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इस संसार की सुंदरता स्त्रियों के कंधे पर ही है

नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (National School of Drama) 23 अगस्त से 9 सितंबर 2024 के बीच हीरक जयंती नाट्य समारोह आयोजित कर रहा है। यह समारोह एनएसडी रंगमंडल की स्थापना के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर किया जा रहा है। समारोह में 9 अलग–अलग नाटकों की कुल 22 प्रस्तुतियाँ होनी हैं। समारोह में 26 अगस्त को महाश्वेता देवी कृत नाटक ‘बायेन’ खेला गया। यहाँ प्रस्तुत है नाटक की समीक्षा :

महाश्वेता देवी की कहानी ‘बायेन’ पर आधारित यह नाटक उनके लेखन के मूल भाव, अर्थात् मानवीय जीवन के विभिन्न रंग और सामाजिक-आर्थिक विषमताओं से हमारा परिचय कराता है। समाज के निचले स्तर पर रहने वाले लोग, श्मशान के अंधकार में रहने वाले डोम, गंगा नदी के तट पर रहने वाले बागड़ी, दुसाध और माँझी समुदाय, घने जंगलों में रहने वाले संथाल, ये सब मूल मानवीय अधिकारों से वंचित हैं।

‘बायेन’ की चंडी दासी काफ़ी छोटी उम्र में ही मरे हुए बच्चों को दफ़नाने के काम में झोंक दी जाती है। अपने पूर्वजों के काम को करने की ज़िम्मेदारी का हवाला देकर उसे बेहद कष्टप्रद जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। 

कालांतर में वह मलिंदर से विवाह करने का निर्णय लेती है, जो सरकारी श्मशान में काम करता है और चंडी दासी की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हो जाता है। लेकिन बाद में यही मलिंदर उसे एक बायेन घोषित कर देता है। जो चंडी दासी को एक सामान्य जीवन जीने के अधिकार से भी वंचित कर देती है।

नाटक लगातार यह दिखाने का प्रयास करता है कि चंडी जिसे अंधविश्वास के नाम पर दर्दनाक क़ीमत चुकानी पड़ती है। वह न सिर्फ़ मातृत्व से हाथ धो बैठती है, बल्कि अपनी चेतना का बीज भी खो बैठती है। 

आख़िर में उसका पुत्र युवा पीढ़ी में बदलाव के प्रतिनिधि के रूप में उभरकर आता है, वह उनमें आत्मसम्मान और गरिमा की लौ जलाने में सफल होता है।

“मेरी माँ बायेन नहीं थी। वह एक बहादुर औरत थी”

नाटक का यह अंतिम संवाद भागीरथ का किरदार निभा रहे अभिनेता सतेंद्र मलिक जब अपनी भावनाओं को एक साथ समेटकर कहते हैं, तो प्रेक्षागृह में बैठे सारे दर्शक सन्न रह जाते हैं। 

नाटक की शुरुआत बड़े ही साधारण ढंग से होती है, जिसमें महिलाओं की एक मंडली घड़े में तालाब से पानी भरने आती है। लेकिन जब चंडी दासी का किरदार मंच पर प्रवेश करता है, तो नाटक एक दिलचस्प मोड़ लेता है। चंडी दासी का किरदार निभा रहीं अभिनेत्री शिल्पा भारती और पी. रीता देवी ने किरदार के साथ पूरा न्याय किया। शिल्पा भारती, चंडी दासी के किरदार में जितनी सहज और सुंदर लग रही थीं, बायेन में उतनी ही अधिक प्रभावशाली लग रही थीं। 

नाटक एक साथ भूत और वर्तमान काल में मंच पर घटित होता है, जो दर्शकों को बाँधे रखने के लिए काफ़ी था। एक दृश्य में चंडी दासी और मलिंदर एक दूसरे से ठिठोली करते नज़र आते हैं, तो अगले ही दृश्य में वह पुनः बायेन बनकर आती है और दर्शकों को विचारमग्न कर देती है कि क्या मैं ऐसी ज़िंदगी जीने की अधिकारी हूँ? 

