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अस्सी वाया भाँग रोड बनारस

कितना अजीब है किसी घटना को काग़ज़ पर उकेरना। वर्तमान में रहते हुए अतीत की गुफाओं में उतरकर किसी पल को क़ैद कर लेना। उसे अपने हिसाब से जीने पर मजबूर कर देना। मैं कितनी बार कोशिश करता हूँ कि जो घटना बार-बार मुझे प्रभावित कर रही है, उसे किसी स्मृति की तरह ही रखा जाए। लेकिन कुछ घटनाएँ इतनी हठी होती हैं कि ख़ुद को काग़ज़ पर उतार कर ही दम लेती हैं। ऐसी ही एक घटना बनारस की है। मैं जिन दिनों हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र था। उफ़ ! यह ‘था’ कितना दिल फ़रेब है।

बात अक्टूबर की एक शाम की है, जब हम तीन दोस्तों ने फ़िल्म देखने का प्लान बनाया। प्लान का अगुआ मैं ही था शेष दो कठपुतली सदृश थे। उन्हें मुझे ही अपनी गाड़ी पर बैठा कर चलाना था। पिता जी से ज़िद करने पर मुझे एक सेकंड हैंड नीली रङ्ग की पैशन मिल गई थी, जिस का मैं दिन-रात दोहन करता था। मेरा बस चलता तो बाथरूम में नहाने भी उसी पर बैठ कर जाता। मगर अफ़सोस, दूरी कम होने की वजह से मुझे कुछ क़दम पैदल झेलने पड़ते थे।

अमरदीप ने टिकट बुकिंग का ज़िम्मा मुझे सौंप दिया था। टिकट बुक करना भी एक कला है। इसमें व्यक्ति की जेब और समय का सम्यक संयोजन करना होता है। मध्यम वर्गीय बच्चे को संयोजन के अलावा सिखाया भी क्या गया है? हम जन्म से लेकर मृत्यु तक संयोजन के तारों में सिले जाते हैं तथा विदीर्ण होने तक जोड़े जाते हैं। ख़ैर सभी बातों को ध्यान में रख कर मैंने एक फ़िल्म गोदौलिया वाले सिनेमाघर में खोज निकाली। जिसे देखने के लिए हम तीनों दोस्त सहमत हो गए। मगर टिकट बुक नहीं किया गया क्योंकि ऑनलाइन ट्रांजेक्शन चार्ज का वहन करना हमें ठीक नहीं लगा। निर्णय यह हुआ कि टिकट, टिकट-काउंटर से ख़रीदा जाएगा। आख़िरकार हम ग़रीब देश के ग़रीब नागरिक हैं, जो बुद्धि चातुर्य पर जीवित है। फ़िल्म का शो रात्रि में होने वाला था, इसलिए हेलमेट लगाकर जाना मुझे निरर्थक-सा लगा। हम भारतीय हेलमेट का उपयोग वैसे भी केवल बगुलों की कुदृष्टि से बचने के लिए करते हैं। रात आते-आते बगुले चौराहों से उड़कर गलियों में विचरने निकल जाते हैं। चालान का ख़तरा सूर्य के डूबने के साथ ख़त्म हो जाता है।

गाड़ी पर तीनों लोग लदकर पहले चाय की दुकान पहुँचे। हमारे हर काम की शुरुआत चाय से होती थी। पहले के समय में जैसे लोग सम्मोहक तिलक लगाकर घर से निकलते थे, ठीक उसी तरह हम हर काम चाय की चुस्की के साथ शुरू या ख़त्म करते थे। मान लीजिए हर्षित ने मुझसे कोल्ड ड्रिंक मंगवाई (जो कि मंगवाई नहीं जाती थी क्योंकि हर्षित और मैं दोनों ग़रीब हैं) तो पहले मैं चाय की दुकान जाऊँगा तत्पश्चात रूम पर कोल्ड ड्रिंक आएगी। दो-दो कप चाय पीकर तय यह किया गया कि खाना वहीं गोदौलिया पर खाया जाएगा। गोदौलिया में चर्च से पाँच सौ मीटर बाईं ओर जाने पर जो सिनेमाघर है, वहाँ तक पहुँचने के रास्ते में बहुत सारी पराठे की दुकानें रात के समय ठेलों पर लगाई जाती हैं। आज का हमारा भोजन वहीं होने वाला था। गाड़ी का चालक मैं था। मेरे पीछे हर्षित और हर्षित के पीछे अमरदीप। ऑटो से न जाने का कारण पैसे बचाना था, भले अब हमारा चालान हो जाए।

