कैसे बनती है कविता
kaise banti hai kavita
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
कविता कोने में घात लगाए बैठी है, यह हमारे जीवन में किसी भी क्षण बसंत की तरह आ सकती है।
—जॉर्ज लुइस बोर्सेस
अर्जेंटीना के स्पेनिश लेखक
कविता के बनने की कहानी। माँ, दादी और नानी की ज़ुबानी। लोरी के बोल। खेतों के ढोल। बच्चों के खेलगीत। स्कूल में उनका पहला क़दम। तोतली ज़बान से गीत दोहराता बच्चा। उनमें कुछ नए शब्द जोड़ता बच्चा—कविता की यह जानी-पहचानी दुनिया है जिसे हम सब जानते हैं। आप जैसे ही इन स्मृतियों से जुड़ेंगे कुछ बुनियादी सवालों पर सोचने को विवश होंगे। क्या कारण है कि दुनिया के हर बच्चे की पढ़ाई नर्सरी गानों से शुरू होती है? वह कौन-सी चीज़ है कविता के बोल में, जो दुनिया के बोल से ताल मिलाने के लिए ज़रूरी है? जैसे ही इन सवालों की ओर मुख़ातिब होते हैं। कविता की जानी-पहचानी दुनिया अनजानी लगने लगती है। कविता के खेत, खलिहान, बाग़, बग़ीचे, चिड़िया, शेर, मोची, पानी सूखा, गाँव, नगर सब अपरिचित से लगने लगते हैं। इस अपरिचित दुनिया में गोते लगाने वाले आलोचक और कवियों को कविता कभी जादू लगती है तो कभी पहेली।
वाचिक परंपरा के रूप में जन्मी कविता आज लिखित रूप में मौजूद है। उसके साथ ही मौजूद है यह सवाल कि कविता क्या है? यद्यपि कविता की इस पहेली को बुझना जटिल प्रक्रिया है। सारी जटिलता के बावजूद कविता हमारी संवेदना के निकट होती है। वह हमारे मन को छू लेती है। कभी-कभी झकझोर देती है। कविता के मूल में संवेदना है, राग तत्त्व है। यह संवेदना, संपूर्ण सृष्टि से जुड़ने और उसे अपना बना लेने का बोध है। यह वही सर्वदना है जिसने रत्नाकर डाकू को वाल्मीकि बना दिया और वे कह उठे—
मा निषाद! प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समाः।
याक्क्रीञ्च मिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥
इसी को सुमित्रानंदन पंत ने कहा है—
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान॥
सवाल यह उठता है कि जो वस्तु हमारे इतने निकट है उसे हम उसी तरह क्यों नहीं कह पाते, जैसे कवि कहता है। जहाँ तक कविता लेखन का सवाल है इस संबंध में दो मत मिलते हैं। एक तो यह कि कविता रचने की कोई प्रणाली सिखाई या बताई नहीं जा सकती है। लेकिन यह भी सचाई है कि पश्चिम के कुछ विश्वविद्यालयों में और अब अपने यहाँ भी कहीं-कहीं काव्य लेखन के बारे में विद्यार्थियों को बाक़ायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। सवाल यह भी है कि चित्रकला, संगीतकला, नृत्यकला आदि सिखाई जा सकती है तो कविता क्यों नहीं? जैसे ही आप इन सवालों का सामना करेंगे, कविता का जादू खुलने लगेगा। यह वह संसार है जो आपको संभवतः एक कवि न बना पाए लेकिन अच्छा भावुक या सहृदय पाठक ज़रूर बना देगा। कविता की बारीकियों से गुज़रना उसे दुबारा रचे जाने के सुख से कम नहीं होगा। दरअसल एक अच्छी कविता आमंत्रित करती है बार-बार पढ़े जाने के लिए, कुछ-कुछ शास्त्रीय संगीत की तरह। जब तक आप उससे दूर है, रहस्यमयी लगेगी, क़रीब जाते ही उसे बार-बार और देर तक सुनने को जी चाहेगा। अच्छी कविता आप से सवाल करती है। सुने और पड़े जाने के बाद भी वह बची रह जाती है आपकी स्मृति में, बार-बार सोचने के लिए।
वापस चलते हैं पहले सवाल पर कि कविता अन्य कलाओं की तरह सिखाई क्यों नहीं जा सकती। आप जानते हैं कि चित्रकला में रंग, कूची, कैनवास तो संगीत में स्वर, ताल, वाद्य आदि की ज़रूरत पड़ती है लेकिन कविता ऐसी काला है जिसमें किसी बाह्य उपकरण की मदद नहीं ली जा सकती। कवि की एक कठिनाई यह भी होती है कि उसे भाषा के उन्हीं उपकरणों से काम लेकर कुछ विशेष रचना होता है जो विभिन्न विषयों (भूगोल, अर्थशास्त्र आदि) एवं हमारे दैनिक जीवन का माध्यम है। वह अपनी इच्छानुसार शब्दों को जुटाता है और उसे लय से गठित करता है।
