बहुत से महापुरुष कविता की उपयोगिता को स्वीकार तो किसी प्रकार करते हैं, पर शृंगार-रस उनके निर्मल नेत्रों में कुछ खार सा या तेज़ तेज़ाब सा खटकता है वह शृंगार की रसीली लता को विषैली समझ कर कविता-वाटिका से एकदम जड़ से उखाड़ फेंकने पर तुले खड़े हैं। उनकी शुभ सम्मति में शृंगार ही सब अनर्थों की जड़ है। शृंगार-रस के 'अश्लील' काव्यों ने ही संसार में अनाचर और दुराचार का प्रचार किया है, शृंगार के साहित्य का संसार से यदि आज संहार कर दिया जाए तो सदाचार का संचार सर्वत्र अनायास हो जाए; फिर संसार के सदाचारी और ब्रह्मचारी बनने में कुछ भी देर न लगे। कई महानुभाव तो भारतवर्ष की इस वर्तमान अधोगति के 'श्रेय का सेहरा' भी शृंगार के सिर पर ही बाँधते हैं। उनकी समझ में शृंगार-रस ही की मूसलाधार अति-वृष्टि ने देश को डुबोकर रसातल पहुँचाया है।
ठीक है, अपनी-अपनी समझ ही तो है। इस विचार के लोग भी तो हैं जो कहते हैं कि वेदांत के विचार और उपनिषदों में वर्णित अध्यात्म भावों के प्रचार ने ही देश को अकर्मण्य, पुंसत्व-विहीन और जाति को हीन-दीन बनाकर वर्तमान दशा में पहुँचाया है। फिर वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के विरोधियों की भी कुछ कमी नहीं है, वह इस शिक्षा को ही सब अनर्थों की जननी जान कर धिक्कार रहे हैं। यदि यह पिछले मत ठीक हैं, तो पहला भी ठीक हो सकता है। जब अंतिम रस (शांत) संसार की अशांति का कारण हो सकता है तो आदिम (शृंगार) भी अनर्थ का मूल सही। पर तनिक ध्यान देकर देखा जाए तो अपनी-अपनी जगह सब ठीक हैं—
गुल हाय रँगा रंग से है ज़ीनते चमन।
ऐ जौक़ इस जहाँ को है ज़ेब इख़्तलाफ़ से॥
पदार्थ-वैचित्र्य के साथ रुचि-वैचित्र्य भी सदा से है और सदा रहेगा। यह विवाद कुछ आज का नहीं, बहुत पुराना है। पहले यहाँ शृंगार-रस-प्राधान्य वादियों का एक पक्ष था। उसका मत था कि शृंगार ही एक रस है, वीर अद्भुत आदि में रस की प्रसिद्धि गतानुगतिकता की अंध परंपरा से यों ही हो गई है। इस मत के समर्थन में सुप्रसिद्ध भोजदेव ने ‘शृंगार-प्रकाश’ नामक ग्रंथ लिखा था, जिसका उल्लेख विद्याधर ने अपनी ‘एकावली’ के रस प्रकरण में इस प्रकार किया है—
राजा तु शृंगारमेकमेंव 'शृंगार प्रकाशे'
रस, मुररी चकार
इसी प्रकार एक दूसरा पक्ष था, जो शृंगार को एक दम अव्यवहार्य समझता था। वह केवल शृंगार का ही नहीं, शृंगार-वर्णन के कारण काव्य-रचना ही का विरोधी था। उसकी आज्ञा थी—असभ्य-अश्लील अर्थ का प्रतिपादक होने के कारण काव्य का उपदेश काव्य-रचना, नहीं करना चाहिए।
