नवजागरण और स्त्री-कविता
navjagran aur stri kavita
सांस्कृतिक इतिहास की दरारों को भरने के लिए, उसकी असंगतियों को दूर करने के लिए हाल के वर्षों में स्त्री-लेखन पर पुनर्विचार और शोध करने की ज़रूरत महसूस की गयी है। इसे हम स्त्रीवादी इतिहास लेखन कह सकते हैं जो इतिहास का मूल्यांकन जेंडर के नज़रिए से करने का पक्षधर है। दरअसल स्त्रीवादी इतिहास लेखन समूचे इतिहास को समग्रता में देखने और विश्लेषित करने का प्रयास करता है, जिसमें मुख्यधारा के इतिहास से छूटे हुए, अनजाने में, या जानबूझकर उपेक्षित कर दिए गए वंचितों का इतिहास और उनका लेखन शामिल किया जाता है। यह स्त्री को किसी विशेष सन्दर्भ या किसी सीमा में न बांधकर, एक रचनाकार और उसके दाय के रूप में देखने का प्रयास है। यह स्त्रियों की रचनाशीलता के संदर्भ में लैंगिक (जेंडर) विभेद को देखने और साथ ही सामाजिक संरचनागत अपेक्षित बदलाव जो घटने चाहिए, उनका दिशा निर्देश करने का भी उद्यम है। स्त्री साहित्येतिहास को उपेक्षित करके कभी भी इतिहास-लेखन को समग्रता में नहीं जाना जा सकता। कुछेक इतिहासकारों को छोड़ दें तो अधिकांश इतिहासकारों ने स्त्रियों के सांस्कृतिक-साहित्यिक दाय को या तो उपेक्षित किया या फुटकर खाते में डाल दिया। आज ज़रूरत इस बात की है कि सामाजिक अवधारणाओं, विचारधाराओं और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, समाज-सुधार कार्यक्रमों के पारस्परिक सम्बन्ध को विश्लेषित-व्याख्यायित करने के लिए स्त्री-रचनाशीलता की अब तक उपेक्षित, अवसन्न अवस्था को प्राप्त कड़ियों को ढूँढ़ा और जोड़ा जाये, जिससे साहित्येतिहास अपनी समग्रता में सामने आ सके।
स्त्रियाँ लिखकर अपने आपको बतौर अभिकर्ता (एजेंसी) कैसे स्थापित करती हैं, पूरी सामाजिक संरचना को कैसे चुनौती देती हैं और इस तरह साहित्य और विशिष्ट ज्ञानधारा में दखलंदाजी करती हैं, यह जानने के लिए विभिन्न जीवंत संरचनाओं के प्रतीकों से स्त्रियों को जोड़कर देखने की ज़रूरत पड़ती है। हिंदी साहित्य के सन्दर्भ में विचार करें तो स्त्री की रचनाशीलता के अधिकतर ज्ञात प्रसंग मुख्यतः मध्यवर्गीय हिन्दू स्त्रियों के ही मिलते हैं, जो इतिहास की जानकारी को एकपक्षीय और एकरैखीय बनाते हैं। यहीं पर इतिहास के पुनर्पाठ और आलोचनात्मक प्रतिमानों के पुनर्नवीकरण की ज़रूरत महसूस होती है। डा.नामवर सिंह ने साहित्येतिहास की पुनर्व्याख्या के सन्दर्भ में सही ही कहा है, “नवीन व्याख्याओं का उपयोग भर इतिहास नहीं है, इतिहास स्वयं में एक नई व्याख्या है।” इतिहास की समस्या से सम्बद्ध है रचना की आलोचना, उसके मूल्यांकन की समस्या, क्योंकि रचना के अभाव में इतिहास का लेखन असम्भव है। लेकिन ऐसी पूरी परंपरा जिसकी उपेक्षा कर दी गयी हो उसके बारे में नामवर सिंह या रामविलास शर्मा जैसे आलोचक मौन हैं। समूची साहित्य-परंपरा में स्त्री रचनाशीलता के दखल को कम करके आंकना, या उसे भावुक, अबौद्धिक साहित्य कहकर दरकिनार करने की रणनीतियों को स्त्री साहित्येतिहास लेखन ने समझा और अपने ढंग से इसे चुनौती भी दी है।
हाल के वर्षों में स्त्री कविता के इतिहास और स्त्रियों की रचनाओं को एक बड़ा पाठक और प्रकाशक वर्ग मिला है, लेकिन अब भी हिंदी नवजागरण के दौर के स्त्री साहित्य के प्रकाशन और मूल्यांकन का अभाव ही है। नवजागरण के दौर की स्त्री कविता के कुछ तयशुदा पैटर्न हमें अब तक उपलब्ध कविताओं में दिखाई पड़ते हैं—
1.लोक सम्पृक्ति
2.आध्यात्मिकता
3.भक्ति और प्रेम
4.गृहस्थी और वैराग्य
5.राष्ट्रप्रेम
6.आत्मालोचन
7.फुटकल-समस्यापूर्ति, प्रकृति चित्रण आदि।
नवजागरण की स्त्री कविताओं की बानगी देखने के लिए कुछ संग्रहों पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है जिसमें मुंशी देवीप्रसाद द्वारा ‘महिला मृदुवाणी’ प्रमुख है। स्त्रियों की रचनाओं को एक जगह रखकर उनके साहित्यिक परिचय सहित पाठक को उससे परिचित कराने का यह पहला प्रयास था। यह संग्रह 1904 ई. में छपा, जिसकी भूमिका में मुंशी देवीप्रसाद ने रेखांकित किया—'...अकेले पुरुष ही चौदह विद्या निधान नहीं हुए हैं, वरन स्त्रियाँ भी समय-समय पर ऐसी होती रही हैं जो सोने-चांदी और रत्नजड़ित आभूषणों के अतिरिक्त विद्या-बुद्धि और काव्यकला के दिव्यभूषणों से भी भूषित थीं और अब भी हैं जिन के बखान अनेक पुस्तकों और जनश्रुतियों में विद्यमान हैं।...प्राचीन ग्रंथों और कवि वृत्तान्तों की खोज की थी तो उस प्रसंग में कुछ कविता ऐसी भी मिली जो काव्यकुशला कमलाओं के कोमल मुखारविंदों की निकली हुई थीं। हमने उसी को संग्रह करके यह छोटा-सा ग्रंथ बनाया है और 'महिला मृदुवाणी' नाम रखा है।' यह भूमिका 23 मई 1904 को जोधपुर, राजस्थान में लिखी गयी। इस संग्रह में कविरानी चौबे लोकनाथ जी स्त्री अर्धांगिनी जी, ठकुरानी काकरेची जी, कुशला, खगनिया, गिरिधर कविराय की स्त्री, चंद्रकला बाई, चंपादेरानी, छत्रकुंवरी बाई, जामसुता जाडेची जी, श्री प्रताप बाला, झीमा, पंडितानी तीजांजी, ताज, तुलछराय, पद्मा, बीरा, प्रतापकुंवरी बाई, मीराबाई, बाघेली श्री रणछोड़ कुंवरी जी, महारानी जी श्री रत्न कुंवरी बाई जी, रसिक बिहारी, रामप्रिया जी, रायप्रवीन या प्रवीनराय, बाघेली विष्णुप्रसाद कुंवर जी, बिरजूबाई, विरंजी कुंवर, बिहारी सतसई के कर्ता की स्त्री, बिहारीदास की पुत्री, ब्रजदासी, शेख रंगरेजन, श्री सरस्वती देवी, सहजोबाई, सुंदर कुंवरीबाई, हरीजी रानी चावड़ी जी जैसी 35 कवयित्रियों की रचनाएँ संकलित हैं। स्त्री साहित्येतिहास की दृष्टि से यह पहला उल्लेखनीय कार्य है। देखने की बात यह है कि रामचंद्र शुक्ल ने इसके पच्चीस वर्ष बाद हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा लेकिन उसमें मीराबाई के अलावा किसी कवयित्री को उल्लेखनीय नहीं समझा।
इसके साथ ही सन 1928 के लगभग ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निर्मल' द्वारा संपादित 'स्त्री कवि संग्रह' का पता मिलता है, जिसके पहले खंड में मीराबाई, सहजोबाई, दयाबाई, साईं, राजमाता रघुवंशकुमारी, सुभद्राकुमारी चौहान, तोरनदेवी लली, महादेवी वर्मा और दूसरे खंड में रसिक बिहारी, रत्नकुंवरी बीबी, प्रतापबाला, सुंदरकुंवरी बीबी, खगनिया, बुंदेलाबाला, रमादेवी, रामप्रिया, युगलप्रिया की कविताएँ संकलित हैं। 'प्रयाग महिला विद्यापीठ' के पाठ्यक्रम के लिए यह संग्रह बाबू रामेश्वर प्रसाद जी ने ज्योतिप्रसाद 'निर्मल' के संपादन में तैयार करवाया था। पुस्तक के पाँचवें संस्करण (1940) में प्रकाशक की टिप्पणी है—'...पुस्तक में कवयित्रियों का नाम जन्म संवत् के क्रम से न रखकर परीक्षा की सुविधा के अनुसार रखा गया है।' आगे चलकर ज्योतिप्रसाद 'निर्मल' ने ‘स्त्री कवि कौमुदी’ में अन्य कई कवयित्रियों मसलन शेख, छत्रकुंवरी बाई, प्रवीणराय, दयाबाई, कविरानी, रसिकबिहारी, ब्रजदासी साईं, प्रतापकुंवरी बाई, सहजोबाई, झीमा, चंपादे, विरंजीकुंवरी, प्रतापबाला, बाघेली विष्णुप्रसाद कुंवरी, रतनकुंवरी बाई, चंद्रकला बाई, जुगलप्रिया, रामप्रिया, रणछोड़ कुंवरी, गिरिराज कुंवरी सरीखी मध्यकालीन रचनाकारों से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर तक की हेमंतकुमारी चौधरानी, रघुवंशकुमारी, राजरानी देवी, सरस्वती देवी, बुंदेलबाला, गोपालदेवी, रमादेवी, राज देवी, रामेश्वरी नेहरु, कीरति कुमारी, ‘लली’, प्रियंवदा देवी और उसके बाद के दौर में भी रचनारत सुभद्राकुमारी चौहान, कुसुममाला को सम्मिलित कर लिया।
सन् 1931 में ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल' ने 'स्त्री कवि कौमुदी' को संकलित करने का उल्लेखनीय प्रयास किया, जिसमें मीराबाई, ताज, खगनिया, शेख, छत्रकुंवरी बाई, प्रवीणराय, दयाबाई, कविरानी, रसिकबिहारी, ब्रजदासी साईं, प्रतापकुंवरी बाई, सहजोबाई, झीमा, सुंदरकुंवरी बाई, चम्पादे, विरन्जीकुंवरी, रत्नकुंवरी बीबी, प्रतापबाला, बाघेली विष्णुप्रसाद कुंवरी, रतनकुंवरी बाई, चन्द्रकला बाई, जुगलप्रिया, रामप्रिया, रणछोड़ कुंवरी, गिरिराज कुंवरी सरीखी मध्यकालीन रचनाकारों से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर तक की हेमंतकुमारी चौधरानी, रघुवंशकुमारी, राजरानी देवी, सरस्वती देवी, बुंदेलाबाला, गोपालदेवी, रमादेवी, राजदेवी, रामेश्वरी नेहरु, कीरति कुमारी, तोरन देवी शुक्ल ‘लली’, प्रियंवदा देवी और उसके बाद के दौर में भी रचनारत सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, कुसुममाला सम्मिलित हैं। 'स्त्री कवि कौमुदी' के संपादक ज्योतिप्रसाद मिश्र का हवाला देते हुए इसकी ताज़ा पुनर्प्रस्तुति की भूमिका में कहा गया—'ग्रन्थ में लिखित दोनों भूमिकाएँ (ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ तथा रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ कृत) इस तथ्य से सहमत हैं कि हिंदी साहित्य में इतिहास लेखन सदैव लैंगिक पूर्वग्रहों का शिकार रहा है। इसलिए स्त्रियों का लेखन सामने नहीं आया। यदि आया भी तो, उसका समुचित उल्लेख साहित्यिक इतिहासों में प्रायः नहीं मिलता।' इन स्त्री रचनाकारों के अलावा भी कमला चौधरी, गोपालदेवी, तारा पांडे, पुरुषार्थवती देवी, प्रियंवदा देवी, बुंदेलाबाला (गुजराती बाई) महादेवी वर्मा, रघुवंश कुमारी, रमा देवी, राजकुमारी श्रीवास्तव, राजदेवी, राजराजेश्वरी देवी त्रिवेदी, रामकुमारी देवी चौहान, रामप्रिया, रामेश्वरी देवी गोयल, रामेश्वरी देवी मिश्र ‘चकोरी ‘रामेश्वरी नेहरु, विद्यावती कोकिल, से लेकर सुभद्राकुमारी चौहान, हेमंत कुमारी चौधरानी और होमवती देवी तक नवजागरण के दौर की कवयित्रियों की लंबी फेहरिस्त है। इसी क्रम में सन् 1933 में गिरिजादत्त शुक्ल और ब्रजभूषण शुक्ल ने प्रयाग से ‘हिंदी-काव्य की कोकिलायें’ शीर्षक आलोचनात्मक संकलन प्रकाशित किया, जिसकी प्रस्तावना में कहा गया—“हिंदी-साहित्य के स्वरुप निर्माण में हमारी देवियों ने जो भाग लिया है, उसकी ओर हिंदी के समालोचकों का ध्यान अभी विशेष रूप से आकृष्ट नहीं हुआ था। इस ग्रंथ के लेखकों ने इस अभाव की पूर्ति का उद्योग किया है।....जहाँ तक मुझे स्मरण है, हिंदी के पुरुष कवियों की कविताओं का भी ऐसा कोई आलोचनात्मक संग्रह नहीं है, जिसमें किसी प्रकार के वर्गीकरण का प्रयत्न किया गया हो, अथवा उनकी प्रवृत्तियों की आलोचना की गयी हो...' इस दृष्टि से देखें तो सन् 1933 में प्रकाशित यह पहली पुस्तक है जिसमें मीराबाई से लेकर लीलावती भंवर तक 31 कवयित्रियों की चुनिन्दा रचनाओं के साथ उनके रचना कर्म पर आलोचनात्मक टिप्पणी संकलित है। हालाँकि कवयित्रियों की रचनाओं पर जो टिप्पणियाँ की गयी हैं, वे बहुत सतही और एक सीमा तक प्रभाववादी हैं, उनमें किसी गहरे विश्लेषण का अभाव दीखता है। साथ ही नैतिकता के प्रति अतिरिक्त आग्रह का दबाव इस हद तक है कि संपादक-द्वय रचनाकारों को विषय-वस्तु के चुनाव सम्बन्धी सलाहें भी देते दीख पड़ते हैं, निश्चित रूप से इसे स्त्रियों पर लगायी जाने वाली ‘सेंसरशिप’ के रूप में देखा जाना चाहिए। मसलन रामेश्वरीदेवी मिश्र ‘चकोरी’ की चुनिदा कविताओं पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए संपादक द्वय लिखते हैं—'अभी चकोरीजी का अल्प वय ही है, फिर भी उन्होंने अपनी सहृदयता से काव्य-रसिकों को आनंद प्रदान करने की चेष्टा की है। आशा है, उनकी लेखनी, प्रौढ़ता प्राप्त होने पर, इस क्षेत्र में अपूर्व रस की वृष्टि करेगी। एक विनम्र प्रार्थना के साथ हम अपने इस निवेदन को समाप्त करते हैं और वह यह कि वे काव्य-साधना में अपने हृद्गत उद्गारों की अभिव्यक्ति में किंचित संयत होने का उद्योग करें।'
स्पष्ट है कि यह पुरुष दृष्टि से स्त्री लेखन पर की गयी टिप्पणी है जो इस बात की ओर भी संकेत करती है कि स्त्रियाँ लिख कर अपने आपको बतौर अभिकर्ता (एजेंसी) कैसे स्थापित करती हैं, पूरी सामाजिक संरचना को कैसे चुनौती देती हैं और इस तरह साहित्य और विशिष्ट ज्ञानधारा में दख़लंदाजी करती हैं—यह जानने के लिए विभिन्न जीवंत संरचनाओं के प्रतीकों से स्त्रियों को जोड़ कर देखने की ज़रूरत पड़ती है। हिंदी-साहित्य के संदर्भ में विचार करें तो स्त्री की रचनाशीलता के अधिकतर ज्ञात प्रसंग मुख्यतः मध्यवर्गीय हिंदू स्त्रियों के ही मिलते हैं। इससे इतिहास की जानकारी एकपक्षीय और एक रेखीय बन जाती है। यहीं पर इतिहास के पुनर्पाठ और आलोचनात्मक प्रतिमानों के पुनर्नवीकरण की ज़रूरत महसूस होती है। नामवर सिंह ने साहित्येतिहास की पुनर्व्याख्या के संदर्भ में सही ही कहा है—‘नवीन व्याख्याओं का उपयोग भर इतिहास नहीं है, इतिहास स्वयं में एक नयी व्याख्या है।’ इतिहास की समस्या से सम्बद्ध है रचना की आलोचना, उसके मूल्यांकन की समस्या, क्योंकि रचना के अभाव में इतिहास का लेखन असम्भव है। लेकिन ऐसी पूरी परम्परा जिसकी उपेक्षा कर दी गयी हो उसके बारे में रामचंद्र शुक्ल, नामवर सिंह या रामविलास शर्मा जैसे आलोचक मौन हैं।'
अक्सर यह शिकायत इतिहास लेखकों को रहती है कि इनमें से कई स्त्रियाँ ऐसी हैं जिन्होंने या तो छद्म नामों से लिखा या फिर इनके लिए किसी और ने लिखा और प्रसिद्धि इन्हें मिली। यह भी कि यदि कोई स्त्री उत्कृष्ट रचना करने में सक्षम हो भी गई तो उसके मूल्यांकन का मापदंड पुरुष ही रहे। इस बात को मैं शेख रंगरेजन के प्रसंग में स्पष्ट करना चाहूँगी। शेख रंगरेजन संवत १७१२ में जन्मे आलम नामक ब्राह्मण कवि की पत्नी थी। आलम ने धर्म परिवर्तन करके उससे विवाह किया था क्योंकि वे शेख की रचनात्मकता के कायल थे। उन दोनों का सम्मिलित काव्य संग्रह ‘आलम केलि’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिसमें कवित्त और सवैया छंद में ४०० पद संकलित हैं। लाला भगवानदीन ने शेख रंगरेजन की कविताई की प्रशंसा करते हुए कहा है—“शेख यदि आलम से बढ़कर नहीं हैं तो कम भी नहीं। प्रेम की जिस धारा का प्रवाह आलम में है वही शेख में। दोनों की रचनाएँ ऐसी मिलती जुलती हैं कि उनका एक दूसरे से पृथक करना कठिन हो जाता है। नायिका भेद और कलापूर्ण काव्य की दृष्टि से शेख को पुरुष कवियों की श्रेणी में रखा जा सकता है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता उसकी शुद्ध भाषा, सरल पद्धति और सुव्यवस्थित भाव-व्यंजना है। शेख के पहले और बाद में भी बहुत दिनों तक शेख जैसी ब्रजभाषा किसी भी कवयित्री ने नहीं कही।” अब यह भी देख लीजिये कि ‘स्त्री-कवि कौमुदी’ की भूमिका लिखने वाले श्रीरामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ का उसी शेख रंगरेजन की रचनात्मकता के बारे में क्या कहना है, वे लिखते हैं—“हो सकता है कदाचित शेख के स्नेहासव पान से मदोन्मत्त भावुक प्रेमी ने ही प्रेम-प्रवाद में आकर शेख के नाम से रचना की हो, जो शेख के नाम से प्रसिद्ध हो गयी हो।” स्पष्ट है कि स्त्री के लिखे के प्रति पुरुष आलोचकों और इतिहास-लेखकों की दृष्टि पूर्वाग्रह मुक्त कभी नहीं रही। वे यह समझ ही नहीं पाए कि रचनात्मक अभिव्यक्तियों के पीछे मनोसामाजिकी की प्रमुख भूमिका होती है। ऐसे किसी भी समाज में जहाँ आत्म को व्यक्ति से संवाद की छूट नहीं होती, पर्दा और चारदीवारी के भीतर जो भी, जैसे भी उपलब्ध हो सका—चाहे वह राससुंदरी देवी की तरह चैतन्य चरित के चुराकर फाड़े गए पन्ने हों या चूल्हे की राख में छिपाकर रखी गयी खड़िया हो, उसी को पढ़-गुन कर साहित्य लेखन में प्रवृत्त हुईं, जिन्हें व्यवस्थित औपचारिक शिक्षा कभी नसीब ही नहीं हुई, जिन्होंने सदियों से श्रोता और अधीनस्थ की ही भूमिका निभाई। भाषिक संस्कारों के नाम पर, शासक वर्ग के पितृसत्ताक मुहावरे और अभिव्यक्तियाँ मिलीं, या कामगार जन की भाषा जिनसे उनका रोजमर्रा का संपर्क रहा करता। ऐसे में, उनकी भाषा और मुहावरे पितृसत्तात्मक हों यही स्वाभाविक था, फिर जिन विषयों का चयन उन्होंने लिखने के लिए किया, वे पितृसत्तात्मक प्रभावों से मुक्त कैसे हो सकते थे!
नवजागरण के दौर की जिन रचनाकारों ने काव्य रचनाएँ कीं, उनके योगदान को आलोचकों द्वारा कभी खुले मन से स्वीकारा भी नहीं गया। रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ जिन्होंने कवयित्रियों के संग्रह की भूमिका लिखी, वे साहित्येतिहास में स्त्री रचनात्मकता की अवहेलना की बात स्वीकार करते हुए भी, उन्हें दोयम दर्जे की रचनाकार मानते हैं, लिखते हैं—“बोध-वृत्ति साधारणतया स्त्रियों में उतने अच्छे रूप में नहीं मिलती जितनी वह पुरुषों में मिलती है...इसलिए स्त्रियाँ भक्ति रचनाओं में ज्यादा रमती हैं अन्य विषयों की तरफ उतना आकर्षित नहीं होतीं”...गार्हस्थ्य सम्बन्धी विषयों में दक्षता प्राप्त करना स्त्रियों का एक परमोच्च कर्तव्य है।” स्त्रियों को मर्यादा सम्बन्धी दिशा-निर्देश देने से आलोचक नहीं चूके, आज भी नहीं चूकते ऐसे में स्त्रियों की बोध-वृत्ति सीमित नहीं होगी तो क्या होगा? सहज-स्वाभाविक मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति की छूट उन्हें थी नहीं, शिक्षा और बाहरी समाज से संपर्क के अवसर या तो रुद्ध थे या थे तो बहुत कम। सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक और निजी, ये चार तरह की सेंसरशिप उन पर हावी थी। ऐसे में वे या तो पुरुषों के पैटर्न पर समस्या-पूर्ति कर रही थीं, जिनमें बूंदी की चंद्रकला बाई, तोरन देवी सुकुल, रमा देवी, बुंदेला बाला की रचनाओं को देखा जा सकता है या शृंगार और नीतिपरक कविताओं की तर्ज़ पर लिखने वाली साईं, छत्रकुंवरी बाई जो कृष्णप्रेम की अभिव्यक्ति कर रही थीं। लेकिन ये किसी भी विषय पर लिखें, उनका लिखना अपने आप में ही, चली आ रही सामाजिक व्यवस्था में एक प्रकार का हस्तक्षेप है। गृहस्थी और दैनंदिन जीवन-चर्या में आकंठ डूबकर भी आत्माभिव्यक्ति के लिए व्याकुल सरस्वती देवी लिखती हैं :
‘जब लग मैं मैके रही लिखत पढ़त रहि नित।
अब घर पर परबस परी रहि नहिं सकति सुचित॥
गृहकारज व्यवहार बहु परे संभारन मोहिं।
लिखत पढ़न इक संग ही यह सब कैसे होहि॥
समाचार के पत्र जे आवत हैं मम पास।
तिनके देखन के लिए मिलत न मोहिं सुपास॥‘
स्त्रियाँ किस तरह चुपचाप तत्कालीन राजनीतिक परिवर्तनों को सुन-गुन रही थीं, इसके प्रमाण स्वरुप रानी गुणवती को देखा जा सकता है। ये वही रानी गुणवती थीं, जिनकी लिखी तीन पुस्तकों की चर्चा श्री रामनरेश त्रिपाठी ने ‘राजमाता दियरा जीवन चरित्र’ में की थी। ‘सूपशास्त्र’, ‘वनिता बुद्धि विलास’ और ‘भगिनी मिलन’ की रचना करने वाली गुणवती ने ११ जून १९२२ को कस्तूरबा गाँधी को लिखे एक पत्र में यह छंद लिखा :
‘सिन्धु तीर एक टिटहरी, तेहिको पहुंची पीर।
सो प्रन ठानी अगम अति, विचलत न मन धीर॥
तेहि प्रन राखन के लिए अड़ गए मुनि बीर।
परम पिता को सुमिरि कै सोखेऊ जलधि गंभीर॥‘
इस छंद से रानी गुणवती के काव्य कौशल के साथ-साथ उनकी राजनैतिक सोच और पकड़ परिलक्षित होती है। इस तरह प्रतिरोध के स्वर हमें पूरे नवजागरण के दौरान सुनाई देते हैं, लेकिन उनको सुनने और देखने में नज़रिए का भेद होने से कवयित्रियाँ, पुरुष रचनाकारों जैसी मेधावी नहीं जान पड़तीं। जिस तरह की अमूर्त भाषा का प्रयोग ये स्त्रियाँ करती हैं, उसका विश्लेषण विशिष्ट संवेदना की मांग करता है। इसे महादेवी की कविता के माध्यम से भली-भांति समझा जा सकता है–
‘शलभ मैं शापमय वर हूँ!
किसी का दीप निष्ठुर हूँ!
ताज है जलती शिखा
चिनगारियाँ शृंगारमाला;
ज्वाल अक्षय कोष सी
अंगार मेरी रंगशाला;
नाश में जीवित किसी की साध सुन्दर हूँ!’
