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भारंगम में खेला गया भिखारी ठाकुर का ‘बिदेसिया’

‘बिदेसिया’ (नाटक) भिखारी ठाकुर की अमर कृति है, जिसे संजय उपाध्याय ने एक नया आयाम दिया है। भिखारी ठाकुर भोजपुरी भाषा के कवि, नाटककार, गीतकार, अभिनेता, लोक नर्तक, लोक गायक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हें भोजपुरी भाषा के महानतम लेखकों में से एक और पूर्वांचल और बिहार के सबसे लोकप्रिय लोक-लेखक के रूप में जाना जाता है। उन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर भी कहा जाता है।

25वें भारत रंग महोत्सव की प्रथम संध्या को निर्माण कला मंच पटना द्वारा ‘बिदेसिया’ नाटक प्रस्तुत किया गया। नाटक में हर एक अभिनेता अपने पूरे सामर्थ्य के साथ मंच पर अभिनय कर रहे थे। प्यारी की व्यथा को केवल प्यारी ही नहीं, बल्कि नाटक से जुड़ा हर पात्र दर्शकों के सामने रख रहा था; कहने को वह नाटक में केवल एक किरदार की पीड़ा है, लेकिन लंबे समय से इस दर्द के दंश को अनगिनत स्त्रियाँ चुपचाप अपने देह पर झेल रही हैं। यह स्थिति नाटक के अंत तक एक प्रश्न बनकर सामने आती है कि आख़िर इसका ज़िम्मेदार कौन है? यह कब रुकेगा?

एक व्यक्ति अपने परिवार को दो वक़्त की रोटी खिलाने के लिए धन अर्जित करने परदेस जाता है, उसी परिवार को अकेला छोड़कर। यहाँ क्या महत्त्वपूर्व है, रोटी या परिवार? एक व्यक्ति को परिवार के लिए रोटी कमाने के बीच यह समझने का वक़्त कहाँ मिल पाता है कि वह सोचे सके—प्यार के बिना तो जीवन नीरस है। एक दिन रोटी न मिले तो भूखे सो जाना संभव है, लेकिन स्नेह के अभाव में रात स्याह हो जाती है।

नाटक में एक गीत आता है—“का से कहूं मैं दरददिया हो रामा पिया परदेस गए”, यह स्त्री मन को सहज रूप से दर्शकों के सामने रखता है। गीत के बोल सुनने-देखने वालों के मन में गहरे उतरते चले जाते हैं।

बिदेसी के कलकत्ता जाने के हठ से, बिदेसिया की कहानी शुरू होती है। बिदेसी कलकत्ता की भव्यता का बखान अपने दोस्तों से सुनता है तो उसका मन सबकुछ छोड़, उस ओर जाने को मचल उठता है। कलकत्ता देखने की तीव्र इच्छा में उसे यह ध्यान ही नहीं रहता कि अब उसका जीवन केवल उसका जीवन नहीं है। उसके साथ एक और जीवन जुड़ा है, जो उसकी अनुपस्थिति में अकेले ख़ुश नहीं रह सकता। हम जब स्वयं की इच्छाओं को सर्वोपरि मानकर कोई निर्णय लेते हैं, यह जानते हुए कि इस एक निर्णय का प्रभाव कई लोगों पर पड़ने वाला है—तब यह निर्णय हमें सोच-समझकर लेना चाहिए; लेकिन पेट की आग सोचने-समझने के लिए दिमाग़ को शांत नहीं रहने देता। बिदेसी की भूमिका में राजू मिश्र ने बेहतरीन काम किया है।

बिदेसी की पत्नी ‘प्यारी सुंदरी’ जिसने लोगों से सुन रखा था—“पूरब देस में जादू टोना बेसी बा...”, वह अपने अथक प्रयास से भी पति को परदेस जाने से नहीं रोक पाती है। उसे जिस बात का डर था ठीक वही होता है। बिदेसी कलकत्ता जाने के बाद से प्यारी को न कोई ख़बर करता है, न कोई चिट्ठी-पत्री भेजता है। वह जब बटोही बाबा के हाथ ख़बर भिजवाती है, तब उसे मालूम होता है कि बिदेसी वहाँ किसी और स्त्री के साथ विवाह कर, दो बच्चों के पिता हो गए हैं। नाटक में प्यारी की कहानी जितनी मार्मिक और हृदयस्पर्शी है, अभिनेत्री शारदा सिंह का अभिनय भी उतना ही मजबूत रहा। मंच पर उन्हें देखते हुए यह सोच पाना मुश्किल है कि प्यारी कौन है और शारदा कौन? 