इसके उत्तर में काव्य मीमांसा के आचार्य कवि कुल शेखर 'राजशेखर' कहते हैं कि क्रम प्राप्त ऐसे विषय विशेष का वर्णन अपरिहार्य है। वह होना ही चाहिए, वह काव्य का एक अंग है, प्रकरण में पड़ी बात कैसे छोड़ी जा सकती है? जो बात जैसी है कवि उसका वैसा वर्णन करने के लिए विवश है। शृंगार की सामग्री तत्संबंधी नाना प्रकार के दृश्य जब जगत् में प्रचुर परिमाण में सर्वत्र प्रस्तुत हैं तब कवि उनकी ओर से आँखें कैसे बंद कर ले? तद्विषयक वर्णन क्यों न करें? फिर कवि ही ऐसा करते हों, केवल वही इस 'असभ्याभिधान' अपराध के अपराधी हों, यह बात भी तो नहीं। राजशेखर कहते हैं कि जिसे तुम असभ्य और अश्लील कहते हो श्रुतियों में और शास्त्रों में भी तो पाया जाता है।
इसके आगे कुछ श्रुतियाँ और शास्त्र वचन उद्धृत करके राजशेखर ने अपने उक्त मत की पुष्टि की है। उनके उद्धृत वचनों के आगे कवियों के 'अश्लील' वर्णन भी लज्जा से मुँह छिपाते हैं।
वास्तव में देखा जाए तो कवियों पर असभ्यता या अश्लीलता के प्रचार का दोषारोपण करना उनके साथ अन्याय करना है। कवियों ने अश्लीलता को स्वयं दोष मानकर उससे बचे रहने का उपदेश दिया है। काव्य-दोषों में अश्लीलता एक मुख्य दोष माना गया है। फिर कवि अश्लीलता का उपदेश देने के लिए काव्य-रचना करें, यह कैसे माना जा सकता है?
शृंगार-रस के काव्यों में परकीया आदि का प्रसंग कुरुचि का उत्पादक होने से नितांत निंदनीय कहा जाता है। यह किसी अंश में ठीक हो सकता है पर ऐसे वर्णनों से कवि का अभिप्राय समाज को नीति-भ्रष्ट और कुरुचि-संपन्न बनाने से नहीं होता, ऐसे प्रसंग पढ़कर धूर्त विटों की गूढ़ लीलाओं के दाँव-घात से परिचय प्राप्त करके सभ्य समाज अपनी रक्षा कर सके, इस विषय में सतर्क रहे, यही ऐसे प्रसंग वर्णन का प्रयोजन है। काव्यालंकार के निर्माता रुद्रट ने भी यही बात दूसरे ढंग से कही है। रुचिभेद और अवस्था-भेद से काव्यों के कुछ वर्णन किन्हीं विशेष व्यक्तियों को अनुचित प्रतीत हों, यह और बात है, इससे ऐसे काव्य की अनुपयोगिता सिद्ध नहीं होती, अधिकार भेद की व्यवस्था सब जगह समान है। काव्य-शास्त्र भी इसका अपवाद नहीं है। कौन कहता है कि वृद्ध जिज्ञासु बाल ब्रह्मचारी, मुमुक्षुपति और जीवन्मुक्त संयासी भी काव्य के ऐसे प्रसंगों को अवश्य पढ़ें। ऐसे पुरुष काव्य के अधिकारी नहीं हैं। फिर यह भी कोई बात नहीं है कि जो चीज़ इनके लिए अच्छी नहीं है वह औरों के लिए भी अच्छी न हो। इनकी रुचि को सब की रुचि का आदर्श मानकर संसार का काम कैसे चल सकता है?
