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स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन

svarg mein vichar sabha ka adhiveshan

भारतेंदु हरिश्चंद्र

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भारतेंदु हरिश्चंद्र

स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन

भारतेंदु हरिश्चंद्र

और अधिकभारतेंदु हरिश्चंद्र

    रोचक तथ्य

    जून 1875 में कविवचन-सुधा में प्रकाशित।

    स्वामी दयानंद सरस्वती और बाबू केशवचंद्र के स्वर्ग में जाने से वहाँ एक बार बड़ा आंदोलन हो गया। स्वर्गवासी लोगों में बहुतेरे तो इनमें घृणा करके धिक्कार करने लगे और बहुतेरे इनको अच्छा कहने लगे। स्वर्ग में 'कंज़र्वेटिव' और 'लिबरल' दो दल हैं। जो पुराने ज़माने के ऋषि-मुनि यज्ञ कर-करके या तपस्या करके अपने-अपने शरीर को सुखा-सुखाकर और कर्म में पच-पच कर मर के स्वर्ग गए हैं, उनकी आत्मा का दल 'कंज़र्वेटिव' है, और जो अपनी आत्मा ही की उन्नति से, या अन्य किसी सार्वजीवन भाव, उच्च भाव संपादन करने से या परमेश्वर की भक्ति से स्वर्ग में गए हैं, वे 'लिबरल' दल भक्त हैं। वैष्णव दोनों दल के क्या दोनों से ख़ारिज थे, क्योंकि इनके स्थापकगण तो लिबरल दल के थे; किंतु अब ये लोग 'रेडिकल्स' क्या, महा-महा रेडिकल्स हो गए हैं। बिचारे बूढ़े व्यासदेव को दोनों दल के लोग पकड़-पकड़कर ले जाते, अपनी-अपनी सभा का 'चेयरमैन' बनाते थे और बिचारे व्यासजी भी अपने प्राचीन अव्यवस्थित स्वभाव और शील के कारण जिसकी सभा में जाते थे, वैसी ही वक्तृता कर देते थे। कंज़र्वेटिवों का दल प्रबल था; इसका मुख्य कारण यह था कि स्वर्ग के ज़मींदार इंद्र, गणेश प्रभृति भी उनके साथ योग देते थे; क्योंकि बंगाल के ज़मींदारों की भाँति उदार लोगों की बढ़ती से उन बेचारों को विविध सर्वोपरि बलि और भाग मिलने का डर था।

    कई स्थानों पर प्रकाश सभा हुई। दोनों दल के लोगों ने बड़े आतंक से वक्तृता दी। 'कंज़र्वेटिव' लोगों का पक्ष समर्थन करने को देवता लोग भी बैठे और अपने-अपने लोकों में भी उस सभा की शाख़ा-स्थापना करने लगे। इधर 'लिबरल' लोगों की सूचना प्रचलित होने पर मुसलमानी-स्वर्ग और जैन-स्वर्ग तथा क्रिस्तानी-स्वर्ग से पैगंबर, सिद्ध, मसीह प्रभृति, हिंदू स्वर्ग में उपस्थित हुए और लिबरल सभा में योग देने लगे। बैकुंठ में चारों ओर इसी की धूम हो गई। ''कंज़र्वेटिव' लोग कहते, छिः! दयानंद कभी स्वर्ग में आने के योग्य नहीं; इसने (1) पुराणों का खंडन किया, (2) मूर्तिपूजा की निंदा की, (3) वेदों का अर्थ उलटा-पुलटा कर डाला, (4) दश नियोग करने की विधि निकाली, (5) देवताओं का अस्तित्व मिटाना चाहा, और अंत में संन्यासी होकर अपने को जलवा दिया। नारायण! नारायण! ऐसे मनुष्य की आत्मा को कभी स्वर्ग में स्थान मिल सकता है, जिसने ऐसा धर्म-विप्लव कर दिया और आर्यावर्त को धर्म-बहिर्मुख किया।”

    एक सभा में काशी के विश्वनाथजी ने उदयपुर के एकलिंगजी से पूछा, भाई! तुम्हारी क्या मत मारी गई, जो तुमने ऐसे पतित को अपने मुँह लगाया और अब उसके दल के सभापति बने हो? ऐसा ही करना है तो जाओ, लिबरल लोगों से योग दो।” एकलिंगजी ने कहा, “भाई, हमारा मतलब तुम लोग नहीं समझे। हम उसकी बुरी बातों को मानते, उसका प्रचार करते। केवल अपने यहाँ के जंगल की सफ़ाई का कुछ दिन उसको ठेका दिया, बीच में वह मर गया। अब उसका माल मता ठिकाने रखवा दिया तो क्या बुरा किया?”

