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हिंदी का भावी रूप

hindi ka bhavi roop

सुमित्रानंदन पंत

अन्य

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सुमित्रानंदन पंत

हिंदी का भावी रूप

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    हिंदी के भावी रूप पर विचार करते समय इतिहास कल्पना की आँखों के सामने आगे बढ़ने लगता है। वर्तमान के गर्द-ग़ुबार से भरे अपने संघर्षशील क़दम मिलाती हुई देश की चेतना सामूहिक विकास के पथ पर अग्रसर होती हुई सी प्रतीत होती है। पीछे की ओर देखने पर, सदियों को पराधीनता एवं मध्य युगीन ह्रास के विषाद से मुक्त होकर, नवीन राष्ट्र का जीवन, कुहासों से निखरते हुए प्रभात की तरह, चुपचाप दृष्टि को आकर्षित कर लेता है, और आज की जटिल परिस्थितियों एवं भयानक वास्तविकताओं का जगत भविष्य की अनेक सुनहली सभावनाओं में खुलकर सहसा मन के सम्मुख उद्भासित हो उठता है।

    राष्ट्रभाषा के निर्माण के लिए आज हमारे चारों ओर जहाँ प्रचुर प्रशस्त सामग्री बिखरी पड़ी है वहाँ उसके पथ में अनेक विघ्न-बाधाएँ भी खड़ी है। पहले मैं उन अभावों अथवा बाधाओं की चर्चा करूँगा जिनसे आज हिंदी को संघर्ष कर शक्ति संचय करना है। वे बाधाएँ एक प्रकार से बाधाएँ नहीं, किंतु अपने देश की विगत ऐतिहासिक तथा वर्तमान सामाजिक एवं मानसिक स्थिति के कारण वे हमें, आज हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की उतावली में, संकट की स्थितियों-सी प्रतीत होती है। किंतु गंभीरतापूर्वक विचार करने पर वे समस्त संकट एवं अभाव राष्ट्रभाषा को दैन्य मुक्त करने के लिए खाद अथवा पोषक तत्वों की तरह काम में लाए जा सकते हैं।

    सब से मुख्य, अत: जानने योग्य, बात जिसे बाधा भी कहा जा सकता है—हिंदी तथा प्रादेशिक भाषाओं के संबंध में यह है कि उनमें संसार के पिछले दो-ढाई सौ वर्षों के जीवन के विराट् क्रिया-कलापों एवं विचारधाराओं को नहीं के बराबर वाणी मिली है। और ये दो-ढाई सौ वर्ष विश्व सभ्यता के लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुए हैं, जिनमें मानव सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास बहुत आगे ही नहीं बढ़ गया है, उसमें मौलिक परिवर्तन तथा, जीवन मान्यताओं की दृष्टि से, छोटी-बड़ी कांतियाँ भी घटित हो चुकी है। यह लंबा युग वैज्ञानिक तथा औद्योगिक युग के नाम से पुकारा जाता है, जिसका रंगमंच विशेषत पश्चिम अथवा योरोप में रहा है। समस्त एशिया तो तब हारे-थके साँड़ की तरह रोमय अथवा पिष्ठपेषण कर ही रहा था, हमारा देश भी तब दासता के बंधनों में जकड़ा हुआ अपने महान सांस्कृतिक ह्रास के अंधकार में भटक रहा था। और यहाँ जो जागरण की प्रेरणा आई वह एक विदेशी सभ्यता के संपर्क तथा विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा आई है। इस प्रकार दो-ढाई सदियों का विश्व-जीवन एवं मानस-संचय हमारी भाषाओं में यदि थोड़ी-बहुत मात्राओं में अभिव्यक्त हुआ भी है तो वह बासी-तिबासी छाया के रूप में छनकर। जिसके कारण हम अपनी भाषाओं को अत्यंत निर्धन, परिक्षीण तथा श्रीहीन पाते हैं। अपने इन सब सालों की सज-धज को लेकर भी वे आज पश्चिमी भाषाओं की तुलना में, कटाक्ष-कौशल-शून्य, भोली-भाली, और संभवत: भौंड़ी, गाँववालियों-सी प्रतीत होती है। यह ऐतिहासिक संयोग भाषा ही की दृष्टि से नहीं, भौतिक सांस्कृतिक दृष्टि से भी एक बड़े भारी हीन भाव तथा कुंठा के रूप में हमारे मन जम गया है और इन पराधीनता की सदियों में उसके मूल हमारे भीतर इतने गहरे पैठ गए है कि आज स्वाधीनता मिलने पर भी हम उन्हें उखाड़कर बाहर फेंकना तो दूर रहा, उन्हें हिलाने में भी समर्थ नहीं हो सके है। अन्यथा अपने राष्ट्र-गौरव, स्वाभिमान एवं जनैक्य की कल्पना के विरुद्ध हम एक विदेशी भाषा को अपनी राष्ट्रीय एकता का मिलन-तीर्थ बनाए रहते, यह किसी दृष्टि से भी संभव नहीं होना चाहिए था।

