इकाई- IV वैचारिक पृष्ठभूमि
ikaee- 4 vaicharik prishthabhumi
भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन की वैचारिक पृष्ठभूमि
हिंदी नवजागरण
खड़ीबोली आंदोलन
फ़ोर्ट विलियम कॉलेज
भारतेंदु और हिंदी नवजागरण
महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण
गांधीवादी दर्शन
अंबेडकर दर्शन
लोहिया दर्शन
मार्क्सवाद, मनोविशेषणवाद, अस्तित्ववाद, उत्तर आधुनिकतावाद, अस्मितामूलक विमर्श (दलित, स्त्री, आदिवासी एवं अल्पसंख्यक)
नवजागरण :
नवजागरण एक ऐतिहासिक अवधारणा है जिसका संबंध आधुनिक काल की उस नई चेतना से हैं जो मध्यकालीन चेतना से गुणात्मक रूप से भिन्न है।
'नवजागरण' शब्द यूरोप के मध्ययुग और आधुनिक युग के बीच की संक्रांति की अवस्था का वाचक है।
इसमें सामंतवादी व्यवस्था और उदीयमान पूँजीवादी शक्तियों के बीच सीधी टक्कर हुई थी।
14वीं शती के आते-आते यूरोप में प्राचीन रोमीय साम्राज्य के ध्वंस से उत्पन्न अव्यवस्था और गड़बड़ी शांत हो चुकी थी।
चौदहवीं शताब्दी के आरंभिक दौर में इटली के उत्तरी और मध्यवर्ती क्षेत्रों में पूँजीवादी तत्व सबसे पहले प्रकट हुए।
इटली में पंद्रहवी शती के अंत और सोलहवीं शती के उदय तक चलने वाले अनेक युद्धों की वजह से इटली की मानवतावादी संस्कृति का संपर्क यूरोप के अन्य देशों से हुआ।
फ़्रांस, नीदरलैंड, जर्मनी, इंग्लैंड, स्पेन आदि जैसे यूरोपीय देशों में राष्ट्रीयता के विकास के साथ नवजागरण का मार्ग सुगम हो गया।
डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है—ब्रिटेन का औद्योगिक पूँजीपति वर्ग अपनी क्रांतिकारिता के लिए कभी विख्यात नहीं रहा। उसने पग-पग पर किसानों और मज़दूरों के विरुद्ध ज़मींदारों से समझौता किया। सामंत विरोधी क्रांति फ़्रांस में हुई, जहाँ बड़ी-बड़ी ज़मींदारियाँ तोड़ दी गई और ज़मीन किसानों में बाँट दी गई। सामंत विरोधी क्रांति ब्रिटेन में नहीं हुई।
जहाँ बड़ी-बड़ी ज़मींदारियाँ क़ायम रहीं और 18वीं शती में उनमें सैकड़ों एकड़ नई ज़मीन मिला दी गई। ब्रिटेन में पूँजीपतियों ने ज़मींदारों से समझौता किया क्रांति नहीं की। यही कारण है कि ब्रिटेन के पूँजीपतियों और ज़मींदारों ने फ़्रांस की राज्य क्रांति का ज़ोरदार विरोध किया। उन्होंने यूरोप के प्रतिक्रियावादी सांमत वर्ग से मिलकर फ़्रांस को परास्त किया।—महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण
उस समय यूरोपीय संस्कृति में एक नए जीवन का संचार हुआ था, जिसका वेग लगभग 16वीं शती तक बना रहा। यह युग, मोटे तौर पर दो सौ वर्षों (1350-1550 ई०) का माना जाता है।
'नवजागरण' की कल्पना के प्रचार का श्रेय इटली के नवजागरण के प्रथम इतिहासकार बर्कहार्ट को है, यद्यपि 'रेनेसां' (नवजागरण) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम प्रसिद्ध फ़्रांसीसी इतिहास दार्शनिक मिशेसेट ने 16वीं शती के पूर्वार्द्ध में किया था।
यूरोपीय नवजागरण की विशेषता :
इस युग में नए-नए अन्वेषण और आविष्कार हुए, धर्म और दर्शन का नया संस्करण किया गया, कला और विज्ञान की नई साधना का समारंभ हुआ, राजनीति और समाज व्यवस्था में मौलिक क्रांति का सूत्रपात हुआ।
नवजागरण काल में साम्राज्य का अस्त और आधुनिक राष्ट्रीय राज्य की परंपरा का उदय, सामंतशाही का ह्रास और पूँजीवाद तथा उसके परिणाम स्वरूप एक नए अवकाशभोगी वर्ग का उदय एवं भाषाओं का विकास देखने को मिलता है।
पादरी वर्ग की परलोकमुखी नैतिकता और तमाम सारी मध्यकालीन रूढ़ियों, धार्मिक अंधविश्वासों के विरुद्ध भी संघर्ष हुआ।
साधारण जनता को इनके बंधन से मुक्ति मिली, जिससे नए चिंतक, कवि कलाकार सामने आए।
रूसो, वाल्टेयर, डिडरो जैसे मानवतावादी चिंतकों ने विवेक सम्मत एवं धर्मनिरपेक्ष मानवीय मूल्यों के रूप में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा देकर यूरोपीय नवजागरण को एक ठोस आधार प्रदान किया।
उन्होंने अपने को और अपने आसपास की दुनिया को बंधन मुक्त होकर देखा। इससे उसकी मानवीय विकास संबंधी दृष्टि सौंदर्य शास्त्रीय अभिरुचियाँ, अतीत को परखने और वर्तमान को समझने की दृष्टि में व्यापक बदलाव आया।
इस नई मूल्य-व्यवस्था में मनुष्य समूचे चिंतन और क्रियाकलाप का केंद्र बना।
उसका अनुभव उसकी आशा, आकांक्षा, भूख-प्यास अर्थात् उसका सांसारिक जीवन साहित्य और कला के मुख्य विषय बने।
उस समय विज्ञान के प्रथम चरण के भी दर्शन हुए थे। विज्ञान के उदय के फलस्वरूप काग़ज़, कुतुबनुमा और मुद्रणकला का आविष्कार हुआ।
नवजागरण-युग में पश्चिमी युरोप मध्ययुगीनता के बंधनों से मुक्त हो व्यक्तित्व-चेतना विकसित करने लग गया था।
मनुष्य की दृष्टि, जो मध्य युग में सदा परलोक पर टिकी रहती थी, अब इस लोक का संचरण करने लगी।
परलोक के ऊपर इहलोक की प्रतिष्ठा हुई। ऐहिक मूल्यों का मान बढ़ा। धर्म की अपेक्षा दर्शन का महत्व बढ़ा।
संत का स्थान दार्शनिक ने लिया।
अलग-अलग देशों में वहाँ की लोक भाषाओं का साहित्यिक भाषा के रूप में उदय हुआ।
आधुनिक इटालियन, जर्मन, स्पेनिश, इंग्लिश आदि भाषाओं को नया संस्कार मिला।
सामंतवाद-विरोधी नई जातीयता के आधार पर राष्ट्रीय चेतना का आविर्भाव हुआ और इन सबके कारण उसमें एक मानवतावादी विश्वदृष्टि उभर कर सामने आई।
यूरोपीय नवजागरण ने आधुनिक जनतंत्र एक ठोस सांस्कृतिक आधार प्रदान किया।
राजनीति एवं अर्थशास्त्र के क्षेत्र में मानव केंद्रित नए सिद्धांत अस्तित्व में आए।
साहित्य और कला के क्षेत्र में मानव केंद्रित नए सौंदर्यशास्त्र की रचना हुई।
इस प्रकार यूरोप का एक प्रकार से नया जन्म हुआ और इसी कारण उस युग को 'नवजन्म' या 'पुनर्जन्म' के पर्यायभूत 'नवजागरण' या 'पुनर्जागरण' (रेनेसां) कहा गया है।
भारतीय नवजागरण :
भारतीय नवजागरण का स्वरूप यूरोप के तमाम देशों से भिन्न दिखाई देता है।
यहाँ सामंतीय तत्वों और पूँजीवादी शक्तियों के बीच वैसा सीधा संघर्ष नहीं हो पाया जैसा कि यूरोप में हुआ।
औद्योगिक मज़दूर वर्ग का अभाव और ब्रिटिश शासन सत्ता की नीतियाँ भी इसमें मुख्य रूप से बाधक सिद्ध हुई।
भारतीय नवजागरण की शुरूआत बंगाल से हुई थी।
बंगाल में ज़मींदार परिवार में जन्मे राजा राममोहन राय (1772-1833) इसके प्रवर्त्तक माने जाते हैं।
राजा राममोहन राय ने 1828 ई. में बंगाल में ब्रह्म समाज की स्थापना की थी। महाराष्ट्र में महादेव गोविंद रानाडे द्वारा प्रार्थना समाज की स्थापना की गई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 ई. में आर्य समाज की स्थापना की।
राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध न केवल लोगों को जागरूक बनाया बल्कि कानून द्वारा प्रतिबंध के लिए भी प्रयास किया और उनकी इन कोशिशों के कारण ही सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा।
इसी तरह ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयासों से विधवा विवाह को कानूनी स्वीकृति मिली। यह सामाजिक आंदोलन का असर था कि बाल विवाह पर रोक लगाने के प्रयास हुए और विवाह की उम्र तय की गई।
नवजागरण के आंदोलन ने अनमेल विवाहों को कुछ हद तक रोकने में सफलता पाई थी।
नवजागरण आंदोलन के दौर में स्त्री की मुक्ति का सवाल तो केंद्र में रहा ही, इसके साथ ही जातिप्रथा का विरोध भी एक मुख्य मुद्दा बनकर उपस्थित हुआ।
इस आंदोलन के नेताओं ने इस बात का विरोध किया कि हिंदू समाज में जाति के आधार पर जो विभाजन है वह प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। समाज के ही एक वर्ग को दलित समझकर उनके साथ छुआछूत का व्यवहार करना, उन्हें हर तरह के मानव अधिकारों से वंचित रखना किसी भी तरह से उचित और न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता। इस सोच का प्रभाव स्वयं दलित जाति के लोगों पर भी दिखाई देने लगा। उन्होंने यदि एक ओर उच्च जातियों के द्वारा किए जाने वाले अमानुषिक भेदभावों का विरोध किया तो दूसरी ओर अपने समाज की उन्नति के लिए भी प्रयत्न किया।
इनमें महाराष्ट्र के ज्योतिबा फुले का नाम सबसे पहले आता है जिन्होंने अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के साथ मिलकर जन जागरण का काम किया। इनमें दूसरा महत्त्वपूर्ण नाम केरल के नारायण गुरु का आता है जिन्होंने जातिप्रथा का विरोध किया और आधुनिक शिक्षा के विकास पर बल दिया।
तमिलनाडु के द्रविड आंदोलन ने भी विभिन्न जातियों के बीच एकता और निम्न और पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों के उत्थान के लिए जन जागृति का कार्य किया।
नवजागरण के अग्रदूतों ने दूसरा महत्त्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने शिक्षा, विशेष रूप से आधुनिक शिक्षा का प्रचार किया।
इसके लिए नए तरह के संस्थान स्थापित किए गए। कई कॉलेज और स्कूल खोले गए। उन्होंने इस बात को भी महसूस किया कि स्त्रियों को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से मुक्त कराने के लिए उन्हें शिक्षित करना बहुत ज़रूरी है।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए स्त्री शिक्षा प्रदान करने के लिए लड़कियों के लिए स्कूल खोले गए। इस क्षेत्र में ईश्वरचंद्र विद्यासागर और महाराष्ट्र के ज्योतिबा फुले का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
महात्मा फुले का संबंध जिस जाति से था, उसे हिंदू समाज में पिछड़ी जाति माना जाता था। उन्होंने सबसे पहले अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को शिक्षा प्रदान की और फिर अपनी पत्नी की मदद से दलित वर्ग की लड़कियों को शिक्षित करने का कार्य किया।
महात्मा फुले ने जातिप्रथा, बाल विवाह और अनमेल विवाह जैसी कई बुराइयों को ख़त्म करने के लिए प्रयास किए। फुले ने सत्यशोधक मंडल नामक सामाजिक संस्था भी स्थापित की। शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके आर्य समाज ने भी योगदान दिया। पंजाब और उसके आसपास के प्रांतों में आर्यसमाज द्वारा स्थापित दयानंद वर्नाक्युलर शिक्षा संस्थानों ने स्कूली और महाविद्यालयी स्तर की आधुनिक शिक्षा उपलब्ध कराने का काम किया।
नवजागरण के दौरान कई पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित की गई। उन्होंने लोगों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे अपने और समाज के बारे में तर्क और बुद्धि के अनुसार विचार करें किसी बात को सिर्फ इसलिए न मान लें कि ऐसा धार्मिक पुस्तकों में लिखा है या परंपरा से होता आया है।
नवजागरण ने एक हद तक धर्म को मानव जीवन के केंद्र से हटाकर मानव और उसके लौकिक हितों को केंद्र में रखा। यह एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु था।
नवजागरण के दौर के आंदोलनों में धर्म की भूमिका पर विचार करते हुए 'भारत का स्वतंत्रता संघर्ष' नामक पुस्तक में प्रख्यात इतिहासकार विपिन चंद्र और अन्य इतिहासकारों ने लिखा था, हालाँकि इन आंदोलनों का ज़्यादा ज़ोर धार्मिक सुधारों की तरफ़ ही था, फिर भी इनमें से किसी भी आंदोलन का चरित्र पूरी तरह धार्मिक नहीं था। इनकी अंतःप्रेरणा थी मानववाद परलोक और मोक्ष जैसी बातें इनका मुद्दा नहीं थीं, बल्कि इनका सारा जोर इहलौकिक अस्तित्व पर था। नवजागरण आंदोलन के कारण जो नवीन चेतना जागृत हो रही थी उसने साहित्य पर भी गहरा असर डाला। इस दौर के लेखकों ने भारत की आधुनिक भाषाओं में नवजागरण के दौर के सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों को अपने साहित्य का विषय बनाया। पश्चिमी साहित्य के संपर्क में आने के कारण और प्रेस की स्थापना ने साहित्य में गद्य की नई विधाओं जैसे उपन्यास, कहानी, निबंध आदि में रचना करने की प्रेरणा दी तो नाटक जैसी पुरानी विधा जो मध्ययुग में शिथिल पड़ गई थी उसका पुनरुद्धार हुआ।
हिंदी नवजागरण :
पादरी एफ.ई. के ने 1920 ई. में ही 'रिनेसांस' की चर्चा की थी। अपनी छोटी-सी पुस्तक 'ए हिस्ट्री ऑफ़ हिंदी लिट्रेचर' के पहले अध्याय में ही के ने लिखा है—उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में यूरोप की संस्कृति के संपर्क के द्वारा हिंदी साहित्य में एक नया प्रभाव आया।...इसी समय के आसपास भारत में एक सशक्त साहित्यिक नवजागरण शुरू हुआ जो अब तक प्रगति पर है। उन्नीसवीं सदी में हिंदी भाषी प्रदेशों में जो समाज सुधार आंदोलन हुआ उसे डॉ. रामविलास शर्मा ने 'हिंदी नवजागरण' नाम दिया है।
डॉ. रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण को हिंदी जाति से जोड़ा हैं। नवजागरण से पहले उन्होंने हिंदी जाति की चर्चा की है। इससे पहले हिंदी जाति जैसे पदबंध का प्रचलन नहीं था। सर्वप्रथम हिंदी भाषा और जातीयता की पहचान भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के लेखन में मिलती है।
बंगाल और दूसरे प्रदेशों से हिंदी नवजागरण की भिन्नता यह है कि यह मुख्यतः साहित्यकारों द्वारा चलाया गया आंदोलन है और जनता में नई जागृति के लेखकों ने अपनी पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से लाने का प्रयास किया।
