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कहानी : नदी का विद्रोह

चार पैंतालीस की पैसेंजर ट्रेन रवाना कर नदेरचाँद ने नए सहकारी को बुलाकर कहा—मैं चला जी! 

नए सहकारी ने एक बार मेघ से ढँके आसमान की ओर देखा और बोला—हाँ-हाँ।

नदेरचाँद बोले—अब और बारिश नहीं होगी, क्या कहते हो?

नए सहकारी ने एकबार जल में जलमय पृथ्वी को देखा और कहा—ना-ना।

नदेरचाँद लाइन पकड़ एक मील दूर नदी पर बने ब्रिज की तरफ़ चलने लगे। पाँच दिन लगातार बारिश के बाद आज शाम की तरफ़ बारिश रुकी है। पाँच दिन से नदी को नहीं देखा। नदेरचाँद बच्चों की तरह उत्सुक हो उठे थे। आसमान में घिरे घने मेघों को देख लगता है, कुछ ही क्षण में फिर बारिश शुरू हो जाएगी। तो हो जाए। ब्रिज के एक तरफ़ चुपचाप बैठकर अगर नदी को नहीं देखा, तो जैसे बचना मुश्किल है। पाँच दिन की लगातार भारी बारिश ने पता नहीं आज नदी को कैसा कुरूप रूप दिया हो! दोनों तरफ़ की ज़मीन डूब गई थी, रेल के ऊँचे बाँध को पकड़कर चलते हुए नदेरचाँद दोनों ओर आश्चर्य से देख रहे थे और बाढ़ में डूबी नदी कैसी दिख रही होगी उसी की कल्पना करने की कोशिश कर रहे थे।

तीस की उम्र में नदी के प्रति नदेरचाँद की इतनी माया ज़रा अस्वाभाविक जान पड़ती है। सिर्फ़ उमर की बात नहीं—छोटा हो, तुच्छ हो—वह तो किसी स्टेशन का स्टेशन मास्टर है। दिन-रात मेल, पैसेंजर और मालगाड़ियों की तीव्र गतियों को नियंत्रित करने वालों में से एक है, नदी के लिए ऐसा पागलपन क्या उसे शोभा देता है? नदेरचाँद सब समझते हैं, केवल ख़ुद को समझा नहीं पाते। अपने इस पागलपन में ही जैसे उन्हें सुख मिलता हो।

भले ही अस्वभाविक लगे, नदी को इस तरह से प्यार करने का एक कारण नदेरचाँद दे सकते हैं। नदी किनारे उनका जन्म हुआ है, नदी के किनारे ही वह पले-बढ़े हैं, हमेशा से ही नदी से प्यार रहा है उन्हें। उनके गाँव की नदी इस नदी जितनी बड़ी नहीं थी, किंतु शैशव में, किशोरत्व में, और प्रथम यौवन में बड़े छोटे का हिसाब कौन रखता है भला? गाँव की वह पतली, निर्जीव नदी ने किसी बीमार आत्मीय जन की तरह ही उनका प्यार पाया था। बड़े होकर एक बार के सूखे में वह पतली नदी प्राय: सूख चुकी थी, यह देख उनकी आँखें डबडबा गई थी और वह प्राय: रो पड़े थे; जैसे गंभीर बीमारी से जूझते किसी आत्मीय परिजन की मृत्यु पर हम रो पड़ते हैं वैसे ही।

ब्रिज के नज़दीक पहुँचते ही नदी को देख नदेरचाँद दंग रह गए। पाँच दिन पहले भी बारिश के पानी से भरी नदी के मटमैले जल में उन्होंने हलचल देखी थी, लेकिन वे हलचल जैसे परिपूर्ण होने की ख़ुशी थी। आज जैसे वही नदी पागल हो, गहरे मटमैले जल में डूबी तीव्रता से बह रही है। इतनी देर नदेरचाँद एक अत्यंत क्षीण प्रवाह नदी के बारे में सोच रहे थे, इसलिए भी चार साल की जानी पहचानी नदी का यह रूप उन्हें और भी भंयकर और भी अपरिचित जान पड़ा। ब्रिज के बीचो-बीच ईंट, मोर्टार और सीमेंट के पिलर के शेषप्रांत में बैठ वह प्रतिदिन नदी को देखते हैं, आज भी वह वहीं बैठे। ब्रिज के इस तरफ़ के खंभों से टकराकर लहरें फेनिल हो‌, पुनः नदी में मिल जातीं। पानी इतनी ऊपर उठ आया है कि लगता है जैसे हाथ बढ़ाकर छू सकते हैं। नदेरचाँद को बहुत आनंदबोध होने लगा। जेब से एक पुरानी चिट्ठी निकालकर उन्होंने नदी में फेंक दी। पलक झपकते ही चिट्ठी अदृश्य! यह उनकी उन्मत्तता थी जो उन्हें यह जलधारा जीवंत जान पड़ रही थी, उसके साथ लुका-छिपी के खेल में जैसे उन्होंने यह चिट्ठी छुपा दी हो।