काव्यों के विषय की आप लाख निंदा कीजिये, अश्लील और गंदे बतलाकर उनके विरुद्ध कितना ही आंदोलन कीजिये, पर जब तक चटपटी भाषा का चटखारा सहृदय समाज से नहीं छूटता—जिसका छूटना असंभव नहीं तो अत्यंत कठिन अवश्य है सहृदयता के साथ इसका बड़ा गहरा अटूट संबंध है—तब तक काव्यों का प्रचार रुक नहीं सकता। बड़े बड़े सुरुचि-संचारक और प्रचारकों और धार्मिक उपदेशकों तक को देखा गया है कि श्रोताओं पर अपनी वक्तृता का रंग जमाने के लिए उन्हें भी काव्यों की लच्छेदार भाषा और सुंदर सूक्तियों, अनोखी अन्योक्तियों का बीच-बीच में सहारा लेना ही पड़ता है। अच्छी भाषा पढ़ने सुनने का लोगों का 'दुर्व्यसन' भी हमारे सुधारकों के काव्य-विरोध विषयक प्रयत्नों को अधिकांश में निष्फल कर देता है। ईश्वर करे यह 'दुर्व्यसन' बना रहे।
यह समझना एक भारी भ्रम है कि काव्यों के पढ़ने वाले अवश्य ही कुरुचि-संपन्न लोग होते हैं। शृंगार रस की चाशनी चखने की स्वाभाविक रुचि ही काव्यों की ओर पाठकों को नहीं खींचती, भाषा के माधुर्य की चाट भी कुछ कम नहीं होती!
चाहे अपने मत से इसे देश का 'दुर्भाग्य' ही समझिये कि हमारे कवियों ने प्रकाश के देवता से अंधकार का काम क्यों लिया, ऐसी सुंदर भाषा का दुरुपयोग ऐसे 'भ्रष्ट' विषय के वर्णन में क्यों कर गए? पर जो कर गए सो कर गए, जो हो गया सो हो गया। वह समय कुछ ऐसा था, समाज की रुचि ही कुछ वैसी थी, और अब दुबारा ऐसे कवि यहाँ पैदा होने से रहे जो वर्तमान सभ्य समाज की सुरुचि के अनुसार सामयिक विषयों का ऐसी ललित, मधुर, परिष्कृत और फड़कती हुई जानदार भावमयी भाषा में वर्णन करके मुर्दा दिलों में जान डाल जाए, सोते हुओं को जगा जाए और जागतों को किसी काम में लगा जाए। हमारी भाषा की बहार बीत गई, अब कभी खत्म न होने वाली 'ख़िज़ाँ' के दिन हैं। भाषा के रसिक भौंरे कान देकर सुनें और आँख खोलकर देखें, कोई पुकार कर कह रहा है—
जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सुबीति बहार।
अब अलि रही गुलाब की अपत कटीली डार॥
जिस भावहीन निर्जीव भाषा में नीरस कर्णकटु काव्यों की आज दिन सृष्टि हो रही है, उससे सुरुचि का संचार हो चुका! यह सहृदय समाज के हृदयों में घर कर चुकी! यह सूखी टहनी साहित्य-क्षेत्र में बहुत दिन खड़ी न रह सकेगी। कोरे काम चलाऊपन के साथ भाषा में सरसता और टिकाऊपन भी अभीष्ट है तो इसके निस्सार शरीर में प्राचीन साहित्य के रस का संचार होना अत्यावश्यक है। विषय की दृष्टि से न सही, भाषा के महत्व की दृष्टि से भी देखिये, तो शृंगार रस के प्राचीन काव्यों की उपयोगिता कुछ कम नहीं है। यदि अपनी भाषा को अलंकृत करना है तो इस पुरानी काव्यवाटिका से, जिसे हज़ारों चतुर मालियों ने सैकड़ों वर्ष तक दिल के ख़ून से सींचा है, सदा बहार फूल चुनने ही पड़ेंगे। काँटों के डर से रसिक भौंरा पुष्पों का प्रेम नहीं छोड़ बैठता; मकरंद के लिए मधु-मक्षिकाओं को इस चमन में आना ही होगा। यदि वह इधर से मुँह मोड़ कर 'सुरुचि' के ख़याल में स्वच्छ आकाश-पुष्पों की तलाश में भटकेंगी तो मधु की एक बूँद से भी भेंट न होगी। हमारे सुशिक्षित समाज की 'सुरुचि' जब भाषा विज्ञान के लिए उसी प्रकार का विदेशी साहित्य पढ़ने की आज्ञा ख़ुशी से दे देती है तो मालूम नहीं अपने ही साहित्य से उसे ऐसा द्वेष क्यों है? परमात्मा इस 'सुरुचि' के साहित्य की रक्षा करे—
