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भोर का तारा

bhor ka tara

जगदीश चंद्र माथुर

जगदीश चंद्र माथुर

भोर का तारा

जगदीश चंद्र माथुर

और अधिकजगदीश चंद्र माथुर

    पात्र

    माधव: गुप्त साम्राज्य का कर्मचारी, शेखर का मित्र

    शेखर: उज्जयिनी का कवि

    छाया: शेर की प्रेयसी? अनंतर पत्नी

    स्थान: गुप्त साम्राज्य की राजधानी उज्जयिनी का एक गृह

    समय: पाँचवीं शती, सन् 455 के आस-पास

    (एक)

    [कवि शेखर का गृह। सब वस्तुएँ अस्तव्यस्त। बाईं ओर एक तख़्त पर मैली फटी हुई चद्दर बिछी है। उस पर एक चैकी भी रखी है और...इत्यादि भी। इधर-उधर भोजपत्र (या काग़ज़) बिखरे हुए पड़े हैं। एक तिपाई भी रखी है जिस पर कुछ पात्र रखे हैं।

    पीछे की ओर एक खिड़की है। बायाँ दरवाज़ा अंदर जाने के लिए है और दायाँ बाहर आने के लिए। दीवारों में कई आले या ताक़ हैं, जिनमें दीपदान या कुछ और वस्तुएँ रखी हैं।

    शेखर कुछ गुनगुनाते हुए टहलता है, या कभी-कभी तख़्त पर बैठकर कुछ लिखता जाता है। जान पड़ता है वह कविता बनाने में संलग्न है। तल्लीन मुद्रा। जो-कुछ वह कहता है उसे लिखता भी जाता है।

    शेखर: ‘अंगुलियाँ आतुर-तुरत पसार खींचते नीले पट का छोर...’

    (दुबारा कहता है, फिर लिखता है।)

    ‘टँका जिसमें जाने किस ओर

    स्वर्ण कण...स्वर्ण कण...’

    (पूरा करने के प्रयास में तल्लीन है, इतने में बाहर से माधव का प्रवेश। सांसारिकता का भाव और जानकारी उसके चेहरे से प्रकट हैं। द्वार के पास खड़ा होकर थोड़ी देर तक वह कवि की लीला देखता रहता है। उसके बाद:)

    माधव: शेखर!

    शेखर: (अभी सुना ही नहीं। एक पंक्ति लिखकर) स्वर्ण कण प्रिय को रहा निहार।

    माधव: शे...खर!!

    शेखर: (चैंककर) कौन?....ओह! माधव! (उठकर माधव की ओर बढ़ता है।)

    माधव: क्या कर रहे हो शेखर?

    शेखर: यहाँ आओ माधव, यहाँ। (उसके कंधों को पकड़कर तख़्त पर बिठाता हुआ) यहाँ बैठो। (स्वयं खड़ा है।) माधव, तुमने भोर का तारा देखा है कभी?

    माधव: (मुस्कराते हुए) हाँ! क्यों?

    शेखर: (बड़ी गंभीरतापूर्वक) कैसा अकेला-सा, एकटक देखता रहता है? जानते हो क्यों?....नहीं जानते? (तख़्त के दूसरे भाग पर बैठता हुआ) बात यह है कि एक बार रजनीबाला अपने प्रियतम प्रभात से मिलने चली, गहरे नीले कपड़े पहनकर, जिसमें सोने के तारे टंके थे। ज्योंही निकट पहुँची, त्योंही लाज की आँधी आई और बेचारी रजनी को उड़ा ले चली। (रुककर) फिर क्या हुआ...

    माधव: (कुछ उद्योग के बाद) प्रभात अकेला रह गया?

    शेखर: नहीं। उसने अपनी अंगुलियाँ पसारकर उसके नीले पट का छोर खींच लिया।-जानते हो, यह भोर का तारा है न, उसी छोर में टंका हुआ सोने का कण है, एकटक प्रियतम प्रभात को निहार रहा है।...क्यों?

    माधव: बहुत ऊँची कल्पना है! लिख चुके क्या?

    शेखर: अभी तो और लिखूँगा। बैठा ही था कि तुम गए...

    माधव: (हँसते हुए) और अब तुम्हें ध्यान हुआ कि तुम धरती पर ही बैठे थे, आकाश में नहीं। (रुककर) मुझे कोस तो नहीं रहे हो शेखर?

