Font by Mehr Nastaliq Web

बीमार मन स्मृतियों से भरा होता है

गए दिन जैसे गुज़रे हैं उन्हें भयानक कहूँ या उस भयावहता का साक्षात्कार, जिसका एक अंश मुझ-से मुझ-तक होकर गुज़रा है। चोर घात लगाए बैठा था और हम शिकार होने को अभिशप्त थे। जैसे धीरे-धीरे हम उसकी ज़द में समा रहे थे, असंख्य डर हमारे सामने रील की तरह आते जा रहे थे। ज़िंदगी को जैसे किसी ने रिवाइंड बटन पर लगा दिया हो, एक-एक कर दृश्य या तो स्थिर हो रहे थे या पीछे की ओर बढ़ रहे थे। कुछ अदृश्य ताक़त थी भीतर जो अपने संपूर्ण अस्तित्व के साथ ज़ोर-आज़माइश कर रहा थी कि वह अपनी पूरी ताक़त से मुझे आगे की ओर खींच लेगी; पर नामुराद डर घर कर बैठा था भीतर, और भीतर। दिन बदलने के साथ डर बढ़ता जा रहा था।

कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया
न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो
डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है
न डरो तो डरो कि हुकुम होगा कि डर

— विष्णु खरे

~

बीमार मन स्मृतियों से भरा होता है और ये स्मृतियाँ ऐसी हैं जो जीवन में ख़ुशियाँ और दुःख एक साथ अपने भीतर सँजोए रखती हैं। इन दिनों समय ठहरा हुआ-सा है या यूँ कहें हम मशीनी हो गए हैं, दिन-रात, सूर्योदय-सूर्यास्त किसी चीज़ में अंतर नहीं, बस घड़ी टिक-टिक चलती रहती हैं, जब आँखों में नींद आए तो सो लिए, हल्की जुंबिश गले में सूखने की हुई नहीं कि नींद टूटी, फिर एक घूँट गुनगुना पानी। पानी गले के भीतर ऐसे उतरता है, जैसे भड़कती आग पर किसी ने दो बूँद पानी डाल दिया हो। नींद नहीं आती है, स्कीन देखते-देखते आँखों में दर्द होने लगता है, उठता हूँ अनमने सितार को ट्यून करता हूँ, कुछ देर बजाने के बाद बदन दर्द करने लगता है, एक बिस्तर पर सितार रख, दूसरे पर लेट जाता हूँ, छत ताकता रहता हूँ, बिल्कुल ख़ाली हो गया हूँ, कुछ भी सोच नहीं रहा हूँ, सोचना नहीं चाहता, कुछ भी। श्रीप्रकाश शुक्ल की कविता याद आती है, ‘कोइलिया जल्दी कूको ना’। और कोयल है कि रूठी हुई है, ना जाने कब बोलेगी और लगेगा कि चलो एक अध्याय समाप्त हुआ।

इस निर्जन में सब कुछ ठहरा
बासी हैं सब फूल
सूख गई हैं मन की काया
केवल हरे बबूल
कोइलिया जल्दी कूको ना

— श्रीप्रकाश शुक्ल

~

बुख़ार आँख-मिचौली खेल रहा है, बार-बार थर्मामीटर और डोलो 650 की जुगलबंदी ऐसी है जैसे बार-बार तुम्हारी याद आती है बुख़ार की तरह और मेरी ज़िद डोलो 650 हो, जो उस याद को नकारती हो, लेकिन तुम्हारी याद तो फिर तुम्हारी याद ही ठहरी, डोलो 650 का डोज़ डॉक्टर बढ़ाने को कहता है।

याद का सघन

मैं यह नहीं कहना चाहता हूँ कि गुलाब के पत्ते सूखने लगे थे
बल्कि यह कि वे सूख गए थे
और तुम हो कि कहती हो तुम बीमार थे
और उन पौधों को पानी नहीं दे सकते थे
तब एक निहायत सरल शब्द जाना प्यार
और जब तुमसे तुमको पाने की चाह ही शेष न रही
तब तुम आई
और जब तुम आई थीं तब सत्ता लामबंद थी
जनता को मार देने के लिए
तब मैंने जाना एक निहायत कठिन शब्द जीत
बहरहाल अब मैं यह कहूँगा, जब तुम आई याद के सघनतम क्षण में भी तो
मैं उनके बारे में सोच रहा था, जो मर रहे थे, मौत से नहीं, बीमारी से नहीं :
अव्यवस्था से और सत्ता की कुरूपता से

मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ कि तुम्हारे यादों के सघनतम क्षणों से निकल, मैं उन लाशों के बारे में सोचता हुआ, निराश और हताश प्रेमी नहीं एक योद्धा लग रहा था।

~

असद बिस्मिल है किस अंदाज़ का, क़ातिल से कहता है
कि, मश्क़-ए-नाज़ कर, ख़ून-ए-दो ‘आलम मेरी गर्दन पर

— मिर्ज़ा ग़ालिब
[शब्दार्थ : बिस्मिल : घायल, मश्क़-ए-नाज़ : रूप-गर्व की तलवार, ख़ून-ए-दो ‘आलम : दोनों लोकों का ख़ून]

बीमारी जितनी बड़ी हो, तीमारदारों के टोटके उतने अधिक होते हैं। अभी भी गाँव में कोरोना कोई बीमारी नहीं है, इसकी गंभीरता का एहसास उन्हें नहीं है, अथवा मध्यवर्गीय संघर्ष ने उन्हें सुन्न कर दिया है, वे लाशों की गिनती को भी बस आँकड़ा समझते हैं। मुझे बीमार होना अथवा बीमार होकर लोगों से मिलने वाली संवेदनाओं से चिढ़ है। फिर तो यह सदी की बीमारी है, जिनको जैसे पता चला, उन्होंने इलाज की झड़ी लगा दी। हालाँकि सुना सबको, पर किया वही जो डॉक्टर ने कहा।

~

इन दिनों राजेश जोशी की एक कविता की ख़ूब याद आती है। बहुत व्यवस्थित तो नहीं रहा कभी, हालाँकि उन अव्यवस्थाओं में भी एक क़िस्म की परिचित व्यवस्था हमेशा से है। कुछ नियत जगहें हैं, जिन्हें जहाँ होना चाहिए हैं, फिर अभी स्टडी टेबल पर किताबें, नोट्स, लैपटॉप, आईपैड की जगह दवाइयों ने, स्टीम मशीन ने, कफ़ सिरफ़ ने और गर्म पानी के थर्मस ने ले ली है। अभी सिर्फ़ सरलता है कोई हड़बड़ी नहीं, किसी भी चीज़ का कोई नियत स्थान नहीं, समय नहीं, जैसे समय की घड़ी बंद पड़ गई हो, और बस दिन काटना है।

थोड़े अस्त-व्यस्त घर लगते हैं मुझे बहुत प्यारे
लगता है वहाँ बची होगी अब भी जीवन की
थोड़ी हड़बड़ी और सरलता

बढ़ती उम्र के साथ इसे घेर लेंगी तरह-तरह की बीमारियाँ
बढ़ जाएगा इसका रक्तचाप
यह कभी खुल कर नहीं हँसेगा
दुख में भी कभी फफक कर रो नहीं पाएगा यह
पत्थर के मज़बूत परकोटे से घिरे क़िले की तरह होगा
इसका हृदय

— राजेश जोशी | अस्त-व्यस्त चीज़ें

~

चारों ओर निराशा, दुःख और हताशा ही है; ऐसे में बीमार मन और टूटने लगता है। ज़िंदगी जैसे लाचार हो, तब भी उम्मीद का एक सिरा अपने आपमें ज़िंदगी है। तमाम दुःख, दर्द, निराशा और हताशा के बावजूद यह ठहरती नहीं, चलती रहती है, घड़ी की सुई के माफ़िक टिक-टिक-टिक।

जब धुँधली होने लगती है
उम्मीद की किरण
जब टूटने लगती है आशा और विश्वास
तभी प्रकृति की अनंत दुनिया में से
आती है आश्वासन की एक आवाज़
जो धीरे-धीरे भर देती है
एक ललक जीवन की उद्दाम आकांक्षाओं की
भय और विश्वास के बीच
जीतता सदैव विश्वास ही है

— रविशंकर उपाध्याय | उम्मीद अब भी बाक़ी है

~

जब सब कुछ आधी रात में चुप हो तो कूलर की आवाज़ भी भली लगती है, पर बहुत देर तक नहीं। बार-बार मन को वहाँ से बदलना पड़ता है, फिर कोई और शोर खोजना होता है, ताकि दिल बहल सके। अकेलेपन का स्थानापन्न कुछ भी नहीं। कोरोना अकेला करता है। कभी ज्ञानेंद्रपति ने कहा था सबको अपना अकेलापन अर्जित करना पड़ता है। आपको आपका अकेलापन अचानक नहीं मिलता। इसीलिए कोरोना का अकेलापन भय पैदा करता है। यह चुनाव नहीं मजबूरी है। इसीलिए यह अकर्मण्य बनाता है। अकर्मण्यता भी एक समय के बाद दुख देने लगती है। कुछ भी अच्छा नहीं लगता। एक निचाट सूनापन।

इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह ख़ाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम कम है
विराट धक्-धक् में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है।

— ज्ञानेंद्रपति | ट्राम में एक याद

~

स्वाद, गंध, रस सबका होना कितना ज़रूरी है जीवन में, इसका एहसास तब होता है जब ये आपसे दूर हों। कमी तभी खलती है जब वह आपके पास न हो। आप उदासीन हो सकते हैं, पर रिक्तता का एहसास हमेशा बना रहता है। फिर अपने से फ़रेब रचते रहिए कि सब कुछ ठीक है। पर कहीं न कहीं यह आप समझते तो हैं ही कि कुछ भी ठीक नहीं है।

बस एक तुम्हारा स्पर्श ही तो था
कि जिससे ईश्वर के होने की अनुभूति होती थी
कोरोना ने मुझे निरीश्वर कर दिया।

— मदन कश्यप

~

याद करता हूँ
इतनी उदास रातें
कभी नहीं आईं थीं ज़िंदगी में
कभी मेरी साँसों को
नहीं करना पड़ा था इस तरह संघर्ष
एक पल कमरे में दौड़ाता हूँ नज़र
किसी अगले क्षण ताकत हूँ खिड़की से बाहर
पता नहीं
मेरी रात की सुबह होगी भी या नहीं

— जितेंद्र श्रीवास्तव

इस कविता को पढ़ता हूँ और महसूस करता हूँ। फिर किचन को देखता हूँ, कितना उदास है सब कुछ, बर्तन ऐसे ही पड़े हुए हैं, कूड़ा भी लगातार भरता जा रहा है, लगता है इस रात की सुबह नहीं होगी, पर उम्मीद और नाउम्मीद के बीच यह कविता और कवि का जीवन दोनों आमने-सामने है।

~

बीमार हूँ, कुछ फ़ोन आते हैं, कुछ को उठाता हूँ, कुछ को ऐसे ही बजने देता हूँ। कभी-कभी अपना रिंगटोन फ़ोन पर बजते हुए सुनते रहता हूँ। अधिकांश फ़ोन हिम्मत बढ़ाते हैं, लोग अपने-अपने क़िस्से सुनाते रहते हैं। जीत, हिम्मत और हौसला अफ़ज़ाई के। सबसे पूछता हूँ : आपका स्वाद कब लौटा था। फिर दिन गिनता हूँ कि अभी इतने दिन और लगेंगे। बोरिंग हो गया है जीवन, बिल्कुल एकसार। खाना आएगा, बेमन खाना है, समय हो गया, दवाई खाना है, नींद आती नहीं, जगते हुए आप कुछ कर नहीं सकते।

जिसको जाना था, चला गया,
और अब कभी वापस नहीं आएगा। उसकी
अनुपस्थिति से सामंजस्य बैठाते हुए हम अपने दिन काटेंगे।

उसने जो जगह ख़ाली की है; वह जगह सिर्फ़ तुम्हारे घर, शहर, गाँव, देश में नहीं की है। तुम्हारे भीतर भी एक इतना बड़ा ख़ालीपन आ गया है कि उसकी सीमाएँ जानते तुमको बरस लगेंगे। किसी-किसी रात को इनका विस्तार तुम्हारे जीवन को पूरा ढँक लेगा।

— अंचित

~

दिन दिन में है, रात में रात होती है
दरमियान की घड़ी गुमनाम होती है
लफ़्ज़ मानीख़ेज़ हों न हों
बात निकली किसी के नाम होती है
खिड़की-दर-खिड़की खड़ा सोचता हूँ
चुप-सी रात क्यों बदनाम होती है
बेनूर कह गई कल मुझसे यह रात
किसी बेचैन को इनाम होती है
रात का कोई वाक़िफ़ नहीं है
रात मुसलसल बेनाम होती है।

— लाल्टू

दिन और रात के इस नामालूम वक़्त में दिन तो जैसे-तैसे कट जाता है, रातें नहीं कटतीं। बालकनी में बैठ आसमान को देखते रहो। ऐसे में कोई बात करने के लिए आपके आस-पास हो तो बहुत बल मिलता है।