नंददुलारे वाजपेयी ने इसकी व्याख्या कवयित्री के आध्यात्मिक उत्त्थान के लिए व्याकुल आत्मा के सन्दर्भ में की है, जबकि इसे निजी अनुभूतियों की अमूर्त अभिव्यक्ति के तौर पर समझा जाना ज़रूरी है। ऐसा समय और समाज जहां स्त्री को नितांत निजी कोना उपलब्ध नहीं, वहां उसकी चुप्पी के भी मायने हैं और मितकथन के भी। स्त्रियों के लिखे हुए ये ‘टेक्स्ट’ हमें चेतावनी देते हैं कि मौन और मितकथन का अर्थ रिक्ति नहीं है, जो अपनी बात को कहने के लिए प्रकृति और आत्मा-परमात्मा के रूपक का सहारा ले रही है वह इसलिए नहीं कि ईश-भक्ति में मुब्तिला उसका मन सांसारिक रह ही नहीं गया है या उसके पास कहने को और कुछ नहीं है, बल्कि इसकी ज्यादा सम्भावना है कि उसके पास कहने को इतना ज्यादा है कि योग्य श्रोता (लैंगिक विभेद से मुक्त मस्तिष्क वाला श्रोता) मिलना मुश्किल है। ये हमारे ज्ञान और संवेदना की सीमा है जो हमें उसकी चुप्पी के पीछे छिपे अर्थ-सन्दर्भों को खोलने नहीं देती। कुछेक चुने हुए विषयों पर ही लिखना, लौकिक प्रेम की प्रच्छन्न अभिव्यक्ति के लिए भक्ति, अध्यात्म और राष्ट्रप्रेम का सहारा लेना, ऐसे ही सीमाबद्ध आलोचकों को ध्यान में रखकर की गयी ‘सेल्फ सेंसरशिप’ है। अमृत राय ने महादेवी पर टिप्पणी करते हुए लिखा है—“महादेवी के काव्य को मूलत: आत्मकेन्द्रिक, आत्मलीन कहना ठीक है; अपनी ही पीड़ा के वृत्त में उसकी परिसमाप्ति है। संसार की पीड़ा का स्वत: उसके लिए अधिक मूल्य नहीं है, मूल्य यदि है तो कवि की पीड़ा के रंग को गहराई देने वाले उपादान के रूप में।”
स्त्री मात्र को ही भावना और अश्रु से जोड़कर उसे कम बौद्धिक या अबौद्धिक मानने में परंपरा से सुविधा रही है। महादेवी समेत अधिकांश कवयित्रियों को भावना और संवेदना की कवयित्रियाँ कहा गया है। स्त्रियाँ भी बड़ी ही विनम्रता से स्वयं को निचले दर्जे का रचनाकार स्वीकारती रही हैं। इसे अपने लेखकीय अस्तित्व को बचाए रखने की रणनीति के रूप में देखा जाना चाहिए। मुक्तिबोध ने सुभद्राकुमारी चौहान के सन्दर्भ में उनकी बौद्धिकता को रेखांकित करते हुए लिखा है—“सुभद्राजी की भावुकता कोरी भावुकता नहीं है, बाह्य जीवन पर संवेदनात्मक मानसिक प्रतिक्रियाएँ हैं। यही कारण है कि उनकी कविताओं में भाव मानव-सम्बन्ध से, मानव-सम्बन्ध विशेष परिस्थिति से, विशेष परिस्थिति सामाजिक-राष्ट्रीय परिस्थिति से, एक अटूट सम्बन्ध-शृंखला में बंधी हुई है। भाव के सारे सन्दर्भों का निर्वाह उनके काव्य में हो जाता है। इससे उनकी वास्तविक भाव-सम्पन्नता का, संवेदनशीलता का, चित्र हमारे सामने खिंच जाता है।”
स्त्रियों के लिखे हुए को भावुकता का उच्छलन कहकर उन्हें द्वितीय श्रेणी की रचनाकार ही माना गया। सुभद्राकुमारी चौहान और महादेवी वर्मा की अनेक कविताएँ, भावुक कविताओं की पुनर्व्याख्या करने के लिए हमें विवश करती हैं। कई स्थानों पर भावुकता का इस्तेमाल वे एक स्ट्रेटज़ी के रूप में करती हैं, मसलन सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता को लें—
‘बहुत दिनों तक हुई प्रतीक्षा
अब रूखा व्यवहार न हो
अजी, बोल तो लिया करो तुम
चाहे मुझ पर प्यार न हो।
जरा-जरा सी बातों पर
मत रूठो मेरे अभिमानी
लो, प्रसन्न हो जाओ, गलती
मैंने अपनी ही मानी।
मैं भूलों की भरी पिटारी
और दया के तुम आगार,
सदा दिखाई दो तुम हँसते
चाहे मुझसे करो न प्यार।‘
ध्यान देने की बात है कि परिवार के अनुशासन से राष्ट्र सेवा के नाम पर मुक्ति—भले वह कुछ ही समय के लिए हो, इन कवयित्रियों के लिए कितना महत्त्व रखती है! कलम पकड़ना उसने सीख लिया है, कवयित्री के रूप में वह स्थापित भी हो रही है लेकिन जहाँ गृहस्थी और पति की बात आती है, वह किसी से मुठभेड़ करने के पक्ष में नहीं है। झुक कर, विनम्रता से स्वयं को भूलों भरी पिटारी बताते हुए समझौते के पक्ष में है, ज्यों वह किसी रूठे बच्चे को मना रही हो। भावुकता और विनम्रता यहाँ पर प्रतिरोध के औज़ार के रूप में समझे जाने चाहिए। जिस स्त्री के भावुक पद्य को पढ़कर हम बारंबार द्रवित हो उठते हैं, उसका मौन और अश्रु हमें रुला-रुला जाते हैं। दरअसल यह पितृसत्ता और तयशुदा व्यवस्था के भीतर अपनी निज की पाई हुई स्वाधीनता की रक्षा करने की बौद्धिक रणनीति है। यदि हम इस भावुक साहित्य की तरफ गौर फरमाएँ तो इन कवयित्रियों का रुदन, करुणा ये सब हमें भावुक पाठक बनाती है और हमारा ध्यान हमारे बहते हुए अश्रुओं पर चला जाता है; और यहीं पर रचनाकार सफल हो जाती हैं। सवाल यह है कि क्या इस भावुक कविता को हम एक साहित्यिक उपविधा के रूप में देख सकते हैं, जो प्रत्येक युग के साहित्य में अनिवार्यतः विद्यमान है, जिसे भारतेंदु की कविता में भी सुना जा सकता है। ‘कहाँ करूणानिधि केशव सोये, जागत नेक न जदपि बहुबिधि भारतवासी रोए।‘ जिसमें निजी मुक्ति की कामना का उद्दात्तीकरण करके उसे राष्ट्रमुक्ति से जोड़ दिया गया, इसी तरह महादेवी, जहाँ वे कहती हैं—‘कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो’ जिनकी निजी मुक्ति की आकांक्षा राष्ट्र मुक्ति और उससे भी आगे स्त्री मात्र की मुक्ति से जुड़ जाती है। भावुकता के इस उद्दात्तीकरण को क्या हम बतौर साहित्यिक मूल्य देख सकते हैं? अब तक के सौन्दर्यशास्त्रीय चिंतन के जो प्रतिमान रहे हैं, उनमें स्त्री को तुच्छ मानवी के रूप में चित्रित किया गया या उसमें देवत्व के सभी काल्पनिक गुणों की प्रतिष्ठा कर दी गयी है। सामाजिक धरातल पर उसे तुच्छ समझने का भाव ही प्रमुख है, जिसमें यह निहित है कि स्त्री का लिखना हाशिये का लेखन है, उसके लिखे का अर्थ ही है कि उसमें घरेलू अर्थ-छवियाँ और दैनंदिन के खटराग के वर्णन प्रमुख होंगे, जिसे मुख्यधारा के स्तर तक पहुँचने के लिए अभी लम्बी कवायद की ज़रूरत होगी। उसकी कविता में गलदश्रु भावुकता होगी, यदि वह श्रेष्ठ रचना लिख भी ले तो उसके पुरुष प्रेरणा स्रोत ढूँढ़े जायेंगे। शायद इसीलिए उस पर हमेशा आदर्श भारतीय नारी बनने का दबाव तारी रहता है, सुभद्राकुमारी चौहान लिखती हैं—
‘पूजा और पुजापा प्रभुवर,
इसी पुजारिन को समझो;
दान-दक्षिणा और निछावर,
इसी भिखारिन को समझो।‘
अकादमिक दृष्टि से भावुकता को देखना बहुत दूर तक सही नहीं हो सकता, इसके बावजूद नवजागरण की स्त्री कविता और आज की स्त्री-कविता को अंतर्ग्रंथित करने का काम यह भावुकता ही करती है। सुजान क्लार्क ने सेंटीमेंटल मॉडर्निज़्म शीर्षक पुस्तक में भावुकता और आधुनिकता का पारस्परिक सम्बन्ध विश्लेषित करते हुए लिखा है : “स्त्रीवाद को एक उत्तर आधुनिक पहचान की आवश्यकता है।” रचनाकार भावुकता को एक रणनीति के तौर पर लेती हैं, इसलिए उन्नीसवीं शताब्दी की भावुक रचनाकारों और बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की आधुनिक स्त्रियों में आपस में एक गहरा संबंध है। ये दोनों ही लिखकर अपने-आप को विविध विषयों के माध्यम से अभिव्यक्त करती हैं, लिंग और जेंडर के परे अपने-आप को स्वतंत्र एजेंसी के रूप में पहचनवाने की कोशिश करती हैं। उन्नीसवीं सदी और इस सदी की रचनाकारों को ‘नैतिक ऊर्जा’ के सन्दर्भ में समान धरातल पर विश्लेषित किया जा सकता है। इस नैतिक ऊर्जा के कारण ही पाठक को सीधे-सीधे संबोधित करने का साहस आता है, जो भक्तिकाल से लेकर नवजागरण की कविताओं में दीखता है। सच है कि दृष्टिकोण को बदलकर इतिहास की बहुत सारी दरारें भरी जा सकती हैं।
यह तय है कि शोध और आलोचना की भी अपनी सीमाएँ होती हैं और यह बात रामविलास शर्मा जैसे आलोचकों पर भी लागू होती है जिन्होंने पूरे साहित्येतिहास में एक भी स्त्री रचनाकार को उल्लेखनीय नहीं माना, जबकि भक्ति और रीतिकाल में हमें स्त्रियों की पूरी परंपरा मिलती है जो रचनारत थीं। लेकिन क्या कारण है कि बरसों तक मीरां, सहजोबाई और ताज सरीखी दो-चार के अलावा इतिहास की किताबों में स्त्रियों का ज़िक्र नहीं किया गया? जिन स्त्रियों ने लिखा भी वे अक्सर दूसरों के नाम से या छद्म नामों से छपीं। क्या हम इसके मनोसामाजिक कारणों को बतौर पाठक और आलोचक देख पाने में सक्षम होते हैं, जबकि हर युग की आवश्यकतानुसार इतिहास भी पुनर्व्याख्या की मांग करता है। ऐसे में नवजागरण ही नहीं प्रत्येक दौर की स्त्री रचनाशीलता की पुनर्व्याख्या होनी चाहिए। समाज और सत्ता से स्त्री के बदलते संबंध, उसके लेखन के भीतर छिपी हुई दुविधाएँ, जो दरअसल उसकी ईमानदारी का परिचय देती हैं, सर्वोच्च सत्ता को लौकिक रूप में पहचानने की कोशिश, अपने नाम की जगह ‘अबला पतिप्राणा’ जैसे पदों का प्रयोग, वर्तमान सन्दर्भों में विवेचन करके ही स्त्री साहित्येतिहास की मुकम्मल समझ विकसित की जा सकती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिकाल के सन्दर्भ में कहा था कि इसमें मौलिकता का अभाव है। नवजागरण के दौर में कई आंदोलनों के सामने आने से मौलिकता एक आलोचनात्मक पद के रूप में विकसित हुई। इतिहास को देखने और इतिहास में शामिल होने योग्य विषयों की सारवस्तु बदली। हमने मौलिकता की सामाजिक भूमिका को देखना शुरू किया, साथ ही समाज को एक आलोचनात्मक दलील (क्रिटिकल आर्गुमेंट) के रूप में देखने की कोशिश भी। भक्तिकाल की तरह इस दौर के रचनाकारों में भी लोकचिंता अपनी पूरी अकादमिक ईमानदारी के साथ दिखाई पड़ती है। इस लोक-चिंता के स्वरुप को दलील के रूप में देखे जाने की ज़रूरत है। आज की आलोचना इतिहास का सन्दर्भ (रेफ़रेंस) तो देती है लेकिन आज के लिए उसे ‘प्रसंग’ के रूप में इस्तेमाल नहीं करती। इतिहास आज कितने स्तरों पर संघर्ष करता है, उससे प्रसंग का निर्माण होता है। स्त्रियों के लिखे हुए को इतिहास से, अपने मूल्यांकन के लिए किन-किन स्तरों पर जूझना-टकराना पड़ता है, कैसे वे लिखकर प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करती हैं, इससे ही ‘प्रसंग’ पैदा होता है। आज के युग का इतिहास जो एजेंडा देता है, रचनाकार उससे टकरा कर ही ‘प्रसंग’ का निर्माण कर सकता है। इतिहास ही नहीं इतिहास लेखन की पूरी परंपरा से टकराती, उपेक्षित ये स्त्रियाँ क्या अपने लिखे हुए के पुनर्विश्लेषण की मांग नहीं करती हैं?
स्त्री साहित्येतिहास के सन्दर्भ में इतिहास में स्त्री लेखन की जगह और काल निर्धारण का प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। यदि स्त्री-मुक्ति की दृष्टि से विचार किया जाए तो सामाजिक, सांस्कृतिक या वैचारिक बिन्दुओं पर पुरुषों को मिली छूट और स्वतंत्रताएँ बिलकुल भिन्न तरीके की रहीं और लगभग स्त्रियों के नितांत विपरीत। यूरोपीय पुनर्जागरण को देखने से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। शेष यूरोप की अपेक्षा इटली में १३५० से १५३० के बीच ज्यादा तेज़ी से आधुनिकता का प्रवेश हुआ। वस्त्र उद्योग और कपड़ा मिलों ने उत्तर सामंती सामाजिक संबंधों को नए सिरे से निर्मित किया। उद्योग धंधों के विकास और श्रम-रोजगार के अवसरों ने नए ढंग की सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के दरवाज़े खोले, जिसके लिए यह पूरा युग जाना जाता है। बावजूद इसके, स्त्रियों के लिए इस पुनर्जागरण का कोई अर्थ नहीं था। औद्योगिक विकास और श्रम के अवसरों ने स्त्रियों पर नकारात्मक प्रभाव ही डाला। प्राक-पूंजीवादी व्यवस्था, राज्य और उनके द्वारा बनाये हुए सामाजिक संबंधों ने पुनर्जागरण के दौर की स्त्रियों की स्थिति को उनकी सामाजिक हैसियत के अनुरूप अलग-अलग ढंग से प्रभावित किया। आभिजात्य और बुर्जुवा वर्ग की स्त्रियों के लिए नवजागरण (रेनेंसा) का अर्थ वही नहीं था जो साधनहीन, धनहीन स्त्री के लिए था। इसके अतिरिक्त जब भी हम पुनर्जागरण काल में स्त्री-पुरुष समानता या उनको मिले समानाधिकारों की बात करते हैं, हमें स्त्रियों के मुद्दे पर उनको मिली स्वतंत्रता के सन्दर्भ में अवश्य सोचना चाहिए। इस दृष्टि से जान केली के अनुसार चार बिन्दुओं पर सोचा जा सकता है—
1. पुरुष यौनिकता की तुलना में स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण
2. स्त्रियों की आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भूमिकाएँ (स्त्री-पुरुष के बीच श्रम विभाजन, स्त्रियों का संपत्ति पर अधिकार, राजनीतिक अधिकार, श्रम के लिए मिलने वाले पारिश्रमिक की दर-पुरुषों की तुलना में, शिक्षा और रोज़गार के अवसर आदि)
3. समाज की सामूहिक सोच के निर्माण में स्त्रियों की सांस्कृतिक भूमिका पर विचार साथ ही इस कार्य के लिए उन्हें शिक्षा की कैसी सुविधाएँ मुहय्या करवाई गयी हैं
4. समाज में स्त्रियों के बारे में किस तरह की विचारधारात्मक निर्मितियाँ कार्य करती हैं? तथा कला, साहित्य और दर्शन के अंतर्गत किस तरह की स्त्री-छवि का अंकन किया जाता है?
वैचारिक मानदंड के अंतर्गत हमें दो बातों पर ध्यान देना चाहिए, पहला तो अनुमान के आधार पर ये अंदाजा लगाना कि किसी समाज में स्त्री की वास्तविक स्थिति क्या है और स्त्रियाँ अपने बारे में क्या और कैसे सोचती हैं? पुरुषों द्वारा लिखे हुए साहित्य में स्त्री-यौनिकता का प्रश्न था ही नहीं, यहाँ तक कि पश्चिम के पुनर्जागरण में भी स्त्री-यौनिकता की भूमिका पर नज़र डालने से कुछ दिलचस्प बातें सामने आती हैं। ध्यान रहे कि यह वही पश्चिम है जहाँ स्त्री-शिक्षा पर सबसे ज्यादा बल दिया गया। यौनिकता के सम्बन्ध में पुनर्जागरण के दौर में स्त्री मुद्दों मसलन प्रेम, विवाह, शिक्षा, परिवार के सम्बन्ध में पितृसत्तात्मक समाज का नजरिया क्या भारतीय समाज से अलग था या उनकी यौनिकता के बारे में वहाँ भी अवकाश का उतना ही और वैसा ही अभाव था जैसा कि भारत में। इसके अतिरिक्त निजी संपत्ति पर आधिपत्य के सन्दर्भ में पश्चिम में स्त्रियों की तुलनात्मक रूप से क्या स्थिति थी, यह जानना ज़रूरी है।
पुनर्जागरणकालीन स्त्री ने मध्यकालीन सामंती समाज से प्राक-आधुनिक राष्ट्र राज्य तक जो रास्ता तय किया उससे परिवार और राजनीति की संरचना में आमूल बदलाव देखे गए। इस दौर में स्त्री नैतिकता के नए प्रतिमान गढ़े गए, बोकाशियो और अरस्तू जैसे विचारकों ने स्त्रियों के लिए दैहिक शुचिता, मानसिक पवित्रता को अनिवार्य जीवन मूल्यों के रूप में घोषित कर दिया। साथ ही पब्लिक स्फियर में पुरुष की श्रेष्ठता को बारंबार स्थापित करने का प्रयास किया गया और ऐसे सब मामले जिनमें नीति-निर्धारण या नेतृत्व की ज़रूरत नहीं होती, उनमें स्त्रियों को स्थान दिया गया। रेनेसां के सम्पूर्ण विचार में स्त्री के लिए घरेलू देवदूती की भूमिका तजवीज़ की गयी, एथेंस को इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है जहाँ कला और बौद्धिकता के उत्कृष्ट माहौल में भी स्त्रियों के लिए घर की चारदीवारी को ही सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता था। समूचे दरबारी साहित्य में स्त्रियों के प्रति रुढ़िग्रस्त मानसिकता के दर्शन होते हैं, जिसके पीछे सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों को देखा जा सकता है। ११ वीं और १२ वीं शताब्दी में दरबारों में जो प्रेम सम्बन्धी काव्य दांते जैसे कवियों ने लिखा उससे एक नई तरह की साहित्यिक परंपरा की शुरुआत हुई, जिसने मध्यकालीन प्रेम-सम्बन्धी अवधारणाओं और वर्जनाओं की जगह प्रेम और नैतिकता का एक नया ही आदर्श सामने रखा। इससे पहले की दरबारी कविता सामंतशाही मूल्यों से संत्रस्त कविता थी, जिसमें किसी अधीन या किसान स्त्री की कामना करने वाले सामंत को प्रेरित करने वाले स्रोत थे, इस सन्दर्भ में कुलीन या सामंत के लिए कोई नैतिक बंधन नहीं था, दूसरी तरफ स्त्री के लिए प्रेम का अर्थ था कि वह प्रेमपात्री बनकर ही ख़ुश रहे और प्रेमी की प्रत्येक इच्छा का सम्मान करे, उसे प्रसन्न रखे; दरबारी प्रेम दरअसल प्रेमियों के बीच पारस्परिक स्वच्छन्दता की वकालत करता था। लेकिन दूसरे ढंग से देखें तो इस तरह का प्रेम आभिजात्य और कुलीन स्त्रियों को ही प्रेम करने करने का अधिकार देता था, जबकि अधीनस्थ और ग़रीब स्त्रियाँ प्रेम पात्र बनकर और ज्यादा अधीनस्थ बन जाती थीं। दरअसल दरबारी किस्म के प्रेम में अधीनता के कई आयाम थे—सबसे पहले तो स्त्री को घरेलू और पालतू बनाना, जिसके लिए भले ही स्त्री के आगे घुटने टेककर प्रेम की भिक्षा मांगनी पड़े, या विनम्रतापूर्वक प्रेम-निवेदन करना। दूसरे स्त्री को ऐसे भावात्मक नियंत्रण में रखना कि वह स्वतंत्रता की कल्पना भी न कर सके और प्रेम का यथोचित प्रतिदान देने के लिए निरंतर प्रस्तुत रहे। तीसरे उससे इस योग्य बनाना कि वह पति/प्रेमी के प्रति कर्तव्यशील, पवित्र और ईमानदार रहे, जबकि सामंत या जमींदार और स्त्री के सम्बन्ध एकरैखीय नहीं हो सकते थे। पितृसत्तात्मक व्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुरूप ये सम्बन्ध बदलते रहते थे, और इस तरह दरबारी-प्रेम दाम्पत्य संबंधों से बिलकुल अलग और स्वतंत्र हुआ करते थे। पारिवारिक सम्बन्ध अपनी गति और सीमा में चलते रहते थे, उनका सामंत की अन्यान्य प्रेमिकाओं से कोई लेना-देना नहीं होता था। एक सामंत की एकाधिक प्रेमिकाएँ हो सकती थीं और वह पत्नी से यौन शुचिता की अपेक्षा रखता था, वहीं प्रेमिका से इस तरह की मांग करना संभव नहीं था क्योंकि विवाहेतर प्रेम अलग था और वह विवाह-संस्था को कहीं से भी ध्वस्त नहीं करता था। लेकिन कलात्मक सृजन के लिए विवाहेतर सम्बन्ध ही महत्वपूर्ण विषय बना। ऐसा नहीं था कि इससे विवाह संस्था नितांत अप्रभावित ही रही, लेकिन उसकी चरमराहट और टूटन सामंतशाही के अंतर्गत अति सामान्य प्रवृत्ति के रूप में पहचानी गयी। सवाल यह है कि ऐसे सम्बन्ध आखिर ‘अवैध’ माने जाने के बावजूद समाज में चलते कैसे रहे? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि विवाह एक ऐसा सम्बन्ध था जो दूसरों के द्वारा स्थिर किया हुआ होता था, सामाजिक जीवन के निर्वहन के लिए विवाह को ज़रूरी माना गया। चर्च द्वारा भी विवाहेतर संबंधों को हीन माना जाता था लेकिन इस तरह के दरबारी प्रेम (courtly love) या विवाहेतर संबंध को वैधता भी प्रदान की। ईसाइयत में प्रचलित प्रेम की अवधारणा ने इसे परिपुष्ट भी किया। ईसाईयत में प्रेम को सर्वोपरि माना गया और प्रेम की उद्दात्तता में यौनेच्छा का विरेचन करने पर बल दिया गया। धीरे-धीरे विवाहेतर संबंधों में प्रेम और सेक्स का मिश्रण हो गया और ईसाईयत के उपदेश किसी काम न आ सके और ऐसे संबंधों पर सामन्ती समाज की खलबलियाँ मंद पड़ने लगीं। धन और साधन संपन्न लोग चर्च के उपदेशों को उसी सीमा तक ग्रहण करते थे, जिस सीमा तक वह उनके निहित हितों के साधन में सहायक था।
जान केली के अनुसार दरबारी प्रेम के स्वरुप में निरंतर बदलाव आते रहे। बारहवीं शताब्दी के दौरान इस तरह का प्रेम और आकर्षण दरबारों में हास्य और मज़ाक का विषय भी बना और बहुत सारा साहित्य विवाहेतर प्रेम संबंधों और प्रसंगों को लेकर मनोरंजक साहित्य भी लिखा गया। Adultery या अवैध प्रेम संबंधों को लेकर चर्चाएँ भी ख़ूब हुआ करती थीं। इन सबके बीच स्त्री की चतुराई, मूर्खता, सौन्दर्य और धोखों के क़िस्से और चर्चे दरबारों में चर्चा का आम विषय थे। उधर स्त्री से यह अपेक्षित था कि एक ओर वह विवाह में पति को भी प्रसन्न रखे, दावतों का आयोजन करे और दूसरी ओर प्रेमी के प्रति भी समर्पित रहे। शुचिता और नैतिकता के मिश्रण और द्वंद्व में ‘प्रेम’ एक आकस्मिक घटना के रूप में सामने आया करता। अवैधता बहुत तरह की सावधानी की मांग करती थी लेकिन प्रेम ऐसे संबंधों में भी विशुद्ध प्रेम की इरोटिक प्रकृति से इंकार नहीं किया जा सकता। इसकी अपेक्षा पुनर्जागरण के दौर की स्त्री अपेक्षाकृत ज्यादा स्वतंत्र हुई। वह प्रेम सम्बन्ध रखने या न रखने के लिए स्वाधीन थी। स्पष्टत: यह वैचारिक मुक्ति की ओर संकेत करता है, जिसमें स्त्री अपनी इच्छा से सम्बन्ध रखने की दिशा में कदम बढ़ाती दीखती है। ऐसे बहुत से साहित्यिक साक्ष्य मिलते हैं जिनमें स्त्री विवाहेतर सम्बन्ध रख रही थी—जिसमें वह स्वेच्छा से आवाजाही भी कर रही थी। आदान-प्रदान के सम्बन्ध के बावजूद। क्या ये प्रसंग सिर्फ़ साहित्य का विषय थे या सामाजिक परिस्थितियाँ भी स्त्री के प्रति मानसिक अनुकूलन को बदल रही थीं? लेकिन स्त्री की पवित्रता की पारंपरिक अवधारणा और पुरुष पर उसकी निर्भरता के बावज़ूद प्रेम संबंधों में स्वच्छंद आवाजाही आश्चर्य पैदा करती है। विवाहेतर और दरबारी प्रेम सम्बन्ध एक तरह का स्टेटस सिम्बल भी था, और बहुत प्रचलित था। समूचे मध्यकालीन यूरोपीय साहित्य में परस्त्री प्रेम की कविताएँ और शृंगार प्रसंग भरे पड़े हैं, यह तभी संभव था जब पितृसत्ता इसे प्रश्रय और सहयोग देती क्योंकि चर्च की तयशुदा नैतिकता इसके खिलाफ़ पड़ती थी। हालाँकि शुरूआती दौर में चर्च और पुरुष प्रधान समाज को इस तरह के संबंधों से कोई दिक्कत नहीं थी, क्योंकि इसमें पुरुष के लिए ढेर स्वतंत्रता थी। दिक्कत तब शुरू हुई जब स्त्रियाँ भी अपनी यौनिकता को लिए सामने आने लगीं। जहाँ ईसाईयत का मूलाधार परदुःख कातरता, करुणा और प्रेम था, वहीं साहित्य में ऐसे प्रेमी का करुण चित्रण होने लगा, जो अपने मालिक की पत्नी से प्रेम करता है, निवेदन करता है और उसके लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार रहता है। वह स्वामी को धोखा देता है पर स्वामिनी की सेवा करने के लिए, उसकी प्रसन्नता के लिए हरदम तैयार रहता है। इस तरह का प्रेम वैधता की श्रेणी में नहीं आता था, जो इस बात की तरफ़ भी संकेत करता है कि अधिकतर आभिजात्य विवाह-सम्बन्ध किसी राजनैतिक लाभ या धन के लिए स्थिर होते थे, जिनमें प्रेम और भावात्मक लगाव का अभाव होता था। दरबारी प्रेम को विषय बनाकर लिखे गए साहित्य से ऐसी भावनाएँ विरेचित भी होने लगीं और पारंपरिक साहित्य से उसकी टकराहट भी बढ़ी। सामंती माहौल में स्त्री की यौनिक और अन्य आवश्यकताओं में कोई फ़र्क नहीं किया जाता था और परिवारों की आतंरिक संरचना में धर्म और चर्च का भय भी अंतर्गुम्फित था। दूसरी तरफ़ ऐसे सामंती परिवार जहाँ संपत्ति का उत्तराधिकार स्त्री को मिलता था वहाँ पति उसकी पूरी खानदानी संपत्ति की देखभाल और प्रबंधन किया करता था, ऐसी स्त्री से विवाह सम्बन्ध बनाने के लिए अच्छे-अच्छे परिवारों के व्यक्ति आतुर रहते थे। पति या प्रेमी से सुने हुए अनुभवों और कभी-कभी स्वयं उपस्थित रहकर भी स्त्रियाँ राजदरबार में कविताएँ और गीत लिखती थीं, जिनका मूल स्वर रोमांटिक होता था। रनिवासों और अन्तःपुरों में ऐसे नाटक भी खेले जाते थे जो मुख्यत: प्रेम पर आधारित होते थे। प्राक-आधुनिक युग आते-आते दरबार सिर्फ़ दिखावे की चीज़ रह गए थे लेकिन अब भी साधारण स्त्रियों के लिए राजनीतिक सत्ता या नेतृत्वकारी भूमिका प्राप्त करना दूर की बात थी, बावजूद इसके कि कुछ स्त्रियाँ सफल शासक भी हुईं। लेकिन आम तौर पर स्त्री के प्रति समाज का जो रवैया था उसे नोबेलिटी पर लिखी पुस्तक में देखा जा सकता है जिसमें स्त्रियों से शिक्षित होने के साथ-साथ अच्छी नृत्यांगना, गायिका, चित्रकार, सुंदरी और आकर्षक व्यक्तित्वशाली बनने की अपेक्षा की गयी है। इस दिनों स्त्री से अपने आप को ऐसा बनाने की अपेक्षा की गयी जो दूसरे को प्रसन्नता और जीवन्तता से भर दे। लेकिन आकर्षक दीखना और आकर्षित करना ये दो बातें थीं, जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण थीं, जबकि दरबारों में चर्चा का विषय था राजनीति और युद्ध। वह स्त्री जो दरबार में आती-जाती थी उससे यह अपेक्षा की जाती थी कि वह आकर्षित करे, लुभाए लेकिन नीति-निर्धारण या राजनीतिक मसलों पर कोई राय न रखे। उसका युवा और आकर्षक दीखना, हाव-भाव संचालन में सावधानी बरतना ही ज़रूरी था, दरबारों में अक्सर पुरुष ही वक्ता की भूमिका में होते थे और स्त्रियाँ श्रोता। स्त्रियों को कैसा दीखना, कैसा होना चाहिए, इसके बारे में भी पुरुष ही सोचते थे।
