जगप्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी महात्मा सौक्रेटीज का मत था कि यदि संसार के मनुष्य मात्र की आपत्तियाँ एक ठौर एकत्र की जाए और फिर सबको बराबर-बराबर हिस्सा बाँट दिया जाए तो इस प्रबंध से भी उन मनुष्यों को संतोष नहीं हो सकता जो पहले अपने को अत्यंत अभागा वा विपद्ग्रस्त समझते थे, क्योंकि वे शीघ्र ही यह विचारने लगेंगे कि हमारी पूर्व दशा ही अच्छी थी। इसका कारण यह है कि जो दशा अच्छी वा बुरी विधना की ओर से हमें मिली है वह या तो (१) हमारी सहन-शक्ति के योग्य होती है, या (२) उसमें रहने से हम उसको सहन करने में अभ्यस्त हो जाते हैं, और इस कारण दोनों अवस्थाओं में से कोई भी हमें नहीं खलती । महाकवि होरेस भी इस विषय में सोक्रेटीज से सहमत थे। इन्होंने यहाँ तक लिखा कि जिन कठिनाइयों वा यातनाओं में हम पिसते रहते हैं वे उन आपत्तियों की अपेक्षा बहुत ही न्यून है जो हमको अपनी दशा दूसरे से परिवर्तन करने में मिल सकती है।
मैं अपनी आरामकुर्सी पर बैठा उक्त दो कथनों पर विचार कर रहा था और अपनी मानसिक तरंगों में निमग्न था, कि मुझे झपकी-सी आ गई और मैं तुरंत खर्राटे लेने लग गया। सोते-सोते देखता क्या हूँ कि मैं एक रमणीक मैदान में जा पहुँचा हूँ जिसके चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वत श्रेणीबद्ध खड़े है। इन पर्वतों ने हरी वनस्पतियों से अपने प्रत्येक अंग को ऐसा ढक रखा है कि क्या मजाल जो कहीं भी खुला दिखाई दे जाए। इनके ढाल पर छोटे-छोटे वृक्षों के बीच में
कहीं-कहीं कोई बड़ा वृक्ष देखने में बहुत भला लगता था। यद्यपि प्रकृति-रूपी माली ने इस मैदान में एक भी बड़ा वृक्ष रहने नहीं दिया है, पर मैदान की हरी-हरी घास वायु के हिलोरों में लहलहाती हुई कैसी प्यारी लग रही है! मैं इन्हीं मानसिक भावों को तरंगों में अपने आपको भूल, प्रकृति की अनुपम शोभा देख रहा था कि सहसा मुझे कुछ शब्द सुनाई पड़े। ध्यान देकर सुनने से जान पड़ा कि जैसे कहीं ढिंढोरा पिटता हो। पास के एक मनुष्य से पूछने पर मालूम हुआ कि भगवान् चतुरानन ने आज्ञा दी है कि मनुष्य मात्र आकर अपनी-अपनी आपत्तियाँ इस स्थान में फेंक जायें। इस कार्य के लिए यह मैदान नियत किया गया है। यह सुनकर मैं भी, इस कौतुकमय लीला को देखने के लिये, एक कोने में खड़ा हो गया। मुझे यह देखकर एक प्रकार की प्रसन्नता होती थी कि सारे मनुष्य क्रमशः आ आकर अपनी-अपनी विपत्ति की गठरी मैदान मे फेंक रहे है। यह ढेर थोड़ी ही देर में इतना बड़ा हो गया कि आकाश को छूता दिखाई पड़ने लगा।
इस भीड़-भाड़ में एक दुबली-पतली चंचला स्त्री बड़ा उत्साह दिखा रही थी। ढीला-ढाला वस्त्र पहने, हाथ में म्यागनीफाइंग ग्लास लिए वह इधर-उधर घूमती दिखाई दे रही थी। उसके वस्त्र मे भूत-प्रेत के मनःकल्पित चित्र बेल-बूटों में कढ़े थे। जब उसका वस्त्र वायु में इधर-उधर उड़ता तब बहुत-सी विचित्र ढंग की हास्यजनक एवं भयानक कल्पित मूर्तियाँ उसमें दिखाई पड़ती। उसकी चेष्टा से उन्माद तथा विह्वलता के कुछ चिह्न झलक रहे थे। लोग उसे भावना कहकर पुकारते थे। मैंने देखा कि वह चंचला प्रत्येक मनुष्य को अपने साथ ढेर के पास ले जाती, बड़ी उदारता से उनकी गठरी कंधे पर उठवा देती और अंत में उसको फेंकने में भी पूरी सहायता देती है। मेरा हृदय यह दृश्य देखकर, कि सभी मनुष्य अपने विपद्भार के नीचे दब रहे है, भर आया। आपत्तियों का यह पर्वत देखकर मेरी चित्त और भी चलायमान हो रहा था।
इस स्त्री के अतिरिक्त और भी कई मनुष्य मुझे इस भीड़ में विचित्र दिखाई पड़े। एक को देखा कि वह चिथड़ों की गठरी अपने लबादे के भीतर बड़ी सावधानी से छिपाए हुए आया है। जब उसे फेंकने लगा तब मैंने देखा कि वह अपने दारिद्रथ को फेंक रहा है। एक दूसरे को देखा कि बड़े पश्चात्ताप के साथ अपनी गठरी फेंककर चलता हुआ मैंने उसके जाने पर उसकी गठरी खोलकर देखी तो मालूम हुआ कि दुष्ट अपनी अर्धांगिनी को फेंक गया है जिससे उसको सुख की अपेक्षा अति दुःख प्राप्त होता था। इसके अनंतर दिखाई दिया कि बहुतेरे प्रेमीजन अपनी-अपनी गुप्त गठरी लिए आ रहे हैं।
