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‘चलो अब शुरू करते हैं यह सांस्कृतिक कार्यक्रम’

ओ मेरी कविता, कहाँ हैं तेरे श्रोता?
कमरे में कुल बारह लोग और आठ ख़ाली कुर्सियाँ—
चलो अब शुरू करते हैं
यह सांस्कृतिक कार्यक्रम
कुछ लोग और अंदर आ गए शायद बारिश पड़ने लगी है
बाक़ी सभी कवि के सगे-संबंधी हैं।

विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविता काव्य-पाठ से

लगता है जैसे हिंदी के किसी कविता-पाठ का वर्णन किया जा रहा है? पिछले दिनों कवि मित्र विजय कुमार (जो एक बेहतर आलोचक भी हैं) ने एक दिन फ़ोन पर बताया कि एक दिन पहले वह मराठी के महत्त्वपूर्ण कवि अशोक नायगाँवकर के कविता-पाठ में गए थे। कविताएँ तो महत्त्वपूर्ण थीं ही, लेकिन महत्त्वपूर्ण था कविता का पाठ। कवि ने इतना अच्छा पाठ किया कि लोग मंत्रमुग्ध से उसे काफ़ी देर तक सुनते रहे।

हिंदी में कविता-पाठ के बारे में कभी विचार नहीं किया जाता। हमारा कविता-पाठ अक्सर बल्कि अधिकतर इतना नीरस, उबाऊ और अनाकर्षक क्यों होता है? दिनोदिन उसका श्रोता समाज कम हो रहा है। बमुश्किल कुछ लोग आते भी हैं तो या तो वे स्वयं कवि होते हैं या दूसरी विधाओं से जुड़े रचनाकार। कवि के कुछ परिचित भी कभी-कभी उसमें बहैसियत श्रोता आ जाते हैं। कुछ देर के बाद हम पाते हैं कि पीछे की कुर्सियों पर बैठे श्रोता चुपके से बाहर निकल जाते हैं। अगर एक से अधिक कवियों का कविता-पाठ हुआ तो अंतिम कवि के पाठ तक उपस्थिति नगण्य हो चुकी होती है। शायद रचनाकारों पर बनने वाले चुटकुलों में सबसे अधिक चुटकुले कवियों के पाठ को लेकर ही बने हैं। दूसरी भाषाओं की स्थिति तो मैं बहुत नहीं जानता, लेकिन हिंदी में कविता-पाठ दिनोदिन बोर होता गया है। क्या यह सिर्फ़ कविता-पाठ के कौशल की कमी का ही प्रश्न है या कोई कमी हमारी कविता में मौजूद है?

बांग्ला भाषा में आवृत्ति की प्रतियोगिताएँ स्कूल स्तर से ही आयोजित होना शुरू हो जाती हैं। कविता-पाठ का कौशल सीखना वहाँ सिर्फ़ कवि के ही ज़िम्मे नहीं है। उसे कविता के पाठक और श्रोता को भी सिखा दिया जाता है। मुझे नहीं पता कि बांग्ला के अलावा आवृत्ति जैसी प्रतियोगिताएँ किसी अन्य भारतीय भाषा में होती हैं या नहीं? बांग्ला का कोई महत्त्वपूर्ण कवि ख़राब कविता-पाठ करता है, ऐसा कभी सुनने में नहीं आता।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ श्रोताओं की बड़ी संख्या के बीच बहुत अच्छा पाठ नहीं करते थे। उर्दू में उनके पाठ की आलोचना करने वाले गाहे-बगाहे आपको मिल सकते हैं। लेकिन श्रोताओं की सीमित और आत्मीय उपस्थिति के बीच उनका पाठ मैंने सुना है। उनकी आवाज़ में एक जादू था जो बाँध लेता था। उससे मुक्त होना आसान नहीं था। उनमें न अतिनाटकीयता थी, न उबाऊ ढीलापन। मराठी, मलयाली और तेलुगु के कई कवियों को बड़े श्रोता-समूह के सामने पाठ करते हुए मैंने देखा है। भाषा नहीं समझ में आने के बावजूद उनके पाठ में आवाज़ के उतार-चढ़ाव और नाटकीय प्रस्तुति आपको बाँध लेती है।

