हुसैन की कहानी अपनी ज़बानी
hussain ki kahani apni zabaani
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
बड़ौदा का बोर्डिंग स्कूल
मक़बूल अब लड़का नहीं रहा क्योंकि उसके दादा चल बसे। लड़के के अब्बा ने सोचा क्यों न उसे बड़ौदा के बोर्डिंग स्कूल में दाख़िल करा दिया जाए, वरना दिनभर अपने दादा के कमरे में बंद रहता है। सोता भी है तो दादा के बिस्तर-पर और वही भूरी अचकन ओढ़े, जैसे दादा की बग़ल में सिमटकर सोया हो। घर में न किसी से बात न चीत, बस गुमसुम।
अब्बा ने फ़ौरन मक़बूल को चाचा के हवाले किया और हुकुम दिया कि “इसे बड़ौदा छोड़ आओ, वहाँ लड़कों के साथ इसका दिल लग जाएगा। पढ़ाई के साथ मज़हबी तालीम, रोज़ा, नमाज़, अच्छे आचरण के चालीस सबक़, पाकीज़गी के बारह तरीक़े सीख जाएगा।
महाराजा सियाजीराव गायकवाड़ का साफ़-सुथरा शहर बड़ौदा। राजा मराठा प्रजा गुजराती। शहर में दाख़िल होने पर 'हिज़ हाइनेस' की पाँच धातुओं से बनी मूर्ति, शानदार घोड़े पर सवार 'दौलते बरतानिया' के मेडेल लटकाए, सीना ताने दूर से ही दिखाई देती है।
दारुलतुलबा (छात्रावास) मदरसा हुसामिया, सिंह बाई माता रोड, गैडी गेट। तालाब किनारे सुलेमानी जमात का बोर्डिंग स्कूल। गुजरात की मशहूर 'अरके तिहाल' की ख्याति वाले जी.एम. हकीम अब्बास तैयब जी की देख-रेख में, जो नेशनल कांग्रेस और गाँधी जी के अनुयायी, इसीलिए छात्रों के मुँड़े सिरों पर गाँधी टोपी और बदन पर खादी का कुर्ता-पायजामा।
मौलवी अकबर धार्मिक विद्वान, कुरान और उर्दू साहित्य के उस्ताद। केशवलाल गुजराती ज़बान के क्लास टीचर। स्काउट मास्टर, मेजर अब्दुल्ला पठान। गुलज़मा ख़ान बैंड मास्टर। बावर्ची ग़ुलाम की रोटियाँ और बीवी नरगिस का सालन गोश्त।
मक़बूल की इसी बोर्डिंग के अहाते में छोड़ा जाता है। यहाँ उसकी दोस्ती छह लड़कों से होती है, जो एक दूसरे के क़रीब हो जाते हैं। दो साल की नज़दीकी
तमाम उम्र कभी दिल की दूरी में बदल नहीं पाई। हालाँकि हर एक अलग-अलग दिशाओं में बँटे, छः हीले और बहाने हुए। एक डभोई का अत्तार व्यापारी बना तो दूसरा सियाजी रेडियो की आवाज़। एक बना कराची का नागरिक, तो दूसरा मोती की तलाश में कुवैत पहुँचा। एक पहुँचा बंबई और अपना कोट-पतलून और पीली धारी की टाई उतार फेंकी, अबा-क़बा पहन मस्जिद का मेंबर बना। एक उड़ने वाले घोड़े पर, पैर रकाब में डाले बना कलाकार और दुनिया की लंबाई-चौड़ाई में चक्कर मार रहा है।
यह पाँच दोस्त—
मोहम्मद इब्राहीम गोहर अली—डभोई के अत्तार, छोटा क़द ठहरी हुई नज़रें। अंबर और मुश्क के अत्तर में डूबे, गुणों के भंडार। डॉक्टर मनव्वरी का लड़का अरशद—हमेशा हँसता चेहरा। गाने और खाने का शौक़ीन। भरा लेकिन कसा पहलवानी जिस्म।
हामिद कंबर हुसैन—शौक़, कुश्ती और दंड-बैठक, ख़ुश-मिज़ाज, गप्पी, बात में बात मिलाने में उस्ताद।
चौथा दोस्त अब्बासज़ी अहमद—गठा जिस्म, खुला रंग, कुछ-कुछ जापानी खिंची सी आँखें स्वभाव से बिज़नेसमैन, हँसने का अंदाज़ दिलकश।
पाँचवा अब्बास अली फ़िदा—बहुत नर्म लहज़ा, चेहरे पर ऊँचा माथा, वक़्त का पाबंद, ख़ामोश तबियत, हाथों से किताब शायद ही कभी छूटी हों।
मदरसे का सालाना जलसा, मुग़लवाड़े के मशहूर फ़ोटोग्राफ़र लुकमानी ट्राइपॉड पर रखे कैमरे पर काला कपड़ा ढँके जैसे उसके अंदर घुसे जा रहे हों। सिर्फ़ ख़ास मेहमानों और उस्तादों का 'ग्रुप फ़ोटोग्राफ़' खींचा जा रहा है। दूर लड़कों की भीड़ में खड़ा मक़बूल मौक़े की तलाश में है। जैसे हो लुकमानी ने फ़ोकस जमाया और कहा 'रेडी' मक़बूल दौड़कर ग्रुप के कोने में खड़ा हो गया। इस तरह उस्तादों को बिना इजाज़त उसने अपनी कई तसवीरें खिंचवाईं।
मक़बूल ने खेल-कूद में हिस्सा लिया, हाई जंप में पहला इनाम, दौड़ में फिसड्डी। जब ड्रॉइंग मास्टर मोहम्मद अतहर ने ब्लैकबोर्ड पर सफ़ेद चॉक से एक
बहुत बड़ी चिड़िया बनाई और लड़कों से कहा—अपनी-अपनी स्लेट पर उसकी नक़ल करो, तो मक़बूल की स्लेट पर हूबहू वहीं चिड़िया ब्लैकबोर्ड से उड़कर आ बैठी। दस में से दस नंबर!
