एक दुराश (शिवशंभू के चिट्ठे और ख़त)
ek durash (shivshambhu ke chitthe aur khat)
बालमुकुंद गुप्त
Balmukund Gupt

एक दुराश (शिवशंभू के चिट्ठे और ख़त)
ek durash (shivshambhu ke chitthe aur khat)
Balmukund Gupt
बालमुकुंद गुप्त
और अधिकबालमुकुंद गुप्त
नारंगी के रस में ज़ाफ़रानी बसंती बूटी छानकर शिवशंभु शर्मा खटिया पर पड़े मौजों का आनंद ले रहे थे। ख़याली घोड़े की बाग़ें ढीली कर दी थीं। वह मनमानी जकंदे भर रहा था। हाथ-पाँवों को भी स्वाधीनता दे दी गई थी। वह खटिया के तूलअरज की सीमा उल्लंघन करके इधर-उधर निकल गए थे। कुछ देर इसी प्रकार, शर्माजी का शरीर खटिया पर था और ख़याल दूसरी दुनिया में।
अचानक एक सुरीली गाने की आवाज़ ने चौंका दिया। कन-रसिया शिवशंभु खटिया पर उठ बैठे। कान लगाकर सुनने लगे। कानों में यह मधुर गीत बार-बार अमृत ढालने लगा—
‘चलो चलो आज खेलें होली, कन्हैया’ घर।
कमरे से निकलकर बरामदे में खड़े हुए। मालूम हुआ कि पड़ोस में किसी अमीर के यहाँ गाने-बजाने की महफ़िल हो रही है। कोई सुरीली लय से उक्त होली गा रहा है। साथ ही देखा, बादल घिरे हुए हैं, बिजली चमक रही है, रिमझिम झड़ी लगी है। बसंत में सावन देखकर अक्ल ज़रा चक्कर में पड़ी। विचारने लगे कि गानेवाले को मलार गाना चाहिए था, न कि होली। साथ ही ख़याल आया कि फाल्गुन सुदी है, बसंत के विकास का समय है, वह होली क्यों न गाए? इसमें तो गानेवाले की नहीं, विधि की भूल है, जिसने बसंत में सावन बना दिया है। कहाँ तो चाँदनी छिटकी होती, निर्मल वायु बहती, कोयल की कूक सुनाई देती, कहाँ भादों की-सी अँधियारी है, वर्षा की झड़ी लगी हुई है! ओह! कैसा ऋतु-विपर्यय है?
इस विचार को छोड़कर गीत के अर्थ का विचार जी में आया। होली खिलैया कहते हैं कि चलो, आज कन्हैया के घर होली खेलेंगे। कन्हैया कौन? बज्र के राजकुमार। और खेलने वाले कौन? उनकी प्रजा—ग्वाल बाल। इस विचार ने शिवशंभु शर्मा को और भी चौंका दिया कि ऐं! क्या भारत में ऐसा भी समय था, जब प्रजा के लोग राजा के घर जाकर होली खेलते थे और राजा प्रजा मिलकर आनंद मनाते थे? क्या इसी भारत में राजा लोग प्रजा के आनंद को किसी समय अपना आनंद समझते थे? अच्छा, यदि आज शिवशंभु अपने मित्रवर्ग सहित, अबीर-गुलाल की झोलियाँ भरे, रंग की पिचकारियाँ लिए, अपने राजा के घर होली खेलने जाए, तो कहाँ जाए? राजा दूर सात समुद्र पार है। राजा का केवल नाम सुना है। न राजा को शिवशंभु ने देखा, न शिवशंभु ने राजा को। ख़ैर, राजा नहीं, उसने अपना प्रतिनिधि भारत में भेजा है। कृष्ण द्वारिका में ही हैं, पर उद्धव को प्रतिनिधि बनाकर ब्रजवासियों को संतोष देने के लिए ब्रज में भेजा है। क्या उस राजप्रतिनिधि के घर जाकर शिवशंभु होली नहीं खेल सकता?
