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छितवन : स्मृति में बसी गंध

चाहता हूँ कि छितवन को उसके नाम से भूल जाऊँ, कहीं से गुज़रूँ तो उसकी महक नथुनों में घुसे और मैं बेचैन होकर उस महक का पता खोजता फिरूँ। मैं उन दिनों को फिर से जीना चाहता हूँ, महसूस करना चाहता हूँ; और उस जीने को, महसूस करने को लिखना चाहता हूँ। जब छितवन को नाम से नहीं महक से जानता था। तब कुछ भी नहीं लिखता था, बस महसूस करता था। सोचता हूँ कि महसूस करना बचा क्यों नहीं पाया? अब उसे लिख क्यों नहीं पा रहा हूँ?

उन दिनों छोटा बघाड़ा में एक दोस्त के कमरे पर रहना शुरू ही किया था, लेकिन बाढ़ में कमरा डूब जाने कि वजह से जल्दीबाज़ी में हम दोनों को फाफामऊ सब्ज़ी मंडी के एक कमरे में शिफ़्ट होना पड़ा था। रोज़ यूनिवर्सिटी आने-जाने के लिए किसी भी आती-जाती रेलगाड़ी पर चढ़ जाता था और तीस रुपए बचा लेता था। उन्हीं रेलगाड़ियों में किसी शाम पहली बार महसूस हुआ कि प्रयाग स्टेशन से फाफामऊ के बीच में ऐसा जगह-जगह होता था कि कोई तीक्ष्ण मादक गंध ट्रेन कि खिड़कियों में से घुस जाया करती थी और उसमें बैठा मुझ जैसा अट्ठारह साल का लौंडा बेचैन होकर इधर-उधर भागने लगता था। महक इतनी हावी हो जाती थी कि रेलगाड़ी की महक का आता-पाता नहीं चलता था। कम से कम मुझे तो नहीं पता चलता था।

अब मैं बार-बार सोचता हूँ क्या मेरी उस बेचैनी को कोई देखता रहा होगा और अगर देखता भी रहा होगा तो क्या वह समझ पाता होगा कि यह जो लड़का लटक-लटककर झाँक-झाँककर बाहर देख रहा है, वह क्या देखना चाहता है? कोई एक तो रहा ही होगा जो यह नहीं समझा होगा कि मुझे यहीं-कहीं बीच में उतरना है या मैं ट्रेन कि चेन खीचना चाहता हूँ या ट्रेन नहीं रुकने की वजह से बेचैन हो रहा हूँ। मेरी वह स्थिति देखकर क्या किसी के मन में यह भी ख़याल आया होगा कि मैं कोई चोर हूँ जो इस बात के इंतज़ार में हूँ कि ट्रेन जब धीमी होगी, तब मैं किसी का कोई सामान लेकर या फ़ोन छीनकर भाग जाऊँगा। कोई ताज्जुब वाली बात नहीं है—प्रेमियों को तो बार-बार चोर समझकर मारा भी गया है। मैंने भी यह महसूस किया था कि कई बार लोग अचानक से फ़ोन, बैग या पर्स सहेजने लगते थे, लेकिन मैं यह नहीं मानता हूँ कि यह वे सब मेरी वजह से करते रहे होंगे। दुनिया इतनी भी पूर्वाग्रही नहीं है कि उसे लोवर टीशर्ट पहना एक बेचैन बंदा चोर ही लगे। क्या कपड़ों से तब भी पहचान पुख़्ता की जाती रही होगी या फिर यह सब—अब शुरू हुआ है?

एक-दो बार यूनिवर्सिटी में ऐसा हुआ है कि मुझे मेरे कपड़ों और चप्पल कि वजह से अपमानित करने की कोशिश की गई थी लेकिन मैंने ख़ुद को अपमानित होने नहीं दिया। एक बार एक असिस्टेंट प्रॉक्टर ने चेकिंग के दौरान कहा था, “चप्पल पहनकर यूनिवर्सिटी चल दिए? बाहर जाओ।”

मुझे याद है मैंने कहा था कि इतना ही पैसा वाला होता तो ‘अशोका यूनिवर्सिटी’ में जाता न, यहाँ आपको देखने क्यों आता? आज भी और उन दिनों भी मेरी यही चाहत है कि मुझे पूर्वाग्रहों से न जाना जाए। मैं अगर ग़रीब हूँ तो ग़रीब की तरह पहचाना जाए, चोर की पहचान मुझे न दी जाए। मैं अगर स्त्रीद्वेषी या स्त्रीभोगी हूँ तो स्त्रीद्वेषी या स्त्रीभोगी के रूप में सहज ही स्वीकारा जाए, मुझे सिर्फ़ पुरुष न कहा जाए। अगर मैं लेखक हूँ तो लेखक कहा जाए, मुझमें अतिरिक्त ग़रीबी पुख़्ता न की जाए।

यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैंने लोगों को उनकी तरह ही जाना जब तक वे अपनी तरह दिखे। हर एक को उसकी तरह देखा किसी और की तरह नहीं देखा। आए हुए को कभी गए हुए की तरह नहीं देखा। आज को कल की तरह नहीं देखा, भले ही वह एक हज़ार गुना कल जैसा दिखा हो। छितवन को छितवन की तरह देखा क्योंकि उसे हरसिंगार की तरह देखा ही नहीं जा सकता है। मैंने प्रेम की हुई स्त्री को भी रोज़ की तरह नहीं देखा, भले ही वह कल कैसी भी थी—उसे कल की तरह नहीं देखा। मेरे कहने का मतलब है कि मैंने हर किसी को उसके काम, उसकी हरकतों और उसकी उपस्थिति की तरह देखा क्योंकि मेरा ख़याल है कि हमेशा एक जैसा रहने का सिर्फ़ ढोंग किया जा सकता है, रहा नहीं जा सकता है।

मेरी दरख़्वास्त है कि अब जब मैं अपने शहर वापस आ गया हूँ, तब मुझे गए हुए की तरह न देखें। मैं जब गया था तो मुझे छोड़ने मेरे पाँच दोस्त गए थे। मैं जब आ रहा हूँ तो उनमें से सिर्फ़ एक मेरे साथ है। कुछ को तो पता भी नहीं है कि मैं आ रहा हूँ। और जिनको पता नहीं है, वे बेख़बर ही रहें—मैं उन्हें कोई नुक़सान नहीं दूँगा। अगर कहीं दिख जाऊँ तो नज़र-अंदाज़ करें। मेरे सामने दिखावा न करें, “ओ! वाओ तुम आ गए?” दरअस्ल मैं कभी गया ही नहीं, मैं तो यहीं था। हर क्षण, हर दिन, हर मौसम में मैं यहीं था। मैं सर्दी के दिनों में उड़ती हुई पतंगे देखता तो महसूस करता था कि मैं एलनगंज में कहीं पतंग लूट रहा हूँ। सितंबर और अक्टूबर के दिनों में महसूस होता था कि कहीं किसी पार्क की बेंच पर बैठा छितवन और हरसिंगार को झरते हुए देख रहा हूँ और इंतज़ार है बस एक फोन का, वह आया और थोड़ी देर नोक-झोंक करने के बाद सीढ़ियाँ और दरवाज़े फाँदकर उसके सामने खड़ा हो जाऊँगा। हमेशा इलाहाबाद रहते हुए इंतज़ार में रहता था और जाने के बाद भी। इलाहाबाद ने भी मुझे जाने ही नहीं दिया। मेरे इलाहाबाद को जब-जब पतंग दिखी उसने मुझे याद किया। जब-जब छितवन की महक उसके नथुने में महसूस हुई उसने मुझे याद किया। उन्होंने पूरी नवरात्रि शहर का चक्कर लगाते हुए कहा, “तुम्हारी कमी नहीं खलती जब छितवन हमारे साथ होता है, बिल्कुल तुम्हारे जैसा ही एकदम तीक्ष्ण, तुमको पता है? तुम कहीं छुप नहीं सकते।”

दो साल बाद अपने शहर में क़दम रख रहा हूँ, रात के बारह बज रहे हैं और छितवन गमक रहा है। मेरी नज़र में दुनिया कि सबसे भारी चीज़ जो होती है, वह होती हैं किताबें, वह मेरे सिर पर हैं फिर भी मैं थोड़ी देर उस महक को अपने भीतर भर लेना चाहता हूँ। मुझे पसंद आने के लिए सिर्फ़ महक या सुंदरता काफ़ी नहीं होती है। उसकी उपयोगिता और जन सरोकार भी मेरे लिए उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं। आज भी और तब भी इलाहाबाद की सड़कों पर निकलता हूँ तो देखता हूँ कि फ़ुटपाथ पर कम से कम दस हज़ार लोग रोज़ सोते हैं। ये वही लोग हैं जिनसे इलाहाबाद और इलाहाबाद जैसे शहर चलते हैं। इनके लिए कोई भी पार्क, कोई भी सराय कभी नहीं खोली गई है क्योंकि ये कोई पुण्य कमाने नहीं आए हैं। ये अपना पेट पालने के लिए आए हैं। कुंभ या माघ मेला लगने से पहले भले ही हज़ारों पंडाल और रैन बसेरे बनाए जाते रहे हों लेकिन सिर्फ़ धार्मिक लोगों के लिए, इन जैसे फ़ुटपाथ पर रहने वाले लोगों के लिए कौन भगवान बनेगा? लोग जिसे भगवान मानते हैं, उसको तो बहुत देख लिया। जब इनके पास कोई सहारा नहीं होता है, तब इनके साथ छितवन खड़ा होता है, धूप से, बारिश से, नहीं तो ओस से। जबकि इनके पास कोई रूम या रूम फ़्रेशनर नहीं है, छितवन ही कुछ दिनों तक इन्हें पेशाब की परेशान करने वाली बदबू से बचाता है। एक रात इसके नीचे गुज़ारने पर पता चलता कि चुपके से कोई तुम्हारे बालों में तारे टाँग गया हो।

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