रेनेसां के दौर की स्त्रियों की रचनाओं के कथ्य और परिवेश पर बीसवीं शताब्दी में ही ध्यान दिया गया, जब उनकी रचनाओं के संग्रह प्रकाश में लाने की कोशिशें हुईं। इससे पहले माना जाता था कि दरबार से सम्बद्ध एवं दरबारी साहित्य से प्रभावित स्त्रियाँ पुरुषों की तर्ज़ पर कुछ कविताएँ रच रही थीं और शिक्षित होने का अधिकार और सुविधा उन्हीं के पास थी, इसलिए साहित्येतिहास में उन्हीं का ज़िक्र भी आया और विभिन्न भाषाओं में उन्हीं के अनुवाद भी प्रस्तुत किये गए। इनसे आगे के दौर में रेनेसां ने कई छंदबद्ध रचनाकार, स्त्री नाटककार उत्पन्न किये, जिनकी रचनाओं की उपेक्षा की गयी, जबकि यदि सिर्फ़ इंग्लैण्ड की कवयित्रियों की रचनाओं को उदाहरण स्वरुप देखा जाये तो रेनेसां के दौर की स्त्री रचनात्मकता के विभिन्न आयाम सामने आ सकते हैं, जो इतिहास की विस्मृत-उपेक्षित कड़ियों को शृंखलाबद्ध करने और पुरुष-दृष्टि से लिखे साहित्येतिहास को चुनौती देते हैं। इन स्त्रियों की रचनात्मकता का क्षेत्र बहुआयामी है—मातृत्व, प्रेम, आध्यात्मिकता, सांसारिक, भौतिक समस्याएँ, उनके सामाजिक रुझान, स्वयं को स्थापित करने का प्रयास और पितृसत्ता को चुनौती देती रचनाकारों को संज्ञान में लेना ज़रूरी है। इस दौर की पहली कवयित्री इज़ाबेला व्हिटनी की पहली कविता १५७३ में छपी थी। वह शहर से गुज़ारिश करती है कि उसे गुमशुदगी में ही दफ़न कर दिया जाए—
“मुझे गुमशुदगी में दफ़न कर दो
और कभी मेरा नाम भी मत लो”
इज़ाबेला व्हिटनी, एलिजाबेथ फर्स्ट, एनी सेसिल दे वेरे, मैरी सिडनी, मैरी रोथ जेन, एलिज़ाबेथ कवेंडिशएनी द्रोविस, एमिलिया लान्येर, एमिलिया लान्येर, राचेल स्पेघट एलिस सटक्लिफ, एन्नी ब्रोड्स्ट्रीट जैसी स्त्रियाँ इस दौर के प्रारंभ में लिख रही थीं। इनको मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है—पहली तो वे जो बुर्जुआ परिवारों से जुड़ी हुई थीं, जिन्हें शैक्षिक-आर्थिक मदद के लिए किसी के सामने हाथ फ़ैलाने की ज़रूरत नहीं थी। दूसरी वे जिन पर सेंसरशिप इतनी हावी थी कि प्रारंभ में इन्होंने सृजन की जगह अनुवाद को ही अपनाया जिनमें एलिजाबेथ फर्स्ट, एनी सेसिल दे वेरे और मेरी सिडनी थीं। तीसरी तरह की रचनाकार वे थीं जो साधारण परिवारों से सम्बद्ध थीं, लेकिन दरबारों से भी किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई थीं। एनी द्रोविस, एमिलिया लान्येर, डायना प्रिमरोज़ इसी श्रेणी में आती हैं लेकिन वे अक्सर हाशिये पर ही रहा करती थीं, उन्हें हमेशा संरक्षण की आवश्यकता का अहसास होता रहा। इज़ाबेला व्हिटनी, राचेल स्पेघट, एलिस सटक्लिफ और ऐनी ब्रोड्स्ट्रीट की रचनाओं से ज़ाहिर होता है कि उन्हें आर्थिक संरक्षण की ज़रूरत थी, यद्यपि वे बुर्जुआ वर्ग से सम्बद्ध थीं और कोई न कोई घरेलू रोज़गार करती थीं। व्हिटनी ने लिखा कि मैं शरीर और मस्तिष्क से परिपूर्ण हूँ पर धन से कमज़ोर हूँ। लान्येर ने लिखा कि उसे पुरानी व्यवस्था के बीत जाने का अफ़सोस है। ये दोनों ही अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति की चर्चा करती हैं। व्हिटनी कविताओं के लिए मिलने वाले पारिश्रमिक से असंतुष्ट है और लान्येर को उम्मीद है कि कम्बरलैंड की काउनटेस मार्गरेट क्लिफ्फोर्ड उसके सेवा-कार्यकाल को बढ़ा देगी। इनकी कविताओं को पढकर ऐसा लगता है कि वे अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर चिंतित थीं और अपने समकालीन पुरुष रचनाकारों की तरह ही रचनाओं के लिए पारिश्रमिक की अपेक्षा करने लगी थीं, जबकि उन्हें पुरुषों की तुलना में व्यक्तित्व-विकास के बहुत कम अवसर प्राप्त थे। इन्होंने लैंगिक आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर समूह बनाये हुए थे। यह ठीक पुरुष रचनाकारों की तर्ज़ पर था, धनी और समृद्ध रचनाकारों का समूह ग़रीब रचनाकारों से अपने आप को अलगा लेता था। दरबार और सत्ता से निकटता, उच्चपदस्थ अधिकारियों से संपर्क के आधार पर समूह बना करते थे। इसके बावज़ूद ऐसी रचनाकार भी सामने आयीं जिनका दरबारों से कोई सम्बन्ध नहीं था, दूसरे रचनाकारों में जेंडर के आधार पर विशेष भेदभाव नहीं था, स्त्री और पुरुष दोनों समान सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के अविभाज्य अंग थे। स्त्री और पुरुष दोनों के लिए बतौर लेखक स्थापित होने में धन और पद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे, किसी कवि के सम्बन्धी कहाँ कहाँ स्थापित हैं उसके निजी और सामाजिक संपर्क किन लोगों से हैं, यह उसकी रचनाओं की चर्चा के लिए महत्वपूर्ण था। लान्येर जैसी कवयित्री कविता में इसी तरह का संसार रचती है जिसमें वह कम्बरलैंड की काउंटेस की मदद के प्रति आभार व्यक्त करती है, वह अपने गाँव से निर्वासन की तकलीफ़ व्यक्त करती है और ऐसा संसार रचती है जहाँ कवि और संरक्षक आपस में अत्यंत सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में रहते हैं। लान्येर पहली कवयित्री है जो गाँव पर कविता लिखती है। मेरी सिडनी और मैरी रोथ ने भी बाढ़ से उफनती नदी का चित्रण कविताओं में किया है। मेरी सिडनी उफनती नदी को मानव अस्तित्व को हिला देने वाला मानती हैं :
“नदियाँ, हाँ नदियाँ जो चिंघाड़ती हैं/सागर की उफनती लहरों सी नदियाँ चिंघाड़ती हैं/तोड़ती हुई कगारों को, सीमाओं को पार करती /नदियाँ चिंघाड़ती हैं।“ कहीं वह आसमान के राजा को संबोधित करती हुई लिखती है: “आकाश के देवता /दृढ और सत्य तुम्हारे वचन झूठे हैं।“
रेनेसां की कवयित्रियों में स्वर-वैविध्य है, कभी उनमें आध्यात्मिकता का स्वर है तो कभी व्यंग्य, कभी वे नास्टेल्जिक हैं तो कभी आत्माभिव्यक्ति के लिए व्याकुल दीखती हैं; मसलन व्हिटनी व्यंग्य का अत्यंत प्रभावी प्रयोग करती है। वर्जीनिया वुल्फ़ ने रूम ऑफ़ वंस ओन में लिखा था कि स्त्रियाँ स्थायित्व और सुरक्षा चाहती हैं। प्राक आधुनिक कवयित्रियाँ घर और घर के अभाव को सामान्य रूप से कविता का विषय बनाती हैं। जेन और एलिज़ाबेथ कवेंडिश अपने घर की स्मृति में कविताएँ लिखती हैं। उधर ऐनी ब्रैडस्ट्रीट घर छूटने की यातना को अभिव्यक्त करती है। घर के अलावा परिवार जनों की मदद, उनके भावनात्मक सहयोग और उनके न रहने पर उपजे अभाव को भी कविताएँ अभिव्यक्त करती हैं। मेरी सिडनी, फिलिप और राबर्ट सिडनी एक परिवार के थे वैसे ही मेर्री र्रोथ के साथ विलियम हर्बर्ट जुड़े थे, कवेंडिश परिवार में जेन, एलिज़ाबेथ विलियम और मार्गरेट कवेंडिश और एनी सेसिल मशहूर साहित्यिक परिवार से सम्बद्ध थीं। साहित्यिक पृष्ठभूमि से आई हुई ये रचनाकार साहित्य की दुनिया से सुपरिचित होती थीं। सबसे दिलचस्प यह है कि साधारण या बुर्जुआ वे चाहे किसी भी पृष्ठभूमि-साधारण या बुर्जुआ से सम्बद्ध हों—आत्म से संवाद की प्रक्रिया सभी में लक्षित होती है। १९७० के दशक तक पश्चिमी स्त्रीवादी आलोचना ने स्त्री रचनाकारों और उनकी आत्मकथाओं के अन्तःसम्बन्ध को पूरी तरह उजागर कर दिया, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि इस दौर में वे किसी वैचारिक चेतना पर केन्द्रित न रहकर निजी अनुभूतियों को वाणी देने में मुब्तिला थीं। एलिज़ाबेथ प्रथम की कविताएँ कैद के दिनों की तकलीफ़ का बयान करती हैं। व्हिटनी भी आर्थिक अभाव के दिनों, लान्येर विगत यौवानानुभवों, कवेंडिश बहनों ने सिविलवार के अनुभवों के आत्मपरक सन्दर्भ कविताओं में दिए हैं। प्रेम और शोकगीत—ये दो सन्दर्भ कथ्य के तौर पर इनकी कविताओं में सामान्यतः पाए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर मेरी सिडनी ने अपने मृत भाई फिलिप की स्मृति से ही पाम अनुवाद की शुरुआत की जेन कवेंडिश ने भी अपनी बहन एलिज़ाबेथ को याद करते हुए लिखा एनी सेसिल-दे-वेरे ने अपने दिवंगत पुत्र की स्मृति में लिखा एनी ब्रैडस्ट्रीट भी अपने पौत्र की स्मृति को कविता का विषय बनाती है।
पारिवारिक सम्बन्ध, जीवन की भावुक प्रतिक्रियाएँ इन सबको कविता का विषय बनाना इस बात को दर्शाता है कि ये रचनाकार बौद्धिकता से ऊपर भावुकता को प्रधानता दे रही थीं, निकट परिजनों की मृत्यु और अभाव शोकगीतियों में अभिव्यक्त हो रहा था। जहाँ दरबारी कविता में निजी-दुःख सुख को गोपन रखने की प्रवृत्ति थी वहीं इस दौर की स्त्रियाँ खुलकर अपनी संवेदनाएँ व्यक्त कर रही थीं। आश्चर्य नहीं कि इस दौर में स्त्रियों ने लौकिक प्रेम को काव्य की वस्तु के रूप में सहजता से स्वीकार किया। हिंदी में तो स्त्रियों द्वारा लौकिक प्रेम की प्रकट अभिव्यक्ति के खतरे बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही उठाये जाने शुरू हुए; जबकि इंग्लैण्ड में मैरी रोथ के सानेटों में उनके चचेरे भाई और प्रेमी विलियम के प्रति अकुंठित प्रेम अभिव्यक्त हो चुका था। रोथ का प्रेम विलियम के प्रति दुखांत ही रहा। दरबारी समीकरण, रिश्ते-नाते परिवार और उत्कट प्रेम के बावजूद दोनों का न मिल पाना तत्कालीन सामाजिक-पारिवारिक संबंधों के विश्लेषण का नज़रिया भी प्रदान करता है। इसी सन्दर्भ में एलिज़ाबेथ प्रथम की कविता An Answer को देखा जा सकता है, जो वाल्टर रेले के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति है। एलिजाबेथ कवेंडिश भी प्रेम की अभिव्यक्ति की राह में किसी वर्जना को नहीं मानतीं। एनी ब्रोड्स्ट्रीट अपने अनुपस्थित पति के बारे में लिखती है: My head, my heart, mineeyes, my life, nay, more यह वही भाषा और वही रूपक हैं जो दरबारी कविताई में प्रयुक्त होते थे। यद्यपि अधिकांश शोकगीत नितांत निजी हैं, लेकिन प्रेम कविताएँ सहज और उत्कट हैं, जिनसे सामान्य पाठक का साधारणीकरण हो जाता है। ये कविताएँ आत्मपरक अधिक हैं, जिनमें आधुनिक कविता के बीज परिलक्षित होते हैं। सामान्य श्रेणी की कविताएँ भी ये स्त्रियाँ लिख रही थीं जिनमें राजनैतिक, धार्मिक-विश्वास और आस्थाएँ अभिव्यक्त हो रही थीं।
इनकी रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि स्त्रियाँ व्यक्तिगत मसलों से सामाजिक-सार्वजनिक मसलों की तरफ जा रही थीं। रचनाओं में आत्मविश्लेषण का पैनापन और विषय का चुनाव इसका प्रमाण है। अधिकांश रचनाकार राजनीतिक विषय के रूप में शासक एलिज़ाबेथ के जीवन को ग्रहण करती दीखती हैं। साम्राज्ञी एलिज़ाबेथ की लोकप्रियता, उनकी सरकार, राष्ट्रीय नीतियाँ आम जनता की रूचि और चर्चा का विषय थीं। स्त्रियाँ उन्हें सत्ता और स्त्री नेतृत्व के अद्भुत समन्वय के प्रतीक के तौर पर देखती थीं। एलिज़ाबेथ के बारे में ब्रोडस्ट्रीट लिखती है : “Now say, have women worth? or have they non?/ or had they some, but with our Queen it’s gone? Nay masculines, you have thus taxed us long/But she, thoughdead, will vindicate our wrong;/Let such as say our sex is void of reason /Know ‘tis a slander now, but once was reason”
कवयित्रियों में ऐसी कोई नहीं है जिसने रानी एलिज़ाबेथ की चर्चा किसी न किसी रूप में न की हो। ड्रोविच, सिडनी, स्पेघट, प्रिमरोज़ और ब्रोड्स्ट्रीट ने रानी को धर्म-संस्थापिका के रूप में चित्रित किया, उधर इज़ाबेला व्हिटनी, एलिज़ाबेथ प्रथम, एनी सेसिल, लान्येर, रोथ और कवेंडिश बहनों ने सीधे-सीधे धर्म के प्रति निष्ठा तो नहीं दिखाई पर जीवनी और अन्तःसाक्ष्यों में उनके प्रोस्तेटेन्ट धर्म के प्रति रुझान स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। इनमें से सिर्फ़ एलिस सत्कलिफ्फ़ ही ऐसी है जो कैथोलिक धर्म के प्रति अपने रुझान को स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्त करने का साहस करती है, जबकि सन् १६३४ में जब वह लिख रही है तब इस तरह की काव्यात्मक अभिव्यक्ति करना खतरे से खाली नहीं था। यह इस बात को पुष्ट करता है कि प्राक-आधुनिक काल की कवयित्रियाँ अपने विश्वासों के सन्दर्भ में खतरे उठाने का साहस कर रही थीं और अपनी कविताओं में बार-बार ईश्वरीय सत्ता का ज़िक्र भी करती थीं, जो उन्हें भौतिक जगत में बाधाओं से टकराने की हिम्मत देती है। यह भी गौरतलब है कि इन स्त्रियों को पितृसत्ता द्वारा निर्धारित मोरल पुलिसिंग से भी टकराना पड़ता था, जो कमोबेश आज के सन्दर्भ में भी सही है। स्त्री का आज्ञाकारिणी, मौन रहना आदर्श माना गया, वहीं वह भौतिक शब्द लिखकर पुरुषप्रधान क्षेत्र में सेंध लगाती है। प्रकाशन से उसका लिखा हुआ भी अन्य रचनाकारों की तरह ही पाठकों के व्यापक संसार तक पहुँचने लगा। ऐसा नहीं कि पाठकों ने बड़ी उदारता से ग्रहण किया हो या इनकी प्रतिभा को सराहा हो, उलटे लेखिकाओं की चारित्रिक शुचिता पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाने लगे और उन्हें जुगाडू, लाभ-लोभ के लिए सम्बन्ध स्थिर करने वाली ‘असती’ का ख़िताब मिला। बहुत संभव है कि कई रचनाकार सेंसरशिप और लोकापवाद की वजह से अपना लिखा छपवाने को राजी नहीं हुईं। उनकी रचनाएँ-नाटक, प्रहसन, कविताएँ बंद कमरों के भीतर ही प्रदर्शित हुईं, कही-सुनी गयीं या यों कह लें पारिवारिक हदबंदी में रहीं और आम जनता तक पहुँच ही नहीं पायीं। लिखने और प्रकाशित होने के सन्दर्भ में स्त्रियों को बहुत हीन दृष्टि से देखा जाता था, इसीलिए आधुनिक काल तक भी रेनेसां काल की कई नाट्य-रचनाएँ पाठकों-दर्शकों तक नहीं पहुँचीं, जिनकी रचना स्त्रियों द्वारा की गयी थी। प्राप्त पांडुलिपियाँ इस तथ्य को पुष्ट करती हैं कि स्त्रियाँ सिर्फ प्रेम और क्षोभ की कविताओं की रचना तक ही सीमित नहीं थीं बल्कि जनविधा के रूप में नाटक को भी अपना रही थीं। मैरी सिडनी के The Tragedy of Antonie and Jane तथा एलिज़ाबेथ कवेंडिश के लिखे नाटक The Concealed Fancies को उदाहरणस्वरुप देखा जाना चाहिए। सिडनी के संवादों का गठन, एलिजाबेथ के पात्रों के चरित्र-गठन पर शेक्सपीयर और मरलोव का प्रभाव दीखता है, साथ ही यह भी कि वे लगभग सभी विधाओं पर हाथ आजमा रही थीं। डोरीच द्वारा कविता में ही नाटकीय संवादों का आयोजन किया जाना हमें बताता है कि वह संवाद द्वारा जनता तक अपनी बात पहुँचाने का प्रयास कर रही थी, क्योंकि नाटक सर्वाधिक लोकप्रिय विधा के रूप में स्थापित थी।
यह तथ्य रेखांकित करने योग्य है कि ये स्त्रियाँ अपनी यौनिकता को लेकर बहुत सचेत हैं और यही सचेतनता इन्हें आधुनिक बनाती है। मसलन लान्येर ने Slave Deus Rex Judaeorum में चर्च की धार्मिक और दकियानूसी सोच को चुनौती देते हुए लिखा कि मर्यादा का पतन पुरुष के द्वारा होता है, स्त्री द्वारा नहीं : “Her fault, though great, yet he was most to blame” इसी तरह राशेल और एनी ब्रोडस्ट्रीट स्त्रियों को अमर्यादित कहने वालों को कोसती हैं और कहती हैं कि पुरुष ही स्त्री को पथ भ्रष्ट करता है, उसकी उपलब्धियों में बाधक बनता है। Joseph Swetnam जिसने ‘The Arraignment of women’ में स्त्रियों को अविश्वस्त और रहस्यमयी कहा था, स्त्री-निंदा के उसके एजेंडे पर टिप्पणी करते हुए ‘Mortality Memorendum’ में स्पीघट ने जोसेफ के बारे में लिखा “As a Monster or a devil (who) on Eve’s sex…foamed filthy froth” प्रिमरोज़, रोथ और कवेंडिशने रचनाओं में सदियों से प्रचलित स्त्री के कुमारित्व की रक्षा या उसके न होने की स्थिति में उसे चरित्रहीन मानने को उलट दिया और कहा कि प्रत्येक बार पुरुष ही इतना मासूम नहीं होता कि वह स्त्री के बनाये जाल में उलझ जाए, या अपना जीवन नष्ट कर दे। डायना प्रिमरोज़ ‘A chain of Pearl’ में इस बारे में लिखा : “ Siren Blandishments/which are attended with no foul events” (Temperance,lines 5-6) अपने सानेट ‘Pamphilia to Amphilanthus’ में मैरी रोथ ने स्त्री को स्थिर मति और पुरुष को अस्थिर मति कहा है। एलिज़ाबेथ प्रथम की कविताएँ, एनी सेसिल की शोकगीतियाँ, मैरी सिडनी की प्रारंभिक कविताएँ स्त्री की यौनिकता का सम्मान करने का भाव व्यक्त करती हैं। इनमें से सिर्फ़ व्हिटनी ने ‘A Communication’ की सातवीं पंक्ति में स्त्री को मूर्खा कहती है, लेकिन यह तय है कि ये सभी रचनाकार समाज में स्त्रियों के प्रति परंपरागत सोच को बदलने के लिए प्रयासरत थीं।
प्राक-आधुनिक और आधुनिक स्त्री रचनाकारों के विषय में जानकारी एकत्र करना, उनके लिखे हुए को सम्पादित करके प्रकाशित करना इतिहास में स्त्री-रचनात्मकता की अप्राप्य और उपेक्षित धारा की विलुप्त कड़ियों को जोड़ना है। भारत और पश्चिम में स्त्री के लिखे हुए की उपेक्षा के सन्दर्भ में आश्चर्यजनक समानता लक्षित होती है। यूरोप के पुनर्जागरण और भारत के नवजागरण में स्त्री के मुद्दों पर ढेर सारी समानताओं के बिंदु मिलते हैं। स्त्रियों के लिखे के विषय में जानकारी हो या उनकी रचनाओं के संकलन हों, तब इनकी खोज और विश्लेषण इतिहास और शोध की दिशा में नई संभावनाओं के द्वार खोलने में मददगार हो सकता है। यद्यपि पिछले बीस वर्षों में स्त्री-अध्ययन और लैंगिक अध्ययन केन्द्रों द्वारा ऐसी बहुत सी पुस्तकों और पांडुलिपियों की खोज की गयी है जिससे इतिहास की दरारों को भरने में मदद मिली है और विशेषकर स्त्री रचनात्मकता का मुकम्मल इतिहास लिखने की दिशा में प्रयास हुए हैं, फिर भी स्त्री रचनात्मकता के बहुत से पहलू अभी भी उपेक्षित और अनछुए ही रह गए हैं। इस तकलीफ और आकांक्षा की अभिव्यक्ति ‘sighs’ शीर्षक कविता में एनी ब्रोडस्ट्रीट ने की है—
‘And if chance to thire eyes shall
bring this vouse
With some sad sighs honourmy
Absent hearer’ (Before the Birth of one of her Children, lines 25-6)
रेनेसां ने बहुत सी गीतकारों, कवयित्रियों और संवेदनशील कलाप्रेमियों को रचनात्मकता की अनुकूल मनोभूमि और प्रेरणा प्रदान की। यह समय स्पेंसर और शेक्सपीयर जैसे प्रतिभाशालियों का था, लेकिन इन्हीं के समानांतर स्त्रियाँ छंदबद्ध काव्य भी रच रही थीं, ठीक भारत की तरह जहाँ ब्रजभाषा समेत कई लोकभाषाओं में स्त्रियाँ पुरुषों की तर्ज़ पर छंदबद्ध रचनाएँ लिख रही थीं।
आज भी हिंदी नवजागरण के दौर के स्त्री-साहित्य के प्रकाशन और मूल्यांकन का अभाव ही है। मुंशी देवीप्रसाद द्वारा सम्पादित महिला मृदुवाणी (1904), गिरिजादत्त शुक्ल और ब्रजभूषण शुक्ल द्वारा सम्पादित ‘हिंदी काव्य की कोकिलायें’ (1933) ज्योतिप्रसाद निर्मल द्वारा सम्पादित ‘स्त्री कवि कौमुदी’ (1931) और ‘स्त्री कवि संग्रह’ (1928), व्यथित हृदय द्वारा सम्पादित ‘हिंदी काव्य की कलामयी तारिकाएँ’ (1941), सत्यप्रकाश मिलिंद द्वारा सम्पादित ‘हिंदी की महिला साहित्यकार’ (1960), कुछ ऐसे संग्रह हैं जो नवजागरण के दौर में स्त्री रचनात्मकता के वैविध्य का प्रमाण देते हैं, जो सिर्फ़ स्त्रियों के रचनात्मक अवदान को प्रमाणित ही नहीं करते बल्कि साहित्येतिहास में उनकी उपेक्षा की रणनीतियों का खुलासा करते हैं।
जहाँ पश्चिम में पुनर्जागरण के दौर में स्त्री रचनाकारों के कई संकलन और रचनाएँ हमें देखने को मिलती हैं वहीं हिंदी नवजागरण के दौर की स्त्री-कविता हाल के वर्षों तक सिर्फ़ और सिर्फ़ मीराबाई और महादेवी के प्रतिनिधित्व की चर्चा से संतुष्ट हो जाती थी और इसमें हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वाले आलोचकों की अहम् भूमिका रही है, जिन्होंने इतिहास में स्त्री रचनाकारों को ढूँढ़ने के बजाय उन्हें गुम करने का काम किया है। आलोचक का यह प्रश्न बेहद प्रासंगिक है कि, “अगर हम हिंदी साहित्येतिहास में स्त्री रचनाकारों को ढूँढ़ें तो क्या पाते हैं? क्या यह महज संयोग है कि ‘शिवसिंह सरोज’ (1878) में कवयित्री ताज और शेख का उल्लेख भी पुरुष के रूप में किया गया है और हिंदी के सर्वमान्य इतिहास—रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1929) में शेख का उल्लेख स्वतंत्र रूप से न करके कवि आलम के प्रसंग में ही किया गया है और ‘महिला मृदुवाणी’ (1904 ) के प्रकाशन के पच्चीस वर्ष बाद लिखे जाने के बाद भी इस बहुप्रशंसित इतिहास-ग्रन्थ में आधुनिक काल के पहले स्त्री-रचनाकारों में सिर्फ़ एक कवयित्री मीरां का नाम दर्ज़ हुआ है। यह तथ्य और भी आश्चर्यजनक तब लगता है जब हम देखते हैं कि इसी नागरी प्रचारिणी सभा से जहाँ से यह इतिहास ग्रन्थ पहले ‘हिन्दी शब्द-सागर’ की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ और फिर स्वतन्त्र पुस्तकाकार, वहीं से ‘महिला मृदुवाणी’ का भी प्रकाशन हुआ था और वहीं से हस्तलिखित ग्रंथों की खोज भी हो रही थी, जिसके आधार पर मिश्रबन्धु-विनोद (१९१३) में पचास से अधिक कवयित्रियों का उल्लेख हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने इतिहास के ‘तथ्य’ के लिए अधिकांशत: मिश्रबन्धु-विनोद पर आश्रित रहे लेकिन स्त्री रचनाकारों के मामलों में उनकी दृष्टि परम स्वतन्त्र कही जा सकती है”
भारत में नवजागरण के दौर अलग-अलग प्रदेशों और भाषाओं में अलग-अलग समय में घटित होते दीखते हैं। यहाँ बंगाल और महाराष्ट्र में जो मुद्दे उन्नीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में चिंता के केंद्र में रहे वे मुद्दे थोड़े-बहुत बदलाव के साथ हिंदी पट्टी में भी चिन्तना के केंद्र में आये पर पचास-साठ वर्षों के अंतराल के बाद यानि समाज सुधार, शिक्षा, मध्यवर्ग के प्रसार में हिंदी भाषी क्षेत्र पिछड़े हुए दिखाई देते हैं। 1885 तक पश्चिमोत्तर प्रांत और अवध की 92 प्रतिशत जनसंख्या अशिक्षित थी और प्रति 350 स्त्रियों में एक को ही किसी प्रकार की शिक्षा नसीब हो रही थी।
sanskritik itihas ki dararon ko bharne ke liye,uski asangatiyon ko door karne ke liye haal ke varshon mein stri lekhan par punarvichar aur shodh karne ki zarurat mahsus ki gayi hai. ise hum strivadi itihas lekhan kah sakte hain jo itihas ka mulyankan jenDar ke nazariye se karne ka pakshadhar hai. darasal strivadi itihas lekhan samuche itihas ko samagrata mein dekhne aur vishleshit karne ka prayas karta hai, jismen mukhyadhara ke itihas se chhute hue, anjane mein, ya janbujhkar upekshit kar diye ge vanchiton ka itihas aur unka lekhan shamil kiya jata hai. ye stri ko kisi vishesh sandarbh ya kisi sima mein na bandhkar, ek rachnakar aur uske daay ke roop mein dekhne ka prayas hai. ye striyon ki rachnashilta ke sandarbh mein laingik (jenDar) vibhed ko dekhne aur saath hi samajik sanrachnagat apekshit badlav jo ghatne chahiye, unka disha nirdesh karne ka bhi udyam hai. stri sahityetihas ko upekshit karke kabhi bhi itihas lekhan ko samagrata mein nahin jana ja sakta. kuchhek itihaskaron ko chhoD den to adhikansh itihaskaron ne striyon ke sanskritik sahityik daay ko ya to upekshit kiya ya phutkar khate mein Daal diya. aaj zarurat is baat ki hai ki samajik
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haal ke varshon mein stri kavita ke itihas aur striyon ki rachnaon ko ek baDa pathak aur prakashak varg mila hai, lekin ab bhi hindi navjagran ke daur ke stri sahitya ke prakashan aur mulyankan ka abhav hi hai.