घर से वैर अपर से नाता।
ऐसी बहू मत देहु विधाता॥
बिहारी की कविता शृंगारमयी कविता है, यद्यपि इसमें नीति, भक्ति, वैराग्य आदि के दोहों का भी सर्वथा अभाव नहीं है। रस रंग में भी बिहारी ने जो कुछ कहा है, वह परिणाम में थोड़ा होने पर भी भाव-गांभीर्य, लोकोत्तर चमत्कार आदि गुणों में सब से बढ़ा-चढ़ा है, ऐसे वर्णनों को पढ़ सुनकर बड़े-बड़े नीति-धुरंधर, भक्त-शिरोमणि और वीतराग महात्मा तक झूमते देखे गए हैं। फिर भी बिहारी की सतसई का मुख्य विषय शृंगार ही है। उसमें दूसरे रसों की चाशनी 'मजा मुँह का बदलने के लिए है। जिस प्रकार संस्कृत काव्य 'अमरुशतक' और 'शृंगारतिलक' पर कुछ भगवद्भक्त टीकाकारों ने भक्ति और वैराग्य की तिलक-छाप लगा कर उन्हें अपने मत की दीक्षा दे डाली है, इसी प्रकार किसी-किसी प्रखरबुद्धि टीकाकार ने बिहारी की सतसई पर भी अपना रंग जमाने की चेष्टा की है। किसी ने उसमें से वैद्यक के नुस्खे निकालने का प्रयत्न किया है, किसी ने गहरे अध्यात्म भावों की उद्भावना की है। अस्तु बिहारी-सतसई जैसी कुछ है, सहृदय कविता-मर्मज्ञों के सामने है! वह न आध्यात्मिक भावों के रूप में परिणत हो सकती है, न सामयिकता के साँचे में ही ढाली जा सकती है। वह तो शृंगार-मूर्तिमती ही मानी जाएगी। तथापि उसकी चमत्कृति और मनोहरता में कमी नहीं हुई। इसका प्रमाण इससे अधिक और क्या होगा कि समय ने समाज की रुचि बदल दी; पर वर्तमान समय के सुरुचि-संपन्न कविता-प्रेमियों का अनुराग उस पर आज भी वैसा ही बना है। पहले पुराने ख़याल के 'खूसट' जैसे लट्टू थे, आज नयी रोशनी के परवाने भी वैसे ही सौ जान से फिदा है! उसके तीव्र तथा स्थायी आकर्षण का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि समय-समय पर अनेक कवि विद्वानों ने उस पर पद्य में, गद्य में संस्कृत और हिंदी में टीका तिलक किये, पर वह अभी वैसी ही बनी है। उसके जौहर पूरी तरह खुलने से नहीं पाते, गहराई की थाह नहीं मिलती। पहली उस पर टीकाओं से पाठकों को तृप्ति न हुई, नई-नई टीकायें बनी; फिर भी चाट बनी है कि और बने। सतसई और उसके टीकाकारों को लक्ष्य में रखकर ही मानों कवि ने पर्याय से यह कहा है—
लिखन बैठि जाकी सबहिं गहि-गहि गरब-गरूर।
भये न केते जगत् के चतुर चितेरे कूर॥
कोई भी टीकाकार-चितेरा अपने अनुवाद-चित्र द्वारा बिहारी की कविता-कामिनी के अलौकिक लावण्य भरित भाव-सौंदर्य का यथार्थ तथ्य अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं हो सका, सब खाली ख़ाके खींचकर ही रह गए। इससे बढ़ कर शृंगार की महिमा क्या होगी? पाठक स्वयं विचार कर देख ले।
- पुस्तक : कोविद गद्य (पृष्ठ 74)
- संपादक : श्री नारायण चतुर्वेदी
- रचनाकार : पदमसिंह शर्मा
- प्रकाशन : रामनारायण लाल पब्लिशर और बुक
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