Font by Mehr Nastaliq Web

मेटा 2025 : प्रेम, दर्द, समय, समाज और लोक का रंगमंच

भारतीय रंगमंच की जीवंत परंपरा को प्रोत्साहित करने और देश भर के प्रतिभाशाली कलाकारों को एक मंच प्रदान करने के उद्देश्य से, महिंद्रा समूह और टीम वर्कआर्ट्स द्वारा आयोजित ‘महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’ (मेटा) के 20वें संस्करण का समापन नई दिल्ली के कमानी सभागार में हुआ। सप्ताह भर तक चला यह उत्सव—रंगमंच प्रेमियों के लिए एक अद्वितीय अनुभव लेकर आया, जिसमें देश भर से चयनित 10 सर्वश्रेष्ठ नाटकों का मंचन किया गया।

चंदा बेड़नी

‘मेटा’ में पहले दिन अलखनंदन द्वारा रचित और अनिरुद्ध सरकार द्वारा निर्देशित ‘चंदा बेड़नी’ का मंचन किया गया। यह एक स्त्री की हत्या की साजिश पर आधारित कहानी है। बुंदेलखंड के संदर्भ में बना यह नाटक स्त्रियों के प्रति अन्याय के सवाल को उजागर करता है। 

‘चंदा बेड़नी’ बुंदेलखंड के बेड़नी जनजाति की एक वेश्या की कहानी है। राजाओं को नाच-गाने और तरह-तरह के मनोरंजन से ख़ुश रखना इनका पेशा है। चंदा इस कहानी की मुख्य नायिका है। उसके जीवन में प्यार और दुखद अंत की यह कहानी स्त्रियों के साथ होने वाले अन्याय को बयाँ करती है।

नाटक शुरुआत से लेकर अंत तक दर्शकों को बाँधे रखता है। बिना किसी बड़े सेट अथवा मंच सज्जा के गायन और वाचन शैली में सुंदर तरीक़े से मार्मिक कहानी प्रस्तुत की गई। चंदा बनी रंजिनी घोष अपने किरदार में फब रही थी। कलाकारों का अभिनय पक्ष मजबूत था, विशेषकर लखन बने अंकित शर्मा, पंडित छैल बिहारी तिवारी बने प्रियांश ने ख़ासा प्रभावित किया।

वस्त्र विन्यास कहानी के अनुरूप सही था। प्रकाश परिकल्पक की भूमिका सराहनीय रही। विशेषकर नाटक के मध्य और अंत के दृश्यों में प्रकाश परिकल्पक का नाटक पर असर निखर कर आता है। दृश्य को संयोजित कर थोड़ी देर के लिए दर्शक को ठहरा देना प्रकाश परिकल्पक के हाथ में है। संगीत पक्ष थोड़ा और बेहतर हो सकता था, ताकि संगीतमय प्रस्तुति अधिक रुचिकर लगे। निर्देशक अनिरुद्ध सरकार का निर्देशकीय कौशल नाटक के कई दृश्यों में उभर कर आता है। अभिनेताओं सहित सामान्य चीज़ों के माध्यम से दृश्य को सांकेतिक रूप से अधिक समृद्ध बनता देखना सुखद था। विशेषकर ‘चंदा बेड़नी’ के रस्सी पर नृत्य से पूर्व पूजा का दृश्य नाटकीय रूप से समृद्ध दिखाई पड़ता है।

'चंदा बेड़नी’ इस संसार की पहली स्त्री नहीं है, जिसने प्रेम करना चुना और मार दी गई। हमारा समाज हत्याओं से असहज नहीं होता है, दो प्रेमी जोड़ों के स्नेहिल मिलन से उन्हें दिक़्क़त है। जबकि हमें असहज संसार और समाज की कुव्यवस्था पर होना चाहिए। नाटक समाज का दर्पण होता है, जिसमें दिखता है कि पूर्व में क्या हुआ? वर्तमान में क्या हो रहा है? यदि हम तनिक विचार करें तो भविष्य कितना सुंदर हो सकता है! लेकिन हमने केवल देखना और सुनना सीखा है, विचार करना सीखने में अभी एक सदी का वक़्त और लगेगा। हम जिस दिन विचार करना सीख जाएँगे उस दिन हर ओर सूरजमुखी के फूल-सा प्रेमी जोड़ों से हर गली गुलज़ार रहेगी। यह नाटक हमें स्वयं के भीतर छिपे हत्यारे से रूबरू कराती है और हौले से कान में फुसफुसाती है कि तुम्हें हर समय में केवल प्रेम करना चुनना चाहिए।