    कोई कहता, “केशवचंद्र सेन! छिःछि: ! इसने सारे भारतवर्ष का सत्यानाश कर डाला। (1) वेद पुराण सबको मिटाया, (2) क्रिस्तान मुसलमान सबको हिंदू बनाया, (3) खाने-पीने का विचार कुछ बाक़ी रखा, (4) मद्य की तो नदी बहा दी। हाय-हाय! ऐसी आत्मा क्या कभी वैकुंठ में सकती है।”

    ऐसे ही दोनों के जीवन की समालोचना चारों ओर होने लगी।

    लिबरल लोगों की सभा भी बड़े धूमधाम से जमती थी। किंतु इस सभा में दो दल हो गए थे। एक जो केशव की विशेष स्तुति करते, दूसरे वे जो दयानंद को विशेष आदर देते थे। कोई कहता, अहा धन्य दयानंद, जिसने आर्यावर्त के निंदित आलसी मूर्खों की मोह निद्रा भंग कर दी। हज़ारों मूर्खों को ब्राह्मणों के (जो कंज़र्वेटिवों के पादरी और व्यर्थ प्रजा का द्रव्य खाने वाले हैं) फँदे से छुड़ाया। बहुतों को उद्योगी और उत्साही बना दिया। वेद में रेल, तार, कमेटी, कचहरी, दिखाकर आर्यों की कटती हुई नाक बचा ली। कोई कहता, धन्य केशव! तुम साक्षात दूसरे केशव हो। तुमने बंग देश की मनुष्य नदी के उस वेग को, जो किश्चन समुद्र में मिल जाने को उच्छलित हो रहा था, रोक दिया। ज्ञान कर्म का निरादर करके परमेश्वर का निर्मल भक्तिमार्ग तुमने प्रचलित किया।

    कंज़रवेटिव पार्टी में देवताओं के अतिरिक्त बहुत लोग थे, जिनमें याज्ञवल्क्य प्रभृत्ति कुछ तो पुराने ऋषि थे और कुछ नारायण भट्ट, रघुनंदन भट्टाचार्य, मंडन मिश्र प्रभृति स्मृति ग्रंथकार थे। सुना है कि विदेशी स्वर्ग के कुछ 'शीआ' लोगों ने भी इसके साथ योग दिया है।

    लिबरल दल में चैतन्य प्रभृति आचार्य, दादू, नानक, कबीर प्रभृति भक्त और ज्ञानी लोग थे। अद्वैतवादी भाष्यकार आचार्य पंचदशीकार प्रभृति पहले दल मुक्त नहीं होने पाए। मिस्टर ब्रैडला की भाँति इन लोगों पर कंज़रवेटियों ने बड़ा आक्षेप किया, किंतु अंत में लिबरलों की उदारता से उनके समाज में इनको स्थान मिला था।

    दोनों दलों के मेमोरियल तैयार कर स्वाक्षरित होकर परमेश्वर के पास भेजे गए। एक में इस बात पर युक्ति और आग्रह प्रकट किया था कि केशव और दयानंद कभी स्वर्ग में स्थान पावें और दूसरे में इसका वर्णन था कि स्वर्ग में इनको सर्वोत्तम स्थान दिया जाए।

    ईश्वर ने दोनों दलों के डेप्यूटेशन को बुलाकर कहा, “बाबा, अब तो तुम लोगों की ‘सैल्फ़ गवर्नमेंट' है। अब कौन हमको पूछता है, जो जिसके जी में आता है, करता है। अब चाहे वेद क्या संस्कृत का अक्षर भी स्वप्न में भी देखा हो, पर लोग धर्म विषय पर वाद करने लगते हैं। हम तो केवल अदालत या व्यवहार या स्त्रियों के शपथ खाने को ही मिलाए जाते हैं। किसी को हमारा डर है? कोई भी हमारा सच्चा 'लायक़' है? भूत-प्रेत, ताज़िया के इतना भी तो हमारा दर्ज़ा नहीं बचा। हमको क्या काम, चाहे वैकुंठ में कोई आवे या आवे। हम जानते हैं, चारों लड़कों (सनक आदि) ने पहले ही से चाल बिगाड़ दी है। क्या हम अपने बिचारे जय-विजय को फिर राक्षस बनवावें कि किसी की रोक-टोक करें। चाहे सगुन मानो, चाहे निर्गुन, चाहे द्वैत मानो, चाहे अद्वैत, हम अब बोलेंगे। तुम जानो, स्वर्ग जाने।

