मेरे बूझत बात तू
mere bujhat baat tu
मेरे बूझत बात तू, कत बहरावति बाल।
जग जानी बिपरीत रति, लखि बिंदुली पिय-भाल॥
विपरीत रति में नायक ने तो नायिका का रूप धारण कर लिया था और नायिका ने नायक का। प्रात: भूलवश नायक के मस्तक पर टिकुली या बिंदी लगी रह गई। अत: वह पकड़ में आ गई है। सखी नायिका से पूछती है कि क्या रात तूने विपरीत रति की थी? नायिका इस प्रश्न को टाल जाती है। सखी कहती है कि तेरी टाल-मटोल से कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि तेरे प्रिय के मस्तक पर जो बिंदी लगी हुई है, उसे संपूर्ण समाज ने देख लिया है अतः विपरीत रति का रहस्य अब रहस्य नहीं रह गया है। इसी संदर्भ में सखी ने नायिका से कहा कि हे सखी, तू मेरे प्रश्न का भले ही उत्तर मत दे और भले ही यह स्वीकार मत कर कि कल रात तूने विपरीत रति की थी। इतना ही नहीं, तू यह भी मत बता कि तेरी अनुभूति कैसी थी, पर यह निश्चित है कि तेरे टालमटोल करने पर भी तेरे प्रिय के मस्तक पर लगी बिंदी स्पष्ट रूप से प्रमाणित कर देती है कि तूने रात भर विपरीत रति की है।
- पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 250)
- संपादक : हरिचरण शर्मा
- रचनाकार : बिहारी
- प्रकाशन : श्याम प्रकाशन, जयपुर
- संस्करण : 2007
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