    शेखर: (भोलेपन से) क्यों?

    माधव: तुम्हारी परियों और तारों की दुनिया में मैं मनुष्यों की दुनिया लेकर गया।

    शेखर: (सच्चेपन से) कभी-कभी तो मुझे तुममें भी कविता दीख पड़ती है।

    माधव: मुझमें?....(ज़ोर से हँसकर) तुम अठखेलियाँ करना भी जानते हो?.... (गंभीर होते हुए) शेखर, कविता तो कोमल हृदय की चीज़ है। मुझ जैसे कामकाजी राजनीतिज्ञों और सैनिकों के तो छूने-भर से मुरझा जाएगी। हम लोगों के लिए तो दुनिया की और ही उलझनें बहुत हैं।

    शेखर: माधव, तुमने कभी यह भी सोचा है कि इन उलझनों से बाहर निकलने का मार्ग भी हो सकता है?

    माधव: और हम लोग करते ही क्या हैं? रात-दिन मनुष्यों की नई-नई उलझनें सुलझाने का ही तो उद्योग करते रहते हैं।

    माधव: यही तो नहीं करते। तुम राजनीतिज्ञ और मंत्री लोग बड़ी संजीदगी के साथ अमीरी-ग़रीबी, युद्ध और संधि की समस्याओं को हल करने का अभिनय करते हो परंतु मनुष्य को इन उलझनों के बाहर कभी नहीं लाते। कवि इसका प्रयत्न करते हैं पर तुझ उन्हें पागल...

    माधव: कवि...(अवहेलनापूर्वक) तुम उलझनों से बाहर निकलने का प्रयास नहीं करते, तुम उन्हें भूलने का प्रयास करते हो। तुम सपना देखते हो कि जीवन सौंदर्य है, हम जागते रहते हैं और देखते हैं कि जीवन कर्तव्य है।

    शेखर: (भावुकता से) मुझे तो सौंदर्य ही कर्तव्य जान पड़ता है। मुझे तो जहाँ सौंदर्य दीख पड़ता है, वहाँ कविता दीख पड़ती है, वहीं जीवन दीख पड़ता है। (स्वर बदलकर) माधव, तुमने सम्राट के भवन के पास, राजपथ के किनारे उस अँधी भिखमंगी को कभी देखा है?

    माधव: (मुस्कराहट रोकते हुए) हाँ!

    शेखर: मैं उसे सदा भीख देता हूँ। जानते हो क्यों?

    माधव: क्यों! (कुछ सोचने के बाद) ‘दया सज्जनस्य भूषणम्।’

    शेखर: दया? हूँ। (ठहरकर) मैं तो उसे इसलिए भीख देता हूँ क्योंकि मुझे उसमें एक कविता, एक लय, एक व्यथा झलक पड़ती है। उसका गहरा झुर्रीदार चेहरा, उसके काँपते हुए हाथ, उसकी आँखों के बेबस गड्ढे (एक तरफ़ एकटक देखते हुए, मानो इस मानसिक चित्र में खो गया हो) उसकी झुकी हुई कमर-माधव, मुझे तो ऐसा जान पड़ता है मानो किसी शिल्पी ने उसे इस ढाँचे में ढाला हो।

    माधव: (इस भाषण से उसका अच्छा-खासा मनोरंजन हो गया जान पड़ता है। खड़े होकर शेखर पर शरारत-भरी आँखें गड़ाते हुए) शेखर, टाट में रेशम का पैबंद क्यों लगाते हो? ऐसी कविता तो तुम्हें किसी देवी की प्रशंसा में करनी चाहिए थी।

    शेखर: (सरस भाव से) किसी देवी की?

    माधव: (अर्थपूर्ण स्वर में) यह तो उसके पुजारी से पूछो।

    शेखर: मैं तो नहीं जानता, किस पुजारी को।

    माधव: अपने को आज तक किसी ने जाना है, शेखर? (हँस पड़ता है। शेखर कुछ समझकर झेंपता-सा है।) पागल!...(गंभीर होकर बैठते हुए) शेखर, सच बताओ तुम छाया को प्यार करते हो?

    शेखर: (मंद, गहरे स्वर में) कितनी बार पूछोगे?

    माधव: बहुत प्यार करते हो?

