हीर-रांझा के गीत
heer ranjha ke geet
एक था रांझा, जो प्रेम का देवता बन गया एक थी हीर, सौंदर्य की देवी। पंजाब की धरती पर दोनों का जन्म हुआ। तब भारत में बाबर आ चुका था; घोड़ों की टापों में देश की धरती उखड़ रही थी। इतिहास का ध्यान लगा था राजनीतिक उथल-पुथल की ओर। हीर का जन्म किस तिथि को हुआ, रांझा से कितने वर्ष बाद उसका जन्म हुआ, इस बात का ब्योरा लिखने की फ़ुर्सत इतिहास को न मिली थी। और आज इतिहास का विद्यार्थी इतिहास को कसूरवार न ठहराकर कई बार अजब ढंग से पूछता है—'क्या सचमुच रांझा एक ऐतिहासिक व्यक्ति था? और हीर भी?' झंग में हीर की समाधि अब तक सुरक्षित है। प्रति वर्ष वहाँ मेला लगता है। हज़ारों श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। समाधि की चारदीवारी अजब गोलाईदार और बाहर को उभरी हुई है; क़ब्र के बिल्कुल ऊपर की ओर जाकर यह एक काफ़ी खुला दायरा छोड़कर ख़त्म होती है; सूर्य सदा क़ब्र को देख सके, यह ख़याल रखा गया है। झंग के इलाके में हीर को हर कोई हीर माई (हीर माता) कहकर याद करता है। 'लोकमाता' की पदवी पाकर हीर धन्य हो गई है। इतिहास का विद्यार्थी हीर की समाधि को संदेह की निगाह से देखता है। 'तो क्या हीर सचमुच हुई थी? और यह उसी हीर की समाधि है?' रह-रहकर ये प्रश्न उसके हृदय से उठते हैं।
झंग, जहाँ हीर का जन्म हुआ, रांझे के जन्मस्थान तख़्त हज़ारे से अस्सी मील की दूरी पर है। पास से चनाब गुज़रती है। 'चनाब' शब्द का पंजाबी रूप है 'झनां'। और झनां को शायद हीर का स्मरण होगा, इसकी लहरों के सम्मुख ही तो पहले पहल एक दिन उसने रांझा के लिए अपने हृदय का द्वार खोला था। क्या आप समझते हैं कि कभी इतिहास के विद्यार्थी की तरह ही झनां नदी के हृदय में भी हीर की ऐतिहासिक सत्ता की बाबत संदेह उठ खड़ा होगा? पहली बार जब लोकगीत ने हीर की कथा को अपनाया होगा, तब क्या अकेली हीर को ही अमर पदवी दी गई थी? झनां नदी भी तो इसमें आई थी। और हीर संबंधी प्रथमतम गान अब हम कहाँ ढूँढ़ें? लोकगीत तो स्वयं झनां की तरह बहता है, पानी आगे बढ़ता जाता है समुद्र में मिलने के लिए; उधर से आकर फिर जो बादल बरसते हैं, उनमें जैसे एक बार का गया हुआ पानी फिर झनां में लौट आता हो। लोकगीत भी बहता है, मर-मरकर फिर सुरक्षित होता है। भाषा का बहाव, इसकी रूपरेखा वही रहती है; पुराने शब्द जाते हैं और नए बन-बनकर लौटते हैं। आज के उस गीत का पृष्ठपट, जिनमें झनां को 'प्रेम की नदी' कहा गया है, क्या आज ही बना है?
इश्क झनां वगदी,
किते डुब्ब न मरी अणजानां।
—इश्क की झनां बह रही है,
अजी ओ अनजान कहीं डूब न मरना।
जैसे ‘झनां’ को सुना-सुनाकर गान किया गया है। अंजान का यहाँ क्या काम? जो कुशल हो, साहसी हो, और लगन का धनी हो, वही यहाँ आए। “झनां स्त्रीवाचक शब्द है। नारी रूप में ही 'झनां' लोकगीत में अमर हुई है। नारी के संस्मरणों में हीर सरीखी सखी की बात न जम सकी होगी क्या? झंग के समीप कभी इसके तीर पर बैठकर जल की ओर निहारिए, तो शायद यह आपके कान में कुछ कह जाए; निराश होकर एक दिन रांझे ने किस तरह आँसू गिराए थे, शायद झनां आपको बतला सके। जिस झनां ने रांझे की बंझली (मुरली) का गान सुना था, दिन-रात लगातार, जिसने उसे हीर के पिता की भैंसें चराते देखा था, जिसने हीर को रांझे के लिए मिष्ठं पकवान लाते देखा था, वह क्या आज उन दृश्यों के रेखाचित्र अंकित करने में आपको कुछ भी सहायता न देगी? झनां कुछ बताए न बताए, वह है तो एक आराध्य देवी ही।
हीर और रांझा की प्रेमकथा की मोटी-मोटी रेखाएँ ज़रूर जान लेनी चाहिए। दोनों दो जाट-परिवारों में उत्पन्न हुए। रांझा का असल नाम ‘धीदो’ था; ‘रांझा’ उसकी जाति थी और वह इसी से प्रसिद्ध हुआ। हीर की जाति ‘सयाल’ कहलाती थी; झंग में इनकी बहुसंख्या थी, इसी से यह स्थान तब ‘झंगसयालां’ कहलाता था। रांझा का पिता बचपन में ही मर गया था। एक दिन उसकी भावजों ने ताना मारा कि वह काम-काज में विशेष हाथ नहीं बटाता; छैला बना रहता है, जैसे उसे 'हीर' से विवाह करना हो। रांझा ने हीर के सौंदर्य का बखान पहले ही सुन रखा था। घर छोड़कर वह झंग की ओर चल पड़ा। झनां के तीर पर पहुँचकर अब किश्ती से पार होकर झंग जाने का प्रश्न थाः पैसा पास में था नहीं। बिना पैसे के 'लुढ्ढन' नाविक उसे ले जाने को तैयार न था। रांझे ने बंझली बजाई; लुढ्ढन की पत्नी को उस पर तरस आ गया और उसकी सिफ़ारिश पर लुढ्ढन