पर सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि यद्यपि ये लोग अपनी-अपनी गठरियाँ फेंकने के हेतु लाए थे, और उनके दीर्घ निःश्वास से जान पड़ता था कि उनका हृदय इस बोझ के नीचे
दबकर चूर-चूर हुआ जाता है, पर उस ढेर के निकट पहुँचने पर उनसे फेंकते नहीं बनता।
ये लोग कुछ काल तक खड़े न जाने क्या सोचते रहे। उनकी चेष्टा से अब ऐसा जान पड़ने लगा कि उनके चित्त में मानो बड़ा संकल्प-विकल्प हो रहा है। फिर शीघ्र ही उनका मुख प्रफुल्ल दिखाई पड़ने लगा और वे अपनी-अपनी गठरी ज्यों कि त्यों लिए वहाँ से चलते दिखाई दिए। मैं समझ गया। इन लोगों ने तर्क-वितर्क के पश्चात् यही निश्चय किया कि अपनी-अपनी दला अपने पास ही रखना भलमनसाहत है। इसी से ये सब अपनी गठरियाँ अपने घर लिए जा रहे हैं। मैंने देखा कि बहुत सी मनचली बूढ़ी स्त्रियाँ, जिनके मन की अभी सुख सभोग से तृप्ति नहीं हुई थी और जो चाहती थीं कि हम सदा नवयौवना ही बनी रहें, अपनी झुर्रियाँ फेंकने के लिये आ रही है। बहुतेरी अल्पवयस्का छोकड़ियाँ अपना काला वर्ण फेंक रही हैं और यह चाहती हैं कि मेरा रंग गोरा हो जाए। किसी ने अपनी बड़ी नाक, किसी ने नाटा कद और किसी ने अपनी बड़ी पेटी फेंक दी है और यह प्रार्थी हुई हैं कि मेरी तोंद की परिधि कुछ कम हो जाए या यदि रहे भी तो कुछ ऊँचाई अधिक मिल जाए। किसी ने अपना कुबड़ापन प्रसन्नतापूर्वक ढेर में फेंक दिया है। इसके पश्चात् रोगियों का दल आया जिसने अपना-अपना रोग अलग कर दिया। पर मुझे सबसे आश्चर्यजनक यह जान पड़ा कि मैंने इन सब मनुष्यों में किसी को भी अब तक ऐसा नहीं देखा जो अपने दोषों वा अपनी मूर्खता से अलग होने आया हो। मैंने पहले सोचा था कि मनुष्य मात्र इस समय अवसर पा अपना-अपना मनोविकार फेंक जाएँगे।
अब मैंने देखा कि कोई-कोई मनुष्य पत्र के बंडल बगल में दवाएंँ बड़ी व्यग्रता से फेंकने को दौड़े आ रहे हैं। क्यों भाई! यह पत्रो का बंडल कैसा? मालूम हुआ कि यह दफ़ा १२४ ए० है, जिसने इन महाशयो को चिंताकुल कर रखा है, एवं इनके व्यापार में बाधा डाल रखी है। इसके अनंतर एक मूर्ख को देखा कि वह अपने अपराधों को बंडल में बाँधकर फेंकने ले आया है, किंतु अपराधों को फेंकने के बदले अपनी चेतनाशक्ति को फेंके देता है। एक-दूसरे महापुरुष अविद्या के स्थान में नम्रता को पटककर भागे जाते हैं।
जब इस प्रकार मनुष्यमात्र अपने अवगुणों की गठरियाँ फेंक चुके, तब वह चंचला युवती फिर दिखाई पड़ी, पर इस बार वह मेरी ओर आ रही है। यह देख मेरे जी मे अनेक प्रकार के विचार उठने लगे। पर उसकी मदमाती चाल कुछ ऐसी भली मालूम हुई कि मैं एकटक उसी ओर देखता रहा। उसके अंग-अंग में ऐसी चंचलता भरी थी कि चलने में एक-एक अंग फड़कता था। मैं यह देख ही रहा था कि वह आ पहुँची और जैसे कोई किसी को दर्पण दिखावे, उसने अपने बृहदर्शक यंत्र को मेरे सम्मुख किया। मैं अपने चेहरे को उसमें देखकर चौक पड़ा। उसकी अपरिमित चौड़ाई पर मुझे बड़ी ग्लानि हुई और उसको उपमुख के समान उतारकर मैंने भी फेंक दिया। संयोग से जो मनुष्य मेरी बगल में खड़ा था उसने अभी कुछ देर पहले अपने बेढंब लंबे चेहरे को अलग कर दिया था। मैंने सोचा कि मुझे अपने लिये दूसरा चेहरा कहीं दूर खोजने नहीं जाना पड़ेगा और उसने भी यही सोचा कि उसे भी पास ही अपने योग्य सुडौल चेहरा मिल जाएगा। मनुष्य मात्र अपनी आपत्तियाँ फेंक चुके थे। इस कारण अब उन सबको अधिकार था कि, अपने लिए, चाहें ढेर में से ले लें।