कविता की अनजानी दुनिया का सबसे पहला उपकरण है—शब्द। शब्दों से मेलजोल कविता की पहली शर्त है। इस सबंध में अँग्रेज़ी कवि डब्ल्यू.एच. ऑर्डन ने भी कहीं कहा है कि प्ले विद द वर्ड्स। यानी आरंभ में शब्दों से खेलना सीखें। इसी को एक उदाहरण से स्पष्ट किया गया है—कल्पना करें कि आप स्कूल के विद्यार्थी हैं। कक्षा में बैठे सभी सहपाठी आपसे अपरिचित हैं, अनजान हैं। जैसे ही आप खेल के मैदान में पहुँचते हैं तो वे सारे अपरिचित विद्यार्थी आपके मित्र बन जाते हैं। शब्दों के साथ भी ऐसा ही होता है। शब्दों से खेलना, उनसे मेल-जोल बढ़ाना शब्दों के भीतर सदियों से छिपे अर्थ की परतों को खोलना है। एक शब्द अपने भीतर कई अर्थ छिपाए रहता है। कुछ-कुछ इंटरनेट की तरह। इंटरनेट से जुड़ना ज्ञान-विज्ञान की नई दुनिया से जुड़ना है। शब्दों से जुड़ना कविता की दुनिया में प्रवेश करना है। आपने देखा होगा कि बच्चे खेल-खेल में गीत रच डालते हैं। दरअसल रचनात्मकता सबके अंदर होती है। उसे तराशने की ज़रूरत होती है। तुकबंदी के प्रयास में धीरे-धीरे उनकी रचनात्मकता आकार लेने लगती है—
घो-घो रानी कितना पानी
अथवा
अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो
अस्सी नब्बे पूरे सौ
सौ में लागा धागा
चोर निकलकर भागा
कई बार हमारे बड़े कवियों ने भी शब्दों से खेलने का सार्थक प्रयास किया है।
अगर कहीं मैं तोता होता
तोता होता तो क्या होता?
तोता होता।
—रघुवीर सहाय
वाह जी वाह!
हमको बुद्धू ही निरा समझा है!
हम समझते ही नहीं जैसे कि
आपको बीमारी है—
आप घटते हैं तो घटते ही चले जाते हैं,
और बढ़ते हैं तो बस यानी कि
बढ़ते ही चले जाते हैं—
दम नहीं लेते हैं जब तक गोल न हो जाएँ, बिल्कुल ही
गोल न हो जाएँ,
बिल्कुल गोल।
यह मरज़ आपका अच्छा ही नहीं होने में...
—शमशेर बहादुर सिंह
ऊपर दिए गए काव्यांशों में कवि ने शब्दों और ध्वनियों से खेलने का प्रयास किया है। खेल-खेल में किए गए इस प्रयास द्वारा अर्थ के नए आयाम खुलते हैं। शब्दों का यह खेल धीरे-धीरे एक ऐसी दुनिया में ले जाता है जहाँ रिद्म है, लय है और एक व्यवस्था है। यहाँ प्रवृत्ति आगे चलकर शब्दों को ठीक-ठीक रखकर अर्थ के खेल खेलना सिखा देती है। यानी शब्दों के खेल से शुरू हुई कविता के रचने की कहानी शब्दों की व्यवस्था तक जाती है। उदाहरण के लिए धूमिल की कविता मोचीराम की कुछ पंक्तियाँ लेते हैं।
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं न कहीं एक चोरकील
दबी रह जाती है
जो मौक़ा पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है
इन पक्तियों में पेशे पर चोट यानी उचित मेहनताना न मिलना और उपेक्षा के भाव पर बल है। इन्हीं पंक्तियों की संरचना को बदल देने पर अर्थ भी बदल जाएगा।
पड़ती है पेशे पर चोट जब
तो चोर कौल कहीं न कहीं एक
रह जाती है दबी
उभरती है जो मौक़ा पाकर
और गड़ती है
अँगुली में
इन पंक्तियों की संरचना बदल देने से ‘चोट’ पर अधिक बल हो गया है। पेशे की चोट पर कम। जबकि ऊपर की पंक्तियों में पेशे की चोट पर अधिक बल है। इसी तरह दोनों कविताओं के रेखांकित शब्दों पर ध्यान दें और सोचें कि वाक्य संरचना का कविता में क्या महत्त्व होता है।
कविता में शब्दों के पर्याय नहीं होते। उपर्युक्त पंक्तियों पर ध्यान दें—यदि पहली पंक्ति में ‘चोट’ की जगह ‘मार’ शब्द रख दें तो कविता का भाव बदल जाएगा। चोट शब्द मोची के संदर्भ में भी एक अलग (हथौड़े की चोट) अर्थ रखता है।
बिंब और छंद (आंतरिक लय) कविता को इंद्रियों से पकड़ने में सहायक होते हैं। हमारे पास दुनिया को जानने का एकमात्र सुलभ साधन इंद्रियाँ ही है। बाह्य संवेदनाएँ मन के स्तर पर बिंब के रूप में बदल जाती हैं। कुछ विशेष शब्दों को सुनकर अनायास मन के भीतर कुछ चित्र कौंध जाते हैं। ये स्मृति चित्र ही शब्दों के सहारे कविता का बिंब निर्मित करते हैं। उदाहरण के लिए सुमित्रानंदन पंत की कविता संध्या के बाद की पंक्तियों को देखें—
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप-ध्यान में मगन,
मंधर धारा में बहता
जिनका अदृश्य गति अंतर-रोदन!
