सरकारी नौकर, टीका और अन्य कहानियाँ
राजेंद्र देथा 04 जुलाई 2024
दोस्तो! हम पाक-विस्थापितों में टीके के रिवाज का तारीख़ी सिलसिला कब शुरू हुआ, मेरे पास इसकी कोई पुख़्ता जानकारी नहीं है। मेरे परिवार में एक ताऊ ज़रूर हैं, जो बात-बात पर पारिवारिक मौक़ों में यह कहते हुए पाए जाते हैं कि सन् अस्सी में झूझाणियों (मेरे परदादा का नाम) में दो सौ रुपए टीका मुझे ही मिला था, बाक़ी तुम सब साटे में ब्याहे हो। फिर बाक़ी लोग ख़ुद को असुरक्षित पाकर कुछ बे-काम जुमले फेंकते रहते हैं।
टीका क्या होता है? कैसा होता है? इसकी जानकारी दूँ, उससे पहले मेरी स्मृति में एक वाक़िया है, जो बताता चलूँ।
एक रोज़ मैं जब पूर्वकिशोर अवस्था में था, एक टीके के प्रसंग के संदर्भ में मैंने पिता से विनोदवश पूछा कि पापा हमारा टीका कब आएगा?
पिता थोड़ी देर सोचकर गंभीर होकर बोले (लोक भाषा में)—“बुख़ार-वूख़ार कुछ होगा तो टीका तो आ ही जाएगा, उसमें कोई बड़ा मसअला है नहीं, दूसरे वाले टीके का इस परिवार में मुझे तो कोई कैंडिडेट दीखता नहीं।”
देखिए दोस्तो! हिंदी पट्टी ने दहेज आदि के नाम पर जो सुना-देखा है; वह केवल यही है कि एक गाड़ी दे दी, काम भर बर्तन, इलेक्ट्रॉनिक्स का सामान और डबल बेड-सोफ़ा। इसके अलावा दहेज के अंदर सामान्यतः कुछ अधिक होता नहीं है, या फिर होता है तो तिलक के नाम पर कुछ पैसों की रस्म-अदायगी। लेकिन मेरे राज्य में कुछ विचित्र प्रसंग हैं।
हमारे यहाँ दहेज आदि से बहुत पहले टीका प्रसंग आता है। टीके का अर्थ है—शादी में वधू-पक्ष की ओर से दूल्हे को दिए जाने वाले पैसे। यह टीका कहलाता है। मतलब तिलक के साथ। तिलक के अर्थ में आया यह शब्द अपने आपमें एक आर्थिक-सामाजिक परिसर रचता है। ख़ासतौर से पिछले दो-ढाई दशकों से पश्चिमी राजस्थान में टीका मूलत: सरकारी विभाग के अंतर्गत हो चला है। संभवत: दूसरे राज्यों से अलग केवल यही बात हो।
अब मानिए कि आपकी सरकारी नौकरी लगी, उस दिन के बाद आपके पिता का फ़ोन अगले कई दिनों तक व्यस्त आएगा और लगातार बार्गेनिंग होगी। इसी प्रक्रिया में जो कुछ स्थिर-गतिमान रहता है—वह टीका है।
टीके की एक ख़ासियत है कि उसमें एक पूरक एलिमेंट जुड़ा रहता है—सोना। बार्गेनिंग में सोना और पैसा दोनों तय होता है और यह सब डिपेंड करता है सरकारी नौकरी के ग्रेड पर।
मेरे इलाक़े में ज़्यादातर लोग सरकारी मास्टर हैं। सो मास्टरों के टीकों के जो रेट तय हैं, मैं यहाँ उन्हें उल्लेखित करना चाहूँगा—
तृतीय श्रेणी : 15 तोला सोना, 15 लाख।
द्वित्तीय श्रेणी : 21 तोला, 21 लाख या कि कुछ जगह 31 लाख भी।
प्रथम श्रेणी : 25 तोला सोना, एक गाड़ी और 31 लाख।
ख़ैर, इन सबके इतर भी बहुत-सी ऐसी नौकरियाँ हैं; जिनमें अलग-अलग रेट्स हैं—पटवारी, ग्राम-सेवक, एलडीसी उनमें शामिल हैं। लेकिन मास्टरों के अलावा यहाँ सिविल सेवकों का बोलबाला है। मूलत: स्टेट पीसीएस। लेकिन उनका मामला आकाश में है। कोई व्यक्ति करोड़ में सेट होता, कोई 75 लाख में, कोई 51 में भी। कोई लेता भी नहीं। आख़िर प्रगतिशील भी तो इसी दुनिया में बसते हैं।
टीके की इस प्रतियोगिता में कई बंधु नौकरी लगने के बावजूद भी लाइब्रेरी (वाचनालय) में बैठकर करंट-अफ़ेयर्स का पाठ करते रहते हैं कि अगला ग्रेड टीके में इजाफ़ा करेगा। दरअसल यह कुछ-कुछ कॉर्पोरेट के अप्रेजल जैसा है।
हमारे इलाक़े में टीका दो प्रकार से संभव होता है। सगाई पर या तोरण (शादी) पर। ‘डिवाइडेड बाय टू’ के पूरे-पूरे चॉस यहाँ अमूमन रहते हैं। मतलब आधा सगाई करने पर, आधा तोरण पर।
मेरा एक दोस्त तो पूरे होशो-हवाश में कहता है कि मैं तो तोरण पर ही टीका लूँगा। क्या अर्थ सगाई में लेने का? पिता खेत ले लेंगे उन पैसों से तो। भई मेरी तो ससुर जी से बात हो गई है, अपन तो सारा मामला तोरण पर ही करेंगे।
