प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
मेरे पिताजी फ़ारसी के अच्छे ज्ञाता और पुरानी हिंदी-कविता के बड़े प्रेमी थे। फ़ारसी-कवियों की उक्तियों को हिंदी-कवियों की उक्तियों के साथ मिलाने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। वे रात को प्रायः रामचरितमानस और रामचंद्रिका, घर के सब लोगों को एकत्र करके, बड़े चित्ताकर्षक ढंग से पढ़ा करते थे। आधुनिक हिंदी-साहित्य में भारतेंदुजी के नाटक उन्हें बहुत प्रिय थे। उन्हें भी वे कभी-कभी सुनाया करते थे। जब उनकी बदली हमीरपुर ज़िले की राठ तहसील से मिर्ज़ापुर हुई तब मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी। उसके पहले ही से भारतेंदु के संबंध में एक अपूर्व मधुर भावना मेरे मन में जगी रहती थी। 'सत्यहरिश्चंद्र' नाटक के नायक राजा हरिश्चंद्र और कवि हरिश्चंद्र में मेरी बाल-बुद्धि कोई भेद नहीं कर पाती थी। 'हरिश्चंद्र' शब्द से दोनों की एक मिली-जुली भावना एक अपूर्व माधुर्य का संचार मेरे मन में करती थी। मिर्ज़ापुर आने पर कुछ दिनों में सुनाई पड़ने लगा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र के एक मित्र यहाँ रहते हैं जो हिंदी के एक प्रसिद्ध कवि हैं और जिनका नाम है उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी।
भारतेंदु-मंडल की किसी सजीव स्मृति के प्रति मेरी कितनी उत्कंठा रही होगी, यह अनुमान करने की बात है। मैं नगर से बाहर रहता था। एक दिन बालकों की एक मंडली जोड़ी गई। जो चौधरी साहब के मकान से परिचित थे, वे अगुआ हुए। मील-डेढ़-मील का सफ़र तै हुआ। पत्थर के एक बड़े मकान के सामने हम लोग जा खड़े हुए। नीचे का बरामदा ख़ाली था। ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत था। बीच-बीच में खंभे और खुली जगह दिखाई पड़ती थी। उसी ओर देखने के लिए मुझसे कहा गया। कोई दिखाई न पड़ा। सड़क पर कई चक्कर लगे। कुछ देर पीछे एक लड़के ने उँगली से ऊपर की ओर इशारा किया। लता-प्रतान के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई पड़ी। दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। एक हाथ खंभे पर था। देखते-ही-देखते वह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई। बस, यही पहली झाँकी थी।
ज्यों-ज्यों मैं सयाना होता गया, त्यों-त्यों हिंदी के नूतन साहित्य की ओर मेरा झुकाव बढ़ता गया। क्वींस कॉलेज में पढ़ते समय स्वर्गीय बा० रामकृष्ण वर्मा मेरे पिताजी के सहपाठियों में थे। भारतजीवन प्रेस की पुस्तकें प्रायः मेरे यहाँ आया करती थीं; पर अब पिताजी उन पुस्तकों को छिपाकर रखने लगे। उन्हें डर हुआ कि कहीं मेरा चित्त स्कूल की पढ़ाई से हट न जाए—मैं बिगड़ न जाऊँ। उन्हीं दिनों प० केदारनाथजी पाठक ने एक हिंदी पुस्तकालय खोला था। मैं वहाँ से पुस्तकें ला-लाकर पढ़ा करता। एक बार एक आदमी साथ करके मेरे पिताजी ने मुझे एक बरात में काशी भेजा। मैं उसी के साथ घूमता-फिरता चौखंभा की ओर जा निकला। वहीं पर एक घर में से प० केदारनाथजी पाठक निकलते दिखाई पड़े। पुस्तकालय में वे मुझे प्रायः देखा करते थे। इससे मुझे देखते ही वे वहीं खड़े हो गए। बात-ही-बात में मालूम हुआ कि जिस मकान में से वे निकले थे, वह भारतेंदु जी का घर था। मैं बड़ी चाह और कुतूहल की दृष्टि से कुछ देर तक उस मकान की ओर न जाने किन-किन भावनाओं में लीन होकर देखता रहा। पाठक जी मेरी यह भावुकता देख बड़े प्रसन्न हुए और बहुत दूर तक मेरे साथ बातचीत करते हुए गए। भारतेंदुजी के मकान के नीचे का यह हृदय-परिचय बहुत शीघ्र गहरी मैत्री में परिणत हो गया। 