हिंदी नवजागरण की शुरूआत भारतेंदु युग से मानी जाती है।
डॉ. रामविलास शर्मा ने 1857 के विद्रोह को नवजागरण की पहली मंज़िल मानते हुए इसका संबंध हिंदी जाति से जोड़ा है।
डॉ. शर्मा ने भारतेंदु युग को नवजागरण की दूसरी मंज़िल माना है।
नवजागरण के तीसरे दौर के रूप में डॉ. रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके सहयोगियों के कार्यकाल का वर्णन किया है। सरस्वती पत्रिका का हिंदी नवजागरण में विशेष योगदान रहा है। सरस्वती पत्रिका में हिंदी प्रदेश के अतिरिक्त एशिया और यूरोप के नवजागरण की भी चर्चा की जाती थी।
भारतेंदु युग के लेखकों ने अपनी पत्रिकाओं और साहित्य के माध्यम से समाज में नई जागृति लाने का प्रयास किया। उन्होंने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का विरोध किया। इनमें बाल विवाह, सती प्रथा, अनमेल विवाह आदि का विरोध शामिल था। इसके साथ ही उन्होंने विधवा विवाह का समर्थन किया। स्त्री शिक्षा की ज़रूरत पर बल दिया। धार्मिक कुरीतियों और अंधविश्वासों की भी आलोचना की।
जल्दी ही इन लेखकों ने यह भी पहचान लिया था कि भारत की प्रगति तभी संभव है जब यहाँ के लोगों में एकता और आपसी सौहार्द्र हो।
भारतेंदु युग के लेखक भी देश की प्रगति के समर्थक थे और भारत को आधुनिक राष्ट्र बनाना चाहते थे।
भारतेंदु ने औद्योगीकरण की आवश्यकता पर बल दिया था। समाज को बदलने और उसे प्रगति की राह पर ले जाने के लिए उन्होंने साहित्य को माध्यम बनाया। इसके लिए उन्होंने साहित्य के परंपरागत रूपों को त्यागते हुए नए रूपों में साहित्य रचना की। उन्होंने गद्य में लेखन किया। नाटक लिखे और कविता में शृंगार और भक्ति के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर भी रचना की।
तत्कालीन मध्यवर्ग के अनुरूप भारतेंदु युग के हिंदी लेखक भी इस बात में यक़ीन करते थे कि अँग्रेज़ ही भारत को एकसूत्र में बाँधे रख सकते हैं और उसे प्रगति की राह पर आगे बढ़ा सकते हैं।
यही कारण है कि उनमें राजभक्ति की भावना काफ़ी मज़बूत थी लेकिन धीरे-धीरे उन्हें यह भी एहसास होने लगा था कि अँग्रेज़ों का मक़सद भारत को लूटना है। इस धारणा के बलवती होते जाने के साथ उनमें राष्ट्रीयता की भावना भी प्रबल होती गई।
खड़ी बोली आंदोलन :
19 वीं शताब्दी के पहले से ही खड़ी बोली की रचनाएँ मिलनी शुरू हो जाती हैं। इसके बाद फ़ोर्ट विलियम कॉलेज ने इसमें अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
खड़ी बोली गद्य परंपरा में इनसे पहले 'चंद-छंद बरनन की महिमा' (गंग), 'भाषायोगवशिष्ठ' (रामप्रसाद निरंजनी) व पद्मपुराण वचनिका (दौलतराम) को भी नाम आता है। लेकिन इनकी प्रामाणिकता के विषय में संदेह है।
1803 ई. में लिखी गई लल्लू लाल की रचना 'प्रेम सागर' और 'सदल मिश्र' की रचना 'नासिकेतोपाख्यान' खड़ी बोली की शुरुआती रचनाएँ हैं जो फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में भाखा मुंशी के रूप में लिखी गईं।
उसी समय फ़ोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर रहकर स्वतंत्र लेखन करने वालों में दो विद्वानों के कार्य इस दिशा में बड़े महत्व के हैं। मुंशी सदासुख लाल नियाज ने विष्णु पुराण के एक प्रसंग पर ग्रंथ लिखा था और मुंशी इंशाअल्ला खाँ की प्रसिद्ध कृति 'रानी केतकी की कहानी' उसी समय प्रकाशित होकर सामने आई थी। कहने का तात्पर्य यह है कि इस समय खड़ी बोली गद्य के विकास को इन चारों ही महानुभावों लल्लू जी लाल, सदल मिश्र, सदासुखलाल तथा इंशा अल्ला खाँ का पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ।
इन चारों सज्जनों में मुंशी सदासुखलाल की भाषा ही टकसाली भाषा है क्योंकि यह भाषा का वह रूप है जो फ़ोर्ट विलियम कॉलेज के परिवेश के बाहर रहकर विकसित हुआ। यही वह रूप था जो आम जनता के बीच परस्पर व्यवहार में लाया जाता था। मुंशी सदासुख लाल की भाषा संस्कृत शब्दों से युक्त खड़ी बोली है।
हिंदी गद्य के विकास में मुंशी सदासुखलाल के बाद दूसरा नाम है मुंशी इंशा अल्ला ख़ाँ का। आपका गद्य भी सदासुखलाल की तरह फ़ोर्ट विलियम कॉलेज के परिवेश से बाहर रहकर विकसित हुआ। मुंशी जी की सर्वप्रसिद्ध रचना 'रानी केतकी की कहानी' है। मुंशी जी की भाषा में सहजता, आत्मीयता एवं घरेलूपन के दर्शन होते हैं। शुक्ल जी ने इसकी भाषा को चारों लेखकों में सबसे चटकीली, मटकीली व मुहावरेदार कहा है।
19वीं सदी का पूर्वार्द्ध इस दृष्टि से और भी महत्त्वपूर्ण है कि इस युग में हिंदी पत्रकारिता जन्म लेती है जिससे हिंदी के विकास को दुगुनी शक्ति एवं गति प्राप्त होती है। कलकत्ता निवासी पं. युगल किशोर को हिंदी पत्रकारिता का जन्मदाता माना जाता है। उन्होंने अपने परिश्रम एवं लगन से 30 मई 1826 को 'उदंत मार्तंड' नामक पत्र प्रकाशित किया। इसके बाद 9 मई 1829 को 'बंगदूत, 1864 में 'प्रजामित्र और 1844 में शिव प्रसाद सितारे हिंद का 'बनारस' अख़बार हिंदी के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। 1854 में 'समाचार सुधावर्षण' नामक पत्र प्रकाशित हुआ था।
खड़ी बोली हिंदी और अदालती भाषा :
1836 ई. में एक आदेश के बाद अदालतों में देशी भाषा का प्रयोग शुरू हुआ। संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में भी फ़ारसी के साथ नागरी लिपि का भी प्रचलन शुरू हुआ। लेकिन सांप्रदायिक दुराग्रहों के कारण 1837 ई. में उर्दू पूरे प्रांत की अदालती भाषा बन गई।
हिंदी-उर्दू को लेकर दो दल हो गए। सर सैयद अहमद ख़ाँ ने इस पूरे विवाद को सांप्रदायिक रंग दिया। उनका समर्थन 'गार्सा द तासी' ने किया। तासी ने खुलकर उर्दू का पक्ष लिया तथा हिंदी का विरोध किया।
राजा शिवप्रसाद (सितारे हिंद)—जिस समय देवनागरी अक्षरों में 'टूटी-फूटी चाल' पर लिखी जाने वाली हिंदी संकटकाल से गुज़र रही थी, राजा शिवप्रसाद उसके समर्थन और उत्थान का व्रत लेकर साहित्य क्षेत्र में आए। आपने हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, संस्कृत, अँग्रेज़ी और बंगला आदि कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। सन् 1845 ई. में आप सरकारी नौकरी में आए और शीघ्र ही सरकारी स्कूलों के इंस्पेक्टर हो गए। प्रारंभ से ही साहित्य के प्रति आपकी विशेष रुचि थी। शिक्षा विभाग में रहकर आपने अनेक रचनाएँ प्रस्तुत कीं।
विषय की दृष्टि से विविधतापूर्ण होते हुए भी ये रचनाएँ महत्त्वपूर्ण नहीं कही जा सकतीं। इनका महत्त्व भाषा की दृष्टि से अधिक है। वह समय हिंदी प्रदेशीय जनता की भावनाओं का आदर करते हुए और हिंदी भाषा की जातीय प्रवृत्ति को लक्ष्य में रखकर हिंदी गद्य को सर्वमान्य रूप देने का था। इसके लिए निर्णयात्मक क़दम उठाने के पूर्व पर्याप्त सोच-विचार की आवश्यकता थी। राजा शिवप्रसाद ने सोच-विचारकर संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, अँग्रेज़ी और ठेठ हिंदी सभी को मिलाकर एक सर्वमान्य भाषा बनाने की चेष्टा की।
उनकी दृष्टि में यह 'आमफ़हम' और 'ख़ासपसंद' भाषा थी। कठिनाई आगे चलकर हुई। 'इतिहास तिमिर नाशक', 'सिखों का उदय और अस्त' तथा 'कुछ बयान अपनी ज़़ुबान का' आदि कृतियों में 'आमफ़हम' के नाम पर अरबी-फ़ारसी गर्भित शुद्ध उर्दू का प्रयोग किया गया है।
राजा शिवप्रसाद की भाषा नीति के इस उत्तरोत्तर परिवर्तन का कारण है, उनका सरकारी नीति का निरंतर समर्थन करते चलना। अदालती भाषा को वे आदर्श मानते थे। उनकी दृष्टि में सदैव शिक्षित समुदाय रहता था, भारत का कोटि-कोटि जन समुदाय नहीं। लिपि के प्रश्न पर वे सदैव 'देवनागरी' के समर्थक रहे।
राजा लक्ष्मण सिंह
1863 ई. में महाकवि कालिदास की विश्व प्रसिद्ध रचना 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' का 'शकुंतला नाटक' नाम से अनुवाद प्रकाशित कराया। इसे इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा में पाठ्य-पुस्तक रूप में स्वीकार किया गया। 1877 ई. में आपने 'रघुवंश' महाकाव्य का अनुवाद किया और इसकी भूमिका में अपनी भाषा संबंधी नीति स्पष्ट करते हुए हिंदी को उर्दू से न्यारी बोली घोषित किया और उसमें से सतर्कतापूर्वक अरबी-फ़ारसी के चिर-प्रचलित तथा सर्वग्राह शब्दों को भी अलग कर दिया।
अयोध्याप्रसाद खत्री
खड़ी बोली हिंदी के प्रारंभिक समर्थकों और पुरस्कर्ताओं में अयोध्याप्रसाद खत्री का नाम प्रमुख है। ये मुज़फ़्फ़रपुर में कलक्टरी के पेशकार थे। 1888 ई. में इन्होंने 'खड़ी बोली का आंदोलन' नामक पुस्तिका प्रकाशित कराई।
इनके अनुसार खड़ी बोली पद्य की चार 'स्टाइलें' थीं—मौलवी स्टाइल, मुंशी स्टाइल, पंडित स्टाइल, मास्टर स्टाइल। 1887-1889 ई. में इन्होंने 'खड़ी बोली का पद्य' नामक संग्रह दो भागों में प्रस्तुत किया। जिसमें विभिन्न स्टाइलों की रचनाएँ संकलित की गईं।
पंजाब में नवीनचंद्र राय हिंदी में ब्रह्म समाज का प्रचार कर रहे थे।
दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। 1881 ई. में बिहार में हिंदी प्रचार की आज्ञा मिली।
बेलारी के ज़िलाधीश जॉर्ज कैंपबेल ने गवर्नर थॉमस मुनरो को पत्र लिखकर उर्दू को हटाने की माँग की। इस सबके बाद फ़ारसी लिपि को हटा दिया गया।
1893 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की गई।
1900 ई. में नागरी लिपि को अदालतों में प्रवेश मिला।
इस बीच भारतेंदु युग में खड़ी बोली गद्य की विपुल मात्रा में सर्जना हुई।
सन् 1884 में भारतेंदु ने 'कालचक्र' में नोट किया—'हिंदी नए चाल में ढली सन् 1873 ई. में'। ध्यातव्य 1873 में ही 'हरिश्चंद्र मैगज़ीन' का प्रकाशन आरंभ हुआ।
इसके बाद 1900 ई. में 'सरस्वती' पत्रिका आरंभ हुई। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली को मानक रूप दिया तथा पद्य की भाषा के रूप में खड़ी बोली की प्रतिष्ठा हुई।
सन् 1910 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की स्थापना हुई।
फ़ोर्ट विलियम कॉलेज :
गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली ने सन् 1800 ई. में फ़ोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की।
15 जनवरी, 1784 ई. के एशियाटिक सोसायटी की स्थापना हो चुकी थी।
सन् 1783 ई. में जॉन गिलकास्ट (1759-1841) की नियुक्ति मेडिकल ऑफ़िसर के पद पर हुई। सन् 1790 ई. तक उन्होंने 'अँग्रेज़ी और हिंदुस्तानी' कोश के दो भाग प्रकाशित कर दिए थे।
उनके अन्य उल्लेखनीय ग्रंथ हैं—
हिंदुस्तानी ग्रामर 1796-98
ओरियंटल लिम्विस्ट 1798
दस जुलाई 1800 ई. को कॉलेज का रेग्युलेशन पास हुआ पर चार मई 1800 ही स्थापना की तारीख़ रखी गई (श्री रंगपट्टनम, मैसूर के विजयोत्सव की तिथि)।
गिलकाइस्ट की सेवाओं से प्रसन्न होकर वेलेजली ने उसकी नियुक्ति सन् 1800 में की।
राइटर्स बिल्डिंग में फ़ोर्ट विलियम कॉलेज प्रारंभ किया गया।
बाद में लार्ड डलहौजी की सिफ़ारिश पर जनवरी 1854 में कॉलेज बंद कर दिया गया।
इस कॉलेज में प्रशासन, कानून तथा क्षेत्रीय भाषाएँ, विशेष रूप से खड़ी बोली हिंदी की पढ़ाई की व्यवस्था की गई।
इसका उद्देश्य था—कर्मचारियों की नैतिक दशा में सुधार करना तथा उन्हें देश की भाषाओं, रीति रिवाज़ों से परिचित कराना तथा कुशल प्रशासक बनाना।
गिलक्राइस्ट की अपनी मान्यता थी कि हिंदुस्तानी की तीन शैलियाँ हैं :-
1) दरबारी फ़ारसी
2) हिंदुस्तानी शैली या उर्दू तथा
3) हिंदी या गँवारू शैली
गिलक्राइस्ट ने इन तीनों शैलियों में से दूसरी शैली अर्थात् उर्दू को महत्व दिया।
गिलक्राइस्ट ने हिंदी से अलग हिंदवी के भाषा—मुंशियों को नियुक्त किया। फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में भाखा मुंशी के रूप में लल्लूलाल (1763 ई.-1830 ई.) एवं सदल मिश्र (1768 ई.-1848 ई.) नियुक्त हुए, जिन्होंने क्रमशः 'प्रेमसागर एवं नासिकेतोपख्यान' पाठ्य पुस्तकें लिखी।
भाखा—मुंशी लल्लूलाल ने वैसे कई पुस्तकों की रचनाएँ की परंतु खड़ी बोली गद्य की दृष्टि से उनकी पाँच पुस्तकें यथा—सिंहासनबतीसी, बैताल पचीसी, माधोनल, शकुंतला एवं प्रेमसागर हैं। जिनमें पहली चार पुस्तकों को स्वयं लेखक लल्लूलाल जी ने रेख़्ते की बोली कहा है। प्रेमसागर में भागवत के दशम स्कंध की कहानी को लिया गया है। उक्त ग्रंथ की रचना में लेखक ने अरबी-फ़ारसी के शब्दों को सायास न आने देने की चेष्टा की है अतः इसके कारण उनकी भाषा में वह सहजता जो इंशा अल्ला ख़ाँ की भाषा में दिखाई देती है, लुप्त हो गई है। यहाँ स्वाभाविकता के स्थान पर पांडित्य प्रदर्शन अधिक झलकता है।
सदल मिश्र की प्रमुख रचनाओं में 'नासिकेतोपाख्यान' तथा 'आध्यात्म रामायण को काफ़ी प्रसिद्धि मिली।
सदल मिश्र की भाषा लल्लूलाल की तुलना में अधिक परिष्कृत है। उनकी भाषा पर ब्रजभाषा और पूर्वी बोली का प्रभाव है।
'न्यू टेस्टामेंट' (बाइबिल) का प्रथम हिंदी अनुवाद सन् 1807 में प्रकाशित हुआ।
प्रो. गिलक्राइस्ट जनवरी 1804 ई. तक वहाँ रहे। इनके बाद निम्नलिखित व्यक्तियों ने यह महत्त्वपूर्ण पद संभाला—
1. कैप्टन माउंट (1806 ई. से 1808 ई.)