अब आप यह सोच रहे होंगे कि टीके के ख़िलाफ़ या कि मैं कुंठा में यह सब लिखे जा रहा हूँ, क्योंकि मेरे पास सरकारी नौकरी नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है।
देखो, मेरे माँ-बाप भी यही चाहते हैं; लेकिन उन्हें पता नहीं कैसे मालूम चल गया कि कॉर्पोरेट या कि प्राइवेट जगहों पर काम करने से टीके अमूमन मिलते नहीं, इसलिए वे बड़े भाई की नौकरी का इंतज़ार कर रहे हैं और नौकरी-अनुसार टीका लेने का उनका पूरा प्लान है।
मित्रो, मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि टीका और अन्य कहानियाँ लगभग सभी समाजों का हिस्सा हैं और देने वाले अपनी इच्छा से देते हैं; लेने वाले भी अपनी इच्छा से लेते हैं। मैं तो कितना ख़ुश होता हूँ, जब अख़बार में ख़बर छपती है कि फलाणे ने 51 लाख का टीका वापिस किया।
साथियो, समाज-सुधार के मसले पर इस तरह की ख़बरें आती रहती हैं। यूँ हर समाज प्रतिनिधि टीका-प्रथा का विरोध मुखर होकर करते रहते हैं। कई बार ऐसी स्थितियाँ भी सामने आती हैं, जब प्रतिनिधियों में दो धड़े हो जाते हैं। एक ऊपर उल्लिखित बात को दुहराता है, तो दूसरा धड़ा कहता है—हमारी रस्में हैं, हमारे पुरखों की बनाई। बाक़ी रही बात पैसे की तो बेटी का बाप अपने मन से दे रहा है, “हू आर यू?”
मेरा एक टीकेशुदा दोस्त जब-जब शराब पीता है, फोन करता है—“देख यार, मेरे ससुर ने पीडब्ल्यूडी में बाबू रहते हुए चालीस लाख कमा लिए। तनख़्वाह अलग। ख़ैर कमाते तो बहुत हैं, लेकिन इस दौर में बहुत कम ऐसे पिता हैं जो अपनी बेटी के नाम इतनी संपत्ति करते हैं।”
मैं उसकी बात पर हाँ करता रहता हूँ। दरअसल, कई बार मैं नौकरीशुदा लोगों से उनकी बातें सुनता हूँ और वे गंभीर होकर जब कहते हैं कि मेरी माँ ने मुझे निंबोळी (एक आभूषण) बेचकर पढ़ाया, मैं क्यों न लूँ टीका? सच कहता हूँ, उस वक़्त मैं तो सजल हो उठता हूँ।
टीके पर निबंध लिखने का यहाँ मेरा मन क़तई नहीं था, न ही समाज-सुधार समितियों का मैं हिस्सा हूँ। मैंने यह पूरी भूमिका इसलिए बाँधी, क्योंकि मैं अब कुछ ही दिनों में बीएड करने वाला हूँ और उसके पश्चात मेरा पूरा विचार नौकरी लगने का है। विचार करने में कोई गुनाह नहीं।
अगली प्रक्रिया टीके की है, क्योंकि मैं भी उन्हीं में से एक हूँ जिन्हें माँ-बाप ने अपनी विकट हालत में पढ़ाया। ख़ुद भूखे रहे, लेकिन मुझे कभी यह नहीं सोचने का मौक़ा दिया कि वे कैसे रह रहे होंगे, कैसे कमा रहे होंगे। आख़िर मैं भी उन्हीं परिवारों का हिस्सा हूँ, जिनके बच्चे कारी (पैवंद) लगाकर पढ़ने जाते हैं।
मेरा एक दोस्त, जिसकी सगाई केवल इसलिए टूट गई, क्योंकि वह सरकारी नौकर नहीं था। पचास हज़ार मासिक पाने वाला वह कवि-मित्र भावुक अवस्था में मुझे एक पत्र अक्सर सुनाता-पढ़ाता रहता है। मैं अंत में उसे यहाँ देकर वाचनालय में प्रवेश कर रहा हूँ—
प्रिय निनामी, मेरा यह तीसरा भावुक ख़त है। इससे पहले के दो ख़त तुम्हारे ही इलाक़े की एक लड़की को लिख चुका हूँ, लेकिन वे लगभग अनुत्तरित रहे। आज ऐसा कुछ नहीं है मेरे पास जिससे मैं तुम्हें कहूँ कि मैं नब्बे के दशक का प्रेमी होकर यह सब लिखूँ। मैं यह पत्र बहुत उदास होकर लिख रहा हूँ। बहुत उदास।
गत पाँच महीनों में मैं तुमसे कितना जुड़ गया हूँ, यह मेरे लिए बहुत आश्चर्य का विषय है। हमारी बात सगाई-शादी तक आ पहुँची। हमने एक-दूसरे को समझकर देखा, लगभग साथी योग्य हैं हम दोनों। लेकिन स्वजातीय विवाह में ऐसे टुच्चे संघर्ष होंगे, मैंने नहीं सोचा था। मुझे बिल्कुल यक़ीन नहीं हुआ।
मेरे घर के लोग भी बहुत लिजलिजे हैं, लेकिन इतने क़तई नहीं। ये कैसे नव-फ़ाशिस्ट हैं जो अपनी ही औलाद को मार रहे हैं? मैं रोया हूँ बहुत। रोने के अलावा था भी क्या?