~

दशानन स्वप्नसिद्धि

कुवेम्पु द्वारा रचित ‘श्री रामायण दर्शनम’ एक अद्वितीय महाकाव्य है। मेटा में मंजू कोडागु के निर्देशन में इस नाटक की अविस्मरणीय प्रस्तुति हुई। ‘श्री रामायण दर्शनम’—रामायण की पारंपरिक कथा को एक नया और गहरा दृष्टिकोण प्रदान करता है; यह रावण के आंतरिक संघर्ष और परिवर्तन को दर्शाता है, जिसमें उसके स्वप्न और दर्शन उसकी मनोदशा को चित्रित किया गया है। कुवेम्पु ने रावण को मात्र एक खलनायक के रूप में नहीं, बल्कि एक जटिल चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया है, जो अपनी दुर्बलताओं और महत्त्वाकांक्षाओं के साथ संघर्ष करता है। नाटक में हमें कहीं दस सिरों वाला पराक्रमी रावण नहीं बल्कि अपनी हठ और घमंड में, अपना सब कुछ खो चुका, स्वयं के ऊपर पछतावा करता हुआ एक बालक दिखाई देता है। जो देवी से अपनी दुविधाओं का, अपने प्रश्नों का उत्तर चाहता है।

नाटक आरंभ से लेकर अंत तक आपको अपनी साँसें थामकर रखने के लिए विवश करता है। रावण बने अविनाश राय एक कुशल अभिनेता हैं। यह उन्होंने अपने अभिनय से साबित किया। काली, लंकिनी, दुर्गा, सीता व मंदोदरी बनी श्वेता अरिहोले एक दक्ष अभिनेत्री हैं। 

दृश्य को संयोजित और उसे सार्थक रूप देने के लिए प्रकाश परिकल्पक और पार्श्व ध्वनि संयोजक की विशेष सराहना करनी होगी। उन्होंने कहानी को दृश्य रूप में उकेरने में भरपूर सहयोग दिया। नाटक के कई दृश्य आपको किसी अद्भुत पेंटिग जैसे लगते हैं, इसके लिए निर्देशक मंजू कोडागु सराहना के हक़दार हैं। मूलभूत मंच सज्जा के बावजूद मंच पर दृश्य इस रूप में उभरकर आता है—मानो रावण का अंतर्द्वंद्व उसके मन मस्तिष्क से निकल कर मंच पर पसरा हुआ है। प्रभावशाली संवाद और पार्श्व संगीत मिलकर मंच पर एक अलग जादू बिखेरता है। 

रावण का जो रूप हम सबके सामने है, वो केवल उतना भर नहीं था। कुवेम्पु हमें रावण को देखने के लिए एक नई दृष्टि प्रदान करता है। रावण के मानव और वात्सल्य रूप से हमारा परिचय कराता हुआ यह नाटक हमें हर चीज़ को देखने की अपनी दृष्टि पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करता है। 

नाटक के अंत से पूर्व रावण अपनी सभी दुविधाओं से मुक्त होकर शांतचित्त बैठता है। मंदोदरी उसके बग़ल में बैठी है। वो उससे बात करते हुए, किसी शिशु की भांति अपना सिर मंदोदरी की गोद में रख देता है। यह एक दृश्य रावण के वात्सल्य रूप का संपूर्ण सार है।

~

स्वांग—जस की तस

मेटा में विजय दान देथा की कहानी पर आधारित अक्षय सिंह ठाकुर के निर्देशन में ‘स्वांग—जस की तस’ की अद्भुत प्रस्तुति हुई।

‘जस की तस’ प्रसिद्ध कथाकार विजयदान देथा की मशहूर कहानी ‘ठाकुर का रूठना’ पर आधारित है। यह एक हास्यपूर्ण और पूर्णतः संगीतमय प्रस्तुति है। कहानी एक ठाकुर (ज़मींदार) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अक्सर बिना किसी ठोस कारण के नाराज़ हो जाता है और तर्कहीन निर्णय लेता है। कई गाँवों का शासक होने के नाते, सभी ग्रामीणों को उसकी आज्ञा का पालन करना पड़ता है।

