaan jata hai, tab wo anek doshon se bach jata hai. jab karm se bhaybhit vekti keval vicharon ki uljhan mein phans jata hai, tab wo jivan ki nai paddhati ya sanskriti ko janm nahin de pata. atev avashyak hai ki purvakalin sanskriti ke jo nirmankari tatv hain, unhen lekar hum karm mein lage aur nai vastu ka nirman karen.
isi prakar bhutakal vartaman ka saad bankar bhavishya ke liye vishesh upyogi banta hai. bhavishya ka virodh karke pade pade usse jujhne mein aur uski gati kunthit karne mein bhutakal ka jab upyog kiya jata hai, tab nae aur purane ke beech ek khai ban jati hai. aur samaj mein do prakar ki vichardharayen phailkar sangharsh ko janm deti hain. hamein apne bhutakalin sahity mein atmatyag aur manav seva ka adarsh grahn karna hoga. apni kala mein se adhyatm bhavon ki pratishtha aur saundarya vidhan ke anek rupon aur abhiprayon ko pun svikar karna hoga. apne darshanik vicharon mein se us drishtikon ko apnana hoga, jo samanvay, mel jol, samvay aur sanpriti ke jivan mantr ki shiksha deta hai, jo vishv ke bhavi sambandhon ka ekmaatr niyamak drishtikon kaha ja sakta hai. apne uchchashayvale dharmik siddhanto ko mathkar unka saar grahn karna hoga. dharm ka arth sanpraday ya matavishesh ka agrah nahin hai. ruDhiyan ruchi bhed se bhinn hoti rahi hain aur hoti rahengi. dharm ka matha hua saar hai pryatnpurvak apne aapko uncha banana. jivan ko uthane vale jo niyam hain, ve jab aatma mein basne lagte hain, tabhi dharm ka sachcha arambh manna chahiye. sahity, kala, darshan aur dharm se jo mulyavan samagri hamein mil sakti hai, use nae jivan ke liye grahn karna, yahi sanskritik karm ki uchit shiksha aur sachchi upyogita hai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।