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‘नहीं होने’ में क्या देखते हैं

विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता है—‘आदिम रंग’। पहली पंक्ति प्रश्नवाचक है—आदिम रंग आदिम मनुष्य ने क्या देखा था? (प्रश्नवाचक चिह्न कवि की पंक्ति में नहीं है) फिर वह अनुमान या कल्पना करते हैं—सूर्यादय या सूर्यास्त का गगन-रंग (या) धरती हरी-भरी से उड़ते हरे तोते की टें-टें में उड़ता हुआ हरा रंग। हरी-भरी धरती से नहीं, ‘घरती हरी-भरी से’। मतलब पूरी धरती हरी-भरी एक वनस्पति बन गई है। पूरी धरती एक अखंडता में संश्लिष्ट कोई हरी-भरी वनस्पति है। आदिम मनुष्य ने हरे तोते की टें-टें सुनी होगी तो उस टें-टें में ध्वनि और हरापन दोनों अलग-अलग नहीं होंगे। हरा रंग टें-टें होगा और टें-टें हरा रंग। तोते की चोंच का लाल रंग और जंगली फल का रस और लाल रंग दोनों एक साथ एक-दूसरे में घुले-मिले एक होंगे। प्रतिक्रियाओं का यह संश्लेष हमारी आज की बात है। आदिम मनुष्य के संवेदन में इस संश्लेष का बोध नहीं रहा होगा, वह ‘एक’ शुद्ध अखंड, अभेद्य एक रहा होगा। निश्लेषण और विश्लेषण की प्रक्रिया और उसका बोध इतिहास का कार्यक्रम रहा है। 

विनोद कुमार शुक्ल आदिम मनुष्य की आदिम प्रतिक्रिया का आस्वाद इतिहास को लाँघकर जस का तस लेना चाहते हैं। सूर्यास्त और सूर्योदय के रंग, हरे तोते की टें-टें में हरा रंग और ध्वनि का ‘एकपन’ और उसकी चोंच और पके जंगली फल के रस और लालिमा के एकपन को आदिम मनुष्य की तरह नहीं आदिम मनुष्य ही रहकर आत्मसात् करना चाहते हैं। (पाठकों को आत्मसात् कराना चाहते हैं।)

आदिम सूर्योदय के साथ आदिम सूर्यास्त भी था। सूर्यास्त में पृथ्वी ‘हरी-भरी’ थी। सूर्यास्त के बाद के अंधकार में वह ‘विराट पृथ्वी अंधकार’ थी। आदिम मनुष्य उस विराट पृथ्वी अंधकार में जिसे अब हम रात्रि कहते हैं, सोया होगा। वह सोना कैसा रहा होगा। स्त्री और पुरुष कभी अकेले नहीं थे। आदिम काल में भी नहीं। एक के बग़ैर दूसरे का अस्तित्व ही नहीं। उस अंधकार में दोनों के साथ, आप कहें सहवास या संग से अंधकार को कैसा लग रहा होगा। विराट अंधकार की अदृश्यता, निर्जनता में वे दोनों असहाय नहीं रहे होंगे। असहाय अपर्याप्त है, निषेधात्मक। तब उनका साथ अंधकार को अंधकार नहीं रहने देता होगा। वह अंधकार में रंग भरता होगा। वह अंधकार को सार्थक, सजीव, सुखद बना रहा होगा। हमारा आज का ‘सुखद’ नहीं, आदिम सुखद और आदिम सार्थक। शब्दों के आवरण या शब्द के भार से झुकता अर्थ नहीं, निरावृत अर्थ देता हुआ सुखद और सार्थक साथ।