दो अक्तूबर, स्कूल गाँधी जी की सालगिरह मना रहा है। क्लास शुरू होने से पहले मक़बूल गाँधी जी का पोर्ट्रेट ब्लैकबोर्ड पर बना चुका है। अब्बास तैयब जी
देखकर बहुत ख़ुश हुए। मदरसे के जलसे पर मौलवी अकबर ने मक़बूल को 'इलम' (ज्ञान) पर दस मिनट का भाषण याद कराया, बाक़ायदा अभिनय के साथ।
मक़बूल जिसने हुनर में कमाल हासिल किया, वह सारी दुनिया का चहेता। जिसके पास कोई हुनर का कमाल नहीं, वह कभी दिलों को जीत नहीं सकता।
किसे मालूम, यह क़स्बे कमाल हुनर का कमाल सारी दुनिया में फैलेगा!
रानीपुर बाज़ार
रानीपुर बाज़ार में चाचा मुरादअली को उनके बड़े भाई फ़िदा ने एक जनरल स्टोर की दुकान खुलवा दी। फ़िदा साहब तो सर करीमभाई की 'मालवा टैक्सटाइल' में टाइमकीपर थे ही मगर बिज़नेस में दिलचस्पी रखते। इस विषय पर कई मोटी-मोटी किताबें जमाकर रखी थीं। मक़बूल को छुट्टी के दिन दुकान पर बैठने ज़रूर भेजा जाता, ताकि शुरू से बिज़नेस के गुण सीख ले। ख़ुद तो नौकरी के जाल में ऐसे फँसे कि अट्ठाइस साल की 'क़ैद बामशक़्क़त' भुगतनी पड़ी।
छोटे भाई मुरादअली से पहलवानी छुड़वाकर दुकानें लगवाईं। जनरल स्टोर न चला तो कपड़े की दुकान, वह भी नहीं चली तो तोपख़ाना रोड पर आलीशान रेस्तराँ। मक़बूल उन दुकानों पर बैठा, मगर उसका सारा ध्यान ड्रॉइंग और पेंटिंग में। न चीज़ों की क़ीमतें याद, न कपड़ों की पहनाई का पता। हाँ, मुराद चाचा के होटल में घूमती हुई चाय की प्यालियों की गिनती और पहाड़े उसे ज़बानी याद रहते। गल्ले का हिसाब-किताब सही। शाम को हिसाब में दस रुपए लिखे तो किताब में बीस स्केच किए।
जनरल स्टोर के सामने से अकसर घूँघट ताने गुज़रने वाली एक स्त्री का स्केच, गेहूँ की बोरी उठाए मज़दूर की पेंचवाली पगड़ी का स्केच, पठान की दाढ़ी और माथे पर सिजदे के निशान, बुर्क़ा पहने औरत और बकरी का बच्चा। अकसर वह स्त्री कपड़े धोने के साबुन की टिकिया लेने आया करती। चाचा को देखकर घूँघट के पट खुल जाते और अकसर मक़बूल की नाक पकड़कर खिलखिला उठती। मक़बूल ने उसके कई स्केच बनाए। एक स्केच उसके हाथ लग गया जिसे उसने छिपा लिया। मक़बूल ने पेपरमिंट की गोली हाथ में थमाई और स्केच निकलवाया।
एक दिन दुकान के सामने से फ़िल्मी इश्तिहार का ताँगा गुज़रा। (साइलेंट फ़िल्मों के ज़माने में शहर में चल रही फ़िल्म का इश्तिहार ताँगे में ब्रास बैंड के साथ शहर के गली-कूचों से गुज़रता। फ़िल्मी इश्तिहार रंगीन पतंग के काग़ज़ पर हीरो-हीरोइन की तसवीरों के साथ छपे, बाँटे जाते) कोल्हापुर के शांताराम की फ़िल्म 'सिंहगढ़' का पोस्टर, रंगीन पतंग के काग़ज़ पर छपा, मराठा योद्धा, हाथ में खिंची तलवार और ढाल। मक़बूल का जी चाहा कि उसकी ऑयल पेंटिंग बनाई जाए। आज तक ऑयल कलर इस्तेमाल ही नहीं किया था। वही रंगीन चॉक या वॉटर कलर। अब्बा तो बेटे को बिज़नेसमैन बनाने के सपने देख रहे थे, रंग-रोगन क्यों दिलाते!