ओफ! यह विचार वैसा ही बेतुका है, जैसे अभी वर्षा में होली गाई जाती थी! पर इसमें गानेवाले का क्या दोष है? वह तो समय समझकर ही गा रहा था। यदि बसंत में वर्षा की झड़ी लगे, तो गानेवाले को क्या मलार गाना चाहिए? सचमुच बड़ी कठिन समस्या है! कृष्ण है, उद्धव हैं, पर ब्रजवासी उनके निकट फटकने भी नहीं पाते। राजा है, राजप्रतिनिधि है; पर प्रजा की उन तक रसाई नहीं! सूर्य है, धूप नहीं! चंद्र है, चाँदनी नहीं! माइ लार्ड! नगर ही में हैं; पर शिवशंभु उनके द्वार तक नहीं फटक सकता है, उनके घर चलकर होली खेलना तो विचार ही दूसरा है। माइ लार्ड के घर तक प्रजा की बात नहीं पहुँच सकती। बात की हवा नहीं पहुँच सकती। जहाँगीर की भाँति उसने अपने शयनागार तक ऐसा कोई घंटा नहीं लगाया, जिसकी ज़ंजीर बाहर से हिलाकर प्रजा अपनी फ़रियाद उसे सुना सके। न आगे को लगाने की आशा है। प्रजा की बोली वह नहीं समझता, उसकी बोली प्रजा नहीं समझती। प्रजा के मन का भाव वह न समझता है, न समझना चाहता है। उनके मन का भाव प्रजा समझ सकती है, न समझने का कोई उपाय है। उसका दर्शन दुर्लभ है। द्वितीया के चंद्र की भाँति कभी-कभी बहुत देर तक नज़र गड़ाने से उसका चंद्रायन दिख जाता है, तो दिख जाता है। लोग उँगलियों के इशारे करते हैं कि वह हैं। किंतु दूज के चाँद के उदय का भी एक समय है। लोग उसे जान सकते हैं। माइ लार्ड के मुखचंद्र के उदय के लिए कोई समय भी नियत नहीं। अच्छा, जिस प्रकार इस देश का निवासी माइ लार्ड का चंद्रायन देखने को टकटकी लगाए रहता है या जैसे शिवशंभु शर्मा जी के में अपने देश के माई लार्ड से होली खेलने की आई, इस प्रकार कभी माई लार्ड को भी इस देश के लोगों की सुध आती होगी? क्या कभी श्रीमान् का जी होता होगा कि अपनी प्रजा में, जिसके दंड-मुंड के विधाता होकर आए हैं, किसी एक आदमी से मिलकर उसके मन की बात पूछें या कुछ आमोद-प्रमोद की बातें करके उसके मन को टटोलें? माई लाई को ड्यूटी का ध्यान दिलाना सूर्य को दीपक दिखाना है। वह स्वयं श्रीमुख से कह चुके हैं कि ड्यूटी में बँधा हुआ मैं इस देश में फिर आया। यह देश मुझे बहुत ही प्यारा है। इससे ड्यूटी और प्यार की बात श्रीमान् के कथन से ही तय हो जाती है। उसमें किसी प्रकार की हुज्जत उठाने की ज़रूरत नहीं, तथापि यह प्रश्न आपसे आप जी में उठता है कि इस देश की प्रजा से प्रजा के माई लार्ड का निकट होना और प्रजा के लोगों की बात जानना भी उस ड्यूटी की सीमा तक पहुँचा है या नहीं? यदि पहुँचा है, तो क्या श्रीमान् बता सकते हैं कि अपने छः साल के लंबे शासन में इस देश की प्रजा को क्या जाना और उससे क्या संबंध उत्पन्न किया? जो पहरेदार सिर पर फेंटा बाँधे, हाथ में संगीनदार बंदूक़ लिए, काठ के पुतलों की भाँति गवर्नमेंट हाउस के द्वार पर दंडायमान रहते हैं या छाया का मूर्ति की भाँति ज़रा इधर-उधर हिलते-डुलते दिखाई देते हैं, कभी उनको भूले-भटके आपने पूछा है कि कैसी गुज़रती है? किसी काले प्यादे-चपरासी या खानसामा आदि से कभी आपने पूछा कि कैसे रहते हो? तुम्हारे देश की क्या चाल-ढाल है? तुम्हारे देश के लोग हमारे राज्य को कैसा समझते हैं? क्या इन नीचे दर्ज़े के नौकर-चाकरों को कभी माई लार्ड के श्रीमुख से निकले हुए अमृत रूपी वचनों के सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ या ख़ाली पेड़ों पर बैठी चिड़ियों का शब्द ही उनके कानों तक पहुँचकर रह गया? क्या कभी