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स्मरण को पाथेय बनने दो

smran ko pathey banne do

विष्णुकांत शास्त्री

विष्णुकांत शास्त्री

स्मरण को पाथेय बनने दो

विष्णुकांत शास्त्री

और अधिकविष्णुकांत शास्त्री

    ये हैं प्रोफ़ेसर शशांक

    ‘‘आप कहाँ के रहने वाले हैं?’’ प्रो. शशांक की धाराप्रवाह बंगला सुनकर एक बंगाली प्रोफ़ेसर ने पूछा।

    ‘‘कहाँ का बताऊँ?’’

    ‘‘क्यों, आप जहाँ के रहने वाले हों।’’

    ‘‘देखिए, असल में बात यह है कि मैं शरीर को प्रधानता नहीं देता, वह तो बाह्य है, मुख्यता तो अंतःकरण को है। बेदाँत के अनुसार अंतःकरण के चार तत्त्व होते हैं, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मेरा मन बंगाली है, बंगाल में जन्मा, पला, बढ़ा, बंगला-साहित्य पढ़ा, बंगाल की भावुकता पाई, अतः मन से बंगाली हूँ। मेरे पिता, पितामह, प्रपितामह काशी में संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन करते रहे। पारिवारिक संस्कार और आचार-विचार का विवेक भी काशी से ही प्राप्त हुआ है, अतः कह सकता हूँ कि बुद्धि-त्तव काशी का है। चित्त और चित्तेश्वरी दोनों जम्मू की देन हैं। पूर्वज जम्मू से आए थे। आन-बान, स्वाभिमान और दृढ़ता का डोगरा स्वभाव विरासत में मिला है। अहंकार सारे भारतवर्ष का है। अब आप ही बताइए कि मैं अपने को कहाँ का कहूँ?’’

    प्रो. शशांक की लच्छेदार बातों का प्रभाव अगल-बगल के श्रोताओं पर ख़ूब जमा किंतु वह बंगाली प्रोफ़ेसर भी कम नहीं निकला। उसने छूटते ही कहा, ‘‘आप बंगाली हैं, बंगाली को छोड़कर ऐसी बातें भला और कौन कर सकता है।’’

    प्रो. शशांक के मन में अकबर इलाहाबादी की पंक्ति कौध गई, ‘बात बंगाली की सुन, बंगालिनों के बाल देख!’ वे मुस्कुराकर चुप हो गए।

    प्रो. शशांक वैसे बहुत भले आदमी हैं। अब यह बात दूसरी है कि आज के युग में ‘भले आदमी’ की संज्ञा उन्हीं को दी जाती है, जो ‘काम’ बनाना जानते हों। और जो अपना ही काम बना पाते हों, वे दूसरों का काम भला क्या बनाएँगे। मेरा यह विश्वास हो गया है कि आज शक्तिशाली वे ही हो सकते हैं, जो या तो अपने और दूसरों के अड़े हुए और अड़ने योग्य काम चालू कर सकें या दूसरों के चालू कामों में अड़ंगा डाल सकें। जो ऐसा नहीं करते हैं, उनहें सहृदय व्यक्ति मुँह बिचकाकर ‘भले आदमी’ की उपाधि दे डालते हैं, अर्थात् अप्रत्यक्ष रूप से कहना चाहते हैं कि ये महाशय उसी कोटि के व्यक्ति हैं, जिस कोटि के लोग ऊँचे सिद्धाँतों की बातें चाहे जितनी बघार लें, काम की एक नहीं जानते!

    कुछ लोगों की राय में (जो अवश्य ही उनके प्रशंसक नहीं कहे जा सकते) वे प्रोफ़ेसर से अधिक पहलवान लगते हैं। लंबाई छह फीट, छाती की चौड़ाई इकतालीस इंच, जाटों की तरह हाथ-पैर, भला इतनी लंबी-चौड़ी काया कहीं प्रोफ़ेसर की होनी चाहिए। उनका सिर बड़ा है तो क्या हुआ, पाँव भी तो बड़े हैं। कहावत है, ‘पाँव बड़े गँवारों के, सिर बड़े सरदारों के।’ प्रो. शशांक पर कहावत के दोनों हिस्से लागू होते हैं, जिसका अर्थ यही होना चाहिए कि वे गँवारों के सरदार हैं। यद्यपि ऐसे लोग भी है, जो सबल शरीर को, उनके सशक्त व्यक्त्तिव का वाहक मानते हैं, उनके गेहुँए, हँसमुख चेहरे पर गरिमा मंडित सौम्यता और संस्कारशीलता की आभा पाते हैं, चश्मे के भीतर से स्नेह और उत्फ़ुल्लता बरसाने वाली आँखों में चिंतनशीलता की झलक देखते हैं।