कैंपस के शांत वातावरण से बाहर निकलते ही हमारा टकराव भीड़-भाड़ वाले शहर बनारस से हुआ। कैंपस जितना अधिक मधुर-मनोहर है, बाहरी दुनिया उतनी ही चुभन भरी। गाड़ी पर पीछे शायद अमरदीप ने मौक़ा पाकर सिगरेट जला ली थी। सिगरेट की महक हर्षित से होते हुए मेरे नथुनों तक पहुँच रही थी। बनारस की धूप जितनी अधिक चिलचिलाती हुई है, इसकी शामें उतनी ही सुखद हैं। गाड़ी चलाते हुए जो सुख मुझे मिल रहा था, शायद सिगरेट पीते हुए अमरदीप को नहीं मिल रहा होगा। मैं यह सोचकर थोड़ा बहुत भीतर-भीतर ख़ुश था।

~

हर्षित यह बताओ किस रास्ते से चलना है? मैंने पीछे मुँह घुमाकर पूछा। हर्षित कुछ देर सोचते हुए, “देखो ऐसा करो भेलूपुर चौकी के सामने से जो रास्ता अंदर-अंदर गया है, उसी से निकल चलो। यह रास्ता सीधे तुमको चर्च के पास पहुँचा देगा। वहीं से बाएँ कट लेना।”

“और अगर चौकी पर धरा गए तो?” अमरदीप सिगरेट सड़क पर फेंकते हुए बोला।

“तब की तब देखी जाएगी। अभी चलो बाबू। डरो मत बाबा सब देख लेंगे।” बनारस के लोगो में यह मस्ती का भाव बाबा के होने से है। शिव जी वहाँ उस तरह नहीं हैं जैसे अन्य शहरों के मंदिरों में होते हैं। बाबा वहाँ के ऐसे जीवित अभिभावक हैं जो बुरे-से-बुरे और भले-से-भले काम का सामूहिक ठेका लेते हैं। जीवित इसलिए कहना ज़रूरी है, क्योंकि अनेक महानगरों में ईश्वर केवल मंदिरों तक ही सीमित है वहीं बनारस के लोगो के दैनिक जीवन में शिव समाए हुए हैं।

चौराहे के नज़दीक पहुँचकर मैंने गाड़ी रोक दी। दाएँ तरफ़ की नाली पर चैन खोलकर खड़ा हो गया। मेरे साथ हर्षित और अमरदीप भी सहयोग भाव से आगे बढ़ आए। हमारी नज़रें दूर से चौकी के गेट पर टिकी थीं। पूरी तरह से जाँच लेने के बाद हम चौकी के आगे से हवा हो गए। शायद हमें ख़ुद भी नहीं पता चला कि कब हम ने गाड़ी स्टार्ट की, कब बैठे और कब फुर्र हो गए। चौकी क्रॉस करने के बाद युद्ध विजयी प्रसन्नता हम तीनों के चेहरों पर थिरक रही थी।

हम तीनों लगभग साढ़े आठ बजे भेलूपुर चौराहे से होते हुए चर्च वाले चौराहे तक आ गए थे। बीच की ख़स्ता-हाल सड़कों का हाल लिखा नहीं जा सकता। उन्हें महसूस कर लेना ही बेहतर है। मैंने तेज़ आवाज़ में गाड़ी चलाते-चलाते ही ज़ोर से अमरदीप को पुकारा।

