रविवासरीय : 3.0 : आधा सुचिंतित, आधा सुगठित, बाक़ी तार्किक
अविनाश मिश्र
02 मार्च 2025

• गत रविवासरीय पढ़कर हिंदी-जगत में संभव हुए भगदड़रत व्यवहार के बाद, इस बार इस स्तंभ [रविवासरीय] की संरचना पर कुछ बातें दर्ज करने का दिल कर रहा है और कुछ उत्तर-प्रतिउत्तर प्रस्तुत करने का भी...
इस स्तंभ का प्रादुर्भाव स्व-प्रेरणा से आज से तीन वर्ष पूर्व हुआ। इसका प्रथम प्रारूप स्वयमेव ही तय हुआ और इसके बाद मुझ पर इसका स्वरचित दबाव रहने लगा। कुछ तात्कालिक, कुछ प्रासंगिक और कुछ नियमित रचने के अनुशासन ने इसे रूप-आकार प्रदान किया।
यह स्तंभ एक पुस्तकाकार योजना का अंग न कभी था, न है, न होगा। यह नितांत ग़ैर-महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है और विशुद्ध रूप से लेखकीय-रियाज़ के लिए जन्मा है। इसमें कुछ साहित्यिक-विधाओं का समावेश हो और इसका रूपाकार बनता-बिखरता-बिगड़ता रहे, यों रविवासरीयकार [जन्म : 1986] की आकांक्षा है। इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए नवीन के साथ-साथ मेरा प्राचीन काम भी मेरे बहुत काम आता रहा है और आता है, यथा : दर्ज-बेदर्ज वाक्य-विचार, भूले-भटके उद्धरण-गद्यांश, खो गईं पंक्तियाँ-सूक्तियाँ, अन्यत्र प्रयोग-विन्यस्त अनुच्छेद, प्रकाशित-अप्रकाशित लेख-वक्तव्य, डायरियाँ-तस्वीरें-पत्र-पुस्तकें, नोट्स-पोस्ट्स-मैसेजेस-मेल्स...
गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर एक सुपरिचित कथाकार [जन्म : 1981] इसे लेख-आलेख समझने की भूल कर बैठीं, जबकि अब तक संभव हुए उनतालीस ‘रविवासरीय’ में कभी भी मैंने कोई लेख-आलेख गढ़ने की जुरअत नहीं की है। लेखालेख के लिए दूसरी जगहें-वजहें हैं।
इस प्रसंग में देखें, तब देख सकते हैं कि ‘रविवासरीय’ का फ़ॉर्म साहित्यिक विधाओं, पैमानों और प्रचलनों के अनुरूप व्यावहारिक नहीं है। इसकी बनत-बुनत में संवाद के धागे हैं। इसमें मुद्दे और विचार अक्रमिक ढब से आवाजाही करते हैं। इसमें एक चर्चा होते-होते, दूसरी चर्चा होने लगती है। यहाँ बातों में परस्पर काटा-कूटी चलती है। इसमें सब कुछ इस प्रकार व्यक्त होता है कि वह एक व्यक्ति की नहीं, कई व्यक्तियों की आवाज़ लगे। इस बीच अक्सर सूक्तिपरक वाक्य संभव होते हैं, जिन्हें इस व्यवहार में समो लिया जाता है। एकदम आरंभ में तो ‘रविवासरीय’ में केवल सूक्तियाँ ही सूक्तियाँ थीं।
इस स्तंभ का पूर्व की दो ऋतुओं में कोई शीर्षक नहीं हुआ करता था, पर इस ऋतु में प्रकाशन-स्थान-परिवर्तन की वजह से प्रत्येक ‘रविवासरीय’ के साथ शीर्षक संलग्न करने पड़ रहे हैं। यों इसमें प्रतिवर्ष कुछ परिवर्तन हुए हैं, लेकिन यह अनुशासन मैंने नहीं बदला कि प्रत्येक ‘रविवासरीय’ में ग्यारह बिंदु [•] रहेंगे और मैं इस स्तंभ को वर्ष के शुरुआती सोलह रविवारों तक निर्बाध रूप से रचूँगा। यह स्वयं को सौंपा गया टास्क है, और इस अर्थ में यह स्वायत्त भी है। यह अन्य अनुरोधों-अपेक्षाओं-उपक्रमों से उत्तेजित नहीं है। यह आत्मान्न है। मैं इसे स्वयं के अनुशासन, अभ्यास, मूल्य, विचार और ईमान को समझने-जाँचने के लिए प्रतिरविवार संभव करता हूँ। इसमें अगर रुचिवान् व्यक्तियों को कोई बात नापसंद-नागवार गुज़रती है; तब वे इस पर भड़के नहीं, इसका इतना लोड न लें! आप सुचिंतित-सुगठित लेखालेख लिखिए और वैसे ही उन्हें साझा भी कीजिए, जैसे आप अपनी भागीदारी वाले आयोजनों-सेमिनारों की तस्वीरें साझा करते हैं। दरअस्ल, आप सुचिंतित-सुगठित लेखालेख से ही ‘रविवासरीय’ का मुक़ाबला कर पाएँगे।
‘रविवासरीय’ के सामने अपने सबसे तेज़ गेंदबाज़ उतारिए। अहमक़ों, लीचड़ों और हताहतों से काम नहीं चलने का...