    डेप्यूटेशन वाले परमेश्वर की कुछ ऐसी झुझलाई हुई बात सुनकर कुछ डर गए। बड़ा निवेदन-निवेदन किया। कोई प्रकार से परमेश्वर का क्रोध शांत हुआ। अंत में परमेश्वर ने इस विषय के विचार के हेतु एक 'सिलेक्ट कमेटी' स्थापन की। इसमें राजा राममोहन राय, व्यासदेव, टोडरमल्ल, कबीर प्रभृति भिन्न-भिन्न मत के लोग चुने गए। मुसलमानी-स्वर्ग से एक 'इमाम', क्रिस्तानी से 'लूथर', जैनी से पारसनाथ, बौद्धों से नागार्जुन, और अफ़्रीका से सिटोवायो के बाप को इस कमेटी का 'एक्स आफीशियो' मेंबर किया। रोम के पुराने 'हरकुलिस' प्रभृति देवता तो अब गृह-संन्यास लेकर स्वर्ग ही में रहते हैं और पृथ्वी से अपना संबंध मात्र छोड़ बैठे हैं, तथा पारसियों के 'ज़रदुश्त जी' को 'कारेस्पोंडिग आनरेरी मेंबर' नियत किया और आज्ञा दिया कि तुम लोग यह सब काग़ज़-पत्र देखकर हमको रिपोर्ट करो। उनको ऐसी भी गुप्त आज्ञा थी कि एडिटरों की आत्मागण को तुम्हारी किसी 'कारवाई' का समाचार तक मिलै, जब तक कि रिपोर्ट हम पढ़ ले, नहीं वे व्यर्थ चाहे कोई सुनै चाहे सुन, अपनी टांय-टांय मचा ही देंगे।

    'सिलेक्ट कमेटी' का कई अधिवेशन हुआ। सब काग़ज़-पत्र देखे गए। दयानंदी और केशवी ग्रंथ तथा अनके-अनेक प्रत्युत्तर और बहुत से समाचार पत्रों का मुलाहिज़ा हुआ। बालशास्त्री प्रभृति कई कंज़र्वेटिव और द्वारकानाथ प्रभृति लिबरल नव्य आत्मागरणों की साक्षी ली गई। अंत में कमेटी या कमीशन ने जो रिपोर्ट किया, उसकी मर्म बात यह थी कि—

    हम लोगों की इच्छा रहने पर भी प्रभु की आज्ञानुसार हम लोगों ने इस मुक़दमे के सब काग़ज़-पत्र देखे। हम लोगों ने इन दोनों मनुष्यों के विषय में जहाँ तक समझा और सोचा है, निवेदन करते हैं। हम लोगों की सम्मति में इन दोनों पुरुषों ने प्रभु को मंगलमयी सृष्टि का कुछ विघ्न नहीं किया, वरंच उसमें सुख और संतति अधिक हो, इसी में परिश्रम किया। जिस चंडाल रूपी आग्रह और कुरीति के कारण मनमाना पुरुष धर्मपूर्वक पाकर लाखों स्त्री कुमार्ग गमिनी हो जाती हैं, लाखों विवाह होने पर भी जन्म भर सुख नहीं भोगने पाता, लाखों गर्भ नाश होते और लाखों ही बालहत्या होती है, उस पापमयी परम नृशंस रीति को इन लोगों ने उठा देने में अपने शक्य भर परिश्रम किया। जन्मपत्री की विधि के अनुग्रह से जब तक स्त्री-पुरुष जीऐ, एक तीर घाट, एक मार घाट रहें, बीच में इस वैमनस्य और असंतोष के कारण स्त्री व्यभिचारिणी और पुरुष विषयी हो जाए, परस्पर नित्य कलह हो, शांति स्वप्न में भी मिले, वंश चले, यह उपद्रव इन लोगों से नहीं सहे गए। विधवा गर्भ गिरावे, पंडितजी या बाबू साहब यह सह लेंगे, वरंच चुपचाप उपाय भी करा देंगे, पाप को नित्य छिपावेंगे, अंततोगत्वा निकल ही जाए तो संतोष करेंगे, पर विधवा का विधिपूर्वक विवाह हो, फूटी सहेंगे, आंजी सहेंगे, इस दोष को इन दोनों ने निःसन्देह दूर करना चाहा। सवर्ण पात्र मिलने से कन्या को वर मूर्ख, अंधा वरंच नपुसंक मिले, तथा वर को काली, कर्कश कन्या मिले, जिसके आगे बहुत बुरे परिणाम हों, इस दुराग्रह को इन दोनों ने दूर किया। चाहे पढ़े हो चाहे मूर्ख, सुपात्र हो कि कुपात्र, चाहे प्रत्यक्ष व्यभिचार करें या कोई भी बुरा कर्म करें, पर गुरु जी हैं, पंडित जी हैं, इनका दोष मत कहो, कहोगे तो पतित होंगे, इनको दो इनको राज़ी रखो; इस सत्यानाश संस्कार को इन्होंने दूर किया, आर्य जाति दिन-दिन ह्रास हो, लोग स्त्री के कारण, धन के या नौकरी व्यापार आदि के लोभ से, मद्यपान के चसके से, बाद में हारकर, राजकीय विद्या का अभ्यास करके मुसलमान या क्रिस्तान हो जाए, आमदनी एक मनुष्य को भी बाहर से हो, केवल नित्य व्यय हो। अंत में आर्यों का धर्म और जाति कथाशेष रह जाए; किंतु जो बिगड़ा सो बिगड़ा, फिर जाति में कैसे आवेगा, कोई भी दुष्कर्म किया तो छिपके क्यों नहीं किया, इसी अपराध पर हज़ारों मनुष्य हर साल छूटते थे। उसको इन्होंने रोका, सबसे बढ़कर इन्होंने यह कार्य किया कि सारा आर्यावर्त जो प्रभु से विमुख हो रहा था, देवता बिचारे तो दूर रहे, भूत-प्रेत, पिसाच, मुरदे, साँप के काटे, बाघ के मारे, आत्महत्या करके मरे, जल, दब या डूबकर मरे लोग, यही नहीं मुसलमानी पीर, पैगंबर, औलिया, शहीद, वीर, ताज़िया, गाजीमियाँ, जिन्होंने बड़ी-बड़ी मूर्ति तोड़कर और तीर्थ पाट कर आर्य धर्म विध्वंस किया, उनको मानने और पूजने लगे थे, विश्वास तो मानो छिनाल का अंग हो रहा था। देखते-सुनते लज्जा आती थी कि हाय, ये कैसे आर्य हैं, किससे उत्पन्न हैं! इस दुराचार की ओर से लोगों का अपनी वक्तृताओं के थपेड़े के बल से मुँह फेरकर सारे आर्यावर्त को शुद्ध 'लायल' कर दिया।