दो दिन की लगातार बारिश के साथ सुर में सुर मिला नदेरचाँद ने अपनी पत्नी को एक पाँच पन्ने की विरह-वेदनापूर्ण चिट्ठी लिखी है, चिट्ठी जेब में ही थी। थोड़ी-सी माया-ममता ने रोका पर नदी के साथ खेलने के लोभ को वह सँभाल न सके, एक-एक पन्ने नोच, मोड़कर पाने में फेंकने लगे।

उसके बाद बारिश शुरू हुई, कैसी मूसलाधर बारिश! तीन घंटे के विश्राम के बाद मेघों को जैसे एक नई शक्ति मिल गई हो। 

नदेरचाँद बैठे-बैठे भीगने लगे, उठे नहीं। नदी की एक अनसुनी ध्वनि झमझमाते बारिश के साथ मिल एक ऐसी ध्वनि उत्पन्न कर रही थी कि नदेरचाँद को जैसे बच्चों जैसी ख़ुशी मिल रही थी, उन्हें लगने लगा जैसे इस अत्यंत मधुर ध्वनि ने उनके अंग-अंग को मदहोश कर दिया हो। धीरे-धीरे दिन की रोशनी ढलने लगी और चारों तरफ़ अंधकार छा गया, एक बार को बारिश ज़रा धीमी हुई और फिर ज़ोर से बरसने लगी, ब्रिज के ऊपर से अकस्मात एक ट्रेन के गुज़रने से नदेरचाँद जैसे नींद से उठ बैठे, कुछ‌ एक‌ क्षण के लिए नदेरचाँद जैसे असमंजस में बैठे रहे, और फिर वह बड़े ही कष्ट से खड़े हुए।

नदेरचाँद को भय ने घेर लिया। अचानक उन्हें लगा जैसे ऐसी ग़ुस्से से पागल, हहकारती नदी के इतने क़रीब बैठना सही नहीं। भले ही ब्रिज ईंट, मोर्टार सीमेंट, पत्थर और लोहा-लक्कड़ से बना हो, जो नदी ऐसा भयंकर रूप ले सकती है, उसका विश्वास नहीं कर सकते।

अंधकार में बड़ी सावधानी से लाईन पकड़ चलते-चलते नदेरचाँद स्टेशन की ओर लौट चले। नदी के विद्रोह‌ का कारण वह समझ गए हैं। ब्रिज के टुकड़े-टुकड़े कर दोनों तरफ़ के मानव निर्मित बाँधों को चूर-चूर कर, वह अपनी स्वभाविक गति से बहने का मार्ग चाहती है। किंतु, कर पाएगी क्या?

अगर कर पाई भी तो क्या मनुष्य उसको रिहाई देगा? आज जो ब्रिज और बाँध वह तोड़ देगी, कल मनुष्य उसे फिर गढ़ लेगा। और फिर यह गहरी फैली हुई नदी पता नहीं कब उनके गाँव की पतली क्षीण प्रवाह नदी में परिणित हो जाए?

स्टेशन के नज़दीक इस लाल ब्रिज के प्रति नदेरचाँद को इतने दिन गर्व था‌। आज जैसे उन्हें लगा क्या ज़रूरत थी इसकी?

जान‌ पड़ता है, इस प्रश्न के उत्तर के लिए ही पीछे हटते ही सात नंबर पैसेंजर ट्रेन नदेरचाँद को रौंद कर छोटे स्टेशन की तरफ़ चली गई, नदेरचाँद ने जहाँ चार साल स्टेशन मास्टरी की है और इस बंदी नदी को प्यार किया है।

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मूल कहानी : 'নদীর বিদ্রোহ'
लेखक: মানিক বন্দ্যোপাধ্যায় (माणिक बंद्योपाध्याय)
बांग्ला से अनुवाद : उमा भगत

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