कहानी में अद्भुत मोड़ तब आता है, जब बिदेसी को बटोही के द्वारा वापस अपने देस-अपने गाँव लाया जाता है। उसके आने के कुछ एक दिन बाद ही उसकी दूसरी पत्नी और बच्चे दरवाज़े पर दस्तक देते हैं। अब एक साथ एक ही जगह चारों उपस्थित हैं, जिसमें जीवन का संपूर्ण सार छिपा है। नाटक में बिदेसी ब्रह्म का रूप है। बटोही धर्म का प्रतीक है। रखेलिन माया और प्यारी सुंदरी जीव है। जीव को जीवित और जीवंत रखने के लिए माया से दूर रखना बहुत ज़रूरी है।

मुझे नाटक देखते हुए बार-बार अपने गाँव के बुज़ुर्ग याद आ रहे थे, जो एक कहानी ख़ूब दोहराते हैं—एक युवक गाँव से शहर की ओर जा रहा था, गाँव के बाहर वाले चौराहे पर बरगद के पेड़ पर बैठे बंदर ने युवक का ध्यान अपनी ओर खींचकर पहले मुँह खोलकर उसे जीभ दिखाई और फिर टांगे खोलकर...। युवक थोड़े ग़ुस्से और बहुत ज़्यादा निराशा के भाव से वापस लौटकर घर आने लगा। रास्ते में उसे गाँव के ही एक बुज़ुर्ग मिल गए। पूछने पर युवक ने वापस लौटने की पूरी कहानी विस्तार से बताई। बुज़ुर्ग ख़ूब हँसे और धैर्यपूर्वक युवक को समझाया कि बंदर तुम्हें चिढ़ा नहीं, बल्कि समझा रहा था कि गाँव से शहर जा रहे हो तो इन दो चीज़ों पर संयम रखना। यदि तुम इन्हें अपने बस में रख पाए तो तुम्हारी विजय होगी बेटा।

बिदेसिया की कहानी के अंत में क्या होता है? इससे अधिक महत्त्वपूर्ण है कि आख़िर कब तक अनगिनत स्त्रियों के हिस्से में यही अंत आता रहेगा? आज भी सैकड़ों पुरुष अपने गाँव से शहर और शहर से विदेश रोज़गार की तलाश में जाने के लिए मजबूर हैं। आज भी कई प्यारी सुंदरी अपने जीवन के सबसे सुंदर वर्ष का वसंत अकेले देखने के लिए मजबूर हैं। क्या मनुष्य की देह को केवल रोटी की ज़रूरत है? नाटक बिदेसिया ऐसे अनगिनत सवालों पर पुनर्विचार करने के लिए उकसाता है। नाटक ख़ूब गुदगुदाता भी है और हमें हँसाते हुए अपने कर्म और धर्म को लेकर एक और बार ग़ौर के लिए उत्तेजित करता है। एक लोक-नाटक या नाटक का धर्म तब पूरा माना जाता है, जब दर्शक देखने के बाद विचार करते हुए लौटें।

बिदेसिया का संगीत उसका सबसे मजबूत पक्ष रहा, जिसकी परिकल्पना स्वयं संजय उपाध्याय ने की है। साथ-ही-साथ उसे दर्शकों तक पहुँचाने और नाटक में गति प्रदान करने के लिए गायन मंडली की भी विशेष सराहना होनी चाहिए। इसकी कमान रोहित चंद्रा के हाथ में थी। निर्माण कला मंच पटना के कलाकारों ने लोक-नाटक ‘बिदेसिया’ को बेहद सुंदर ढंग से खेला। 

नाटक से जुड़ी से एक और महत्त्वपूर्ण बात जिससे इसकी प्रसिद्धि का अंदाज़ा लगाया जा सकता कि अब तक इसकी कुल 856 प्रस्तुतियाँ देश-विदेश में हो चुकी हैं।

नाटक में अभिनय और संगीत पक्ष को छोड़कर तकनीकी रूप से और काम करने की आवश्यकता है। संगीत नाटक का मजबूत अंग है लेकिन तकनीकी ख़राबी के कारण अभिनेता की आवाज़ से कहीं अधिक वाद्ययंत्रों की आवाज़ दर्शकों तक पहुँच रही थी। मंच पर अभिनेता स्पर्श मिश्रा, राजू मिश्रा, शारदा सिंह, पूजा सिंह, इंद्रदीप चंद्रबंसी, कृष्णा कुमार, अभिषेक राज व धीरज दास, मुकेश कुमार, ज़फ़र अकबर, कुमार उदय सिंह, कुमार गौरव उपस्थित रहे। संगीत, परिकल्पना और निर्देशन संजय उपाध्याय ने किया।

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