कवियों की उर्मिला-विषयक उदासीनता
kawiyon ki urmila wishayak udasinata
महावीर प्रसाद द्विवेदी
Mahavir Prasad Dwivedi
कवियों की उर्मिला-विषयक उदासीनता
kawiyon ki urmila wishayak udasinata
Mahavir Prasad Dwivedi
महावीर प्रसाद द्विवेदी
और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी
कवि स्वभाव ही से उच्छृंखल होते हैं। वे जिस तरफ़ झुक गए। जी में आया तो राई का पर्वत कर दिया; जी में न आया तो हिमालय की तरफ़ भी आँख उठाकर न देखा। यह उच्छृंखलता या उदासीनता सर्वसाधारण कवियों में तो देखी ही जाती है, आदि कवि भी इससे नहीं बचे। क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक पक्षी को निषाद द्वारा वध किया गया देख जिस कवि-शिरोमणि का हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया, और जिसके मुख से ‘मा निषाद’ इत्यादि सरस्वती सहसा निकल पड़ी, वही पर-दुःख-कातर मुनि रामायण निर्माण करते समय, एक नवपरिणीता दुःखिनी वधू को बिलकुल भूल गया। विपत्ति-विधुरा होने पर उसके साथ अल्पादल्पतरा समवेदना तक उसने न प्रकट की—उसकी ख़बर तक न ली। वाल्मीकि रामायण का पाठ किंवा पारायण करने वालों को उर्मिला के दर्शन सबसे पहले जनकपुर में सीता, मांडवी और श्रुतिकीर्ति के साथ होते हैं। सीता की बात तो जाने ही दीजिए, उनके और उनके जीविताधार रामचंद्र के चरित्र चित्रण ही के लिए रामायण की रचना हुई। मांडवी और श्रुतिकीर्ति के विषय में कोई विशेषता नहीं। क्योंकि आग से भी अधिक संतोष पैदा करनेवाला पति-वियोग उनको हुआ ही नहीं! रही बाल वियोगिनी देवी उर्मिला, सो उसका चरित सर्वथा गेय और आलेख्य होने पर भी, कवि ने उसके साथ अन्याय किया। मुने! इस देवी की इतनी उपेक्षा, इतना कार्पण्य क्यों? क्या इसलिए कि इसका नाम इतना श्रुति-सुखद, इतना मंजुल, इतना मधुर है, और तापस-जनों का शरीर सदैव शीतताप सहने के कारण कठोर और कर्कश होता है—पर नहीं, आपका काव्य पढ़ने से तो यही जान पड़ता है आप कटुता-प्रेमी नहीं। भवतु नाम। हम इस उपेक्षा का एकमात्र कारण भगवती उर्मिला का भाग्यदोष ही समझते हैं। हा हतविधिलसते! परमकारुणिकेन मुनिना वाल्मीकिनापि विस्मृतासि।
हाय वाल्मीकि! जनकपुरी में तुम उर्मिला को सिर्फ़ एक बार, वैवाहिक वधू वेश में, दिखाकर चुप हो बैठे। अयोध्या आने पर ससुराल में उसकी सुध यदि आपको न सही, पर क्या लक्ष्मण के वन-प्रयाण-समय में भी उसके दुःखाश्रु मोचन करना आपको उचित न जँचा? रामचंद्र के राज्याभिषेक की जब तैयारियाँ हो रही थीं, जब राजान्तःपुर ही क्यों, सारा नगर नंदनवन बन रहा था, उस समय नवला उर्मिला कितनी ख़ुशी मना रही थी, सो क्या आपने नहीं देखा? अपने पति के परमाराध्य राम को राज्यसिंहासन पर आसीन देख उर्मिला को कितना आनंद होता, इसका अनुमान क्या आपने नहीं किया? हाय! वही उर्मिला एक घंटे के बाद, राम जानकी के साथ, निज पति को 14 वर्ष के लिए वन जाते देख, छिन्नमूल शाखा की तरह राज सदन की एक एकांत कोठरी में भूमि पर लोटती हुई क्या आपके नयनगोचर नहीं हुई? फ़िर भी उसके लिए आपकी ‘वचने दरिद्रता!’ उर्मिला वैदेही की छोटी बहिन थी। सो उसे बहिन का भी वियोग सहना पड़ा और प्राणाधार पति का भी वियोग सहना पड़ा। पर इतनी घोर दु:खिनी पर भी आपने दया न दिखाई। चलते समय लक्ष्मण को उसे एक बार आँख भर देख भी न लेने दिया। जिस दिन राम और लक्ष्मण, सीता देवी के साथ चलने लगे—जिस दिन उन्होंने अपने पुर-त्याग से अयोध्या नगरी को अंधकार में, नगरवासियों को दुःखोदधि में और पिता को मृत्यु-मुख में निपतित किया, उस दिन भी आपको उर्मिला याद न आई! उसकी क्या दशा थी, वह कहीं पड़ी थी, सो कुछ भी आपने न सोचा? इतनी उपेक्षा!