“हाँ बोलो क्या हुआ?” अमरदीप ने भी ठीक उसी स्वर में जवाब दिया।

“खाना कहाँ खाया जाएगा छोटा रोबोट?” अमरदीप का क़द लगभग पाँच फ़ुट चार इंच था, इसलिए हम लोग उसे छोटा रोबोट कहते थे। बाद में जेएनयू जाने पर उसका यही नाम बदलकर कंपाउंडर कर दिया गया था। कंपाउंडर इसलिए क्योंकि उसका एडमिशन पीएचडी के बजाय एमफ़िल में हुआ था।

“उधर रोड के उस तरफ़ देखो कई दुकानें हैं। किसी पर भी रोक दो।”

“ओके बॉस।” हमारी गाड़ी एक पराठे की दुकान पर रुकी, जहाँ हमने छह सत्तू और तीन आलू के पराठे आर्डर किए। बनारस में पराठे या तो छोला के साथ या मिक्स अचार के साथ परोसे जाते हैं। कहीं-कहीं प्लेट में रायता भी देखने भर का रख दिया जाता है, ताकि प्लेट देखने में सुंदर लगे। बहरहाल किफ़ायती पराठा ठूँसकर हम लोग अपने घोड़े पर सवार होकर किडबिड-किडबिड करते सिनेमाघर तक पहुँच गए। मैंने हर्षित से कहा कि तुम टिकट लो और मैं गाड़ी लगाकर आता हूँ। मैं जब लौटा तो मैंने देखा कि हर्षित मुझे देखकर मुस्कुरा रहा है।

“क्या हुआ बे टिकट लिए?” मैंने पूछा।

“किस मूवी का?”

“वही जो तय हुई थी।”

“वो चार दिन बाद लगेगी। तुमने कैसे टिकट देखा था?”

अब हर्षित के इस जवाब पर मैं कुछ शर्मिंदा-सा गया। लेकिन मैंने शर्मिंदगी चेहरे से झलकने नहीं दी।

“तो क्या हुआ किसी दूसरी मूवी का ले लो। सब देखने में हैं तो एक ही जैसी।” (मैंने क्या बढ़िया दार्शनिक जवाब दिया।)

“वो सब अमरदीप को पसंद नहीं।”

“तब वापस चलो और क्या बताया जाए।”

“चलो अब अस्सी घाट होते हुए रूम चलेंगे। मूड तो ख़राब हो ही गया है।”

इस सब वार्तालाप के बीच अमरदीप एक शब्द नहीं बोला। शायद वह काफ़ी नाराज़ था, लेकिन अब मैं कर भी क्या सकता हूँ। बहुत अधिक संयोजन करने वाला इसी तरह धोबी का कुत्ता बन जाता है।

“ठीक है। मैं गाड़ी लेकर आता हूँ, तुम दोनों कहीं साइड में खड़े हो जाओ।”

मैं यह सोचते-सोचते जा रहा था कि कैसे किए कराए को पाटा जाए। तभी मेरे दिमाग़ में आया कि घाट ठंडई पीते हुए भी तो जाया जा सकता है। गोदौलिया की ठंडई बनारस में काफ़ी प्रसिद्ध है। दूर देशों से विदेशी इसी का स्वाद चखने बनारस आते हैं। यहाँ की भाँग में आत्मिक और आध्यात्मिक संतुष्टि है जो शायद ही विश्व के किसी कोने में इतने सस्ते दामों पर मिलती हो। भाँग को बनारस में नशा कहना भी पाप है। यह तो बाबा की कृपा है। अब बाबा की कृपा तो है, लेकिन कौन से बाबा की कृपा है—इस पर अभी चिलमी बाबा शोध कर रहे हैं। पता चलते ही मैं आप को सूचित करूँगा। गाड़ी लेकर मैं जब वापस आया तो हर्षित और अमरदीप अपनी जगह से नदारद थे। नज़र दौड़ाने पर अमरदीप एक सिगरेट की दुकान पर बैठा दिखा। ग़ुस्से में लड़के ने सिगरेट का पूरा पैकेट ही ख़रीद लिया था।

