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'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक'

सुरेन्द्र वर्मा का जन्म सन् 1941 को झाँसी में हुआ, वह हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। उनका नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ सन् 1972 में प्रकाशित हुआ। उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ के लिए इन्हें सन् 1996 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त वह संगीत नाटक अकादमी व व्यास सम्मान से भी सम्मानित हो चुके हैं।

भारत रंग महोत्सव की दूसरी संध्या को Upasana School of Performing Arts Gujrat University के कलाकारों ने ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ नाटक की एक अविस्मरणीय प्रस्तुति देकर सबका मन मोह लिया। नाटक के निर्देशक सत्येंद्र परमार सहित, प्रकाश और सेट के साथ बाक़ी चीज़ों में सहयोग कर रहे मंच से परे तमाम कलाकार भी ज़ोरदार सराहना के क़ाबिल हैं।

According to Peter Brook, “A good actor doesn't need a set”, because the essence of theatre lies in the relationship between the performer and the audience, even in an empty space. मेरे लिए अब यह केवल एक कथन नहीं रह गया है। आज की प्रस्तुति पीटर ब्रुक की बातों को जीवंत करती है। सुरेन्द्र वर्मा एक सुलझे हुए साहित्यकार हैं, और उनका यह नाटक भी एक जटिल विषय पर सधे हुए शब्दों के साथ मुखर होकर बात करता है, जिसे निर्देशक सत्येंद्र ने और ख़ूबसूरती से निखार कर दर्शकों के सामने रखा।

यह नाटक रानी शीलावती और राजा ओक्क्क के जीवन पर आधारित है। यह नाटक नियोग की प्राचीन प्रथा में छिपी कुरीतियों को सामने रखता है। नियोग प्रथा, हिन्दू धर्म की एक परंपरा थी। इस प्रथा के तहत, जिन महिलाओं के पति संतान पैदा करने में असमर्थ होते थे या जिनका निधन हो जाता था, वे किसी और पुरुष से बच्चा पैदा कर सकती थीं। इस प्रथा का मक़सद, परिवार की वंशावली को आगे बढ़ाना और विधवाओं को होने वाली आर्थिक और सामाजिक मुश्किलों को कम करना था।

राजा ओक्क्क पिता नहीं बन सकते हैं। यह बात उनके मंत्री परिषद् को मालूम पड़ी, राज-काज यथावत चलता रहे और प्रजा में असंतोष ना फैले इसके लिए राजा का एक उत्तराधिकारी होना अतिआवश्यक है, क्योंकि हमारे समाज की व्यवस्था ही ऐसी है जिसमें यदि एक पुरुष पिता नहीं बन सकता तो उसमें पुरुषार्थ जैसा कुछ भी नहीं है; और यदि एक स्त्री माँ नहीं बन सकती तो उसमें स्त्रीत्व है ही नहीं। 

राजा ओक्क्क बने वैशाख की जितनी सराहना की जाए कम है। एक ऐसे पुरुष को चरितार्थ करना जिसे एक गंभीर बीमारी है, और वह कई तरह के गहरे भावनात्मक संघर्षों का सामना कर रहा है, किसी भी स्तर पर आसान नहीं रहा होगा। हमारे समाज ने आज भी उन बीमारियों को ‘गुप्त रोग’ का नाम देकर शहर के बाहर की दीवारों पर ही अकेला छोड़ रखा है। ऐसे अनगिनत पुरुष हैं जो अपनी उस समस्या पर खुलकर बात करना चाहते हैं, लेकिन अफ़सोस हम अब तक उनके लिए एक उचित वातावरण नहीं बना पाए। राजा ओक्क्क बने वैशाख द्वारा नाटक में कहा अंतिम संवाद—किसी घोषणा की तरह अभी भी मेरे कानों में गूँज रहा है।

मंत्री परिषद् रानी शीलावती को बिना उसकी मर्ज़ी जाने नियोग से संतान पैदा करने के लिए विवश करता है। उन्हें यह कहा जाता है कि सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक यानि कि एक रात के लिए वह जिसे चाहे उसे अपना उपपति चुन सकती हैं। स्त्रियों के लिए उसकी अस्मिता से बढ़कर उसके स्वयं का जीवन तक नहीं होता है। लेकिन एक संतान की मोह और सामाजिक बंधनों को सर्वोपरि मानते हुए, मंत्री परिषद् की बात में आकर राजा ओक्क्क नगर में यह घोषणा करवाते हैं कि “रानी शीलावती जिसे चाहे एक रात्रि के लिए अपना उपपति चुन सकती है।” नाटक का वह दृश्य देह ही नहीं, आत्मा तक को सिहरन ला देने वाला था, जब—पंडित बने अभिनेता ओम रानी शीलावती को एक अदृश्य बंधन में बाँधते हुए यह समझाते हैं कि नियोग किस प्रकार सही है...