वास्तव में मुझे यह देख बड़ी प्रसन्नता होती थी कि संसार के सब मनुष्यों ने अपनी-अपनी विपदा फेंक दी है। उनकी आकृति से संतोष लक्षित हो रहा था। अपने कार्य से छुट्टी पा सभी इधर-उधर टहल रहे थे। पर अब मुझे यह देख आश्चर्य हो रहा था कि बहुतों ने जिसे आपत्ति समझकर अलग कर दिया था उसी के लिए बहुतेरे मनुष्य टूट रहे थे, एवं मनही मन यह कहते थे कि ऐसे स्वर्गीय पदार्थ को जिसने फेंक दिया है वह अवश्य कोई मूर्ख होगा। अब भावना देवी फिर चंचल हुई और इधर-उधर दौड़ धूप करने लगी। सबको फिर बहकाने लगी कि तू अमुक पदार्थ ले, अमुक वस्तु न ले।
इस समय सारी भीड़ में जो कोलाहल मच रहा था उसका वर्णन नहीं हो सकता। मनुष्य मात्र में एक प्रकार की खलबली फैल रही थी। क्या बालक, क्या वृद्ध, सभी अपने-अपने मनो- वांछित पदार्थ ढूँढ़ निकालने में दत्तचित्त हो रहे थे।
मैंने एक वृद्ध को, जिसे अपने एक उत्तराधिकारी की बड़ी चाह थी, देखा कि एक बालक को उठा रहा है। इस बालक को उसका पिता उससे दुःखी होकर फेंक गया था। मैंने देखा कि इस दुष्ट पुत्र ने कुछ देर बाद उस वृद्ध के नाकों मे दम कर दिया। वह बेचारा अंत में फिर यही विचारने लगा कि मेरा पूर्व क्रोध ही मुझे मिल जाए। संयोग से इस बालक के पिता से उसकी भेट हो गई। इस वृद्ध ने उससे सविनय कहा कि महाशय! आप अपना पुत्र ले लीजिए और मेरा क्रोध मुझे लौटा दीजिए। पर अब ऐसा करने में वह समर्थन था। एक जहाजी नौकर ने अपनी बेड़ी फेंक दी थी और बदले मे वात रोग की गठरी उठा ली थी। पर इससे उसका स्वरूप ऐसा विचित्र हो गया था कि देखते नहीं बनता था। इसी प्रकार सभी ने कुछ न कुछ हेरा-फेरी की। किसी ने अपने दारिद्रय के पलटे में कोई रोग पसंद किया, किसी ने क्षुधा देकर अजीण उठा लिया। बहुतेरों ने अपनी पीड़ा के बदले कोई चिंता ले ली। पर सबसे अधिक लिया ही इस हेरा-फेरी में दिखाई देती थी। इन्हें अपने नाक, कान वा चेहरे मोहरे के चुनने में बड़ी कठिनाई मालूम पड़ती थी। कोई अपने मुख पर के तिल से लंबे-लंबे केश बदल रही है, किसी ने पतली कमर के बदले चौड़ा सीना लेने की इच्छा प्रकट की है। किसी ने अपनी कुरूपता देकर वेश्यावृत्ति ग्रहण करना ही सस्ता समझ लिया है। जो हो, पर ये अबलाएँ अबला होने के कारण वा अपनी तीक्ष्णता के कारण अपनी नवीन दशा को शीघ्र ही समझ जाएँगी एवं अपनी पूर्व दशा को प्राप्त करने और नवीन के त्यागने में सबसे पहले तत्पर हो जाएँगी।
मुझे सबसे अधिक दया उस कुबड़े पर आती है जिसने अपना कूबड़ापन बदलकर पैर का लेंगड़ापन पसंद किया था।
अब मैं अपना वृत्तांत सुनाता हूँ। मैं पहले कह चुका हूँ कि मेरे बगलवाले मनुष्य ने मेरा छोटा मुख अपने लिए चुन रखा था। उसने अवसर पाते ही मेरा चेहरा उठा लिया और प्रसन्नतापूर्वक अपने चेहरे पर लगा लिया। मेरा गोल चेहरा लगाते ही वह ऐसा कुरूप तथा हास्यजनक दिखाई पड़ने लगा कि मैं हँसी न रोक सका। वह भी मेरी हँसी ताड़ गया और अपने किए पर अपने मन में पछताने लगा। अब मेरे मन में भी यह विचार उठा कि कही मैं भी वैसा ही बेढंगान दिखाई पड़ता हो। नवीन चेहरा पाकर मैंने अपना माथा खुरचने के लिये हाथ बढ़ाया तो माथे का स्थान फूल गया। हाथ होठों तक पहुँचकर रुक गया। नाक के स्थान का भी ठीक-ठीक अनुभव न था। इसी से उँगलियों की कई बार ऐसी ठोकर लगी कि नेत्रों में जल भर आया। मेरे पास ही दो मनुष्य ऐसी बेढब सूरतवाले खड़े थे जिन्हें देख-देख मैं मन ही मन हँस रहा था।
वह सारा ढेर इस प्रकार मनुष्यों ने आपस में बॉट लिया पर वास्तविक संतोप को वे तिस पर भी न प्राप्त कर सके। जो बुद्धिमान थे उन्हें अपनी मूर्खता का बोध पहले होने लगा। सारे मैदान में पहले से अधिक विलाप और भनभनाहट का शब्द सुनाई देने लगा। जिधर दृष्टि पड़ती थी उसी ओर लोग बिलख रहे थे और ब्रह्मा की दुहाई दे रहे थे। जब ब्रह्मा ने देखा कि अब बड़ा हाहाकार मच गया है और यदि शीघ्र इनका उद्धार न किया गया तो और भी हाहाकार मच जाएगा, तब उन्होंने फिर आज्ञा दी कि मनुष्य मात्र फिर अपनी-अपनी आपत्तियाँ फेंक दे, उनको उनकी पुरानी आपत्ति दे दी जाएगी। यह आज्ञा सुन सबके जी में जी आया। सभी लोग जो उपस्थित थे मुग्ध हो गए, एवं जय ध्वनि करने लगे। सबने