एक बार ठाकुर आदेश देता है कि गाँव के सभी पानी से भरे कुओं को रेत से भर दिया जाए, जिससे ग्रामीणों में हाहाकार मच जाता है। गाँववाले इस अन्याय के ख़िलाफ़ बड़ी-माजी के पास शिकायत लेकर जाते हैं। बड़ी-माजी सबके सामने ठाकुर को कड़ी फटकार लगाती हैं, जिससे ग़ुस्से में आकर ठाकुर अपनी हवेली छोड़कर चला जाता है।

ग्रामीण उसे मनाने की कई कोशिशें करते हैं, लेकिन वह वापस लौटने से इनकार कर देता है। अंततः ठाकुरानी (ठाकुर की पत्नी) और माजी के अनुरोध पर पड़ोसी गाँव के एक चौधरी को भेजा जाता है, जो ठाकुर को समझा-बुझाकर वापस लाने का प्रयास करता है।

यह नाटक समाज की विभिन्न समस्याओं पर एक तीखा व्यंग्य और आलोचना प्रस्तुत करता है। दर्शक इसे देखकर हँसते हैं, लेकिन हँसी के बीच वे गहरे सामाजिक संदेश भी आत्मसात करते हैं। ‘ठाकुर का रूठना’—इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि स्वांग जैसी लोक नाट्य परंपराएँ मनोरंजन के साथ-साथ समाज को शिक्षित और जागरूक करने का कार्य भी करती हैं।

स्वांग, भारतीय लोक रंगमंच की एक समृद्ध, किंतु लुप्त होती विधा है। यह केवल एक नाटक नहीं, बल्कि संगीत, नृत्य और जीवंत संवादों का मनोरम संगम है, जो लोक कथाओं और जनमानस की कहानियों को मंच पर जीवंत करता है।

निर्देशक अक्षय सिंह ठाकुर की कलाकार मंडली ने अपनी शानदार प्रस्तुति से लोगों का दिल जीत लिया। यह एक सफल, शानदार प्रस्तुति थी। सामूहिक प्रयास मंच पर सार्थक रूप से उभर कर आ रहा था। प्रकाश, वस्त्र विन्यास, अभिनय और सबसे मजबूत संगीत पक्ष अपने चरम पर था। अभिनेत्री पूजा केवट, वंशिका पांडेय, अभिषेक गौतम, नमन मिश्र, अनुदीप सहित सभी कलाकार रंग में थे। इस नाटक की ख़ूबसूरती ये है कि ये नाटक होते हुए भी नाटक जैसा प्रतीत नहीं होता है। संवादों को प्रासंगिक बनाना नाटक के हित में रहा।

‘स्वांग—जस की तस’ वर्तमान समय की सत्ता के व्यवहार और विचार को चरितार्थ करती है, जो एक साहसिक काम है। देश और दुनिया में हो रही भिन्न-भिन्न घटनाओं सहित तर्कहीन बातों, जिस पर सबको एक जुट होकर बोलना और सवाल करना चाहिए... उन तमाम बातों के सामने नाटक ‘स्वांग—जस की तस’ अकेले निडर होकर खड़ा है। देश भर में इसकी अनगिनत प्रस्तुतियाँ होनी चाहिए। सभी अभिनेताओं सहित संगीत और नाटक से जुड़े सभी लोगों की भरपूर सराहना होनी चाहिए। हास्य-विनोद करते हुए कई ज़रूरी मुद्दों पर यह नाटक बड़े ही सहजता से ध्यान आकर्षित करता है। वैसे तो इस नाटक के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है और लिखा भी जाना चाहिए।

~

निःसंगो ईश्वर
मेटा थिएटर फेस्टिवल में सुमन साहा द्वारा लिखित व निर्देशित ‘निःसंगो ईश्वर’ नाटक की प्रस्तुति हुई। नाटक की मूल भाषा बांग्ला और संस्कृत थी।

नाटक में कृष्ण के अंतिम क्षणों को दर्शाया गया है। कुरुक्षेत्र का भीषण युद्ध समाप्त हो चुका है, यादव कुल का विनाश हो चुका है, और बलराम ने भी नश्वर देह का त्याग कर दिया है। अब वन के एकांत में, कृष्ण मृत्यु की प्रतीक्षा में अकेले बैठे हैं। उनकी दिव्य आभा मानो लुप्त हो रही है, और भीतर का साधारण मानव उभर रहा है। वे अपने जीवन की घटनाओं पर चिंतन करते हैं, अपनी लीलाओं पर एक दर्शक की भाँति दृष्टि डालते हैं, जिन्होंने उन्हें देवत्व प्रदान किया।