भोपाल में हुए विश्व कविता समारोह में भी ऐसे अनेक कवि थे जो अतिनाटकीय ढंग से अपनी कविता का पाठ बहुत ऊँचे स्वर में करते थे। कुछ तो बाक़ायदा अपनी कविता को गाते भी थे। सिर्फ़ आवाज़ के माड्यूलेशन ही नहीं थे, कुछ तो अपने पाठ के साथ अतिनाटकीय भाव-भंगिमाओं का भी प्रयोग करते थे। वे विदेशी थे, इसलिए आलोचना से परे थे।

बनारस के अनेक मित्रों से मैंने सुना है कि एलेन गिंसबर्ग अपनी लंबी कविताओं का सस्वर पाठ करते हुए, उँगलियों के बीच दो चपटे पत्थर के टुकड़े रखकर बजाते भी थे और नाचते भी थे, यहाँ तक कि कविता पढ़ते-पढ़ते अपने कपड़े उतार देते थे। यह अतिरिक्त नाटकीयता साठ के दशक की अराजकता और विद्रोह से पैदा हुई थी। यह सूफ़ी कवियों की तरह अपनी कविता में मगन होकर सुध-बुध खो देने की परंपरा का विस्तार या पुनराविष्कार नहीं था। लेकिन ख़ुद भी अपनी कविता में मगन होकर दूसरों को भी उसमें बाँध लेने की जो कला सूफ़ी कवियों में थी वह आधुनिक कविता ने लगभग खो दी है।

हिंदी में तो शायद अंतिम कवि नागार्जुन ही थे, जिन्हें भाव-भंगिमाओं के साथ अतिनाटकीय ढंग से कविता-पाठ करने में कोई हिचक नहीं थी। कविता-पाठ करते हुए नागार्जुन कभी-कभी अचानक नाचने लगते। ऐसे समय मैंने हिंदी के कई संभ्रांतों को नाक-भौं सिकोड़ते हुए देखा है।

कैलाश वाजपेयी के बाद शायद ही हिंदी का कोई कवि होगा जिसने आधुनिक कविता के किसी मंच पर गाकर अपना गीत पढ़ा हो। हालाँकि कई बार पाठ में बरती गई अतिनाटकीयता भी एक क़िस्म की चिढ़ पैदा करती है और बहुत दूर तक उसका असर नहीं रहता। अतिनाटकीयता और उबाऊ निरुत्साह के बीच भी पाठ की प्रभावशाली प्रस्तुति संभव हो सकती है। पाठ की ऐसी प्रविधियों पर एक बार फिर विचार किया जाना चाहिए।

हिंदी में अच्छा काव्य-पाठ करने वाले कवियों के उदाहरण शायद कम हैं। कहा जाता है कि निराला बहुत अच्छा पाठ करते थे। ‘राम की शक्ति-पूजा’ जैसी कठिन और प्रदीर्घ कविता के उनके पाठ का, काव्य-पाठ के उदाहरण की तरह उल्लेख किया जाता है। वे अपने गीतों का सस्वर पाठ भी कर सकते थे। दिनकर, बच्चन, श्याम नारायण पांडेय, सुमन, भवानी (प्रसाद मिश्र) भाई, दुष्यंत कुमार जैसे कुछ कवि तो थे ही जो बहुत बड़े श्रोता-समुदाय के बीच काव्य-पाठ कर सकते थे और उसे प्रभावित भी कर सकते थे। अज्ञेय, शमशेर या केदारनाथ सिंह सीमित श्रोताओं की संगोष्ठियों में बहुत आत्मीय और प्रभावशाली पाठ करते थे। शमशेर का पाठ सुनना एक अद्भुत अनुभव था। उनके पाठ में आप उनके शब्द को ही नहीं शब्द और शब्द के बीच के अंतराल को भी महसूस कर सकते थे।

कविता के नाट्य-पाठ या परफ़ॉर्मेंस के प्रयोग अक्सर बहुत सफल रहे हैं। मुक्तिबोध की जटिल समझी जाने वाली कविताओं के नाट्य-पाठ के प्रयोग न केवल सफल रहे, बल्कि प्रदर्शन के बाद अनेक दर्शक यह कहते हुए मिलते हैं कि हमें तो मुक्तिबोध कठिन कवि लगते थे; लेकिन इस परफ़ॉर्मेंस के बाद तो मुक्तिबोध समझ में आते हैं।