पुनः अपनी-अपनी गठरी फेंक दी। इस बार एक विशेषता देखने मे आई। वह यह थी कि ब्रह्मा ने उस चंचला स्त्री को आज्ञा दी कि वह तत्क्षण कहाँ से चली जाए। यह आज्ञा पाते ही भावना देवी वहाँ से चल दी। उसको वहाँ से जाना था कि एक दूसरी आती दिखाई पड़ी। पर इसकी उसकी आकृति में इतना अधिक भेद था कि दोनों की तुलना करना कठिन है। पर हाँ, दो चार मोटी-मोटी बातों पर विवेचना करके उनका अंतर दिखा देना हम आवश्यक समझते है। पहली स्त्री के चंचल नेत्र तथा चाल ढाल ऐसी मनमोहनी थी कि एक अनजान भोले-भाले चित्त को मुट्ठी में कर लेना उसके लिये कोई बड़ी बात न थी, पर इस नई स्त्री की आकृति कुछ और ही कह रही थी। इसको देखते ही चित्त में भय तथा सम्मान का संचार उत्पन्न हो आता था और चित्त यही चाहता था कि घंटो इसे खड़े देखा करें। जिस प्रकार विधना ने उसके अंग मे चंचलता कूट-कूटकर भर दी थी, उसी प्रकार इसके प्रत्येक अंग से शांति तथा गंभीरता बरस रही थी। यदि उसे आप शिशुवत् चंचला कहें तो इसे आपको अवश्य ही शांति देवी की मूर्ति कहना पड़ेगा। इसके चेहरे से यद्यपि गंभीरता का भाव लक्षित होता था, पर साथ ही एक मंद मुसकान दिखाई देती थी जिसका चित्त पर बड़ा दृढ़ प्रभाव पड़ता था। ज्यों ही यह, देवी मैदान में पहुँची समस्त नेत्र इसकी ओर आकर्षित हो गए । यह धीरे-धीरे आपत्तियों के पर्वत पर चढ़ गई। इसका उस ढेर पर चढ़ना था कि वह ढेर पहले की अपेक्षा तिगुना कम दिखाई देने लगा। न जाने इसमें क्या भेद था कि जितनी आपत्तियाँ थी, सभी कठोरता रहित और कोमल दिखलाई पड़ने लगी। मैं अतिव्यग्र हो इस देवी का नाम पूछने लगा। इस पर एक दयावान् ने झिड़ककर उत्तर दिया, रे मूर्ख। तू क्या इनसे परिचित नहीं है? इन्हीं का नाम धीरता देवी है। अब ये देवी प्रत्येक मनुष्य को उसका पूर्व भाग बाँटने लगी और साथ ही साथ सबको समझाती जाती थीं कि इस संसार में किस प्रकार अपनी-अपनी आपत्तियों को धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिए। जो मनुष्य उनकी वक्तता सुनता, वह संतुष्ट हो वहाँ से जाता दिखाई देता था। मैं इस रूपक के देखने में ऐसा निमग्न था कि सारी मनुष्यजाति अपना-अपना भाग ले अपने-अपने निवास स्थान को सिधारी, मैं वहीं ज्यों का त्यों खड़ा सब लीला देखता रहा, यहाँ तक कि जब उस स्त्री के पास जाने और अपना विपत्ति-भाग लेने की मेरी बारी आई तब भी मैं अपने स्थान से नहीं टसका। इस पर एक आदमी मेरी ओर आता दिखाई पड़ा। मेरे पास आते ही पहले तो वह मुझसे कहने लगाकि तुम वहाँ क्यों नही जाते?” इस पर मैं कुछ उत्तर दिया ही चाहता था कि ऊं ऊं ऊं करके उठ बैठा और नींद खुल गई। नींद खुलते ही नेत्र फाड़-फाड़कर इधर–उधर देखने लगा। न तो कहीं वह रमणीक स्थान था, न कहीं वह स्त्री थी, केवल मैं अपनी शय्या पर पड़ा था। मैं विचित्र स्वप्न पर विचार करने लगा। अंत में मैंने यही सारांश निकाला कि वस्तुतः इस ससार में मनुष्य के लिये धैर्यपूर्वक अपनी आपत्तियों का सहन करना और कभी किसी दूसरे की दशा को ईर्ष्या की दृष्टि से न देखना ही सुख का मूल है।
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main apni aramakursi par baitha ukt do kathnon par vichar kar raha tha aur apni manasik tarangon mein nimagn tha, ki mujhe jhapki si aa gai aur main turant kharrate lene lag gaya. sote sote dekhta kya hoon ki main ek ramnik maidan mein ja pahuncha hoon jiske charon or unche unche parvat shrenaibaddh khaDe hai. in parvton ne hari vanaspatiyon se apne pratyek ang ko aisa Dhak rakha hai ki kya majal jo kahin bhi khula dikhai de jaye. inke Dhaal par chhote chhote vrikshon ke beech men
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mujhe sabse adhik daya us kubDe par aati hai jisne apna kubDapan badalkar pair ka lengDapan pasand kiya tha.