16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते तो समवयस्क हिंदी-प्रेमियों की एक ख़ासी मंडली मुझे मिल गई, जिनमें श्रीयुत काशीप्रसाद जी, जायसवाल, बा० भगवानदास जी हालना, प० बदरीनाथ गौड़, प० उमाशंकर द्विवेदी मुख्य थे। हिंदी के नए-पुराने लेखकों की चर्चा बराबर इस मंडली में रहा करती थी। मैं भी अब अपने को एक लेखक मानने लगा था। हम लोगों की बातचीत प्रायः लिखने-पढ़ने की हिंदी में हुआ करती, जिसमें 'निस्संदेह' इत्यादि शब्द आया करते थे। जिस स्थान पर मैं रहता था, वहाँ अधिकतर वकील, मुख़्तारों तथा कचहरी के अफ़सरों और अमलों की बस्ती थी। ऐसे लोगों के उर्दू-कानों में हम लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन्होंने हम लोगों का नाम 'निस्संदेह लोग' रख छोड़ा था। मेरे मुहल्ले में कोई मुसलमान सब-जज आ गए थे। एक दिन मेरे पिता जी खड़े-खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच मैं उधर जा निकला। पिताजी ने मेरा परिचय देते हुए उनसे कहा—“इन्हें हिंदी का बड़ा शौक़ है।“ चट जवाब मिला—“आपको बताने की ज़रूरत नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से वाक़िफ़ हो गया।” मेरी सूरत में ऐसी क्या बात थी, यह इस समय नहीं कह सकता। आज से तीस वर्ष पहिले की बात है।
चौधरी साहब से तो अब अच्छी तरह परिचय हो गया था। अब उनके यहाँ मेरा जाना एक लेखक की हैसियत से होता था। हम लोग उन्हें एक पुरानी चीज़ समझा करते थे। इस पुरातत्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का एक अद्भुत मिश्रण रहता था। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि चौधरी साहब एक ख़ासे हिंदुस्तानी रईस थे। बसंत-पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर उनके यहाँ ख़ूब नाच रंग और उत्सव हुआ करते थे। उनकी हर एक अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। कंधों तक बाल लटक रहे हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटा-सा लड़का पान की तश्तरी लिए पीछे-पीछे लगा हुआ है। बात की काट-छाँट का क्या कहना है! जो बातें उनके मुँह से निकलती थीं, उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से एक दम निराला होता था। नौकरों तक के साथ उनका संवाद सुनने लायक़ होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कभी कोई गिलास वग़ैरा गिरा तो उनके मुँह से यही निकलता कि “कारे बचा त नाहीं।” उनके प्रश्नों के पहिले 'क्यों साहब' अकसर लगा रहता था।
वे लोगों को प्रायः बनाया करते थे, इससे उनसे मिलने वाले लोग भी उन्हें बनाने की फ़िक्र में रहा करते थे। मिर्ज़ापुर में पुरानी परिपाटी के एक बहुत ही प्रतिभाशाली कवि रहते थे, जिनका नाम था—वामनाचार्य गिरि। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ते चले जा रहे थे। अंतिम चरण रह गया था कि चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों पर बाल छिटकाए खंभे के सहारे खड़े दिखाई पड़े। चट कवित्त पूरा हो गया और वामन जी ने नीचे से वह कवित्त ललकारा, जिसका अंतिम अंश था—“खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुग़लाने की।”
एक दिन कई लोग बैठे बातचीत कर रहे थे कि इतने में एक पंडित जी आ गए। चौधरी साहब ने पूछा—“कहिए क्या हाल है?” पंडितजी बोले—“कुछ नहीं, आज एकादशी थी, कुछ जल खाया है और चले आ रहे हैं।” प्रश्न हुआ—“जल ही खाया है कि कुछ फलाहार भी पिया है?”
एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। देखते ही सवाल हुआ—“क्यों साहब, एक लफ़्ज़ मैं अकसर सुना करता हूँ, पर उसका ठीक अर्थ समझ में न आया। आख़िर घनचक्कर के क्या मानी हैं। उसके क्या लक्षण हैं?” पड़ोसी महाशय बोले—“वाह! यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने के पहले काग़ज़-क़लम लेकर सबेरे से रात तक जो-जो काम किए हों, सब लिख जाइए और पढ़ जाइए।”
मेरे सहपाठी पंडित लक्ष्मीनारायण चौबे, बा० भगवानदास हालना, बाबू भगवानदास मास्टर—इन्होंने ‘उर्दू-बेगम’ नाम की एक बड़ी ही विनोदपूर्ण पुस्तक लिखी थी, जिसमें उर्दू की उत्पत्ति, प्रचार, आदि का वृत्तांत एक कहानी के ढंग पर दिया गया था—इत्यादि कई आदमी गर्मी के दिनों में छत पर बैठे चौधरी साहब से बातचीत कर रहे थे। चौधरी साहब के पास ही एक लैंप जल रहा था। लैंप की बत्ती एक बार भभकने लगी। चौधरी साहब नौकरों को आवाज़ देने लगे। मैंने चाहा कि बढ़कर बत्ती नीचे गिरा दूँ, पर लक्ष्मीनारायण ने तमाशा देखने के विचार से मुझे धीरे से रोक लिया। चौधरी साहब कहते जा रहे हैं, “अरे! जब फूट जाई तबै चलत आवह।” अंत में चिमनी ग्लोब के सहित चकनाचूर हो गई, पर चौधरी साहब का हाथ लैंप की तरफ़ न बढ़ा।
उपाध्याय जी नागरी को भाषा का नाम मानते थे और बराबर नागरी भाषा लिखा करते थे। उनका कहना था कि “नागर अपभ्रंश से जो शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई, वही नागरी कहलाई।” इसी प्रकार वे मिर्ज़ापुर न लिखकर मीरजापुर लिखा करते थे, जिसका अर्थ वे करते थे लक्ष्मीपुर—मीर=समुद्र+जा=पुत्री+पुर।
mere pitaji farsi ke achchhe gyata aur purani hindi kawita ke baDe premi the farsi kawiyon ki uktiyon ko hindi kawiyon ki uktiyon ke sath milane mein unhen baDa anand aata tha we raat ko prayः ramacharitmanas aur ramchandrika, ghar ke sab logon ko ekatr karke, baDe chittakarshak Dhang se paDha karte the adhunik hindi sahity mein bhartenduji ke natk unhen bahut priy the unhen bhi we kabhi kabhi sunaya karte the jab unki badli hamirpur zile ki raath tahsil se mirzapur hui tab meri awastha aath warsh ki thi uske pahle hi se bhartendu ke sambandh mein ek apurw madhur bhawna mere man mein jagi rahti thi satyahrishchandr natk ke nayak raja harishchandr aur kawi harishchandr mein meri baal buddhi koi bhed nahin kar pati thi harishchandr shabd se donon ki ek mili juli bhawna ek apurw madhurya ka sanchar mere man mein karti thi mirzapur aane par kuch dinon mein sunai paDne laga ki bhartendu harishchandr ke ek mitr yahan rahte hain jo hindi ke ek prasiddh kawi hain aur jinka nam hai upadhyay badrinarayan chaudhari
bhartendu manDal ki kisi sajiw smriti ke prati meri kitni utkantha rahi hogi, ye anuman karne ki baat hai main nagar se bahar rahta tha ek din balkon ki ek manDli joDi gai jo chaudhari sahab ke makan se parichit the, we agua hue meel DeDh meel ka safar tai hua patthar ke ek baDe makan ke samne hum log ja khaDe hue niche ka baramada khali tha upar ka baramada saghan lataon ke jal se awrit tha beech beech mein khambhe aur khuli jagah dikhai paDti thi usi or dekhne ke liye mujhse kaha gaya koi dikhai na paDa saDak par kai chakkar lage kuch der pichhe ek laDke ne ungli se upar ki or ishara kiya lata pratan ke beech ek murti khaDi dikhai paDi donon kandhon par baal bikhre hue the ek hath khambhe par tha dekhte hi dekhte wo murti drishti se ojhal ho gai bus, yahi pahli jhanki thi