navjagran ke daur ki stri kavita ke kuch tayashuda paitarn hamein abtak uplabdh kavitaon mein dikhai paDte hain—
1. lok samprikti
2. adhyatmikta
3. bhakti aur prem
4. grihasthi aur vairagya
5. rashtraprem
6. atmalochan
7. phutkal samasyapurti,prkriti chitran aadi.
navjagran ki stri kavitaon ki bangi dekhne ke liye kuch sangrhon par dhyaan diya jana zaruri hai jismen munshi deviprsad dvara ‘mahila mriduvani’ pramukh hai. striyon ki rachnaon ko ek jagah rakhkar unke sahityik parichay sahit pathak ko usse parichit karane ka ye pahla prayas tha. ye sangrah १९०४ ii. mein chhapa, jiski bhumika mein munshi deviprsad ne rekhankit kiyah “. . . akele purush hi chaudah vidyani dhaan nahin hue hain, varan striyan bhi samay samay par aisi hoti rahi hain jo sone chandi aur ratnajDit abhushnon ke atirikt vidya buddhi aur kavyakla ke divybhushnon se bhi bhushit theen aur ab bhi hain jin ke bakhan anek pustkon aur janashrutiyon mein vidyaman hain. . . prachin granthon aur kavivrittanton ki khoj ki thi to us prsang mein kuch kavita aisi bhi mili jo kavyakushla kamlaon ke komal mukharvindon ki nikli hui theen. hamne usi ko sangrah karke ye chhota sa granth banaya hai aur mahila mriduvani naam rakha hai. ” ye bhumika २३ mai १९०४ ko jodhpur, rajasthan mein likhi gayi. is sangrah mein kavirani chaube loknath ji stri ardhangini ji, thakurani kakrechi ji, kushla, khaganiya, giridhar kaviray ki stri, chandrakla bai, champaderani, chhatrkunvri bai, jamasuta jaDechi ji, shri pratap ba, jhima, panDitani tijanji, taaj, tulachhray, padma, bira, prtapkunvri bai, mirabai, bagheli shri ranchhoD kunvri ji, maharani ji shri ratn kunvri bai ji, rasik bihari, ramapriya ji, rayaprvin ya prvinray, bagheli vishnuprsad kunvar ji, birjubai, viranji kunvar, bihari satasii ke karta ki stri, biharidas ki putri, brajdasi, shekh rangrejan, shri sarasvati devi, sahjobai, sundar kunvribai, hariji rani chavDi ji jaisi ३५ kavyitriyon ki rachnayen sanklit hain. stri sahityetihas ki drishti se ye pahla ullekhaniy karya hai. dekhne ki baat ye hai ki ramchandr shukl ne iske pachchis varsh baad hindi sahitya ka itihas likha lekin usmen mirabai ke alava kisi kavyitri ko ullekhaniy nahin samjha.
iske saath hi san १९२८ ke lagbhag jyotiprsad mishr ‘nirmal dvara sampadit stri kavi sangrah ka pata milta hai, jiske pahle khanD mein mirabai, sahjobai, dayabai, sain, rajmata raghuvanshakumari, subhadrakumari chauhan, torandevi lali, mahadevi varma aur dusre khanD mein rasik bihari, ratnkunvri bibi, prtapbala, sundarkunvri bibi, khaganiya, bundelabala, ramadevi, ramapriya, yuglapriya ki kavitayen sanklit hain. prayag mahila vidyapith ke pathyakram ke liye ye sangrah babu rameshvar parsad ji ne jyotiprsad nirmal ke sampadan mein taiyar karvaya tha. pustak ke panchve sanskran (१९४०) mein prakashak ki tippni haih “. . . pustak mein kavyitriyon ka naam janm sanvat ke kram se na rakhkar pariksha ki suvidha ke anusar rakha gaya hai. ” aage chalkar jyotiprsad nirmal ne ‘stri kavi kaumudi’ mein anya kai kavyitriyon masalan shekh, chhatrkunvri bai, prvinray, dayabai, kavirani, rasikabihari, brajdasi sain, prtapkunvri bai, sahjobai, jhima, champade, viranjikunvri, prtapbala, bagheli vishnuprsad kunvri, ratankunvri bai, chandrakla bai, juglapriya, ramapriya, ranchhoD kunvri, giriraj kunvri sarikhi madhyakalin rachnakaron se lekar unnisvin shatabdi ke uttarardh aur bisvin shatabdi ke prarambhik daur tak ki hemantakumari chaudhrani, raghuvanshakumari, rajrani devi, sarasvati devi, bundelbala, gopaldevi, ramadevi, raaj devi, rameshvri neharu, kirati kumari, ‘lali’, priyanvda devi aur uske baad ke daur mein bhi rachnarat subhadrakumari chauhan, kusummala ko sammilit kar liya.
san १९३१ mein jyotiprsad mishr ‘nirmal ne stri kavi kaumudi ko sanklit karne ka ullekhaniy prayas kiya, jismen mirabai, taaj, khaganiya, shekh, chhatrkunvri bai, prvinray, dayabai, kavirani, rasikabihari, brajdasi sain, prtapkunvri bai, sahjobai, jhima, sundarkunvri bai, champade, viranjikunvri, ratnkunvri bibi, prtapbala, bagheli vishnuprsad kunvri, ratankunvri bai, chandrakla bai, juglapriya, ramapriya, ranchhoD kunvri, giriraj kunvri sarikhi madhyakalin rachnakaron se lekar unnisvin shatabdi ke uttarardh aur bisvin shatabdi ke prarambhik daur tak ki hemantakumari chaudhrani, raghuvanshakumari, rajrani devi, sarasvati devi, bundelabala, gopaldevi, ramadevi, rajdevi, rameshvri neharu, kirati kumari, toran devi shukl ‘lali’, priyanvda devi aur uske baad ke daur mein bhi rachnarat subhadrakumari chauhan, mahadevi varma, kusummala sammilit hain. stri kavi kaumudi ke sampadak jyoti parsad mishr ka havala dete hue iski taza punarprastuti ki bhumika mein kaha gayah “granth mein likhit donon bhumikayen (jyotiprsad mishr ‘nirmal’ tatha ramshankar shukl ‘rasal’krit) is tathya se sahmat hain ki hindi sahitya mein itihas lekhan sadaiv laingik purvagrhon ka shikar raha hai. isliye striyon ka lekhan samne nahin aaya. yadi aaya bhi to, uska samuchit ullekh sahityik itihason mein praayः nahin milta. ” in stri rachnakaron ke alava bhi kamla chaudhari, gopaldevi, tara panDe, purusharthavti devi, priyanvda devi, bundelabala (gujarati bai) mahadevi varma, raghuvansh kumari, rama devi, rajakumari shrivastav, rajdevi, rajrajeshvri devi trivedi, ramakumari devi chauhan, ramapriya, rameshvri devi goyal, rameshvri devi mishr ‘chakori ‘rameshvri neharu, vidyavti kokil, se lekar subhadrakumari chauhan, hemant kumari chaudhrani aur homavti devi tak navjagran ke daur ki kavyitriyon ki lambi pheharist hai. isi kram mein san 1933 mein girijadatt shukl aur brajbhushan shukl ne prayag se ‘hindi kavya ki kokilayen’ shirshak alochanatmak sanklan prakashit kiya, jiski prastavana kaha gaya “hindi sahitya ke svrup nirman mein hamari deviyon ne jo bhaag liya hai, uski or hindi ke samalochkon ka dhyaan abhi vishesh roop se akrisht nahin hua tha. is granth ke lekhkon ne is abhav ki purti ka udyog kiya hai. . . . . . . jahan tak mujhe smran hai, hindi ke purush kaviyon ki kavitaon ka bhi aisa koi alochanatmak sangrah nahin hai, jismen kisi prakar ke vargikran ka prayatn kiya gaya ho, athva unki prvrittiyon ki alochana ki gayi ho. . . ” is drishti se dekhen to san 1933 mein prakashit ye pahli pustak hai jismen mirabai se lekar lilavati bhanvar tak 31 kavyitriyon chuninda rachnaon ke saath unke rachna karm par alochanatmak tippni sanklit hai. halanki kavyitriyon ki rachnaon par jo tippaniyan ki gayi hain, ve bahut sathi aur ek sima tak prbhavvadi hain, unmen kisi gahre vishleshan ka abhav dikhta hai. saath hi naitikta ke prati atirikt agrah ka dabav is had tak hai ki sampadak dvay rachnakaron ko vishay vastu ke chunav sambandhi salahen bhi dete deekh paDte hain, nishchit roop se ise striyon par lagayi jane vali ‘sensarship’ ke roop mein dekha jana chahiye. masalan rameshvridevi mishr ‘chakori’ ki chunida kavitaon par alochanatmak tippni karte hue sampadak dvay likhte hain–“abhi chakoriji ka alp vay hi hai, phir bhi unhonne apni sahridayta se kavya rasikon ko anand pradan karne ki cheshta ki hai. aasha hai, unki lekhani, prauDhta praapt hone par, is kshetr mein apurv ras ki vrishti karegi. ek vinamr pararthna ke saath hum apne is nivedan ko samapt karte hain aur wo ye ki ve kavyradhna mein apne hridgat udgaron ki abhivyakti mein kinchit sanyat hone ka udyog karen”
aspasht hai ki ye purush drishti se stri lekhan par ki gayi tippni hai jo is baat ki or bhi sanket karti hai ki striyan likh kar apne aapko bataur abhikarta (ejensi) kaise sthapit karti hain, puri samajik sanrachna ko kaise chunauti deti hain aur is tarah sahitya aur vishisht gyandhara mein dakhlandaji karti hain—yah janne ke liye vibhinn jivant sanrachnaon ke prtikon se striyon ko joD kar dekhne ki zarurat paDti hai. hindi sahitya ke sandarbh mein vichar karen to stri ki rachnashilta ke adhiktar gyaat prsang mukhyatः madhyvargiy hindu striyon ke hi milte hain. isse itihas ki jankari ekpakshiy aur ek rekhiy ban jati hai. yahin par itihas ke punarpath aur alochanatmak pratimanon ke punarnvikran ki zarurat mahsus hoti hai. namvar sinh ne sahityetihas ki punarvyakhya ke sandarbh mein sahi hi kaha hai, ‘navin vyakhyaon ka upyog bhar itihas nahin hai, itihas svayan mein ek nayi vyakhya hai. ’ itihas ki samasya se sambaddh hai rachna ki alochana, uske mulyankan ki samasya, kyonki rachna ke abhav mein itihas ka lekhan asambhav hai. lekin aisi puri parampara jiski upeksha kar di gayi ho uske bare mein ramchandr shukl, namvar sinh ya ramavilas sharma jaise alochak maun hain. ”
aksar ye shikayat itihas lekhkon ko rahti hai ki inmen se kai striyan aisi hain jinhonne ya to chhadm namon se likha ya phir inke liye kisi aur ne likha aur prasiddhi inhen mili. ye bhi ki yadi koi stri utkrisht rachna karne mein saksham ho bhi gai to uske mulyankan ka mapdanD purush hi rahe. is baat ko main shekh rangrejan ke prsang mein aspasht karna chahungi. shekh rangrejan sanvat १७१२ mein janme aalam namak brahman kavi ki patni thi. aalam ne dharm parivartan karke usse vivah kiya tha kyonki ve shekh ki rachnatmakta ke kayal the. undonon ka sammilit kavya sangrah ‘alam keli’ shirshak se prakashit hua, jismen kavitt aur savaiya chhand mein ४०० pad sanklit hain. lala bhagvandin ne shekh rangrejan ki kavitai ki prshansa karte hue kaha haih “shekh yadi aalam se baDhkar nahin hain to kam bhi nahin. prem ki jis dhara ka pravah aalam mein hai vahi shekh mein. donon ki rachnayen aisi milti julti hain ki unka ek dusre se prithak karna kathin ho jata hai. nayika bhed aur kalapurn kavya ki drishti se shekh ko purush kaviyon ki shreni mein rakha ja sakta hai. unki sabse baDi visheshata uski shuddh bhasha, saral paddhati aur suvyavasthit bhaav vyanjna hai. shekh ke pahle aur baad mein bhi bahut dinon tak shekh jaisi brajbhasha kisi bhi kavyitri ne nahin kahi. ” ab ye bhi dekh lijiye ki ‘stri kavi kaumudi’ ki bhumika likhne vale shriramshankar shukl ‘rasal’ ka usi shekh rangrejan ki rachnatmakta ke bare mein kya kahna hai, ve likhte hainh “ho sakta hai kadachit shekh ke snehasav paan se madonmatt bhavuk premi ne hi prem pravad mein aakar shekh ke naam se rachna ki ho, jo shekh ke naam se prasiddh ho gayi ho. ” aspasht hai ki stri ke likhe ke prati purush alochkon aur itihas lekhkon ki drishti purvagrah mukt kabhi nahin rahi. ve ye samajh hi nahin pae ki rachnatmak abhivyaktiyon ke pichhe manosamajiki ki pramukh bhumika hoti hai. aise kisi bhi samaj mein jahan aatm ko vyakti se sanvad ki chhoot nahin hoti, parda aur charadivari ke bhitar jo bhi, jaise bhi uplabdh ho saka chahe wo rassundri devi ki tarah chaitanya charit ke churakar phaDe ge panne hon ya chulhe ki raakh mein chhipakar rakhi gayi khaDiya ho, usi ko paDh gun kar sahitya lekhan mein prvritt huin, jinhen vyavasthit aupacharik shiksha kabhi nasib hi nahin hui, jinhonne sadiyon se shrota aur adhinasth ki hi bhumika nibhai. bhashik sanskaron ke naam par, shasak varg ke pitrisattak muhavare aur abhivyaktiyan milin, ya kamgar jan ki bhasha jinse unka rojmarra ka sampark raha karta. aise mein, unki bhasha aur muhavare pitrisattatmak hon yahi svabhavik tha, phir jin vishyon ka chayan unhonne likhne ke liye kiya, ve pitrisattatmak prbhavon se mukt kaise ho sakte the!
navjagran ke daur ki jin rachnakaron ne kavya rachnayen keen, unke yogadan ko alochkon dvara kabhi khule man se svikara bhi nahin gaya. ramshankar shukl ‘rasal’ jinhonne kavyitriyon ke sangrah ki bhumika likhi, ve sahityetihas mein stri rachnatmakta ki avhelana ki baat svikar karte hue bhi, unhen doyam darje ki rachnakar mante hain, likhte hainh “bodh vritti sadharanatya striyon mein utne achchhe roop mein nahin milti jitni wo purushon mein milti hai. . . isliye striyan bhakti rachnaon mein jyada ramati hain anya vishyon ki taraph utna akarshit nahin hotin”. . . garhasthya sambandhi vishyon mein dakshata praapt karna striyon ka ek parmochch kartavya hai. ” striyon ko maryada sambandhi disha nirdesh dene se alochak nahin chuke, aaj bhi nahin chukte aise mein striyon ki bodh vritti simit nahin hogi to kya hoga? sahj svabhavik manaviy sanvednaon ki abhivyakti ki chhoot unhen thi nahin, shiksha aur bahari samaj se sampark ke avsar ya to ruddh the ya the to bahut kam. samajik, parivarik, sanskritik aur niji, ye chaar tarah ki sensarship un par havi thi. aise mein ve ya to purushon ke paitarn par samasya purti kar rahi theen, jinmen bundi ki chandrakla bai, toran devi sukul, rama devi, bundela bala ki rachnaon ko dekha ja sakta hai ya shrringar aur nitiprak kavitaon ki tarz par likhne vali sain, chhatrkunvri bai jo krishnaprem ki abhivyakti kar rahi theen. lekin ye kisi bhi vishay par likhen, unka likhna apne aap mein hi, chali aa rahi samajik vyavastha mein ek prakar ka hastakshep hai. grihasthi aur dainandin jivan charya mein akanth Dubkar bhi atmabhivyakti ke liye vyakul sarasvati devi likhti hain–
jab lag main maike rahi likhat paDhat rahi nit
ab ghar par parbas pari rahi nahin sakati suchit॥
grihkaraj vyvahar bahu pare sambharan mohin
likhat paDhan ik sang hi ye sab kaise hohi॥
samachar ke patr je aavat hain mam paas
tinke dekhan ke liye milat na mohin supas॥
striyan kis tarah chupchap tatkalin rajnitik parivartnon ko sun gun rahi theen, iske prmaan svrup rani gunavti ko dekha ja sakta hai. ye vahi rani gunavti theen, jinki likhi teen pustkon ki charcha shri ramanresh tripathi ne ‘rajmata diyra jivan charitr’ mein ki thi. supshastr, vanita buddhi vilas aur bhagini milan ki rachna karne vali gunavti ne ११ joon १९२२ ko kasturba gandhi ko likhe ek patr mein ye chhand likhah sindhu teer ek titahri, tehiko pahunchi peer so pran thani agam ati, vichlat na man dheer, tehi pran rakhan ke liye aD ge muni beer, param pita ko sumiri kai sokheu jaldhi gambhir. is chhand se ranigunavti ke kavya kaushal ke saath saath unki rajanaitik soch aur pakaD parilakshit hoti hai.
is tarah pratirodh ke svar hamein pure navjagran ke dauran sunai dete hain, lekin unko sunne aur dekhne mein nazariye ka bhed hone se kavyitriyan, purush rachnakaron jaisi medhavi nahin jaan paDtin. jis tarah ki amurt bhasha ka prayog ye striyan karti hain, uska vishleshan vishisht sanvedna ki maang karta hai. ise mahadevi ki kavita ke madhyam se bhali bhanti samjha ja sakta hai–
shalabh main shapmay var hoon!
kisi ka deep nishthur hoon!
taaj hai jalti shikha
chingariyan shrringarmala;
jvaal akshay kosh si
angar meri rangshala;
naash mein jivit kisi ki saadh sundar hoon!
nandadulare vajapeyi ne iski vyakhya kavyitri ke adhyatmik uttthaan ke liye vyakul aatma ke sandarbh mein ki hai, jabki ise niji anubhutiyon ki amurt abhivyakti ke taur par samjha jana zaruri hai. aisa samay aur samaj jahan stri ko nitant niji kona uplabdh nahin, vahan uski chuppi ke bhi mayne hain aur mitakthan ke bhi. striyon ke likhe hue ye ‘tekst’ hamein chetavni dete hain ki maun aur mitakthan ka arth rikti nahin hai, jo apni baat ko kahne ke liye prkriti aur aatma parmatma ke rupak ka sahara le rahi hai wo isliye nahin ki iish bhakti mein mubtila uska man sansarik rah hi nahin gaya hai ya uske paas kahne ko aur kuch nahin hai, balki iski jyada sambhavna hai ki uske paas kahne ko itna jyada hai ki yogya shrota (laingik vibhed se mukt mastishk vala shrota) milna mushkil hai. ye hamare gyaan aur sanvedna ki sima hai jo hamein uski chuppi ke pichhe chhipe arth sandarbhon ko kholne nahin deti. kuchhek chune hue vishyon par hi likhna, laukik prem ki prachchhann abhivyakti ke liye bhakti, adhyatm aur rashtraprem ka sahara lena, aise hi simabaddh alochkon ko dhyaan mein rakhkar ki gayi ‘selph sensarship’ hai. amrit raay ne mahadevi par tippni karte hue likha haih “mahadevi ke kavya ko multah atmkendrik, atmalin kahna theek hai; apni hi piDa ke vritt mein uski parismapti hai. sansar ki piDa ka svtah uske liye adhik mulya nahin hai, mulya yadi hai to kavi ki piDa ke rang ko gahrai dene vale upadan ke roop mein. ”
stri maatr ko hi bhavna aur ashru se joDkar use kam bauddhik ya abauddhik manne mein parampara se suvidha rahi hai. mahadevi samet adhikansh kavyitriyon ko bhavna aur sanvedna ki kavyitriyan kaha gaya hai. striyan bhi baDi hi vinamrata se svayan ko nichle darje ka rachnakar svikarti rahi hain. ise apne lekhakiy astitv ko bachaye rakhne ki ranniti ke roop mein dekha jana chahiye. muktibodh ne subhadrakumari chauhan ke sandarbh mein unki bauddhikta ko rekhankit karte hue likha haih “subhadraji ki bhavukta kori bhavukta nahin hai, bahya jivan par sanvednatmak manasik prtikriyayen hain. yahi karan hai ki unki kavitaon mein bhaav manav sambandh se, manav sambandh vishesh paristhiti se, vishesh paristhiti samajik rashtriy paristhiti se, ek atut sambandh shrrinkhla mein bandhi hui hai. bhaav ke sare sandarbhon ka nirvah unke kavya mein ho jata hai. isse unki vastavik bhaav sampannta ka, sanvedanshilta ka, chitr hamare samne khinch jata hai. ”
striyon ke likhe hue ko bhavukta ka uchchhlan kahkar unhen dvitiy shreni ki rachnakar hi mana gaya. subhadrakumari chauhan aur mahadevi varma ki anek kavitayen, bhavuk kavitaon ki punarvyakhya karne ke liye hamein vivash karti hain. kai sthanon par bhavukta ka istemal ve ek stretzi ke roop mein karti hain, masalan subhadra kumari chauhan ki kavita ko lenh
bahut dinon tak hui prtiksha
ab rukha vyvahar na ho
aji,bol to liya karo tum
chahe mujh par pyaar na ho.
jara jara si baton par
mat rutho mere abhimani
lo, prasann ho jao, galti
mainne apni hi mani.
main bhulon ki bhari pitari
aur daya ke tum agar,
sada dikhai do tum hanste
chahe mujhse karo na pyaar.
dhyaan dene ki baat hai ki parivar ke anushasan se raashtr seva ke naam par mukti bhale wo kuch hi samay ke liye ho, in kavyitriyon ke liye kitna mahattv rakhti hai! kalam pakaDna usne seekh liya hai, kavyitri ke roop mein wo sthapit bhi ho rahi hai lekin jahan grihasthi aur pati ki baat aati hai, wo kisi se muthbheD karne ke paksh mein nahin hai. jhuk kar, vinamrata se svayan ko bhulon bhari pitari batate hue samjhaute ke paksh mein hai, jyon wo kisi ruthe bachche ko mana rahi ho. bhavukta aur vinamrata yahan par pratirodh ke auzar ke roop mein samjhe jane chahiye. jis stri ke bhavuk padya ko paDhkar hum barambar drvit ho uthte hain, uska maun aur ashru hamein rula rula jate hain. darasal ye pitrisatta aur tayashuda vyavastha ke bhitar apni nij ki pai hui svadhinata ki raksha karne ki bauddhik ranniti hai. yadi hum is bhavuk sahitya ki taraph gaur pharmayen to in kavyitriyon ka rudan, karuna ye sab hamein bhavuk pathak banati hai aur hamara dhyaan hamare bahte hue ashruon par chala jata hai; aur yahin par rachnakar saphal ho jati hain. saval ye hai ki kya is bhavuk kavita ko hum ek sahityik upavidha ke roop mein dekh sakte hain, jo pratyek yug ke sahitya mein anivaryatः vidyaman hai, jise bhartendu ki kavita mein bhi suna ja sakta hai.
kahan karunanidhi keshav soye,jagat nek na jadpi bahubidhi bharatvasi roe. jismen niji mukti ki kamna ka uddattikran karke use rashtrmukti se joD diya gaya, isi tarah mahadevi, jahan ve kahti hainh keer ka priy aaj pinjar khol do jinki niji mukti ki akanksha raashtr mukti aur usse bhi aage stri maatr ki mukti se juD jati hai. bhavukta ke is uddattikran ko kya hum bataur sahityik mulya dekh sakte hain? ab tak ke saundaryshastriy chintan ke jo pratiman rahe hain, unmen stri ko tuchchh manavi ke roop mein chitrit kiya gaya ya usmen devatv ke sabhi kalpanik gunon ki pratishtha kar di gayi hai. samajik dharatal par use tuchchh samajhne ka bhaav hi pramukh hai, jismen ye nihit hai ki stri ka likhna hashiye ka lekhan hai, uske likhe ka arth hi hai ki usmen gharelu arth chhaviyan aur dainandin ke khatrag ke varnan pramukh honge, jise mukhyadhara ke star tak pahunchne ke liye abhi lambi kavayad ki zarurat hogi. uski kavita mein galdashru bhavukta hogi, yadi wo shreshth rachna likh bhi le to uske purush prerna srot DhunDhe jayenge. shayad isiliye uspar hamesha adarsh bharatiy nari banne ka dabav tari rahta hai, subhadrakumari chauhan likhti hain–
puja aur pujapa prabhuvar,
isi pujarin ko samjho;
daan dakshina aur nichhavar,
isi bhikharin ko samjho.