ab main apna vrittant sunata hoon. main pahle kah chuka hoon ki mere bagalvale manushya ne mera chhota mukh apne liye chun rakha tha. usne avsar pate hi mera chehra utha liya aur prasannatapurvak apne chehre par laga liya. mera gol chehra lagate hi wo aisa kurup tatha hasyajnak dikhai paDne laga ki main hansi na rok saka. wo bhi meri hansi taaD gaya aur apne kiye par apne man mein pachhtane laga. ab mere man mein bhi ye vichar utha ki kahi main bhi vaisa hi beDhangan dikhai paDta ho. navin chehra pakar mainne apna matha khurachne ke liye haath baDhaya to mathe ka sthaan phool gaya. haath hothon tak pahunchakar ruk gaya. naak ke sthaan ka bhi theek theek anubhav na tha. isi se ungliyon ki kai baar aisi thokar lagi ki netron mein jal bhar aaya. mere paas hi do manushya aisi beDhab suratvale khaDe the jinhen dekh dekh main man hi man hans raha tha.
wo sara Dher is prakar manushyon ne aapas mein baut liya par vastavik santop ko ve tis par bhi na praapt kar sake. jo buddhiman the unhen apni murkhata ka bodh pahle hone laga. sare maidan mein pahle se adhik vilap aur bhanbhanahat ka shabd sunai dene laga. jidhar drishti paDti thi usi or log bilakh rahe the aur brahma ki duhai de rahe the. jab brahma ne dekha ki ab baDa hahakar mach gaya hai aur yadi sheeghr inka uddhaar na kiya gaya to aur bhi hahakar mach jayega, tab unhonne phir aagya di ki manushya maatr phir apni apni apattiyan phenk de, unko unki purani apatti de di jayegi. ye aagya sun sabke ji mein ji aaya. sabhi log jo upasthit the mugdh ho gaye, evan jay dhvani karne lage. sabne pun apni apni gathri phenk di. is baar ek visheshata dekhne mae i. wo ye thi ki brahma ne us chanchla istri ko aagya di ki wo tatkshan kahan se chali jaye. ye aagya pate hi bhavna devi vahan se chal di. usko vahan se jana tha ki ek dusri aati dikhai paDi. par iski uski akriti mein itna adhik bhed tha ki donon ki tulna karna kathin hai. par haan, do chaar moti moti baton par vivechana karke unka antar dikha dena hum avashyak samajhte hai. pahli istri ke chanchal netr tatha chaal Dhaal aisi manmohni thi ki ek anjan bhole bhale chitt ko mutthi mein kar lena uske liye koi baDi baat na thi, par is nai istri ki akriti kuch aur hi kah rahi thi. isko dekhte hi chitt mein bhay tatha samman ka sanchar utpann ho aata tha aur chitt yahi chahta tha ki ghanto ise khaDe dekha karen. jis prakar vidhna ne uske ang mae chanchalta koot kutkar bhar di thi, usi prakar iske pratyek ang se shanti tatha gambhirta baras rahi thi. yadi use aap shishuvat chanchla kahen to ise aapko avashy hi shanti devi ki murti kahna paDega. iske chehre se yadyapi gambhirta ka bhaav lakshait hota tha, par saath hi ek mand muskan dikhai deti thi jiska chitt par baDa driDh prabhav paDta tha. jyon hi ye, devi maidan mein pahunchi samast netr iski or akarshait ho gaye. ye dhire dhire apattiyon ke parvat par chaDh gai. iska us Dher par chaDhna tha ki wo Dher pahle ki apeksha tiguna kam dikhai dene laga. na jane ismen kya bhed tha ki jitni apattiyan thi, sabhi kathorta rahit aur komal dikhlai paDne lagi. main ativyagr ho is devi ka naam puchhne laga. is par ek dayavan ne jhiDakkar uttar diya, re moorkh. tu kya inse parichit nahin hai? inhin ka naam dhirta devi hai. ab ye devi pratyek manushya ko uska poorv bhaag bantne lagi aur saath hi saath sabko samjhati jati theen ki is sansar mein kis prakar apni apni apattiyon ko dhairypurvak sahn karna chahiye. jo manushya unki vaktata sunta, wo santusht ho vahan se jata dikhai deta tha. main is rupak ke dekhne mein aisa nimagn tha ki sari manushyjati apna apna bhaag le apne apne nivas sthaan ko sidhari, main vahin jyon ka tyon khaDa sab lila dekhta raha, yahan tak ki jab us istri ke paas jane aur apna vipatti bhaag lene ki meri bari i tab bhi main apne sthaan se nahin taska. is par ek adami meri or aata dikhai paDa. mere paas aate hi pahle to wo mujhse kahne lagaki tum vahan kyon nahi jate?” is par main kuch uttar diya hi chahta tha ki un un un karke uth baitha aur neend khul gai. neend khulte hi netr phaaD phaDkar idhar–udhar dekhne laga. na to kahin wo ramnik sthaan tha, na kahin wo istri thi, keval main apni shayya par paDa tha. main vichitr svapn par vichar karne laga. ant mein mainne yahi saransh nikala ki vastut is sasar mein manushya ke liye dhairypurvak apni apattiyon ka sahn karna aur kabhi kisi dusre ki dasha ko irshya ki drishti se na dekhana hi sukh ka mool hai.