    पोशाक उनकी सादी ही है। साल के नौ महीने तो काशी, कलकत्ते की परंपरा निभाते हैं धोती-कुर्ता पहनकर, जिसकी स्वच्छता का श्रेय उनकी पत्नी सुस्मिता को ही मिलना चाहिए। सर्दियों के अढ़ाई-तीन महीने चूड़ीदार पाजामा और शेरवानी या लंबा कोट पहनते हैं, ताकि जम्मू को शिकायत रहे। यह कहना कठिन है कि उनके बदन पर दोनों में से कौन-सी पोशाक अधिक फबती है। जब ये नई पोशाक पहनकर निकलते हैं तो उनके मुँह लगे मित्र कभी-कभी चुटकी देते हुए कहते हैं :

    ‘‘बंधु तुम्हारी देह स्वयं ही काव्य है,

    जो पहनो सज जाए, सहज संभाव्य है।’’

    उनके स्वरूप में एक विरोधाभास और भी है। मूँछ बेचारी पर तो उस्तरा चल गया है लेकिन शिखा वर्तमान है, जो ‘गोखुर प्रमाण’ की होने पर भी कम मोटी और लंबी नहीं कही जा सकती। वर्तमान और अतीत दोनों से मुक्त रहने के इस निदर्शन को उनके प्रगतिशील मित्र समझ नहीं पाते हैं, फलस्वरूप प्रो. शशांक की शिखा उन मित्रों की व्यंग्य-प्रतिभा के लिए उद्दीपन का कार्य करती रहती है। सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था ‘अनामा’ के होलिकोत्सव में एक बार श्री मोहनानंद जालान ने आकाशवाणी-अनामा से घोषणा की थी : ‘‘विश्वस्त सूत्र से पता चला है कि लिफ़्ट में फँस जाने के कारण प्रो. शशांक की शिखा जड़ से उखड़ गई। इस दुर्घटना के लिए परीक्षा के आतंक से ग्रस्त षष्ठ वर्ष के विद्यार्थियों ने तीन मिनट और पंचम वर्ष के विद्यार्थियों ने एक मिनट तक खड़े रहकर शोक-प्रस्ताव पास किया।’’ दूसरी बार श्री श्रीचंद्र जैन ने उनकी संस्तुति में यह छंद पढ़ा था :

    सागर या क्षुब्ध नीर-मंथन के उपरांत।

    क्रुद्ध नागों को जकड़ पकड़ करे कौन शाँत।।

    टूटे हुए रस्से लिए खड़े देव दानव मौन।

    जानते हैं आड़े क्षण वस्तु आई काम कौन?

    चुटिया के चपेट धन्य जय जय जय श्रीशशांक।

    किंतु श्री शशांक पर इन सब का कुछ प्रभाव नहीं पड़ता, वे हँसकर इन बातों को उड़ा देते हैं।

    प्रो. शशांक की हँसी भी उनकी ख़ास अपनी है। आधुनिक सभ्यता में पले बुद्धिजीवी हों या प्राचीन मर्यादावादी-दोनों हँसना, हल्कापन मानते हैं और अट्टहास तो उनके लिए गँवारूपन ही नहीं अक्षम्य अपराध है, किंतु प्रो. शशांक इस क्षेत्र में विधि निषेध से परे हैं। सभा हो या गोष्ठी, भले ही कक्षा में ही क्यों हों, हँसी आने पर मर्द की तरह अट्टहास करते हैं, ऐसा अट्टहास कि अपरिचित लोग हिस्टिरिक समझ बैठें। उनके कथाकार मित्र श्री राजेंद्र यादव कई बार मत प्रकट कर चुके हैं कि यदि प्रो. शशांक को कभी ‘नोबेल पुरस्कार’ मिला तो उनकी हँसी के लिए ही मिलेगा। मुन्नी भंडारी का कहना है कि सोहन राकेश को छोड़कर साहित्यिकों में ऐसा ठहाका लगाते किसी को नहीं सुना। प्रो. शशांक के अट्टहास से पीड़ित रीतिकालीन मनोवृत्ति वाले एक मित्र ने उन्हें एक दिन ‘देव’ की पंक्ति सुनाकर कायल करना चाहा, ‘अधिक अथक, मधि मध्यजन, उत्तम हँसत विनीत’! किंतु उद्धरणों में प्रो. शशांक से पार पाना जरा टेढ़ी खीर है। उन्होंने चट से तुलसी की पंक्ति पढ़ी, ‘‘तुलसी सुनि केवट के वर वैन, हँसे प्रभु जानकी ओर हहा है।’’