ऊपर की पंक्तियों को ध्यान से पढ़ें। ‘बगुलों-सी वृद्धाएँ विधवाएँ’ पढ़कर आपकी स्मृति में बगुले का आकार, उसकी सफ़ेदी और वृद्ध विधवाओं के घुटे हुए सिर के कारण गर्दन का आकार तथा उनके सफ़ेद वस्त्र एकाकार हो जाते हैं।
सुमित्रानंदन पंत ने कविता के लिए चित्र-भाषा की आवश्यकता पर बल दिया है, क्योंकि चित्रों या बिंबों का प्रभाव मन पर अधिक पड़ता है। दृश्य बिंब अधिक बोधगम्य होते हैं, क्योंकि देखी हुई हर चीज़ हमें प्रभावित करती है। कविता की रचना करते समय शुरुआत में धीरे-धीरे दृश्य और श्रव्य बिंबों की संभावना तलाश करनी चाहिए। ये बिंब सभी को आकृष्ट करते हैं। इसीलिए किसी विचारक ने यह कहा था कि कविता ऐसी चीज़ है जिसे पाँच ज्ञानेद्रियों (स्पर्श, स्वाद, दृश्य, घ्राण, श्रवण) रूपी पाँच उँगलियों से पकड़ा जाता है। जिस कवि में जितनी बड़ी ऐंद्रिक पकड़ होती है वह उतनी ही प्रभावशाली कविता रचने में समर्थ हो पाता है।
छंद (आंतरिक लय) कविता का अनिवार्य तत्त्व है। मुक्त छंद की कविता लिखने के लिए भी अर्थ की लय का निर्वाह ज़रूरी है। कवि को भाषा के संगीत की पहचान होनी चाहिए। नागार्जुन की बादल को घिरते देखा है नामक कविता को देखें। यहाँ मात्रा की गणना के अनुसार कोई विशेष छंद न भी संगीतात्मक लयात्मकता है। इसी तरह धूमिल की कविता मोचीराम में ऊपर-ऊपर से देखने पर छंद नहीं है लेकिन अर्थ का अपना भीतरी छंद निरंतर मौजूद है—
बाबू जी! सच कहूँ—मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है
कविता के उपर्युक्त सारे घटक परिवेश और संदर्भ से परिचालित होते हैं। नागार्जुन की एक छोटी-सी कविता है—अकाल और उसके बाद। परिवेश गाँव का है। इस कविता में संदर्भ, अकाल और उसके बाद का परिवर्तन है। कविता की भाषा, संरचना, बिंब, छंद, सब उसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं।
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखे कई दिनों के बाद।
अकाल और उसके बाद होने वाले परिवर्तन को कवि ने सांगीतिक व्यवस्था के भीतर केवल कुछ संकेतों के द्वारा प्रकट करके अपनी बात कह दी है। जैसे घर में दाने का आना, आँगन से ऊपर उठता हुआ धुआँ, घरवालों की आँखों में आई चमक और कौओं के द्वारा पंखों का खुजलाया जाना।
गाँव के परिवेश के लिए चूल्हा, चक्की, दाने, पाँख आदि तद्भव शब्दों का प्रयोग हुआ है। यहाँ किसी भी शब्द को हटाकर उसका पर्याय रख दें तो कविता का अर्थ बदल जाएगा। जैसे ‘कई’ के स्थान पर ‘बहुत’ शब्द रख दें। ‘कई’ शब्द एक-एक दिन की अकाल की भीषणता और अकाल के बाद के उल्लास का हिसाब देने में समर्थ है जो ‘बहुत’ के द्वारा संभव नहीं था। आप देखेंगे कि इस कविता में एक साथ ठेठ गवई शब्दों के साथ ‘शिकस्त’, ‘गश्त’ जैसे उर्दू शब्दों का प्रयोग इसे सहज परिवेश देता है।
ध्यान देने की बात है कि यही कवि जब बादल को घिरते देखा है नामक कविता में विराट-प्रकृति, भव्य हिमालय का सौंदर्य वर्णन करता है तो उसे कालिदास याद आते हैं और भाषा ख़ुद-ब-ख़ुद तत्सम पदावली से युक्त हो जाती है।