    शेखर: माधव, जीवन में मेरी दो ही तो साधनाएँ हैं, (तख़्त से उठकर खिड़की की ओर बढ़ता हुआ) छाया का प्यार और कविता। (खिड़की के सहारे दर्शकों की ओर मुँह करके खड़ा हो जाता है।)

    माधव: और छाया?

    शेखर: (वही गहरा स्वर) हम दोनों नदी के दो किनारे हैं, जो एक-दूसरे की ओर मुड़ते हैं पर मिल नहीं पाते।

    माधव: (उठकर शेखर के कंधे पर हाथ रखते हुए) सुनो शेखर नदी सूख भी तो सकती है।

    शेखर: नहीं माधव, उसके भाई देवदत्त से किसी तरह की आशा करना व्यर्थ है। मेरे लिए तो उनका हृदय सूखा हुआ है।

    माधव: क्यों?

    शेखर: तुम पूछते हो क्यों? तुम भी तो सम्राट स्कंदगुप्त के दरबारी हो। देवदत्त एक मंत्री है। भला एक मंत्री की बहिन का एक मामूली कवि से क्या संबंध?

    माधव: मामूली कवि! शेखर, तुम अपने को मामूली कवि समझते हो?

    शेखर: और क्या समझूँ?—राजकवि?

    माधव: सुनो शेखर, तुम्हें एक ख़बर सुनाता हूँ।

    शेखर: ख़बर?

    माधव: कल रात को राजभवन गया था।

    शेखर: इसमें तो कोई नई बात नहीं। तुम्हारा तो काम ही यह है।

    माधव: नहीं, कल एक उत्सव था। स्वयं सम्राट ने कुछ लोगों को बुलाया था। गाने हुए, नाच हुए, दावत हुई। एक युवती ने बहुत सुंदर गीत सुनाया। सम्राट तो उस गीत पर रीझ गए।

    शेखर: (उकताकर) आख़िर तुम यह सब मुझे क्यों सुना रहे हो माधव? माधव: इसलिए कि सम्राट ने उस गीत बनाने वाले का नाम पूछा। पता चला कि उसका नाम था—शेखर।

    शेखर: (चैंककर) क्या?

    माधव: अभी और सुनो। उस युवती ने सम्राट से कहा कि अगर आपको यह गाना पसंद है तो इसके लिखने वाले कवि को अपने दरबार में बुलाइए। अब कल से वह कवि महाराजाधिराज सम्राट स्कंदगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में जाएगा।

    शेखर : मैं?

    माधव: (अभिनय करते हुए, झुककर) श्रीमन् क्या आप ही का नाम शेखर है?

    शेखर: मैं जाऊँगा सम्राट के दरबार में? माधव, सपना तो नहीं देख रहे हो?

    माधव: सपने तो तुम देखा करते हो।...लेकिन अभी मेरा समाचार पूरा कहाँ हुआ?

    शेखर: हाँ? वह युवती कौन है?

    माधव: अब यह भी बताना होगा? तुम भी बुद्धू हो। क्या इसी बूते पर प्रेम करने चले थे?

    शेखर: ओह!...छाया? (माधव का हाथ पकड़ते हुए)...तुम कितने-कितने अच्छे हो!

    माधव: और सुनो।...सम्राट ने देवदत्त को आज्ञा दी है कि वह तक्षशिला जाकर वहाँ से क्षत्रप वीरभद्र के विद्रोह को दबाए। आर्य देवदत्त के साथ मैं भी जाऊँगा, उनका मंत्री बनकर। समझे?

    शेखर: (स्वप्न-से में) तो क्या सच ही छाया ने कहा? सच ही?

    माधव: शेखर, आठ दिन बाद आर्य देवदत्त और मैं तक्षशिला चल देंगे।...उसके बाद-उसके बाद छाया कहाँ रहेगी? भला बताओ तो?

    शेखर: माधव!...(माधव हँस पड़ता है।) इतना भाग्य? इतना? विश्वास नहीं होता।

    माधव: करो विश्वास। ...लेकिन भलेमानस, छाया क्या इस कड़े में रहेगी? ये बिखरे हुए काग़ज़, टूटी चटाई, फटे हुए वस्त्र। शेखर, लापरवाही की सीमा होती है।

    शेखर: मैं कोई इन बातों की परवाह करता हूँ।

    माधव: और फिर?