सैर-तमाशे में टहलने के समय या किसी एकांत स्थान में इस देश के किसी आदमी से कुछ बातें करने का अवसर मिला? अथवा इस देश के प्रतिष्ठित बेग़रज़ आदमी को अपने घर पर बुलाकर इस देश के लोगों के सच्चे विचार जानने की चेष्टा की? अथवा कभी विदेश या रियासतों के दौरे में उन लोगों के सिवा, जो झुक-झुककर लंबी सलामें करने आए हों, किसी सच्चे और बेपरवा आदमी से कुछ पूछने या कहने का कष्ट किया? सुनते हैं कि कलकत्ते में श्रीमान् ने कोना-कोना देख डाला। भारत में क्या भीतर और क्या सीमाओं पर कोई जगह देखे बिना नहीं छोड़ी बहुतों का ऐसा ही विचार था। पर कलकत्ता यूनिवर्सिटी के परीक्षोत्तीर्ण छात्रों की सभा में चांसलर का जामा पहनकर माई लार्ड ने जो अभिज्ञता प्रगट की, उससे स्पष्ट हो गया कि जिन आँखों से श्रीमान् ने देखा, उनमें इस देश की बातें ठीक देखने की शक्ति न थी।
सारे भारत की बात जाए, इस कलकत्ते में ही देखने की इतनी बातें हैं कि केवल उनको भली भाँति देख लेने से भारतवर्ष की बहुत-सी बातों का ज्ञान हो सकता है। माई लार्ड से शासन के छः साल हालबेल के स्मारक में लाठ बनवाने, ब्लैक-होल का पता लगाने, अख़्तरलोनी की लाठ को मैदान से उठवाकर वहाँ विक्टोरिया मेमोरियल हाल बनवाने, गवर्नमेंट हाउस के आसपास अच्छी रोशनी, अच्छे फ़ुटपाथ और अच्छी सड़कों का प्रबंध कराने में बीत गए। दूसरा दौरा भी वैसे ही कामों में बीत रहा है। संभव है कि उसमें भी श्रीमान् के दिलपसंद अँग्रेज़ी मुहल्लों में कुछ और बड़ी-बड़ी सड़कें निकल जाएँ और गवर्नमेंट हाउस की तरफ़ के स्वर्ग की सीमा और बढ़ जाए। पर नगर जैसा अँधेरे में था, वैसा ही रहा; क्योंकि उसकी असली दशा देखने के लिए और ही प्रकार की आँखों की ज़रूरत है। जब तक वह आँखें न होंगी, यह अँधेरा यों ही चला जावेगा। यदि किसी दिन शिवशंभु शर्मा के साथ माई लार्ड नगर की दशा देखने चलते, तो वह देखते कि महानगर की लाखों प्रजा भेड़ों और सूअरों की भाँति सड़े-गंदे झोंपड़ों में पड़ी लोटती है। उनके आस-पास सड़ी बदबू और मैले-सड़ें पानी के नाले बहते हैं। कीचड़ और कूड़े के ढेर चारों ओर लगे हुए हैं। उनके शरीरों पर मैले-कुचैले, फटे चिथड़े लिपटे हुए हैं। उनमें से बहुतों को आजीवन पेटभर अन्न और शरीर ढाँकने को कपड़ा नहीं मिलता। जाड़ों में सर्दी से अकड़कर रह जाते हैं और गर्मी में सड़कों पर घूमते तथा जहाँ-तहाँ पड़ते-फिरते हैं। बरसात में सड़े-सीले घरों में भीगे पड़े रहते हैं। सारांश यह है कि हर एक ऋतु की तीव्रता में सबसे आगे मृत्यु के पथ का वही अनुगमन करते हैं। मौत ही एक है, जो उनकी दशा पर दया करके जल्द-जल्द उन्हें जीवन रूपी रोग के कष्ट से छुड़ाती है।
परंतु क्या इनसे भी बढ़कर और दृश्य नहीं हैं? हाँ, हैं, पर ज़रा और स्थिरता से देखने के हैं। बालू में बिखरी हुई चींज़ों को हाथी अपनी सूँड से नहीं उठा सकता, उसके लिए चिंवटी की जिह्वा की दरकार है। इसी कलकत्ते में, इसी इमारतों के नगर में, माई लार्ड की प्रजा में हज़ारों आदमी ऐसे हैं, जिनको रहने को सड़ा झोंपड़ा भी नहीं है। गलियों और सड़कों पर घूमते-घूमते जहाँ जगह देखते हैं, वहीं पड़े रहते हैं। बीमार होते हैं, तो सड़कों ही पर पड़े पाँव पीटकर मर जाते हैं। कभी आग जलाकर खुले मैदान में पड़े रहते हैं। कभी-कभी हलवाइयों की भट्टियों से चमटकर रात काट देते हैं। नित्य इनकी दो-चार लाश जहाँ-तहाँ से पड़ी हुई पुलिस उठाती