jagaprsiddh tattvaj~naani mahatma saukretij ka mat tha ki yadi sansar ke manushya maatr ki apattiyan ek thaur ekatr ki jaye aur phir sabko barabar barabar hissa baant diya jaye to is parbandh se bhi un manushyon ko santosh nahin ho sakta jo pahle apne ko atyant abhaga va vipadgrast samajhte the, kyonki ve sheeghr hi ye vicharne lagenge ki hamari poorv dasha hi achchhi thi. iska karan ye hai ki jo dasha achchhi va buri vidhna ki or se hamein mili hai wo ya to (१) hamari sahn shakti ke yogya hoti hai, ya (२) usmen rahne se hum usko sahn karne mein abhyast ho jate hain, aur is karan donon avasthaon mein se koi bhi hamein nahin khalti. mahakavi hores bhi is vishay mein sokretij se sahmat the. inhonne yahan tak likha ki jin kathinaiyon va yatnaon mein hum piste rahte hain ve un apattiyon ki apeksha bahut hi nyoon hai jo hamko apni dasha dusre se parivartan karne mein mil sakti hai.
main apni aramakursi par baitha ukt do kathnon par vichar kar raha tha aur apni manasik tarangon mein nimagn tha, ki mujhe jhapki si aa gai aur main turant kharrate lene lag gaya. sote sote dekhta kya hoon ki main ek ramnik maidan mein ja pahuncha hoon jiske charon or unche unche parvat shrenaibaddh khaDe hai. in parvton ne hari vanaspatiyon se apne pratyek ang ko aisa Dhak rakha hai ki kya majal jo kahin bhi khula dikhai de jaye. inke Dhaal par chhote chhote vrikshon ke beech men
kahin kahin koi baDa vriksh dekhne mein bahut bhala lagta tha. yadyapi prakrti rupi mali ne is maidan mein ek bhi baDa vriksh rahne nahin diya hai, par maidan ki hari hari ghaas vayu ke hiloron mein lahlahati hui kaisi pyari lag rahi hai! main inhin manasik bhavon ko tarangon mein apne aapko bhool, prakrti ki anupam shobha dekh raha tha ki sahsa mujhe kuch shabd sunai paDe. dhyaan dekar sunne se jaan paDa ki jaise kahin DhinDhora pitta ho. paas ke ek manushya se puchhne par malum hua ki bhagvan chaturanan ne aagya di hai ki manushya maatr aakar apni apni apattiyan is sthaan mein phenk jayen. is kaary ke liye ye maidan niyat kiya gaya hai. ye sunkar main bhi, is kautukmay lila ko dekhne ke liye, ek kone mein khaDa ho gaya. mujhe ye dekhkar ek prakar ki prasannata hoti thi ki sare manushya kramash aa aakar apni apni vipatti ki gathri maidan mae phenk rahe hai. ye Dher thoDi hi der mein itna baDa ho gaya ki akash ko chhuta dikhai paDne laga.
is bheeD bhaaD mein ek dubli patli chanchla istri baDa utsaah dikha rahi thi. Dhila Dhala vastra pahne, haath mein myagniphaing glaas liye wo idhar udhar ghumti dikhai de rahi thi. uske vastra mae bhoot pret ke manakalpit chitr bel buton mein kaDhe the. jab uska vastra vayu mein idhar udhar uDta tab bahut si vichitr Dhang ki hasyajnak evan bhayanak kalpit murtiyan usmen dikhai paDti. uski cheshta se unmaad tatha vihvalta ke kuch chihn jhalak rahe the. log use bhavna kahkar pukarte the. mainne dekha ki wo chanchla pratyek manushya ko apne saath Dher ke paas le jati, baDi udarta se unki gathri kandhe par uthva deti aur ant mein usko phenkne mein bhi puri sahayata deti hai. mera hirdai ye drishya dekhkar, ki sabhi manushya apne vipadbhar ke niche dab rahe hai, bhar aaya. apattiyon ka ye parvat dekhkar meri chitt aur bhi chalayman ho raha tha.
is istri ke atirikt aur bhi kai manushya mujhe is bheeD mein vichitr dikhai paDe. ek ko dekha ki wo chithDon ki gathri apne labade ke bhitar baDi savadhani se chhipaye hue aaya hai. jab use phenkne laga tab mainne dekha ki wo apne daridrath ko phenk raha hai. ek dusre ko dekha ki baDe pashchattap ke saath apni gathri phenkkar chalta hua mainne uske jane par uski gathri kholkar dekhi to malum hua ki dusht apni ardhangini ko phenk gaya hai jisse usko sukh ki apeksha ati duःkh praapt hota tha. iske anantar dikhai diya ki bahutere premijan apni apni gupt gathri liye aa rahe hain.
par sabse ashcharyajnak baat ye thi ki yadyapi ye log apni apni gathriyan phenkne ke hetu laye the, aur unke deergh niashvas se jaan paDta tha ki unka hirdai is bojh ke niche
dabkar choor choor hua jata hai, par us Dher ke nikat pahunchne par unse phenkte nahin banta.
ye log kuch kaal tak khaDe na jane kya sochte rahe. unki cheshta se ab aisa jaan paDne laga ki unke chitt mein mano baDa sankalp vikalp ho raha hai. phir sheeghr hi unka mukh praphull dikhai paDne laga aur ve apni apni gathri jyon ki tyon liye vahan se chalte dikhai diye. main samajh gaya. in logon ne tark vitark ke pashchat yahi nishchay kiya ki apni apni dala apne paas hi rakhna bhalmansahat hai. isi se ye sab apni gathriyan apne ghar liye ja rahe hain. mainne dekha ki bahut si manchali buDhi striyan, jinke man ki abhi sukh sabhog se tripti nahin hui thi aur jo chahti theen ki hum sada navyauvana hi bani rahen, apni jhurriyan phenkne ke liye aa rahi hai. bahuteri alpavyaska chhokaDiyan apna kala varn phenk rahi hain aur ye chahti hain ki mera rang gora ho jaye. kisi ne apni baDi naak, kisi ne nata kad aur kisi ne apni baDi peti phenk di hai aur ye prarthi hui hain ki meri tond ki paridhi kuch kam ho jaye ya yadi rahe bhi to kuch unchai adhik mil jaye. kisi ne apna kubDapan prasannatapurvak Dher mein phenk diya hai. iske pashchat rogiyon ka dal aaya jisne apna apna rog alag kar diya. par mujhe sabse ashcharyajnak ye jaan paDa ki mainne in sab manushyon mein kisi ko bhi ab tak aisa nahin dekha jo apne doshon va apni murkhata se alag hone aaya ho. mainne pahle socha tha ki manushya maatr is samay avsar pa apna apna manovikar phenk jayenge.