उनका साथ सार्थक था यानी सर्जनात्मक था। सर्जना की आदिम प्रक्रिया में रत था, अंधकार में सूर्योदय का रंग जन्म ले रहा था। रचनाकार ने पूरी स्थिति में जिजीविषा रच दी है। जिजीविषा तब इच्छा नहीं, अंध इच्छा के रूप में रही होगी। मनुष्य प्रकृति के ज़्यादा निकट ही नहीं, ज़्यादातर प्रकृति जैसा, प्राणियों जैसा रहा होगा। इतना सब कहने के बाद यह याद कर लेना टिप्पणीकार के स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है कि टिप्पणी रचना नहीं होती; वह फैली ज़रूर ज़्यादा होती है, लेकिन उसमें रचना की व्याप्ति नहीं होती। इस कविता में प्राक्-इतिहास है, इतिहास को लाँघकर दृश्यों के प्रति मनुष्य की प्रतिक्रिया समझाने का प्रयास है, नृतत्व है; मनोविज्ञान और मानवतावाद है, लेकिन यह इन सबके साथ-साथ बहुत कुछ और यानी कविता है। 

आप देखेंगे कि कवि ने सब कुछ खुला छोड़ रखा है, पूरी कविता प्रश्नवाचकता में है—कविता, वक्तव्य, अनुमान, कल्पना सब अपरिभाषित है। यह कविता का सच बोलने की प्रकृति है। यह प्रश्नवाचकता वैज्ञानिकता के मूल में है। वहाँ भी सौंदर्य और रहस्यमयता, जिज्ञासा का क्षेत्र समान है। कविता में टिप्पणीकार की ओर से जिस सर्जनात्मकता और जिजीविषा की बात की गई है, उसे विशुद्ध वैज्ञानिक विज्ञान के क्षेत्र से बाहर रखते हैं। कभी-कभी मुझे याद आता है कि विशुद्ध वैज्ञानिकों के इस विज्ञान को हमारे यहाँ ‘अविद्या’ कुछ सोच-समझकर कहा गया होगा। जिन विशुद्ध वैज्ञानिकों की बात की गई है—वे मानवतावादी तो हैं, लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में वे इस सबको घसीटना उचित नहीं समझते।

विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता है—‘जो शाश्वत प्रकृति है उसमें पहाड़ है’। पूर्वोक्त कविता में आदिम मनुष्य था, उसकी प्रतिक्रियाएँ थीं; इस कविता में प्रकृति ही प्रकृति है, मनुष्य नहीं है। कवि वहाँ की यात्रा कर रहा है, यानी वहाँ का बयान कर रहा है, जहाँ देश सुनिश्चित है, काल (इतिहास) अनिश्चित। वहाँ काल है, इतिहास नहीं। हमारी दुनिया की उस स्थिति का हाल जब प्रकृति थी, मनुष्य नहीं था। तब मनुष्य तो नहीं था, लेकिन प्रकृति मनुष्य की मानो प्रतीक्षा कर रही थी। प्रकृति (पहाड़, वनस्पितियाँ आदि स्थिर थीं) ऐसे, मानो फ़ोटो खिंचवाने के लिए स्थिर-स्थित होते हैं। उस देश और काल में जाकर तो रचनाकार भी उनके जैसा स्थिर हो जाएगा। रचनाकार तल्लीन हो जाएगा। यह तल्लीनता रचना-समाधि है। कवि नहीं चाहता कि प्रकृति को याद आए कि कभी वह वहाँ इतनी एकांत थी कि मनुष्य उसके साथ नहीं था। इसलिए वह दौड़ना, घूमना, चिल्लाना, धमाचौकड़ी मचाना चाहता है।

एक और प्रकृति का ऐसा विशुद्ध रूप है, जहाँ मनुष्य नहीं है। प्रकृति की ऐसी स्थिति की कल्पना जब वह मनुष्य के मनोविकारों और भाव एवं अर्थ की परतों के बाहर थी। दूसरी ओर मानवीय संग की आत्मा की यह कल्पना कि प्रकृति को यह याद कर पीड़ा होगी कि कभी मनुष्य उसके साथ नहीं था। यूरी गागरिन के अंतरिक्ष में जाने पर बोरिस पास्तरनाक ने कविता लिखी थी जिसका भाव यह था कि अंतरिक्ष का शून्य कितना बेताब था, कितना अकेलापन महसूस कर रहा था—निर्जनता के कारण।