ने रांझे को नदी-पार पहुँचा दिया। हीर का पिता एक ख़ासा ज़मींदार था; नदी के किनारे उसने एक कुटिया बनवा रखी थी, जिसमें हीर सहेलियों सहित कभी-कभी आया करती थी। रांझा इस कुटिया में जाकर हीर के पलंग पर चादर ओढ़कर सो गया। सहेलियों सहित हीर आई, तो उसने डांट-डपट की। ज्यों ही रांझा चौंककर उठा और उसने अपने मुँह से चादर उतारी, हीर से उसकी आँखें मिलीं; हीर के हृदय में पहली ही दृष्टि में प्रणय का भाव उदय हुआ। और वह उसके चरणों पर गिर गई। उसे वह अपने साथ घर ले गई और पिता से कहकर भैंसें चराने पर उसे रख लिया; इसी से ‘चाक’ (सेवक) और ‘माही’ ( 'माहीवाल' याने भैंसों का चरवाहा) ये दो शब्द प्रायः रांझे के लिए प्रयोग होते हैं। कई वर्ष तक रांझे ने यह कार्य किया; हीर भी उसे बहुत प्यार करती, उसके लिए स्वादिष्ट पदार्थ वन में देने जाती। माता-पिता ने हीर की शादी रांझा से कर देनी पक्की कर दी थी। फिर कुछ समय के पश्चात् हीर की शादी का ख़याल उसके पिता ने बदल दिया। रंगपुर के निवासी 'सैदा' से जो खेड़ा जाति का एक युवक था, हीर की शादी कर दी गई; हीर ने बहुत विरोध किया; पर उसकी पेश न गई। रंगपुर में जाकर हीर ने प्रण कर लिया कि वह अपने सत को कायम रखेगी; सैदा खेड़ा जैसे कुछ न लगता था; और ऐसा ही हुआ भी। कहते हैं कि रांझा गुरु गोरखनाथ के मठ में पहुँचा, और योगी बनकर रंगपुर की ओर बढ़ा। रंगपुर में उसने घर-घर अलख जमाई; हीर उसे पहचान गई; अपनी ननद सहती की सहायता से उसने एक दिन रांझे से भेंट भी की। सहती का स्वयं 'मुराद' नामक युवक से जो रांझे का परिचित था, प्रणय था। रांझे ने उसकी इमदाद करने का वचन दिया। कहते हैं, वहाँ हीर, रांझा और सहती तीनों ने यह राय मिलाई कि हीर किसी बहाने से सहती के साथ बाहर खेत में जाए, वहाँ वह साँप डस जाने का बहाना करे और फिर ज़हर उतारने के लिए रांझे को बुलवाने की चाल रची जाए; आगे रांझा स्वयं ऐसी सूरत निकाल लेगा कि मुराद को बुलाकर सहती से मिलवा दे और स्वयं हीर को लेकर हवा हो जाए। ऐसा ही किया गया। हीर का ज़हर उतरवाने के लिए सहती ने अपने भाई सैदे को रांझे के पास भेजा। रांझे ने, उससे हीर के सतीत्व का पता लगाने के लिए कहा—'जाओ, मैं न जाऊँगा। मैं तो जोगी हूँ, अविवाहित लड़की का ज़हर उतारने मैं भले ही किसी के घर जाऊँ। सैदे ने कहा—'मेरी पत्नी को अविवाहिता सा पवित्र ही समझना जोगी। मेरे साथ अभी उसका पत्नी का नाता सिर्फ़ कहने भर का ही है।' सैदे के साथ रांझा न गया। फिर सैदे का पिता बुलाने आया। वह उसके व्यक्तित्व की जीत थी; रांझा चलने पर तैयार हो गया। हीर को देखकर उसने कहा—'हाँ, ज़हर उतर सकता है, बाहर कुटिया में नियमित रूप से इसे रखना होगा, पास में केवल एक अविवाहित कन्या रहे।' सबने यह बात मान ली। सहती तो घर में कुँवारी कन्या थी ही, उसे बाहर कुटिया में हीर की सेवा-शुश्रूषा पर रख दिया। अवसर पाकर एक दिन रांझे ने मुराद को बुला भेजा, अपनी सहायक सहती की भावना पूर्ण कर दी, और स्वयं हीर को लेकर झंग की ओर चला। खेड़ा-परिवार ने आकर उन्हें रास्ते में ही पकड़ लिया। उस इलाके के राजा के सम्मुख मामला पेश हुआ। दोनों पक्ष हीर को अपनी बतलाते थे; राजा के विचारानुसार हीर सैदे की सिद्ध हुई। और कहते हैं कि ज्यों ही राजा ने फ़ैसला सुनाया, नगर में अग्निकांड रौद्र रूप धारण कर उठा। राजा ने समझा, हीर के संबंध में अन्याय हुआ है। फिर अंतिम फ़ैसला यही रहा कि हीर रांझे के साथ जा सकती है। चाहता तो रांझा तख़्त हज़ारे चला जाता, पर उसने पहले झंग जाना ही तय किया। हीर के पिता ने ऊपर से रांझा का आदर किया; भीतर कपट का साँप फुंकार रहा था। रांझा अपने घर से बारात जुटाकर लाएगा, शादी करके ही हीर को ले जाएगा, पहले नहीं। ज्यों ही रांझा विदा हुआ, हीर को ज़हर दे दिया गया। और फिर ज्यों ही रांझे के कान में हीर के प्रति किए गए इस दुरूह अत्याचार की ख़बर पहुँची, वह ग़श खाकर गिर गया—एक दीपक बुझ चुका था, दूसरा भी बुझ गया।
कहानी में यह भी पता चलता है कि हीर और रांझा दोनों मुस्लिम परिवार में उत्पन्न हुए थे। इसमें क्या? प्रेम का देवता और हुस्न की देवी क्या किसी चारदीवारों में बंद रहते हैं? उन पर क्या किसी एक समाज का अधिकार होता है? भक्त गुरुदास ने मुक्तकंठ से अपना तराना छेड़ दिया था—
‘रांझा हीर बखानिये,
ओह पिरम पिराती।‘
—'आओ हीर और रांझा का बखान करें,
वे महान् प्रेमी थे!'