jyon jyon main sayana hota gaya, tyon tyon hindi ke nutan sahity ki or mera jhukaw baDhta gaya kweens college mein paDhte samay saurgiyah ba० ramakrshn warma mere pitaji ke sahpathiyon mein the bharatjiwan press ki pustken prayः mere yahan aaya karti theen; par ab pitaji un pustkon ko chhipa kar rakhne lage unhen Dar hua ki kahin mera chitt school ki paDhai se hat na jaye—main bigaD na jaun unhin dinon pa० kedarnathji pathak ne ek hindi pustakalaya khola tha main wahan se pustken la lakar paDha karta ek bar ek adami sath karke mere pitaji ne mujhe ek barat mein kashi bheja main usi ke sath ghumta phirta chaukhambhe ki or ja nikla wahin par ek ghar mein se pa० kedarnathji pathak nikalte dikhai paDe pustakalaya mein we mujhe prayः dekha karte the isse mujhe dekhte hi we wahin khaDe ho gaye baat hi baat mein malum hua ki jis makan mein se ye nikle the, wo bhartenduji ka ghar tha main baDi chah aur kutuhal ki drishti se kuch der tak us makan ki or, na jane kin bhawnaon mein leen hokar, dekhta raha pathakji meri ye bhawukta dekh baDe prasann hue aur bahut door tak mere sath batachit karte hue gaye bhartenduji ke makan ke niche ka ye hirdai parichai bahut sheeghr gahri maitri mein parinat ho gaya
16 warsh ki awastha tak pahunchte pahunchte to samawyask hindi premiyon ki ek khasi manDli mujhe mil gai jinmen shriyut kashiprsadji jayaswal, ba० bhagwandasji halna, pa० badrinath gauD, pa० umashankar dwiwedi mukhy the hindi ke nae purane lekhkon ki charcha barabar is manDli mein raha karti thi main bhi ab apne ko ek lekhak manne laga tha hum logon ki batachit prayः likhne paDhne ki hindi mein hua karti, jismen nissandeh ityadi shabd aaya karte the jis sthan par main rahta tha, wahan adhiktar wakil mukhtaron tatha kachahri ke afasron aur amlon ki basti thi aise logon ke urdu kanon mein hum logon ki boli kuch anokhi lagti thi isi se unhonne hum logon ka nam nissandeh log rakh chhoDa tha mere muhalle mein koi musalman sab jaj aa gaye the ek din mere pitaji khaDe khaDe unke sath kuch batachit kar rahe the isi beech main udhar ja nikla pitaji ne mera parichai dete hue unse kaha—inhen hindi ka baDa shauq hai chat jawab mila—apko batane ki zarurat nahin main to inki surat dekhte hi is baat se waqif ho gaya meri surat mein aisi kya baat thi, ye is samay nahin kah sakta aaj se tees warsh pahle ki baat hai
chaudhari sahab se to ab achchhi tarah parichai ho gaya tha ab unke yahan mera jana ek lekhak ki haisiyat se hota tha hum log unhen ek purani cheez samjha karte the is puratatw ki drishti mein prem aur kutuhal ka ek adbhut mishran rahta tha yahan par ye kah dena awashyak hai ki chaudhari sahab ek khase hindustani rais the basant panchmi, holi ityadi awasron par unke yahan khoob nach rang aur utsaw hua karte the unki har ek ada se riyasat aur tabiyatdari tapakti thi kandhon tak baal latak rahe hain aap idhar se udhar tahal rahe hain ek chhota sa laDka pan ki tashtari liye pichhe pichhe laga hua hai baat ki kat chhant ka kya kahna hai! jo baten unke munh se nikalti theen, unmen ek wilakshan wakrata rahti thi unki batachit ka Dhang unke lekhon ke Dhang se ek dam nirala hota tha naukron tak ke sath unka sanwad sunne layak hota tha agar kisi naukar ke hath se kabhi koi gilas waghaira gira to unke munh se yahi nikalta ki kare bacha t nahin unke prashnon ke pahle kyon sahab aksar laga rahta tha
