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शुरू हो गई बच्चों के लिए ‘विहान’ की थिएटर वर्कशॉप

बच्चों के साथ विहान ड्रामा वर्क्स, भोपाल की विशेष नाट्य कार्यशाला शुरू हो चुकी है। यह नाटक कार्यशाला 01 मई 2024 से 26 मई 2024 तक चलेगी तथा इस दौरान बच्चों के साथ मिलकर नाटक ‘पीली पूँछ’ तैयार किया जाएगा। जिसका मंचन भोपाल में 27 मई की शाम को किया जाएगा। कार्यशाला के दौरान नाटक और अभिनय के साथ-साथ बच्चे चित्रकला, मूर्तिकला, कहानी लेखन, संगीत-कला, कविता-लेखन, बच्चों का सिनेमा और ऑरिगमि जैसी कलाओं से रूबरू तो होंगे ही साथ में इन सारी कलाओं के नाटक में समावेश को भी समझेंगे।

कार्यशाला के ये दिन साल के सबसे यादगार दिन होते हैं। जैसे फ़सल बोने के दिन हों। बीज डालने के दिन। लगभग 03 से 16 साल तक के प्रतिभागी हर साल इस कार्यशाला में शामिल होते हैं और रोज़मर्रा की गर्मियों के ये साधारण से दिखने वाले आम दिन अचानक से जीवन के जादुई दिनों में परिवर्तित होने लगते हैं। मैं लगभग एक दशक से इन दिनों का साक्षी रहा हूँ। शहर और शहर के बाहर से नानी-दादी के घर छुट्टियों में आए बच्चे भी हमारे साथ शामिल हो जाते हैं और इस तरह से देश के कुछ और हिस्सों के बच्चे भी हमारे साथ होते हैं। इन दिनों में कितनी ही ज़िंदगियों को नए रूप-आकार लेते देखा है। कार्यशाला में शामिल होने वाले बच्चों की ज़िंदगी में ‘नाटक’ एक नई दुनिया की तरह प्रवेश करता है। नाटक मौक़ा नहीं देता। नाटक स्वयं एक मौक़े की तरह सामने आकर खड़ा हो जाता है। हम बस इतना करते हैं कि हम अपने घरों से निकलकर समय पर रिहर्सल हॉल तक चले आते हैं। बाक़ी फिर सारी ज़िम्मेदारी नाटक सँभाल लेता है। 

मुझे हमेशा लगता है कि नाटक जीवन में हमारी ‘भावनाओं' के लिए एक सबसे सुरक्षित स्पेस की तरह उपस्थित है। एक ऐसा स्पेस जिसकी ज़रूरत सिर्फ़ बच्चों को नहीं, बल्कि बड़ों को भी समान रूप से होती है। जहाँ वे अपनी हर एक भावना को अभिव्यक्त तो कर ही सकें; साथ ही स्वयं उस अभिव्यक्ति की चीरफाड़ एक खुले माहौल में कर सकें। एक ऐसा माहौल जहाँ कोई भी दुनियावी नज़रिया उन सहज भावनाओं की मासूमियत पर निगरानी न कर रहा हो। 

‘नाटक हमें जीवन जीना सिखाता है।’ ये पंक्ति आम तौर पर बहुत आसानी से बोल-चाल में चली आती है। परंतु नाटक का हिस्सा बनते और नाटक बनने की प्रक्रिया के अनुभवों से गुज़रते हुए इस छोटी-सी पंक्ति के विराट मायने हमारे सामने दिन-ब-दिन ख़ुद ही खुलते जाते हैं। नाटक के एक अर्थ को मैं ‘खुलने’ के रूप में ही देखता हूँ। जिस तरह मंचन से पहले पर्दा खुलता है। पर्दा खुलने के बाद ही प्रस्तुति शुरू होती है। उसी तरह नाटक जब जीवन में प्रवेश करता है तो सबसे पहले मन-मस्तिष्क के पर्दे खोलता है। उसके बाद शायद प्रस्तुति शुरू होती होगी। गोया हम स्वयं में जितना खुल रहे हैं, दुनिया में उतना ही प्रस्तुत होते जा रहे हैं। 

बाल नाट्य कार्यशाला असल में उस अद्वितीय अनुभूति का यथार्थवादी संस्करण है जो अनुभूतियाँ बच्चे अपनी पैदाइश के वक़्त से ही अपने भीतर समाहित किए हुए हैं। जिन्हें वो अपने भीतर लेकर चल रहे हैं। जो उनकी अपनी दुनिया है। जिसके रंग, रूप, आकार, चरित्र, भाव-भंगिमाएँ आदि-आदि सब पहले से ही उन बच्चों की कल्पनाओं में उनसे मुख़ातिब हो चुके हैं। तो मुझे लगता है बच्चे जब किसी नाटक कार्यशाला का हिस्सा बनते हैं तो वे वास्तव में उनकी अपनी ही दुनिया में प्रवेश कर रहे होते हैं। एक ऐसी दुनिया जिसे उन्होंने अब तक अपनी जादुई कल्पनाओं में सृजित किया है। नाटक की कार्यशाला उस जादुई कल्पना में घटित होती दुनिया का एक सचमुच में खुलता प्रवेश-द्वार बन जाती है। 

'नाटक करने से बच्चों के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आते हैं।’ इस बात को समझने के लिए किताबों और इंटरनेट पर लाखों उदाहरण संभवतः मिल जाएँगे। और कोई शक नहीं कि नाटक से होने वाला हर जादू आपको चकित करता ही चला जाएगा। 

पर अगर मैं सिर्फ़ एक शब्द कहना चाहूँ तो वह शब्द होगा—‘ख़ुशी’ जो नाटक करने से बच्चे के जीवन में प्रवेश कर जाएगी। एक ऐसी ख़ुशी जो उसका साथ फिर ताउम्र नहीं छोड़ेगी। 

आपका स्वागत है। इन 27 दिनों में अगर किसी रोज़ आप बच्चों की इस दुनिया में ख़ुद को खोजना चाहें तो बस बिना झिझक चले आइए। हमें और बच्चों को अच्छा लगेगा। सपंर्क-सूत्र इस पोस्ट के बैनर में है। 

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