नृत्यांगना सुधा चंद्रन
nrityangna sudha chandran
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
जीवन के किसी भी क्षेत्र में शिखर तक पहुँचने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति और कठिन परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। कई लोग ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने शारीरिक अक्षमता के बावजूद संघर्ष किया है और लक्ष्य प्राप्त किया है। ऐसा ही एक नाम है—सुधा चंद्रन पैर ख़राब होने के बावजूद वह चोटी की नृत्यांगना बनी।
सुधा चंद्रन की माता श्रीमती थंगम एवं पिता श्री के. डी. चंद्रन की हार्दिक इच्छा थी कि उनकी पुत्री राष्ट्रीय ख्याति की नृत्यांगना बने। इसीलिए चंद्रन दंपत्ति ने सुधा को पाँच वर्ष की अल्पायु में ही मुंबई के प्रसिद्ध नृत्य विद्यालय ‘कला-सद’ में प्रवेश दिलवाया। पहले-पहल तो नृत्य विद्यालय के शिक्षकों ने इतनी छोटी उम्र की बच्ची के दाख़िले में हिचकिचाहट महसूस की किंतु सुधा की प्रतिभा देखकर सुप्रसिद्ध नृत्य शिक्षक श्री के. एस. रामास्वामी भागवतार ने उसे शिष्या के रूप में स्वीकार कर लिया और सुधा उनसे नियमित प्रशिक्षण प्राप्त करने लगी। जल्द ही सुधा के नृत्य कार्यक्रम विद्यालय के आयोजनों में होने लगे। नृत्य के साथ-साथ, अध्ययन में भी सुधा ने अपनी प्रतिभा दिखाई लेकिन सुधा के स्वप्नों की इंद्रधनुषी दुनिया में एकाएक 2 मई, 1981 को अँधेरा छा गया।
2 मई को तिरूचिरापल्ली से मद्रास जाते समय उनकी बस दुर्घटनाग्रस्त हो गई। इस दुर्घटना में सुधा के बाएँ पाँव की एड़ी टूट गई और दायाँ पाँव बुरी तरह ज़ख़्मी हो गया। प्लास्टर लगने पर बायाँ पाँव तो ठीक हो गया किंतु दाईं टाँग में ‘गैंग्रीन’ (एक प्रकार का कैंसर) हो गया। ऐसे में डॉक्टरों के पास सुधा की दाईं टाँग काट “देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। अंततः दुर्घटना के एक महीने बाद सुधा की दाईं टाँग घुटने के साढ़े सात इंच नीचे से काट दी गई। एक टाँग का कट जाना संभवत: किसी भी नृत्यांगना के जीवन का अंत ही होता। सुधा के साथ भी यही हुआ। सुधा ने लकड़ी के गुटके के पाँव और बैसाखियों के सहारे चलना शुरू कर दिया और मुंबई आकर वह पुनः अपनी पढ़ाई में जुट गई।
इसी बीच सुधा ने मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सुप्रसिद्ध कृत्रिम अंग विशेषज्ञ डॉ. पी.सी. सेठी के बारे में सुना। वह जयपुर गई और डॉ. सेठी से मिली। डॉ. सेठी ने सुधा को आश्वस्त किया कि वह दुबारा सामान्य ढंग से चल सकेगी। इस पर सुधा ने पूछा—“क्या मैं नाच सकूँगी?” डॉ. सेठी ने कहा—“क्यों नहीं, प्रयास करो तो सब कुछ संभव है।” डॉ. सेठी ने सुधा के लिए एक विशेष प्रकार की टाँग बनाई जो अल्यूमिनियम की थी और इसमें ऐसी व्यवस्था थी कि वह टाँग को आसानी से घुमा सकती थी। सुधा एक नए विश्वास के साथ मुंबई लौटी और उसने नृत्य का अभ्यास शुरू करना चाहा किंतु इस प्रयास में कटी हुई टाँग से ख़ून निकलने लगा। कोई भी सामान्य व्यक्ति इस तरह की घटना के बाद दुबारा नाचने की हिम्मत कतई नहीं करता किंतु सुधा साधारण मिट्टी की नहीं बनी थी। जल्दी ही उसने अपनी निराशा पर क़ाबू प्राप्त किया और अपने नृत्य प्रशिक्षक को साथ लेकर डॉ. सेठी से पुनः मिली।
डॉ. सेठी ने सुधा के नृत्य प्रशिक्षक से नृत्य हेतु पाँवों की विभिन्न मुद्राओं को गंभीरता से देखा-परखा और एक नई टाँग बनवाई, जो नृत्य की विशेष ज़रूरतों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी। टाँग लगाते समय डॉ. सेठी ने सुधा से कहा—“मैं जो कुछ कर सकता था मैंने कर दिया, अब तुम्हारी बारी है।” सुधा ने पुनः नृत्य का अभ्यास प्रारंभ किया। शुरुआत बहुत अच्छी नहीं रही। कटे हुए पाँव के ठूँठ से ख़ून रिसने लगा किंतु सुधा ने कड़ा अभ्यास जारी रखा। कठिन अभ्यास से सुधा जल्द ही सामान्य नृत्य मुद्राओं को प्रदर्शित करने में सफल हो गई। 28 जनवरी, 1984 को मुंबई के ‘साउथ इंडिया वेलफेयर सोसायटी’ के हाल में एक अन्य नृत्यांगना प्रीति के साथ सुधा ने दुबारा नृत्य के सार्वजनिक प्रदर्शन का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। यह दिन सुधा की ज़िंदगी का संभवत: सबसे कठिन दिन था, उस दिन से भी ज़्यादा जबकि उसका पाँव काट दिया गया था। सुधा का यह प्रदर्शन बेहद सफ़ल रहा। चहेतों ने उसे देखते-देखते पलकों पर उठा लिया और वह रातों-रात एक ऐतिहासिक महत्त्व की व्यक्तित्त्व हो गई।
उसकी अद्भुत जीवन यात्रा से प्रभावित होकर तेलुगु के फ़िल्मकार ने उसकी ज़िंदगी को आधार बना कर एक कहानी लिखवाई और ‘मयूरी’ नाम से तेलुगु में एक फ़िल्म बनाई। अपने पात्र को सुधा ने स्वयं पर्दे पर जीवंत कर दिया। फ़िल्म को अद्भुत सफलता मिली और इस फ़िल्म में अभिनय के लिए सुधा को भारत के 33वें राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में विशेष पुरस्कार प्रदान किया गया। ‘मयूरी’ की सफलता को देखते हुए इसके निर्माता ने यह फ़िल्म हिंदी में भी ‘नाचे मयूरी’ नाम से प्रदर्शित की और सुधा ने पूरे भारत को अपनी प्रतिभा का मुरीद कर दिया। आज सुधा एक व्यस्त नृत्यांगना ही नहीं, फ़िल्म कलाकार भी है। सुधा को उसके असामान्य साहस और श्रेष्ठ उपलब्धियों के लिए कई पुरस्कार भी प्राप्त हो चुके हैं।
- पुस्तक : दूर्वा (भाग-2) (पृष्ठ 73)
- रचनाकार : रामाज्ञा तिवारी
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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