नाऊन चाची जो ग़ायब हो गईं
गार्गी मिश्र
25 अप्रैल 2024
![नाऊन चाची जो ग़ायब हो गईं नाऊन चाची जो ग़ायब हो गईं](https://hindwi.org/images/ResorceImages/blog/14246a4f-7a57-49de-af7b-482bcd01dc09_WebBanner.jpg)
वह सावन की कोई दुपहरी थी। मैं अपने पैतृक आवास की छत पर चाय का प्याला थामे सड़क पर आते-जाते लोगों और गाड़ियों के कोलाहल को देख रही थी। मैं सोच ही रही थी कि बहुत दिन हो गए, नाऊन चाची की कोई खोज-ख़बर नहीं मिली। यह सोचते-सोचते और चाय की दूसरी-तीसरी चुस्की लेते हुए मैंने देखा कि काले बादल घुमड़ रहे थे और बारिश के आसार दिख रहे थे। झीनी-झीनी झींसी पड़ना अभी शुरू ही हुई थी कि दरवाज़े के खटकने की आवाज़ आई और एक बहुत पुरानी पहचानी-सी लय में इक आवाज़ आई, ‘‘दीदी... ए दीदी...।’’
नाऊन चाची! बहुत दिन बाद आई हैं चाची, कहकर मैंने उनका अभिवादन किया और नाऊन चाची ने उसी पुरानी बात से अपने क़िस्सों की शुरुआत की। “हम तो तोहार दादी हैं बिटिया, तोहरे माई के चाची हैं।’’ उनकी यह बात सुनकर मैं मानों लगभग दो दशक पहले के अपने घर में जा पहुँची। पुरानी साँकलें, दरवाज़े, बड़ा-सा आँगन, आँगन में महावर की डिबिया और डिबिया से रंग निकालती नाऊन चाची।
नाऊन चाची गाल में पान दबाए हुए-घर घर बयाना लेकर जातीं। ठकुराइन के यहाँ मिसराइन के घर आई नई पुत्र-वधू की सुंदरता का बखान करतीं। टोकरी में रखे देसी घी के बने लड्डू, खाजा, शक्करपारे और बालूशाही ठकुराइन को सौंपतीं, नेग में ठकुराइन से 51 रुपए पातीं और फिर लाल फ़ीतेवाली चप्पल पहन पाँव में महावर से चिरई बनाकर गुप्ताइन की गली को मुड़ जातीं।
जब तक गुप्ताइन के घर पहुँचतीं नाऊन चाची तब तक पान का बीड़ा गाल से ग़ायब हो चुका होता था। मोमजामे से पसीजा हुआ दूसरा बीड़ा निकालतीं और बाएँ गाल में दबा लेतीं। उँगली में लगा कत्था बाल में मलकर साड़ी की किनार से होंठ से चूते पान को पोंछ ज्यूँ चप्पल उतारने को होतीं कि देखतीं—गुप्ताइन दालान में भक्क सफ़ेद धोती पहन सिर झुकाए चली आ रही हैं।
पहले घरों में सुख-दुःख जो भी घटते थे, उसमें परिवार के लोगों को फ़ुरसत ही नहीं होती थी कि वे घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर मुहल्ले में लोगों को कोई समाचार दे पाएँ।
इस काम के लिए घर में नाऊन होती थीं। कुछ बोलियों में इन्हें नाइन कहकर बुलाते हैं। आज की शब्दावली में मैसेंजर। ऐसी मैसेंजर जिसके पास एक पोटली होती थी जिसमें घर-घर से मिले पिसान, न्योछावर के रुपए, किसी पुरानी सिल्क की साड़ी का ब्लाउज और पुरानी चूड़ियाँ रखी होती थीं।
नाऊन चाची भाँप लेतीं कि गुप्ता जी अब नहीं रहे और चारपाई पर गुप्ताइन के विराजते ही अपनी नाक पर सरक आया चश्मा ठीक करते हुए गुप्ताइन के पास बैठकर उँहु-उँहु कर रोने लग जातीं। ‘’बहुत बुरा हुआ’’ कह कर, जीजी को सांत्वना देतीं और तिरछी नज़र से देखतीं कि शायद अंदर से बड़ी बहू, गुप्ता जी का पुराना स्वेटर शॉल लेकर आए तो इस जाड़े में नाऊ के लिए स्वेटर न ख़रीदना पड़े।
सोचने भर की देरी होती कि भीतर से बड़ी बहू पुराने स्वेटर शॉल का गट्ठर लेकर खड़ी हो जाती और फिर चाची माहौल को हल्का करने के लिए बात ही बात में मिसराइन की बहू का ज़िक्र छेड़ देतीं। गुप्ताइन भी कुछ देर तक चुप रहने के बाद बातचीत करने लग जातीं और फिर बात ही बात में बात पहुँच जाती मिसराइन की बहू मायके से सास के बक्से में क्या ले आई है। बेचारे गुप्ता जी तस्वीर में टँगे-टँगे मिसराइन के घर से आए बालूशाही और खाजा की सुगंध लेते जो सूखे हुए फूलों तक आकर दरक जाती और नाऊन चाची की बतकही मिसराइन की बहू से ठुकराइन के मँझले बेटे पर चली जाती जो हाल ही में दारोग़ा हुआ है।
इस तरह से नाऊन चाची पूरे मुहल्ले भर में घरों के सुख-दुःख बाँटती। इससे घरों से न निकलने वाली पुरखिन और बहुओं का मनोरंजन तो होता ही था, साथ ही साथ गर्मी और जाड़े में नाऊन चाची के घर के सदस्यों को कपड़ों की तंगी भी न झेलनी पड़ती थी। नाऊन चाची के घर पर बराबर आने से औरतें घर में एकसूत्री नाइटी पहनकर घूमने से डरती थीं, क़ायदे के कपड़े बहुओं के तन पर शोभा पाते और फलाने के घर की बहुओं के फूहड़पन के क़िस्से भी दबे-छुपे रहते।
अब समय बहुत बदल गया है। मुहल्लों से नाऊन चाची ग़ायब हो रही हैं। तीज-त्योहार पर औरतें डॉमिनोज़ में पित्ज़ा खाती-खिलाती पाई जा रही हैं, बसीयऊरा के नाम पर रसोई से ‘रेस्टुरेंट’ से आए बंद डिब्बों की बू आती है, सेर-सेर भर बनने वाले लड्डू और शक्करपारों की जगह 250 ग्राम के चॉकलेट के बॉक्स ने ले ली है। हम अपने दुःख-सुख ख़ुद ही सोशल मीडिया पर स्टेटस और स्टोरी में बाँट रहे हैं।
नाऊनें हमारी निजता को सँभालकर रखती हैं और उतना ही उन्हें किसी के सामने रखती हैं, जितनी ज़रूरत हो। ये नाम हमारे जीवन से धीरे-धीरे ग़ायब हो रहे हैं। गाँवों और क़स्बों में तो फिर भी सुनने को मिलते हैं ये नाम, लेकिन शहरों और महानगरों से मानो विलुप्त होते जा रहे हैं ये नाम, ये रिश्ते और ये सभ्यताएँ। क्या हम इन नामों को बचा पाएँगे? इसका जवाब शायद कोई अगला त्योहार या फिर आने वाले सावन की कोई दुपहरी दे। शायद एक बार फिर नाऊन चाची की हँसी और उनके क़िस्से सुनने को मिलें। यही है पुराने को नए के बीच बचाए रखने की उम्मीद।
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