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर की गई एक सज्जन [जन्म : 1990] की ध्यानाकर्षण भरी माँग मेरे सामने आई। वह भी मुझसे सुचिंतित-सुगठित लेख माँग रहे थे। उनके हाथ बिल्कुल ख़ाली थे और दिमाग़ यह बता सकने में अक्षम था कि कृष्णा सोबती के कथा-साहित्य में उनकी यात्रा कहाँ तक हुई है!
इस क्रम में ही कुछ व्यक्ति यों भी नज़र आए जो एक साहसिक कथ्य को सनसनी कह देने की पंद्रह वर्ष प्राचीन बीमारी से अब तक स्वस्थ नहीं हो पाए हैं।
यह बेहद हैरान करने वाली बात है कि सुचिंतित-सुगठित लेख की माँग उनके पास भी है, जिनकी अत्यंत लघु लिखाइयाँ यह बताती हैं कि उन्होंने इधर तीस-पैंतीस सेकेंड की रील्स कुछ ज़्यादा ही देख ली हैं।
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर मेरे एक पूर्व-प्रेमी [जन्म : 1981] यत्र-तत्र मेरी निंदा उछल-उछलकर पसंद करते रहे और उस पर कूद-कूदकर प्रतिक्रियाएँ देते रहे।
यहाँ यह कहना ही होगा कि मेरे पूर्व-प्रेमी इधर बड़ी रफ़्तार से बढ़ रहे हैं। मैं इन्हें भी जन्म से जानता हूँ : वे सदा और की और बातें करेंगे, लेकिन मुद्दे की एक न कह के देंगे!
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर हमारे प्रिय समूह-संपादक महोदय [जन्म : 1981] ने कृष्णा सोबती के महज़ तीन उद्धरणों और #कृष्णासोबती से काम चलाया... मानो एक विशालकाय कथा-मलबे पर गंदा-फटा-सफ़ेद रूमाल डाल दिया हो।
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर इस प्रकार का एक भी लेखक-आलोचक-समीक्षक-पाठक-पत्रकार-प्राध्यापक-शोधार्थी-मूल्यांकनकर्ता-वक्तव्यबाज़-बयानवीर-टिप्पणीकार सामने नहीं आया, जिसने कृष्णा सोबती को समग्रता में पढ़ा हो। इस प्रकार का कोई नवीन-प्राचीन-अतिप्राचीन-सुचिंतित-सुगठित-तार्किक लेखालेख भी प्रस्तुत नहीं हुआ, जो यह बताता हो कि चौरानवे वर्ष का जीवन और सत्तर वर्ष की कथा-यात्रा से गुज़रने वाली कृष्णा सोबती इस वजह से सर्वश्रेष्ठ हैं।
एक बात आख़िर समझ में नहीं आ रही है कि गए कुछ महीनों में सौ से ज़्यादा वक्ता सर्वत्र कृष्णा सोबती से संबंधित आयोजनों-सेमिनारों में बोले हैं; लेकिन वे क्या बोले हैं, अब तक कुछ ठीक-ठाक पता नहीं चल पा रहा है। आख़िर उन्होंने कुछ तो तैयारी-वैयारी की होगी, कुछ तो नोट्स-वोट्स लिए होंगे, कुछ तो पर्चा-वर्चा पढ़ा होगा, कुछ तो ढंग की बात-वात या बकवास की होगी... आख़िर वे कृष्णा सोबती और उनके साहित्य के हक़ में सामने क्यों नहीं आते! [‘आबले पड़ गए ज़बान में क्या!’]
आलोचना-समीक्षा-आलेख-मूल्यांकन हेतु पाठ से काम क्यों नहीं लेते
सनसनी-विष्णु खरे-ख़ारिजी-ज़ायक़ेदार ये सब क्या है तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेते
[शैली साभार : जौन एलिया]
क्या हिंदी-जगत आपकी और आपके संगियों की और आपके आयोजन की तस्वीरें ही देखता रहे, वह कुछ पढ़े-वढ़े नहीं! अगर पढ़े भी तो वही—सभ्यता-समीक्षा के नाम पर—रूढ़, रद्दी और प्रत्याशित!