“क्या साहब चला जाए?” मैंने डरते हुए किसी असंभावित भय से पूछा।

“हूँ चलो।”

पुनः हम तीनों अपने गदहे पर सवार होकर गोदौलिया से अस्सी वाले रास्ते पर चल दिए। मैंने हर्षित के पैर पर हाथ रखा। यह एक संकेत था, जिसे पाकर हर्षित ने अपना मुँह मेरे कंधे पर रख दिया।

“ठंडई पी जाए?”

“क्यों नहीं।”

“तो गाड़ी रोकी जाए”

“हाँ रोकी जाए।”

“अमरदीप बोलो ठंडई पी जाए?” मैंने पूछा। जिस के जवाब में उसका वही “हूँ” में जवाब आया।

एक दुकान पर उड़नखटोला रोका गया। लाल रंग के गहरे पेंट से लोहे के बोर्ड पर लिखा था—“बनारस की मशहूर ठंडई”। प्राइस बोर्ड पर आनंद के हिसाब से पैसे की सूची लिखी गई थी। जैसे अल्प आनन्द 40 रुपए में, थोड़ा अधिक 60 रुपए में तथा पूर्ण आनंद 70 रुपए में। हमने अपनी जेब की हालत के हिसाब से ‘थोड़ा अधिक’ का चुनाव किया। मैंने आर्डर देते हुए दुकानदार से कहा कि, “भइया तनी टाइट बनाय के तीन 60 वाला गिलास दा।” उसने मुस्कुराकर कहा, “देत हइ बबुआ। बइठा।”

आंचलिक भाषा की अपनी अलग मधुरता है। यह व्यक्ति को जोड़ने का काम करती है। मुझे ठीक तरह से भोजपुरी नहीं आती, मगर मैं हमेशा टूटी-फूटी भोजपुरी बोल कर ठगों से बच जाता था।

अमरदीप और हर्षित ने अपने गिलास में कम भाँग डलवाई। वादे के मुताबिक मेरा टाइट आया। ठंडई में मूलतः रबड़ी, दही, भाँग, ठंढई की जड़ी बूटी वाला पाउडर, सौंफ़, काली मिर्च, ख़रबूजे के बीज, गर्मी के दिनों में गुलाब जल, बर्फ़ तथा पिस्ता-बादाम आदि मिलाया जाता है। यह शिव रात्रि में प्रसाद के रूप में बनारस की गली-गली में बाँटी जाती है। ठंडई के सेवन के बाद हम गाड़ी पर बैठ कर घाट की ओर रवाना हो गए।

~

गोदौलिया से अस्सी आने पर बाएँ हाथ रानी लक्ष्मीबाई मार्ग है। कहते हैं यहीं लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ था। उसी मार्ग पर उनके जन्म-स्थान से थोड़ा पहले एक छोटा-सा मंदिर है, जिसका रास्ता सीधे अस्सी घाट की सीढ़ियों से जुड़ा हुआ है। हमने अपनी गाड़ी वहीं लगा दी। सीढ़ियों से उतरते हुए हम गंगा महल वाले रास्ते को पकड़ते हुए, आगे पानी की टंकी के पास जाकर बैठ गए। उस पानी की टंकी पर पहले हनुमान जी का एक चित्र उकेरा गया था, जिसे देखकर लगता था कि मानो पूरी टँकी को हनुमान जी संजीवनी बूटी की भाँति उठाए हुए हैं। लेकिन मेरे बनारस छोड़ने से कुछ दिनों पहले शायद वह चित्र रँगवा दिया गया था। इसी को परिवर्तन कहते हैं। जो आज मेरे सामने है कल आने वाली पीढ़ियों के लिए किसी अन्य प्रतीक के रूप में रूपांतरित हो जाएगा। 