मनुष्य प्रकृति का ही अंग है। वह प्रकृति में ही है। विकास ने उसे अस्मिता और इयत्ता और सांस्कृतिक व्यापकता भी दे दी है। विनोद कुमार शुक्ल में प्रकृति और मनुष्य की यह अभिन्नता, एकात्मकता की भावना या कल्पना प्रमुख है। यहाँ चेतनागत विवशता इस तरह है कि प्रकृति होकर प्रकृति को नहीं जान-पहचान सकते। पर परकाया-प्रवेश की उद्विग्नता जो उन्हें ‘जो नहीं है’ उसमें पहुँचने का दुर्निवार निमंत्रण देती है। और क्योंकि शायद ‘जो नहीं है’ उसी से ‘जो है’ वह जाना-पहचाना जा सकता है—

कि नहीं होने को 
टकटकी बाँधकर देखता हूँ
आकाश में 
चंद्रमा देखने के लिए
चंद्रमा में नहीं होने को...

कोई चला जाता है तो उसके जाने से शून्य होता है। जब वह लौटकर आ जाता है, तब वह शून्य मिट जाता है। उसके जाने से लेकर उसके लौट आने के बीच जो शून्य स्थित है, कवि उसे देखता है—

तब जाने के इस शून्य से 
कभी लौटकर आ जाने के
तब तक के उस शून्य को...

इसमें ‘कभी’ लौटकर आ जाने से, लौटने की अनिश्चितता ने शून्य को यातना से भर दिया है। विनोद कुमार शुक्ल देखे हुए को नहीं दिखाते। वह दृश्य में देखने से जो अदृष्ट था; उसे दिखाते हैं और इस पर्याप्तता के साथ कि जो अदेखा रह गया था, उसे देखे बग़ैर आपने कितना कम देखा था—वह हमारी दृश्य-परिधि का विस्तार करते हैं।

वह शाश्वत प्रकृति की आदिमता का अपनी कल्पना से विस्तार करते हैं। ऐसी कल्पना या तो स्वप्न में की जा सकती है या बाल-मन कर सकता है। स्वप्न या शिशु मन हमारी कल्पना-क्षमता का अक्षय स्रोत है। 

विनोद कुमार शुक्ल स्थिरता के रूप में पहाड़ को उड़ते देखते हैं। (कल्पित करते हैं।) उन्हें यह पता होगा कि भारतीय मिथक माला में पहले पहाड़ उड़ते थे, इंद्र ने उनके पंखों को काट डाला। ख़ैर, मिथक भी हमारे जातीय स्वप्न हैं। वे स्मृतिकोष हैं और कल्पनाकोष भी। विनोद कुमार शुक्ल ने मिथक की पुनरुक्ति नहीं की है। उसे स्थिरताविहीन और मौलिक, स्वप्न कल्पना से किया है। पहाड़ उड़ता तो हम पहाड़ को पक्षी देखते-कहते। इस पर और कुछ टिप्पणी करने के पहले इस अकल्पनीय महाभूतात्मक वितथीकरण से आतंकित हुए बग़ैर नहीं रह सकते। पहाड़ के सबसे बड़े कवि कालिदास ने हिमालय को लेकर अकल्पनीय विराट चित्र खींचे हैं—परिश्रमी, पूर्वी समुद्रों को पलड़े बनाता हुआ पृथ्वी का मानदंड, या हिमालय की श्वेत हिम-राशि को त्र्यम्बक का अट्टहास बताया है। पहाड़ को स्थिरता से रहित करके उड़ान भरते हुए पक्षी के रूप में कल्पित करना। पहाड़ फ़ॉसिल हो चुकी उड़ान है। अब वह ‘स्थिरता’ हो गए हैं। इंसान स्थिरता नहीं। उसके पंख नहीं, लेकिन वह पहाड़ पर चलते समय स्थिर उड़ान पर डग भरता महसूस करता है। पहाड़ और पत्थर विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में अनेक रूपों में आते हैं। उसमें सब कुछ, संवेदन भी स्थिर हो जाता है।