    शेखर: मैं परवाह करता हूँ फूल की पंखुड़ियों पर जगमगाती हुई ओस की, (भावोद्रेक से) संध्या में सूर्य की किरणों को अपने गोदी में समेटने वाले बादल के टुकड़ों की, सुबह को आकाश के कोने पर टिम-टिमाने वाले तारे की...

    माधव: एक चीज़ रह गई।

    शेखर: क्या?

    माधव: जिसे तुम दिन में वृक्षों के नीचे फैली देखते हो (उठकर खड़ा हो जाता है।)

    शेखर: वृक्षों के नीचे?

    माधव: जिसे तुम दर्पण में झलकती देखते हो।

    शेखर: दर्पण में?

    माधव: जिसे तुम अपने हृदय में हमेशा देखते हो। (निकट गया है।)

    शेखर: (समझकर, बच्चों की तरह) छाया!

    माधव: (मुस्कराते हुए) छाया?

    (दो)

    पर्दा गिरता है

    उज्जयिनी में आर्य देवदत्त का भवन जिसमें अब शेखर और छाया रहते हैं। कमरा सजा हुआ साफ़ है। दीवारों पर कुछ चित्र खिंचे हुए हैं। कोने में धूपदान है। सामने तख़्त पर चटाई और लिखने-पढ़ने का सामान है। बराबर में एक छोटी चाकी पर कुछ ग्रंथ रखे हुए हैं। दूसरी और एक पीढ़ा है जिसके निकट मिट्टी की, किंतु कलापूर्ण एक अँगीठी रखी हुई है। दीवार के एक भाग पर अलगनी है जिस पर कुछ धोतियाँ इत्यादि टंगी हैं।

    छाया-सौंदर्य की प्रतिमा, चांचल्य, उन्माद और गाम्भीर्य का जिसमें स्त्री सुलभ सम्मिश्रण है, गृहस्वामिनी होने के नाते कमरे की सब वस्तुएँ स्थान पर संभालकर रख रही है। साथ ही कुछ गुन-गुनाती भी जाती है। जाड़ा होने के कारण तापने के लिए उसने अँगीठी में अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी है। कुछ देर बाद पीढ़े पर बैठकर वह अँगीठी को ठीक करती है। उसकी पीठ द्वार की ओर है। अपने कार्य और गान में इतनी संलग्न है कि उसके बाहर पैरों की आवाज़ नहीं सुनाई देती है।

    प्यार की है क्या यह पहचान?

    चाँदनी का पाकर नव स्पर्श, चमक उठते पत्ते नादान,

    पवन को परस सलिल की लहर, नृत्य में हो जाती लयमान,

    सूर्य का सुन कोमल पद-चाप, फूट उठता चिड़ियों का गान;

    तुम्हारी तो प्रिय केवल याद, जगाती मेरे सोए प्राण।

    प्यार की है क्या यह पहचान?

    (धीरे से शेखर का प्रवेश, कंधे और कमर पर ऊनी दुशाला है, बगल में ग्रंथ। गले में फूलों की माला है। द्वार पर चुपचाप खड़ा होकर मुस्कराते हुए छाया का गीत सुनता है।)

    शेखर:(थोड़ी देर बाद, धीरे से) छाया! (छाया नहीं सुन पाती है। गाना ज़ारी है। फिर कुछ समय बाद) छाया!

    छाया : (चैंककर खड़ी हो जाती है। एक साथ मुख फेरकर) ओह!

    शेखर: (तख़्त की ओर बढ़ता हुआ) छाया, तुम्हें एक कहानी मालूम है?

    छाया: (उत्सुकतापूर्वक) कौन-सी?

    शेखर: (छोटी चैकी पर पहले तो अपनी बगल वाला ग्रंथ रखता है, और फिर उस पर दुशाला रखते हुए) एक बहुत सुंदर-सी।

    छाया: सुनें कैसी कहानी है।

    शेखर: (बैठकर) एक राजा के यहाँ एक कवि रहता था, युवक और भावुक। राजभवन में सब लोग उसे प्यार करते थे, राजा तो उस पर निछावर था। रोज़ सुबह राजा उसके मुँह से नई कविता सुनता, नई और सुंदर कविता।

    छाया: हूँ? (पीढ़े पर बैठ जाती है, चिबुक को हथेली पर टेकती है।)

    शेखर: परंतु उसमें एक बुराई थी।

    छाया: क्या?