2. कैप्टन टेलर (1808 ई. से 1823 ई. तक)
3. कैप्टन विलियम प्राइस ( 1823 ई.से 1831 ई.तक)
कैप्टन टेलर ने सन् 1815 ई. में सर्वप्रथम हिंदी शब्द का प्रयोग आधुनिक अर्थ में किया था।
कंपनी की भाषा नीति फारसी भाषा प्रयोग की थी। सर्वप्रथम विलियम प्राइस ने गिलक्राइस्ट के मत की आलोचना की। उन्हीं के समय में हिंदी का निश्चित रूप से आधुनिक अर्थ में प्रयोग किया गया। सन् 1816 ई. के अध्यादेश में अनेक परिवर्तन हुए जिसके फलस्वरूप सन् 1825 ई. में विलियम प्राइस ने (जो हिंदी और हिंदुस्तानी विभाग के अध्यक्ष थे) पहली बार हिंदी भाषा को हिंदुस्तानी से पृथक, एक प्रमुख देशी भाषा के रूप में स्वीकार किया।
भारतेंदु व हिंदी नवजागरण :
डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है—“भारतेंदु ने जिस संस्कृति का निर्माण किया वह जनवादी थी। उन्होंने धर्म, संस्कृति, साहित्य, शिष्टाचार पर पुराहितों-मौलवियों का इज़ारा तोड़ने के उपाय बताए। विधवा-विवाह का समर्थन किया, बाल विवाह का विरोध किया। कुलीनता, जाति प्रथा, छुआछूत आदि का ज़ोरदार खंडन किया, लोगों के धार्मिक अंधविश्वासों की कड़ी आलोचना की और स्त्रीशिक्षा पर ख़ासतौर पर ज़ोर दिया।...भारतेंदु ने जिस जातीय संस्कृति की नींव डाली वह सारे देश के लिए थी, लेकिन वह हिंदी भाषी जनता के लिए विशेष थी। 1880 ई. में पंडित रघुनाथ, पं. सुधाकर द्विवेदी पं. रामेश्वरदत्त व्यास आदि के प्रस्तावानुसार हरिश्चंद्र को 'भारतेंदु' की पदवी से विभूषित किया गया।
'निज भाषा उन्नति' की दृष्टि से उन्होंने 1868 ई., 1873 और 1874 ई. में क्रमशः 'कविवचन सुधा', 'हरिश्चंद्र मैगज़ीन' (जो आठ मास बाद 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' और 1884 ई. में 'नवोदिता' के नाम से प्रकाशित हुआ) और स्त्रियों के उपकारार्थ 'बाला-बोधिनी' नामक पत्र प्रकाशित किए और अनेक साहित्यिक संस्थाएं स्थापित कीं।
1873 ई. में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने वैष्णव धर्म और ईश-भक्ति के प्रचार हेतु 'तदीय समाज' की स्थापना की, जिसमें गो—रक्षा प्रचार और मदिरा-मांस सेवन रोकने का प्रयत्न भी किया जाता था।
इस समाज से 'भगवद्भक्ति तोषिणी' नामक पत्रिका भी प्रकाशित होती थी।
रामविलास शर्मा ने भारतेंदु के योगदान पर लिखा है कि भारतेंदु आधुनिक हिंदी गद्य के जन्मदाता थे। वह हिंदी के पहले सशक्त और सफल पत्रकार थे। भारतेंदु ने हिंदी की अपनी निबंध परंपरा को जन्म दिया। वह भाषा के प्रथम समर्थ नाटककार थे। 'नाटक' पर अपना विस्तृत निबंध लिखकर उन्होंने हिंदी में तुलनात्मक और ऐतिहासिक समालोचना की नींव डाली। 'भारतेंदु के समाज सुधार संबंधी विचारों का पूर्ण परिचय उनके 'भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है' नामक व्याख्यान से प्राप्त होता हैं। बलिया में 1884 ई. में दिए गए इस व्याख्यान में भारतेंदु ने देश में प्रचलित बाल विवाह, बहुविवाह, धर्माडंबर आदि का विरोध किया और समुद्र यात्रा, स्त्री शिक्षा, विधवा-विवाह, धार्मिक उदारता-आदि का समर्थन और प्रचार किया।
डॉ. रामविलास शर्मा ने 'भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ' (1984) पुस्तक लिखी है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण :
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीसवीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों के साहित्य को अनुशासित और निर्देशित किया वैसा न उनसे पहले और न ही उनके बाद कोई एक व्यक्ति कर सका।
वे सच्चे अर्थों में युग-निर्माता थे और यह कार्य उन्होंने 'सरस्वती' के माध्यम से किया।
1903 ई. में द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' का संपादन संभाला और 1920 ई. तक बीच के दो वर्ष छोड़कर, वे इसका संपादन करते रहे।
उनके संपादन काल में इसमें जो भी रचनाएँ प्रकाशित हुई, द्विवेदी जी ने न केवल उनकी भाषा को सुधारा, अपितु उनके भावों और विचारों को भी नियंत्रित किया।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा का संस्कार शुरू किया।
उस समय खड़ी बोली में रचना करने वाले लेखक अलग-अलग रचना सिद्धांत रखते थे। अँग्रेज़ी, बंगला, संस्कृत आदि के काव्य के अनुसार कई शैलियों चल पड़ी थीं।
द्विवेदी जी ने काव्य रचना के क्षेत्र में काव्य भाषा को परिमार्जित एवं स्थिर रूप देने के लिए कार्य किया।
सरस्वती पत्रिका के माध्यम से गद्य और पद्म की एक भाषा के लिए द्विवेदी जी ने अथक परिश्रम किया।
डॉ. रामविलास शर्मा ने 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' (1977) नामक पुस्तक के द्वारा 'हिंदी नवजागरण' की संकल्पना प्रस्तुत की।
द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' को हिंदी नवजागरण की प्रतिनिधि पत्रिका बनाया।
1901 ई. में 'सरस्वती' में प्रकाशित अपने 'कवि कर्तव्य' शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा था—कविता का विषय मनोरंजन एवं उपदेशात्मक होना चाहिए। यमुना के किनारे केलि कौतूहल का अद्भुत वर्णन बहुत हो चुका। न परकीयाओं पर प्रबंध लिखने की अब आवश्यकता है और न स्वकीयाओं के 'गतागत' की पहेली बुझाने की। चींटी से लेकर हाथी हाथी पर्यंत जीव, भिक्षु से लेकर राजा पर्यंत मनुष्य, बिंदु से लेकर समुद्र पर्यंत जल, अनंत आकाश, अनंत पृथ्वी, अनंत पर्वत-सभी पर कविता हो सकती है, सभी से उपदेश मिल सकता है और सभी के वर्णन से मनोरंजन हो सकता है।
महावीरप्रसाद द्विवेदी भारतीय स्त्रियों की शिक्षा के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा का समर्थन किया वे स्त्री पराधीनता का विरोध करते थे। ‘कवियों कि उर्मिला विषयक उदासीनता’ नामक निबंध इसका प्रमाण है। सन् 1914 ई. में स्त्री शिक्षा के समर्थन में उनका एक लेख छपा था, जिसका शीर्षक था ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’।
वे छुआछूत के विरोधी थे। सन् 1914 ई. में उन्होंने निम्न जाति के व्यक्ति ‘हीरा डोम’ की कविता (अछूत की शिकायत) को ‘सरस्वती’ में प्रकाशित किया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है—“व्याकरण की शुद्धता और भाषा की सफ़ाई के प्रवर्तक द्विवेदी जी ही थे। गद्य की भाषा पर द्विवेदी जी के इस शुभ प्रभाव का स्मरण जब तक भाषा के लिए शुद्धता आवश्यक समझी जाएगी तब-तक बना रहेगा।”
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने महावीर प्रसाद द्विवेदी के बारे में कहा है—निबंधों और समालोचनाओं द्वारा ये साहित्यिकों को निरंतर प्रेरणा देते रहे। द्विवेदी जी की समालोचनाओं ने जहाँ एक और तरुण साहित्यकारों को मुक्त होकर लिखने की प्रेरणा दी, दूसरी ओर कई कृती-साहित्यकारों को वाद-विवाद के क्षेत्र में उतरने और विचारोत्तेजक लेख लिखने का प्रोत्साहन दिया।
द्विवेदी जी के व्यक्तित्व की विशेषता को डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने रेखांकित किया है—भारतेंदु के व्यक्तित्व में बंगाल की कोमलता और भावुकता थी, आचार्य द्विवेदी के व्यक्तित्व में महाराष्ट्र की कठोरता और वस्तुन्मुखता।—(हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 108)
महावीर प्रसाद द्विवेदी की साहित्यिक दृष्टि उपयोगितावादी थी। वे कला के लिए नहीं मानते थे वे साहित्य के माध्यम से लोगों की रुचि का परिष्कार करना चाहते थे।
वे कविता को न तो शब्द कीड़ा मानते थे और न ही मानसिक विलास की चीज़। हिंदी के कवि से उनकी अपेक्षा थी कि 'वह लोगों की रुचि का विचार रखकर अपनी कविता ऐसी सहज और मनोहर रचे कि साधारण पढ़े-लिखे लोगों में भी पुरानी कविता के साथ-साथ नई कविता पढ़ने का अनुराग उत्पन्न हो जाए। पढ़ने वालों के मन में नई-नई उपमाओं को, नए-नए शब्दों को और नए-नए विचारों को समझने की योग्यता उत्पन्न करना कवि ही का कर्तव्य है। जब लोगों का झुकाव इस और होने लगे तब समय-समय पर कल्पित अथवा सत्य आख्यानों के द्वारा सामाजिक, नैतिक और धार्मिक विषयों की मनोहर शिक्षा दे' (रसज्ञ-रंजन) डॉ. रामविलास शर्मा ने 'महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि—‘‘द्विवेदी जी का गद्य-साहित्य आधुनिक हिंदी साहित्य का ज्ञान-कांड है। जो साहित्यकार स्वतः स्फूर्त भावोद्गारों से संतुष्ट नहीं हो जाते, उनके लिए यह ज्ञान-कांड सदा महत्त्वपूर्ण रहेगा। द्विवेदी जी सबसे पहले राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री हैं। इसका प्रमाण यह है कि उनकी जो एक मात्र बड़ी पुस्तक है, वह राजनीति और अर्थशास्त्र की पुस्तक ‘सम्पत्तिशास्त्र’ है। भारत के संदर्भ में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की वैसी आलोचना उस समय तक अँग्रेज़ी में भी प्रकाशित नहीं हुई थी। हिंदी में अब भी उसके टक्कर की दूसरी पुस्तक नहीं है।’’
प्रेमचंद ने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के योगदान को रेखांकित करते हुए कहा है—“आज हम जो कुछ भी हैं, उन्ही के बनाए हुए हैं। यदि पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी न होते तो अभी बेचारी हिंदी कोसों पीछे होती। समुन्नति की इस सीमा तक उसे आने का अवसर ही नहीं मिलता। उन्होंने हमारे लिए पथ भी बनाया और पथ प्रदर्शक का भी काम किया। हमारे उपर उनका भारी ऋण है। उनके चरणों पर झुककर ही हम उसे स्वीकार कर सकते हैं—किसी अन्य प्रकार से नहीं।”
गांधी दर्शन :
उनकी प्रसिद्ध पुस्तक हिंद स्वराज, नवंबर 1909 में इंग्लैंड से दक्षिण अफ़्रीका को वापसी यात्रा के दौरान किल्डोनन कैसिल जहाज पर लिखी गई थी।
1896 से 1914 के बीच दक्षिण अफ़्रीका में उन्होंने सत्याग्रह के माध्यम से अहिंसा, वाक स्वतंत्रता, समानता और स्वराज के विचारों को लागू किया। दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ बोएर युद्ध में एम्बूलंस कारप्स, फ़ीनिक्स तथा टॉलस्टाय फार्म और ट्रान्सवाल में अभियान (Boer War, Experiments at Phoenix and Tolstoy Farms and Campaign in Transvaal), उनकी प्रमुख उपलब्धियाँ थी।
उनके प्रमुख लेख थे 'हिन्द स्वराज', 'पंचायती राज', 'मेरे स्वप्न का भारत’, ‘सत्य के मेरे प्रयोग' (Hind Swaraj, 'Panchayati Raj', 'India of my Dreams', 'My Experiment with Truth')। इन पुस्तकों के अलावा उन्होंने ‘यंग इंडिया’, ‘हरिजन’ तथा ‘नवजीवन’ (Young India, Harijan, Navjeevan) समाचार पत्रों के संपादकीय में अपने विभिन्न विचार प्रस्तुत किए।
स्वराज पर गाँधी के विचार
गाँधी वास्तव में भारत के ग्रामीण अंचलों में रहने वाले लोगों का ‘स्वराज’ चाहते थे। उनका मानना था कि भारत की आत्मा उसके गांवों में बसती है। वे सत्ता का प्रवाह नीचे से चाहते थे। वे भारत में वास्तविक लोकतंत्र चाहते थे। उन्होंने कहा था, वास्तविक लोकतंत्र केंद्र में बैठे 20 लोगों द्वारा नहीं चलाई प्रत्येक व्यक्ति द्वारा चलाई जानी चाहिए।
गाँधी ने विभिन्न परिस्थितियों में ‘स्वराज’ के विभिन्न अर्थों का आह्वान किया है।
विदेशियों से देश को स्वतंत्र करने के लिए ‘स्वराज’।
व्यक्ति की स्वतंत्रता को दर्शाने के लिए।
व्यक्ति के आर्थिक स्वतंत्रता का आश्वासन।
आध्यात्मिक स्वतंत्रता अथवा व्यक्ति के स्वशासी होने के अर्थ में।
ट्रस्टीशिप पर गाँधी के विचार