we logon ko prayः banaya karte the, isse unse milne wale log bhi unhen banane ki fir mein raha karte the mirzapur mein purani paripati ke ek bahut hi pratibhashali kawi rahte the jinka nam tha—wamnacharya giri ek din we saDak par chaudhari sahab ke upar ek kawitt joDte chale ja rahe the antim charn rah gaya tha ki chaudhari sahab apne baramde mein kandhon par baal chhitkaye khambhe ke sahare khaDe dikhai paDe chat kawitt pura ho gaya aur wamanji ne niche se wo kawitt lalkara, jiska antim ansh tha—khambha teki khaDi jaise nari mughlane ki
ek din kai log baithe batachit kar rahe the ki itne mein ek panDitji aa pahunche chaudhari sahab ne puchha—kahiye kya haal hai? panDitji bole—kuchh nahin, aaj ekadashi thi, kuch jal khaya hai aur chale aa rahe hain parashn hua—jal hi khaya hai ki kuch phalahar bhi piya hai
ek din chaudhari sahab ke ek paDosi unke yahan pahunche dekhte hi sawal hua—kyon sahab, ek lafz main aksar suna karta hoon; par uska theek arth samajh mein na aaya akhir ghanchakkar ke kya mani hain, uske kya lachchhan hain? paDosi mahashay bole—wah, ye kya mushkil baat hai ek din raat ko sone ke pahle kaghaz qalam lekar sabere se raat tak jo jo kaam kiye hon, sab likh jaiye aur paDh jaiye
mere sahpathi panDit lakshminarayan chaube, ba० bhagwandas halna, babu bhagwandas master (inhonne urdu begam nam ki ek baDi hi winodpurn pustak likhi thi, jismen urdu ki utpatti, parchar, aadi ka writtant ek kahani ke Dhang par diya gaya tha) ityadi kai adami garmi ke dinon mein chhat par baithe chaudhari sahab se batachit kar rahe the chaudhari sahab ke pas hi ek lamp jal raha tha lamp ki batti ek bar bhabhakne lagi chaudhari sahab naukron ko awaz dene lage mainne chaha ki baDhkar batti niche gira doon, par panDit lakshminarayan ne tamasha dekhne ke wichar se mujhe dhire se rok liya chaudhari sahab kahte ja rahe hain—are, jab phoot jai tabai chalat jabah ant mein chimani globe ke sahit chaknachur ho gai; par chaudhari sahab ka hath lamp ki taraf na baDha
upadhyayji nagari ko bhasha ka nam mante the aur barabar nagari bhasha likha karte the unka kahna tha ki nagar apabhransh se jo shisht logon ki bhasha wiksit hui, wahi nagari kahlai isi prakar we mirzapur na likhkar mirjapur likha karte the, jiska arth we karte the lakshmipur— meer = samudr + ja=putri + pur
mere pitaji farsi ke achchhe gyata aur purani hindi kawita ke baDe premi the farsi kawiyon ki uktiyon ko hindi kawiyon ki uktiyon ke sath milane mein unhen baDa anand aata tha we raat ko prayः ramacharitmanas aur ramchandrika, ghar ke sab logon ko ekatr karke, baDe chittakarshak Dhang se paDha karte the adhunik hindi sahity mein bhartenduji ke natk unhen bahut priy the unhen bhi we kabhi kabhi sunaya karte the jab unki badli hamirpur zile ki raath tahsil se mirzapur hui tab meri awastha aath warsh ki thi uske pahle hi se bhartendu ke sambandh mein ek apurw madhur bhawna mere man mein jagi rahti thi satyahrishchandr natk ke nayak raja harishchandr aur kawi harishchandr mein meri baal buddhi koi bhed nahin kar pati thi harishchandr shabd se donon ki ek mili juli bhawna ek apurw madhurya ka sanchar mere man mein karti thi mirzapur aane par kuch dinon mein sunai paDne laga ki bhartendu harishchandr ke ek mitr yahan rahte hain jo hindi ke ek prasiddh kawi hain aur jinka nam hai upadhyay badrinarayan chaudhari
