फ़सलों के त्योहार
faslon ke tyauhar
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
सारा दिन बोरसी के आगे बैठकर हाथ तापते हुए गुज़र जाता है। कहाँ तो खिचड़ी के समय धूप में गरमाहट की शुरआत होनी चाहिए और यहाँ हम सूरज के इंतज़ार में आस लगाए बैठे हुए हैं। पूरे दस दिन हो गए सूरज लापता है। आज सुबह तो रज़ाई से निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
बाहर देखने से तो समय का अंदाज़ा बिल्कुल नहीं हो रहा लेकिन घर में हो रही चहल-पहल अब पता चल रही है। रह-रहकर कानों में कभी चाँपाकल के चलने और पानी के गिरने की आवाज़ तो कभी किसी के हाँक लगाने की आवाज़ आ रही थी, “जा भाग के देख केरा के पत्ता आइल की ना?”
“आज ई लोग के उठे के नईखे का? बोल जल्दी तैयार होखस।”
अब तो उठने में ही भलाई है।
नहा-धोकर हम सभी एक कमरे में इकट्ठा हुए। दादा और चाचा ने क्या सफ़ेद चकाचक माँड़ लगी धोती और कुर्ता पहना हुआ है! “खिचड़ी में अइसन ठाड़ हम पहिले कब्बो ना देख नी सारा देह कनकना दे ता!” पापा ने कहा। शायद आज धोती में उन्हें ठंड कुछ ज़्यादा लग रही है।
सामने मचिया पर खादी की सफ़ेद साड़ी पहने हुए दादी बैठी थीं। आज दादी ने अपने बाल धोए हैं—झक सफ़ेद सेमल की रुई जैसे हल्के-फुलके बाल। ग़ौर से देखने पर भी एक काला बाल नज़र नहीं आता। बिल्कुल धुली-धुली सी लग रही है दादी। उनके सामने केले के कुछ पत्ते कतार में रखे हैं जिस पर तिल, मिट्ठा (गुड़), चावल आदि के छोटे-छोटे ढेर पड़े हुए हैं। हमें बारी-बारी से उन सभी चीज़ों को और प्रणाम करने के लिए कहा गया। जब सबने ऐसा कर लिया तो उन सभी चीज़ों को एक जगह इकट्ठा करके दान दे दिया गया।
आज तो अप्पी दिदिया बुरी फँसी। उन्हें न तो चूड़ा-दही ही पसंद है और न हो खिचड़ी, पर आज तो फ़रमाइशी नाश्ता नहीं चलेगा। उन्हें दोनों ही चीज़ें खानी पड़ेंगी...आज खिचड़ी जो है! खिचड़ी खाने के बाद सभी ने ‘गया’ से आए तिल, गुड़ और चीनी के तिलकुट का बड़े चाव से खाया। खाते-खाते मैं सोच रही थी कि कितनी अलग है न यह खिचड़ी जो अभी हम मना रहे हैं। स्कूल में हम जो खिचड़ी मनाते थे उसकी अलग ही मस्ती हुआ करती थी। छुट्टी का दिन, नाव में बैठकर गंगा नदी की सैर और फिर टापू पर बालू में दौड़ते हुए पतंग उड़ाना या उड़ाने की कोशिश करना। कितना मज़ा आता था। इधर हम पतंग उड़ाते थे और वहीं थोड़ी दूर पर गुरुजी, विमला दिद्दा, आनंद जी, झिलमिट भैया सब मिलकर ईंट से बने चूल्हे पर बड़े-बड़े कड़ाहों में खिचड़ी बनाते थे। हम भी बीच-बीच में अपनी पतंगों को सुस्ताने का मौक़ा देते हुए मटर और प्याज़ छीलने बैठ जाते। वैसी खिचड़ी फिर दुबारा खाने को नहीं मिली। वाक़ई, ढंग कैसा भी हो, पर है ये ख़ुशियों का त्योहार!