ट्रस्टीशिप (Trusteeship) का उत्थान गाँधी की 3 अवधारणाओं से होता है, अहिंसा, स्वराज तथा समानता-यह सभी एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। ट्रस्टीशिप का सिद्धांत शोषणमुक्त आर्थिक चक्र की बात करता है। वे इस हिंसक चक्र को अहिंसक आर्थिक चक्र में परिवर्तित करना चाहते थे। गाँधी के अनुसार, केवल श्रम और पूँजी के बीच ही गतिरोध नहीं है, अपितु आवश्यकता और विलासिता के बीच भी टकराव हैं।
राजनैतिक दर्शन में गांधी की ट्रस्टीशिप सिद्धांत एक बहुत बढ़ा योगदान है। उनके राजनैतिक दर्शन का ही यह एक आर्थिक अंग है। इस सिद्धांत के केंद्र में सामाजिक साधनों को एक न्यास (Trust) के रूप में रखना है और इस न्यास का ट्रस्टी मनुष्य होगा। ऐसा करने से प्रकृति और समाज के साधन सभी में समान रूप से वितरित होगें। इस सिद्धांत का लक्ष्य था पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों के गुणों को साथ लाना और सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण करना। गाँधी का मानना था कि भौतिक सम्पत्ति समाज का न्यास है। व्यक्ति को केवल उतना ही लेना चाहिए जितना उसके सुविधाजनक जीवन यापन के लिए आवश्यक है। समाज के अन्य लोग, जो उस सम्पत्ति से जुड़े हुये हैं, वे ही इसके प्रबंधन के लिए जिम्मेदार हैं तथा सभी के लिए कल्याणकारी योजना तैयार करेंगे।
सत्याग्रह :
सत्याग्रह (उच्चारणः सत-य-ग्रह) दो संस्कृत संज्ञाओं सत्या, जिसका अर्थ है सत्य ('सत'- 'होना' प्रत्यय 'य' के साथ) और अग्रह, जिसका अर्थ है, ‘दृढ़ पकड़’ (अग्र से बना एक संज्ञा, जिसका मूल ‘ग्रह’ है—'पकड़ना', 'पकड़ना', क्रिया उपसर्ग 'अ' 'से' 'की ओर')। इस प्रकार सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है सत्य के प्रति समर्पण, सत्य पर दृढ़ रहना और असत्य का सक्रिय लेकिन अहिंसक तरीक़े से विरोध करना। चूँकि गांधी के लिए सत्य तक पहुँचने का एकमात्र तरीक़ा अहिंसा (प्रेम) है, इसलिए यह निष्कर्ष निकलता है कि सत्याग्रह का अर्थ अहिंसा का उपयोग करके सत्य की अटूट खोज है। माइकल नागलर के अनुसार सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है 'सत्य से चिपके रहना', और गांधीजी ने इसे ठीक इसी तरह समझा—इस सत्य से चिपके रहना कि हम सब त्वचा के नीचे एक हैं, कि 'जीत/हार' जैसी कोई चीज़ नहीं है क्योंकि हमारे सभी महत्त्वपूर्ण हित वास्तव में एक ही हैं, कि जानबूझकर या अनजाने में हर एक व्यक्ति एक दूसरे के साथ एकता और शांति चाहता है।
अहिंसा :
गांधी के सत्याग्रह में सत्य अहिंसा से अविभाज्य है। अहिंसा प्राचीन हिंदू, जैन और बौद्ध नैतिक उपदेश के रूप में अभिव्यक्त होती है। नकारात्मक उपसर्ग 'अ' और हिंसा जिसका अर्थ है चोट, मिलकर शब्द बनाते हैं जिसका सामान्य रूप से अनुवाद 'अहिंसा' होता है। अहिंसा शब्द हिंदू शिक्षाओं में छांदोग्य उपनिषद के रूप में दिखाई देता है। जैन धर्म अहिंसा को प्रथम व्रत के रूप में मानता है। यह बौद्ध धर्म में एक प्रमुख गुण है। इन धर्मों में निहित होने के बावजूद, गांधी का विशेष योगदान था।
सामाजिक और राजनीतिक सत्य की खोज में सकारात्मक शक्ति के रूप में उपयोग करने के लिए अहिंसक कार्रवाई के लिए उपकरणों को ढालकर सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में अहिंसा की अवधारणा को सार्थक बनाना। गांधीजी ने अहिंसा को सक्रिय सामाजिक तकनीक के रूप में तैयार किया, जिसका उद्देश्य राजनीतिक अधिकारियों और धार्मिक रूढ़िवाद को चुनौती देना था।
गांधीजी ने हिंसा को नकारात्मक दृष्टि से देखा और हिंसा के दो रूपों की पहचान की; निष्क्रिय और शारीरिक।
निष्क्रिय हिंसा का अभ्यास एक दैनिक मामला है, सचेत और अचेतन रूप से। यह ईंधन है जो शारीरिक हिंसा की आग को प्रज्वलित करता है। गांधीजी हिंसा को इसके संस्कृत मूल ‘हिंसा’ से समझते हैं, जिसका अर्थ है चोट। अति हिंसा के बीच, गांधीजी सिखाते हैं कि जिसके पास अहिंसा है वह धन्य है। वह व्यक्ति धन्य है जो अपने चारों ओर हिंसा की प्रचंड आग के बीच अहिंसा के नियम को समझ सकता है।
अंबेडकर दर्शन :
जन्म 14 अप्रैल, सन् 1891, महू (मध्य प्रदेश)
डॉ. अंबेडकर की कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं :-
पुस्तकें व भाषण :-
द कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट (1917) प्रथम प्रकाशित कृति)
द अनटचेबल्स, हू आर दे? (1948)
हू आर द शूद्राज (1946)
बुद्धा एंड हिज धम्मा (1957)
थाट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स (1955)
द प्रॉब्लम ऑफ़ द रुपी (1923)
द इवोल्यूशन ऑफ़ प्रोविंशियल फ़ाइनेंस (पीएच.डी. की थीसिस, 1916)
द राइज एंड फॉल ऑफ़ द हिंदू वोमैन (1965)
एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट (1936)
लेवर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी (1943)
बुद्धिज़्म एंड कम्युनिज़्म (1956)
पत्रिका संपादन :-
मूक नायक, बहिष्कृत भारत, जनता हिंदी में उनका संपूर्ण वाङ्मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से बाबा साहब आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय नाम से 21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है।
समाचार पत्र मूकनायक (1920), एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट (1936), द अनटचेबल्स (1948), बुद्ध ऑर कार्ल मार्क्स (1956)
अंबेडकर लोकतंत्र को ऐसा साधन मानते थे जिसमें परिवर्तन शांतिपूर्वक लाए जा सकते हैं।
लोकतंत्र के प्रति अंबेडकर का विचार इसके एक सरकार होने से अधिक था। वे चारों तरफ़ लोकतंत्र लाने की आवश्यकता पर बल देते थे।
समाजवादी जनतंत्र का विचार
डॉ. आंबेडकर की भारतीय सामाजिक संरचना की परिकल्पना लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित है।
डॉ. भीमराव आंबेडकर चाहते थे कि भारतीय सामाजिक संरचना का आधार लोकतांत्रिक हो, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति व विकास के अधिकाधिक अवसर प्राप्त हो तथा उनके आत्मसम्मान और मानव अधिकारों की रक्षा हो।
डॉ. आंबेडकर ने स्वातंत्र्योत्तर भारत के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक ढाँचे में वर्ण-जाति की दख़ल को नकारकर समतावादी राजनैतिक प्रजातंत्र के मज़बूत आधार की आवश्यकता को महत्व दिया।
उनका दृढ़ विचार था कि राज्य में स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धांत पर व्यक्ति-व्यक्ति के बीच राजनैतिक संबंधों के नियमन एवं राजनैतिक गतिविधियों के संचालन की लोकतंत्र सबसे प्रभावपूर्ण पद्धति है।
डॉ. अंबेडकर व्यक्ति और समाज के बीच के संबंधों को समतामूलक तत्वों के अनुसार संचालित एवं नियमित करने में राज्य की भूमिका को महत्व देते हैं।
वे इस बात से सहमत थे कि राज्य की भूमिका व्यक्ति और समाज के उद्देश्यों की पूर्ति का साधन है, साध्य नहीं।
व्यक्ति और समाज में सौहार्द, शांति, सुरक्षा, विकास के साधनों का सही बँटवारा, उत्पादन के साधनों में सभी की भागीदारी, रोज़गार तथा संपत्ति के अधिकार मिलने की संभावना और अवसरों को देने तथा नियमन दायित्व राज्य का है।
व्यक्ति विकास में सभी को अवसर मिले इसकी चिंता भी राज्य की होनी चाहिए। इसलिए आंबेडकर 'राज्य सत्ता और व्यक्ति की स्वतंत्रता' में सामंजस्य लाए जाने के पक्षधर थे।
विचार, अभिव्यक्ति तथा पेशे के चुनाव की स्वतंत्रता व्यक्ति के मुलभूत अधिकार है जिन्हें राज्य द्वारा सुरक्षित रखा जाना अपेक्षित है।
डॉ. आंबेडकर की मान्यता थी कि व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का दायित्व राज्य एवं सरकार का है।
राजनैतिक प्रजातंत्र की सफलता के लिए उन्होंने चार मान्यताओं को अनिवार्य बताया है :-
1. व्यक्ति विकास को सबसे अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
2. व्यक्ति के सभी अधिकारों की सुरक्षा का प्रावधान संविधान में होना चाहिए।
3. व्यक्ति पर किसी भी प्रकार से कोई दबाव नहीं हो, जिसके कारण व्यक्ति संवैधानिक अधिकारों से वंचित हो जाए।
4.राज्य कुछ विशेष व्यक्ति या समुदाय को अन्य व्यक्ति या समुदायों पर शासन करने या नियंत्रण में रखने के अधिकार न दे।
उनके विचार में व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरी होनी चाहिए, तभी राजनैतिक प्रजातंत्र सफल प्रजातांत्रिक राज्य की भूमिका का निर्वाह कर सकेगा।
लोकतंत्र को उन्होंने राजनैतिक प्रजातंत्र से अधिक महत्त्वपूर्ण माना क्योंकि अन्य व्यवस्थाओं की तुलना में यह व्यक्ति को स्वतंत्रता और समानता का अधिकार प्रदान करती है।
वे इस तथ्य को हमेशा उजागर करते रहें कि जो लोग पीढ़ियों से शोषित वंचित और कमज़ोर रहे हैं वे समानता के इस प्रावधान का वांछित लाभ नहीं उठा पाते। जो लोग पहले से ताकतवर होते हैं वे कम ताकतवर लोगों की तुलना में अधिक लाभ उठाते हैं। ऐसी हालत में यदि कमज़ोर लोगों को संविधान के माध्यम से विशेष सुरक्षा प्रदान नहीं की जाती तो समानता के अधिकार का उनके लिए कोई व्यवहारिक अर्थ नहीं रह जाता। ऐसी दशा में स्वतंत्रता समानता को निगल जाती हैं और प्रजातंत्र, प्रजातंत्र नहीं मात्र उसका दिखावा रह जाता है।
जब तक समाज के कमज़ोर वर्ग को विशेष रूप से अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए संविधान के माध्यम से सुरक्षा के संवैधानिक उपाय नहीं किए जाएँगे तब तक लोकतंत्र को वास्तविक रूप नहीं दिया जा सकेगा।
लोहिया दर्शन :
राममनोहर लोहिया का जन्म उत्तर प्रदेश के अकबरपुर (अंबेडकर नगर जनपद) में 1910 में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था।
बर्लिन विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त कर डॉ. लोहिया 1933 में भारत लौटे और कांग्रेस के अंदर कांग्रेस समाजवादी पार्टी से जुड़े।
डॉ. लोहिया की महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं :- मार्क्स, गांधी और समाजवादी (1963), इतिहास का चक्र (1955), जाति प्रणाली (1963), राजनीति में अंतराल (1965)।
लोहिया भारतीय समाजवादी चिंतकों में संभवतः सबसे अधिक मौलिक थे।
राजनीति के अतिरिक्त संस्कृति, अर्थव्यवस्था, धर्म एवं विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रश्नों में भी उनकी गहरी रुचि थी। उनकी रुचि मात्र वर्तमान में ही नहीं, वरन् सुदूर अतीत और भविष्य में भी थी। भौगौलिक रूप से उनका चिंतन केवल भारत तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उसकी सीमाओं से परे तक फैला हुआ था।
उनकी मौलिकता वर्तमान समाजवादी सिद्धांत की यूरो सेन्ट्रिक धारणाओं को चुनौती और उनके स्थापन पर वैकल्पिक सिद्धांत के निर्माण के प्रयास में झलकती है।
उनके अनुसार इतिहास चक्र के रूप में घूमता है, जो समाजों के बाह्य और आंतरिक दोनों पहलुओं को छूता है।
लोहिया का इतिहास का सिद्धांत
लोहिया मार्क्स के इतिहास के सिद्धांत के आलोचक थे। उन्होंने इतिहास के अपने सिद्धांत में इसकी आलोचना अपनी पुस्तक 'इतिहास का चक्र' (हील ऑफ़ हिस्ट्री) में की है मार्क्स के सिद्धांत के विरुद्ध उनका प्रमुख तर्क यह था कि मार्क्स का सिद्धांत योरोपीय इतिहास को ही मानवता का इतिहास मानता है। इसके स्थान पर उन्होंने इतिहास के दर्शन का अपना ही वैकल्पिक सिद्धांत विकसित किया। इस सिद्धांत के अनुसार दो प्रमुख सिद्धांत इतिहास की गति का संचालन करते हैं। पहले सिद्धांत का संबंध शक्ति और समृद्धि में एक दूसरे की तुलना में श्रेष्ठता पाने के लिए विभिन्न समाजों के बीच संपर्क से है। लोहिया के अनुसार इस क्षेत्र में इतिहास चक्र के रूप में घूमता है; अर्थात् कोई भी समाज सदा एक ही बिंदु पर नहीं रह सकता। समूचे इतिहास में आप पाएँगे कि शक्ति और समृद्धि का केंद्र विश्व के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बदलता रहा है। दूसरा सिद्धांत किसी भी समाज के आंतरिक सामाजिक गठन पर प्रकाश डालता है। प्रत्येक समाज में दो प्रकार के सामाजिक विभाजन बराबर बदलते रहते है—एक प्रकार सामाजिक गतिशीलता की इजाज़त देता है, जबकि दूसरा नहीं देता। लोगों को उच्चतर या निम्नतर स्थिति में ले जाने वाला प्रकार है, 'वर्ग'। दूसरा है 'जाति' जो व्यक्ति को उसी अवस्था में रखता है, जिसमें वह पैदा होता है। इसलिए हर समाज वर्ग और जाति के बीच घूमता रहता है।