    शेखर: वह अपनी कविता केवल सुबह के समय सुनाता था। यदि राजा उससे पूछता कि तुम दोपहर या संध्या को अपनी कविता क्यों नहीं सुनाते तो वह उत्तर देता, ‘मैं केवल रात के तीसरे पहर में कविता लिख सकता हूँ।’

    छाया : राजा उससे रुष्ट नहीं हुआ?

    शेखर: नहीं। उसने सोचा, कवि के घर पर चलकर देखा जाए कि इसमें रहस्य क्या है। रात को तीसरा पहर होते ही राजा वेश बदलकर कवि के घर के पास खिड़की के नीचे बैठ गया।

    छाया: उसके बाद?

    शेखर: उसके बाद राजा ने देखा कि कवि लेखनी लेकर तैयार बैठ गया। थोड़ी देर में कहीं से बहुत मधुर, बहुत सुरीला स्वर राजा के कान में पड़ा। राजा झूमने लगा और कवि की लेखनी आप से आप चलने लगी।

    छाया: फिर?

    शेखर: फिर क्या? राजा महल में लौट गाया और उसके बाद उसने कवि से कभी यह प्रश्न नहीं पूछा कि वह सुबह ही क्यों कविता सुनाता था। भला बताओ तो क्यों नहीं पूछा?

    छाया: बताऊँ?

    शेखर: हाँ।

    छाया: राजा को मालूम हो गया कि उस गायिका के स्वर में ही कवि की कविता थी। और बताऊँ? (खड़ी हो जाती है)

    शेखर: (मुस्कराते हुए) छाया, तुम...

    छाया: (टोककर, शीघ्रता और चंचलता के साथ) वह गायिका और कोई नहीं उस कवि की पत्नी थी। और बताऊँ? उस कवि को कहानी सुनाने का बड़ा शौक था, झूठी कहानी। और बताऊँ? उस कवि के बाल लंबे थे, कपड़े ढीले-ढाले, गले में उसके फूलों की माला थी, माथे पर...(इस बीच शेखर की मुस्कराहट हलकी हँसी में परिणत हो गई है, यहाँ तक कि इन शब्दों तक पहुँचते-पहुँचते दोनों ज़ोर से हँस पड़ते हैं।)

    शेखर: (थोड़ी देर बाद गंभीर होते हुए) लेकिन छाया, तुम्हीं बताओ तुम्हारे गान, तुम्हारी प्रेरणा, तुम्हारे प्रेम के बिना मेरी कविता क्या होती? तुम तो मेरी कविता हो!

    छाया: (बड़े गंभीर, उलाहना-भरे स्वर में) प्रत्येक पुरुष के लिए स्त्री एक कविता है।

    शेखर: क्या मतलब तुम्हारा?

    छाया: कविता तुम्हारे सूने दिलों में संगीत भरती है; स्त्री भी तुम्हारे ऊबे हुए मन को बहलाती है। पुरुष जब जीवन की सूखी चट्टानों पर चढ़ता-चढ़ता थक जाता है तो सोचता है, ‘चलो थोड़ा मनबहलाव ही कर लें।’ स्त्री पर अपना सारा प्यार, अपने सारे अरमान निछावर कर देता है, मानो दुनिया में और कुछ हो ही न। और उसके बाद जब चाँदनी बीत जाती है, जब कविता भी नीरव हो जाती है, तब पुरुष को चट्टानें फिर बुलाती हैं और वह ऐसे भागता है मानो पिंजड़े से छूटा हुआ पंछी। और स्त्री के लिए फिर वही अँधेरा, फिर वही सूनापन!

    शेखर: (मंद स्वर में) छाया, तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो।

    छाया: क्या एक दिन तुम मुझे भी ऐसे छोड़कर चले जाओगे?

    शेखर: लेकिन छाया, मैं तुम्हें छोड़कर कहाँ जा सकता हूँ?