रघुवीर सहाय ने भी एक संस्था कविता-पाठ की प्रस्तुति के लिए बनाई थी। कई कवियों का नाट्य-पाठ उस संस्था द्वारा किया गया और वह भी पर्याप्त पसंद किया गया। लेकिन रघुवीर सहाय ने अपने काव्य-पाठ के लिए कुछ आग्रह तय कर लिए थे। हो सकता है कि रघुवीर सहाय के काव्य-पाठ को कुछ कवियों द्वारा पसंद किया जाता हो, लेकिन अक्सर श्रोता-समुदाय उसे पसंद नहीं कर पाता था। रघुवीर सहाय के काव्य-पाठ का अनुकरण करने वालों ने हिंदी कविता के पाठ को बहुत हद तक बोझिल बना दिया है।

कभी-कभी मुझे लगता है कि यह समस्या सिर्फ़ पाठ तक सीमित नहीं है। समकालीन हिंदी कविता में कवि मन छीज रहा है। वह निरा भाषाई अभ्यास और बौद्धिक कसरत बनती जा रही है। उसमें जीवनानुभव कम है। विचार ही विचार है। उसकी बौद्धिकता सरस बौद्धिकता नहीं है। उसने अपने बौद्धिक ठूँठपन को अपनी कड़ियल बौद्धिकता मान लिया है। कलावादियों में तो ऐसे कवि और रचनाकार पहले से ही मौजूद थे, लेकिन अब अनेक वामपंथी कवि भी यह कहते हुए मिल जाते हैं कि कविता सामान्य लोगों के लिए नहीं होती। वह सीमित लोगों के ही लिए लिखी जाती है या लिखी जानी चाहिए। (अपनी अक्षमताओं को छिपाने का इससे अच्छा तर्क कुछ नहीं हो सकता।) इसलिए पाठ के लिए ही नहीं, पढ़ने के लिए भी कविता को ज़्यादा से ज़्यादा असुविधाजनक बना देना एक बड़ा काव्य-कौशल मान लिया गया है। माना जाता है कि ऐसे कवि हिंदी कविता के क्षेत्र में नवोन्मेष कर रहे हैं, वे नई ज़मीन तोड़ रहे हैं। मुझे तो लगता है कि इस तोड़-फोड़ में उतना साहस और नवोन्मेष भी नहीं है, जितना अकवितावादियों के पास था।

हिंदी के कवि की एक दिक़्क़त और भी मुझे लगती है कि वह या तो नासमझी के कारण या आत्मदंभ के कारण अक्सर अपनी कविताओं में से पाठ किए जाने के लिए उपयुक्त और प्रकाशित रूप में पढ़ी जाने के लिए उपयुक्त कविताओं में फ़र्क़ नहीं कर पाता। वह श्रोताओं के सम्मुख पाठ करने के लिए ऐसी कविताओं का चयन करता है जो पाठ में संप्रेषित ही नहीं होतीं। रघुवीर सहाय जब श्रोताओं के समक्ष पाठ करते थे तो अक्सर अपनी ‘अधिनायक’, ‘पानी-पानी’ या ‘आपकी हँसी’ जैसी कविताएँ नहीं सुनाते थे। पता नहीं इस मानसिकता के पीछे कौन-सी चीज़ काम करती है।

हिंदी में एक मुहावरा और भी कुछ बरस पहले सुनाई देता था, अब भी कभी-कभी सुनाई दे जाता है कि जो कवि कविता का पाठ अच्छा करते हैं, वे अक्सर अच्छे कवि नहीं होते। हो सकता है ऐसी धारणा कवि-सम्मेलनों के कवियों के कारण बनी हो। हो सकता है कि कविता-पाठ के प्रति उदासीनता मंच की समाप्ति के कारण हो। लेकिन आधुनिक कविता के भी मंच अब कम तो नहीं हैं। कम श्रोता-समुदाय के बीच ही सही, लेकिन फिर भी अनेक मंचों पर सिर्फ़ समकालीन कवियों का ही पाठ होता है। अंत में शिम्बोर्स्का की कविता ‘काव्य-पाठ’ की कुछ पंक्तियाँ और…

पहली क़तार में एक प्यारा-सा बूढ़ा
ख़र्राटे भर रहा है
उसके सपने में ज़िंदा हो उठी है उसकी बीवी
इतना ही नहीं वह उसके लिए केक भी बना रही है
जैसा तब बनाया करती थी…
आग लगा सकती है कविता
लेकिन ज़रा सँभल कर कहीं केक न जल जाए
तो अब काव्य-पाठ शुरू करें
मेरी प्यारी कविता?

इसके बाद सिर्फ़ यही कि कविता-पाठ की एक ऐसी लय और ऐसा ताप होना चाहिए जो केक को जला न दे।

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