परंतु, उनकी अद्वितीय बुद्धि उन्हें भविष्य का पूर्वानुमान करने से नहीं रोक पाती। वे अज्ञानी बनने का, एक सामान्य मनुष्य बनने का प्रयास करते हैं। लेकिन पुरूषोतम से सामान्य मानव का सफ़र कृष्ण के लिए आसान नहीं होता। नाटक ‘निःसंगो ईश्वर’ कृष्ण के आंतरिक संवाद की कहानी है। जहाँ वक्ता और श्रोता दोनों ही कृष्ण हैं। जिनके वक्तव्य से हमें स्वयं के भीतर झाँकने का अवसर प्राप्त होता है।

नाटक की विषयवस्तु बहुत अलग है। कथानक समय माँगता है—उसे लिखे, पढ़े और समझे जाने के लिए... लेखक सुमन साहा और सोहम गुप्ता कृष्ण के जीवन के तक़रीबन हर पहलू को स्पर्श करने की कोशिश करते हैं और हद तक सफ़ल भी होते हैं। संवाद जितना मज़बूत था उसकी अदायगी उससे कहीं अधिक प्रभावशाली थी। नाटक का प्रथम संवाद ही कुछ इस तरह है—“मैं नाटक करने नहीं एक संवाद स्थापित करने आया हूँ।” जैसे–जैसे नाटक आगे बढ़ता है हम देखते हैं सुमन साहा बड़े ही सहजता से कृष्ण के प्रत्येक पहलू को दर्शकों के सामने उजागर करते हैं। जैसे कोई मूर्तिकार बड़े धैर्य से देवी की मूर्ति को गीली मिट्टी से गढ़ता है और बीच में सुस्ताते हुए, अपनी ही बनाई मूर्ति को निहारते हुए ठंडे पानी से अपनी प्यास बुझाता है। अभिनेता सुमन साहा सुस्ताने के लिए दर्शकों की ओर लौटते हैं, और कुछ एक गंभीर चिंतन की माँग करने वाले प्रश्नों को फेंककर वापस नाटक में लौट जाते हैं। महज़ दो किरदारों के साथ एकल अभिनय से सजी यह प्रस्तुति कहीं भी आपका ध्यान भंग नहीं करती है।

कृष्ण बनी अभिनेत्री चंद्रानी सरकार की भरपूर सराहना होनी चाहिए। लगातार नब्बे मिनट तक मूर्त रूप में मंच पर बैठे रहना बहुत अधिक धैर्य और निरंतर अभ्यास की माँग करता है। इसके अतिरिक्त कथावाचक के द्वारा अलग-अलग रूपों में ढाले जाने पर उस रूप को सहज स्वीकार कर उसमें रहना आकर्षक लगता है। उनका मंच पर होना ही मुख्य आकर्षण था। पार्श्व ध्वनि संतुष्ट करने वाली थी। महाभारत के श्लोक और मधुरम संगीत के अतिरिक्त उसमें और सुधार की गुंजाइश है। प्रकाश परिकल्पक नाटक और दृश्य को बिना समझें रंग भरते नज़र आते हैं। नाटक में कई ऐसे दृश्य हैं, जहाँ यदि सटीक प्रकाश पड़े तो एक अद्भुत पेंटिग की भांति दृश्य उभर कर आएगा।