ab mainne dekha ki koi koi manushya patr ke banDal bagal mein davayenn baDi vyagrata se phenkne ko dauDe aa rahe hain. kyon bhai! ye patro ka banDal kaisa? malum hua ki ye dafaa १२४ e० hai, jisne in mahashyo ko chintakul kar rakha hai, evan inke vyapar mein badha Daal rakhi hai. iske anantar ek moorkh ko dekha ki wo apne apradhon ko banDal mein bandhakar phenkne le aaya hai, kintu apradhon ko phenkne ke badle apni chetnashakti ko phenke deta hai. ek dusre mahapurush avidya ke sthaan mein namrata ko patakkar bhage jate hain.
jab is prakar manushymatr apne avagunon ki gathriyan phenk chuke, tab wo chanchla yuvati phir dikhai paDi, par is baar wo meri or aa rahi hai. ye dekh mere ji mae anek prakar ke vichar uthne lage. par uski madmati chaal kuch aisi bhali malum hui ki main ektak usi or dekhta raha. uske ang ang mein aisi chanchalta bhari thi ki chalne mein ek ek ang phaDakta tha. main ye dekh hi raha tha ki wo aa pahunchi aur jaise koi kisi ko darpan dikhave, usne apne brihdarshak yantr ko mere sammukh kiya. main apne chehre ko usmen dekhkar chauk paDa. uski aprimit chauDai par mujhe baDi glani hui aur usko upmukh ke saman utarkar mainne bhi phenk diya. sanyog se jo manushya meri bagal mein khaDa tha usne abhi kuch der pahle apne beDhamb lambe chehre ko alag kar diya tha. mainne socha ki mujhe apne liye dusra chehra kahin door khojne nahin jana paDega aur usne bhi yahi socha ki use bhi paas hi apne yogya suDaul chehra mil jayega. manushya maatr apni apattiyan phenk chuke the. is karan ab un sabko adhikar tha ki, apne liye, chahen Dher mein se le len.
vastav mein mujhe ye dekh baDi prasannata hoti thi ki sansar ke sab manushyon ne apni apni vipda phenk di hai. unki akriti se santosh lakshait ho raha tha. apne kaary se chhutti pa sabhi idhar udhar tahal rahe the. par ab mujhe ye dekh ashchary ho raha tha ki bahuton ne jise apatti samajhkar alag kar diya tha usi ke liye bahutere manushya toot rahe the, evan manhi man ye kahte the ki aise saurgiyah padarth ko jisne phenk diya hai wo avashy koi moorkh hoga. ab bhavna devi phir chanchal hui aur idhar udhar dauD dhoop karne lagi. sabko phir bahkane lagi ki tu amuk padarth le, amuk vastu na le.
is samay sari bheeD mein jo kolahal mach raha tha uska varnan nahin ho sakta. manushya maatr mein ek prakar ki khalbali phail rahi thi. kya balak, kya vriddh, sabhi apne apne mano vanchhit padarth DhoonDh nikalne mein dattachitt ho rahe the.
mainne ek vriddh ko, jise apne ek uttaradhikari ki baDi chaah thi, dekha ki ek balak ko utha raha hai. is balak ko uska pita usse duःkhi hokar phenk gaya tha. mainne dekha ki is dusht putr ne kuch der baad us vriddh ke nakon mae dam kar diya. wo bechara ant mein phir yahi vicharne laga ki mera poorv krodh hi mujhe mil jaye. sanyog se is balak ke pita se uski bhet ho gai. is vriddh ne usse savinay kaha ki mahashay! aap apna putr le lijiye aur mera krodh mujhe lauta dijiye. par ab aisa karne mein wo samarthan tha. ek jahaji naukar ne apni beDi phenk di thi aur badle mae vaat rog ki gathri utha li thi. par isse uska svarup aisa vichitr ho gaya tha ki dekhte nahin banta tha. isi prakar sabhi ne kuch na kuch hera pheri ki. kisi ne apne daridray ke palte mein koi rog pasand kiya, kisi ne kshaudha dekar ajin utha liya. bahuteron ne apni piDa ke badle koi chinta le li. par sabse adhik liya hi is hera pheri mein dikhai deti thi. inhen apne naak, kaan va chehre mohre ke chunne mein baDi kathinai malum paDti thi. koi apne mukh par ke til se lambe lambe kesh badal rahi hai, kisi ne patli kamar ke badle chauDa sina lene ki ichha prakat ki hai. kisi ne apni kurupata dekar veshyavritti grahn karna hi sasta samajh liya hai. jo ho, par ye ablayen abla hone ke karan va apni tikshnata ke karan apni navin dasha ko sheeghr hi samajh jayengi evan apni poorv dasha ko praapt karne aur navin ke tyagne mein sabse pahle tatpar ho jayengi.