पूर्वोक्त कविताओं में विनोद कुमार शुक्ल प्रकृति के आदिम लोक में जाते प्रतीत होते हैं। हिमाचल एकांत में। विनोद कुमार शुक्ल हिमाचली एकांत नहीं कहते। हिमाचल एकांत, जहाँ एकांत हिमाचल बन गया है। हिमाचली एकांत में एकांत एकांत बना रहता है। हिमाचल एकांत में एकांत हिमाचल बन जाता है। यह द्रुततम अंतरण विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ अभूतपूर्व अनायासता में होता है। पत्थर से स्पर्श हुआ तो स्पर्श करने वाला भी पत्थर हो गया। यह तन्मयता, तल्लीनता की यथातथ्य अभिव्यक्ति है। इस तरह शुक्ल आदिम में जाकर आदिम को देखते हैं। वस्तुतः यह वर्तमान को आदिम में ले जाकर आदिम को वर्तमान में लाना है, कुछ भी शाश्वत नहीं होता, लेकिन काल और इतिहास का अंतर्भेदन और मिलन, शाश्वत को ऐतिहासिक बोध कराते हैं। बोध रूप भी है। काल अरूप होता है, उसे सरूप इतिहास बनाता है। विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता शाश्वत को ऐतिहासिक बनाती है। क्योंकि वह मनुष्य-विहीन या प्राक्-मनुष्य प्रकृति-काल में मनुष्य का प्रवेश कराती है। सामान्य भाषा में यह कहें कि वह शाश्वत को मानवीय बनाती है। 

प्राचीनकाल से प्रखर बुद्धिमानों का एक दल यह कहता रहा है कि सत्य मानव-निरपेक्ष होता है। ज्ञान के समानांतर भक्ति उस परम को मानवीय बनाती है। आचार्य शुक्ल की बात याद आती है, ‘‘कविता भाव योग है।’’ सो विनोद जी की कविता शाश्वत मनुष्यहीन प्रकृति में मनुष्य को प्रस्तुत करके यही काम करती है। अतः जो काम भक्ति करती है, वह काम कविता भी करती है।

इस टिप्पणी के प्रारंभिक अंश में हमने देखा था कि विनोद कुमार शुक्ल कहते हैं, ‘‘कि नहीं होने को टकटकी बाँधकर देखता हूँ।’’ उनके यहाँ नहीं होना महत्त्वपूर्ण है, भाषिक और विचारात्मक; मैं अभी नहीं लेकिन आगे कहूँगा विचारधारात्मक दृष्टि से भी। नहीं होने का मतलब नहीं होना, अनस्तित्व नहीं, अदृष्ट होना है; जिसे संस्कृत में लोप कहते हैं, अदर्शनं लोपः। वह ख़ुद इसी कविता में कहते हैं, ‘‘उसके दिख जाने के खोए को टकटकी बाँधकर देखता हूँ।’’ खो वह जाता है जो होता है, खोया हुआ अस्तित्वहीन नहीं होता।

यह ‘नहीं होना’ कवि के द्वारा टकटकी बाँधकर देखा जा रहा है। वह प्रच्छन्न है। जो है उससे प्रियतर है। वह चंद्रमाविहीन आकाश का चंद्रमा है। वियुक्त प्रिय का लौटना है, साथ न होने की स्थिति का साथ में होना है और ‘खोए’ का पा जाना है।