ख़ुद श्री गुरु गोविंदसिह की कविता में एक स्थान पर हम हीर के पक्ष का ज़बर्दस्त समर्थन पाते हैं—
‘यारणे दा सानूं सथ्थर चंगेरा
भट्ठ खेड़ियां दा रहणां।‘
—प्रीतम के यहाँ तो उसकी मृत्यु के बाद का दुःखद निवास भी उत्तम है ! पर भाड़ में जाय ‘खेड़ा’ परिवार में निवास!
कहते हैं यह कविता, जिसमें से कि यह उद्धरण लिया गया है, गुरु गोविंदसिंहजी ने पंजाब छोड़ते समय एक जंगल में बैठकर लिखी थी; इसमें उनके उस समय के मनोभाव का अचूक चित्र अंकित हो गया है। और वतन से दूर के अपने प्रवास की तुलना उन्होंने हीर के उस जीवन से की है, जबकि उस बेचारी को अपनी इच्छा के विरुद्ध सैदे खेड़े के घर में रहना पड़ा था। सूफ़ी कवि बुल्हेशाह की हीर-संबंधी भावना जिसने एक बार सुन ली, वह क्या कभी हीर के निष्पाप प्रेम की आलोचना की कसौटी पर कसने की ज़रूरत समझेगा?
“रांझा-रांझा करदी नी
मैं आपे रांझा होई
सद्दो नीं मैंनू धीदो रांझा
मैंनू हीर न आखे कोई।“
—“रांझा-रांझा की रट लगाती
मैं स्वयं रांझा बन गयी हूँ;
सखियो, मुझे धीदो रांझा कह कर बुलाओ
कोई अब मुझे हीर न कहे।“
बुल्हेशाह के सहपाठी कवि वारिसशाह ने तो अपना समस्त जीवन 'हीर' पर अपनी प्रतिभा न्योछावर करने में ही लगा दिया था। इससे अधिक लोकप्रिय पुस्तक पंजाब में दूसरी एक न मिलेगी; जितनी बिक्री बाज़ार में ‘हीर वारिसशाह’ की है, किसी दूसरी धार्मिक पुस्तक की भी नहीं। पंजाब की आत्मा इस एक पुस्तक में समा गई है। इसे पढ़े बिना आप क्या पंजाब को पूर्णतया जान सकते हैं? पंजाब की समस्त जनता एक ज़बान होकर इसकी दाद देती है। प्रकाशकों ने दो-एक स्थलों पर बाद में अश्लीलता मिला दी है, जिसे निकालने की आवश्यकता है। अन्य कई कवियों ने भी 'हीर' को अपने काव्य का कथानक बनाया है; पर वारिसशाह से ऊपर तो दूर रहा, समीप भी कोई नहीं पहुँच सका।
यों वर्तमान पंजाबी-साहित्य में भी अनेक स्थलों पर हीर को अर्घ्य दिया गया है। रहस्यवादी कवि भाई वीरसिंह ने एक सुंदर तस्वीर खींची है—हीर सुराही धौन नवाई खली झनां दी कंधी! (सुराही की-सी गरदन झुकाए हीर झनां के तीर पर खड़ी है!) और प्रो. पूर्णसिंह ने हीर को बहन के रूप में और रांझे को भाई के रूप में पुकारा—
आ वीरा रांझिया, आ भैणे हीरे,
सानू छोड़ न जावो;
तुसां वोझों असी सख्खणे।
—ओ भाई रांझा, आ बहन हीर, तू भी आ!
हमें छोड़कर न जाओ,
तुम्हारे बिना हम अकेले रह जाएँगे!