    'भीतरी चरित्र में इन दोनों के जो अंतर है वह भी निवेदन कर देना उचित है। दयानंद की दृष्टि हम लोगों की बुद्धि में अपनी प्रसिद्धि पर विशेष रही। रंग-रूप भी इन्होंने कई बदले। पहले केवल भागवत का खंडन किया, फिर सब पुराणों का। फिर कई ग्रंथ माने, कई छोड़े। अपने काम के प्रकरण माने, अपने विरुद्ध को क्षेपक कहा। पहले दिगंबर मिट्टी पोते महात्यागी थे, फिर संग्रह करते-करते सभी वस्त्र धारण किए। भाष्य में रेल, तार आदि कई अर्थ ज़बरदस्ती किए। इसी से संस्कृत विद्या को भली भांति जाननेवाले ही प्रायः इनके अनुयायी हुए। जाल को छुरी से काटकर दूसरे जाल ही से जिसको काटना चाहा, इसी से दोनों आपस में उलझ गए और इसका परिणाम गृहविच्छेद उत्पन्न हुआ।

    'केशव ने इनके विरुद्ध जाल काटकर परिष्कृत पथ प्रकट किया। परमेश्वर से मिलने-मिलाने की आड़ या बहाना नहीं रखा। अपनी भक्ति की उच्छलित लहरों में लोगों का चित्त आर्द्र कर दिया। यद्घपि ब्राह्मण लोगों ने सुरा-माँसादि का प्रचार विशेष है, किंतु इसमें केशव का कोई दोष नहीं। केशव अपने अटल विश्वास पर खड़ा रहा। यद्घपि कूचविहार के संबंध करने से और यह कहने से कि ईसा मसीह आदि उससे मिलते हैं, अंतावस्था के कुछ पूर्व उनके चित्त की दुर्बलता प्रकट हुई थी, किंतु वह एक प्रकार का उन्माद होगा वा जैसे बहुतेरे धर्म-प्रचारकों ने बहुत बड़ी बातें ईश्वर की आज्ञा बतला दी, वैसे ही यदि इन बेचारे ने एक-दो बात कही तो क्या पाप किया? पूर्वोक्त कारणों ही से केशव का मरने पर जैसा सारे संसार में आदर हुआ, वैसा दयानंद का नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त इन लोगों के हृदय के भीतर छिपा कोई पुण्य पाप रहा हो, तो उसको हम लोग नहीं जानते, इसका जाननेवाला केवल तू ही है।'

    इस रिपोर्ट पर विदेशी मेंबरों ने कुछ त्रुद्ध होकर हस्ताक्षर नहीं किया।

    रिपोर्ट परमेश्वर के पास भेजी गई। इसको देखकर इस पर क्या आज्ञा हुई और वे लोग कहाँ भेजे गए, यह जब हम भी वहाँ जाएँगे और फिर लौटकर सकेंगे, तो पाठक लोगों को बतलायेंगे या आप लोग कुछ दिन पीछे आप ही जानोगे।

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