akadamik drishti se bhavukta ko dekhana bahut door tak sahi nahin ho sakta, iske bavjud navjagran ki stri kavita aur aaj ki stri kavita ko antargrthit karne ka kaam ye bhavukta hi karti hai. sujan klaark ne sentimental mauDarnizm shirshak pustak mein bhavukta aur adhunikta ka parasparik sambandh vishleshit karte hue likha haih “strivad ko ek uttar adhunik pahchan ki avashyakta hai. ” rachnakar bhavukta ko ek ranniti ke taur par leti hain, isliye unnisvin shatabdi ki bhavuk rachnakaron aur bisvin ikkisvin sadi ki adhunik striyon mein aapas mein ek gahra sambandh hai. ye donon hi likhkar apne aap ko vividh vishyon ke madhyam se abhivyakt karti hain, ling aur jenDar ke pare apne aap ko svtantr ejensi ke roop mein pahachanvane ki koshish karti hain. unnisvin sadi aur is sadi ki rachnakaron ko ‘naitik uurja’ ke sandarbh mein saman dharatal par vishleshit kiya ja sakta hai. is naitik uurja ke karan hi pathak ko sidhe sidhe sambodhit karne ka sahas aata hai, jo bhaktikal se lekar navjagran ki kavitaon mein dikhta hai. sach hai ki drishtikon ko badalkar itihas ki bahut sari dararen bhari ja sakti hain.
ye tay hai ki shodh aur alochana ki bhi apni simayen hoti hain aur ye baat ramavilas sharma jaise alochkon par bhi lagu hoti hai jinhonne pure sahityetihas mein ek bhi stri rachnakar ko ullekhaniy nahin mana, jabki bhakti aur riti kaal mein hamein striyon ki puri parampara milti hai jo rachnarat theen. lekin kya karan hai ki barson tak miran, sahjobai aur taaj sarikhi do chaar ke alava itihas ki kitabon mein striyon ka zikr nahin kiya gaya? jin striyon ne likha bhi ve aksar dusron ke naam se ya chhadm namon se chhapin. kya hum iske manosamajik karnon ko bataur pathak aur alochak dekh pane mein saksham hote hain, jabki har yug ki avashyaktanusar itihas bhi punarvyakhya ki maang karta hai. aise mein navjagran hi nahin pratyek daur ki stri rachnashilta ki punarvyakhya honi chahiye. samaj aur satta se stri ke badalte sambandh, uske lekhan ke bhitar chhipi hui duvidhayen, jo darasal uski iimandari ka parichay deti hain, sarvochch satta ko laukik roop mein pahchanne ki koshish, apne naam ki jagah ‘abla patiprana’ jaise padon ka prayog, vartaman sandarbhon mein vivechan karke hi stri sahityetihas ki mukammal samajh viksit ki ja sakti hai. acharya ramchandr shukl ne ritikal ke sandarbh mein kaha tha ki ismen maulikta ka abhav hai. navjagran ke daur mein kai andolnon ke samne aane se maulikta ek alochanatmak pad ke roop mein viksit hui. itihas ko dekhne aur itihas mein shamil hone yogya vishyon ki sarvastu badli. hamne maulikta ki samajik bhumika ko dekhana shuru kiya, saath hi samaj ko ek alochanatmak dalil (kritikal argument) ke roop mein dekhne ki koshish bhi. bhaktikal ki tarah is daur ke rachnakaron mein bhi lokchinta apni puri akadamik iimandari ke saath dikhai paDti hai. is lok chinta ke svrup ko dalil ke roop mein dekhe jane ki zarurat hai. aaj ki alochana itihas ka sandarbh (refrens) to deti hai lekin aaj ke liye use ‘prsang’ ke roop mein istemal nahin karti. itihas aaj kitne stron par sangharsh karta hai, usse prsang ka nirman hota hai. striyon ke likhe hue ko itihas se, apne mulyankan ke liye kin kin stron par jujhana takrana paDta hai, kaise ve likhkar pratirodh ki sanskriti ka nirman karti hain, isse hi ‘prsang’ paida hota hai. aaj ke yug ka itihas jo ejenDa deta hai, rachnakar usse takra kar hi ‘prsang’ ka nirman kar sakta hai. itihas hi nahin itihas lekhan ki puri parampara se takrati, upekshit ye striyan kya apne likhe hue ke punarvishleshan ki maang nahin karti hain?
stri sahityetihas ke sandarbh mein itihas mein stri lekhan ki jagah aur kaal nirdharan ka parashn mahattvpurn hai. yadi stri mukti ki drishti se vichar kiya jaye to samajik, sanskritik ya vaicharik binduon par purushon ko mili chhoot aur svtantrtayen bilkul bhinn tarike ki rahin aur lagbhag striyon ke nitant viprit. yuropiy punarjagran ko dekhne se ye baat aur bhi aspasht ho jati hai. shesh yurop ki apeksha itli mein १३५० se १५३० ke beech jyada tezi se adhunikta ka pravesh hua. vastra udyog aur kapDa milon ne uttar samanti samajik sambandhon ko ne sire se nirmit kiya. udyog dhandhon ke vikas aur shram rojagar ke avasron ne ne Dhang ki samajik sanskritik abhivyaktiyon ke darvaje khole, jiske liye ye pura yug jana jata hai. bavjud iske, striyon ke liye is punarjagran ka koi arth nahin tha. audyogik vikas aur shram ke avasron ne striyon par nakaratmak prabhav hi Dala. praak punjivadi vyavastha, rajya aur unke dvara banaye hue samajik sambandhon ne punarjagran ke daur ki striyon ki sthiti ko unki samajik haisiyat ke anurup alag alag Dhang se prabhavit kiya. abhijatya aur burjuva varg ki striyon ke liye navjagran (renensa) ka arth vahi nahin tha jo sadhanhin, dhanhin stri ke liye tha. iske atirikt jab bhi hum punarjagran kaal mein stri purush samanata ya unko mile samanadhikaron ki baat karte hain, hamein striyon ke mudde par unko mili svtantrta ke sandarbh mein avashya sochna chahiye. is drishti se jaan keli ke anusar chaar binduon par socha ja sakta haih
१. purush yaunikta ki tulna mein stri yaunikta par niyantran
२. striyon ki arthik aur rajnitik kshetron mein bhumikayen (stri purush ke beech shram vibhajan, striyon ka sampatti par adhikar, rajnitik adhikar, shram ke liye milne vale parishramik ki dar purushon ki tulna mein, shiksha aur rozgar ke avsar aadi)
३. samaj ki samuhik soch ke nirman mein striyon ki sanskritik bhumika par vichar saath hi is karya ke liye unhen shiksha ki kaisi suvidhayen muhayya karvai gayi hain
४. samaj mein striyon ke bare mein kis tarah ki vichardharatmak nirmitiyan karya karti hain? tatha kala, sahitya aur darshan ke antargat kis tarah ki stri chhavi ka ankan kiya jata hai?
vaicharik mandanD ke antargat hamein do baton par dhyaan dena chahiye, pahla to anuman ke adhar par ye andaja lagana ki kisi samaj mein stri ki vastavik sthiti kya hai aur striyan apne bare mein kya aur kaise sochti hain? purushon dvara likhe hue sahitya mein stri yaunikta ka parashn tha hi nahin, yahan tak ki pashchim ke punarjagran mein bhi stri yaunikta ki bhumika par nazar Dalne se kuch dilchasp baten samne aati hain. dhyaan rahe ki ye vahi pashchim hai jahan stri shiksha par sabse jyada bal diya gaya. yaunikta ke sambandh mein punarjagran ke daur mein stri muddon masalan prem, vivah, shiksha, parivar ke sambandh mein pitrisattak samaj ka najariya kya bharatiy samaj se alag tha ya unki yaunikta ke bare mein vahan bhi avkash ka utna hi aur vaisa hi abhav tha jaisa ki bharat mein. iske atirikt niji sampatti par adhipatya ke sandarbh mein pashchim mein striyon ki tulnatmak roop se kya sthiti thi, ye janna zaruri hai.
punarjagarankalin stri ne madhyakalin samanti samaj se praak adhunik raashtr rajya tak jo rasta tay kiya usse parivar aur rajaniti ki sanrachna mein amul badlav dekhe ge. is daur mein stri naitikta ke ne pratiman gaDhe ge, bokashiyo aur arastu jaise vicharkon ne striyon ke liye daihik shuchita, manasik pavitarta ko anivarya jivan mulyon ke roop mein ghoshit kar diya. saath hi pablik sphiyar mein purush ki shreshthta ko barambar sthapit karne ka prayas kiya gaya aur aise sab mamle jinmen niti nirdharan ya netritv ki zarurat nahin hoti, unmen striyon ko sthaan diya gaya. renesan ke sampurn vichar mein stri ke liye gharelu devduti ki bhumika tajviz ki gayi, ethens ko iske udahran ke taur par dekha ja sakta hai jahan kala aur bauddhikta ke utkrisht mahaul mein bhi striyon ke liye ghar ki charadivari ko hi sabse upyukt sthaan mana jata tha. samuche darbari sahitya mein striyon ke prati ruDhigrast manasikta ke darshan hote hain, jiske pichhe samajik sanskritik karnon ko dekha ja sakta hai. ११ veen aur १२ veen shatabdi mein darbaron mein jo prem sambandhi kavya dante jaise kaviyon ne likha usse ek nai tarah ki sahityik parampara ki shuruat hui, jisne madhyakalin prem sambandhi avdharnaon aur varjnaon ki jagah prem aur naitikta ka ek naya hi adarsh samne rakha. isse pahle ki darbari kavita samantshahi mulyon se santrast kavita thi, jisme kisi adhin ya kisan stri ki kamna karne vale samant ko prerit karne vale srot the, is sandarbh mein kulin ya samant ke liye koi naitik bandhan nahin tha, dusri taraph stri ke liye prem ka arth tha ki wo prempatri bankar hi khush rahe aur premi ki pratyek ichchha ka samman kare, use prasann rakhe’ darbari prem darasal premiyon ke beech parasparik svachchhandta ki vakalat karta tha. lekin dusre Dhang se dekhen to is tarah ka prem abhijatya aur kulin striyon ko hi prem karne karne ka adhikar deta tha, jabki adhinasth aur garib striyan prem paatr bankar aur jyada adhinasth ban jati theen. darasal darbari kism ke prem mein adhinta ke kai ayam the sabse pahle to stri ko gharelu aur paltu banana, jiske liye bhale hi stri ke aage ghutne tekkar prem ki bhiksha mangni paDe, ya vinamrtapurvak prem nivedan karna. dusre stri ko aise bhavatmak niyantran mein rakhna ki wo svtantrta ki kalpana bhi na kar sake aur prem ka yathochit pratidan dene ke liye nirantar prastut rahe. tisre usse is yogya banana ki wo pati/premi ke prati kartavyshil, pavitra aur iimandar rahe, jabki samant ya jamindar aur stri ke sambandh ekaraikhiy nahin ho sakte the. pitrisattatmak vyavastha ki avashyaktaon ke anurup ye sambandh badalte rahte the, aur is tarah darbari prem dampatya sambandhon se bilkul alag aur svtantr hua karte the. parivarik sambandh apni gati aur sima mein chalte rahte the, unka samant ki anyanya premikaon se koi lena dena nahin hota tha. ek samant ki ekadhik premikayen ho sakti theen aur wo patni se yaun shuchita ki apeksha rakhta tha, vahin premika se is tarah ki maang karna sambhav nahin tha kyonki vivahetar prem alag tha aur wo vivah sanstha ko kahin se bhi dhvast nahin karta tha. lekin kalatmak srijan ke liye vivahetar sambandh hi mahatvpurn vishay bana. aisa nahin tha ki isse vivah sanstha nitant aprabhavit hi rahi, lekin uski charamrahat aur tutan samantshahi ke antargat ati samanya prvritti ke roop mein pahchani gayi. saval ye hai ki aise sambandh akhir ‘avaidh’ mane jane ke bavjud samaj mein chalte kaise rahe? iske uttar mein ye kaha ja sakta hai ki vivah ek aisa sambandh tha jo dusron ke dvara sthir kiya hua hota tha, samajik jivan ke nirvhan ke liye vivah ko zaruri mana gaya. charch dvara bhi vivahetar sambandhon ko heen mana jata tha lekin is tarah ke darbari prem (courtly love) ya vivahetar sambandh ko vaidhata bhi pradan ki. iisaiyat mein prachalit prem ki avdharna ne ise paripusht bhi kiya. iisaiyat mein prem ko sarvopari mana gaya aur prem ki uddattta mein yaunechchha ka virechan karne par bal diya gaya. dhire dhire vivahetar sambandhon mein prem aur seks ka mishran ho gaya aur iisaiyat ke updesh kisi kaam na aa sake aur aise sambandhon par samanti samaj ki khalabaliyan mand paDne lagin. dhan aur sadhan sampann log charch ke updeshon ko usi sima tak grhan karte the, jis sima tak wo unke nihit hiton ke sadhan mein sahayak tha.
jaan keli ke anusar darbari prem ke svrup mein nirantar badlav aate rahe. barahvin shatabdi ke dauran is tarah ka prem aur akarshan darbaron mein hasya aur mazak ka vishay bhi bana aur bahut sara sahitya vivahetar prem sambandhon aur prsangon ko lekar manoranjak sahitya bhi likha gaya. adultery ya avaidh prem sambandhon ko lekar charchayen bhi khoob hua karti theen. in sabke beech stri ki chaturai, murkhata, saundarya aur dhokhon ke kisse aur charche darbaron mein charcha ka aam vishay the. udhar stri se ye apekshit tha ki ek or wo vivah mein pati ko bhi prasann rakhe, davton ka ayojan kare aur dusri or premi ke prati bhi samarpit rahe. shuchita aur naitikta ke mishran aur dvandv mein ‘prem’ek akasmik ghatna ke roop mein samne aaya karta. avaidhata bahut tarah ki savadhani ki maang karti thi lekin prem aise sambandhon mein bhi vishuddh prem ki irotik prkriti se inkaar nahin kiya ja sakta. iski apeksha punarjagran ke daur ki stri apekshakrit jyada svtantr hui. wo prem sambandh rakhne ya na rakhne ke liye svadhin thi. spashttah ye vaicharik mukti ki or sanket karta hai, jismen stri apni ichchha se sambandh rakhne ki disha mein kadam baDhati dikhti hai. aise bahut se sahityik sakshya milte hain jinmen stri vivahetar sambandh rakh rahi thi jismen wo svechchha se avajahi bhi kar rahi thi. adan pradan ke sambandh ke bavjud. kya ye prsang sirph sahitya ka vishay the ya samajik paristhitiyan bhi stri ke prati manasik anukulan ko badal rahi theen? lekin stri ki pavitarta ki paramprik avdharna aur purush par uski nirbharta ke bavzud prem sambandhon mein svachchhand avajahi ashcharya paida karti hai. vivahetar aur darbari prem sambandh ek tarah ka stetas simbal bhi tha, aur bahut prachalit tha. samuche madhyakalin yuropiy sahitya mein parastri prem ki kavitayen aur shrringar prsang bhare paDe hain, ye tabhi sambhav tha jab pitrisatta ise prashray aur sahyog deti kyonki charch ki tayashuda naitikta iske khilaf paDti thi. halanki shuruati daur mein charch aur purush pardhan samaj ko is tarah ke sambandhon se koi dikkat nahin thi, kyonki ismen purush ke liye Dher svtantrta thi. dikkat tab shuru hui jab striyan bhi apni yaunikta ko liye samne aane lagin. jahan iisaiyat ka muladhar paraduःkha katarta, karuna aur prem tha, vahin sahitya mein aise premi ka karun chitran hone laga, jo apne malik ki patni se prem karta hai, nivedan karta hai aur uske liye praan nyochhavar karne ko taiyar rahta hai. wo svami ko dhokha deta hai par svamini ki seva karne ke liye, uski prasannata ke liye hardam taiyar rahta hai. is tarah ka prem vaidhata ki shreni mein nahin aata tha, jo is baat ki taraph bhi sanket karta hai ki adhiktar abhijatya vivah sambandh kisi rajanaitik laabh ya dhan ke liye sthir hote the, jinmen prem aur bhavatmak lagav ka abhav hota tha. darbari prem ko vishay banakar likhe ge sahitya se aisi bhavnayen virechit bhi hone lagin aur paramprik sahitya se uski takrahat bhi baDhi. samanti mahaul mein stri ki yaunik aur anya avashyaktaon mein koi fark nahin kiya jata tha aur parivaron ki atanrik sanrachna mein dharm aur charch ka bhay bhi antargumphit tha. dusri taraph aise samanti parivar jahan sampatti ka uttaradhikar stri ko milta tha vahan pati uski puri khanadani sampatti ki dekhbhal aur prbandhan kiya karta tha, aisi stri se vivah sambandh banane ke liye achchhe achchhe parivaron ke vyakti aatur rahte the. pati ya premi se sune hue anubhvon aur kabhi kabhi svayan upasthit rahkar bhi striyan rajadarbar mein kavitayen aur geet likhti theen jinka mool svar romantik hota tha, ranivason aur antःpuron mein aise naatk bhi khele jate the jo mukhytah prem par adharit hote the. praak adhunik yug aate aate darbar sirph dikhave ki cheez rah ge the lekin ab bhi sadharan striyon ke liye rajnitik satta ya netritvkari bhumika praapt karna door ki baat thi, bavjud iske ki kuch striyan saphal shasak bhi huin. lekin aam taur par stri ke prati samaj ka jo ravaiya tha use nobeliti par likhi pustak mein dekha ja sakta hai jismen striyon se shikshit hone ke saath saath achchhi nrityangna, gayika, chitrkar, sundri aur akarshak vyaktitvshali banne ki apeksha ki gayi hai. is dinon stri se apne aap ko aisa banane ki apeksha ki gayi jo dusre ko prasannata aur jivantta se bhar de. lekin akarshak dikhana aur akarshit karna ye do baten theen jo sabse adhik mahatvpurn theen, jabki darbaron mein charcha ka vishay tha rajaniti aur yuddh. wo stri jo darbar mein aati jati thi usse ye apeksha ki jati thi ki wo akarshit kare, lubhaye lekin niti nirdharan ya rajnitik maslon par koi raay na rakhe. uska yuva aur akarshak dikhana, haav bhaav sanchalan mein savadhani baratna hi zaruri tha, darbaron mein aksar purush hi vakta ki bhumika mein hote the aur striyan shrota. striyon ko kaisa dikhana, kaisa hona chahiye, iske bare mein bhi purush hi sochte the.
renesan ke daur ki striyon ki rachnaon ke kathya aur parivesh par bisvin shatabdi mein hi dhyaan diya gaya, jab unki rachnaon ke sangrah parkash mein lane ki koshishen huin. isse pahle mana jata tha ki darbar se sambaddh evan darbari sahitya se prabhavit striyan purushon ki tarz par kuch kavitayen rach rahi theen aur shikshit hone ka adhikar aur suvidha unhin ke paas thi, isliye sahityetihas mein unhin ka zikr bhi aaya aur vibhinn bhashaon mein unhin ke anuvad bhi prastut kiye ge. inse aage ke daur mein renesan ne kai chhandbaddh rachnakar, stri natakkar utpann kiye, jinki rachnaon ki upeksha ki gayi, jabki yadi sirph inglainD ki kavyitriyon ki rachnaon ko udahran svrup dekha jaye to renesan ke daur ki stri rachnatmakta ke vibhinn ayam samne aa sakte hain, jo itihas ki vismrit upekshit kaDiyon ko shrrinkhlabaddh karne aur purush drishti se likhe sahityetihas ko chunauti dete hain. in striyon ki rachnatmakta ka kshetr bahuayami hai matritv, prem, adhyatmikta, sansarik, bhautik samasyayen, unke samajik rujhan, svayan ko sthapit karne ka prayas aur pitri satta ko chunauti deti rachnakaron ko sangyan mein lena zaruri hai. is daur ki pahli kavyitri izabela vhitni ki pahli kavita १५७३ mein chhapi thi. wo shahr se guzarish karti hai ki use gumshudgi mein hi dafan kar diya jaye–
“mujhe gumshudgi mein dafan kar do
aur kabhi mera naam bhi mat lo”
izabela vhitni, elijabeth pharst, eni sesil de vere, mairi siDni, mairi roth jen, elizabeth kavenDisheni drovis, emiliya lanyer, emiliya lanyer, rachel speghat elis satakliph, enni broDstrit jaisi striyan is daur ke prarambh mein likh rahi theen. inko mote taur par teen shreniyon mein banta ja sakta hai pahli to ve jo burjua parivaron se juDi hui theen, jinhen shaikshik, arthik madad ke liye kisi ke samne haath failane ki zarurat nahin thi. dusri ve jin par sensarship itni havi thi ki prarambh mein inhonne srijan ki jagah anuvad ko hi apnaya jinmen elijabeth pharst, eni sesil de vere aur meri siDni theen. tisri tarah ki rachnakar ve theen jo sadharan parivaron se sambaddh theen, lekin darbaron se bhi kisi na kisi roop mein juDi hui theen. eni drovis, emiliya lanyer, Dayna primroz isi shreni mein aati hain lekin ve aksar hashiye par hi raha karti theen, unhen hamesha sanrakshan ki avashyakta ka ahsas hota raha. izabela vhitni, rachel speghat, elis satakliph aur aini broDstrit ki rachnaon se zahir hota hai ki unhen arthik sanrakshan ki zarurat thi, yadyapi ve burjua varg se sambaddh theen aur koi na koi gharelu rozgar karti theen. vhitni likha ki main sharir aur mastishk se paripurn hoon par dhan se kamzor hoon. ” lanyer ne likha ki use purani vyavastha ke beet jane ka afsos hai. ye donon hi apni kamjor arthik sthiti ki charcha karti hain. vhitni kavitaon ke liye milne vale parishramik se asantusht hai aur lanyer ko ummid hai ki kambarlainD ki kauntes margret kliphphorD uske seva karyakal ko baDha degi. inki kavitaon ko paDhkar aisa lagta hai ki ve apni arthik sthiti ko lekar chintit theen aur apne samkalin purush rachnakaron ki tarah hi rachnaon ke liye parishramik ki apeksha karne lagi theen, jabki unhen purushon ki tulna mein vyaktitv vikas ke bahut kam avsar praapt the. inhonne laingik adhar par nahin balki arthik adhar par samuh banaye hue the. ye theek purush rachnakaron ki tarz par tha, dhani aur samriddh rachnakaron ka samuh garib rachnakaron se apne aap ko alga leta tha. darbar aur satta se nikatta, uchchapdasth adhikariyon se sampark ke adhar par samuh bana karte the. iske bavzud aisi rachnakar bhi samne ayin jinka darbaron se koi sambandh nahin tha, dusre rachnakaron mein jenDar ke adhar par vishesh bhedabhav nahin tha, stri aur purush donon saman samajik aur arthik vyavastha ke avibhajya ang the. stri aur purush donon ke liye bataur lekhak sthapit hone mein dhan aur pad mahatvpurn bhumika nibhate the, kisi kavi ke sambandhi kahan kahan sthapit hain uske niji aur samajik sampark kin logon se hain, ye uski rachnaon ki charcha ke liye mahatvpurn tha. lanyer jaisi kavyitri kavita mein isi tarah ka sansar rachti hai jismen wo kambarlainD ki kauntes ki madad ke prati abhar vyakt karti hai, wo apne gaanv se nirvasan ki takliph vyakt karti hai aur aisa sansar rachti hai jahan kavi aur sanrakshak aapas mein atyant sauhardrpurn vatavran mein rahte hain. lanyer pahli kavyitri hai jo gaanv par kavita likhti hai. meri siDni aur mairi roth ne bhi baaDh se uphanti nadi ka chitran kavitaon mein kiya hai. meri siDni uphanti nadi ko manav astitv ko hila dene vala manti hainh nadiyan, haan nadiyan jo chinghaDti hain/sagar ki uphanti lahron si nadiyan chinghaDti hain/toDti hui kagaron ko, simaon ko paar karti /nadiyan chinghaDti hain. kahin wo asman ke raja ko sambodhit karti hui likhti haih akash ke devta /driDh aur satya tumhare vachan jhuthe hain.
renesan ki kavyitriyon mein svar vaividhya hai, kabhi unmen adhyatmikta ka svar hai to kabhi vyangya, kabhi ve nasteljik hain to kabhi atmabhivyakti ke liye vyakul dikhti hain; masalan vhitni vyangya ka atyant prabhavi prayog karti hai. varjiniya vulf ne room auf vans on mein likha tha ki striyan sthayitv aur suraksha chahti hain. praak adhunik kavyitriyan ghar aur ghar ke abhav ko samanya roop se kavita ka vishay banati hain. jen aur elizabeth kavenDish apne ghar ki smriti mein kavitayen likhti hain. udhar aini braiDastrit ghar chhutne ki yatana ko abhivyakt karti hai. ghar ke alava parivar janon ki madad, unke bhavanatmak sahyog aur unke na rahne par upje abhav ko bhi kavitayen abhivyakt karti hain. meri siDni, philip aur rabart siDni ek parivar ke the vaise hi merri rroth ke saath viliyam harbart juDe the, kavenDish parivar mein jen, elizabeth viliyam aur margret kavenDish aur eni sesil mashhur sahityik parivar se sambaddh theen. sahityik prishthabhumi se aai hui ye rachnakar sahitya ki duniya se suprichit hoti theen. sabse dilchasp ye hai ki sadharan ya burjua ve chahe kisi bhi prishthabhumi sadharan ya burjua se sambaddh hon aatm se sanvad ki prakriya sabhi mein lakshit hoti hai. १९७० ke dashak tak pashchimi strivadi alochana ne stri rachnakaron aur unki atmakthaon ke antःsambandh ko puri tarah ujagar kar diya, isliye ismen koi ashcharya nahin hai ki is daur mein ve kisi vaicharik chetna par kendrit na rahkar niji anubhutiyon ko vani dene mein mubtila theen. elizabeth pratham ki kavitayen kaid ke dinon ki takliph ka byaan karti hain. vhitni bhi arthik abhav ke dinon, lanyer vigat yauvananubhvon, kavenDish bahnon ne sivilvar ke anubhvon ke atmaprak sandarbh kavitaon mein diye hain. prem aur shokagit– ye do sandarbh kathya ke taur par inki kavitaon mein samanyatः pae jate hain. udahran ke taur par meri siDni ne apne mrit bhai philip ki smriti se hi paam anuvad ki shuruat ki jen kavenDish ne bhi apni bahan elizabeth ko yaad karte hue likha eni sesil de vere ne apne divangat putr ki smriti mein likha eni braiDastrit bhi apne pautr ki smriti ko kavita ka vishay banati hai–
parivarik sambandh,jivan ki bhavuk prtikriyayen in sabko kavita ka vishay banana is baat ko darshata hai ki ye rachnakar bauddhikta se uupar bhavukta ko pradhanta de rahi theen, nikat parijnon ki mrityu aur abhav shokgitiyon mein abhivyakt ho raha tha. jahan darbari kavita mein niji duःkha sukh ko gopan rakhne ki prvritti thi vahin is daur ki striyan khulkar apni sanvednayen vyakt kar rahi theen. ashcharya nahin ki is daur mein striyon ne laukik prem ko kavya ki vastu ke roop mein sahajta se svikar kiya. hindi mein to striyon dvara laukik prem ki prakat abhivyakti ke khatre bisvin shatabdi ke uttarardh mein hi uthaye jane shuru hue; jabki inglainD mein mairi roth ke saneton mein unke chachere bhai aur premi viliyam ke prati akunthit prem abhivyakt ho chuka tha. roth ka prem viliyam ke prati dukhant hi raha. darbari samikran, rishte nate parivar aur utkat prem ke bavjud donon ka na mil pana tatkalin samajik parivarik sambandhon ke vishleshan ka nazariya bhi pradan karta hai. isi sandarbh mein elizabeth pratham ki kavita an answer ko dekha ja sakta hai, jo valtar rele ke prati prem ki abhivyakti hai. elijabeth kavenDish bhi prem ki abhivyakti ki raah mein kisi varjana ko nahin mantin. eni broDstrit apne anupasthit pati ke bare mein likhti haih my head, my heart, mineeyes, my life, nay, more ye vahi bhasha aur vahi rupak hain jo darbari kavitai mein prayukt hote the. yadyapi adhikansh shokagit nitant niji hain, lekin prem kavitayen sahj aur utkat hain, jinse samanya pathak ka sadharnikran ho jata hai. ye kavitayen atmaprak adhik hain, jinmen adhunik kavita ke beej parilakshit hote hain. samanya shreni ki kavitayen bhi ye striyan likh rahi theen jinmen rajanaitik, dharmik vishvas aur asthayen abhivyakt ho rahi theen.