    हँसी की तरह उनकी आवाज़ भी बुलंद है। छात्रावस्था में ही उन्हें उनके मित्रों ने ‘लाउडस्पीकर’ की उपाधि दे दी थी, जिसकी सार्थकता आज भी उतनी ही है। सभा-समितियों में तो ख़ैर गरजते ही रहते हैं, कक्षाओं में भी उनका ‘मेघमंद्ररव’ ही गूँजता है चाहे छात्रों की संख्या कम ही क्यों हो। एक बार कक्षा की समाप्ति पर उनके एक छात्र ने उपस्थिति देने की प्रार्थना की। प्रोफ़ेसर साहब के यह कहने पर कि आप कक्षा में तो आए ही नहीं, उपस्थिति किस प्रकार पा सकते हैं, उस छात्र ने उत्तर दिया, ‘‘सर, मैं बाहर खड़ा-खड़ा आपका पूरा व्याख्यान सुनता रहा। भीतर आने से व्याघात होगा, यही सोचकर नहीं आया, अतः मैं उपस्थिति पाने का अधिकारी हूँ।’’ श्री शशांक को उसकी बात मान लेनी पड़ी।

    उनकी एक विशेषता यह भी है कि वे अनादि-अनंत काल में जीते हैं। कलकत्ता जैसे व्यस्त और व्यापारी नगर में रहते हुए भी अब तक समय के प्रति बनिया बुद्धि के द्योतक प्रवाह वाक्य ‘समय धन है’ कि सारवत्ता को वे नहीं समझ पाए हैं। सच्ची बात तो यह है कि बनिया-बुद्धि उनमें है ही नहीं। उनका कहना है : कहाँ धन, जो हाथ का मैल भर भी नहीं और कहाँ समय जो जीवन का ही दूसरा नाम है। भला दोनों की क्या तुलना। भूमिका बिना बाँधे कहा जाए तो मतलब यह है कि जहाँ उन्हें रस मिलता है या जब उनके हृदय में रस उमड़ता है तब वे सब कुछ भूल जाते हैं कि उनके ज़िम्मे और कितने ज़रूरी काम हैं क्योंकि वे ‘रस’ को ही जीवन का वास्तविक प्राप्य मानते हैं। दाग़ का यह शेर उन पर भी लागू होता है :

    ‘हजरते दाग़ ये कूचए-क़ातिल है, उठिए,

    आप तो जहाँ जाते हैं, जब जाते हैं।’

    सुनने-सुनाने में, बहस करने में, मित्रों से गपशप करने में डूब जाने के कारण कई बार ट्रेन तक छूट चुकी है। कक्षा में पढ़ाते समय ‘मूड’ आने पर वे घंटा-दो घंटा तक अधिक पढ़ा जाते हैं, पंद्रह-बीस मिनट अधिक देर तक कक्षा लेते रहना तो नियम-सा बन चुका है। पढ़ाना उनका पेशा ही नहीं, नशा भी है। उनका यह नशा उन विद्यार्थियों के लिए सचमुच भारी पड़ता है जिनकी कक्षा वे आखिरी घंटे में लेते हैं किंतु उनके विद्यार्थियों की श्रद्धा को यदि मानदंड माना जाए तो ऐसा नहीं लगता कि अपने अध्यापक की सनक उन्हें अप्रिय लगती है।