लक्ष्मण ने अकृत्रिम भ्रातस्नेह के कारण बड़े भाई का साथ दिया उन्होंने राज-पाट छोड़कर अपना शरीर रामचंद्र को अर्पण किया। बहुत बड़ी बात की। पर उर्मिला ने इससे भी बढ़कर आत्मोत्सर्ग किया। उसने अपनी आत्मा की अपेक्षा भी अधिक प्यारा अपना पति राम जी की के लिए दे डाला और यह आत्मसुखोत्सर्ग उसने तब किया जब उसे ब्याह कर आये हुए कुछ ही समय हुआ था। उसने अपने सांसारिक सुख के सबसे अच्छे अंश से हाथ धो डाला। जो सुख विवाहोत्तर उसे मिलता उसको बराबरी 14 वर्ष पति-वियोग के बाद का सुख कभी नहीं कर सकता। नवोढ़त्व को प्राप्त होते ही जिस उर्मिला ने, रामचंद्र और जानकी के लिए, अपने सुख-सर्वस्व पर पानी डाल दिया उसी के लिए अंतर्दर्शी आदि कवि के शब्दभंडार में दरिद्रता!
पति-प्रेम और पति-पूजा की शिक्षा सीता देवी को जहाँ मिली थी, वहीं उर्मिला को भी मिली थी। सीता देवी की सम्मति थी कि—
जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते।
पिय विनु तियहिं तरनि ते ताते॥
उर्मिला की क्या यह भावना न थी? ज़रूर थी। दोनों एक ही घर की थीं! उर्मिला भी पतिपरायण-धर्म को अच्छी तरह जानती थी। पर उसने लक्षमण के साथ वन-गमन की हठ जान बूझकर नहीं की। यदि वह भी साथ जाने को तैयार होती तो लक्ष्मण को अपने अग्रज राम के साथ उसे ले जाते संकोच होता, और उर्मिला के कारण लक्ष्मण अपने उस आराध्य-युग्म की सेवा भी अच्छी तरह न कर सकते। यही सोचकर उर्मिला ने सीता का अनुकरण नहीं किया। यह बात उसके चरित्र की महत्ता की बोधक है। वाल्मीकि को ऐसी उच्चाशय रमणी का विस्मरण होते देख किस कविता-मर्मज्ञ को आंतरिक वेदना न होगी?
तुलसीदास ने भी उर्मिला पर अन्याय किया है। आपने इस विषय में आदि कवि का ही अनुकरण किया है। ‘नानापुराणनिगमागमसम्मत’ लेकर जब रामचरितमानस की रचना करने की घोषणा की थी, तब यहाँ पर आदि काव्य को ही अपने वचनों का आधार मानने की कोई वैसी ज़रूरत नहीं थी। आपने भी चलते वक्त लक्ष्मण को उर्मिला से नहीं मिलने दिया। माता से मिलने के बाद, झट कह दिया—गये लषण जहँ जानकिनाथा।
आपके इष्टदेव के अनन्य सेवक 'लषण' पर इतनी सख्ती क्यों? अपने कमंडलु के करुणानीर का एक भी बूँद आपने उर्मिला के लिए न रखा। सारा का सारा कमंडलु सीता को समर्पण कर दिया। एक ही चौपाई में उर्मिला की दशा का वर्णन कर देते। अथवा उसी के मुँह कुछ कहलाते। पाठक सुन तो लेते कि राम-जानकी के वनवास और अपने पति के वियोग के संबंध में क्या-क्या भावनाएँ उसके कोमल हृदय में उत्पन हुई थीं। उर्मिला को जनकपुर से साकेत पहुँचाकर उसे एकदम ही भूल जाना अच्छा नहीं हुआ।
हाँ, भवभूति ने इस विषय में कुछ कृपा की है। राम, लक्षमण और जानकी के वन से लौट आने पर भवभूति को बेचारी उर्मिला एक बार याद आ गई है। चित्र-फलक पर उर्मिला को देखकर सीता ने लक्ष्मण से पूछा—इयमप्यपरा का?' अर्थात् लक्ष्मण, यह कौन है? इस प्रकार देवर से पूछना कौतुक से खाली नहीं। इसमें सरसता है। लक्ष्मण इस बात को समझ गए। वे कुछ लज्जित होकर मन ही मन कहने लगे—“उर्मिला को सीता देवी पूछ रही हैं।” उन्होंने सीता के प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही उर्मिला के चित्र पर हाथ रख दिया। उनके हाथ से वह ढक गया। कैसे खेद की बात है कि उर्मिला का उज्ज्वल चरित्र कवियों के द्वारा भी आज तक इसी तरह ढकता आया।
- पुस्तक : सम्मेलन निबंध माला (भाग 2) (पृष्ठ 12)
- संपादक : गिरिजदत्त शुक्ला व ब्रजबहुषण शुक्ल
- रचनाकार : महावीर प्रसाद द्विवेदी
- प्रकाशन : गिरिजदत्त शुक्ला व ब्रजबहुषण शुक्ल
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