    छाया: ऊँहूँ, मैं नहीं मान सकती।

    शेखर: सुनो तो, मेरे लिए जीवन में ऐसी सूखी चट्टानें थोड़े ही हैं। मेरी कविता ही मेरी हरी-भरी वाटिका है। मैं उसे प्यार करता हूँ क्योंकि मुझे तुम्हारे हृदय में सौंदर्य दीखता है। जिस रोज़ मैं तुमसे दूर हो जाऊँगा, उस रोज़ मैं सौंदर्य से दूर हो जाऊँगा, अपनी कविता से दूर हो जाऊँगा...(कुछ रुककर) मेरी कविता मर जाएगी।

    छाया: नहीं शेखर, मैं मर जाऊँगी, किन्तु तुम्हारी कविता रहेगी, बहुत दिन रहेगी।

    शेखर: मेरी कविता! (कुछ देर बाद)...छाया; आज मैं तुम्हें एक बड़ी विशेष बात बताने वाला हूँ, एक ऐसा भेद जो अब तक मैंने तुमसे छिपा रखा था।

    छाया: रहने दो, तुम सदा ऐसे भेद और ऐसी कहानियाँ सुनाया करते हो।

    शेखर: नहीं।...अच्छा, तनिक उस दुशाले को उठाओ। (छाया उठाती है) उसके नीचे कुछ है। (छाया उस ग्रंथ को अपने हाथ में लेती है।) उसे खोलो...क्या है?

    छाया: (आश्चर्यान्वित होकर) ओह, (ज्यों-ज्यों छाया उसके पन्ने उलटती जाती है, शेखर की प्रसन्नता बढ़ती जाती है।) ‘भोर का तारा’! उफ़्फ़ोह! यह तुमने कब लिखा? मुझसे छिपाकर?

    शेखर: (हँसते हुए। विजय का सा भाव) छाया, तुम्हें याद है उस दिन की, जब माधव के साथ मैं तुम्हारे भाई देवदत्त से मिलने इसी भवन में आया था?

    छाया : (शेखर की ओर थोड़ी देर देखकर) उस दिन को कैसे भूल सकती हूँ, शेखर? उसी दिन तो भैया को तक्षशिला जाने की आज्ञा मिली थी, उसी दिन तो उन्होंने तुम्हें और मुझे माताजी का वह पत्र दिखाया था जिसने हम दोनों को सर्वदा के लिए बाँध दिया।

    शेखर: हाँ छाया, उसी दिन, उसी दिन मैंने इस महाकाव्य को लिखना आरंभ किया था। (गहरे स्वर में) आज वह समाप्त हो गया।

    छाया: शेखर, यह हमारे प्रेम की अमर स्मृति है।

    शेखर: उसे यहाँ लाओ। (हाथ में लेकर चाव से खोलता हुआ) ‘भोर का तारा’! छाया, यह काव्य बड़ी लगन का फल है। कल मैं इसे सम्राट की सेवा में ले जाऊँगा। और फिर, फिर जब मैं उस सभा में इसे सुनाना आरंभ करूँगा, तब, तब, सारे उज्जयिनी की आँखें मेरे ऊपर होंगी। महाकाव्य, महाकाव्य! उस समय सम्राट गद्गद हो जाएँगे और मैं कवियों का सिरमौर हो जाऊँगा। छाया, बरसों बाद दुनिया पढ़ेगी कवि-कुल-शिरोमणि-शेखर-कृत ‘भोर का तारा’....हा हा, हा,... (विभोर)

    (छाया उसकी ओर एकटक देख रही है। सहसा उसके चेहरे पर चिंता की रेखा खिंच जाती है। शेखर हँस रहा है।)

    छाया: शेखर, (वह हँसे जा रहा है) शेखर! (शेखर की दृष्टि उस पर पड़ती है।)

    शेखर: (सहसा चुप होकर) क्यों छाया, क्या हुआ तुमको?

    छाया: (चिंतित स्वर में) शेखर! (चुप हो जाती है।)

    शेखर: कहो!

    छाया: शेखर, तुम इसे संभालकर रखोगे न?

    शेखर: बस इतनी ही सी बात?

    छाया: मुझे डर लगता है कि…कि…कहीं यह नष्ट हो जाए, कोई इसे चुरा ले जाए और फिर तुम…

    शेखर: हा, हा, हा,...पगली! ऐसा क्यों होने लगा? सोचने से ही डर गई? छाया, छाया, तेरे लिए तो आज प्रसन्न होने का दिन है, बहुत प्रसन्न!...इधर देखो छाया, हम लोग कितने सुखी हैं! और तुम हो तक्षशिला के क्षत्रप देवदत्त की बहिन और उज्जयिनी के सबसे बड़े कवि शेखर की पत्नी!...तक्षशिला का क्षत्रप और उज्जयिनी का कवि। हँ, हँ, हँ!...क्यों छाया?