मगर इस पोस्टर ने मक़बूल को इस कदर भड़काया कि वह गया सीधा अलीहुसैन रंगवाले की दुकान पर और अपनी दो स्कूल की किताबें, शायद भूगोल और इतिहास, बेचकर ऑयल कलर की ट्यूबें ख़रीद डाली और पहली ऑयल पेंटिंग चाचा की दुकान पर बैठकर बनाई। चाचा बहुत नाराज़, बड़े भाई तक शिकायत पहुँचाई। अब्बा ने पेंटिंग देखी और बेटे को गले लगा लिया।
एक और घटना, जब मक़बूल इंदौर सर्राफ़ा बाज़ार के क़रीब ताँबे पीतल की दुकानों की गली में लैंडस्केप बना रहा था, वहाँ बेंद्रे साहब भी ऑनस्पॉट पेंटिंग करते मिले। मक़बूल को बेंद्रे साहब की टेकनीक बहुत पसंद आई। 'टिंटेड पेपर' पर 'गोआश वॉटर कलर'। इस इत्तफ़ाक़ी मुलाक़ात के बाद मक़बूल अकसर बेंद्रे के साथ 'लैंडस्केप' पेंट करने जाया करता।
1933 में बेंद्रे ने कैनवस पर एक बड़ी पेंटिंग घर में पेंट करना शुरू की, 'वैगबांड' था इस पेंटिंग का नाम। अपने छोटे भाई को एक नौजवान पठान के कपड़े पहनाकर मॉडल बनाया। सिर पर हरा रूमाल बाँधा, कंधे पर कंबल, हाथ में डंडा। 'सूरा' और 'डेगा', यानी फ़्रेंच इंप्रेशन की झलक। रॉयल अकादमी का रूखा रियलिज़्म, उस पर एक्सप्रेशनिस्ट ब्रश स्ट्रोक का ढाँचा।
इस पेंटिंग पर बेंद्रे को बंबई आर्ट सोसाइटी ने चाँदी का मेडेल दिया। हिंदुस्तानी माडर्न आर्ट का यह शायद पहला क्रांतिकारी क़दम था, हालाँकि इस क़दम में 'जोशो-अज़्म' की सुर्ख़ी कम और जवानी का गुलाबीपन ज़्यादा था। राजा रविवर्मा के पश्चिमी सैकेंड हैंड रियलिज़्म के बाद एक हलकी सी हलचल गगनेंद्रनाथ टैगोर के क्यूबिस्टिक तजुर्बे से शुरू हुई। बात आगे बढ़ी नहीं। बेंद्रे का गुलाबीपन भी कुछ ही अर्से तक तरोताज़ा रहा। बड़ौदा पहुँचकर वह 'फ़ैकल्टी ऑफ़ फ़ाइन आर्ट' के हर दिल अज़ीज़ डीन बन गए।
मक़बूल की पेंटिंग की शुरुआत और इंदौर जैसी जगह, सिवाए बेंद्रे के कोई नहीं। वह उनके पास जाता रहा और एक दिन उन्हें अपने घर ले आया। अब्बा से मिलाया। बेंद्रे ने मक़बूल के काम पर बात की। दूसरे दिन अब्बा ने बंबई से 'विनसर न्यूटन' ऑयल ट्यूब और कैनवस मँगवाने का आर्डर भेज दिया।
अब सोचा जाए तो ताज्जुब होता है कि उस ज़माने के इंदौर जैसे कपड़ा मिल माहौल में, काज़ी और मौलवियों के पड़ोस में एक बाप कैसे अपने बेटे को आर्ट की लाइन इख़्तियार करने पर राज़ी हो गया, जबकि यह आर्ट का शग़ल राजे-महाराजों और अमीरों की अय्याश दीवारों की सिर्फ़ लटकन बना रहा, आधी सदी और ज़रूरत थी कि आर्ट महलों से उतरकर कारख़ानों की दीवारों तक पहुँचे।
मक़बूल के अब्बा की रोशनख़याली न जाने कैसे पचास साल की दूरी नज़र अंदाज़ कर गई और बेंद्रे के मशवरे पर उसने अपने बेटे की तमाम रिवायती बंदिशों को तोड़ फेंका और कहा—बेटा जाओ, और ज़िंदगी को रंगों से भर दो।
- पुस्तक : अंतराल (भाग-1) (पृष्ठ 1)
- रचनाकार : मक़बूल फ़िदा हुसैन
- प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
- संस्करण : 2022
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.