विनोद कुमार शुक्ल जिसे नहीं होना कहते हैं, वह सामने नहीं है, मन में है। वह वांछित है, यथार्थ का ही एक संभव रूप है। स्वप्न से मिलता-जुलता। इस तरह से देखें तो वह ‘जो है’ उसका भावी या बेहतर नैतिक रूप या फल है। इस ‘न होने’ से ही ‘जो है’ उसकी सार्थकता है। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन याद आता है, “सत्य प्रच्छन्न होकर निवास कर रहा है।” इस अभाव-बोध के या न होने के वैचारिक और सामाजिक ऐतिहासिक रूप हैं। सामाजिक-ऐतिहासिक अभावों को पूरा करने का ही संकल्प हमारा संविधान करता है। राजनीति दावा करती है कि वह सिर्फ़ विचारात्मक नहीं, विचारधारात्मक भी है। विनोद कुमार शुक्ल गहरे सामाजिक सरोकारों के कवि हैं। उनके सामाजिक सरोकार इसी न होने को टकटकी बाँधकर देखने से जुड़ते हैं। टकटकी बाँधकर देखना आतुर प्रतीक्षा का अनुभाव है। सामाजिक सरोकार में मानसिक सरोकार जैसी शिद्दत है। इसके आगे कविता नहीं राजनीति की सकर्मकता है। सो ये सामाजिक सरोकार वाली कविताएँ राजनीतिक सरोकार की भूमिका हैं, उसका नेपथ्य हैं। कविता ख़ुद राजनीति करे या न करे, राजनीतिक संस्कृति की प्रेरणा ज़रूर देती है। विनोद कुमार शुक्ल ने जुलूस में और नारों की तरह काम करने वाली कविताएँ नहीं लिखी हैं, लिखते तो अच्छा होता; ऐसी कविताएँ नागार्जुन ने ही नहीं मुक्तिबोध ने भी लिखी हैं, लेकिन उन्होंने भौतिक अभावों के बेधक बिंब खींचे हैं। सामाजिक उनके यहाँ मार्मिक वैचारिक बन जाता है; अतएव शोर नहीं करता, उन्हीं के शब्दों में—‘जो घटित है, वह व्यक्त नहीं।’ उनकी एक कविता है—‘स्टेशन की तरफ़ आते-जाते’...

स्टेशन की तरफ़ आते-जाते 
मुख्य रास्ते जेल है
जेल की दबी हुई चीख़ सड़क तक न सुनाई दे 
पर सड़क से झुंड की ताक़त पर
आवाज़ ज़रूर जाती होगी काल कोठरी के अंदर
यह जो दिखाई नहीं देता
लेकिन जिसकी आवाज़ जेल के अंदर जाती है 
वही अदृष्ट क़ैदियों को आहत करता होगा
क़ैदी होने की यातना से ग्रस्त करता होगा
जेल के अंदर से सर्कस का जुलूस दिखाई नहीं देता होगा
ऊँट, घोड़े, हाथी कुछ नहीं दिखाई देता होगा
पर लाउडस्पीकर से साफ़ सुनाई देता होगा।
कि सर्कस सत्रह से चालू होगा
या शादी के बैंड-बाजे की धुन
इसी तरह जो बाहर का है जेल के अंदर
बस वही तकलीफ़देह और ख़ौफ़नाक है

बाहर की दुनिया की दिलचस्पियाँ, उनकी आहटें उनसे वंचितों को ख़ौफ़नाक लगती हैं। क़ैद विवशता की त्रासदी है। विनोद कुमार शुक्ल की एक अपेक्षाकृत लंबी कविता है—‘रायपुर बिलासपुर संभाग’। इसमें इस क्षेत्र के निम्नवर्गीय लोगों, बच्चे, बूढ़ों, जवानों, महिलाओं को अपने क्षेत्र को छोड़कर मज़दूरी की तलाश में नगरों की ओर रेल-यात्रा का वर्णन है। यात्रा हो नहीं पाती। क्षेत्र की उजड़ती हुई प्रकृति और इन लोगों को प्रवास करते देखते हुए कवि के भावोद्‌गार, उन्हें यात्रा, प्रवास करने रोक देने में अपनी असमर्थता और फिर उन्हें रोक देने की क्रांति जैसी फ़ैंटेसी से कविता का अंत होता है। इस कविता पर मुक्तिबोध की प्रबंधात्मक कविताओं, विशेषतः ‘अँधेरे में’ का प्रभाव स्पष्ट है। विनोद कुमार शुक्ल की कविता में कसाव नहीं है, विशदता भी नहीं है। विनोद कुमार शुक्ल लंबी प्रबंधात्मक कविता नहीं लिख सकते, यह कैसे कहें! लेकिन इस कविता में निम्नवर्गीय जनों की रेल-यात्रा करने के ढंग का जो वर्णन है, वह प्रेमचंद और रेणु की याद दिलाता है। कविता में प्रेमचंद और रेणु का प्रभाव हिंदी में सिर्फ़ नागार्जुन दिखा सकते थे। वही यातना विनोद कुमार शुक्ल की इस कविता में भी मिलती है, इन लोगों के जीवन से मार्मिक आत्मीयता और पर्यवेक्षण के बल पर—