inki rachnayen is baat ka prmaan hain ki striyan vyaktigat maslon se samajik sarvajnik maslon ki taraph ja rahi theen. rachnaon mein atmvishleshan ka painapan aur vishay ka chunav iska prmaan hai. adhikansh rachnakar rajnitik vishay ke roop mein shasak elizabeth ke jivan ko grhan karti dikhti hain. samragyi elizabeth ki lokapriyta, unki sarkar, rashtriy nitiyan aam janta ki ruchi aur charcha ka vishay theen. striyan unhen satta aur stri netritv ke adbhut samanvay ke pratik ke taur par dekhti theen. elizabeth ke bare mein broDastrit likhti hai. now say, have women worth? or have they non?/ or had they some, but with our queen it’s gone? nay masculines, you have thus taxed us long,/but she,thoughdead, will vindicate our wrong;/let such as say our sex is void of reason /know ‘tis a slander now, but once was reason’
kavyitriyon mein aisi koi nahin hai jisne rani elizabeth ki charcha kisi na kisi roop na ki ho. Drovich, siDni, speghat, primroz aur broDstritne raniko dharm sansthapika ke roop mein chitrit kiya, udhar izabela vhitni, elizabeth pratham, eni sesil, lanyer, roth aur kavenDish bahnon ne sidhe sidhe dharm ke prati nishtha to nahin dikhai par jivani aur antःsakshyon mein unke prostetent dharm ke prati rujhan aspasht dikhai paDte hain. inmen se sirph elis satkliphf hi aisi hai jo kaitholik dharm ke prati apne rujhan ko aspasht shabdon mein abhivyakt karne ka sahas karti hai,jabki san १६३४ mein jab wo likh rahi hai tab is tarah ki kavyatmak abhivyakti karna khatre se khali nahin tha. ye is baat ko pusht karta hai ki praak adhunik kaal ki kavyitriyan apne vishvason ke sandarbh mein khatre uthane ka sahas kar rahi theen aur apni kavitaon mein baar baar iishvriy satta ka zikr bhi karti theen, jo unhen bhautik jagat mein badhaon se takrane ki himmat deti hai. ye bhi gauratlab hai ki in striyon ko pitrisatta dvara nirdharit moral pulising se bhi takrana paDta tha,jo kamobesh aaj ke sandarbh mein bhi sahi hai. stri ka agyakarini,maun rahna adarsh mana gaya,vahin wo bhautik shabd likhkar purushaprdhan kshetr mein sendh lagati hai. prakashan se uska likha hua bhi anya rachnakaron ki tarah hi pathkon ke vyapak sansar tak pahunchne laga. aisa nahin ki pathkon ne baDi udarta se grhan kiya ho ya inki pratibha ko saraha ho, ulte lekhikaon ki charitrik shuchita par prashnchinh lagaye jane lage aur unhen jugaDu, laabh lobh ke liye sambandh sthir karne vali ‘asti’ ka khitab mila. bahut sambhav hai ki kai rachnakar sensarship aur lokapavad ki vajah se apna likha chhapvane ko raji nahin huin. unki rachnaye naatk, prahsan, kavitayen band kamron ke bhitar hi pradarshit huyin, kahi suni gayin ya yon kah len parivarik hadbandi mein rahin aur aam janta tak pahunch hi nahin payin. likhne aur prakashit hone ke sandarbh mein striyon ko bahut heen drishti se dekha jata tha, isiliye adhunik kaal tak bhi renesan kaal ki kai natya rachnayen pathkon darshkon tak nahin pahunchin, jinki rachna striyon dvara ki gayi thi. praapt panDulipiyan is tathya ko pusht karti hain ki striyan sirph prem aur kshobh ki kavitaon ki rachna tak hi simit nahin theen balki janavidha ke roop mein naatk ko bhi apna rahi theen. mairi siDni ke the tragedy of antonie and jane tatha elizabeth kavenDish ke likhe naatk the concealed fancies ko udaharnasvrup dekha jana chahiye. siDni ke sanvadon ka gathan,elijabethke patron ke charitr gathan par shekspiyar aur marlov ka prabhav dikhta hai,saath hi ye bhi ki ve lagbhag sabhi vidhaon par haath aajma rahi theen. Dorich dvara kavita mein hi natkiy sanvadon ka ayojan kiya jana hamein batata hai ki wo sanvad dvara janta tak apni baat pahunchane ka prayas kar rahi thi, kyonki naatk sarvadhik lokapriy vidha ke roop mein sthapit thi.
ye tathya rekhankit karne yogya hai ki ye striyan apni yaunikta ko lekar bahut sachet hain aur yahi sachetanta inhen adhunik banati hai. masalan lanyer ne slave Deus rex judaeorum mein charch ki dharmik aur dakiyanusi soch ko chunauti dete hue likha ki maryada ka patan purush ke dvara hota hai,stri dvara nahin ha“her fault, though great, yet he was most to blame” isi tarah rashel aur eni broDastrit striyon ko amaryadit kahne valon ko kosti hain aur kahti hain ki purush hi stri ko path bhrasht karta hai,uski uplabdhiyon mein badhak banta hai. joseph swetnamjisne‘the arraignment of women’ mein striyon ko avishvast aur rahasyamyi kaha tha,stri ninda ke uske ejenDe par tippni karte hue ‘mortality memorendum’ mein spighatne joseph ke bare likha “as a monster or a devil (who) on eve’s sex…foamed filthy froth” primroz, roth aur kavenDishne rachnaon mein sadiyon se prachalit stri ke kumaritv ki raksha ya uske na hone ki sthiti mein use charitrahin manne ko ulat diya aur kaha ki pratyek baar purush hi itna masum nahin hota ki wo stri ke banaye jaal mein ulajh jaye,ya apna jivan nasht kar de. Dayna primroz ‘a chain of pearl’ mein is bare mein likha ha“ siren blandishments/ which are attended with no foul events” (temperance,lines 5 6) apne sanet‘pamphilia to amphilanthus’ mein mairi roth ne stri ko sthir mati aur purush ko asthir mati kaha hai. elizabethaprtham ki kavitayen,eni sesil ki shokgitiyan,mairi siDni ki prarambhik kavitayen stri ki yaunikta ka samman karne ka bhaav vyakt karti hain. inmen se sirph vhitni ne ‘a communication’ ki satvin pankti mein stri ko murkha kahti hai, lekin ye tay hai ki ye sabhi rachnakar samaj mein striyon ke prati parampragat soch ko badalne ke liye prayasarat theen.
praak adhunik aur adhunik stri rachnakaron ke vishay mein jankari ekatr karna,unke likhe hue ko sampadit karke prakashit karna itihas mein stri rachnatmakta ki aprapya aur upekshit dhara ki vilupt kaDiyon ko joDna hai. bharat aur pashchim mein stri ke likhe hue ki upeksha ke sandarbh mein ashcharyajnak samanata lakshit hoti hai. yurop ke punarjagran aur bharat ke navjagran mein stri ke muddon par Dher sari samantaon ke bindu milte hain. striyon ke likhe ke vishay mein jankari ho ya unki rachnaon ke sanklan hon, tab inki khoj aur vishleshan itihas aur shodh ki disha mein nai sambhavnaon ke dvaar kholne mein madadgar ho sakta hai. yadyapi pichhle bees varshon mein stri adhyayan aur laingik adhyayan kendron dvara aisi bahut si pustkon aur panDulipiyon ki khoj ki gayi hai jisse itihas ki dararon ko bharne mein madad mili hai aur visheshkar stri rachnatmakta ka mukammal itihas likhne ki disha mein prayas hue hain, phir bhi stri rachnatmakta ke bahut se pahlu abhi bhi upekshit aur anachhue hi rah ge hain. is takliph aur akanksha ki abhivyakti‘sighs’ shirshak kavita mein eni broDastrit ne ki hai –
‘and if chance to thire eyes shall
bring this vouse
with some sad sighs honourmy
absent hearer’ (before the birth of one of her children, lines 25 6)
renesan ne bahut si gitkaron,kavyitriyon aur sanvedanshil kalapremiyon ko rachnatmakta ki anukul manobhumi aur prerna pradan ki. ye samay spensar aur shekspiyar jaise pratibhashaliyon ka tha, lekin inhin ke samanantar striyan chhandbaddh kavya bhi rach rahi theen,theek bharat ki tarah jahan brajbhasha samet kai lokbhashaon mein striyan purushon ki tarz par chhandbaddh rachnayen likh rahi theen.
aaj bhi hindi navjagran ke daur ke stri sahitya ke prakashan aur mulyankan ka abhav hi hai. munshi deviprsad dvara sampadit mahila mriduvani(1904),girijadatt shukl aur brajbhushan shukl dvara sampadit ‘hindi kavya ki kokilayen’(1933) jyotiprsad nirmal dvara sampadit ‘stri kavi kaumudi’ (1931) aur ‘stri kavi sangrah’ 1928, vyathit hrday dvara sampadit hindi kavya ki kalamyi tarikayen(1941), satyaprkash milind dvara sampadit ‘hindi ki mahila sahityakar 1960, kuch aise sangrah hain jo navjagran ke daur mein stri rachnatmakta ke vaividhya ka prmaan dete hain, jo sirph striyon ke rachnatmak avdan ko prmanit hi nahin karte balki sahityetihas mein unki upeksha ki rannitiyon ka khulasa karte hain.
jahan pashchim mein punarjagran ke daur mein stri rachnakaron ke kai sanklan aur rachnayen hamein dekhne ko milti hain vahin hindi navjagran ke daur ki stri kavita haal ke varshon tak sirph aur sirph mirabai aur mahadevi ke pratinidhitv ki charcha se santusht ho jati thi aur ismen hindi sahitya ka itihas likhne vale alochkon ki aham bhumika rahi hai, jinhonne itihas mein stri rachnakaron ko DhunDhane ke bajay unhen gum karne ka kaam kiya hai. alochak ka ye parashn behad prasangik hai ki, “agar hum hindi sahityetihas mein stri rachnakaron ko DhunDhen to kya pate hain? kya ye mahaj sanyog hai ki ‘shivsinh saroj’ (1878) mein kavyitri taaj aur shekh ka ullekh bhi purush ke roop mein kiya gaya hai aur hindi ke sarvamanya itihas ramchandr shukl ke hindi sahitya ka itihas (1929) mein shekh ka ullekh svtantr roop se na karke kavi aalam ke prsang mein hi kiya gaya hai aur ‘mahila mriduvani’(1904 )ke prakashan ke pachchis varsh baad likhe jane ke baad bhi is bahuprshansit itihas granth mein adhunik kaal ke pahle stri rachnakaron mein sirph ek kavyitri miran ka naam darj hua hai. ye tathya aur bhi ashcharyajnak tab lagta hai jab hum dekhte hain ki isi nagari prcharini sabha se jahan se ye itihas granth pahle ‘hindi shabd sagar’ ki bhumika ke roop mein prakashit hua aur phir svtantr pustakakar, vahin se ‘mahila mriduvani’ ka bhi prakashan hua tha aur vahin se hastalikhit granthon ki khoj bhi ho rahi thi, jiske adhar par mishrbandhu vinod(१९१३)men pachas se adhik kavyitriyon ka ullekh hua. acharya ramchandr shukl apne itihas ke ‘tathya’ ke liye adhikanshatah mishrbandhu vinod par ashrit rahe lekin stri rachnakaron ke mamlon menunki drishti parmasvtantr kahi ja sakti hai”1
bharat mein navjagran ke daur alag alag prdeshon aur bhashaon mein alag alag samay mein ghatit hote dikhte hain. yahan bangal aur maharashtr mein jo mudde unnisvin shati ke purvarddh mein chinta ke kendr mein rahe ve mudde thoDe bahut badlav ke saath hindi patti mein bhi chintna ke kendr mein aaye par pachas saath varshon ke antral ke baad yani samaj sudhar, shiksha, madhyavarg ke prasar mein hindi bhashi kshetr pichhDe hue dikhai dete hain. ”1885 tak pashchimottar praant aur avadh ki 92 pratishat janasankhya ashikshit thi aur prati 350 striyon mein ek ko hi kisi prakar ki shiksha nasib ho rahi thi. 2
1. raman sinha, prastavana, hindi kavya ki kokilayen, ananya prakashan, 2018, prishth 5
2 viDoz, ejukeshan enD soshal chenj in tventiyeth sentchuri banaras, iknomik enD politikal vikli, april, 27, 1991, pej19
sanskritik itihas ki dararon ko bharne ke liye,uski asangatiyon ko door karne ke liye haal ke varshon mein stri lekhan par punarvichar aur shodh karne ki zarurat mahsus ki gayi hai. ise hum strivadi itihas lekhan kah sakte hain jo itihas ka mulyankan jenDar ke nazariye se karne ka pakshadhar hai. darasal strivadi itihas lekhan samuche itihas ko samagrata mein dekhne aur vishleshit karne ka prayas karta hai, jismen mukhyadhara ke itihas se chhute hue, anjane mein, ya janbujhkar upekshit kar diye ge vanchiton ka itihas aur unka lekhan shamil kiya jata hai. ye stri ko kisi vishesh sandarbh ya kisi sima mein na bandhkar, ek rachnakar aur uske daay ke roop mein dekhne ka prayas hai. ye striyon ki rachnashilta ke sandarbh mein laingik (jenDar) vibhed ko dekhne aur saath hi samajik sanrachnagat apekshit badlav jo ghatne chahiye, unka disha nirdesh karne ka bhi udyam hai. stri sahityetihas ko upekshit karke kabhi bhi itihas lekhan ko samagrata mein nahin jana ja sakta. kuchhek itihaskaron ko chhoD den to adhikansh itihaskaron ne striyon ke sanskritik sahityik daay ko ya to upekshit kiya ya phutkar khate mein Daal diya. aaj zarurat is baat ki hai ki samajik
avdharnaon, vichardharaon aur aupaniveshik arthavyvastha, samaj sudhar karyakrmon ke parasparik sambandh ko vishleshit vyakhyayit karne ke liye stri rachnashilta ki ab tak upekshit, avsann avastha ko praapt kaDiyon ko DhunDha aur joDa jaye, jisse sahityetihas apni samagrata mein samne aa sake.
striyan likhkar apne aapko bataur abhikarta (ejensi) kaise sthapit karti hain, puri samajik sanrachna ko kaise chunauti deti hain aur is tarah sahitya aur vishisht gyandhara mein dakhlandaji karti hain, ye janne ke liye vibhinn jivant sanrachnaon ke prtikon se striyon ko joDkar dekhne ki zarurat paDti hai. hindi sahitya ke sandarbh mein vichar karen to stri ki rachnashilta ke adhiktar gyaat prsang mukhyatः madhyvargiy hindu striyon ke hi milte hain, jo itihas ki jankari ko ekpakshiy aur ekaraikhiy banate hain. yahin par itihas ke punarpath aur alochanatmak pratimanon ke punarnvikran ki zarurat mahsus hoti hai. Da. namvar sinh ne sahityetihas ki punarvyakhya ke sandarbh mein sahi hi kaha hai, “navin vyakhyaon ka upyog bhar itihas nahin hai, itihas svayan mein ek nai vyakhya hai. ” itihas ki samasya se sambaddh hai rachna ki alochana, uske mulyankan ki samasya, kyonki rachna ke abhav mein itihas ka lekhan asambhav hai. lekin aisi puri parampara jiski upeksha kar di gayi ho uske bare mein namvar sinh ya ramavilas sharma jaise alochak maun hain. samuchi sahitya parampara mein stri rachnashilta ke dakhal ko kam karke ankna, ya use bhavuk, abauddhik sahitya kahkar darkinar karne ki rannitiyon ko stri sahityetihas lekhan ne samjha aur apne Dhang se ise chunauti bhi di hai.
haal ke varshon mein stri kavita ke itihas aur striyon ki rachnaon ko ek baDa pathak aur prakashak varg mila hai, lekin ab bhi hindi navjagran ke daur ke stri sahitya ke prakashan aur mulyankan ka abhav hi hai.
navjagran ke daur ki stri kavita ke kuch tayashuda paitarn hamein abtak uplabdh kavitaon mein dikhai paDte hain—
1. lok samprikti
2. adhyatmikta
3. bhakti aur prem
4. grihasthi aur vairagya
5. rashtraprem
6. atmalochan
7. phutkal samasyapurti,prkriti chitran aadi.
navjagran ki stri kavitaon ki bangi dekhne ke liye kuch sangrhon par dhyaan diya jana zaruri hai jismen munshi deviprsad dvara ‘mahila mriduvani’ pramukh hai. striyon ki rachnaon ko ek jagah rakhkar unke sahityik parichay sahit pathak ko usse parichit karane ka ye pahla prayas tha. ye sangrah १९०४ ii. mein chhapa, jiski bhumika mein munshi deviprsad ne rekhankit kiyah “. . . akele purush hi chaudah vidyani dhaan nahin hue hain, varan striyan bhi samay samay par aisi hoti rahi hain jo sone chandi aur ratnajDit abhushnon ke atirikt vidya buddhi aur kavyakla ke divybhushnon se bhi bhushit theen aur ab bhi hain jin ke bakhan anek pustkon aur janashrutiyon mein vidyaman hain. . . prachin granthon aur kavivrittanton ki khoj ki thi to us prsang mein kuch kavita aisi bhi mili jo kavyakushla kamlaon ke komal mukharvindon ki nikli hui theen. hamne usi ko sangrah karke ye chhota sa granth banaya hai aur mahila mriduvani naam rakha hai. ” ye bhumika २३ mai १९०४ ko jodhpur, rajasthan mein likhi gayi. is sangrah mein kavirani chaube loknath ji stri ardhangini ji, thakurani kakrechi ji, kushla, khaganiya, giridhar kaviray ki stri, chandrakla bai, champaderani, chhatrkunvri bai, jamasuta jaDechi ji, shri pratap ba, jhima, panDitani tijanji, taaj, tulachhray, padma, bira, prtapkunvri bai, mirabai, bagheli shri ranchhoD kunvri ji, maharani ji shri ratn kunvri bai ji, rasik bihari, ramapriya ji, rayaprvin ya prvinray, bagheli vishnuprsad kunvar ji, birjubai, viranji kunvar, bihari satasii ke karta ki stri, biharidas ki putri, brajdasi, shekh rangrejan, shri sarasvati devi, sahjobai, sundar kunvribai, hariji rani chavDi ji jaisi ३५ kavyitriyon ki rachnayen sanklit hain. stri sahityetihas ki drishti se ye pahla ullekhaniy karya hai. dekhne ki baat ye hai ki ramchandr shukl ne iske pachchis varsh baad hindi sahitya ka itihas likha lekin usmen mirabai ke alava kisi kavyitri ko ullekhaniy nahin samjha.
iske saath hi san १९२८ ke lagbhag jyotiprsad mishr ‘nirmal dvara sampadit stri kavi sangrah ka pata milta hai, jiske pahle khanD mein mirabai, sahjobai, dayabai, sain, rajmata raghuvanshakumari, subhadrakumari chauhan, torandevi lali, mahadevi varma aur dusre khanD mein rasik bihari, ratnkunvri bibi, prtapbala, sundarkunvri bibi, khaganiya, bundelabala, ramadevi, ramapriya, yuglapriya ki kavitayen sanklit hain. prayag mahila vidyapith ke pathyakram ke liye ye sangrah babu rameshvar parsad ji ne jyotiprsad nirmal ke sampadan mein taiyar karvaya tha. pustak ke panchve sanskran (१९४०) mein prakashak ki tippni haih “. . . pustak mein kavyitriyon ka naam janm sanvat ke kram se na rakhkar pariksha ki suvidha ke anusar rakha gaya hai. ” aage chalkar jyotiprsad nirmal ne ‘stri kavi kaumudi’ mein anya kai kavyitriyon masalan shekh, chhatrkunvri bai, prvinray, dayabai, kavirani, rasikabihari, brajdasi sain, prtapkunvri bai, sahjobai, jhima, champade, viranjikunvri, prtapbala, bagheli vishnuprsad kunvri, ratankunvri bai, chandrakla bai, juglapriya, ramapriya, ranchhoD kunvri, giriraj kunvri sarikhi madhyakalin rachnakaron se lekar unnisvin shatabdi ke uttarardh aur bisvin shatabdi ke prarambhik daur tak ki hemantakumari chaudhrani, raghuvanshakumari, rajrani devi, sarasvati devi, bundelbala, gopaldevi, ramadevi, raaj devi, rameshvri neharu, kirati kumari, ‘lali’, priyanvda devi aur uske baad ke daur mein bhi rachnarat subhadrakumari chauhan, kusummala ko sammilit kar liya.
san १९३१ mein jyotiprsad mishr ‘nirmal ne stri kavi kaumudi ko sanklit karne ka ullekhaniy prayas kiya, jismen mirabai, taaj, khaganiya, shekh, chhatrkunvri bai, prvinray, dayabai, kavirani, rasikabihari, brajdasi sain, prtapkunvri bai, sahjobai, jhima, sundarkunvri bai, champade, viranjikunvri, ratnkunvri bibi, prtapbala, bagheli vishnuprsad kunvri, ratankunvri bai, chandrakla bai, juglapriya, ramapriya, ranchhoD kunvri, giriraj kunvri sarikhi madhyakalin rachnakaron se lekar unnisvin shatabdi ke uttarardh aur bisvin shatabdi ke prarambhik daur tak ki hemantakumari chaudhrani, raghuvanshakumari, rajrani devi, sarasvati devi, bundelabala, gopaldevi, ramadevi, rajdevi, rameshvri neharu, kirati kumari, toran devi shukl ‘lali’, priyanvda devi aur uske baad ke daur mein bhi rachnarat subhadrakumari chauhan, mahadevi varma, kusummala sammilit hain. stri kavi kaumudi ke sampadak jyoti parsad mishr ka havala dete hue iski taza punarprastuti ki bhumika mein kaha gayah “granth mein likhit donon bhumikayen (jyotiprsad mishr ‘nirmal’ tatha ramshankar shukl ‘rasal’krit) is tathya se sahmat hain ki hindi sahitya mein itihas lekhan sadaiv laingik purvagrhon ka shikar raha hai. isliye striyon ka lekhan samne nahin aaya. yadi aaya bhi to, uska samuchit ullekh sahityik itihason mein praayः nahin milta. ” in stri rachnakaron ke alava bhi kamla chaudhari, gopaldevi, tara panDe, purusharthavti devi, priyanvda devi, bundelabala (gujarati bai) mahadevi varma, raghuvansh kumari, rama devi, rajakumari shrivastav, rajdevi, rajrajeshvri devi trivedi, ramakumari devi chauhan, ramapriya, rameshvri devi goyal, rameshvri devi mishr ‘chakori ‘rameshvri neharu, vidyavti kokil, se lekar subhadrakumari chauhan, hemant kumari chaudhrani aur homavti devi tak navjagran ke daur ki kavyitriyon ki lambi pheharist hai. isi kram mein san 1933 mein girijadatt shukl aur brajbhushan shukl ne prayag se ‘hindi kavya ki kokilayen’ shirshak alochanatmak sanklan prakashit kiya, jiski prastavana kaha gaya “hindi sahitya ke svrup nirman mein hamari deviyon ne jo bhaag liya hai, uski or hindi ke samalochkon ka dhyaan abhi vishesh roop se akrisht nahin hua tha. is granth ke lekhkon ne is abhav ki purti ka udyog kiya hai. . . . . . . jahan tak mujhe smran hai, hindi ke purush kaviyon ki kavitaon ka bhi aisa koi alochanatmak sangrah nahin hai, jismen kisi prakar ke vargikran ka prayatn kiya gaya ho, athva unki prvrittiyon ki alochana ki gayi ho. . . ” is drishti se dekhen to san 1933 mein prakashit ye pahli pustak hai jismen mirabai se lekar lilavati bhanvar tak 31 kavyitriyon chuninda rachnaon ke saath unke rachna karm par alochanatmak tippni sanklit hai. halanki kavyitriyon ki rachnaon par jo tippaniyan ki gayi hain, ve bahut sathi aur ek sima tak prbhavvadi hain, unmen kisi gahre vishleshan ka abhav dikhta hai. saath hi naitikta ke prati atirikt agrah ka dabav is had tak hai ki sampadak dvay rachnakaron ko vishay vastu ke chunav sambandhi salahen bhi dete deekh paDte hain, nishchit roop se ise striyon par lagayi jane vali ‘sensarship’ ke roop mein dekha jana chahiye. masalan rameshvridevi mishr ‘chakori’ ki chunida kavitaon par alochanatmak tippni karte hue sampadak dvay likhte hain–“abhi chakoriji ka alp vay hi hai, phir bhi unhonne apni sahridayta se kavya rasikon ko anand pradan karne ki cheshta ki hai. aasha hai, unki lekhani, prauDhta praapt hone par, is kshetr mein apurv ras ki vrishti karegi. ek vinamr pararthna ke saath hum apne is nivedan ko samapt karte hain aur wo ye ki ve kavyradhna mein apne hridgat udgaron ki abhivyakti mein kinchit sanyat hone ka udyog karen”
aspasht hai ki ye purush drishti se stri lekhan par ki gayi tippni hai jo is baat ki or bhi sanket karti hai ki striyan likh kar apne aapko bataur abhikarta (ejensi) kaise sthapit karti hain, puri samajik sanrachna ko kaise chunauti deti hain aur is tarah sahitya aur vishisht gyandhara mein dakhlandaji karti hain—yah janne ke liye vibhinn jivant sanrachnaon ke prtikon se striyon ko joD kar dekhne ki zarurat paDti hai. hindi sahitya ke sandarbh mein vichar karen to stri ki rachnashilta ke adhiktar gyaat prsang mukhyatः madhyvargiy hindu striyon ke hi milte hain. isse itihas ki jankari ekpakshiy aur ek rekhiy ban jati hai. yahin par itihas ke punarpath aur alochanatmak pratimanon ke punarnvikran ki zarurat mahsus hoti hai. namvar sinh ne sahityetihas ki punarvyakhya ke sandarbh mein sahi hi kaha hai, ‘navin vyakhyaon ka upyog bhar itihas nahin hai, itihas svayan mein ek nayi vyakhya hai. ’ itihas ki samasya se sambaddh hai rachna ki alochana, uske mulyankan ki samasya, kyonki rachna ke abhav mein itihas ka lekhan asambhav hai. lekin aisi puri parampara jiski upeksha kar di gayi ho uske bare mein ramchandr shukl, namvar sinh ya ramavilas sharma jaise alochak maun hain. ”
aksar ye shikayat itihas lekhkon ko rahti hai ki inmen se kai striyan aisi hain jinhonne ya to chhadm namon se likha ya phir inke liye kisi aur ne likha aur prasiddhi inhen mili. ye bhi ki yadi koi stri utkrisht rachna karne mein saksham ho bhi gai to uske mulyankan ka mapdanD purush hi rahe. is baat ko main shekh rangrejan ke prsang mein aspasht karna chahungi. shekh rangrejan sanvat १७१२ mein janme aalam namak brahman kavi ki patni thi. aalam ne dharm parivartan karke usse vivah kiya tha kyonki ve shekh ki rachnatmakta ke kayal the. undonon ka sammilit kavya sangrah ‘alam keli’ shirshak se prakashit hua, jismen kavitt aur savaiya chhand mein ४०० pad sanklit hain. lala bhagvandin ne shekh rangrejan ki kavitai ki prshansa karte hue kaha haih “shekh yadi aalam se baDhkar nahin hain to kam bhi nahin. prem ki jis dhara ka pravah aalam mein hai vahi shekh mein. donon ki rachnayen aisi milti julti hain ki unka ek dusre se prithak karna kathin ho jata hai. nayika bhed aur kalapurn kavya ki drishti se shekh ko purush kaviyon ki shreni mein rakha ja sakta hai. unki sabse baDi visheshata uski shuddh bhasha, saral paddhati aur suvyavasthit bhaav vyanjna hai. shekh ke pahle aur baad mein bhi bahut dinon tak shekh jaisi brajbhasha kisi bhi kavyitri ne nahin kahi. ” ab ye bhi dekh lijiye ki ‘stri kavi kaumudi’ ki bhumika likhne vale shriramshankar shukl ‘rasal’ ka usi shekh rangrejan ki rachnatmakta ke bare mein kya kahna hai, ve likhte hainh “ho sakta hai kadachit shekh ke snehasav paan se madonmatt bhavuk premi ne hi prem pravad mein aakar shekh ke naam se rachna ki ho, jo shekh ke naam se prasiddh ho gayi ho. ” aspasht hai ki stri ke likhe ke prati purush alochkon aur itihas lekhkon ki drishti purvagrah mukt kabhi nahin rahi. ve ye samajh hi nahin pae ki rachnatmak abhivyaktiyon ke pichhe manosamajiki ki pramukh bhumika hoti hai. aise kisi bhi samaj mein jahan aatm ko vyakti se sanvad ki chhoot nahin hoti, parda aur charadivari ke bhitar jo bhi, jaise bhi uplabdh ho saka chahe wo rassundri devi ki tarah chaitanya charit ke churakar phaDe ge panne hon ya chulhe ki raakh mein chhipakar rakhi gayi khaDiya ho, usi ko paDh gun kar sahitya lekhan mein prvritt huin, jinhen vyavasthit aupacharik shiksha kabhi nasib hi nahin hui, jinhonne sadiyon se shrota aur adhinasth ki hi bhumika nibhai. bhashik sanskaron ke naam par, shasak varg ke pitrisattak muhavare aur abhivyaktiyan milin, ya kamgar jan ki bhasha jinse unka rojmarra ka sampark raha karta. aise mein, unki bhasha aur muhavare pitrisattatmak hon yahi svabhavik tha, phir jin vishyon ka chayan unhonne likhne ke liye kiya, ve pitrisattatmak prbhavon se mukt kaise ho sakte the!