bhartendu manDal ki kisi sajiw smriti ke prati meri kitni utkantha rahi hogi, ye anuman karne ki baat hai main nagar se bahar rahta tha ek din balkon ki ek manDli joDi gai jo chaudhari sahab ke makan se parichit the, we agua hue meel DeDh meel ka safar tai hua patthar ke ek baDe makan ke samne hum log ja khaDe hue niche ka baramada khali tha upar ka baramada saghan lataon ke jal se awrit tha beech beech mein khambhe aur khuli jagah dikhai paDti thi usi or dekhne ke liye mujhse kaha gaya koi dikhai na paDa saDak par kai chakkar lage kuch der pichhe ek laDke ne ungli se upar ki or ishara kiya lata pratan ke beech ek murti khaDi dikhai paDi donon kandhon par baal bikhre hue the ek hath khambhe par tha dekhte hi dekhte wo murti drishti se ojhal ho gai bus, yahi pahli jhanki thi
jyon jyon main sayana hota gaya, tyon tyon hindi ke nutan sahity ki or mera jhukaw baDhta gaya kweens college mein paDhte samay saurgiyah ba० ramakrshn warma mere pitaji ke sahpathiyon mein the bharatjiwan press ki pustken prayः mere yahan aaya karti theen; par ab pitaji un pustkon ko chhipa kar rakhne lage unhen Dar hua ki kahin mera chitt school ki paDhai se hat na jaye—main bigaD na jaun unhin dinon pa० kedarnathji pathak ne ek hindi pustakalaya khola tha main wahan se pustken la lakar paDha karta ek bar ek adami sath karke mere pitaji ne mujhe ek barat mein kashi bheja main usi ke sath ghumta phirta chaukhambhe ki or ja nikla wahin par ek ghar mein se pa० kedarnathji pathak nikalte dikhai paDe pustakalaya mein we mujhe prayः dekha karte the isse mujhe dekhte hi we wahin khaDe ho gaye baat hi baat mein malum hua ki jis makan mein se ye nikle the, wo bhartenduji ka ghar tha main baDi chah aur kutuhal ki drishti se kuch der tak us makan ki or, na jane kin bhawnaon mein leen hokar, dekhta raha pathakji meri ye bhawukta dekh baDe prasann hue aur bahut door tak mere sath batachit karte hue gaye bhartenduji ke makan ke niche ka ye hirdai parichai bahut sheeghr gahri maitri mein parinat ho gaya
16 warsh ki awastha tak pahunchte pahunchte to samawyask hindi premiyon ki ek khasi manDli mujhe mil gai jinmen shriyut kashiprsadji jayaswal, ba० bhagwandasji halna, pa० badrinath gauD, pa० umashankar dwiwedi mukhy the hindi ke nae purane lekhkon ki charcha barabar is manDli mein raha karti thi main bhi ab apne ko ek lekhak manne laga tha hum logon ki batachit prayः likhne paDhne ki hindi mein hua karti, jismen nissandeh ityadi shabd aaya karte the jis sthan par main rahta tha, wahan adhiktar wakil mukhtaron tatha kachahri ke afasron aur amlon ki basti thi aise logon ke urdu kanon mein hum logon ki boli kuch anokhi lagti thi isi se unhonne hum logon ka nam nissandeh log rakh chhoDa tha mere muhalle mein koi musalman sab jaj aa gaye the ek din mere pitaji khaDe khaDe unke sath kuch batachit kar rahe the isi beech main udhar ja nikla pitaji ne mera parichai dete hue unse kaha—inhen hindi ka baDa shauq hai chat jawab mila—apko batane ki zarurat nahin main to inki surat dekhte hi is baat se waqif ho gaya meri surat mein aisi kya baat thi, ye is samay nahin kah sakta aaj se tees warsh pahle ki baat hai