भोलापन बहुत नासमझी!!
पच्चीसों घुसने को एक साथ एक ही डिब्बे में
लपकते वही फिर एक साथ दूसरे डिब्बे में
एक भी छूट गया अगर
गाड़ी में चढ़ने से
तो उतर जाएँगे सब के सब
अलग-अलग बैठने की बिल्कुल नहीं हिम्मत
घुस जाएँगे डिब्बों में
ख़ाली होगी बेंच
यदि पूरा डिब्बा तब भी
खड़े रहेंगे चिपके कोनों में
या उकड़ूँ बैठ जाएँगे
थक कर नीचे डिब्बे की ज़मीन पर।
निस्पृह उदास निष्कपट इतने
कि गिर जाएगा उन पर केले का छिलका
या फल्ली का कचरा
तब और सरक जाएँगे वहीं कहीं
जैसे जगह दे रहे हों
कचरा फेंकने की अपने ही बीच।

यह उत्कृष्ट काव्यांश है। मुझे लगता है कि प्रेमचंद और परसाई उत्कृष्ट कवि भी थे।

वर्षों पहले की बात है। बंधु कमला प्रसाद रीवा विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। वह ओरछा में केशवदास की स्मृति में समारोह का आयोजन कराते थे। विनोद कुमार शुक्ल का उसी में एकल काव्य-पाठ था। मैं अध्यक्ष के आसन पर, ज़ाहिर है बुज़ुर्ग होने के नाते। वह सचमुच एकल काव्य-पाठ था। कवि भी अकेला और श्रोता भी अकेला। श्रोता यानी अध्यक्ष। कमला प्रसाद जी को कोई ज़रूरी काम था। वह हम दोनों को आसीन कर चले गए। विनोद कुमार शुक्ल ने लगभग चालीस मिनट तक काव्य-पाठ किया। इसके पश्चात् मैंने लगभग आधे घंटे तक एकल अध्यक्षीय वक्तत्य दिया। जीवन में अभी तक वह अनुभव अद्वितीय है। इस काव्य-पाठ का मेरे लिए बहुत महत्त्व रहा। इसी में मैंने विनोद कुमार शुक्ल के मुँह से पेड़ पर रचित यह पंक्तियाँ सुनीं :

एक पेड़ में कितनी सारी पत्तियाँ
अतिरिक्त एक पत्ती नहीं

मुझ पर इन पंक्तियों का उन्माद छा गया। मुझे पेड़ का सौंदर्य जैसे समझ में आ गया। कविता सौंदर्य का चित्रण करके सौंदर्य का बोध भी कराती है और उसकी नैतिकता, आचरण-सहिंता भी प्रस्तुत करती है। ‘अतिरिक्त नहीं’ आकार को संयमित और परिभाषित करती है। आकार का यह परिसीमन आचरण का भी परिसीमन है। यह गति को यति से युक्त करके उसे रूप देने का उद्यम है, जो संस्कृति है। अतिरिक्त जितना ज़रूरी है, वाजिब है, उससे अधिक होना है। जितना होना चाहिए उससे अधिक, सौंदर्य का विरोधी होता है। वह सौंदर्य का ही नहीं, नैतिकता का भी विरोधी होता है। जैसे शरीर में ज़रूरत से ज़्यादा कुरूप होता है; वैसे ही समाज के किसी घटक में भी ज़रूरत से ज़्यादा का संचय विषमता, कुरूपता है।

यह स्वास्थ्य नहीं रोग का लक्षण है। सरप्लस को छाँटना यह आर्थिक भौतिक मूल्य ही नहीं, नैतिक और सौंदर्यबोधात्मक मूल्य भी है—

कितना बहुत है
परंतु अतिरिक्त एक भी नहीं

मैं पढ़ता हूँ—एक भी पंक्ति अतिरिक्त नहीं... विनोद कुमार शुक्ल की कविता में...

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विनोद कुमार शुक्ल को यहाँ पढ़िए : विनोद कुमार शुक्ल का रचना-संसार

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