लोहिया के लिए इन दोनों शब्दों का अर्थ उन अर्थों से भिन्न था जिनमें इनका इस्तेमाल होता रहा है। इतिहास के लोहिया के सिद्धांत का केंद्र बिंदु यह है कि बाह्य और आंतरिक परिवर्तन एक साथ होते हैं जो समाज विश्व के केंद्र में है, उसमें वर्ग विभाजन अवश्य आता है और जो समाज बाह्य संघर्ष में हार जाता है उसमें जाति प्रणाली पनपने लगती है।
चौखंभा योजना
व्यक्ति की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए यह योजना महत्त्वपूर्ण है।
डॉ. लोहिया ने राजनीतिक विकेंद्रीकरण के लिए ‘चौखंभा योजना’ को विशेष महत्व दिया। इस योजना को ‘चार स्तरीय’ सूत्र के नाम से भी जाना जाता है।
वे इस योजना के माध्यम से सत्ता के ढाँचे का विकेंद्रीकरण करना चाहते थे। ‘चौखंभा योजना’ के चार स्तंभ इस प्रकार है :- सत्ता का विकेंद्रीकरण—ग्राम, मंडल, प्रदेश एवं केंद्र के मध्य होना चाहिए।
सप्त क्रांति
अधिकांश समाजवादियों की मान्यता है कि सभी प्रकार के अन्यायों का मूल एक प्रकार का अन्याय है और वह है—आर्थिक विषमता। इसलिए समाजवादी क्रांति का लक्ष्य आर्थिक असमान को मिटाना है।
लोहिया का इस परंपरागत समाजवादी दृष्टिकोण से मतभेद था। उनकी दृष्टि में यह अत्यंत संकीर्ण लक्ष्य है। इनके सामने ऐसे सात पहलू थे जिनमें से हरेक के लिए स्वतंत्र क्रांति आवश्यक थी, अर्थात एक पहलू की सफलता से शेष सभी में स्वतः सफलता नहीं मिल सकती थी। ये सात क्रांति है
1) आर्थिक अन्याय के विरुद्ध क्रांति
ग़रीबी का ख़ात्मा हो और ग़रीब और धनवान के बीच की खाई को मिटा कर आर्थिक समानता लाई जाए।
2) जाति प्रथा के विरुद्ध क्रांति
जाति का अर्थ है, अनेक लोगों के लिए अवसरों की सीमितता जिस से उनकी क्षमता भी सीमित हो जाती है और इसी के कारण उनके लिए अवसर और अधिक सीमित हो जाते हैं। लोहिया भारतीय जाति प्रथा के कट्टर विरोधी थे और इसे मिटाना चाहते थे।
3) लिंग भेद के विरुद्ध क्रांति
लोहिया के अनुसार लिंग भेद और सभी प्रकार के अन्यायों का आधार है। यह प्रश्न नारियों को मात्र आर्थिक और रोज़गार के अवसर प्रदान करने तक ही सीमित नहीं है। यह प्रश्न मूलतः सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों का प्रश्न है, जिसकी जड़ें हमारी सभ्यता में काफ़ी गहरी जमी हुई हैं। ये मूल्य इस मान्यता को उचित ठहराते हैं कि नारियाँ नैसर्गिक रूप से पुरुषों की अपेक्षा हीन हैं और उनका क्षेत्र मात्र घरेलू कामकाज तक हो सीमित है।
4) साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रवादी क्रांति
लोहिया का कहना था कि आज भी आर्थिक साम्राज्यवाद सक्रिय है तथा उसके विरुद्ध संघर्ष आवश्यक है।
5) रंगभेद के विरुद्ध क्रांति
यह रंगभेद पर आधारित अन्याय को मिटाना चाहती है और श्वेत और अश्वेत जातियों के बीच समता लाना चाहती है।
यह एक सौंदर्य बोध संबंधी क्रांति भी है, क्योंकि रंगभेद सौंदर्य के समसामायिक मानदंडों में अश्वेत लोगों के विरुद्ध पूर्वाग्रह पैदा करता है।
6) समूहबद्धता के विरुद्ध व्यक्तिगत अधिकारों की क्रांति
प्रत्येक व्यक्ति को अपने कुछ क्षेत्रों में गोपनीयता पाने का अधिकार है। राज्य, समाज या अन्य कोई समूह इन क्षेत्रों का उल्लंघन नहीं कर सकते।
7) अहिंसक अवज्ञा को कार्यविधि क्रांति
उन्होंने जनशक्ति का महत्व स्वीकार किया और लोगों की शिकायतें सुनने का श्रीगणेश किया। जिस दिन लोगों की शिकायतें सुनी जाती थी उस दिन को ‘जनवाणी दिवस’ कहा गया।
उन्होंने अन्यायी शासन का विरोध करने के लिए ‘सिविल नाफ़रमानी’ सिद्धांत का प्रतिपादन किया। सिविल नाफ़रमानी सिद्धांत गाँधी जी के ‘सविनय अवज्ञा’ सिद्धांत से प्रेरित था।
उन्होंने मृत्युदंड का विरोध किया और आत्महत्या को व्यक्ति का निजी मामला बताया।
मार्क्सवाद :
मार्क्सवादी विचारधारा का श्रेय कार्ल मार्क्स (1818-83) और फ्रेडरिक एंगेल्स (1820-95) को जाता है। मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणाएँ इन्हीं दोनों विचारकों ने प्रस्तुत की थी।
मार्क्सवाद को व्यवहार में लागू करके दुनिया में पहली समाजवादी क्रांति का श्रेय बी.आइ लेनिन (1870-1924) को जाता है जिन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा का विकास किया था।
इनके अलावा स्टालिन (1878- 1953) एंतोनियो ग्राम्शी (1891-1937) माओ जे दुग (1893-1976) आदि ने भी मार्क्सवाद को किसी-न-किसी रूप में समृद्ध किया है।
मार्क्सवाद : अवधारणा एवं स्वरूप
मार्क्सवाद की अवधारणा प्रस्तुत करने का श्रेय कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स को है। दोनों जर्मनी के रहने वाले थे और बहुत घनिष्ठ मित्र थे। मार्क्स और एंगेल्स दर्शन शास्त्र के अध्येता थे, लेकिन उन्होंने राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, साहित्य और कला के बारे में भी गहन अध्ययन किया था।
मार्क्सवादी दर्शन
मार्क्सवाद का आधार भौतिकवाद है जिसके अनुसार पदार्थ ही मुख्य है और वही सृष्टि का कारण है। पदार्थ का अस्तित्व उसकी गति पर निर्भर रहता है। गति के बिना पदार्थ का अस्तित्व नहीं हो सकता।
मार्क्सवाद में भौतिकवाद की व्याख्या दो रूपों में की गई है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
इस सृष्टि का मूल पदार्थ को मानते हुए भी मार्क्सवाद सृष्टि को स्थिर और एक रूप नहीं मानता। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु निरंतर गतिशील और परिवर्तनशील होती वस्तुओं को उनकी गतिशीलता और परिवर्तनशीलता के रूप में उनके पारस्परिक संबंधों के रूप में, उनकी पारस्परिक प्रक्रियाओं के रूप में और उनके बीच चलने वाले संघर्षों के रूप में देखना और समझना ही द्वंद्वात्मकता है।
द्वंद्वात्मकता ही सृष्टि के विकास का कारण है। यह विकास सीधी रेखा में नहीं होता।
द्वंद्वात्मकता कई रूपों में व्यक्त होती है। द्वंद्वात्मकता विपरीत वस्तुओं की परस्पर एकता और संघर्ष के रूप में, वस्तुओं में निहित अंतर्विरोधों के विविध रूपों में, मसलन आंतरिक और बाह्य अंतर्विराध और वैमनस्यपूर्ण और वैमनस्य रहित अंतर्विरोध के रूप में और परिमाणात्मक से गुणात्मक परिवर्तन के रूप में यानी किसी वस्तु के परिमाण का इस हद तक बढ़ जाना कि उस वस्तु में गुणात्मक परिवर्तन व्यक्त होने लगे और निषेध के निषेध का नियम यानी कि जो पहले से विद्यमान है उसका निषेध करना और फिर उस निषेध का निषेध भी द्वंद्वात्मकता का ही एक रूप है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का विकास गति और परिवर्तन के इन नियमों के अनुसार ही होता है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद
ऐतिहासिक भौतिकवाद को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है।
यह मानव जाति के सामाजिक विकास के विभिन्न चरणों की व्याख्या करने वाला सिद्धांत है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद के अनुसार, मनुष्य का सामाजिक अस्तित्व ही उसकी सामाजिक चेतना का निर्धारण करता है मार्क्सवाद के अनुसार, यह समाज का भौतिक जीवन ही है, जो समाज की समूची आकृति, उसके समूचे ढाँचे, उसके विचारों और संस्थाओं का नियमन करता है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद उत्पादन पद्धतियों में होने वाले बदलाव के आधार पर मानव इतिहास के पाँच युगों के बारे में बताता है।
आदिम समाज
मानव सभ्यता का आरंभिक चरण जब न तो वर्ग अस्तित्व में आए थे और न निजी संपत्ति। लेकिन मनुष्य ने श्रम के बल पर अपने को इतना सक्षम बना लिया था कि वह अपने को अन्य प्राणियों से अलग चेतन संपन्न होने का एहसास कर सका था। इस आरंभिक चरण को आदिम समाज के रूप में जाना जाता है।
दास समाज
आदिम समाज में विकसित हुई उत्पादन पद्धतियाँ और विकसित हुई और पहली बार निजी संपत्ति और वर्ग अस्तित्व में आए जहाँ उत्पादन के साधनों पर ही नहीं वरन श्रम करने वाले दास वर्ग पर भी स्वामी वर्ग का अधिकार था। इसे दास समाज के रूप में जाना गया।
सामंतवाद
उत्पादन पद्धति के विकास का तीसरा चरण सामंतवाद का था जहाँ ज़मीन का मालिक सामंत या भूस्वामी कहलाता था और उस पर श्रम करने वाला किसान, खेत मज़दूर या शिल्पकार के रूप में जाना जाता था।
पूँजीवाद
चौथा चरण पूँजीवाद का था जहाँ पूँजी के बल पर पूँजीपति उत्पादन के साधनों पर अधिकार रखता है और श्रम करने वाला श्रमिक या मज़दूर के रूप में जाना जाता है। इस तरह उत्पादन पद्धति में बदलाव से उत्पादन संबंधों में बदलाव ही हर युग को दूसरों से अलग करता है।
समाजवाद
मार्क्सवाद में जिस अंतिम समाज की कल्पना की है। उसमें श्रम करने वाला सर्वहारा वर्ग राजसत्ता पर अधिकार कर लेता है और इस तरह वह अपने को शोषण से मुक्त करता है। इसे समाजवाद का चरण कहा गया है। यही चरण और विकसित होकर एक ऐसे युग में बदलता है जहाँ एक बार फिर से वर्गहीन समाज की स्थापना होगी, एक राज्यविहीन समाज निर्मित होगा। इसे ही साम्यवादी समाज कहा गया है।
वर्ग संघर्ष की धारणा
मार्क्सवाद के अनुसार समाज में केवल दो वर्ग है—बुर्जुआ (प्रभुत्वशाली वर्ग, जो उत्पादन साधनों का स्वामी और नियंताै होता है) एवं सर्वहारा (मज़दूर वर्ग, जिसका उत्पादन साधनों पर कोई नियंत्रण और स्वामित्व नहीं होता) एवं इनके बीच पनपने वाले विरोध के संबंध से ही अंततः वर्ग चेतना का निर्माण होता है।
मार्क्स का मानना था कि पिछला सारा इतिहास ऐसे ही दो विरोधी और प्रतिस्पर्द्धा आर्थिक वर्गों के संघर्ष से होने वाले परिवर्तन की अवस्थाओं द्वारा निर्मित है। मूल संघर्ष वर्ग-संघर्ष है। आर्थिक हितों का संघर्ष है।
अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत
अतिरिक्त मूल्य की अवधारणा के माध्यम से मार्क्स ने पूँजीवादी समाज में पनप रहे शोषण के संपूर्ण तत्व की व्याख्या की थी।
अतिरिक्त मूल्य का अर्थ वह है, जिसे हम सामान्यतः लाभ कह सकते हैं। मार्क्स का तर्क यह है कि मज़दूर सामाजिक वस्तुएँ पैदा करता है और पूँजीपति उन वस्तुओं को मज़दूर को दी जाने वाली मज़दूरी से अधिक मूल्य पर बेचता है। अतः मज़दूर को वस्तुओं के उत्पादन में लगाए गए समस्त श्रम (अर्थात् श्रम शक्ति) के बदले में राशि नहीं मिलती। उसके श्रम के किसी भाग को पूँजीपति ज़ब्त (अर्थात् चुरा) लेता है। अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत मूल्य के श्रम सिद्धांत से उभरता है। मूल्य के श्रम सिद्धांत का भाव यह है कि किसी वस्तु का मूल्य उस वस्तु में लगे श्रम पर निर्भर करता है। दूसरे शब्दों में, अतिरिक्त मूल्य तब सामने आता है, जब मज़दूर को लगाए गए श्रम के बदले में किसी श्रम भाग की मज़दूरी नहीं मिलती।