लोकगीत में हीर-रांझा संबंधी काव्य की जो धारा बही है, उसका प्रवाह झनां नदी से होड़ लेता दिखता है। शायद यह एक दिन झनां जितनी लंबी हो जाए। झनां की लंबाई तो प्रकृति ने निश्चित कर रखी है, और गीत-धारा अभी विकास मार्ग पर ही है; सैकड़ों गीत नए बन रहे हैं, सैकड़ों और बनेंगे। इस गीत धारा के दो भाग कर लेने होंगे—(1) कहानी पर आश्रित गीत। (२) स्वतंत्र गीत। जिन गीतों के आधार कहानी के विशेष स्थल हैं, उनमें लोक-गीत की पूर्ण विकसित अवस्था नहीं देखी जा सकती। ये गीत कुछ-कुछ अधूरे स्वप्न ही तो हैं; साहित्यिक कवियों की भाँति ही हीर और रांझा को दूर से देखकर, उनसे अलग रहकर इनकी रचना की गई है। इनमें गायक स्वयं हीर या रांझा कभी नहीं बना।
दूसरी श्रेणी का गीत लोकगीत की प्राकृतिक शक्ति से संपन्न है। जैसे हीर और रांझा यहाँ आकर प्रत्येक हृदय में बस गए हों; जैसे प्रत्येक नारी हीर बन गई हो, प्रत्येक पुरुष रांझा बन गया हो। कहानी की ओर देखने की यहाँ ज़रूरत नहीं रही; जो बातें शायद मूल कहानी में नहीं घटी थीं, उनकी झलक यहाँ स्वतः ही आ गई है; दांपत्य प्रेम हीर रांझे के प्रेम में परिणत हो गया है। जीवन की धरती से जब भी कोई प्रेम गीत माँ के लाल की भाँति उत्पन्न हुआ, इसका हृदय हीर और रांझे के लिए सदा के लिए खुल गया; गाँव-गाँव में क्या विवाहित, क्या अविवाहित, सभी के सम्मुख रांझा केवल आदर्श प्रेमी ही नहीं बना; आदर्श पति भी बन गया है, और हीर की मुखश्री पर प्रेमिका और पत्नी दोनों एक साथ लिख दिए हैं। इन गीतों में पुरुष और स्त्री दोनों स्वयं बोले हैं। अधिक भाग यहाँ स्त्री ने लिया है। जैसे पहली श्रेणी के गीतों में पुरुष ने नारी-वेश में अभिनय किया है, वैसे ही यहाँ नारी ने अपने गीतों में प्रायः पुरुष के मुख में स्वयं शब्द डाले हैं। पर दोनों श्रेणियों की काव्य-धारा में बड़ा फ़र्क़ यह है कि पहली में पुरुष ने अपने को रांझा नहीं समझा (और हीर तो वह था ही नहीं), और इस सूरत में उसने रांझा के मुख में जो शब्द डाले, वे तो पुरुष के नाते कुछ-कुछ प्रकृत रहे हों, हीर के मुख में शब्द डालते समय उसके रूबरू यह आसानी न रही। घर में अपनी स्त्री में उसने हीर को देख लिया होता, कभी अपनी उस हीर की बातें सुनी होतीं और फिर उसे गीत में डाला होता, तो शायद गीत में जान आ जाती। उसके विपरीत दूसरी श्रेणी के गीत में जहाँ नारी ने स्वयं पुरुष को वाणी दी, वहाँ एक तो वह स्वयं हीर बन गई, दूसरे उसने घर में अपने रांझे की बात बीसों बार सुन-सुनकर फिर उसे ही गीत में स्थान दे दिया; नारी को पुरुष-वेश में अभिनय करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। घर के रंग रूप को लेकर ही इस दूसरी श्रेणी की गीत-रचना हुई है; स्वयं गाँव की प्रकृति ही गीत सामग्री बन गई है। सैकड़ों साल पुराने हीर-रांझा जहाँ चिर-नूतन रूप पाकर बस गए हैं। कितनी उर्वर है इस गीत की भूमि? हर रोज़ यहाँ हीर समस्त नारी हृदय का फेरा लगाती है; रांझा जैसे हर गोपी का कृष्ण बन गया हो।
रांझे के पास जो बंझली (मुरली) थी, हीर उसके राग पर एकदम मुग्ध हो उठी थी, गीतों में स्थान-स्थान पर बंझली की प्रशंसा की गई है। रांझा जो कुछ भी बोलता था, जैसे वह बंझली में से होकर हीर तक पहुँचता था। बंझली से एक बार जो शब्द गुज़र जाते थे, वे कविता बन उठते थे। जैसे आकाश तक बंझली से प्रभावित हो जाता हो—
‘रांझा बजावे बंझली,
सुक्का अम्बर छड्डे नरमाइयां।’
—'रांझा मुरली बजा रहा है,
सूखे आकाश पर नमी आती जा रही है।'
बंझली की प्रशंसा में एक गीत है—
“पहलां बंझलियां वज्जियां घर तरखानां दे
पिच्छों हीरे मैं तुरत सी बजाइयां
फेर बंझलियां वज्जियां घर सुनियारां दे
जिथ्थे बैह के हीरे मेखां शौक दियां लुयाइयां
फेर बंझलियां वज्जियां घर छीम्बियां दे
जिथ्थे बैठ के हीरे ढोंरा शौक दिया पुयाइयां
फेर बंझलियां वज्जियां कुल तख्त हजारे विच्च
सुर एस दी ने हीरे धुम्मांसी पाइयां
फेर बंझलियां वज्जियां कण्ढे झनामां दे
लहरां नच्चियां हीरे दूणते सवाइयां
फेर जद वाज तेरे कन्नीं पैगी नीं
तेरे जी विच हीरे प्रीतांसी निस्सर आइयां।“
—“पहले बंझलियाँ तरखान के घर में बजीं
ओ हीर, इसके पीछे मैंने इसमें सुर भर दिया था।
फिर बंझलियां सुनार के घर में बजीं,
ओ हीर, जहाँ बैठकर शौक से सोने के मेखों से इन्हें सजाया
फिर बंझलिया छिपी के घर में बजीं,
ओ हीर, जहाँ बैठकर मैंने इनमें सुंदर रंगीन डोरे डलवाए।
फिर तख्त हजारे में इनका स्वर गूंज उठा,
इनके स्वरों की धूम मच गई।
फिर ये झनांके तीर पर बजीं;
झनां की लहरें स्वर पाकर दून-सवाई मस्ती से नाच उठीं।
फिर जब इनकी आवाज़ तेरे कान में पड़ी
तेरे हृदय में प्रेम की कोंपल बढ़ने लगी।“
हीर सांझ हो जाने पर भी रांझा के न आने पर उसे खोजने निकली है। बहुत दूर तक खोजने पर भी रांझा कहीं नज़र नहीं पड़ता। हीर आगे ही आगे बढ़ती जाती है। वर्षा का ज़ोर है, नाले पथ रोक रहे हैं। दूसरे गीत में हीर एक बरसाती नाले को पुकार कर कहती है—
“सुन वे नालेया डिट्ठेया भालेया
क्यों बगदायें एन्हीं राहीं
अग्गे तां बगदासी गिट्टों गोड्डे
हुण क्यों बगदायें असगाहीं
एसे पत्तन मेरियां मंझियां लंघियां
एसे पत्तन मेरियां गाई
एसे पत्तन मेरा रांझा लंघेया
मैं हीर तत्ती दा साँई
मारू हाअ किसे गरीब दी नालेया
ते तूं फेर बगेंगा नाहीं।“
—“ओ नाले, सुन; अरे तू तो मेरा देखभाला है।
इन पथों पर तू क्यों बह रहा है रे?