मुझे लोर्का बहुत याद आता है, अपनी दोस्त मेद्रिदा को एक ख़त से पूछता है—“मैं पूरे मन से पूछता हूँ, तुम उन लड़कियों में से हो, जो जीवन की राह पर आगे बढ़ती हैं और पीछे पानी की लकीर-सी तंद्रा, सहानुभूति और आत्मिक शांति छोड़ जाती हैं... जैसे कहीं दूर छुपाकर रखे गए किसी फूल की ख़ुशबू! मैं कितना बुरा लिखता हूँ, है न? मुझे माफ़ करो। मुझे तत्काल जवाब लिख भेजो। मैं बेहद तुम्हारा आभारी रहूँगा। तुम मुझ पर हमेशा भरोसा कर सकती हो।”
क्या तुम सच में मेरी वैसी दोस्त नहीं हो? यदि हो तो मुझे भी तत्काल लिखो। मैं भी तुम पर भरोसा करता हूँ। यह कैसा बुरा संसार है, जहाँ एक मास्टर, ग्रामसेवक, पटवारी से लड़कियों को ब्याह दिया जाता है, बिना उसे बताए। यह तो हमारे माँ-बाप के ज़माने पर चल रहा।
तुम कुछ सोचती क्यों नहीं? मैं बहुत टॉक्सिक हो रहा हूँ। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा। मेरा कवि सही कह गया कि किसने यह ऐसा समाज रच डाला है...?
मेरी प्यारी दोस्त! अब यह तय हो चुका है कि हम दोनों साथी नहीं हो पाएँगे। यह सब सुनकर मैं बहुत टूटा तो हूँ, लेकिन बिखरा नहीं हूँ। हमारी स्मृतियाँ इतनी सुंदर हैं कि मुझे शमशेर की कविता 'टूटी हुई-बिखरी हुई' रह-रह कर याद आ रही है।
तुम क्यों मुझे—‘क़िस्मत में जो होगा, देखा जाएगा, ईश्वर सब अच्छा करेगा...’ जैसे ख़राब वाक्य भेजती हो। ईश्वर मेरा कुछ नहीं लगता।
मेरी दोस्त, मेरी अनामिका—मैं अलग संसार का आदमी हूँ। लगभग पूरे इलाक़े में अलग। मेरे आस-पास के सत्तर गाँवों में कोई साहित्य से इस तरह नहीं जुड़ा हुआ। इसलिए मुझे इस सब पर घमंड था, लगता था कि तुम उसे समझोगी, अपने परिजनों को बताओगी। लेकिन इनके लिए कवि-लेखक-संपादक या कि कला-संसार की दुनिया पटवारियों-मास्टरों से बहुत नीचे है, बल्कि है ही नहीं।
परिवार, अस्मिता और अन्य कहानियों से त्रस्त तुम मुझे जब नष्ट करोगी तो वह कैसा समय होगा? क्या कहूँ! मेरी दोस्त, कैसे रहूँगा मैं। तुम यह उद्घोषणा जल्दी क्यों नहीं करतीं। मैं झोरावा गाना चाहता हूँ। विरह का मर्सिया गाना चाहता हूँ। बिछोह का गीत गाना चाहता हूँ।
ख़ैर, अभी यहीं रुकता हूँ। अंतिम और आदि का ख़याल रखते हुए। यह ऐसा ही समाज है, जिसके पास बहुत पुराना विवेक है। जिसके पास मनोहर मस्ताने जैसे लोगों को अंवेरने का कोई साहस बचा नहीं है। तुम्हारी शादी अब किसी सरकारी नौकर से होगी। वह मास्टर भी हो सकता है या पटवारी भी।
वह जो भी हो, मैं चाहता हूँ कि वो थोड़ा मनोहर ज़रूर हो कि तुम्हें एक बार दिल्ली दिखाए। तुम्हें कनॉट प्लेस दिखाए। हुमायूँ का मक़बरा ले जाए तुम्हें और वहाँ से तुम्हारी तस्वीरें खींचे, लेकिन मुझे इस समाज की नस-नस मालूम है। वह ऐसा कुछ नहीं करेगा, करेगा तो मैं बहुत ख़ुश होऊँगा।
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