मार्क्स कहता है कि वर्गीय समाजों में ही अतिरिक्त मूल्य का तत्व होता है, क्योंकि ऐसे पूँजीवादी समाजों में पूँजीपति मज़दूरों का शोषण करते हैं। पूँजीपति वह होते हैं, जो उत्पादन के साधनों (जैसे भूमि, पूँजी, कारख़ाने आदि) के स्वामी होते हैं जबकि मज़दूर वह होते हैं, जिनके पास उत्पादन के साधन नहीं होते, अपितु उनके पास केवल श्रम शक्ति होती है, जिसे वह जीवित रहने के लिए बेचते हैं। जैसे-जैसे अतिरिक्त मूल्य बढ़ता है, वैसे-वैसे मज़दूर को और कम मज़दूरी मिलती है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि इस प्रकार की स्थिति से पूँजीपतियों व मज़दूरों में तीव्र विरोधाभाव बढ़ने लगता है और केवल समाजवादी क्रांति में अंततः उस विरोधाभाव को समाप्त करना संभव होता है।
मार्क्सवादी साहित्य चिंतन
मार्क्सवाद के अनुसार साहित्य मानव जीवन के बहुआयामी संबंधों, संघों और अंतर्विरोधों को व्यक्त करने का एक माध्यम है।
क्रिस्टोफ़र कॉडवेल ने लिखा था कि 'कला का मोती समाज की सीपी से ही उत्पन्न हुआ है।'
एंगेल्स ने साहित्य और कला की उत्पत्ति को श्रम से जोड़कर देखा। उनका मानना था कि जब मनुष्य ने अपने हाथों से अनगढ़ पत्थरों को तराश कर औज़ारों को बनाना सीखा तब उसने उस दिशा की ओर क़दम बढ़ा दिए थे जब वह भविष्य में चित्र, मूर्ति और संगीत की रचना कर सके।
कार्ल मार्क्स साहित्य के इतिहास के बारे में मानते हैं कि—
साहित्य एवं कलाएँ विचारधारा का ही एक रूप हैं।
वे मूलतः समाज के आर्थिक-भौतिक जीवन से उत्पन्न एवं उसी पर स्थित और आधारित हैं, आर्थिक-भौतिक धरातल पर परिवर्तन होने के साथ ही साहित्य, कला अथवा विचारधारा के अन्य रूपों में भी कमोवेश उसी तेज़ी के साथ परिवर्तन हो जाता है, ऐसे परिवर्तनों पर विचार करते समय उत्पादन की व्यर्थिक परिस्थितियों जिन्हें पदार्थ विज्ञान की भाँति ठीक से आँका जा सकता है, एवं विचारधारा के रूपों जिनमें मनुष्य इस संघर्ष के प्रति सचेत रहता है, के बीच भेद किया जाना चाहिए।
हालाँकि मार्क्स साहित्य पर आर्थिक और भौतिक जीवन का निर्णायक प्रभाव मानते हैं तब वे उसकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करते हैं। हालाँकि मार्क्सवादी आलोचकों में इस विषय पर मतभिन्नता है।
मनोविश्लेषणवाद :
मनोविश्लेषणशास्त्र के प्रवर्तक के रूप में फ़्रायड प्रसिद्ध हुए।
एडलर और युंग शुरुआत में फ़्रायड के शिष्य, अनुगामी और सहयोगी थे किंतु आगे चलकर उनकी मान्यताएँ फ़्रायड से अलग हो गई। फलतः उन्होंने अपनी मान्यताओं को स्वतंत्र सिद्धांतों का रूप दिया। इस भेद के कारण तीन नामों का प्रयोग किया गया।
(1) फ़्रायड मनोविश्लेषण (साइको अनैलिसिस)
(2) एडलर व्यष्टिमनोविज्ञान (इंडिविजुअल साइकॉलॉजी)
(3) युंग विश्लेषण मनोविज्ञान (एनलिटिकल साइकॉलॉजी)।
सिग्मंड फ़्रायड
मनोविश्लेषणशास्त्र के प्रवर्त्तन का श्रेय सिग्मंड फ़्रायड (1856-1939) को दिया जाता है।
फ़्रायड का जन्म मोराविया में 6 मई, 1856 ई. को हुआ।
उन्होंने विएना में चिकित्साविज्ञान का मनोयोग से अध्ययन किया और तंत्रिका-विज्ञान (न्यूरोलॉजी) में विशेष दक्षता प्राप्त की।
कुछ दिनों तक पेरिस में प्रसिद्ध मनोचिकित्सक शार्कों की शिष्यता ग्रहण की और अपस्मार (हिस्टीरिया) रोग के कारणों का अध्ययन किया।
इस रोग के निदान के लिए सम्मोहन विधि का प्रयोग करना पड़ता था किंतु परिणाम संतोषजनक न आने के कारण फ़्रायड ने उस पद्धति को छोड़ दिया। उन्होंने एक स्वतंत्र पद्धति विकसित की जिसे 'मनोविश्लेषण पद्धति' नाम दिया गया।
1938 में हिटलर ने ऑस्ट्रिया पर अचानक अधिकार कर लिया। वहाँ से यहूदियों को भागना पड़ा। यहूदी होने के कारण नात्सी शासन में उनके लिए जगह नहीं थी। वे उन दिनों विएना विश्वविद्यालय में तंत्रिका-विज्ञान के प्रोफ़ेसर थे। अतः विएना को छोड़कर लंदन चले गए। वहीं 1939 ई. में उनका देहावसान हुआ।
लेखन कार्य
'इन्ट्रोडक्ट्री लेक्चर्स ऑन साइको अनैलिसिस' (1922), 'न्यू इन्ट्रोडक्ट्री लेक्चर्स'(1933), 'सिविलिजेशन एंड इट्स डिसकंटेट्स' (1929), 'दि इगो एंड दि इड', 'बियांड दि प्लेजर प्रिन्सिपल्स', 'इंटरप्रेटेशन आव ड्रीम्स', 'लिओनार्दो द विंची', 'टोटम एंड टैबो', 'श्री कन्ट्रीब्यूशन्स टु दि थियरी आव सेक्स' तथा 'आटोबायोलॉजिकल स्टडी' आदि पुस्तकें विशेष प्रसिद्ध हुई हैं।
दरअसल, फ़्रायड द्वारा प्रयुक्त 'मनोविश्लेषण' (Pshycho-analysis) शब्द सामान्य अर्थ में प्रयुक्त न होकर विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्द है। 'मनोविश्लेषण' एक ऐसा अवधारणात्मक शब्द है जो दो अर्थों का बोधक है। एक तो उस प्रविधि या प्रक्रिया का जिसका फ़्रायड ने मानव मन की भीतरी टटोल के लिए उपयोग किया और दूसरे उस सिद्धांत समूह का जो उस भीतरी टटोल या छानबीन के दौरान प्राप्त हुए हैं। ध्यान देने की बात यहाँ यह है कि फ़्रायड पहले मनोविश्लेषणशास्त्री है जो मानव-मन की जटिल दुर्बाध समस्याओं के कारण कार्य संबंध से अपनी बात प्रमाण-पुष्ट रूप में कहना चाहते हैं। वे अंतर्मन का उसी तटस्थता से अध्ययन-विश्लेषण करते हैं जिस तटस्थता से कोई वस्तुनिष्ठ घटनाओं का गहराई से विवेचन करता है। बीसवीं शताब्दी के बौद्धिक परिवेश को निर्मित करने में उनकी क्रांतिकारी भूमिका है।
प्रमुख मान्यताएँ :-
फ़्रायड के सिद्धांतों का मूलाधार है—
सुविचारित नियतत्ववाद
वैज्ञानिक दृष्टि से नियतत्ववाद का अर्थ है कार्य-कारण का दृढ़ संबंध। फ़्रायड यह मानते हैं कि भौतिक घटना के समान ही प्रत्येक छोटी-बड़ी मानसिक घटना के पीछे कार्य-कारण संबंध रहता है। जैसे—भौतिक संसार में कोई कार्य बिना कारण के नहीं होता, वैसे ही मानसिक अथवा अंतर्मन का कोई व्यापार भी कारण के बिना नहीं होता, नहीं हो सकता।
फ़्रायड के चिंतन का दूसरा आधार अवचेतन सिद्धांत अथवा अवचेतन मन की खोज है। फ़्रायड मन के तीन भाग मानते हैं :-
चेतन (कॉन्शस), पूर्व-चेतन (प्री-कॉन्शस) और अवचेतन (अनकॉन्शस)
महत्व और विस्तार की दृष्टि से चेतन मन की अपेक्षा अवचेतन मन अधिक वृहत्तर और शक्तिशाली है। फ़्रायड ने इस तथ्य को सामने लाने के लिए उदाहरण देकर अपनी बात कही कि एक ऐसा वृहत् पत्थर जिसका तीन-चौथाई भाग जल में डूबा हुआ है और एक-चौथाई भाग जल के ऊपर। यह तीन-चौथाई भाग अवचेतन मन है और एक-चौथाई भाग चेतन मन।
विषय की दृष्टि से अवचेतन और चेतन मन में गहरा पार्थक्य है। अवचेतन मन का विषय चेतन मन के विषय से भिन्न ही नहीं, प्राय: विपरीत या विरूद्ध होता है। इसीलिए चेतन मन में जैसा दिखाई देता है अवचेतन मन में प्राय: वैसा नहीं होता।
यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि चेतन मन की तुलना में अवचेतन मन कम गतिशील है बल्कि एक अर्थ में अवचेतन मन पर्याप्त गतिशील रहता है। स्मृतियाँ या भाव-विचार पुंज अवचेतन में पड़े रहते हैं। वें निश्चेष्ट नहीं होते, बाहर आने के लिए निरंतर द्वार खोजते रहते हैं तथा मौक़ा मिलते ही ये दबे हुए या दमित भाव विचार पूरे वेग से विस्फोट के साथ ऊपर आ जाते हैं।
चेतन वह भाग है जो सामाजिक जीवन में सक्रिय रहता है और जिसकी क्रियाओं का हमें ज्ञान रहता है। लेकिन अवचेतन मन हमारे मन का वह भाग है जिसकी क्रियाओं का सीधा ज्ञान हमें नहीं रहता परंतु निरंतर सक्रिय रहकर हमारी जीवन-गति की प्रत्येक स्थिति-गतिविधि को अज्ञात रूप से प्रेरित, प्रभावित करता है। यह अवचेतन हमारी उन इच्छाओं-अभावों अतृप्तियों का पुंज है जो अनेक सामाजिक अवरोधों के कारण (सेंसरशिप) अर्थात् सामाजिक-सांस्कृतिक स्वीकृति के अभाव में चेतन मन से मुँह छिपाकर नीचे उतर जाती हैं और बाहर आने के लिए मौक़ा खोजती रहती हैं।
फ़्रायड का आत्मनिष्ठ सृजन-सिद्धांत 'इच्छापूर्ति का सिद्धांत' है जिसमें अपूर्ण इच्छाओं या वासनाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
फ़्रायड के मत से कला अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति का प्रयास है। और इस दृष्टिकोण से वह शिशु क्रीड़ा, दिवास्वप्न, स्वप्न और फॅन्टसी से सादृश्य रखती है।
दमित इच्छाएँ अथवा वासनाएँ अपनी अभिव्यक्ति के लिए डटकर संघर्ष करती हैं और इस अवस्था में उन्हें अधीक्षक (सेंसर) का सामना करना पड़ता है। लेकिन यह दमन एक छलना है, दमित इच्छाएँ अनेक छद्म रूप धारण कर अपनी अभिव्यक्ति का मार्ग खोज या ढूँढ़ ही लेती हैं। ये मार्ग हैं प्रतीक कथा, स्वप्न, कला-साहित्य आदि। वस्तुस्थिति यह है कि ये सभी स्वप्न के विभिन्न रूप हैं। इसीलिए स्वप्न की व्याख्या से 'स्वप्न सिद्धांत' की स्थापना फ्रायडीय चिंतन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है।
पूर्व चेतन (प्री-कॉन्शस) की स्थिति चेतन से कुछ पहले है और यह अवचेतन मन के लिए एक विशेष द्वार है। लेकिन यह द्वार कभी-कभार ही खुलता है, प्राय: चुप पड़ा रहता है। अवचेतन मन की प्रधान विशेषता है यौन जीवन के प्रति गहरा झुकाव।
फ़्रायड के सिद्धांतों में सर्वाधिक क्रांतिकारी और विस्मयकारी अवधारणा है—यौन से संबंधित सिद्धांत दृष्टि।
फ़्रायड ने अनेक तथ्यों के आँकड़ों के आधार पर कहा कि प्राय: सामान्य धारणा यह है कि यौन भावना यौवन काल में उत्पन्न होती है किंतु यह धारणा सही नहीं है। सही बात यह है कि यौन भावना मानव-जन्म के साथ ही उत्पन्न होती है।
फ़्रायड मानते हैं कि बच्चे की यौन भावना सर्वप्रथम माँ के प्रति ही उद्दीप्त होती है और बहुत बार पिता को वह अपना प्रतिस्पर्धी मान लेता है किंतु भयवश वह अपनी कामेच्छा की तृप्ति नहीं कर पाता। इससे उसके मन में एक मनोग्रंथि पैदा होती है जिसे 'ईडिपस ग्रंथि' (ईडिपस नामक एक कुमार ने अनजाने में अपने पिता को मारकर माँ से विवाह कर लिया। उसी के इस ग्रंथि का नामकरण किया गया है। ईडिपस ग्रंथि का कारण है माँ के प्रति यौन आकर्षण और उसकी अतृप्ति)।
फ़्रायड की मान्यता है कि यही 'ईडिपस ग्रंथि' जीवन में मनस्ताप (न्यूरोसिस) का कारण बनती है जिसका निराकरण न होने से जीवन में व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। फ़्रायड के अनुसार मनस्ताप एक प्रकार का तांत्रिकीय (नर्वस) रोग है जो जीवन में अतृप्ति अभाव, कुंठा या मैल-ऐडजस्टमेंट के कारण उत्पन्न होता है। मनस्तापी की जीवन-दृष्टि विकृत और निराशा से भरी होती है वह या तो परिस्थितियों से संघर्ष करने से कतराता है या फिर दूसरों को उत्तेजित कर अपना उल्लू सीधा करता है।
फ़्रायड का 'सेक्स' बहुत व्यापक अर्थ-संदर्भ का वाची शब्द है।
फ़्रायड के मत से नैतिकता एक प्रकार का सामाजिक नियंत्रण है जिसने मानव जीवन की सहज-नैसर्गिक गति को बाधित कर रखा है।
ये दमित भाव ही अवचेतन में उपद्रव मचाते हैं जिन्हें समाज अनैतिक कहता है। लेकिन 'सेंसर' दमित इच्छा को यदि वह चेतन मन तक किसी तरह पहुँच ही गई तो उसे 'परिष्कार कर देता है ताकि वह शिष्ट समाज के योग्य बन सके। चेतन मन की मंज़िल पर पहुँचने के क्रम में अवचेतन का यह परिष्कार ही उदात्तीकरण (सब्लीमेशन) कहलाता है।
फ़्रायड ने अनेक प्रयोगों से सिद्ध किया कि 'सेंसर' के द्वारा निरंतर दमन की जाने वाली अवचेतन की वासनाएँ अथवा इच्छाएँ अनुकूल अभिव्यक्ति का अवसर न पाकर स्थिर हो जाती हैं और 'मनोग्रंथि' में बदल जाती हैं। जैसे तालाब का जल ठहरकर सड़ने लगता है वैसे ही इच्छाएँ मानसिक रोगों का रूप ग्रहण कर लेती हैं। यदि मनोग्रंथि के कारणों को सामने लाया जाए तो उनका इलाज संभव है। यह सिद्धांत मानव के भाव-राग-विराग सभी पर लागू किया जा सकता है। एक प्रकार से फ़्रायड के इस सिद्धांत में अरस्तू के विरेचन-सिद्धांत (थियरी ऑफ़ कैथार्सिस) की ध्वनि है।