    वैसे समय को जीवन मानने के कारण वे उनके छोटे से छोटे हिस्से को भी नष्ट नहीं करना चाहते। कलकत्ता शहर उनके इस सिद्धांत का सबसे बड़ा शत्रु है जिसके एक छोर से दूसरे छोर पर जाने में घंटा-सवा घंटा या उससे भी अधिक समय लग सकता है। ट्राम-बस में जीवन का इतना बहुमूल्य अंश व्यर्थ ही नष्ट हो, यह वे कैसे पसंद कर सकते हैं। आलू के बोरे की तरह ठसाठस भरी ट्राम या बस में खड़े-खड़े वे अपनी प्रिय कविताओं की मन ही मन आवृत्ति करते रहते हैं। कभी-कभी सौभाग्य से जब बैठने का अवसर मिल जाता है तो वे अपनी प्रिय नई-पुरानी कविताओं को याद करते हैं या जब बहुत थके रहते हैं तो ‘योग समाधि’ में लीन हो जाते हैं ताकि गंतव्य तक पहुँचते-पहुँचते हरे हो सकें। उनकी यह व्यवस्था उनके लिए अधिक लाभप्रद है कि जेबकतरों के लिए यह कहना मुश्किल है। होता यह है कि हर तीसरे-चौथे महीने कुछ परोपकारी सज्जन उनकी जेब के भार को हल्का करते हैं। उन्हें अधिक कष्ट हो, इसलिए अब प्रोफ़ेसर साहब अपनी जेबों को ज़्यादा भारी रखते ही नहीं। मित्रों विशेषकर पत्नी से सदुपदेश सुनते रहने पर भी वे अपनी आदत नहीं छोड़ते। उनका कहना है कि हर अच्छी चीज़ पर सरकार टैक्स लगाती है, चूँकि मेरी इस सुव्यवस्था पर अभी तक उसकी दया-दृष्टि नहीं हुई है अतः उसके ‘भाई-बंद’ उनका कार्य पूरा करते हैं। इसके लिए ‘बजट’ में रकम स्वीकार करनी चाहिए कि इसके चलते अपने जीवन का एक बड़ा भाग व्यर्थ नष्ट करना चाहिए। और फिर कबीरदास तो कह ही गए हैं :

    ‘‘कबिरा आप ठगाइए, और ठगिए कोय।

    आप ठगे सुख होत है और ठगे दुख होय।’’

    किंतु इस हवाई उत्तर से किसी का समाधान नहीं होता। श्रीमती सुस्मिता आँखें नचाकर और सिर झटकाकर कहती है, ‘चलिए, रहने दीजिए, सिवाय बातें बनाने के आपको आता भी क्या है? इतना भी नहीं होता कि जेब की सँभाल रखें, भला, घर में और किसी की तो जेब नहीं कटती।’ इस पर प्रोफ़ेसर साहब ग़ालिब की पंक्ति मन ही मन दुहराकर रह जाते हैं—

    ‘‘क्या बने बात जहाँ बात बनाए बने।’’

    समय की ही तरह स्थान के प्रति भी श्री शशांक की दृष्टि दार्शनिकों की-सी है। परिवेश में रहते हुए भी परिवेश अर्थात् देश, काल, वातावरण परिणाम यह है कि भूगोल का उनका ज्ञान उसके प्रथम अक्षर को बाद देकर ही है। चाहे वह उनके अपने शहर कलकत्ते का भूगोल हो, चाहे होनीलूलू का। अपरिचित स्थानों की बात तो जाने ही दीजिए, दो-तीन बार के परिचित स्थानों पर जाने के लिए भी अक्सर उन्हें रास्ता पूछना पड़ता है एवं कई गलियों और सड़कों का द्राविड़ी प्राणायाम करने के बाद ही वे अपने गंतव्य पर पहुँच पाते हैं। अपने आलोचक बंधु श्री रामवर सिंह के इस कथन से वे पूर्णतः सहमत हैं कि जिनका कालबोध तीव होता है वे कहानीकार होते हैं, जिनका देश और काल दोनों का बोध प्रखर होता है वे उपन्यासकार होते हैं और जो देश काल में रहते हुए भी देशकाल से परे होते हैं वे ही कवि या कवि-हृदय हो पाते हैं। इस तरह अनायास ही दोनों बंधु अपने को कम से कम कवि-हृदय सिद्ध कर सकते हैं, कविताएँ लिख-लिखकर तो दोनों घायल हो चुके हैं।