    अतएव राष्ट्रभाषा के पथ में सबसे बड़ी बाधा, मेरी समझ में, हमारी हीन भावना है, जिसके कारण हम अपनी भाषाओं को नहीं अपना पा रहे हैं। अँग्रेज़ी को तुरंत हटाने में जितनी भी बड़ी व्यावहारिक कठिनाई हमारे सामने हो, हिंदी के लिए मनसा स्थान बनाने में आज उससे भी बड़ी कठिनाई हमें प्रतीत हो रही है, और हमारी यह आत्म-पराजय तथा कुंठित अनिच्छा अनेक वितडावादों का प्रतारक रूप धारण कर रही है। यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि भाषा का संबंध केवल संपन्न अभिधान, शब्द-संग्रह अथवा अभिव्यक्ति की क्षमता से ही नहीं होता, उसका उससे भी कहीं गहरा संबंध हमारी सांस्कृतिक परंपराओं, हमारे जीवन दर्शन तथा जातीय विकास के इतिहास से होता है। और समुद्र पार से उधार ली हुई एक विदेशी भाषा को आकाशलता की तरह ऊपर से ओढ़ लेने से हम अपनी जन सकुल एवं मानस उर्वर भूमि को मौलिक, प्राणपद तथा प्रेरणाप्रद समस्त शक्तियों का विकास रोके हुए है।

    इस दैन्य तथा कुंठा से शीघ्र ही मुक्त होकर हमें अपने विश्वविद्यालयों में अँग्रेज़ी को और भी महत्त्वपूर्ण स्थान देना चाहिए और उच्च कक्षाओं में अँग्रेज़ी पढ़ाने के लिए अँग्रेज़ शिक्षकों को नियुक्त करना चाहिए, जिससे हमारे देश में अँग्रेज़ी का स्तर नीचे गिरने पाए, और एक ऐसे बहुविधि संपन्न अंतर्राष्ट्रीय माध्यम के समुचित उपयोग से ही वंचित रहना पड़े। वैज्ञानिक शब्दों को अँग्रेज़ी से ज्यों का त्यो हिंदी में लेने के बदले उनका बहुत हद तक हिंदीकरण करना अधिक संगत होगा और यह हिंदीकरण विशेषतः ध्वनिसंगीत की दृष्टि से करना उचित होगा, क्योंकि हर पाँच-दस साल के बाद हज़ारों नए वैज्ञानिक शब्द पैदा होते रहेंगे और पुराने शब्द बासी पड़ जाएँगे। इस प्रकार इतने विदेशी शब्दों को आत्मसात् करने का साहस करना किसी भी भाषा के लिए असंभव एवं गाल फुलाना मात्र होगा। इस समय पारिभाषिक शब्दों के हिंदीकरण के संबंध में कुछ मौलिक लचीले नियमों को निर्धारित कर लेने के बाद हमारी समस्त साहित्यिक संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, राज्यों तथा केंद्रीय शासन को नवीन शब्दों को गढ़ने के प्रारंभिक प्रयोग उत्साह तथा लगन के साथ करने चाहिए। पीछे उन शब्दों को भाषा-निर्माण की सृजनात्मक कसौटी में कसकर उनका समुचित रूप निश्चित किया जा सकेगा, एवं उनकी कृत्रिमता तथा अपरिपक्वता दूर हो सकेगी। शासन तथा शिक्षा क्षेत्र में हिंदी को अधिक से अधिक अवसर देकर उसका निर्माण करना हिंदी प्रांतों का विशेष उत्तरदायित्व तथा कर्तव्य है, जिससे व्यावहारिक क्रिया-कलापों के क्षेत्र में भी हिंदी की पैठ तथा प्रयोग हो सके। इन प्रयोगों का तात्कालिक अथवा प्रारंभिक रूप जो भी हो उसमें भले ही 50 प्रतिशत अँग्रेज़ों या इतर भाषाओं के शब्द क्यों हो, इससे हमें विचलित नहीं होना चाहिए। क्योंकि जब तक सभी क्षेत्रों में हिंदी के लिए प्रयोग के द्वार नहीं खुल जाएँगे वह शिल्प-विधान की दृष्टि से नहीं पनप पाएगी और विचारों को दृष्टि से ही लोक मानस में प्रवेश कर घर कर सकेगी।