navjagran ke daur ki jin rachnakaron ne kavya rachnayen keen, unke yogadan ko alochkon dvara kabhi khule man se svikara bhi nahin gaya. ramshankar shukl ‘rasal’ jinhonne kavyitriyon ke sangrah ki bhumika likhi, ve sahityetihas mein stri rachnatmakta ki avhelana ki baat svikar karte hue bhi, unhen doyam darje ki rachnakar mante hain, likhte hainh “bodh vritti sadharanatya striyon mein utne achchhe roop mein nahin milti jitni wo purushon mein milti hai. . . isliye striyan bhakti rachnaon mein jyada ramati hain anya vishyon ki taraph utna akarshit nahin hotin”. . . garhasthya sambandhi vishyon mein dakshata praapt karna striyon ka ek parmochch kartavya hai. ” striyon ko maryada sambandhi disha nirdesh dene se alochak nahin chuke, aaj bhi nahin chukte aise mein striyon ki bodh vritti simit nahin hogi to kya hoga? sahj svabhavik manaviy sanvednaon ki abhivyakti ki chhoot unhen thi nahin, shiksha aur bahari samaj se sampark ke avsar ya to ruddh the ya the to bahut kam. samajik, parivarik, sanskritik aur niji, ye chaar tarah ki sensarship un par havi thi. aise mein ve ya to purushon ke paitarn par samasya purti kar rahi theen, jinmen bundi ki chandrakla bai, toran devi sukul, rama devi, bundela bala ki rachnaon ko dekha ja sakta hai ya shrringar aur nitiprak kavitaon ki tarz par likhne vali sain, chhatrkunvri bai jo krishnaprem ki abhivyakti kar rahi theen. lekin ye kisi bhi vishay par likhen, unka likhna apne aap mein hi, chali aa rahi samajik vyavastha mein ek prakar ka hastakshep hai. grihasthi aur dainandin jivan charya mein akanth Dubkar bhi atmabhivyakti ke liye vyakul sarasvati devi likhti hain–
jab lag main maike rahi likhat paDhat rahi nit
ab ghar par parbas pari rahi nahin sakati suchit॥
grihkaraj vyvahar bahu pare sambharan mohin
likhat paDhan ik sang hi ye sab kaise hohi॥
samachar ke patr je aavat hain mam paas
tinke dekhan ke liye milat na mohin supas॥
striyan kis tarah chupchap tatkalin rajnitik parivartnon ko sun gun rahi theen, iske prmaan svrup rani gunavti ko dekha ja sakta hai. ye vahi rani gunavti theen, jinki likhi teen pustkon ki charcha shri ramanresh tripathi ne ‘rajmata diyra jivan charitr’ mein ki thi. supshastr, vanita buddhi vilas aur bhagini milan ki rachna karne vali gunavti ne ११ joon १९२२ ko kasturba gandhi ko likhe ek patr mein ye chhand likhah sindhu teer ek titahri, tehiko pahunchi peer so pran thani agam ati, vichlat na man dheer, tehi pran rakhan ke liye aD ge muni beer, param pita ko sumiri kai sokheu jaldhi gambhir. is chhand se ranigunavti ke kavya kaushal ke saath saath unki rajanaitik soch aur pakaD parilakshit hoti hai.
is tarah pratirodh ke svar hamein pure navjagran ke dauran sunai dete hain, lekin unko sunne aur dekhne mein nazariye ka bhed hone se kavyitriyan, purush rachnakaron jaisi medhavi nahin jaan paDtin. jis tarah ki amurt bhasha ka prayog ye striyan karti hain, uska vishleshan vishisht sanvedna ki maang karta hai. ise mahadevi ki kavita ke madhyam se bhali bhanti samjha ja sakta hai–
shalabh main shapmay var hoon!
kisi ka deep nishthur hoon!
taaj hai jalti shikha
chingariyan shrringarmala;
jvaal akshay kosh si
angar meri rangshala;
naash mein jivit kisi ki saadh sundar hoon!
nandadulare vajapeyi ne iski vyakhya kavyitri ke adhyatmik uttthaan ke liye vyakul aatma ke sandarbh mein ki hai, jabki ise niji anubhutiyon ki amurt abhivyakti ke taur par samjha jana zaruri hai. aisa samay aur samaj jahan stri ko nitant niji kona uplabdh nahin, vahan uski chuppi ke bhi mayne hain aur mitakthan ke bhi. striyon ke likhe hue ye ‘tekst’ hamein chetavni dete hain ki maun aur mitakthan ka arth rikti nahin hai, jo apni baat ko kahne ke liye prkriti aur aatma parmatma ke rupak ka sahara le rahi hai wo isliye nahin ki iish bhakti mein mubtila uska man sansarik rah hi nahin gaya hai ya uske paas kahne ko aur kuch nahin hai, balki iski jyada sambhavna hai ki uske paas kahne ko itna jyada hai ki yogya shrota (laingik vibhed se mukt mastishk vala shrota) milna mushkil hai. ye hamare gyaan aur sanvedna ki sima hai jo hamein uski chuppi ke pichhe chhipe arth sandarbhon ko kholne nahin deti. kuchhek chune hue vishyon par hi likhna, laukik prem ki prachchhann abhivyakti ke liye bhakti, adhyatm aur rashtraprem ka sahara lena, aise hi simabaddh alochkon ko dhyaan mein rakhkar ki gayi ‘selph sensarship’ hai. amrit raay ne mahadevi par tippni karte hue likha haih “mahadevi ke kavya ko multah atmkendrik, atmalin kahna theek hai; apni hi piDa ke vritt mein uski parismapti hai. sansar ki piDa ka svtah uske liye adhik mulya nahin hai, mulya yadi hai to kavi ki piDa ke rang ko gahrai dene vale upadan ke roop mein. ”
stri maatr ko hi bhavna aur ashru se joDkar use kam bauddhik ya abauddhik manne mein parampara se suvidha rahi hai. mahadevi samet adhikansh kavyitriyon ko bhavna aur sanvedna ki kavyitriyan kaha gaya hai. striyan bhi baDi hi vinamrata se svayan ko nichle darje ka rachnakar svikarti rahi hain. ise apne lekhakiy astitv ko bachaye rakhne ki ranniti ke roop mein dekha jana chahiye. muktibodh ne subhadrakumari chauhan ke sandarbh mein unki bauddhikta ko rekhankit karte hue likha haih “subhadraji ki bhavukta kori bhavukta nahin hai, bahya jivan par sanvednatmak manasik prtikriyayen hain. yahi karan hai ki unki kavitaon mein bhaav manav sambandh se, manav sambandh vishesh paristhiti se, vishesh paristhiti samajik rashtriy paristhiti se, ek atut sambandh shrrinkhla mein bandhi hui hai. bhaav ke sare sandarbhon ka nirvah unke kavya mein ho jata hai. isse unki vastavik bhaav sampannta ka, sanvedanshilta ka, chitr hamare samne khinch jata hai. ”
striyon ke likhe hue ko bhavukta ka uchchhlan kahkar unhen dvitiy shreni ki rachnakar hi mana gaya. subhadrakumari chauhan aur mahadevi varma ki anek kavitayen, bhavuk kavitaon ki punarvyakhya karne ke liye hamein vivash karti hain. kai sthanon par bhavukta ka istemal ve ek stretzi ke roop mein karti hain, masalan subhadra kumari chauhan ki kavita ko lenh
bahut dinon tak hui prtiksha
ab rukha vyvahar na ho
aji,bol to liya karo tum
chahe mujh par pyaar na ho.
jara jara si baton par
mat rutho mere abhimani
lo, prasann ho jao, galti
mainne apni hi mani.
main bhulon ki bhari pitari
aur daya ke tum agar,
sada dikhai do tum hanste
chahe mujhse karo na pyaar.
dhyaan dene ki baat hai ki parivar ke anushasan se raashtr seva ke naam par mukti bhale wo kuch hi samay ke liye ho, in kavyitriyon ke liye kitna mahattv rakhti hai! kalam pakaDna usne seekh liya hai, kavyitri ke roop mein wo sthapit bhi ho rahi hai lekin jahan grihasthi aur pati ki baat aati hai, wo kisi se muthbheD karne ke paksh mein nahin hai. jhuk kar, vinamrata se svayan ko bhulon bhari pitari batate hue samjhaute ke paksh mein hai, jyon wo kisi ruthe bachche ko mana rahi ho. bhavukta aur vinamrata yahan par pratirodh ke auzar ke roop mein samjhe jane chahiye. jis stri ke bhavuk padya ko paDhkar hum barambar drvit ho uthte hain, uska maun aur ashru hamein rula rula jate hain. darasal ye pitrisatta aur tayashuda vyavastha ke bhitar apni nij ki pai hui svadhinata ki raksha karne ki bauddhik ranniti hai. yadi hum is bhavuk sahitya ki taraph gaur pharmayen to in kavyitriyon ka rudan, karuna ye sab hamein bhavuk pathak banati hai aur hamara dhyaan hamare bahte hue ashruon par chala jata hai; aur yahin par rachnakar saphal ho jati hain. saval ye hai ki kya is bhavuk kavita ko hum ek sahityik upavidha ke roop mein dekh sakte hain, jo pratyek yug ke sahitya mein anivaryatः vidyaman hai, jise bhartendu ki kavita mein bhi suna ja sakta hai.
kahan karunanidhi keshav soye,jagat nek na jadpi bahubidhi bharatvasi roe. jismen niji mukti ki kamna ka uddattikran karke use rashtrmukti se joD diya gaya, isi tarah mahadevi, jahan ve kahti hainh keer ka priy aaj pinjar khol do jinki niji mukti ki akanksha raashtr mukti aur usse bhi aage stri maatr ki mukti se juD jati hai. bhavukta ke is uddattikran ko kya hum bataur sahityik mulya dekh sakte hain? ab tak ke saundaryshastriy chintan ke jo pratiman rahe hain, unmen stri ko tuchchh manavi ke roop mein chitrit kiya gaya ya usmen devatv ke sabhi kalpanik gunon ki pratishtha kar di gayi hai. samajik dharatal par use tuchchh samajhne ka bhaav hi pramukh hai, jismen ye nihit hai ki stri ka likhna hashiye ka lekhan hai, uske likhe ka arth hi hai ki usmen gharelu arth chhaviyan aur dainandin ke khatrag ke varnan pramukh honge, jise mukhyadhara ke star tak pahunchne ke liye abhi lambi kavayad ki zarurat hogi. uski kavita mein galdashru bhavukta hogi, yadi wo shreshth rachna likh bhi le to uske purush prerna srot DhunDhe jayenge. shayad isiliye uspar hamesha adarsh bharatiy nari banne ka dabav tari rahta hai, subhadrakumari chauhan likhti hain–
puja aur pujapa prabhuvar,
isi pujarin ko samjho;
daan dakshina aur nichhavar,
isi bhikharin ko samjho.
akadamik drishti se bhavukta ko dekhana bahut door tak sahi nahin ho sakta, iske bavjud navjagran ki stri kavita aur aaj ki stri kavita ko antargrthit karne ka kaam ye bhavukta hi karti hai. sujan klaark ne sentimental mauDarnizm shirshak pustak mein bhavukta aur adhunikta ka parasparik sambandh vishleshit karte hue likha haih “strivad ko ek uttar adhunik pahchan ki avashyakta hai. ” rachnakar bhavukta ko ek ranniti ke taur par leti hain, isliye unnisvin shatabdi ki bhavuk rachnakaron aur bisvin ikkisvin sadi ki adhunik striyon mein aapas mein ek gahra sambandh hai. ye donon hi likhkar apne aap ko vividh vishyon ke madhyam se abhivyakt karti hain, ling aur jenDar ke pare apne aap ko svtantr ejensi ke roop mein pahachanvane ki koshish karti hain. unnisvin sadi aur is sadi ki rachnakaron ko ‘naitik uurja’ ke sandarbh mein saman dharatal par vishleshit kiya ja sakta hai. is naitik uurja ke karan hi pathak ko sidhe sidhe sambodhit karne ka sahas aata hai, jo bhaktikal se lekar navjagran ki kavitaon mein dikhta hai. sach hai ki drishtikon ko badalkar itihas ki bahut sari dararen bhari ja sakti hain.
ye tay hai ki shodh aur alochana ki bhi apni simayen hoti hain aur ye baat ramavilas sharma jaise alochkon par bhi lagu hoti hai jinhonne pure sahityetihas mein ek bhi stri rachnakar ko ullekhaniy nahin mana, jabki bhakti aur riti kaal mein hamein striyon ki puri parampara milti hai jo rachnarat theen. lekin kya karan hai ki barson tak miran, sahjobai aur taaj sarikhi do chaar ke alava itihas ki kitabon mein striyon ka zikr nahin kiya gaya? jin striyon ne likha bhi ve aksar dusron ke naam se ya chhadm namon se chhapin. kya hum iske manosamajik karnon ko bataur pathak aur alochak dekh pane mein saksham hote hain, jabki har yug ki avashyaktanusar itihas bhi punarvyakhya ki maang karta hai. aise mein navjagran hi nahin pratyek daur ki stri rachnashilta ki punarvyakhya honi chahiye. samaj aur satta se stri ke badalte sambandh, uske lekhan ke bhitar chhipi hui duvidhayen, jo darasal uski iimandari ka parichay deti hain, sarvochch satta ko laukik roop mein pahchanne ki koshish, apne naam ki jagah ‘abla patiprana’ jaise padon ka prayog, vartaman sandarbhon mein vivechan karke hi stri sahityetihas ki mukammal samajh viksit ki ja sakti hai. acharya ramchandr shukl ne ritikal ke sandarbh mein kaha tha ki ismen maulikta ka abhav hai. navjagran ke daur mein kai andolnon ke samne aane se maulikta ek alochanatmak pad ke roop mein viksit hui. itihas ko dekhne aur itihas mein shamil hone yogya vishyon ki sarvastu badli. hamne maulikta ki samajik bhumika ko dekhana shuru kiya, saath hi samaj ko ek alochanatmak dalil (kritikal argument) ke roop mein dekhne ki koshish bhi. bhaktikal ki tarah is daur ke rachnakaron mein bhi lokchinta apni puri akadamik iimandari ke saath dikhai paDti hai. is lok chinta ke svrup ko dalil ke roop mein dekhe jane ki zarurat hai. aaj ki alochana itihas ka sandarbh (refrens) to deti hai lekin aaj ke liye use ‘prsang’ ke roop mein istemal nahin karti. itihas aaj kitne stron par sangharsh karta hai, usse prsang ka nirman hota hai. striyon ke likhe hue ko itihas se, apne mulyankan ke liye kin kin stron par jujhana takrana paDta hai, kaise ve likhkar pratirodh ki sanskriti ka nirman karti hain, isse hi ‘prsang’ paida hota hai. aaj ke yug ka itihas jo ejenDa deta hai, rachnakar usse takra kar hi ‘prsang’ ka nirman kar sakta hai. itihas hi nahin itihas lekhan ki puri parampara se takrati, upekshit ye striyan kya apne likhe hue ke punarvishleshan ki maang nahin karti hain?
stri sahityetihas ke sandarbh mein itihas mein stri lekhan ki jagah aur kaal nirdharan ka parashn mahattvpurn hai. yadi stri mukti ki drishti se vichar kiya jaye to samajik, sanskritik ya vaicharik binduon par purushon ko mili chhoot aur svtantrtayen bilkul bhinn tarike ki rahin aur lagbhag striyon ke nitant viprit. yuropiy punarjagran ko dekhne se ye baat aur bhi aspasht ho jati hai. shesh yurop ki apeksha itli mein १३५० se १५३० ke beech jyada tezi se adhunikta ka pravesh hua. vastra udyog aur kapDa milon ne uttar samanti samajik sambandhon ko ne sire se nirmit kiya. udyog dhandhon ke vikas aur shram rojagar ke avasron ne ne Dhang ki samajik sanskritik abhivyaktiyon ke darvaje khole, jiske liye ye pura yug jana jata hai. bavjud iske, striyon ke liye is punarjagran ka koi arth nahin tha. audyogik vikas aur shram ke avasron ne striyon par nakaratmak prabhav hi Dala. praak punjivadi vyavastha, rajya aur unke dvara banaye hue samajik sambandhon ne punarjagran ke daur ki striyon ki sthiti ko unki samajik haisiyat ke anurup alag alag Dhang se prabhavit kiya. abhijatya aur burjuva varg ki striyon ke liye navjagran (renensa) ka arth vahi nahin tha jo sadhanhin, dhanhin stri ke liye tha. iske atirikt jab bhi hum punarjagran kaal mein stri purush samanata ya unko mile samanadhikaron ki baat karte hain, hamein striyon ke mudde par unko mili svtantrta ke sandarbh mein avashya sochna chahiye. is drishti se jaan keli ke anusar chaar binduon par socha ja sakta haih
१. purush yaunikta ki tulna mein stri yaunikta par niyantran
२. striyon ki arthik aur rajnitik kshetron mein bhumikayen (stri purush ke beech shram vibhajan, striyon ka sampatti par adhikar, rajnitik adhikar, shram ke liye milne vale parishramik ki dar purushon ki tulna mein, shiksha aur rozgar ke avsar aadi)
३. samaj ki samuhik soch ke nirman mein striyon ki sanskritik bhumika par vichar saath hi is karya ke liye unhen shiksha ki kaisi suvidhayen muhayya karvai gayi hain
४. samaj mein striyon ke bare mein kis tarah ki vichardharatmak nirmitiyan karya karti hain? tatha kala, sahitya aur darshan ke antargat kis tarah ki stri chhavi ka ankan kiya jata hai?
vaicharik mandanD ke antargat hamein do baton par dhyaan dena chahiye, pahla to anuman ke adhar par ye andaja lagana ki kisi samaj mein stri ki vastavik sthiti kya hai aur striyan apne bare mein kya aur kaise sochti hain? purushon dvara likhe hue sahitya mein stri yaunikta ka parashn tha hi nahin, yahan tak ki pashchim ke punarjagran mein bhi stri yaunikta ki bhumika par nazar Dalne se kuch dilchasp baten samne aati hain. dhyaan rahe ki ye vahi pashchim hai jahan stri shiksha par sabse jyada bal diya gaya. yaunikta ke sambandh mein punarjagran ke daur mein stri muddon masalan prem, vivah, shiksha, parivar ke sambandh mein pitrisattak samaj ka najariya kya bharatiy samaj se alag tha ya unki yaunikta ke bare mein vahan bhi avkash ka utna hi aur vaisa hi abhav tha jaisa ki bharat mein. iske atirikt niji sampatti par adhipatya ke sandarbh mein pashchim mein striyon ki tulnatmak roop se kya sthiti thi, ye janna zaruri hai.
punarjagarankalin stri ne madhyakalin samanti samaj se praak adhunik raashtr rajya tak jo rasta tay kiya usse parivar aur rajaniti ki sanrachna mein amul badlav dekhe ge. is daur mein stri naitikta ke ne pratiman gaDhe ge, bokashiyo aur arastu jaise vicharkon ne striyon ke liye daihik shuchita, manasik pavitarta ko anivarya jivan mulyon ke roop mein ghoshit kar diya. saath hi pablik sphiyar mein purush ki shreshthta ko barambar sthapit karne ka prayas kiya gaya aur aise sab mamle jinmen niti nirdharan ya netritv ki zarurat nahin hoti, unmen striyon ko sthaan diya gaya. renesan ke sampurn vichar mein stri ke liye gharelu devduti ki bhumika tajviz ki gayi, ethens ko iske udahran ke taur par dekha ja sakta hai jahan kala aur bauddhikta ke utkrisht mahaul mein bhi striyon ke liye ghar ki charadivari ko hi sabse upyukt sthaan mana jata tha. samuche darbari sahitya mein striyon ke prati ruDhigrast manasikta ke darshan hote hain, jiske pichhe samajik sanskritik karnon ko dekha ja sakta hai. ११ veen aur १२ veen shatabdi mein darbaron mein jo prem sambandhi kavya dante jaise kaviyon ne likha usse ek nai tarah ki sahityik parampara ki shuruat hui, jisne madhyakalin prem sambandhi avdharnaon aur varjnaon ki jagah prem aur naitikta ka ek naya hi adarsh samne rakha. isse pahle ki darbari kavita samantshahi mulyon se santrast kavita thi, jisme kisi adhin ya kisan stri ki kamna karne vale samant ko prerit karne vale srot the, is sandarbh mein kulin ya samant ke liye koi naitik bandhan nahin tha, dusri taraph stri ke liye prem ka arth tha ki wo prempatri bankar hi khush rahe aur premi ki pratyek ichchha ka samman kare, use prasann rakhe’ darbari prem darasal premiyon ke beech parasparik svachchhandta ki vakalat karta tha. lekin dusre Dhang se dekhen to is tarah ka prem abhijatya aur kulin striyon ko hi prem karne karne ka adhikar deta tha, jabki adhinasth aur garib striyan prem paatr bankar aur jyada adhinasth ban jati theen. darasal darbari kism ke prem mein adhinta ke kai ayam the sabse pahle to stri ko gharelu aur paltu banana, jiske liye bhale hi stri ke aage ghutne tekkar prem ki bhiksha mangni paDe, ya vinamrtapurvak prem nivedan karna. dusre stri ko aise bhavatmak niyantran mein rakhna ki wo svtantrta ki kalpana bhi na kar sake aur prem ka yathochit pratidan dene ke liye nirantar prastut rahe. tisre usse is yogya banana ki wo pati/premi ke prati kartavyshil, pavitra aur iimandar rahe, jabki samant ya jamindar aur stri ke sambandh ekaraikhiy nahin ho sakte the. pitrisattatmak vyavastha ki avashyaktaon ke anurup ye sambandh badalte rahte the, aur is tarah darbari prem dampatya sambandhon se bilkul alag aur svtantr hua karte the. parivarik sambandh apni gati aur sima mein chalte rahte the, unka samant ki anyanya premikaon se koi lena dena nahin hota tha. ek samant ki ekadhik premikayen ho sakti theen aur wo patni se yaun shuchita ki apeksha rakhta tha, vahin premika se is tarah ki maang karna sambhav nahin tha kyonki vivahetar prem alag tha aur wo vivah sanstha ko kahin se bhi dhvast nahin karta tha. lekin kalatmak srijan ke liye vivahetar sambandh hi mahatvpurn vishay bana. aisa nahin tha ki isse vivah sanstha nitant aprabhavit hi rahi, lekin uski charamrahat aur tutan samantshahi ke antargat ati samanya prvritti ke roop mein pahchani gayi. saval ye hai ki aise sambandh akhir ‘avaidh’ mane jane ke bavjud samaj mein chalte kaise rahe? iske uttar mein ye kaha ja sakta hai ki vivah ek aisa sambandh tha jo dusron ke dvara sthir kiya hua hota tha, samajik jivan ke nirvhan ke liye vivah ko zaruri mana gaya. charch dvara bhi vivahetar sambandhon ko heen mana jata tha lekin is tarah ke darbari prem (courtly love) ya vivahetar sambandh ko vaidhata bhi pradan ki. iisaiyat mein prachalit prem ki avdharna ne ise paripusht bhi kiya. iisaiyat mein prem ko sarvopari mana gaya aur prem ki uddattta mein yaunechchha ka virechan karne par bal diya gaya. dhire dhire vivahetar sambandhon mein prem aur seks ka mishran ho gaya aur iisaiyat ke updesh kisi kaam na aa sake aur aise sambandhon par samanti samaj ki khalabaliyan mand paDne lagin. dhan aur sadhan sampann log charch ke updeshon ko usi sima tak grhan karte the, jis sima tak wo unke nihit hiton ke sadhan mein sahayak tha.
