धन और स्त्री का प्रलोभन देकर मनुष्यों को पथभ्रष्ट कर तथा निर्बलों को बलपूर्वक अपने गिरोह में मिलाकर यह युग धर्म प्रचार की विडंबना करता है।
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भक्ति एक प्रकार का आवेश है, उन्माद है, पागलपन है।
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उत्तम से भी उत्तम अनुवाद मूल की बराबरी नहीं कर सकता और निकृष्ट से निकृष्ट अनुवाद में भी मूल का परिचय देने की उपयोगिता पाई जा सकती है।
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चरमोन्नति के पश्चात् होने वाली अवनति में परिस्थितियों के साथ सामंजस्य का अभाव ही कारणरूप होता है, पर इसके मूल में अक्षमता अथवा अयोग्यता नहीं, आत्मतोष से उत्पन्न आकांक्षा शून्यता रहती हैं।
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जिस प्रकार अन्न की उत्पत्ति के लिए आदर्श बीज भंडारों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मानव-विकास के लिए श्रद्धालु, संतोषी एवं दृढव्रती व्यक्तियों के आश्रमों की आवश्यकता होती है।
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