पहले तेरा पानी पैर की कलाई से घुटने तक ही रहता था,
अब तू तूफ़ानी होकर क्यों बह रहा है?
इसी घाट से मेरी भैंसे पार हुई थीं,
इसी से गौएँ गुज़रीं,
इसी से रांझा गुज़रा—
मुझ नसीबों-जली का प्रियतम
ओ नाले, किसी ग़रीब की आह तुझे सुखा डालेगी,
फिर तू न बह सकेगा।“
खाना खिलाकर हीर के घर लौटते समय का दृश्य भी बहुत लोकप्रिय रहा है। एक गीत में उस ऋतु की बात आयी है, जबकि रात के समय भी रांझा जंगल में ही निवास किया करता था—
“लै वई रांझिया खुशियां दे दे हीर नूं,
हुण मैं घरां नू जावां
ज्योंदी रहां मिल पां सबेरे
भत्ता ले के छेती-छेती आवां
बखों किते झल्ल दे विच्च आदर जांदाव
ऐं न समझीं तूं है जग ते नथामां
हस्स के कैह दे चाका हीरे जा नीं
पैलां यौंदी मैं घरां नू जामां।“
—“लो, अब ख़ुशी से मुझे विदा दो, ओ रांझा,
अब मैं घर जाऊँगी।
जीती बचूँगी तो कल सवेरे मिलूँगी,
जल्दी-जल्दी भोजन लेकर आऊँगी
देखना, कहीं यहाँ घने वन में उदास न हो जाना।
कहीं यह न समझ लेना कि तू जगत् में घरहीन है।
अब हँसकर कह दे—जा, हीर, घर को जा;
मैं मोरनी की भाँति नाचती-नाचती घर को जाऊँगी।“
और रांझा झट उत्तर देता है—
“तैनू खुशियां हीरे खुदा ही तरफों नी
मेरा सुन लै रांझे पंछी दा वराला।
सप्पां सीहां दे विच्च छडू के मैनू जानीयें
तें बिन हीरे मेरा कौन नी रखवाला
तेरे चन्न मुखड़े नै मैंनूं खिच्च लियांदा नी
बन गया इश्क हुस्न मतवाला
तेरी सूरत ने मैं वतना तों कड्ढ लिया
मंझियां वे आ लग्गा मैं काली भूरी वाला
मैं परदेसी हीरे ते तूं वतना वाली नी
शहत मिट्ठो तेरे नौं दी फेरां माला
एथेई रहते सुण लै मेरी बंझली नी
जेहड़ी सुणदा नीर झनां दा मोतियाँ वाला।“
—“ओ हीर, तुझे ख़ुदा की ओर से ख़ुशी है
मुझ रांझे पक्षी का रुदन भी तो सुन लो।
साँपों और बाघों के बीच में मुझे छोड़कर तू जा रही है।
तुझ बिन मेरी कौन रखवाली करेगा?
तेरे चाँद-से मुख ने मुझे यहाँ खींच लिया है;
प्रेम-सौंदर्य पर मतवाला हो गया।
तेरी छवि ने मुझे वतन से बेवतन कर दिया!
मैं काली भूरी ओढ़कर यहाँ भैंसों का चरवाहा बन गया।
मैं परदेशी हूँ, ओ हीर, तू अब देश में है।
मैं तेरे मधु-से मीठे नाम की माला फेरता हूँ।
यहाँ ही रह और मेरी बंझली का गान सुन ले।
जिसे मोतियों-सा झनां नदी का नीर रोज़ सुनता है।“
फिर एक दिन वह दुःखद दृश्य आता है, जब रांझे को निराश करके हीर का पिता काज़ी की सलाह से सैदे खेड़े के साथ हीर की शादी की तैयारी करता है। हीर ने काज़ी को ख़ूब कोरी-कोरी बातें सुनाईं—
“सुन वे काजिया पाक नमाजिया
वे तैनू कैह दे मीयां-मीयां
मीयां मैं ओस नू आाखां वे
जेहड़ा रिजक देवे सब जीयां
एक अनहोणी तूं मैं नाल करदायें
तेरे घर नीं मैं जेहियां धीयां
खोइ के रांझे तों मैंनूं खेड़ेयां नूं दिन्नायें
वे तेरा किक्कुन वगदा हीयां।“
—“सुन ओ काज़ी ओ पाक नमाज़ी
सब मुझे 'मियां' कहकर पुकारते हैं।
मैं तो 'मियां' उस भगवान् को कहती हूँ
जो सब जीवों को अन्न देता है।
मेरे साथ आज तू बुरा व्यवहार कर रहा है।
क्या तेरे घर में बेटियाँ नहीं हैं?
मुझे रांझे से छीनकर तू खेड़ों को दे रहा है।
कैसे तेरा साहस पड़ रहा है?”