jaan keli ke anusar darbari prem ke svrup mein nirantar badlav aate rahe. barahvin shatabdi ke dauran is tarah ka prem aur akarshan darbaron mein hasya aur mazak ka vishay bhi bana aur bahut sara sahitya vivahetar prem sambandhon aur prsangon ko lekar manoranjak sahitya bhi likha gaya. adultery ya avaidh prem sambandhon ko lekar charchayen bhi khoob hua karti theen. in sabke beech stri ki chaturai, murkhata, saundarya aur dhokhon ke kisse aur charche darbaron mein charcha ka aam vishay the. udhar stri se ye apekshit tha ki ek or wo vivah mein pati ko bhi prasann rakhe, davton ka ayojan kare aur dusri or premi ke prati bhi samarpit rahe. shuchita aur naitikta ke mishran aur dvandv mein ‘prem’ek akasmik ghatna ke roop mein samne aaya karta. avaidhata bahut tarah ki savadhani ki maang karti thi lekin prem aise sambandhon mein bhi vishuddh prem ki irotik prkriti se inkaar nahin kiya ja sakta. iski apeksha punarjagran ke daur ki stri apekshakrit jyada svtantr hui. wo prem sambandh rakhne ya na rakhne ke liye svadhin thi. spashttah ye vaicharik mukti ki or sanket karta hai, jismen stri apni ichchha se sambandh rakhne ki disha mein kadam baDhati dikhti hai. aise bahut se sahityik sakshya milte hain jinmen stri vivahetar sambandh rakh rahi thi jismen wo svechchha se avajahi bhi kar rahi thi. adan pradan ke sambandh ke bavjud. kya ye prsang sirph sahitya ka vishay the ya samajik paristhitiyan bhi stri ke prati manasik anukulan ko badal rahi theen? lekin stri ki pavitarta ki paramprik avdharna aur purush par uski nirbharta ke bavzud prem sambandhon mein svachchhand avajahi ashcharya paida karti hai. vivahetar aur darbari prem sambandh ek tarah ka stetas simbal bhi tha, aur bahut prachalit tha. samuche madhyakalin yuropiy sahitya mein parastri prem ki kavitayen aur shrringar prsang bhare paDe hain, ye tabhi sambhav tha jab pitrisatta ise prashray aur sahyog deti kyonki charch ki tayashuda naitikta iske khilaf paDti thi. halanki shuruati daur mein charch aur purush pardhan samaj ko is tarah ke sambandhon se koi dikkat nahin thi, kyonki ismen purush ke liye Dher svtantrta thi. dikkat tab shuru hui jab striyan bhi apni yaunikta ko liye samne aane lagin. jahan iisaiyat ka muladhar paraduःkha katarta, karuna aur prem tha, vahin sahitya mein aise premi ka karun chitran hone laga, jo apne malik ki patni se prem karta hai, nivedan karta hai aur uske liye praan nyochhavar karne ko taiyar rahta hai. wo svami ko dhokha deta hai par svamini ki seva karne ke liye, uski prasannata ke liye hardam taiyar rahta hai. is tarah ka prem vaidhata ki shreni mein nahin aata tha, jo is baat ki taraph bhi sanket karta hai ki adhiktar abhijatya vivah sambandh kisi rajanaitik laabh ya dhan ke liye sthir hote the, jinmen prem aur bhavatmak lagav ka abhav hota tha. darbari prem ko vishay banakar likhe ge sahitya se aisi bhavnayen virechit bhi hone lagin aur paramprik sahitya se uski takrahat bhi baDhi. samanti mahaul mein stri ki yaunik aur anya avashyaktaon mein koi fark nahin kiya jata tha aur parivaron ki atanrik sanrachna mein dharm aur charch ka bhay bhi antargumphit tha. dusri taraph aise samanti parivar jahan sampatti ka uttaradhikar stri ko milta tha vahan pati uski puri khanadani sampatti ki dekhbhal aur prbandhan kiya karta tha, aisi stri se vivah sambandh banane ke liye achchhe achchhe parivaron ke vyakti aatur rahte the. pati ya premi se sune hue anubhvon aur kabhi kabhi svayan upasthit rahkar bhi striyan rajadarbar mein kavitayen aur geet likhti theen jinka mool svar romantik hota tha, ranivason aur antःpuron mein aise naatk bhi khele jate the jo mukhytah prem par adharit hote the. praak adhunik yug aate aate darbar sirph dikhave ki cheez rah ge the lekin ab bhi sadharan striyon ke liye rajnitik satta ya netritvkari bhumika praapt karna door ki baat thi, bavjud iske ki kuch striyan saphal shasak bhi huin. lekin aam taur par stri ke prati samaj ka jo ravaiya tha use nobeliti par likhi pustak mein dekha ja sakta hai jismen striyon se shikshit hone ke saath saath achchhi nrityangna, gayika, chitrkar, sundri aur akarshak vyaktitvshali banne ki apeksha ki gayi hai. is dinon stri se apne aap ko aisa banane ki apeksha ki gayi jo dusre ko prasannata aur jivantta se bhar de. lekin akarshak dikhana aur akarshit karna ye do baten theen jo sabse adhik mahatvpurn theen, jabki darbaron mein charcha ka vishay tha rajaniti aur yuddh. wo stri jo darbar mein aati jati thi usse ye apeksha ki jati thi ki wo akarshit kare, lubhaye lekin niti nirdharan ya rajnitik maslon par koi raay na rakhe. uska yuva aur akarshak dikhana, haav bhaav sanchalan mein savadhani baratna hi zaruri tha, darbaron mein aksar purush hi vakta ki bhumika mein hote the aur striyan shrota. striyon ko kaisa dikhana, kaisa hona chahiye, iske bare mein bhi purush hi sochte the.
renesan ke daur ki striyon ki rachnaon ke kathya aur parivesh par bisvin shatabdi mein hi dhyaan diya gaya, jab unki rachnaon ke sangrah parkash mein lane ki koshishen huin. isse pahle mana jata tha ki darbar se sambaddh evan darbari sahitya se prabhavit striyan purushon ki tarz par kuch kavitayen rach rahi theen aur shikshit hone ka adhikar aur suvidha unhin ke paas thi, isliye sahityetihas mein unhin ka zikr bhi aaya aur vibhinn bhashaon mein unhin ke anuvad bhi prastut kiye ge. inse aage ke daur mein renesan ne kai chhandbaddh rachnakar, stri natakkar utpann kiye, jinki rachnaon ki upeksha ki gayi, jabki yadi sirph inglainD ki kavyitriyon ki rachnaon ko udahran svrup dekha jaye to renesan ke daur ki stri rachnatmakta ke vibhinn ayam samne aa sakte hain, jo itihas ki vismrit upekshit kaDiyon ko shrrinkhlabaddh karne aur purush drishti se likhe sahityetihas ko chunauti dete hain. in striyon ki rachnatmakta ka kshetr bahuayami hai matritv, prem, adhyatmikta, sansarik, bhautik samasyayen, unke samajik rujhan, svayan ko sthapit karne ka prayas aur pitri satta ko chunauti deti rachnakaron ko sangyan mein lena zaruri hai. is daur ki pahli kavyitri izabela vhitni ki pahli kavita १५७३ mein chhapi thi. wo shahr se guzarish karti hai ki use gumshudgi mein hi dafan kar diya jaye–
“mujhe gumshudgi mein dafan kar do
aur kabhi mera naam bhi mat lo”
izabela vhitni, elijabeth pharst, eni sesil de vere, mairi siDni, mairi roth jen, elizabeth kavenDisheni drovis, emiliya lanyer, emiliya lanyer, rachel speghat elis satakliph, enni broDstrit jaisi striyan is daur ke prarambh mein likh rahi theen. inko mote taur par teen shreniyon mein banta ja sakta hai pahli to ve jo burjua parivaron se juDi hui theen, jinhen shaikshik, arthik madad ke liye kisi ke samne haath failane ki zarurat nahin thi. dusri ve jin par sensarship itni havi thi ki prarambh mein inhonne srijan ki jagah anuvad ko hi apnaya jinmen elijabeth pharst, eni sesil de vere aur meri siDni theen. tisri tarah ki rachnakar ve theen jo sadharan parivaron se sambaddh theen, lekin darbaron se bhi kisi na kisi roop mein juDi hui theen. eni drovis, emiliya lanyer, Dayna primroz isi shreni mein aati hain lekin ve aksar hashiye par hi raha karti theen, unhen hamesha sanrakshan ki avashyakta ka ahsas hota raha. izabela vhitni, rachel speghat, elis satakliph aur aini broDstrit ki rachnaon se zahir hota hai ki unhen arthik sanrakshan ki zarurat thi, yadyapi ve burjua varg se sambaddh theen aur koi na koi gharelu rozgar karti theen. vhitni likha ki main sharir aur mastishk se paripurn hoon par dhan se kamzor hoon. ” lanyer ne likha ki use purani vyavastha ke beet jane ka afsos hai. ye donon hi apni kamjor arthik sthiti ki charcha karti hain. vhitni kavitaon ke liye milne vale parishramik se asantusht hai aur lanyer ko ummid hai ki kambarlainD ki kauntes margret kliphphorD uske seva karyakal ko baDha degi. inki kavitaon ko paDhkar aisa lagta hai ki ve apni arthik sthiti ko lekar chintit theen aur apne samkalin purush rachnakaron ki tarah hi rachnaon ke liye parishramik ki apeksha karne lagi theen, jabki unhen purushon ki tulna mein vyaktitv vikas ke bahut kam avsar praapt the. inhonne laingik adhar par nahin balki arthik adhar par samuh banaye hue the. ye theek purush rachnakaron ki tarz par tha, dhani aur samriddh rachnakaron ka samuh garib rachnakaron se apne aap ko alga leta tha. darbar aur satta se nikatta, uchchapdasth adhikariyon se sampark ke adhar par samuh bana karte the. iske bavzud aisi rachnakar bhi samne ayin jinka darbaron se koi sambandh nahin tha, dusre rachnakaron mein jenDar ke adhar par vishesh bhedabhav nahin tha, stri aur purush donon saman samajik aur arthik vyavastha ke avibhajya ang the. stri aur purush donon ke liye bataur lekhak sthapit hone mein dhan aur pad mahatvpurn bhumika nibhate the, kisi kavi ke sambandhi kahan kahan sthapit hain uske niji aur samajik sampark kin logon se hain, ye uski rachnaon ki charcha ke liye mahatvpurn tha. lanyer jaisi kavyitri kavita mein isi tarah ka sansar rachti hai jismen wo kambarlainD ki kauntes ki madad ke prati abhar vyakt karti hai, wo apne gaanv se nirvasan ki takliph vyakt karti hai aur aisa sansar rachti hai jahan kavi aur sanrakshak aapas mein atyant sauhardrpurn vatavran mein rahte hain. lanyer pahli kavyitri hai jo gaanv par kavita likhti hai. meri siDni aur mairi roth ne bhi baaDh se uphanti nadi ka chitran kavitaon mein kiya hai. meri siDni uphanti nadi ko manav astitv ko hila dene vala manti hainh nadiyan, haan nadiyan jo chinghaDti hain/sagar ki uphanti lahron si nadiyan chinghaDti hain/toDti hui kagaron ko, simaon ko paar karti /nadiyan chinghaDti hain. kahin wo asman ke raja ko sambodhit karti hui likhti haih akash ke devta /driDh aur satya tumhare vachan jhuthe hain.
renesan ki kavyitriyon mein svar vaividhya hai, kabhi unmen adhyatmikta ka svar hai to kabhi vyangya, kabhi ve nasteljik hain to kabhi atmabhivyakti ke liye vyakul dikhti hain; masalan vhitni vyangya ka atyant prabhavi prayog karti hai. varjiniya vulf ne room auf vans on mein likha tha ki striyan sthayitv aur suraksha chahti hain. praak adhunik kavyitriyan ghar aur ghar ke abhav ko samanya roop se kavita ka vishay banati hain. jen aur elizabeth kavenDish apne ghar ki smriti mein kavitayen likhti hain. udhar aini braiDastrit ghar chhutne ki yatana ko abhivyakt karti hai. ghar ke alava parivar janon ki madad, unke bhavanatmak sahyog aur unke na rahne par upje abhav ko bhi kavitayen abhivyakt karti hain. meri siDni, philip aur rabart siDni ek parivar ke the vaise hi merri rroth ke saath viliyam harbart juDe the, kavenDish parivar mein jen, elizabeth viliyam aur margret kavenDish aur eni sesil mashhur sahityik parivar se sambaddh theen. sahityik prishthabhumi se aai hui ye rachnakar sahitya ki duniya se suprichit hoti theen. sabse dilchasp ye hai ki sadharan ya burjua ve chahe kisi bhi prishthabhumi sadharan ya burjua se sambaddh hon aatm se sanvad ki prakriya sabhi mein lakshit hoti hai. १९७० ke dashak tak pashchimi strivadi alochana ne stri rachnakaron aur unki atmakthaon ke antःsambandh ko puri tarah ujagar kar diya, isliye ismen koi ashcharya nahin hai ki is daur mein ve kisi vaicharik chetna par kendrit na rahkar niji anubhutiyon ko vani dene mein mubtila theen. elizabeth pratham ki kavitayen kaid ke dinon ki takliph ka byaan karti hain. vhitni bhi arthik abhav ke dinon, lanyer vigat yauvananubhvon, kavenDish bahnon ne sivilvar ke anubhvon ke atmaprak sandarbh kavitaon mein diye hain. prem aur shokagit– ye do sandarbh kathya ke taur par inki kavitaon mein samanyatः pae jate hain. udahran ke taur par meri siDni ne apne mrit bhai philip ki smriti se hi paam anuvad ki shuruat ki jen kavenDish ne bhi apni bahan elizabeth ko yaad karte hue likha eni sesil de vere ne apne divangat putr ki smriti mein likha eni braiDastrit bhi apne pautr ki smriti ko kavita ka vishay banati hai–
parivarik sambandh,jivan ki bhavuk prtikriyayen in sabko kavita ka vishay banana is baat ko darshata hai ki ye rachnakar bauddhikta se uupar bhavukta ko pradhanta de rahi theen, nikat parijnon ki mrityu aur abhav shokgitiyon mein abhivyakt ho raha tha. jahan darbari kavita mein niji duःkha sukh ko gopan rakhne ki prvritti thi vahin is daur ki striyan khulkar apni sanvednayen vyakt kar rahi theen. ashcharya nahin ki is daur mein striyon ne laukik prem ko kavya ki vastu ke roop mein sahajta se svikar kiya. hindi mein to striyon dvara laukik prem ki prakat abhivyakti ke khatre bisvin shatabdi ke uttarardh mein hi uthaye jane shuru hue; jabki inglainD mein mairi roth ke saneton mein unke chachere bhai aur premi viliyam ke prati akunthit prem abhivyakt ho chuka tha. roth ka prem viliyam ke prati dukhant hi raha. darbari samikran, rishte nate parivar aur utkat prem ke bavjud donon ka na mil pana tatkalin samajik parivarik sambandhon ke vishleshan ka nazariya bhi pradan karta hai. isi sandarbh mein elizabeth pratham ki kavita an answer ko dekha ja sakta hai, jo valtar rele ke prati prem ki abhivyakti hai. elijabeth kavenDish bhi prem ki abhivyakti ki raah mein kisi varjana ko nahin mantin. eni broDstrit apne anupasthit pati ke bare mein likhti haih my head, my heart, mineeyes, my life, nay, more ye vahi bhasha aur vahi rupak hain jo darbari kavitai mein prayukt hote the. yadyapi adhikansh shokagit nitant niji hain, lekin prem kavitayen sahj aur utkat hain, jinse samanya pathak ka sadharnikran ho jata hai. ye kavitayen atmaprak adhik hain, jinmen adhunik kavita ke beej parilakshit hote hain. samanya shreni ki kavitayen bhi ye striyan likh rahi theen jinmen rajanaitik, dharmik vishvas aur asthayen abhivyakt ho rahi theen.
inki rachnayen is baat ka prmaan hain ki striyan vyaktigat maslon se samajik sarvajnik maslon ki taraph ja rahi theen. rachnaon mein atmvishleshan ka painapan aur vishay ka chunav iska prmaan hai. adhikansh rachnakar rajnitik vishay ke roop mein shasak elizabeth ke jivan ko grhan karti dikhti hain. samragyi elizabeth ki lokapriyta, unki sarkar, rashtriy nitiyan aam janta ki ruchi aur charcha ka vishay theen. striyan unhen satta aur stri netritv ke adbhut samanvay ke pratik ke taur par dekhti theen. elizabeth ke bare mein broDastrit likhti hai. now say, have women worth? or have they non?/ or had they some, but with our queen it’s gone? nay masculines, you have thus taxed us long,/but she,thoughdead, will vindicate our wrong;/let such as say our sex is void of reason /know ‘tis a slander now, but once was reason’
kavyitriyon mein aisi koi nahin hai jisne rani elizabeth ki charcha kisi na kisi roop na ki ho. Drovich, siDni, speghat, primroz aur broDstritne raniko dharm sansthapika ke roop mein chitrit kiya, udhar izabela vhitni, elizabeth pratham, eni sesil, lanyer, roth aur kavenDish bahnon ne sidhe sidhe dharm ke prati nishtha to nahin dikhai par jivani aur antःsakshyon mein unke prostetent dharm ke prati rujhan aspasht dikhai paDte hain. inmen se sirph elis satkliphf hi aisi hai jo kaitholik dharm ke prati apne rujhan ko aspasht shabdon mein abhivyakt karne ka sahas karti hai,jabki san १६३४ mein jab wo likh rahi hai tab is tarah ki kavyatmak abhivyakti karna khatre se khali nahin tha. ye is baat ko pusht karta hai ki praak adhunik kaal ki kavyitriyan apne vishvason ke sandarbh mein khatre uthane ka sahas kar rahi theen aur apni kavitaon mein baar baar iishvriy satta ka zikr bhi karti theen, jo unhen bhautik jagat mein badhaon se takrane ki himmat deti hai. ye bhi gauratlab hai ki in striyon ko pitrisatta dvara nirdharit moral pulising se bhi takrana paDta tha,jo kamobesh aaj ke sandarbh mein bhi sahi hai. stri ka agyakarini,maun rahna adarsh mana gaya,vahin wo bhautik shabd likhkar purushaprdhan kshetr mein sendh lagati hai. prakashan se uska likha hua bhi anya rachnakaron ki tarah hi pathkon ke vyapak sansar tak pahunchne laga. aisa nahin ki pathkon ne baDi udarta se grhan kiya ho ya inki pratibha ko saraha ho, ulte lekhikaon ki charitrik shuchita par prashnchinh lagaye jane lage aur unhen jugaDu, laabh lobh ke liye sambandh sthir karne vali ‘asti’ ka khitab mila. bahut sambhav hai ki kai rachnakar sensarship aur lokapavad ki vajah se apna likha chhapvane ko raji nahin huin. unki rachnaye naatk, prahsan, kavitayen band kamron ke bhitar hi pradarshit huyin, kahi suni gayin ya yon kah len parivarik hadbandi mein rahin aur aam janta tak pahunch hi nahin payin. likhne aur prakashit hone ke sandarbh mein striyon ko bahut heen drishti se dekha jata tha, isiliye adhunik kaal tak bhi renesan kaal ki kai natya rachnayen pathkon darshkon tak nahin pahunchin, jinki rachna striyon dvara ki gayi thi. praapt panDulipiyan is tathya ko pusht karti hain ki striyan sirph prem aur kshobh ki kavitaon ki rachna tak hi simit nahin theen balki janavidha ke roop mein naatk ko bhi apna rahi theen. mairi siDni ke the tragedy of antonie and jane tatha elizabeth kavenDish ke likhe naatk the concealed fancies ko udaharnasvrup dekha jana chahiye. siDni ke sanvadon ka gathan,elijabethke patron ke charitr gathan par shekspiyar aur marlov ka prabhav dikhta hai,saath hi ye bhi ki ve lagbhag sabhi vidhaon par haath aajma rahi theen. Dorich dvara kavita mein hi natkiy sanvadon ka ayojan kiya jana hamein batata hai ki wo sanvad dvara janta tak apni baat pahunchane ka prayas kar rahi thi, kyonki naatk sarvadhik lokapriy vidha ke roop mein sthapit thi.
ye tathya rekhankit karne yogya hai ki ye striyan apni yaunikta ko lekar bahut sachet hain aur yahi sachetanta inhen adhunik banati hai. masalan lanyer ne slave Deus rex judaeorum mein charch ki dharmik aur dakiyanusi soch ko chunauti dete hue likha ki maryada ka patan purush ke dvara hota hai,stri dvara nahin ha“her fault, though great, yet he was most to blame” isi tarah rashel aur eni broDastrit striyon ko amaryadit kahne valon ko kosti hain aur kahti hain ki purush hi stri ko path bhrasht karta hai,uski uplabdhiyon mein badhak banta hai. joseph swetnamjisne‘the arraignment of women’ mein striyon ko avishvast aur rahasyamyi kaha tha,stri ninda ke uske ejenDe par tippni karte hue ‘mortality memorendum’ mein spighatne joseph ke bare likha “as a monster or a devil (who) on eve’s sex…foamed filthy froth” primroz, roth aur kavenDishne rachnaon mein sadiyon se prachalit stri ke kumaritv ki raksha ya uske na hone ki sthiti mein use charitrahin manne ko ulat diya aur kaha ki pratyek baar purush hi itna masum nahin hota ki wo stri ke banaye jaal mein ulajh jaye,ya apna jivan nasht kar de. Dayna primroz ‘a chain of pearl’ mein is bare mein likha ha“ siren blandishments/ which are attended with no foul events” (temperance,lines 5 6) apne sanet‘pamphilia to amphilanthus’ mein mairi roth ne stri ko sthir mati aur purush ko asthir mati kaha hai. elizabethaprtham ki kavitayen,eni sesil ki shokgitiyan,mairi siDni ki prarambhik kavitayen stri ki yaunikta ka samman karne ka bhaav vyakt karti hain. inmen se sirph vhitni ne ‘a communication’ ki satvin pankti mein stri ko murkha kahti hai, lekin ye tay hai ki ye sabhi rachnakar samaj mein striyon ke prati parampragat soch ko badalne ke liye prayasarat theen.
praak adhunik aur adhunik stri rachnakaron ke vishay mein jankari ekatr karna,unke likhe hue ko sampadit karke prakashit karna itihas mein stri rachnatmakta ki aprapya aur upekshit dhara ki vilupt kaDiyon ko joDna hai. bharat aur pashchim mein stri ke likhe hue ki upeksha ke sandarbh mein ashcharyajnak samanata lakshit hoti hai. yurop ke punarjagran aur bharat ke navjagran mein stri ke muddon par Dher sari samantaon ke bindu milte hain. striyon ke likhe ke vishay mein jankari ho ya unki rachnaon ke sanklan hon, tab inki khoj aur vishleshan itihas aur shodh ki disha mein nai sambhavnaon ke dvaar kholne mein madadgar ho sakta hai. yadyapi pichhle bees varshon mein stri adhyayan aur laingik adhyayan kendron dvara aisi bahut si pustkon aur panDulipiyon ki khoj ki gayi hai jisse itihas ki dararon ko bharne mein madad mili hai aur visheshkar stri rachnatmakta ka mukammal itihas likhne ki disha mein prayas hue hain, phir bhi stri rachnatmakta ke bahut se pahlu abhi bhi upekshit aur anachhue hi rah ge hain. is takliph aur akanksha ki abhivyakti‘sighs’ shirshak kavita mein eni broDastrit ne ki hai –
‘and if chance to thire eyes shall
bring this vouse
with some sad sighs honourmy
absent hearer’ (before the birth of one of her children, lines 25 6)
renesan ne bahut si gitkaron,kavyitriyon aur sanvedanshil kalapremiyon ko rachnatmakta ki anukul manobhumi aur prerna pradan ki. ye samay spensar aur shekspiyar jaise pratibhashaliyon ka tha, lekin inhin ke samanantar striyan chhandbaddh kavya bhi rach rahi theen,theek bharat ki tarah jahan brajbhasha samet kai lokbhashaon mein striyan purushon ki tarz par chhandbaddh rachnayen likh rahi theen.
aaj bhi hindi navjagran ke daur ke stri sahitya ke prakashan aur mulyankan ka abhav hi hai. munshi deviprsad dvara sampadit mahila mriduvani(1904),girijadatt shukl aur brajbhushan shukl dvara sampadit ‘hindi kavya ki kokilayen’(1933) jyotiprsad nirmal dvara sampadit ‘stri kavi kaumudi’ (1931) aur ‘stri kavi sangrah’ 1928, vyathit hrday dvara sampadit hindi kavya ki kalamyi tarikayen(1941), satyaprkash milind dvara sampadit ‘hindi ki mahila sahityakar 1960, kuch aise sangrah hain jo navjagran ke daur mein stri rachnatmakta ke vaividhya ka prmaan dete hain, jo sirph striyon ke rachnatmak avdan ko prmanit hi nahin karte balki sahityetihas mein unki upeksha ki rannitiyon ka khulasa karte hain.
jahan pashchim mein punarjagran ke daur mein stri rachnakaron ke kai sanklan aur rachnayen hamein dekhne ko milti hain vahin hindi navjagran ke daur ki stri kavita haal ke varshon tak sirph aur sirph mirabai aur mahadevi ke pratinidhitv ki charcha se santusht ho jati thi aur ismen hindi sahitya ka itihas likhne vale alochkon ki aham bhumika rahi hai, jinhonne itihas mein stri rachnakaron ko DhunDhane ke bajay unhen gum karne ka kaam kiya hai. alochak ka ye parashn behad prasangik hai ki, “agar hum hindi sahityetihas mein stri rachnakaron ko DhunDhen to kya pate hain? kya ye mahaj sanyog hai ki ‘shivsinh saroj’ (1878) mein kavyitri taaj aur shekh ka ullekh bhi purush ke roop mein kiya gaya hai aur hindi ke sarvamanya itihas ramchandr shukl ke hindi sahitya ka itihas (1929) mein shekh ka ullekh svtantr roop se na karke kavi aalam ke prsang mein hi kiya gaya hai aur ‘mahila mriduvani’(1904 )ke prakashan ke pachchis varsh baad likhe jane ke baad bhi is bahuprshansit itihas granth mein adhunik kaal ke pahle stri rachnakaron mein sirph ek kavyitri miran ka naam darj hua hai. ye tathya aur bhi ashcharyajnak tab lagta hai jab hum dekhte hain ki isi nagari prcharini sabha se jahan se ye itihas granth pahle ‘hindi shabd sagar’ ki bhumika ke roop mein prakashit hua aur phir svtantr pustakakar, vahin se ‘mahila mriduvani’ ka bhi prakashan hua tha aur vahin se hastalikhit granthon ki khoj bhi ho rahi thi, jiske adhar par mishrbandhu vinod(१९१३)men pachas se adhik kavyitriyon ka ullekh hua. acharya ramchandr shukl apne itihas ke ‘tathya’ ke liye adhikanshatah mishrbandhu vinod par ashrit rahe lekin stri rachnakaron ke mamlon menunki drishti parmasvtantr kahi ja sakti hai”1
bharat mein navjagran ke daur alag alag prdeshon aur bhashaon mein alag alag samay mein ghatit hote dikhte hain. yahan bangal aur maharashtr mein jo mudde unnisvin shati ke purvarddh mein chinta ke kendr mein rahe ve mudde thoDe bahut badlav ke saath hindi patti mein bhi chintna ke kendr mein aaye par pachas saath varshon ke antral ke baad yani samaj sudhar, shiksha, madhyavarg ke prasar mein hindi bhashi kshetr pichhDe hue dikhai dete hain. ”1885 tak pashchimottar praant aur avadh ki 92 pratishat janasankhya ashikshit thi aur prati 350 striyon mein ek ko hi kisi prakar ki shiksha nasib ho rahi thi. 2
1. raman sinha, prastavana, hindi kavya ki kokilayen, ananya prakashan, 2018, prishth 5
2 viDoz, ejukeshan enD soshal chenj in tventiyeth sentchuri banaras, iknomik enD politikal vikli, april, 27, 1991, pej19
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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