    वैज्ञानिक युग का अभी समारंभ भरा हुआ है। सच्ची वैज्ञानिक चेतना आज के अधकचरे बाहरी वैज्ञानिक प्रयोगों से अभी बहुत दूर है। हिंदी की विदेशी भाषाओं के समकक्ष लाने के लिए समस्त वैज्ञानिक शब्दावली को आत्मसात् करना उसके लिए उतना आवश्यक नहीं जितना कि उसके लिए वैज्ञानिक चेतना के भावी विकास में सहायक होना है। आज तक की ऐतिहासिक शक्तियों के वितरण को देखते हुए यह विकास केवल पूर्व और पश्चिम के सामंजस्य से ही संभव हो सकता है। जिस महती भूमि पर आगे मानवता पदार्पण करने जा रही है यदि उस जीवन को हिंदी वाणी दे सकी तो पिछली दो-तीन सदियों की तर्कबुद्धि की चमक तथा अवैज्ञानिकता को तड़क-भड़क से वंचित होकर भी वह भविष्य में विश्व-भाषाओं के वृत्त में अपने को संकीर्ण परिधि अथवा केंद्रशून्य नहीं पाएगी। जिन भाषाओं को वीणा में भविष्य को मानवता के विकास के योग्य प्रेरणा शक्ति तथा चैतन्य होगा वही भाषाएँ भविष्य की भाषाएँ होगी। और हमारी एक विश्व की कल्पना भी भाषाओं तथा संस्कृतियों के वैचित्र्य से विहीन नहीं रहेगी।

    इस हीन भावना के दुर्लध्य विंध्य को लाँघ जाने के बाद हिंदी के सामने जो छोटी-मोटी उलझने रह जाती है, उन्हें बाधाएँ नहीं कहा जा सकता। इनमें पहली उलझन है हमारी प्रादेशिक भाषाओं संबंधी, जिसे हम भाषा सांप्रदायिकता या प्रांतीयता संबंधी अस्थाई पूर्वग्रह भी कह सकते हैं। यह उलझन, अपनी राष्ट्रीय एकता की अनिवार्य आवश्यकताओं को सामने रखते हुए, केवल हमारी मध्ययुगीन पार्थक्यवादिता अथवा पृथक रहने की प्रवृत्ति ही कहलाई जा सकती है, जिसे मिटाने के लिए हमें समय, धैर्य, सद्भाव तथा पारस्परिक विश्वास की आवश्यकता है। जैसे-जैसे हमारे ह्रासयुग के संस्कार छूटते जाएँगे और उनके स्थान पर राष्ट्रीय उत्तरदायित्व एवं सामूहिक संगठित शक्ति की भावना हमारे भीतर बढ़ती जाएगी, उपर्युक्त भेदजनित पूर्वग्रह भी अपने आप कोमल पड़कर विलीन होते जाएँगे। आज की परिस्थिति में हम बाहर से प्रचार कर तथा ऊपर से हिंदी को लाद कर अपने देश के मध्यकालीन मानस-स्तर पर दबाव नहीं डाल सकते। बाह्य बल पर आश्रित हमारे सब प्रयत्न निष्फल होने के साथ ही हमारे प्रांतीय पूर्वग्रहों को और भी कटु एवं कठोर बना देंगे। अत: भाषा संबंधी आंतरप्रादेशिक समस्या का हल केवल परस्पर के सद्भाव, विश्वास, सास्कृतिक आदान-प्रदान तथा राष्ट्रीय चेतना के उत्तरोत्तर विकास पर ही निर्भर है। जिसके लिए हमें सृजनात्मक तथा निर्माणात्मक प्रयत्नों की आवश्यकता है जो हमारे पुरातन सांप्रदायिक मानस के नवीन राष्ट्रीय एकता में ढलने का इतिहास होगा, जो पुन: काल अपेक्षित, धैर्य अपेक्षित और सर्वोपरि सत्प्रयत्न अपेक्षित है।