फ़्रायड के मत से कला का महत्व इस बात में निहित है कि वह एक प्रकार के भ्रम का जाल बुनकर हमें यथार्थ की असहनीयता और कटुता से मुक्ति दिलाती है। यह भ्रम रम्य कल्पना फॅन्टसी निर्मित करती है। अवचेतन मन की दमित इच्छाएँ फ़ैंटसी में अभिव्यक्ति पाती हैं।
फ़्रायड ने मनोविश्लेषण में 'अवचेतन सिद्धांत' की तरह 'स्वप्न सिद्धांत' को बहुत महत्व दिया। स्वप्न, मानव की दमित इच्छाओं की अभिव्यक्ति हैं। अतः स्वप्न हमें अवचेतन की महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ देते हैं।
विशेष बात यह है कि फ़्रायड ने मनोविश्लेषण में मन की संरचना दो प्रकार की मानी है। आरंभ में वे चेतन, पूर्वचेतन तथा अवचेतन की धारणा सामने लाते हैं लेकिन बाद में एक दूसरी धारणा प्रस्तुत करते हैं। मन के तीन भाग हैं—
इदम् (इड), अहम् (इगो) और अति-अहम् (सुपर इगो)।
कुछ दूर तक ये दोनों विभाजन एक-दूसरे के पूरक हैं और इनमें स्पष्ट विभाजन आसान नहीं हैं।
इदम् (इड)
सहज प्रवृत्तियों का भंडार रागों का पुंज और अवचेतन ही इड है। मानव जो कुछ आनुवंशिकता से प्राप्त करता है वह सब इदम् में संचित रहता है पर इदम् की सहज प्रवृत्तियाँ अपनी संतुष्टि के लिए बेचैन रहती हैं।
अहम्
अहम् (इगो) को हम चेतन मन कह सकते हैं। यह मन बाह्य जगत और अवचेतन के मध्य मध्यस्थ की भूमिका अदा करता है। सहज प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखता है और परिस्थिति परिवेश या देश और काल की अनुकूलता/प्रतिकूलता देखकर निर्णय करता है कि किसे कब संतुष्टि प्रदान करे। अहम् ही उन प्रवृत्तियों का दमन करता है जो संतुष्टि के योग्य नहीं होती हैं।
अति अहम् (सुपर इगो)
संचित सामाजिक मान्यताओं का प्रतीक है जिसका काम आलोचना (विवेक) और अधीक्षण (सेंसर) करना है। अति अहम् भी अवचेतन का ही अंग होता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इदम् और अति अहम् दोनों अतीत के अनुभवों के प्रभावों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हाँ, अहम् का निर्धारण मानव अनुभव करते हैं। इस प्रकार इदम् का मूल है आनंद और अहम् का
प्रेरक है वस्तुवाद।
अहम् में ज्ञान की प्रधानता रहती है और इदम् में वासनाओं या इच्छाओं की जीवन की मूल वृत्ति फ़्रायड के मत से 'काम' है। इनके मत से दो वृत्तियाँ प्रधान हैं एक इरॉस अर्थात प्रेम करने की प्रवृत्ति और दूसरी बैनेटॉस अर्थात् नाश करने की—प्रवृत्ति। इनमें प्रमुख काम की प्रवृत्ति है दूसरी विपर्यय मात्र इसी 'काम' को फ़्रायड-ने 'लिबिडो' कहा है। हमारी सभी क्रियाओं में 'काम' के अंतः सूत्र विद्यमान रहते हैं और कामवृत्ति अनेक रूपों छवियों भाव-झंकृतियों में अपने अस्तित्व का अहसास कराती है।
फ़्रायड ने स्पष्ट किया है कि रोग का मूल कारण मनोग्रंथियाँ हैं। समस्या है इन मनोग्रथियों की—आंतरिक गाँठों को खोला कैसे जाए? इसके लिए फ़्रायड ने व्यावहारिक प्रयोगों के द्वारा 'मुक्त' विचार प्रवाह शैली' की खोज की जिसके अनुसार वे अंतर्मन में पड़े भावों को बाहर निकाल लाने का दावा करते हैं।
अपने इन्हीं सिद्धांतों के प्रकाश में फ़्रायड ने सभ्यता-संस्कृति, धर्म, कला, समाज-व्यवस्था, राष्ट्रीयता आदि पर विचार किया।
फ़्रायड के चिंतन में नैतिकता और आध्यात्मिकता के लिए कहीं भी जगह नहीं है। कला या साहित्य के क्षेत्र में वे भाव-परिष्कार सिद्धांत को स्वीकार करते हैं।
फ़्रायड के मनोविश्लेषण में प्रयोजन या उद्देश्य के लिए कोई स्थान नहीं है। मनुष्य की स्थिति यंत्र की है मानव के सभी कार्य व्यापारों को एक अंध-शक्ति परिचालित करती है। अतः उद्देश्य सामने रखकर कार्य करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। जीवन का ही कोई प्रयोजन नहीं है जीवन तो प्रयोजनातीत है।
अल्फ्रेड एडलर
वैयक्तिक मनोविज्ञान के प्रतिष्ठापक अल्फ्रेड एडलर रहे हैं। उनका जन्म विएना में 17 फ़रवरी, 1870 ई. में हुआ। चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन करने के बाद 1902 में वे फ़्रायड के सहयोगी शिष्य हो गए। लेकिन धीरे-धीरे दोनों के बीच मतभेद उभरा। यह इस सीमा तक उभरा कि 1911 में एडलर ने फ़्रायड से अलग अपना नया सिद्धांत या संप्रदाय बना लिया। 1935 में वे अमेरिका चले गए। उनकी प्रसिद्ध कृतियों के नाम है—'दि प्रैक्टिस ए थियरी ऑव साइकोलॉजी', 'सोशल इंटरेस्ट', 'दि न्यूराटिक कांस्टीट्यूशन', 'प्राब्लम ऑव न्यूरोसिस' आदि।
प्रमुख मान्यताएँ
फ़्रायड 'काम भावना' को जीवन की प्रेरणा शक्ति मानते हैं पर एडलर 'अधिकार-भावना' को केंद्रीय स्थान देते हैं।
एडलर के विचार से मनुष्य को तीन क्षेत्रों का समायोजन करना पड़ता है—समाज, प्रेम और कार्य। इस त्रिविध समायोजन में बाल्यकाल के अनुभव साधक या बाधक की भूमिका में रहते हैं। बालक असहाय रूप में संसार में आता है उसे जीवन-धारणा से लेकर प्रत्येक जीवन-कार्य में दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। नतीजा यह होता है कि बालक क़दम-क़दम पर असहायता का अनुभव करता है। उसकी असहायता की भावना तीन प्रकार से तीव्र होती जाती है। अनुचित व्यवहार से विषम परिस्थिति से तथा आंगिक हीनता से अनुचित व्यवहार का अर्थ है—उपेक्षा, कठोरता, अधिक लाड-प्यार।
विषमता का यहाँ अर्थ है बच्चा अनाथ हो, पिता की मृत्यु के बाद पैदा हुआ हो या विमाता के संरक्षण में कष्ट झेल रहा हो। आंगिक हीनता का अर्थ है—अंग संरचना में गड़बड़ी।
इनका बच्चे के मन पर गहरा प्रभाव दबाव रहता है और उसमें हीनता की भावना पैदा हो जाती है। जीवन क्षेत्र में बार-बार असमर्थता का शिकार होने पर उसमें कुंठा घर कर लेती है और असफलता 'मनस्ताप' को जन्म देती है। अतः 'मनस्ताप' से निवारण के लिए बचपन का इतिहास-भूगोल जानना अपेक्षित होता है।
असहायता की भावना की प्रतिक्रिया कई रूपों में हो सकती है किंतु तीन प्रमुख रूप हैं—
(क) क्षतिपूर्ति का संकल्प
(ख) आत्म-केंद्रित हो जाना, पलायनवादी हो जाना, कर्म से मुँह मोड़ लेना
(ग) अतिक्षतिपूर्ति या समझौतावादी दृष्टि अपनाना।
इनमें से प्रथम प्रकार में एक दिशा में शक्ति (एनर्जी) का प्रवाह अवरुद्ध होकर दूसरी दिशा में नई ऊँचाइयों को प्राप्त करता है। यही क्षतिपूर्ति की सफलता या सफल क्षतिपूर्ति है जैसे हम देखते हैं कि नेत्रहीन, विकलांग व्यक्ति कविता, कला या संगीत में अद्भुत उत्कर्ष प्राप्त करते हैं अँग्रेज़ी कवि बायरन लँगड़े थे हिंदी कवि सूरदास नेत्रहीन।
दूसरी कोटि में वे व्यक्ति आते हैं जो पराजय से पीड़ित होकर आत्म-केंद्रित हो जाते हैं। तीसरी कोटि लोग अति क्षतिपूर्ति वाले लोग अपनी हीनताओं से समझौता कर लेते हैं और उसकी क्षतिपूर्ति का प्रयास करते हैं।
उदाहरण के तौर पर मरियल आदमी का ऐसे कामों में उत्साह दिखाना जो उसे बलवान सिद्ध कर सकें। चूँकि यह क्षतिपूर्ति प्रायः संतुलित न होकर 'अति' से भरी होती है इसीलिए इसे 'अति-क्षतिपूर्ति' कहते हैं। संतुलित क्षतिपूर्ति वाला 'नॉर्मल' कहलाता है व असंतुलित अतिरंजित क्षतिपूर्ति वाला 'असामान्य' (एब-नॉर्मल)। इसलिए 'असामान्य व्यक्ति की कठोर आलोचना होती है एडलर के मत से मनुष्य के विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका 'समाज' की होती है।
मानव का समाज निरपेक्ष व्यक्तित्व और अस्तित्व संभव ही नहीं है। उसकी सभी इच्छाएँ-आकांक्षाएँ, प्रेरणाएँ समस्याएँ, चिंताएँ, तोष प्रदान करने वाली वृत्तियाँ समाज सापेक्ष्य हैं। इसीलिए 'सामाजिकता' का एक बृहत् अर्थ संदर्भ है।
मानव की 'सामाजिकता' का लघु किंतु महत्त्वपूर्ण अंग 'घर-परिवार' है। व्यक्ति की 'जीवन-पद्धति' को समझने के लिए 'पारिवारिक पद्धति' को गहराई से जानना समझना ज़रूरी है।
एडलर ने 'जीवन-पद्धति' का प्रयोग आचार-विचार व्यवहार आदि के व्यापक अर्थ में किया। स्वाभाविक 'जीवन-पद्धतिृ' के विकास से अभिप्राय है 'अहंभावना' और 'समुदाय भावना' में पूर्ण संतुलन और सामंजस्य। न्यूराटिक या मनस्तापी में इस 'समुदाय-भावना' का विकृत रूप रहता है वह 'अहंभावना' को प्रधानता देता है और 'समुदाय भावना' को अँगूठा दिखाता है। यही उसकी 'मानसिक बीमारी' का साफ़ लक्षण है।
वैयक्तिक मनोविज्ञान के अनुसार, मनस्तापी व्यक्ति वह है जिसके शैशवकालीन असंतुलन ने 'जीवन-पद्धति' को ग़लत दिशा में प्रवृत्त कर दिया है।
एडलर किसी भी व्याधि या रोग के तीन कारण मानते हैं :-
(1) संरचनात्मक
(2) क्रियामूलक
(3) मानसिक व्यापारमूलक
संरचनात्मक व्याधि से तात्पर्य आंगिक विकृति से है जैसे अंधा, काना आदि।
क्रियामूलक कारणों से तात्पर्य है दर्द के कारण हाथ-पैर चलाने में कठिनाई।
मानसिक-व्यापारमूलक कारण का अर्थ है भय, क्रोध, चिंता आदि भाव। मनस्तापी में व्याधियों के बहुत से कारण संश्लिष्ट रहते हैं।
मानव के चरित्र निर्माण पर एडलर का ध्यान विशेष रूप से रहा है।
चरित्र-निर्माण में अनेक तत्व घुले-मिले रहते हैं, शारीरिक गठन, परिवार, आर्थिक नैतिक-शैक्षणिक स्थिति-परिस्थिति, लक्ष्य एवं उसे प्राप्त करने के साधन।
फलतः एडलर 'नैसर्गिक प्रतिभा' जैसी किसी चीज़ को स्वीकार नहीं करते। वे व्यक्तित्व एवं चरित्र के निर्माण में परिवेश अथवा वातावरण की केंद्रीय भूमिका मानते हैं।
सामान्य व्यक्ति (नॉर्मल) वह है जिसकी सामाजिक सांस्कृतिक रुचियाँ विकसित, परिष्कृत होती हैं। उसकी 'सामाजिकता' फूल की तरह खिलती है। लेकिन न्युराटिक पलायनवादी होकर आत्मकेंद्रित हो जाता है और 'समाज' से घबराता है। फलत: वही सामाजिक संघर्ष में पिछड़ जाता है।
हीनता-ग्रंथि से मुक्ति पाए बिना जीवन में संघर्ष करने की क्षमता और सफलता संभव नहीं है।
ग़लत जीवन पद्धति के परित्याग से मानव 'हीनता ग्रंथि' से मुक्ति पा सकता है।
हीनता-ग्रंथि से मुक्ति पाने का उपाय आशा, उत्साह का उदय तथा सामाजिकता का विस्तार है।
फ़्रायड और एडलर के विचारों में अंतर
फ़्रायड के अनुसार 'मनस्ताप' मन की विकृति का नतीजा है किंतु एडलर के अनुसार मनस्ताप जीवन-पद्धति और व्यक्तित्व की विकृतियों का कुफल है। फ़्रायड 'यौन भावना को केंद्रीयता' प्रदान करते हैं, किंतु एडलर सामाजिकता, परिवेश वातावरण को महत्व देते हैं। विशेष बात यह है कि एडलर 'सांस्कृतिक तत्वों' के महत्व की ज़ोरदार ढंग से घोषणा करते हैं।
सी.जी.युंग
युंग का जन्म 26 जुलाई, 1875 ई. में बासेल, स्विटज़रलैण्ड में हुआ। उन्होंने चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन किया और बासेल विश्वविद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में विशेष योग्यता प्राप्त की। 1900 ई. में उन्होंने मनोचिकित्सक के रूप में कार्य शुरू किया। कुछ समय तक वह फ़्रायड के सहयोगी रहे, किंतु दोनों में गहरे सैद्धांतिक मतभेद उभरे।
फलतः उन्होंने 'मनोविश्लेषणक मनोविज्ञान' की नई सिद्धांत दृष्टि का प्रवर्तन किया।
ध्यान देने की बात है कि युंग के सिद्धांत मनोविज्ञान से ज़्यादा दर्शन के अंतर्गत आते हैं और उनका चिंतन दार्शनिक वर्गसॉ के नज़दीक पड़ता है।
सी.जी. युंग की प्रसिद्ध पुस्तकें
'मॉडर्न मैन इन सर्च ऑप सोल' 'दि इंटीग्रेशन ऑव पर्सनेलिटी' 'साइकोलॉजिकल टाइप्स' 'साइकोलॉजी ऑव अनकॉन्शस' तथा 'कन्ट्रीब्यूशन टू एनालिटिकल साइकोलॉजी' आदि हैं।
प्रमुख मान्यताएँ
फ़्रायड की तरह युंग भी मानते हैं कि 'चेतन मन' की तुलना में 'अवचेतन मन' का क्षेत्र अधिक विस्तृत और महत्त्वपूर्ण है। किंतु 'अवचेतन मन' के बारे में दोनों के विचार भिन्न हैं।