परिवेश के साथ-साथ कविता के सभी घटक भाव तत्त्व से परिचालित होते हैं। कवि की वैयक्तिक सोच, दृष्टि और दुनिया को देखने का नज़रिया कविता की भाव संपदा बनती है। कवि की इस वैयक्तिकता में सामाजिकता मिली होती है हवा में सुगंध की तरह। कुछ-कुछ निराला की सरोज-स्मृति की तरह घनघोर निजी और उतनी ही सामाजिक। इसे वह भाषा में बरतता है। भाषा के साथ कवि का यह बरताव ही कविता कहलाती है। प्रतिभा इन्हीं तत्त्वों को उजागर करने वाली आंतरिक क्षमता है, जिसे हम दुनिया के महान कवियों में पाते हैं।
कविता के कुछ प्रमुख घटक हैं—
• कविता भाषा में होती है, इसलिए भाषा का सम्यक ज्ञान ज़रूरी है।
• भाषा शब्दों से बनती है। शब्दों का एक विन्यास होता है जिसे वाक्य कहा जाता है। भाषा प्रचलित एवं सहज हो पर संरचना ऐसी कि पाठक को नई लगे। कविता में संकेतों का बड़ा महत्त्व होता है। इसलिए चिह्नों (, !-।) यहाँ तक कि दो पंक्तियों के बीच का ख़ाली स्थान भी कुछ कह रहा होता है। वाक्य गठन की जो विशिष्ट प्रणालियाँ होती हैं, उन्हें शैली कहा जाता है। इसलिए विभिन्न काव्य शैलियों का ज्ञान भी ज़रूरी है।
• छंद के अनुशासन की जानकारी से होकर गुज़रना एक कवि के लिए ज़रूरी है। तभी आंतरिक लय का निर्वाह संभव है। कविता छंद और मुक्त छंद दोनों में होती है। छंदोबद्ध कविता के लिए छंद के बारे में बुनियादी जानकारी आवश्यक है ही, मुक्त छंद में लिखने के लिए भी इसका ज्ञान ज़रूरी है।
• कविता समय विशेष की उपज होती है उसका स्वरूप समय के साथ-साथ बदलता रहता है। अतः किसी समय विशेष की प्रचलित प्रवृत्तियों की ठीक-ठीक जानकारी भी कविता की दुनिया में प्रवेश के लिए आवश्यक है।
• कम से कम शब्दों में अपनी बात कह देना और कभी-कभी तो शब्दों या दो वाक्यों के बीच कुछ अनकही छोड़ देना कवि की ताक़त बन जाती है।
• मोटे तौर पर यह बुनियादी जानकारी कविता की दुनिया में प्रवेश के लिए ज़रूरी है। पर ‘सौ बात की एक बात’ कि सारी तैयारी हो और कविता रचने के लिए चीज़ों को देखने की नवीन दृष्टि या नए को पहचानने और प्रस्तुत करने की कला न हो तो काव्य लेखन संभव नहीं। भारतीय विचारकों ने इसी को प्रतिभा कहा है। यह प्रतिभा प्रकृति प्रदत्त होती है और हर आदमी में किसी न किसी रूप में मौजूद होती है। किसी नियम या सिद्धांत के अनुसार इसे पैदा नहीं किया जा सकता। निरंतर अभ्यास और परिश्रम के द्वारा विकसित अवश्य किया जा सकता है। जहाँ तक कविता का सवाल है—शब्दों का चयन, उसका गठन और भावानुसार लयात्मक अनुशासन वे तत्त्व हैं जो जीवन के अनुशासन के लिए ज़रूरी हैं, भाषा सीखने में तो मददगार हैं ही। कविता की ये कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो कविता रचना भले न सिखाएँ लेकिन इन्हें जानना कविता को रचने का मज़ा दे सकता है और कविता को सराहने का सुख भी। साथ ही शब्दों की दुनिया में प्रवेश उनसे खेलना विद्यार्थी की रचनात्मक शक्ति और ऊर्जा को बाहर लाने में अद्भुत भूमिका निभा सकते हैं।
- पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 105)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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