नाटक ‘निःसंगो ईश्वर’ हमें आत्म के प्रति संपूर्ण समर्पण की ओर जाने के लिए प्रेरित करता है। जब हम सब शैशवास्था में थे, तब का हमारा जीवन और अब, जब हम सब अपने-अपने जीवन के दो या तीन दशक जी चुके हैं। उसमें ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। वो फ़र्क़ कैसा है? हमारे भीतर कैसे आया? वो हमें किस रूप में प्रभावित कर रहा है? वर्तमान समय में व्यक्ति सामान्य मनुष्य न होकर पद, प्रतिष्ठा, हैसियत, सुंदरता और न जाने कितनी अनगिनत चीज़ों को कंधे पर साथ लेकर चलता है। हर मिलने वाले से मनुष्य की भाँति नहीं बल्कि कद के रूप में मिलता है। हम सब स्वयं के प्रेम में आत्ममुग्धता के शिकार होकर स्वयं को मन-ही-मन सर्वश्रेष्ठ घोषित कर चुके हैं। जो हमारे मानवीय गुणों और भावनाओं के क्षय का मूल कारण है। कृष्ण अपने अंतिम समय में लौटना चाह रहे हैं, आत्म में, मनुष्य योनि में जन्म लेकर ईश्वर रूप पाने वाले कृष्ण एक साधारण मानव होना चाहते हैं। और हम सब अपनी साधारणता त्याग कर असाधारण होना चाहते हैं। लेकिन क्यों? ये एक प्रश्न स्वयं से ज़रूर पूछिएगा।

~

कांडो निंगल एंटे कुट्टिये कांडो
सिविक चंद्रन द्वारा लिखित व कन्नन पलक्कड़ द्वारा निर्देशित नाटक ‘कांडो निंगल एंटे कुट्टिये कांडो’ (हैव यू सीन माय सन?) एक मार्मिक और गहन भावनात्मक यात्रा पर ले जाता नाटक है, जो अन्याय और दमन के विरुद्ध मानवीय भावना की अटूट शक्ति को दर्शाता है।

25 जून 1975, भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय है। इसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री ने भारत में आपातकाल की घोषणा की थी। इस दमनकारी शासन के 21 महीनों के दौरान, असंख्य लोगों ने अपनी जान गँवाई। केरल में, राजन ऐसे ही एक शहीद थे।

यह नाटक प्रोफ़ेसर टी.वी. ईचारा वारियर—एक शिक्षक, लेखक और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता—के संघर्ष के अंतिम दिनों के दौरान उजागर हुई ऐतिहासिक सच्चाइयों को दर्शाता है। प्रोफ़ेसर वारियर ने राजन की मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार लोगों को न्याय दिलाने के लिए अथक प्रयास किया।

जब दो हाथी आपस में युद्ध करते हैं—तब सबसे अधिक घास कुचली जाती है, लेकिन मलंग हाथी के सामने घास के घाव को देखने का समय किसके पास है? घास तो वनस्पति का सबसे छोटा रूप है। जिसके होने अथवा कुचल दिए जाने को हमने कभी न दर्ज किया और न ही दर्ज करना ज़रूरी समझा। किसी भी राष्ट्र में ‘जनता’—सरकार और उसकी व्यवस्था रूपी हाथी के पैरों तले रौंदी जाने वाली घास भर है।

‘कांडो निंगल एंटे कुट्टिये कांडो’ नाटक उसी घास की आवाज़ है। जिसकी चीख़ आपको बहुत देर तक चुभती है। अभिनेता शशिकुमार चित्रांज्ही प्रोफ़ेसर टी.वी. ईचारा वारियर को संपूर्ण रूप से मंच पर चरितार्थ करते हैं। उन्होंने बेटे के लिए चिंतित और भयभीत मन से यहाँ-वहाँ चक्कर काटते, हर किसी से अपने बेटे के लिए भीख माँगते एक पिता की पीड़ा और अपने पुत्र के प्रति प्रेम का वह रूप दिखाया, जो सामान्यतः हम अपने पिता के साथ प्रत्यक्ष रूप में कम ही अनुभव करते हैं। धृष्य सुनील, विष्णु प्रसाद, महादेवन एवं अन्य सभी सहायक अभिनेताओं का काम नाटक को और मज़बूत बना रहा था।

नाटक का डिज़ाइन इंटीमेट स्पेस के हिसाब से किया गया। जोकि इस तरह के नाटकों के लिए अतिआवश्यक होता है। मंच को एक श्मशान में तब्दील कर सेट के तीन तरफ़ दर्शकों के बैठने की व्यवस्था के बीच घटित हो रहा था, प्रोफ़ेसर टी.वी. ईचारा वारियर की अपने पुत्र और अनगिनत खोए लोगों की जानकारी हेतु संघर्ष गाथा। जिसे इतने क़रीब से देखना भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए काफ़ी था। नाटक का सेट, प्रकाश, म्यूजिक और पार्श्व संगीत के साथ कलाकारों का अभिनय जून 1975 और उसके बाद की अनगिनत काली रातों को मंच पर उजागर करती है। प्रस्तुति की मूल भाषा मलयाली होने बावजूद आप नाटक देखते हुए भावुक होते हैं।