है। भला, माई लार्ड तक उनकी बात कौन पहुँचावे? दिल्ली-दरबार में भी, जहाँ सारे भारत का वैभव एकत्र था, सैकड़ों ऐसे लोग दिल्ली की सड़कों पर पड़े दिखाई देते थे, परंतु उनकी ओर देखने वाला कोई न था। यदि माई लार्ड एक बार इन लोगों को देख पाते, तो पूछने को जगह हो जाती कि वह लोग भी ब्रिटिश राज्य के सिटीज़न हैं या नहीं? यदि हैं, तो कृपा पूर्वक पता लगाइए कि उनके रहने के स्थान कहाँ हैं और ब्रिटिश राज्य से उनका क्या नाता है? क्या कहकर वह अपने राजा और उसके प्रतिनिधि को संबोधित करें? किन शब्दों में ब्रिटिश राज्य को असीस दें? क्या यों कहें कि जिस ब्रिटिश राज्य में हम अपनी जन्मभूमि में एक उंगल भूमि के अधिकारी नहीं, जिसमें हमारे शरीर को फटे चिथड़े भी नहीं जुड़े और न कभी पापी पेट को पूरा अन्न मिला, उस राज्य की जय हो! उसका राजप्रतिनिधि हाथियों का जुलूस निकालकर, सबसे बड़े हाथी पर चंवर-छत्र लगाकर निकले और स्वदेश में जाकर प्रजा के सुखी होने का डंका बजावे।
इस देश में करोड़ों प्रजा ऐसी है, जिसके लोग जब संध्या-सवेरे किसी स्थान पर एकत्र होते हैं, तो महाराज विक्रम की चर्चा करते हैं और उन राजा-महाराजाओं की गुणावली का वर्णन करते हैं, जो प्रजा का दुःख मिटाने और उनके अभावों का पता लगाने के लिए रात को वेश बदलकर निकला करते थे। अकबर के प्रजापालन और बीरबल के लोकरंजन की कहानियाँ कहकर वह जी बहलाते हैं और समझते हैं कि न्याय और सुख का समय बीत गया। अब वह राजा संसार में उत्पन्न नहीं होते, जो प्रजा के सुख-दुख की बातें उनके घरों में आकर पूछ जाते थे। महारानी विक्टोरिया को वह अवश्य जानते हैं कि वह महारानी थीं। अब उनके पुत्र उनकी जगह राजा और इस देश के प्रभु हुए हैं। उनको इस बात की ख़बर तक भी नहीं कि उनके प्रभु के कोई प्रतिनिधि हैं और वही इस देश के शासन के मालिक होते हैं तथा कभी-कभी इस देश की तीस करोड़ प्रजा का शासन करने का घमंड भी करते हैं अथवा मन चाहे तो इस देश के साथ बिना कोई अच्छा बर्ताव किए भी यहाँ के लोगों को झूठा, मक्कार आदि कहकर अपनी बड़ाई करते हैं। इन सब विचारों ने इतनी बात तो शिवशंभु के जी में पक्की कर दी कि अब राजा-प्रजा के मिलकर होली खेलने का समय गया। जो बाक़ी था, वह काश्मीर नरेश महाराज रणवीर सिंह के साथ समाप्त हो गया। इस देश में उस समय के फिर जल्द लौटने की आशा नहीं। इस देश की प्रजा का अब वह भाग्य नहीं है। साथ ही राज पुरुष का भी ऐसा सौभाग्य नहीं है, जो यहाँ की प्रजा के अकिंचन प्रेम के प्राप्त करने की परवा करे। माई लार्ड अपने शासनकाल का सुंदर से सुंदर सुचित्र इतिहास स्वयं लिखवा सकते हैं, वह प्रजा के प्रेम की परवा क्या करेंगे। तो भी इतना संदेश भंगड़ शिवशंभु शर्मा अपने प्रभु तक पहुँचा देना चाहता है कि आपके द्वार पर होली खेलने की आशा करने वाले एक ब्राह्मण को कुछ नहीं, तो कभी-कभी पागल समझकर ही स्मरण कर लेना। वह आपकी गूँगी प्रजा का एक वकील है, जिसके शिक्षित होकर मुँह खोलने तक आप कुछ करना नहीं चाहते।
बसुलाजिमाने सुलतां के रसानद, ई दुआरा?
कि बहुके बादशाही जे नजर मरां गदारा॥
—भारतमित्र, 18 मार्च, 1905 ई.
- पुस्तक : बालमुकुंद गुप्त ग्रंथावली (पृष्ठ 110)
- संपादक : नत्थन सिंह
- रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
- प्रकाशन : हरियाणा साहित्य अकादमी
- संस्करण : 2008
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