जनवरी माह के मध्य में भारत के लगभग सभी प्रांतों में फ़सलों से जुड़ा कोई-न-कोई त्योहार मनाया जाता है। कोई फ़सलों के तैयार हो जाने पर ख़ुशी बाँटता है तो कुछ लोग इस उम्मीद में ख़ुश होते हैं कि अब पाला कम होगा, सूरज की गर्मी बढ़ने से खेतों में फ़सल तेज़ी से बढ़ेगी। सभी प्रांतों और इलाक़ों का अपना रंग और अपना ढंग नज़र आता है। इस दिन सब लोग अच्छी पैदावार की उम्मीद और फ़सलों के घर में आने की ख़ुशी का इज़हार करते है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश में मकर-संक्रांति या तिल संक्रांत, असम में बीहू, केरल में ओणम, तमिलनाडू में पोंगल, पंजाब में लोहड़ी, झारखंड में सरहुल, गुजरात में पतंग का पर्व सभी खेती और फ़सलों से जुड़े त्योहार हैं। इन्हें जनवरी से मध्य अप्रैल तक अलग-अलग समय मनाया जाता है।
झारखंड में सरहुल बड़े जोशो-ख़रोश के साथ मनाया जाता है। चार दिनों तक इसका जश्न चलता रहता है।
अलग-अलग जनजातियाँ इसे अलग-अलग समय में मनाती हैं। संथाल लोग फ़रवरी-मार्च में, तो उरांव लोग इसे मार्च-अप्रैल में मनाते हैं। आदिवासी आमतौर पर प्रकृति की पूजा करते हैं। सरहुल के दिन विशेष रूप से ‘साल’ के पेड़ की पूजा की जाती है। यही समय है जब साल के पेड़ों में फूल आने लगते हैं और मौसम बहुत ही ख़ुशनुमा हो जाता है। स्त्री-पुरुष दोनों ही ढोल-मंजीरे लेकर रात भर नाचते-गाते हैं। चारों ओर फैली हुई छोटी-छोटी घाटियाँ, लंबे-लंबे साल के वृक्षों का जंगल और वहीं आस-पास बसे छोटे-छोटे गाँव। लिपे-पुते, करीने से बुहारे और सजाए गए अपने घरों के सामने लोग एक पंक्ति में कमर में बाँहें डालकर नृत्य करते हैं। अगले दिन वे नृत्य करते हुए घर-घर जाते हैं और फूलों के पौधे लगाते हैं। घर-घर से चंदा माँगने की भी प्रथा है। पर चंदे में मालूम है क्या माँगते है? मुर्ग़ा, चावल और मिश्री। फिर चलता है खाने-पीने और खेलों का दौर। तीसरे दिन जाकर पूजा होती है जिसके बाद लोग अपने कानों में सरई का फूल पहनते हैं।
इसी दिन से वसंत ऋतु की शुरुआत मानी जाती है। धान की भी पूजा होती हैं। पूजा किया हुआ आशीर्वादी धान अगली फ़सल में बोया जाता है।
तमिलनाडु में मकर संक्रांति या फ़सलों से जुड़ा त्योहार ‘पोंगल’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन ख़रीफ़ की फ़सलें चावल, अरहर आदि कटकर घरों में पहुँचती हैं। लोग नए धान कूटकर चावल निकालते हैं। हर घर में मिट्टी का नया मटका लाया जाता है जिसमें नए चावल, दूध और गुड़ डालकर उसे पकाने के लिए धूप में रख देते हैं। हल्दी शुभ मानी जाती है इसलिए साबुत हल्दी को मटके के मुँह के चारों ओर बाँध देते हैं। यह मटका दिन में साढ़े दस-बारह बजे तक धूप में रखा जाता है। जैसे ही दूध में उफान आता है और दूध-चावल मटके से बाहर गिरने लगता है तो “पोंगला-पोंगल, पोंगला-पोंगल” (खिचड़ी में उफान आ गया) के स्वर सुनाई देते हैं।
दूसरी ओर, गुजरात से पतंगों के बिना जो मकर-संक्राति का जश्न अधूरा ही माना जाएगा। इस दिन आसमान की ओर यदि नज़र उठाएँ तो शायद हर आकार और रंग-रूप की पतंगें आकाश में लहराती हुई मिलें। प्रत्येक गुजराती चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या आयु का हो, पतंग उड़ाता है। हज़ारों-लाखों पतंगों से सूर्य भी ढक-सा जाता है।
कुमाऊँ में मकर संक्रांति को घुघुतिया भी कहते हैं। इस दिन आटे और गुड़ को गूंथकर पकवान बनाए जाते हैं। इन पकवानों को तरह-तरह के आकार दिए जाते हैं जैसे- डमरू, तलवार, दाड़िम का फूल आदि। पकवान को तलने के बाद एक माला में पिरोया जाता है। माला के बीच में संतरा और गन्ने की गंडेरी पिरोई जाती है। यह काम बच्चे बहुत रुचि और उत्साह के साथ करते हैं। सुबह बच्चों को माला दी जाती है। बहुत ठंड के कारण पक्षी पहाड़ों से चले जाते हैं। उन्हें बुलाने के लिए बच्चे इस माला से पकवान तोड़-तोड़कर पक्षियों को खिलाते हैं और गाते हैं—
कौआ आओ
घुघूत आओ
ले कौआ बड़ौ
म कै दे जा सोने का घड़ौ
खा लै पूरी
म कै दे जा सोने की छुरी
इसके साथ ही जिस चीज़ की कामना हो, वह माँगते हैं।
है न कितने अलग-अलग अंदाज़ मकर-संक्रांति को मनाने के? कहीं दूध, चावल और गुड़ की खीर बनती है तो कोई पाँच प्रकार के नए अनाज की खिचड़ी बनाता है। कहीं-कहीं लोगों का सैलाब नदी में स्नान के लिए उमड़ पड़ता है। लोग ठंड से ठिठुरते रहेंगे पर बर्फ़ीले पानी में कम-से-कम एक डुबकी तो ज़रूर लगाएँगे। हाल यह होता है कि इन जगहों पर तिल रखने की भी जगह नहीं होती। तिल से याद आया! मकर संक्रांति के दिन पानी में तिल डालकर स्नान करना, दान करना, आग में तिल डालना, तिल के पकवान बनाना विशेष महत्व रखता है। तुम्हारे घर या इलाक़े में इस त्योहार को कैसे मनाया जाता है? इसे खिचड़ी, पोंगल, मकर-संक्रांति या कुछ और कहा जाता है? या तुम फ़सलों से जुड़े कोई और त्योहार मनाती हो? यदि तुम आपस में बात करो तो तुम्हें यह जानकर हैरानी होगी कि कई बार एक ही इलाक़े में रहने वाले लोग भी इस त्योहार को अलग अलग ढंग से मनाते हैं।
- पुस्तक : रिमझिम (पृष्ठ 13)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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