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर एक सुपरिचित कवि-लेखक [जन्म : 1963] ने कृष्णा सोबती को सीधे-सीधे महान् घोषित करते हुए, उन्हें प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु की टक्कर का बता दिया। वह प्राध्यापक भी हैं। मुझे अचरज [नहीं] हुआ!—वे अब तक महानता की शब्दावली में साँस ले रहे हैं! उन्होंने भी सुचिंतित-सुगठित [तार्किक भी] लेखालेख की माँग की। वह संभवतः इस माँग को आगामी रविवार तक स्वयं अंजाम देंगे और अपने लेखालेख को ‘समास’ को भेज देंगे, पर अगर नहीं भेज पाए तब!?—तब मलबे का रज़ा ही मालिक है!
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर दी गई प्रतिक्रियाओं में से एक प्रतिक्रिया [जन्म : 1985] मुझे सर्वाधिक सुंदर लगी। इस प्रतिक्रिया में भविष्य के संकेत से ‘रविवासरीय’ के गद्य की तुलना कृष्णा सोबती के गद्य से की गई!
इस क्रम में ही कुछ असहमतों ने कहा कि उन्होंने कृष्णा सोबती को पढ़ा है और वह उन्हें अच्छी लगती हैं। यह अलग बात [नहीं] है कि उन्होंने उनका क्या पढ़ा है और उसमें उन्हें क्या अच्छा लगता है, ये सब वे गोल कर गए। एक-दो जन जिन्होंने रचनाओं का उल्लेख किया, वे रचना-विशेष की विशेषता का कोई विशेष उल्लेख नहीं कर पाए।
इस पर क्या कहा जाए! इतना ही—
...फ़ोटो अच्छी आए; इस पर कृष्णा सोबती का ज़ोर तब से था, जब मार्क ज़ुकरबर्ग पैदा भी नहीं हुआ था।
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर एक अन्य सुपरिचित कवि-आलोचक [जन्म : 1971] ने कहा : ‘‘सबसे आसान काम है ख़ारिज करना...’’ यह दु:खद है कि यह आसान काम वह सारी समझदारी और पूरी ज़िम्मेदारी से अंतरंग बातचीतों में अक्सर भरपूर करते रहते हैं; लेकिन सार्वजानिक रूप से या प्रकाशित-मुद्रित शब्दों में नहीं, क्योंकि बक़ौल नामवर सिंह [वही जिन्होंने उन्हें केंद्रीय विश्वविद्यालय में नहीं होने दिया] : ‘‘कहने से ज़बान नहीं कटती, लिखने से हाथ कट जाता है।’’
इस क्रम में ही कुछ इस प्रकार के जन भी नज़र आए; जिन्हें न शीर्षक की कुछ ख़बर थी, न शृंखला का कुछ पता... उन्हें बस अपनी बात कहनी थी, कह गए!
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर एक पूर्व-पत्रकार [जन्म : 1984] ने—Provoke होते हुए—इस समग्र सिलसिले को Provoke करने का प्रयत्न माना।
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर संभव हुआ एक कुमार [जन्म : 2001] का कुछ अल्ल-बल्ल, स्क्रीनशॉट के रूप में मेरे नज़दीक आया। इस स्क्रीनशॉट में एक ही शब्द मुझे महत्त्वपूर्ण प्रतीत हुआ, वह है—@highlight
इसके अतिरिक्त भी कुछ स्क्रीनशॉट्स मेरे पास आए, लेकिन वे सब के सब Trash थे; इसलिए उन पर शब्द ज़ाया करने का यहाँ न अवकाश है, न औचित्य।
• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर और भी बहुत कुछ हुआ; लेकिन वह सब कुछ ज़्यादातर उस तरफ़ से हुआ, जिस तरफ़ से हिंदी साहित्य को अपना कर्त्तव्य सूझ नहीं रहा है। इस तरफ़ इस प्रकार के महानुभाव [जन्म : अज्ञात] हैं कि इनकी किताब भर आ जाए और उस पर सूचित-अनुसूचित कैसा भी दाम-बेदाम का पुरस्कार मिल जाए, यही इनके लिए इति है।
इस स्थिति में संतरे और पोहे दोनों एक साथ गुँथकर रविवासरीयकार के विरुद्ध हो गए हैं और साहित्य की सोहबत पर अत्यंत अपठनीय वाक्यों में कुछ कहने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इन्हें यह ठीक से समझ लेना चाहिए कि ‘रविवासरीय’ की संरचना अक्सर आक्रामक होती है, इसलिए इसके पास सायुध आने में ही समझदारी है। खुट्टल चाक़ू, टूटी-घिसी निब और ख़ाली-ज़ंगशुदा पिस्तौल दिखाने से रक्षा नहीं होगी।
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