माँ-बाप से भी हीर का वाद-विवाद हुआ। उसकी एक न सुनी गई। उसके हाथ में शादी का ‘गान्ना’ बाँध दिया गया। रांझे से वह फिर भी मिली। उस समय का रांझे का उलाहना से पूर्ण गीत ग्राम भी सैकड़ों वर्ष पहले के दृश्य को गाँव के हृदय में सुरक्षित कर देता है—
बन्हके गान्नां हीर रांझे कोल आगीनी
कौल करार तैं सारे ई हारे
ओदों कैहंदी सी सिर दे नाल नभा दयूँगी
अज्ज चढ़के बैहजेंगी खेड़ेयां दे खारे
खन्नी खांदा हीरे खन्नी टंगदासी
जद मैं रैंहदा सी तख्त हजारे
जे मैं जाणां खेड़ियां दी बणजेंगी
बारां साल रकाने खोले क्यों चारे
जे मैं जाणां खेड़ियां दे वगजेगी
तप करदा में झनां दे किनारे
भली होगी हीरे नेड़यों लड़ छुट्ट गया नीं
नहीं डोबदी धार दे बचाले
जेहड़ेयाँ सप्पां तों दुनियां थर-थर कम्बदीए
पैरां हेठ ओह रांझे ने लताड़े
जेहड़ेयां शेरां तों दुनियां थर-थर कम्बदीए
नाल, रकाने, मज्झियां दे मैं चारे
कख्खों हौले हो गये, धाए, चूचक दिये
जद सी परबत तों भारे
आह लै भूरी तै आइ लै खूण्डा नी
कीली लटकन मज्झियां दे धलेआरे।“
—“हाथ में 'गान्नां' बाँधकर तू रांझे के पास आ गई है, ओ हीर!
तूने सब कौल-करार हार दिए!
तब कहती थी! मैं सरके साथ प्रेम निभाऊँगी!
आज तू खेड़ा के खारे1 पर चढ़कर बैठ गई।
आधी रोटी मैं खाता था, आधी तेरे नाम की रखता था, ओ हीर!
जब मैं तख़्त हज़ारे में रहता था।
यदि मैं जानता कि तू खेड़ों की हो जाएगी,
तो मैं बारह साल भैंसे क्यों चराता?
यदि मैं जानता कि तू खेड़ों के घर चली जाएगी,
तो मैं झनां के किनारे तप करता।
ओ हीर, अच्छा ही हुआ कि रात तेरा अंचल छूट गया,
नहीं तो तू शायद मंझधार में मुझे बोर देती।
जिन साँपों से दुनिया थर-थर काँपती,
रांझे ने उन्हें पैरों तले लताड़कर इतने वर्ष गुज़ार दिए।
जिन शेरों से दुनिया थर-थर काँपती है,
राँझे ने उन्हीं के बीच में इतने वर्ष भैंसे चराते गुज़ार दिए।
ओ छूछक की बेटी, मैं अब तिनके से भी हलका हो गया,
किसी समय मैं पर्वत से अधिक भारी था।
यह ले भूरी2 यह ले भैंसों को हाँकने की मुड़े हुए मुट्ठेवाली लाठी,
बे खूंटों पर छटक रहे हैं भैंसों के धलेया3 रे।
एक और पंजाबी गीत सुनिए जिसमें रांझा अपनी प्रेमिका हीर के सम्मुख अपने प्रेम का बखान करता है—
“मेरी ते हीर दी ओदों दी लग्ग गी ओ
नदियें नीर न बेले बिच्च काहीं
ते न कोई ओदों बाबा आदम जन्मियां सी
ते न सीगी ओये अदलिया! बन्दे दी बादशाही
मेरी ते हीर दो ओदों दी लग्ग गी ओए
जदों है नी सी ओये! दवातां बिच स्याही
ते है नी सी धरती ते असमान ओये।“
—“मेरा और हीर का प्रेम तो उस समय से है
जब न नदियों में पानी था न जंगलों में घास थी।
न उस समय बाबा आदम ने जन्म लिया था
न उस समय, ओ आली मनुष्य का राज्य स्थापित हुआ था।
मेरा और हीर का प्रेम तो उस समय से है,
जब न दवातों में स्याही थी, न धरती और आकाश तक का निर्माण हुआ था।“
रांझे का मन बहलाने के लिए हीर भैंसों की प्रशंसा में कह उठती है—
“मज्झीयां-मज्झीयां रांझिया सारा जग्ग आंहदा वे
तेरीयां मज्झीयां तां रांझिया ओये हूरां ते परीयां
सिंग तां मज्झीयां दे वल-वल कुंडे होगे आये
जिमें वंगा ओये रांझिया बनजारे ने घड़ीयां
दंद तां मज्झीयां दे पालो पाली ने
दुद्ध तां मज्झीयां दा शरबत वरगा मिट्ठा ओये
घियो तां मज्झीयां दा मिसरी दीयां डलीयां
आके मज्झीयां बाड़े नू ढुक्कीयां ओये
ज्यों तां ढुक्कीयां ओये जन्न बलाहे नू कुड़ीयां।“
—“भैंसें-भैंसें, ओ रांझा, सारा संसार कहता है
तेरी भैंसे, ओ रांझा हूरें और परियां हैं।
भैंसों के सींग बलदार और गोल हो गए
जैसे किसी बनजारे ने चूड़ियाँ गढ़ी हो।
भैंसों के दाँत सीधी क़तार में हैं,
जैसे चंपे के बूटे की कलियाँ खिली हो।
भैंसों का दूध शरबत से भी मीठा है
घी तो जैसे मिसरी की डलियाँ हो।
भैंसे वापिस पशु-गृह को आती है,
जैसे वे नवयुवतियाँ हों और बारात देखने आ रही हों।“