प्रेम और पीड़ा भाषा से परे है। हमें इन्हें महसूस करने के लिए किसी भाषा की आवश्यकता नहीं है। रंगमंच उसे सहज एवं ‘कांडो निंगल एंटे कुट्टिये कांडो (हैव यू सीन माय सन?)’ जैसी प्रस्तुति और सुंदर बनाती है। हमें कभी-कभी अपने लिखे, देखे, पढ़े और विचार किए पर ग़ुस्सा आता है कि इन कविताओं, कहानियों और नाटकों की लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यदि ऐसी स्थिति पैदा नहीं हुई होती तो ये सारी चीज़ें जन्म नहीं लेती। भविष्य में हमें ऐसे नाटक कम देखने को मिले। कविताएँ केवल स्तुति और प्रेम की हो। कहानियों में गिलहरियों का ज़िक्र हो। ईश्वर करे ऐसी घटनाएँ होनी बंद हो जाए। घास भी वनस्पति का हिस्सा है, हम सब इसे स्वीकार करते हैं। उसके कुचले जाने का विरोध और हाथियों को कटघरे में खड़े करने के लिए सब एक साथ लड़ेंगे। ताकि जो हुआ वो दुबारा न हो सके। सबके भीतर नमी और आँखों में प्रेम बचा रहे। संसार बचा रहेगा।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

22 फरवरी 2025

प्लेटो ने कहा है : संघर्ष के बिना कुछ भी सुंदर नहीं है

22 फरवरी 2025

प्लेटो ने कहा है : संघर्ष के बिना कुछ भी सुंदर नहीं है

• दयालु बनो, क्योंकि तुम जिससे भी मिलोगे वह एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है। • केवल मरे हुए लोगों ने ही युद्ध का अंत देखा है। • शासन करने से इनकार करने का सबसे बड़ा दंड अपने से कमतर किसी व्यक्ति द्वार

23 फरवरी 2025

रविवासरीय : 3.0 : ‘जो पेड़ सड़कों पर हैं, वे कभी भी कट सकते हैं’

23 फरवरी 2025

रविवासरीय : 3.0 : ‘जो पेड़ सड़कों पर हैं, वे कभी भी कट सकते हैं’

• मैंने Meta AI से पूछा : भगदड़ क्या है? मुझे उत्तर प्राप्त हुआ :  भगदड़ एक ऐसी स्थिति है, जब एक समूह में लोग अचानक और अनियंत्रित तरीक़े से भागने लगते हैं—अक्सर किसी ख़तरे या डर के कारण। यह अक्सर

07 फरवरी 2025

कभी न लौटने के लिए जाना

07 फरवरी 2025

कभी न लौटने के लिए जाना

6 अगस्त 2017 की शाम थी। मैं एमए में एडमिशन लेने के बाद एक शाम आपसे मिलने आपके घर पहुँचा था। अस्ल में मैं और पापा, एक ममेरे भाई (सुधाकर उपाध्याय) से मिलने के लिए वहाँ गए थे जो उन दिनों आपके साथ रहा कर

25 फरवरी 2025

आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ

25 फरवरी 2025

आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ

आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ, सच पूछिए तो अपनी किस्मत सँवार रहा हूँ। हुआ यूँ कि रिटायरमेंट के कुछ माह पहले से ही सहकर्मीगण आकर पूछने लगे—“रिटायरमेंट के बाद क्या प्लान है चतुर्वेदी जी?” “अभी तक

31 जनवरी 2025

शैलेंद्र और साहिर : जाने क्या बात थी...

31 जनवरी 2025

शैलेंद्र और साहिर : जाने क्या बात थी...

शैलेंद्र और साहिर लुधियानवी—हिंदी सिनेमा के दो ऐसे नाम, जिनकी लेखनी ने फ़िल्मी गीतों को साहित्यिक ऊँचाइयों पर पहुँचाया। उनकी क़लम से निकले अल्फ़ाज़ सिर्फ़ गीत नहीं, बल्कि ज़िंदगी का फ़लसफ़ा और समाज क

बेला लेटेस्ट