    छाया: (मंद स्वर में) तुम सच कहते हो, शेखर, हम लोग बहुत सुखी हैं।

    शेखर: (मग्नावस्था में) बहुत सुखी...

    (सहसा बाहर कोलाहल। छोड़े की टापों की आवाज़। शेखर और छाया छिटककर चैतंय खड़े जो जाते हैं। शेखर द्वार की ओर बढ़ता है।)

    शेखर: कौन है?

    (सहसा माधव का प्रवेश। थकित और श्रमित; शस्त्रों से सुसज्जित पसीने में नहा रहा है। चेहरे पर भय और चिंता के चिह्न हैं।)

    शेखर और छाया: माधव!

    शेखर: माधव तुम यहाँ कहाँ?

    माधव: (दोनों पर दृष्टि फेंकता हुआ) शेखर, छाया! (फिर उस कमरे पर डरती-सी आँखें डालता है, मानो उस सुरम्य घोंसले को नष्ट करने से भय खाता हो। कुछ देर बाद बड़े प्रयत्न और कष्ट के साथ बोलता है।) मैं तुम दोनों से भीख माँगने आया हूँ।

    (छाया और शेखर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं है।)

    छाया : भीख माँगने, तक्षशिला से?

    शेखर: तक्षशिला से? माधव, क्या बात है?

    माधव: (धीरे-धीरे, मज़बूती के साथ बोलना आरंभ करता है, परंतु ज्यों-ज्यों बढ़ता है, त्यों-त्यों स्वर में भावुकता आती जाती है।) हाँ, मैं तक्षशिला से ही रहा हूँ। यहाँ तक कैसे गया, यह मैं नहीं जानता। हाँ, यह जानता हूँ कि आज गुप्त साम्राज्य संकट में है और हमें घर-घर भीख माँगनी पड़ेगी।

    शेखर: गुप्त साम्राज्य संकट में! क्या कह रहे हो माधव?

    माधव: (संजीदगी के साथ) शेखर, पश्चिमोत्तर सीमा पर आग लग चुकी है। हूणों का सरदार तोरमाण भारतवर्ष पर चढ़ आया है।

    माधव: (भयाक्राँत होकर) तोरमाण!

    माधव: उसने सिंधु नदी को पार कर लिया है, उसने अम्भी राज्य को नष्ट कर दिया है। उसकी सेना तक्षशिला को पैरों तले रौंद रही है...

    छाया: (सहसा माधव के निकट जाकर, भय से कातर हो उसकी भुजा पकड़ती हुई) तक्षशिला?

    माधव: (उसी स्वर में) सारा पंचनद आज उसके भय से काँप रहा है। एक के बाद एक गाँव जल रहे हैं, हत्याएँ हो रही हैं, अत्याचार हो रहा है। शीघ्र ही सारा आर्यावर्त पीड़ितों की हा-हाकार से गूँजने लगेगा। शेखर: छाया-मैं तुमसे भीख माँगता हूँ-नई भीख माँगता हूँ-सम्राट स्कंदगुप्त की, देश की इस संकट में मदद करो।

    (बाहर भारी कोलाहल! शेखर और छाया जड़वत् खड़े हैं।)

    देखो बाहर जनता उमड़ रही है। शेखर तुम्हारी वाणी में ओज है, तुम्हारे स्वर में प्रभाव। तुम अपने शब्दों के बल पर सोई हुई आत्माओं को जगा सकते हो, युवकों में जान फूँक सकते हो। (शेखर सुने जा रहा है। चेहरे पर भावों का आवेग। मस्तक पर हाथ रखता है।) आज साम्राज्य को सैनिकों की आवश्यकता है। शेखर, ओजमयी कविता द्वारा तुम गाँव-गाँव में जाकर वह आग फैला दो जिससे हज़ारों और लाखों भुजाएँ अपने सम्राट और देश की रक्षा के लिए शस्त्र हाथ में ले लें। (कुछ रुककर शेखर के चेहरे की ओर देखता है। उसकी मुद्रा बदल रही है, जैसे कोई भीषण उद्योग कर रहा है।) कवि, देश तुमसे बलिदान माँगता है।

    छाया: (अत्यंत दर्द-भरे करुण स्वर में) माधव, माधव!!