हमारा समाज अभी तक स्त्रियों के प्रति सही प्रकार से उदार नहीं हो पाया है। हम अभी भी महिलाओं के साथ किसी-न-किसी स्तर पर जाने-अनजाने उसकी मर्ज़ी और ख़ुशी के विरुद्ध जाकर काम करते हैं। गाँवों की अपेक्षा शहरों में थोड़ी आज़ादी है, लेकिन संपूर्ण आज़ादी उस दिन मानी जाएगी जिस दिन उन्हें खाने, पीने, घूमने, पहनने और अन्य सभी आज़ादी के साथ अपनी देह की इच्छाओं के प्रति संपूर्ण आज़ाद कर दिया जाएगा। वह किसके साथ संबंध बनाना चाहती हैं यह उनकी मर्ज़ी पर निर्भर करे ना कि एक वैवाहिक बंधन पर।

रानी शीलावती बनी तारिका एक अद्भुत और दक्ष अभिनेत्री हैं। यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि उनमें अभिनय के सारे गुण समान मात्रा में मौजूद है। नाटक के शुरुआत में वह जिस प्रकार राजा के आदेश पर चलने वाली एक औरत की तरह आती हैं और अंत में संसार की तमाम स्त्रियों की संपूर्ण आज़ादी की वकालत मजबूती से करती हुई, स्वयं को दर्शकों के सामने एक मिथक की तरह प्रस्तुत करती हैं—वह किसी जादू की तरह घटित होता हुआ लगता है। रानी शीलावती बनी तारिका की संवाद अदायगी का यह असर होता है कि हर एक संवाद सीधे आपके भीतर प्रवेश कर सब कुछ तहस-नहस करने लगते हैं।

रानी शीलावती अपने उपपति के रूप में आर्य संतोष को चुनती है। उसके साथ एक रात बिताने के लिए उसे और सेज को तमाम फूलों से सजाया जाता है। वह उसके पास जाती है। आर्य संतोष उसे ना छूने का अपना निर्णय सुना पाता, उससे पहले रानी शीलावती उसे रोकती है। राजा ओक्क्क के साथ विवाह के पाँच वर्ष बाद तक वह ब्रह्मचर्य का पालन कर रही थी। उसे देह सुख का तनिक भी भान नहीं था। आर्य संतोष से मिलने के पूर्व उसने केवल कहानियों में स्त्री सुख के बारे सुना था। आज उस सुख की अनुभूति करते हुए, वह कहीं खोई-सी लगती है। उस दृश्य में नियोग की उसकी अनिच्छा और स्त्री सुख की इच्छा के बीच में निसहाय वो पथराई आँखों से केवल यह सोच रही होती है कि इस सुख में भी मेरी नहीं अपितु एक पुरुष की इच्छा शामिल है।

नाटक के अंतिम दृश्य में घटित घटनाओं का सचित्र वर्णन लगभग असंभव है। जब रानी शीलावती नियोग की क्रिया और पहली बार स्त्री सुख की अनुभूति के साथ महल लौटती है। राजा ओक्क्क सहित मंत्री परिषद् के सभी सदस्य उनसे यह जानने के लिए उत्सुक हैं कि क्या वे युवराज के आने की घोषणा कर सकते हैं? लेकिन रानी शीलावती उनसे पहली बार एक भली स्त्री की भांति नहीं बल्कि एक संपूर्ण स्त्री की भांति वाद-संवाद करती है। मंत्री परिषद् और राजा ओक्क्क के सामने प्रश्नों की झड़ी लगाती हुई पूछती है कि आपका न्याय और धर्म क्या आपकी तरह ही एकतरफ़ा बातचीत करता है? क्या आपके नियम और क़ानून की किताबों में केवल यह लिखा हुआ है कि पुरुष कहेगा और स्त्री सुनेगी? उसमें हमारी इच्छाओं के बारे में कुछ नहीं लिखा? इसका क्या प्रमाण है कि जो लिखा है वह सारा कुछ सच है? अंत के दृश्य बेहद मार्मिक हैं और जो इक्कीसवीं सदीं की आज़ादी पर प्रश्न-चिह्न है। अभिनेत्री तारिका, मंत्री परिषद् के ओम और अन्य किरदारों, साथ ही राजा ओक्क्क के अभिनय ने उस दृश्य को दर्शकों की स्मृतियों में अमिट कर दिया।

निर्देशक सत्येंद्र परमार का लेखक सुरेन्द्र वर्मा से सहमति के उपरांत अंत का वह संवाद जिसमें घोषणा होती है कि “रानी अपनी इच्छा से अपना उपपति चुन सकती हैं।” को पार्श्व ध्वनि के माध्यम से नहीं बल्कि राजा ओक्क्क के मुँह से कहलाना इस विचार को आगे बढ़ाने में एक मजबूत कदम है कि स्त्रियों को संपूर्ण आज़ादी का पूरा हक़ है। समाज को अंतिम दृश्य के राजा ओक्क्क जैसे पुरुषों की बहुत ज़रूरत है।

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