    दूसरी छोटी-सी उलझन हिंदी उर्दू की है जिसका क्षेत्र सीमित है, और जो मुख्यत: उत्तरप्रदेश की समस्या है, जो हिंदी उर्दू वालों के पूर्वग्रहों के कारण और भी उलझ गई है। इसमें संदेह नहीं कि अपने व्यक्तित्व की रक्षा करती हुई हिंदी अधिक से अधिक उर्दू के शब्दों को ग्रहण कर सकेगी। उन दोनों के बोलचाल के स्तर में तो समानता है ही, गद्य तथा पद्य साहित्य के स्तर पर भी दोनों का सम्मिश्रण, न्यूनाधिक मात्रा में बराबर होता जा रहा है। सांस्कृतिक दृष्टि से, पिछली समस्त संस्कृतियों को नवीन मानवता के धरातल पर आरोहण करना है, जो मध्ययुगीन हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों के लिए भी लागू है। लिपि की दृष्टि से उत्तर प्रदेश में राज-कार्य के लिए प्रारंभ में नागरी के साथ आवश्यकतानुसार उर्दू या अरबी लिपि का भी प्रयोग किया जा सकता है और इसी प्रकार केंद्र में रोमन लिपि को भी स्थान दिया जा सकता है। छापे की सुविधा के अनुरूप तथा अन्य प्रादेशिक भाषाओं की ध्वनियों की दृष्टि से भी नागरी लिपि में थोड़े-बहुत परिवर्तन किए जा सकते हैं। व्याकरण की दृष्टि से भी प्रादेशिक भाषाओं के लिंग मुहावरों एवं वाक्य-विन्यास संबंधी विचित्रताओं का समावेश हिंदी में किया जा सकता है। काल के प्रवाह में घुलमिल कर आगे इनमें भाषा के नियमों के अनुसार स्वर संगति बैठाई जा सकेगी। और ‘लड़की जाता है’ के स्थान पर लोग ‘लड़की जाती है’ कहना ही पसंद करेंगे, तब क्रियापदों में स्त्रीत्व की कोमलता एवं लालित्य का प्रभाव उनके कानों का नया अभ्यास बन जाएगा, और वह उनके लिए नवीन नंदतिक उपलब्धि होगी।

    अब मैं संक्षेप में उन उपकरणों तथा शक्तियों का भी दिग्दर्शन कराऊँगा जो हिंदी के भावी प्रवाह में अनेक प्राणप्रद धाराओं की तरह सम्मिलित होकर उसमें गति, गांभीर्य, व्यापकता आदि भरेंगे। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि उत्तरापथ की प्रायः सभी उन्नत भाषाएँ संस्कृत से शक्ति संचय करती है और दक्षिण की भाषाओं में संस्कृत का प्रयोग यथेष्ट मात्रा में होता है। संस्कृत की पृष्ठभूमि हमारी सभी भाषाओं को मिलाने हिंदी का भावी रूप के लिए एक सबल संयोग तथा स्थाई साधन और संपत्ति है। उत्तर प्रदेशीय दृष्टि से हिंदी में छाया-वैचित्र्य भरने के लिए हिंदी की जनपदीय बोलियों से सहायता लेना भले ही ठीक हो किंतु आंतरप्रादेशिक दृष्टि से उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग ही साम्य तथा व्यापकता लाने में इस समय सहायक होगा। और पचास, सौ, या दो सौ साल बाद जब चयन तथा संस्कार का युग आएगा तब भाषा-विज्ञान, सारल्य, ध्वनिसंगीत आदि सभी दृष्टियो से भाषा को नवीन अभ्यासों एवं अभिरुचियों के अनुरूप सुधारा-सँवारा जा सकेगा। तब तक अन्य प्रांतों की प्रतिभाएँ भी हिंदी के माध्यम से सृजन कर उसे प्रादेशिक संस्कारों के रुधिर से उर्वर तथा संपन्न बनाने में सफल हो सकेंगी। आज की हिंदी-अहिंदी प्रांतों की रुचियाँ युगपत् बदलकर एवं अधिकाधिक सार्वदेशिक होकर तब एक-दूसरे के सन्निकट जाएँगी। वह चयन का युग नवीन प्रेरणाओं एवं नदतिक बोधों से चालित होने के कारण राष्ट्रभाषा के वास्तविक रूप निर्माण का युग होगा।

