लाल, तुम्हारे विरह की
lal, tumhare wirah ki
लाल, तुम्हारे विरह की अगनि अनूप, अपार।
सरसै बरसैं नीरहूँ, झरहूँ मिटै न झार॥
हे प्रिय! तुम्हारे विरह की अग्नि की रीत अनोखी है, उसका किसी ने आज तक पार नहीं पाया। सरस स्नेह का नीर जितना बरसता है, उतनी ही यह अग्नि बढ़ती जाती है।
- पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 191)
- संपादक : हरिचरण शर्मा
- रचनाकार : बिहारी
- प्रकाशन : श्याम प्रकाशन, जयपुर
- संस्करण : 2007
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