    माधव: (मुड़कर छाया की ओर कुछ देर देखता है, फिर थोड़ी देर बाद) छाया, उन्होंने कहा था, ‘मेरे प्राण क्या चीज़ हैं, इसमें तो सहस्रों मिट गए और सहस्त्रों को मिटना है।’

    शेखर: (मानो नींद से जगा हो।) किसने?

    माधव: आर्य देवदत्त ने, अंतिम समय!

    छाया: (जैसे बिजली गिरी हो।) माधव, माधव, तो क्या भैया...

    माधव: उन्होंने वीरगति पाई है छाया। (छाया पृथ्वी पर घुटनों पर गिर जाती है। चेहरे को हाथों से ढंक लिया है। जिस बीच में माधव कहे जाता है, शेखर एक-दो बार घूमता है। उसके मुख से प्रकट होता है मानो डूबते को सहारा मिलनेवाला है।) तक्षशिला से चालीस मील दूर विद्रोही वीरभद्र की खोज में वे हूणों के दल के निकट जा पहुँचे। वहाँ उन्हें ज्ञात कि वीरभद्र हूणों से मिल गया है। उनके बीस सैनिक आगे हूणों में फँसे हुए थे। वे तक्षशिला लौट सकते थे परंतु एक सच्चे सेनापति की भाँति उन्होंने अपने सैनिकों के लिए अपने प्राण संकट में डाल दिए और मुझे तक्षशिला और पाटलीपुत्र को चेतावनी देने के लिए भेजा। मैं आज...(सहसा रुक जाता है, क्योंकि उसकी दृष्टि शेखर पर जा पड़ती है। शेखर चैकी के पास खड़ा है। उसके चेहरे पर दृढ़ता और विजय का भाव है। बाहर कोलाहल कम है। शेखर अपना हाथ बढ़ाकर अपने ग्रंथ ‘भोर का तारा’ को उठाता है। इसी समय माधव की दृष्टि उस पर पड़ती है। शेखर पुस्तक को कुछ देर चाव से, बिछुड़न से, प्रेम से देखता है। उसके बाद आगे बढ़कर अँगीठी के निकट जाकर उसमें जलती हुई अग्नि को देखता है और धीरे-धीरे उस पुस्तक को फाड़ता है। इस आवाज़ को सुनकर छाया अपना मुख ऊपर को करती है।)

    छाया: (उसे फाड़ते हुए देखकर) शेखर!

    (लेकिन शेखर ने उसे अग्नि में डाल दिया है। लपटें उठती हैं। छाया फिर गिर पड़ती है। शेखर लपटों की तरफ़ देखता है। फिर छाया की ओर दृष्टिपात करता है; एक सूखी हँसी के बाद बाहर चल देता है। कोलाहल कम होने के कारण उसके पैरों की आवाज़ थोड़ी देर तक सुनाई देती है।)

    (माधव द्वार की ओर बढ़ता है।)

    छाया: (अत्यंत पीड़ित स्वर में) माधव तुमने तो मेरा प्रभास नष्ट कर दिया।

    (माधव उसके ये शब्द सुनकर बाहर जाता-जाता रुक जाता है। मुड़कर छाया की ओर देखता है; पीछे की खिड़की के निकट जाकर उसे खोल देता है। इससे बाहर का कोलाहल स्पष्ट सुनाई देता है।

    शेखर और उसके साथ पूरे जन-समूह के गाने का स्वर सुन पड़ता है:)

    ‘‘नगाड़े पै डंका बजा है, तू शस्त्रों को अपने सँभाल,

    बुलाती है वीरों को तुरही, तू उठ कोई रस्ता निकाल।’’

    (शेखर का स्वर तीव्र है। माधव खिड़की को बंद कर देता है। पुनः शांति। इसके बाद मँद परंतु दृढ़ स्वर में बोलता है:)

    माधव : छाया, मैंने तुम्हारा प्रभात नष्ट नहीं किया। प्रभात तो अब होगा। शेखर तो अब तक भोर का तारा था। अब वह प्रभात का सूर्य होगा।

    (छाया धीरे-धीरे अपना मस्तक उठाती है।)

    स्रोत :
    • रचनाकार : जगदीश चंद्र माथुर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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