बनारस के घाट कभी सोते नहीं हैं। इसका एक मुख्य कारण यह भी है कि विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएँ यहीं पर रात-दिन पड़े रहते हैं। जाने कितने प्रेम संबंध इन्हीं घाट की सीढ़ियों पर बने तथा बिगड़े। छात्र-छात्राएँ कुछ ही वर्षों में भिन्न-भिन्न प्रेमियों के साथ घाट को ताज़ा किया करते हैं। यहाँ की नावें अगर कुछ कर पातीं तो यक़ीनन रोज़ किसी-न-किसी प्रेमी युगल को गंगा में उलट देतीं। हम जहाँ बैठे थे, वहाँ से रामनगर का पुल दिखता था—जो रंगबिरंगी लाइट्स से चमक रहा था। हमारे सामने नदी के उस तरफ़ अँधेरे की एक लक़ीर खिंची हुई-सी प्रतीत हो रही थी। मैं अपनी कल्पना से वहाँ पर अक्सर बैठा-बैठा बहुत-सी आकृतियाँ बनाया करता था। कई शे’र उसी जगह से मुझे गंगा नदी से भेंट के रूप में मिले थे। अमरदीप बाबू अपने फ़ोन में चाँद का फोटो खींच रहे थे कि इतने में हर्षित ने मेरी ओर देखा और पूछा कि, “क्या तुम्हें भी वही महसूस हो रहा है जो मुझे हो रहा है?”

“हाँ कुछ अलग-सा लग तो मुझे भी रहा है।” मैंने हँसते हुए जवाब दिया।

“डॉक्टर उठा जाए?” हर्षित ने पूछा।

‘हाँ डॉक्टर चला जाए।”

ये बातें लिखने में बस तीन पंक्तियों में सिमट गई हैं, लेकिन मुझे लगता है—उस वक़्त यह इतना वार्तालाप कम-से-कम पाँच मिनट में हुआ होगा या फिर मुझे ही ऐसा प्रतीत हो रहा है। मुझे आज भी याद है कि हर्षित का एक-एक प्रश्न सुनकर मुझे ऐसा लगता था मानो ये प्रश्न हर्षित ने कल पूछे हों। मैं उसे सुनता और उस पर विचार करता और करते-करते भूल जाता और जब जवाब देता तो किस बात का जवाब किस प्रश्न पर देता इस का तारतम्य कुछ ठीक बन नहीं रहा था। मैंने अमरदीप से पूछा कि क्या वो चाय पियेगा? उसने फ़ोन जेब में डाला और उठ खड़ा हुआ।

“चलो चला जाए। रात भी काफ़ी हो रही है। दस बज गए हैं।”

हम तीनों उठ कर चल दिए। पर मुझे न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि सब मुझे ही देख रहा हैं? या यह कि क्या मेरे पाँव ठीक से पड़ रहे हैं। सौ मीटर की दूरी तय करने में मेरे दिमाग़ के हिसाब से उस वक़्त एक घंटे लग गए होंगे। सौ मीटर इतनी देर में क्यों आ रहा है, इस बात का जवाब उस वक़्त जानना मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण था। इस सब में मुझे एक चाय वाला दिख गया जो नींबू की चाय बेच रहा था। मैं घाट पर पड़ी बेंच पर बैठ गया। मेरे ख़याल से हर्षित भी बैठ गया था, पर अमरदीप खड़ा रहा। उस लड़के ने हमें तीन चाय दीं। मैंने ज्यों ही चाय का एक घूँट पिया मानो दिमाग़ नाच गया। अब बाबा की बूटी अपना असर और कस के दिखाने लगी थी। बाद में मुझे पता चला की भाँग खाने या पीने के बाद शक्कर उत्प्रेरक का काम करती है। शक्कर नशे को दो गुना कर देती है।

“बाबूजी मैं पैसे ऑनलाइन भी लेता हूँ।” चाय वाले ने मुझसे कहा।

“नहीं मैं कैश दूँगा। पैसे लो और जाओ।”