कहानी के हृदय में पंजाब का जो स्थानीय रंग निहित है, उसे देखे बिना हीर रांझे का ठीक-ठीक स्वरूप नहीं समझा जा सकता। जैसा कि शकुंतला की आलोचना में रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है कि दुष्यन्त ने अपने महल में अधूरी शकुंतला को देखा था, उसका पृष्ठपट सदूर वन भूमि में ही रह गया था, इसीलिए उसकी आँखें उसे पहचान न पाई; उसकी मुखश्री को दुष्यंत ने जिस वातावरण में अपनाया था, वह महल में नहीं आया था, पीछे वन में छूट गया था। रांझा की बंझली का स्वरूप समझना आवश्यक है, झनां नदी भी इस कथा के पृष्ठपट की सजीव विभूति है; भैंसे और भैंसों की भयानक चरभूमि, जहाँ शेर हैं, साँप है, और बारह वर्ष का लंबा समय, जो रांझा ने हीर के पिता की सेवा में बिना एक कौड़ी लिए गुज़ार दिया; ये सब गीत में ही जीवन नहीं डालते, बल्कि पंजाबियों के हृदय पर रांझा के व्यक्तित्व का सिक्का बिठा देते हैं। हीर किस श्रद्धा से रांझा को रोज़ भोजन देने जाती है; गीत में आप आज भी हीर को अचूक गति से चलती पाते हैं—उसे चलना ही चाहिए, ठीक समय पर रांझा को भोजन मिलना ही चाहिए? संसार में अलग-अलग स्थानों पर जन्म लेकर भी वे प्रेम को भूल नहीं सकते। अस्सी मील की दूरी से रांझा हीर के यहाँ आ जाता है। हीर-जैसे उसे पहचान लेती है। हीर के इस व्यक्तित्व ने ही हीर को इतना चमकाया है। और जब हम उसे क़ाज़ी से सवाल करते पाते हैं, उसकी विद्रोही आत्मा कितनी प्रबल प्रतीत होती है। कोई उसे उसके प्रियतम से तोड़कर किसी अजनबी से क्यों ब्याह दे? निकाह पढ़ानेवाले क़ाज़ी से वह पूछती है कि क्या इस व्यवहार के लिए उसकी कोई अपनी बेटी नहीं है। कहानी के अन्य स्थल भी गीतों में आए हैं।
वर के घर में जो 'घोड़ी' नामक गीत गाया जाता है, उसमें बहन ने वर और वधू को हीर और रांझा के रूप में अपनाया है—
“नी मैं आंख भेजां ललारी बेटड़े नूं
मेरे बीरे दा चीरा जी शताब लियाइयो
जी जरूर लियाइयो
पहन चीरा वीरा बैठ मोरी
जी कुरबान सारी,
रांझा निक्का जेद्दा हीर मुटियार सारी।”
—“मैं रंगरेज़ के लड़के को कहलवा भेजूँगी
मेरे भाई की पगड़ी शीघ्र लाओ।
जी ज़रूर लाओ
ओ भाई, पगड़ी पहनकर खिड़की में बैठो
मैं पूरी तरह तुम पर क़ुर्बान हो जाऊँ।
रांझा तो छोटा सा है, और हीर पूर्ण युवती लगती है।“
इसके बाद गीत में दर्ज़ी के लड़के से वस्त्र शीघ्र ही लाने को कहा गया है। रांझे को छोटा बताने में बहन का प्यार निहित है। एक दूसरे गीत में भी वर को रांझा के रूप में चित्रित किया गया है—
“माँ बे तेरी बन्नेयां सरब सुहागन
जिस वे राणी दा तूं जाया
वे रंगीलिया रांझनां!”
—“ओ वर, तेरी माँ सौभाग्यवती रानी है
जिसने तुझे जन्म दिया है।
ओ रंगीले रांझन!
यहीं से रांझे का व्यापक रूप शुरू होता है। यहीं से हीर पंजाबी नारी का प्रतिनिधित्व करने लगती है। कहाँ झनां नदी? कहाँ रावी? झनां का रांझा फैलता-फैलता रावी के समीप आ जाता है। एक गीत में से कुछ भाग उदाहरण स्वरूप ले सकते हैं—
“उच्छल पिया लड़ रावीए दा वा साइयां
कदीया न विच्छड़े लड़ मुसाफरां दा
हां नी ए रावी तेरा लक्क-लक ढीला
रांझन किक्कुन आवीएगा
कदीयो न बिच्छड़े लड़ मुसाफरां दा।“
—“रावी का अंचल उछल पड़ा है, ओ भगवान!
कभी मुझसे मेरे मुसाफ़िर प्रीतम का अंचल न बिछुड़े।
ओ रावी, तेरा पानी क़मर तक आता है;
रांझन कैसे पार करेगा?”
यहाँ फिर रांझन की छोटी उमर की भावना आ गई है। रावी का पानी जो बड़ी उमर वाले आदमी की क़मर तक आता है, रांझे के लिए, जो अभी छोटा है, एक बाधा बनकर उपस्थित हो जाएगा। पति-पत्नी परस्पर मिलकर खेत में काम करते हैं। प्रेम के स्पर्श से पति रांझा बन जाता है; हीर तो प्रत्येक कुलवधू होती ही है—
“मैं बीजां वे गाजरां
तू पाणी देंदा जाई
मैं तेरी वे रांझनां
तू हैं मेरा साईं।“
—“मैं गाजरें बो देती हूँ,
तुम खेत में पानी देते रहना।
ओ रांझन, मैं तेरी ही तो हूँ
तुम मेरे सिर के मालिक हो!”
एक और गीत की एक तुक है—
“चल्ल मीयां रांझा खेती करिये
सांझी रख्खिये क्यारी”
—“चल मियां रांझा, खेती करें
हम क्यारी साझी रखेंगे।“
रांझे को तो फूल की भाँति खिलना चाहिए, ताकि घर में हीर का चित्त भी ख़ुश रहे—
“नी सइयो रांझन मेरा फुल्ल मोतिये दा
नी अज्ज एह क्यों कुमलाय फुल्ल मोतियेदा।“
—“ओ सखियो, मेरा रांझन तो मोतियों का फूल है,
आज यह कुम्हला क्यों रहा है मोतियों का फूल!”