~

वस्तुस्थिति जितना हम सोच सकते हैं, उससे कहीं अधिक भयावह है। लाशों की तस्वीर और गिनती, आँकड़े और सरकार की अकर्मण्यता यह अब सिर्फ़ कहने की बातें हैं। यह सामूहिक रुदन का समय है। पवन वेग से लाशें गिर रही हैं। ज़िम्मेदारी इस भयावहता की नियति या महामारी की नहीं, कुप्रबंधन और अदूरदर्शिता की है। सवाल यह है कि आख़िरकार एक भी मौत क्यों? पर सवाल यह है कि आप सवाल पूछेंगे किससे। हमारे हिस्से में सिर्फ़ रुदन आया है।

~

संदेह! यह इस समय का सबसे बड़ा सच है। सब कुछ संदिग्ध है। अभी सब कुछ ठीक चल रहा है, पर भीतर कोई आशंका है, लगता है साँस ठीक से नहीं ले पा रहा हूँ, तुरंत ऑक्सीमीटर लगाता हूँ। बुख़ार नहीं है, पर बुख़ार के होने का संदेह है, बार-बार थर्मामीटर से अपने संदेह को मापता हूँ, आश्वस्त होता हूँ। कुछ खटका चाहिए जो संदेह को दूर करता रहे।

मृत्यु के पास आने के सौ दरवाज़े थे
हमारे पास उससे बच सकने के लिए
एक भी नहीं
इस बार वह दबे पाँव नहीं आई थी
उसने शान से अपने आने की मुनादी करवाई थी
उसकी तीखी गंध हवा में फ़ैली थी
हम गंधहीन हो चुके थे
जीवन का स्वाद उसने पहले ही हमसे छीन लिया था
इस बार हमें ले जाने से पहले ही
वह हमारे जीवित होने के सभी सबूत नष्ट कर चुकी थी
हमारे पास इतना भी समय शेष नहीं था
कि हम निबटा लेते बचे रह गए काम
ठीक से विदा कह पाते
हथेलियों में भर लेते पीछे छूट रहे
हाथों का स्पर्श
हम साँस-साँस की मोहलत माँगते रहे
और आख़िरी साँस तक
उनके प्रेम के लिए वर्जित ही रहे
जो कभी प्राणवायु बन हमारी धमनियों में तैरते रहते थे।

— रश्मि भारद्वाज

~

आश्वास्यैवं प्रथमविरहोदग्रशोकाँ सखीं ते
शैलादाशु त्रिनयनवृषोत्खातकूटान्निवृतः।
साभिज्ञानप्रहितकुशलैस्तद्वचोभिर्ममापि
प्रातः कुंडप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेथाः।।

— कालिदास | मेघदूत

धीरज, धैर्य, सांत्वना, ढाढ़स सब बेमानी हो गया है। आँखें पथरा गई हैं, इतने लोग आस-पास के असमय चले गए हैं कि प्रातःकाल का खिलने वाला फूल भी शिथिल हो गया है। बिल्कुल इस पद में खिलने वाले फूल की तरह। हे देव! अब तो मौत का यह तांडव बंद हो।

~

जब लगातार मौत ही मौत दिखती हो, तो ठीक हो जाना बेहयाई है, फिर शुकराना किसका अदा करें कि हम ठीक हो रहे हैं या ठीक हो जाएँगे। काश! जो मर गए वो मीर के इस अशआर की तरह इस राज़ का पर्दाफ़ाश करते, अब तो उम्मीदें भी उन्हीं से है, जो ज़िदा हैं, बच गए हैं, वे चुप हैं और वे चुप ही रहेंगे।

आवेगी मेरी क़ब्र से आवाज़ मेरे बा’द
उभरेंगे इश्क़-ए-दिल से तिरे राज़ मेरे बा’द

— मीर

वीरेन डंगवाल की कविता के एक अंश से इस असंबद्ध गद्य का समापन करता हूँ।

हमारी रसोई की खिड़की मुझे जाता हुआ देखेगी
हमारी बालकनी मुझे विदा देगी तार पर सूखते कपड़ों से
इस अहाते में मैं उससे ज़्यादा ख़ुश था जितना तुम कभी समझ पाओगे
पड़ोसियो, मैं तुम सबके लिए दीर्घायु की कामना करता हूँ।

~~~

कुमार मंगलम को और पढ़िए : आजकल लोग पैदा नहीं होते अवतरित होते हैंमोना गुलाटी की [अ]कविता

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं

बेला लेटेस्ट