    दूसरा शक्तिशाली प्रभाव जो हमारी भाषाओं में सामंजस्य स्थापित कर उनको राष्ट्रभाषा के रूप में समन्वित कर सकेगा वह है हमारे विभिन्न साहित्यों की सांस्कृतिक चेतना की एकता। हम अनेक भाषाओं के माध्यम से एक ही संस्कृति को वाणी दे रहे हैं, जिसका अर्थ है कि हमारे बीच किसी प्रकार का आंतरिक व्यवधान नहीं है। शिल्प, रूप विधान तथा साहित्यिक प्रवृत्तियों की दृष्टि से भी हमारे प्रेरणाओं के स्रोत एक ही है। अतः अपने राष्ट्रीय अस्तित्व की चरितार्थता एवं सांस्कृतिक व्यक्तित्व की पूर्णता के हेतु हमारे लिए अपनी अनेक संपन्न भाषाओं के साथ हिंदी को एक सार्वजनिक भाषा के रूप में ग्रहण करना कठिन नहीं होगा। हिंदी के भावी रूप को गढ़ना वास्तव में देश के बच्चों की भावी पीढ़ी को गढ़ना है, जिनकी कोई भाषा नहीं होती।

    वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रभाषा का बलपूर्वक प्रचार करने के बदले हमें सत्संकल्प पूर्वक हिंदी का निर्माण तथा संस्कार करना चाहिए। हमें सार्वभौम भाषा का संगठन करने के बदले सार्वभौम मानस का संगठन करना चाहिए। हमें अपने सांस्कृतिक संचय को साहित्यिक आदान-प्रदान द्वारा नए युग के अनुरूप ढालना चाहिए। अपने देश के विभिन्न वैयक्तिक, प्रादेशिक, नैतिक, धार्मिक तथा राजनीतिक मतों तथा वादों में व्यापक सामंजस्य स्थापित कर उन्हें एक-दूसरे का विरोधी बनाकर पूरक बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। राष्ट्रीय एकता की धारणा, अत्यंत जटिल, सूक्ष्म तथा विविधता के वैचित्र्य से भरी-पुरी धारणा है। उसे यांत्रिक बनाकर हमें अधिक से अधिक व्यापक, नमनीय तथा स्वरसंगतिपूर्ण बनाने की आवश्यकता है। क्योंकि राष्ट्र भाषा राष्ट्रमानस भी है, जिसके लिए राष्ट्र जीवन का अंतःसंगठन ही दूसरा पर्याय है।

    हमें एक राष्ट्रभाषा अवश्य चाहिए। वह हमारे सांस्कृतिक, सामाजिक तथा भौतिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। एक भाषा—जिसमें करोड़ों कंठ धरती और आसमान कह सके, असंख्य आँखे जिसके दर्पण में फूल का मुख, चाँदनी की स्वच्छता, तथा ऊषाओं संध्याओं का सौंदर्य पहचान सकें, सहस्रों हृदय जिसकी झंकारों से गीतों-छंदों में मुखरित हो उठे, और अनेक मानस जिसका गंभीर आह्वान तथा जाग्रत् जीवन संदेश सुनकर आलोकित हो उठे।

    हिंदी का भावी रूप, वह केवल शब्द शिल्प का ढेर, सुंदर वाक्य योजना तथा व्याकरण का सुगठित विधान ही नहीं है। वह हमारे राष्ट्रीय जीवन की सर्वांगीण अभिव्यक्ति, हमारी मानसिकता का विकसित व्यापक संतुलन, वर्तमान प्रांतीय वर्गीय अभ्यासों तथा अभिरुचियों से ऊपर हमारी सामाजिक-सामूहिक चेतना का मानवीय-एकीकरण एवं संयोजन है। क्योंकि भाषा के साथ, फूल, पत्तों, चाँद-सितारों के साथ ही, हमारी परंपरागत मूल्य मर्यादाएँ, विकासशील चेतना की संभावनाएँ तथा पीढ़ी दर पीढ़ी बदलता हुआ जीवन का ऐतिहासिक दृष्टिकोण भी जुड़ा हुआ है। हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकृत कर चुकने के बाद उसे अपनाने एवं उसका निर्माण करने के लिए हमें किसी प्रकार के आमूल परिवर्तन की आवश्यकता नहीं, केवल वर्तमान परिवेश में एक व्यापक सामंजस्य, एक वृहत्तर संयोजन भर स्थापित करने की आवश्यकता है।

    आज की जटिल परिस्थितियों से निखरती हुई हमारी राष्ट्रीय जीवन-चेतना के साथ आज के मानसिक ऊहापोहों में उलझा हुआ हमारी राष्ट्रभाषा का भावी रूप भी अपने संपूर्ण अंतश्चैतन्य तथा सर्वांगीण बाह्य वैभव के साथ प्रस्फुटित तथा विकसित हो सके, हमारे मानवीय विकास के लिए यह सामाजिक कामना आज की आवश्यकता की एक अनिवार्य कड़ी है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 301)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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