मलिंदर का किरदार निभा रहे अभिनेता मजीबुर रहमान और सुमन कुमार ने पुरुष प्रधान समाज के पुरुषों का बढ़िया चित्रण किया है। अंत में उनके किरदारों को अपनी भूल का एहसास होता है और उनके उस दृश्य को देखना भाव-विभोर करता है। जब वह अपने बेटे से उसकी माँ के बारे में बता रहा होता है।

नाटक बायेन वो सारे प्रश्न बारी–बारी से दर्शकों के सामने खड़ा करता है, जिसे सदियों से नज़रअंदाज़ किया गया। महिलाओं के प्रति एक समाज के रूप में हमारा व्यवहार आज भी कितना बेहतर है? यह हमारे लिए विचार का विषय होना चाहिए। बायेन नाटक आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना पूर्व में था। 

हमारा समाज जाति, लिंग, रंग, प्रांत, समुदाय और अब तो भोजन के नाम पर भी बंट गया है। एक अफ़वाह, अंधविश्वास, कही और सुनी हुई बातों के आधार पर हत्याएँ जैसी घटना हो जाना, आज आम बात है। हम आज एक मनुष्य को एक मनुष्य समझने से पहले और भी बहुत कुछ समझ लेते हैं। यह एक समाज के रूप में हमारी विफलता है। 

इस दुनिया का प्रत्येक आदमी हर तरह से अलग है, बावजूद इसके वो एक इंसान है और यह एक वजह उससे स्नेह रखने के लिए काफ़ी होनी चाहिए, लेकिन अफ़सोस ऐसा नहीं है। शायद इसलिए ही आज भी कहीं कोई मलिंदर जैसे लोगों की बातों में आकर अपनी चंडी दासी को बेसहारा अकेला छोड़ देते हैं और एक बायेन का तमगा लगाकर उसे कष्टकारी जीवन जीने के लिए मजबूर कर देते हैं। 

यह आपके अंतर्मन को झकझोरने वाला नाटक है। नाटक के संवाद जितने प्रभावशाली हैं, अभिनेताओं ने उसे उतने ही सशक्त अदायगी से पेश किया है। नाटक के बेहद ज़रूरी पहलू—अभिनेताओं के अभिनय कौशल पर बात करें तो और कितनी ही बातें लिखी-बताई जा सकती हैं, लेकिन तमाम बातों के अलावा—इस नाटक को सुंदर और चेतनायुक्त दृश्य में बदलने वालीं निर्देशक उषा गांगुली बधाई की पात्र हैं। 

नाटक बायेन आपके साथ कई दिनों तक रहने वाला नाटक है। यह आपको विचार करने के लिए मजबूर करेगा, परेशान करेगा और आपके मन के कठोर हो चुके हिस्सों को कुरेदकर कोमल बना देने वाला नाटक साबित होगा। आप इसे देखकर जब प्रेक्षागृह से बाहर निकलेंगे तो स्वयं का अवलोकन करने पर मजबूर हो जाएँगे। 

नाटक का संगीत और प्रकाश—इसके दृश्यों को और भी अधिक जानदार और मौलिक बनाता है। विशेषकर चंडी दासी का वह अंतिम दृश्य जहाँ वह अपनी चेतना खो चुकी है। समाज से बहिष्कृत किए जाने के बावजूद भी अपने भीतर कहीं संवेदना को बचाकर रखती है और अपनी जान देकर कई जीवन की रक्षा कर अमर हो जाती है। 

यह सच है कि इस संसार की सुंदरता स्त्रियों के कंधे पर ही है और वह स्त्री जब एक माँ होती है, तो उसके स्नेह और त्याग की कल्पना करना हमारे वश से बाहर की बात है।

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