chaudhari sahab se to ab achchhi tarah parichai ho gaya tha ab unke yahan mera jana ek lekhak ki haisiyat se hota tha hum log unhen ek purani cheez samjha karte the is puratatw ki drishti mein prem aur kutuhal ka ek adbhut mishran rahta tha yahan par ye kah dena awashyak hai ki chaudhari sahab ek khase hindustani rais the basant panchmi, holi ityadi awasron par unke yahan khoob nach rang aur utsaw hua karte the unki har ek ada se riyasat aur tabiyatdari tapakti thi kandhon tak baal latak rahe hain aap idhar se udhar tahal rahe hain ek chhota sa laDka pan ki tashtari liye pichhe pichhe laga hua hai baat ki kat chhant ka kya kahna hai! jo baten unke munh se nikalti theen, unmen ek wilakshan wakrata rahti thi unki batachit ka Dhang unke lekhon ke Dhang se ek dam nirala hota tha naukron tak ke sath unka sanwad sunne layak hota tha agar kisi naukar ke hath se kabhi koi gilas waghaira gira to unke munh se yahi nikalta ki kare bacha t nahin unke prashnon ke pahle kyon sahab aksar laga rahta tha
we logon ko prayः banaya karte the, isse unse milne wale log bhi unhen banane ki fir mein raha karte the mirzapur mein purani paripati ke ek bahut hi pratibhashali kawi rahte the jinka nam tha—wamnacharya giri ek din we saDak par chaudhari sahab ke upar ek kawitt joDte chale ja rahe the antim charn rah gaya tha ki chaudhari sahab apne baramde mein kandhon par baal chhitkaye khambhe ke sahare khaDe dikhai paDe chat kawitt pura ho gaya aur wamanji ne niche se wo kawitt lalkara, jiska antim ansh tha—khambha teki khaDi jaise nari mughlane ki
ek din kai log baithe batachit kar rahe the ki itne mein ek panDitji aa pahunche chaudhari sahab ne puchha—kahiye kya haal hai? panDitji bole—kuchh nahin, aaj ekadashi thi, kuch jal khaya hai aur chale aa rahe hain parashn hua—jal hi khaya hai ki kuch phalahar bhi piya hai
ek din chaudhari sahab ke ek paDosi unke yahan pahunche dekhte hi sawal hua—kyon sahab, ek lafz main aksar suna karta hoon; par uska theek arth samajh mein na aaya akhir ghanchakkar ke kya mani hain, uske kya lachchhan hain? paDosi mahashay bole—wah, ye kya mushkil baat hai ek din raat ko sone ke pahle kaghaz qalam lekar sabere se raat tak jo jo kaam kiye hon, sab likh jaiye aur paDh jaiye
mere sahpathi panDit lakshminarayan chaube, ba० bhagwandas halna, babu bhagwandas master (inhonne urdu begam nam ki ek baDi hi winodpurn pustak likhi thi, jismen urdu ki utpatti, parchar, aadi ka writtant ek kahani ke Dhang par diya gaya tha) ityadi kai adami garmi ke dinon mein chhat par baithe chaudhari sahab se batachit kar rahe the chaudhari sahab ke pas hi ek lamp jal raha tha lamp ki batti ek bar bhabhakne lagi chaudhari sahab naukron ko awaz dene lage mainne chaha ki baDhkar batti niche gira doon, par panDit lakshminarayan ne tamasha dekhne ke wichar se mujhe dhire se rok liya chaudhari sahab kahte ja rahe hain—are, jab phoot jai tabai chalat jabah ant mein chimani globe ke sahit chaknachur ho gai; par chaudhari sahab ka hath lamp ki taraf na baDha
upadhyayji nagari ko bhasha ka nam mante the aur barabar nagari bhasha likha karte the unka kahna tha ki nagar apabhransh se jo shisht logon ki bhasha wiksit hui, wahi nagari kahlai isi prakar we mirzapur na likhkar mirjapur likha karte the, jiska arth we karte the lakshmipur— meer = samudr + ja=putri + pur
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।