    श्री शशांक कवि-हृदय हैं, इसे प्रायः सभी स्वीकार करते हैं। उनके और कविता के संबंध के बारे में नंददास की एक पंक्ति उद्धृत की जा सकती है :

    ‘‘नंददास प्रभु कहत बनै ना मैं ही लटू कैधों वो ही लटू री।’’

    वे कविता पर लट्टू है या कविता उन पर लट्टू है, कहना कठिन है। संस्कृत, हिंदी, बंगला, उर्दू की उन्हें इतनी कविताएं याद हैं कि सुनाने पर जाते हैं तो घंटों सुनाते रहते हैं। कविता की आवृत्ति वे अपने ढंग से भावों के अनुरूप करते हैं और ‘कविता-पाठ’ को कला मानते हैं। राजशेखर की इस उक्ति के वे पक्के समर्थक हैं :

    ‘‘करोति काव्यं प्रायेण संस्कृतात्मा यथा तथा।

    पठितुं वेत्ति परं यस्य सिद्धा सरस्वती।’’

    अर्थात् सुसंस्कृत व्यक्ति किसी किसी तरह काव्य रच ही लेता है किंतु पढ़ना वही जानता है जिसे सरस्वती सिद्ध हो। हिंदी कवि-सम्मेलनों में प्रचलित ससुर कवियों की ‘गलेबाजी’ को वे काव्य-पाठ के गौरव के प्रतिकूल मानते हैं किंतु उनके कुछ कृपालु मित्र इसके लिए उनकी अ-सुरक्षता को दाई ठहराते हैं।

    प्रायः उनके छात्र और मित्र कहा करते हैं कि उनकी स्मृति-शक्ति अद्भुत है, किंतु यह सच नहीं है, अद्भुत तो उनकी विस्मृति-शक्ति है। अप्रयोजनीय बातों को वे इतनी आसानी से भूल जाते हैं जैसे किसी ने पट्टी पर लिखे हुए को गीले कपड़े से पोंछ दिया हो। अवश्य ही इसकी लपेट में कई ऐसी बातें भी जाती हैं जो उनकी पत्नी या परिवार वालों या मित्रों की दृष्टि में अत्यंत प्रयोजनीय होती हैं। और जिनके लिए कभी-कभी उन्हें डाँट भी खानी पड़ती है, किंतु उस समय वे बहुत भूला चेहरा बनाकर मिर्ज़ा ग़ालिब की पंक्ति पढ़ते हैं : ‘‘भूल जाना है निशानी मेरी।’’

    एक बार उनके एक मित्र ने देखा कि किताब की दूकानों की जगह वे अन्यान्य दूकानों के चक्कर लगा रहे हैं, उनके हाथ में एक पुर्ज़ा है, जिसे वे परेशान नज़र से बार-बार पढ़ते हैं, कोई चीज़ लेते ही उस पुर्ज़े पर कुछ टाँकने लगते हैं। अपना कौतूहल रोक पाने के कारण उन मित्र महोदय ने आगे बढ़कर उस पुर्ज़े को खींच लिया तो पाया कि उसमें गृहस्थी की चार-छह साधारण चीज़ों के नाम थे और उनके सामने उनके दाम लिखे हुए थे। मित्र ने पूछा, ‘प्रोफ़ेसर, यह क्या बच्चों की तरह चार चीज़ों के लिए पुर्ज़ा लिखकर लाए हो और फिर उस पर दाम भी लिखते जा रहे हो, इतनी कविताएँ रटे बैठे हो, इन चीज़ों के नाम-दाम याद नहीं रख सकते?’

    प्रोफ़ेसर साहेब ने गंभीरता से उत्तर दिया, ‘सुनो भई, या तो कविताएँ ही याद रह सकती हैं, या इन और इन जैसी चीज़ों के नाम-दाम। तुमने दूसरी बात चुनी है, मैंने पहली, अब इसमें किसी को किसी से शिकायत क्यों हो?’

    तुलसीदास कह गए हैं, ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता।’ प्रो. शशांक की कथा अनंत भले हो, इतनी संक्षिप्त भी तो नहीं है कि एक ही निबंध में चुक जाए, अतः इस समय इतना ही, शेष फिर कभी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विष्णुकांत शास्त्री
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए पल्लव के सौजन्य से

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