mujhe sabse adhik daya us kubDe par aati hai jisne apna kubDapan badalkar pair ka lengDapan pasand kiya tha.
ab main apna vrittant sunata hoon. main pahle kah chuka hoon ki mere bagalvale manushya ne mera chhota mukh apne liye chun rakha tha. usne avsar pate hi mera chehra utha liya aur prasannatapurvak apne chehre par laga liya. mera gol chehra lagate hi wo aisa kurup tatha hasyajnak dikhai paDne laga ki main hansi na rok saka. wo bhi meri hansi taaD gaya aur apne kiye par apne man mein pachhtane laga. ab mere man mein bhi ye vichar utha ki kahi main bhi vaisa hi beDhangan dikhai paDta ho. navin chehra pakar mainne apna matha khurachne ke liye haath baDhaya to mathe ka sthaan phool gaya. haath hothon tak pahunchakar ruk gaya. naak ke sthaan ka bhi theek theek anubhav na tha. isi se ungliyon ki kai baar aisi thokar lagi ki netron mein jal bhar aaya. mere paas hi do manushya aisi beDhab suratvale khaDe the jinhen dekh dekh main man hi man hans raha tha.
wo sara Dher is prakar manushyon ne aapas mein baut liya par vastavik santop ko ve tis par bhi na praapt kar sake. jo buddhiman the unhen apni murkhata ka bodh pahle hone laga. sare maidan mein pahle se adhik vilap aur bhanbhanahat ka shabd sunai dene laga. jidhar drishti paDti thi usi or log bilakh rahe the aur brahma ki duhai de rahe the. jab brahma ne dekha ki ab baDa hahakar mach gaya hai aur yadi sheeghr inka uddhaar na kiya gaya to aur bhi hahakar mach jayega, tab unhonne phir aagya di ki manushya maatr phir apni apni apattiyan phenk de, unko unki purani apatti de di jayegi. ye aagya sun sabke ji mein ji aaya. sabhi log jo upasthit the mugdh ho gaye, evan jay dhvani karne lage. sabne pun apni apni gathri phenk di. is baar ek visheshata dekhne mae i. wo ye thi ki brahma ne us chanchla istri ko aagya di ki wo tatkshan kahan se chali jaye. ye aagya pate hi bhavna devi vahan se chal di. usko vahan se jana tha ki ek dusri aati dikhai paDi. par iski uski akriti mein itna adhik bhed tha ki donon ki tulna karna kathin hai. par haan, do chaar moti moti baton par vivechana karke unka antar dikha dena hum avashyak samajhte hai. pahli istri ke chanchal netr tatha chaal Dhaal aisi manmohni thi ki ek anjan bhole bhale chitt ko mutthi mein kar lena uske liye koi baDi baat na thi, par is nai istri ki akriti kuch aur hi kah rahi thi. isko dekhte hi chitt mein bhay tatha samman ka sanchar utpann ho aata tha aur chitt yahi chahta tha ki ghanto ise khaDe dekha karen. jis prakar vidhna ne uske ang mae chanchalta koot kutkar bhar di thi, usi prakar iske pratyek ang se shanti tatha gambhirta baras rahi thi. yadi use aap shishuvat chanchla kahen to ise aapko avashy hi shanti devi ki murti kahna paDega. iske chehre se yadyapi gambhirta ka bhaav lakshait hota tha, par saath hi ek mand muskan dikhai deti thi jiska chitt par baDa driDh prabhav paDta tha. jyon hi ye, devi maidan mein pahunchi samast netr iski or akarshait ho gaye. ye dhire dhire apattiyon ke parvat par chaDh gai. iska us Dher par chaDhna tha ki wo Dher pahle ki apeksha tiguna kam dikhai dene laga. na jane ismen kya bhed tha ki jitni apattiyan thi, sabhi kathorta rahit aur komal dikhlai paDne lagi. main ativyagr ho is devi ka naam puchhne laga. is par ek dayavan ne jhiDakkar uttar diya, re moorkh. tu kya inse parichit nahin hai? inhin ka naam dhirta devi hai. ab ye devi pratyek manushya ko uska poorv bhaag bantne lagi aur saath hi saath sabko samjhati jati theen ki is sansar mein kis prakar apni apni apattiyon ko dhairypurvak sahn karna chahiye. jo manushya unki vaktata sunta, wo santusht ho vahan se jata dikhai deta tha. main is rupak ke dekhne mein aisa nimagn tha ki sari manushyjati apna apna bhaag le apne apne nivas sthaan ko sidhari, main vahin jyon ka tyon khaDa sab lila dekhta raha, yahan tak ki jab us istri ke paas jane aur apna vipatti bhaag lene ki meri bari i tab bhi main apne sthaan se nahin taska. is par ek adami meri or aata dikhai paDa. mere paas aate hi pahle to wo mujhse kahne lagaki tum vahan kyon nahi jate?” is par main kuch uttar diya hi chahta tha ki un un un karke uth baitha aur neend khul gai. neend khulte hi netr phaaD phaDkar idhar–udhar dekhne laga. na to kahin wo ramnik sthaan tha, na kahin wo istri thi, keval main apni shayya par paDa tha. main vichitr svapn par vichar karne laga. ant mein mainne yahi saransh nikala ki vastut is sasar mein manushya ke liye dhairypurvak apni apattiyon ka sahn karna aur kabhi kisi dusre ki dasha ko irshya ki drishti se na dekhana hi sukh ka mool hai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।