चाँदनी में रूठा रांझा मनाया जाता है—
“वेखो नी सइयो एह चन्न चढ़दा वी नाहीं
तारेयां दी लो विच्च रांझन दिसदा वी नाहीं
खड़ी खड़ोती ने में चन्न चढ़ाया
रांझन रुट्ठड़ा मिन्नतां नाल मनाया।“
—“देखो, सखियो, यह चांद चढ़ता ही नहीं
तारों की रोशनी में रांझा नज़र नहीं आता।
मैंने खड़े-खड़े चाँद को चढ़ते देखा
बड़ी मिन्नत से मैंने रूठा रांझा मनाया!”
हीर नई ऋतु के 'पीलू' चुनती है। रांझन को भी साथ रहने का निमंत्रण दिया जाता है। वह कहीं चला जाता है—
पीलू पक्कियां नी, आ चुनियें रल हार
असां न चख्खियां नी, आ चुनियें रल यार,
चुन-चुन पीलू भरां पटारी
वे तू मिलिया न रांझन जांदड़ी बारी
पीलू पक्कियां नी, आ चुनियें रल यार।“
—“पीलू पक गए, आओ, प्रीतम मिलकर चुनें।
मैंने चखकर नहीं देखे, आओ प्रीतम मिलकर पीलू चुनें।
पीलू चुन-चुनकर मैंने पिटारी भर ली।
ओ रांझन, तू जाते समय मुझे न मिल।
पीलू पक गए, आओ, प्रीतम, मिलकर चुनें।“
रांझे का 'सौदागर' रूप जो कहानी में कहीं न था, व्यापक जीवन के गीत-गीत में आ गया। या यह कहिए कि किसी कुलवधू का पति रांझा बन गया—
“उच्चियां लम्मियां टालियां, सुदागर रांझा
घुम्मरे घुम्मरे तूत ओ रांझा”
—“शीशम के ऊँचे और लंबे पेड़ हैं, औ सौदागर रांझा! घने-घने हैं ये तूतके वृक्ष, ओ रांझा!”
झनां नदी सतलुज में बदल जाती है। हीर पानी भरने चली है—
“मिल सइयां रांझन पानी नू चल्लियां
मैं वो जाणां नाल वे, जाण दे सतलुज।”
—“सब सखियां मिलकर पानी भरने चली हैं,
मैं भी उनके साथ जाऊँगी, मुझे सतलुज के तट पर जाने दो।“
कहानी में हीर और रांझा ने दाम्पत्य जीवन में प्रवेश न किया था। अब घर-घर दाम्पत्य जीवन एवं हीर रांझा को लिए बैठा है—
“मां हस्से तेरा पियो हस्से
मैंनूं तेरे हस्सन दा चा वे
रांझन हस्सदा क्यों नाहीं?“
—'तुम्हारी माता हँस रही है, पिता भी हँस रहा है।
मुझे तो तुम्हें हँसते देखने का चाव है,
ओ रांझन, हँसता क्यों नहीं?
रांझा यहाँ 'रांझन' बन गया है। रांझा शब्द का यह अतिप्रिय रूप है। रांझन की ओर से आनेवाली हवा हर खिले फूल पर फूलती रहे, यही हर एक हीर वियोग के दिनों में सोचती है—
“पारे मैरे फुल्ल सुनीना
खिड़ेया नहीं पर खिड़सी
ज्यों-ज्यों फुल्ल उतेरे होसी
वा रांझन दी भुल्लसी।“
—“पार के वन में एक फूल है,
अभी खिला नहीं, पर खिलेगा।
ज्यों-ज्यों फूल खिलेगा,
रांझन की ओर से आती हवा इस पर झूलेगी।
हाँ, रांझे की 'बंझली' ज्यों की त्यों रही है। बंझली के बिना शायद रांझे का 'कृष्ण' रूप बहुत कुछ कम हो जाता। उसकी बंझली बराबर बजती है—
“चढ़ कोठे रांझा बंझली बजावे
नैणीं नींद न आवे
मिन्हीं-मिन्हीं तार बजावे
मेरे गयी कलेजे नूं खा वे
—“छत पर चढ़ कर रांझा बंझली बजाता है
मेरी आँखों में नींद नहीं आ पाती।
ज़रा कोमल स्वर बजाओ,
वह तो मेरे हृदय को खाये जा रही है।“
हीर राँझा के गीत पंजाबी लोक गीत की विशेषता है। इनकी जड़ पंजाबी लोक-गीत में बहुत गहरी चली गई है। पंजाबी कवि सैयद वारिस शाह ने हीर-रांझा की प्रेमगाथा पर एक पूरा काव्य लिखा है जिस पर पंजाबी साहित्य को सदैव गर्व रहेगा। यद्यपि वारिस शाह के गहरे मनोवैज्ञानिक और शृंगार रस में डूबे हुए भाव-चित्र अपना अलग सौंदर्य रखते हैं, पर लोकगीतों में भी हीर-रांझा के चित्र कुछ कम आकर्षण नहीं रखते। उर्दू कवि नासिख ने हीर-रांझा की प्रेमगाथा के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा है—
‘सुनाया रात को क़िस्सा जो हीर राँझे का,
तो अहले दर्द को पंजाबियों ने लूट लिया!’
यहाँ 'अहले-दर्द' का अर्थ है भावुक अथवा मर्मज्ञ। नासिख यह कहना चाहते थे कि हीर रांझा का प्रेम संगीत इतना प्रभावशाली होता है कि श्रोतागण इसके शब्द चाहे समझ न सकें, पर वे इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते, अर्थात् उनका दिल लुटे बिना नहीं रहता। यहाँ उन्होंने वस्तुतः पंजाबी निवासियों पर व्यंग्य भी किया है। वे कहना चाहते हैं कि पंजाबी यहाँ भी रहे लुटेरे ही
- पुस्तक : बेला फूले आधी रात (पृष्ठ 8)
- रचनाकार : देवेंद्र सत्यार्थी
- प्रकाशन : राजहंस प्रकाशन
- संस्करण : 1948
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