मैंने अपनी पर्स अमरदीप को दी और उससे कहा कि चाय वाले को पैसे देकर रवाना करो। अमरदीप ने पर्स हाथ से ली और उसे पैसे दे दिए। वो वहाँ से चला गया लेकिन न जाने मुझे यह क्यों लगने लगा कि वो हमें लूटना चाहता है। ऑनलाइन कोई भी चाय का पैसा क्यों माँगेगा भाई? वो भी वो दुकानदार जो पैदल चल-चल के चाय बेचता है। मैंने चाय वहीं छोड़ दी और हर्षित से कहा कि चलो वरना मैं घर पहुँच नहीं पाऊँगा। मैं अपनी सारी चेतना एक जगह लाता और धीरे से एक क़दम बढ़ाता। दूसरा क़दम रखने से पहले ही मैं अवचेतन की गलियों में भ्रमण पर निकल जाता। इस तरह का अनुभव मुझे जीवन में आज से पहले कभी नहीं हुआ था। मैं हँसता तो हँसता ही रहता। किसी तरह हम जिन सीढ़ियों से उतरकर नीचे आए थे उन्हीं पर चढ़कर गाड़ी तक पहुँचे। मैंने हर्षित को चाभी दी और पूछा—

“चला पाओगे बे?”

“हाँ कोशिश की जा सकती है।” हर्षित ने जवाब दिया।

मैंने कहा, “ठीक है भाई, सब बाबा देख लेंगे।” हर्षित ने गाड़ी स्टार्ट की। बीच में मैं और मेरे पीछे अमरदीप। हर्षित वाक़ई गाड़ी उसी तरह चला रहा था, जैसे उसने कहा था कि “चला लेंगे।” गेयर अगर पहले में है तो पहले में ही रहेगा और अगर तीसरे में है तो तीसरे में ही। गेयर बदलवाने का काम अमरदीप कर रहा था, जिसे ख़ुद आज भी गाड़ी चलानी नहीं आती है। मैं बीच में बैठा सिर्फ़ हँस रहा था और ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा था। टाइट गिलास का अपना ही मज़ा था, जो न हर्षित ले पा रहे थे और न अमरदीप। इन्हें भाँग चढ़ी तो थी पर शायद मुझसे कम।

“अच्छा तेजस इस दीवार पर क्या लिखा है?” अमरदीप ने मेरी परीक्षा लेने के उद्देश्य से पूछा।

“साकेत आश्रम”

“अच्छा इस पोस्टर पर”

“तुम्हारा मुँह” मैंने हँसते हुए जवाब दिया। इसी बीच में हर्षित बोल पड़ा, “अच्छा तेजस, ‘मीर’ का कोई शे’र सुनाओ।”

“नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए।
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है।”

“अच्छा अब अपना कोई शे’र सुनाओ?”

इसके बाद मुझे जितनी गालियाँ आती थीं, सब हर्षित के हिस्से कर दी गईं। फिर मेरा किसी ने टेस्ट नहीं लिया। रूम पहुँचकर मैंने एक बोतल पानी पिया क्योंकि भाँग खाने के बाद प्यास बहुत लगती है।

एक चारपाई पर मैं और हर्षित लेट गए तथा पास वाली चारपाई पर अमरदीप। मुझे एक छोटी-से-छोटी आहट भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। लार घूँटने पर मुझे पाँच मिनट लार घूँटने में लग रहे थे। कभी-कभी तो लार घूँटी भी नहीं जा रही थी। आँख बंद करने पर दर्शन शास्त्र के कठिन-से-कठिन सिद्धांत जो मैंने सिर्फ़ पढ़े थे, सब-के-सब आसानी से दिमाग़ में ही सिद्ध हो जा रहे थे। मैं मैथ्स के फ़ार्मूले याद कर ले रहा था। केमिस्ट्री और फ़िजिक्स हलुआ लग रही थी। कुल मिलाकर उस रात मैं परम् ज्ञानी बन गया था। मुझ पर बाबा की कृपा भरभरा के बरस रही थी।

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