फ़्रायड के अवचेतन सिद्धांत में दमित अतृप्त सामग्री का केंद्रीय महत्व है किंतु युंग के मत से 'अवचेतन मन' में वे तत्व भी मौजूद रहते हैं जो वैयक्तिक अनुभव की परिधि और सीमा में कभी आते ही नहीं, व बुनियादी तौर पर पुरातन ऐतिहासिक अनुभव राशि का रूप होते हैं। इसे ही युंग ने 'प्रजातीय स्मृति' (रशियल मेमोरी) का नाम दिया है।
युंग कहते हैं कि प्रत्येक मानव में एक विशेष प्रकार का 'आदिम अवचेतन' मन विद्यमान रहता है जो अपनी मूल बनावट या रूप में विश्व व्यापी सामूहिक, पुरातन और निर्वैयक्तिक हुआ करता है जिसमें आदिम मानव के 'देव-असुर', 'भले-बुरे' गुण मौजूद रहते हैं।
जैसे-जैसे हमारे व्यक्तित्व का विकास होता है, वैसे-वैसे हम पाते हैं कि 'निर्वैयक्तिक अवचेतन मन' के तत्व 'चेतन मन' का हिस्सा बने जाते हैं और चेतन के विस्तार के साथ 'आदिम अवचेतन' मन का कुछ अंश छनकर ऊपर आ जाता है।
युंग की 'अवचेतन मन' की धारणा
मानव के अवचेतन मन में मात्र दमित इच्छाओं का ही ढेर नहीं लगा हुआ है, बल्कि मानसिक जीवन के वे पक्ष भी संचित रहते हैं जो अपने विकासक्रम में अधूरे उपेक्षित रह गए हैं।
अवचेतन मन में वैयक्तिक अनुभवों-धारणाओं-विचारों, इंद्रिय संवेदनों के वे रूप भी मौजूद हैं जो उपयोग में न आने के कारण 'विस्मृति' के अंधकार में पड़ गए हैं किंतु वे मृत नहीं हैं। ये 'विस्मृत' विचार-खंड ज़रूरत पड़ने पर स्मृति में अधिक धड़क उठते हैं।
मूल बात यह है कि युगीय मनोविश्लेषक मनोविज्ञान में 'अवचेतन मन' के दो भाग हैं।
(1) वैयक्तिक अवचेतन मन
(2) सामूहिक अवचेतन मन जिसे वे 'प्रजातीय अवचेतन' मन नाम भी देते हैं।
वैयक्तिक अवचेतन 'समग्र सामूहिक अवचेतन मन' की तुलना में कम महत्व का है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है 'सामूहिक अवचेतन मन' इसी सामूहिक अवचेतन मन में किसी भी प्रजाति के मिथक, प्रतीक, सामूहिक विश्वास, कर्मकांड संचित रहते हैं। इसी सामूहिक अवचेतन मन का गंभीर तल है उसे ही युंग—'आदिम विश्व-व्यापी अवचेतन मन' कहते हैं।
सार-संक्षेप में मूल बात यह है कि मानव-मन के तीन विशिष्ट स्तर हैं :-
(1) चेतन
(2) वैयक्तिक अवचेतन और
(3) आदिम सामूहिक अवचेतन मन या प्रजातीय अवचेतन मन।
प्रजातीय अवचेतन मन का स्वरूप युंग कहते हैं कि प्रजातीय अवचेतन मन में प्रजातीय दाय या धरोहर (रशियल हेरिटेज) का भंडारण या संग्रह होता है। इस प्रजातीय अवचेतन मन की रचना की एक तह नहीं बल्कि अनेक तरह की तहें या परतें होती हैं। प्रथम बुनियादी तह में पशु-जीवन के संचित अवशेष हैं। इस तह के ऊपर दूसरी तह आदिम पूर्वजों या पुरखों के संस्कार की है। तीसरी तह मानव-जाति विकास (एथ्नोलॉजिकल) समूहों (जैसे आर्य-मंगोल आदि) की है। इसके ऊपर एक 'राष्ट्र' की तह है, फिर उसके ऊपर 'कुल' की तह है और इन सभी तहों के ऊपर 'परिवार' की तह है।
मूल बात यह है कि प्रत्येक मानव में उसके प्रजातीय सामूहिक अवचेतन मन में आदिम पशुओं-पुरखों से लेकर माता-पिता तक के कुल वंश संस्कार विद्यमान रहते हैं। इसी को युग ने एक व्यापक नाम 'प्रजातीय स्मृति' दिया है। यही परंपरा (ट्रेडीशन) है।
फ़्रायड और युंग में असहमति
फ़्रायड की स्वप्न सिद्धांत की धारणा से युंग सहमत नहीं हैं। फ़्रायड केवल स्वप्न को अतीत घटनाओं की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति मानते हैं जबकि युंग के मत से स्वप्न अतीत, वर्तमान भविष्य, तीनों से संबद्ध होते हैं।
युंग ने 'लिविडो' की व्यापक परिभाषा की और फ्रायडीय यौन प्रेरणा के स्थान पर जीने की इच्छा (लस्ट फॉर लाइफ़) या 'जिजीविषा' पर बल दिया।
फ़्रायड ने सभी प्रतीकों और जीवन के हर क्षेत्र के प्रतीकों मिथकों, कला-प्रयोजनों को 'यौन-भावना' तक सीमित माना है। जबकि युंग प्रतीकों के व्यापक क्षेत्र को स्वीकार करते हैं।
सृजन प्रक्रिया और कवि कर्तृत्व में युंग 'व्यक्ति-निरपेक्ष सृजन सिद्धांत' का प्रतिपादन करते हैं। साहित्य के क्षेत्र में टी. एस. एलियट ने रोमांटिक व्यक्तिवादी प्रवृत्ति का विरोध करते हुए जैसे 'निर्वैयक्तिक सिद्धांत' की महत्व प्रतिष्ठा की है वैसे ही युंग ने फ़्रायडीय व्यक्तिपरक न्यूरोसिस-सिद्धांत के विरोध में 'सामूहिक अवचेतन सिद्धांत' (कलेक्टिव अनकॉन्शस) को प्रस्तुत किया जिसके आधार पर कला-सृजन की रहस्यपरक गहराइयों को थाहने का प्रयत्न किया जा सकता है।
अपने ग्रंथ 'मॉडर्न मैन इन दि सर्व ऑव सोल' के 'मनोविज्ञान और साहित्य' नामक अध्याय में युंग ने स्पष्ट रूप से कला-सृजन की मनोवैज्ञानिक व्याख्या या भाष्य प्रस्तुत किया।
युंग ने कलाकार और सृजन-प्रक्रिया पर कहा है कि वस्तुतः कला आंतरिक प्रेरणा की शक्ति है जो मानव को अपने जादुई जाल में फाँसकर उसे अपना यंत्र बना लेती है या दशवर्ती कर लेती है। कलाकार स्वतंत्र इच्छा-शक्ति से संपन्न अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों की सिद्धि ढूँढ़ने वाला व्यक्ति नहीं है बल्कि ऐसा प्राणी है जो अपने माध्यम से कला के प्रयोजन की सिद्धि करने देता है। मानव प्राणी होने के नाते उसमें संवेग इच्छाएँ और वैयक्तिक उद्देश्य हो सकते हैं; किंतु कलाकार होने के नाते वह उच्चतर अर्थ में मानव है—यह सामूहिक मानव है जो मानव जाति के मानसिक जीवन के अवचेतन को वहन और रूपायित करता है। अपने सृजन दायित्व के ठीक-ठीक निर्वाह के लिए कलाकार को अपने जीवन सुख का बलिदान करना पड़ता है। फ़्रायड, एडलर और युंग के सिद्धांतों में परस्पर मतभेदों के बावजूद उनमें कुछ बातों को लेकर सहमति रही है।
1. तीनों ही कार्यकारण संबंध या मानसिक नियतत्ववाद को स्वीकार करते हैं।
2. तीनों ने एक स्वर से अवचेतन के महत्व की घोषणा की है।
3. तीनों पर समकालीन विचारधाराओं का प्रभाव दिखाई देता है, जैसे भोगवाद, प्रतिसत्तावाद (ऐंटी-ओथोरिटेरियनिज्म)
4. ईश्वर, धर्म और नैतिक मूल्य भावना का तीनों ही निषेध करते हैं।
5. तीनों ही चिकित्सा विज्ञान के व्यावहारिक अनुभवों से संपन्न होकर कभी-कभार कला-साहित्य ओर बढ़ते हैं।
साहित्य, कला और मनोविश्लेषण का संबंध कला यौन भावना की विकृतियों से मुक्ति का साधन है।
कलाकार मूलतः 'न्यूराटिक' होता है।
कला की शक्ति उदात्तीकरण है।
कला एक प्रकार की फ़ैंटेसी है।
स्वप्न और कल्पना में भीतरी भेद नहीं है।
कला में प्रयुक्त बिंबों-प्रतीकों-लयों के विवेचन में मनोविश्लेषण की प्रासंगिकता है।
आद्य-बिंबों और सामूहिक अवचेतन से मिथकों का सृजन कार्य संपन्न होता है।
मनोविश्लेषणवाद और हिंदी साहित्य :
अज्ञेय ने 'शेखर एक जीवनी' तथा 'नदी के द्वीप' में तथा कहानियों-कविताओं में व्यापक स्तर पर मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि को अपनाया।
उनका आलोचना कर्म भी फ़्रायड, एडलर, युंग से प्रभावित-आंदोलित हुआ। 'तार सप्तक' (1943) के कवि वक्तव्य में अज्ञेय ने साफ़ कहा कि आज के मनुष्य का मन यौन परिकल्पनाओं से लदा हुआ है।
अज्ञेय के साथ ही इलाचंद्र जोशी तथा जैनेंद्र कुमार मनोविश्लेषण की ओर पूरी तरह झुक गए।
इलाचंद्र जोशी ने 'प्रगतिवाद' पर एडलर के क्षतिपूर्ति सिद्धांत को लागू किया।
जैनेंद्र कुमार ने 'सुनीता', 'त्यागपत्र' जैसे उपन्यासों में मनोविश्लेषण का प्रभाव लिया। फलतः डॉ. देवराज ने जैनेंद्र के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया।
कवि-आलोचक ग. मा. मुक्तिबोध ने मनोविश्लेषण से प्रभावित होकर हिंदी आलोचना में प्रथम बार 'फॅण्टेसी' पर विचार करते हुए उसकी महत्व प्रतिष्ठा की है।
कथाकारों पर 'मुक्त-संबंध शैली' का प्रभाव पड़ा है, साथ ही स्वप्न चित्रों के सृजन और उद्घाटन की ओर प्रवृत्ति बढ़ी है।
अस्तित्ववाद :
मोनियर ने अस्तित्ववाद की परिभाषा करते हुए लिखा है कि अस्तित्ववाद विचारों के दर्शन तथा वस्तु-यथार्थ के दर्शन की अति के विरुद्ध मानव के दर्शन की प्रतिक्रिया है। अस्तित्ववाद का अर्थ है जिसका संबंध अस्तित्व से है। अर्थात् जिसका मूल सरोकार मानव-अस्तित्व, मानव-स्थिति, संसार में मनुष्य का प्रयोजन और मानवीय संबंधों की उपस्थिति और अनुपस्थिति से है।
अस्तित्ववादी विचारक
गेब्रियल मार्शल, सार्त्र, कार्ल जैस्पर्स, मार्टिन हाइडेगर, कामू, सिमोन द बउआ, दोस्तोयेव्स्की, फ्रांज़ काफ्का आदि प्रमुख हैं। सार्त्र अस्तित्ववादियों में सबसे प्रमुख माने जाते हैं।
पृष्ठभूमि
यूँ तो उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में यूरोप के दर्शन में अस्तित्ववाद एक महत्त्वपूर्ण विमर्श रहा है लेकिन साहित्य में इसका आगमन वर्तमान सदी के तीसरे-चौथे दशक से माना जाता है। दूसरे महायुद्ध के दौरान और उसके पश्चात कुछ वर्षों तक यह बहुत चर्चित रहा।
विद्वानों ने अस्तित्ववाद की परंपरा को सुदूर अतीत में ग्रीक स्टोइकों (Stoics-संयमवादी) से जोड़ा है। ईसाई संतों संत बर्नार्ड और संत ऑगस्तीन के विचारों में भी इस दृष्टिकोण की झलक मिलती है।
बीसवीं सदी में एक स्पष्ट दर्शन के रूप में व्याख्यायित होने के पहले 17वीं सदी में पास्कल, 19वीं सदी में कीर्केगार्द तथा नीत्शे, और 20वीं सदी में हाइडेगर तथा यास्पर्स के विवेचन ने भी इसकी एक सुदृढ़ भूमिका बना दी थी।
सन 1945 में फ्रेंच विचारक ज्यां पाल सार्त्र ने एक व्याख्यान में स्पष्ट रूप से इसका विवेचन किया।
साहित्य में अस्तित्ववाद के प्रभाव का कारण मानव की वह भयावह विषम स्थिति थी जो फ़ासीवाद के रक्तरंजित आतंक, साम्यवाद से मोहभंग तथा द्वितीय महायुद्ध की विभीषिका और अणु-विस्फोटो के मानव संहार से उत्पन्न हुई थी।
अवधारणा
अस्तित्ववाद (एग्ज़िस्टेंशलिज्म) मूल रूप से दर्शन का सिद्धांत है। लेकिन अस्तित्ववाद ने साहित्य सृजन तथा आलोचना सिद्धांतों को भी प्रभावित किया है।
अस्तित्ववाद के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के सामने विभिन्न संभावनाएँ या रास्ते हैं। मनुष्य इन संभावनाओं या रास्तों में से एक या अधिक का वरण करता है।
इस चरण के लिए मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल करता है।
वरण की स्वतंत्रता के परिणामस्वरूप मनुष्य अपने अस्तित्व (एग्ज़िस्टेंस) को न केवल प्रमाणित करता है बल्कि प्रामाणिक (ऑथंटिक) भी बनाता है।
वरण के स्वतंत्र प्रयोग के कारण उसके सार (एसेंस) का निर्माण होता है। अर्थात् सार से पूर्व अस्तित्व है। अस्तित्व के पूर्ववर्ती होने के कारण इसे अस्तित्ववाद की संज्ञा दी गई है।
अस्तित्ववाद मानव को परिभाषित नहीं करता क्योंकि मानव की कोई आदि-मूल चिरंतन या शाश्वत प्रवृत्ति नहीं।
मनुष्य उसके सिवाय कुछ नहीं जो अपने स्वतंत्र कर्म तथा वरण द्वारा बनाता है।
अस्तित्ववाद के केंद्र में जीवन की निस्सारता का दर्शन है।
मानव रचना के मूल में कोई प्रयोजन नहीं वह स्वयं जो निर्धारित करता है उसके अलावा बिना किसी प्रयोजन के उसकी इच्छा के बग़ैर फेंक दिया गया है। जो वह स्वयं निश्चित करता है, सिवाय उस उद्देश्य या गंतव्य के वह इस संसार में भटकने के लिए विवश है। वह किसी सहारे या सहायता के बग़ैर निरंतर गर्दिश में है।
मानव प्रकृति मानव प्रकृति एक अर्थहीन शब्द है। मानव की कोई प्रवृत्ति नहीं केवल इतिहास है। मानव प्रकृति को स्वीकार करने का अर्थ है मानवेतर (देवी) शक्ति में विश्वास। अर्थात् ऐसी परम-शक्ति को स्वीकार करना जो मनुष्य के अस्तित्व से पूर्व पैदा हुई है या मौजूद थी।
वह स्थिति जिसमें मनुष्य अलगाव (एलियेनेशन) और एकाकीपन का जीवन व्यतीत करने पर विवश है। हाइडेगर का कथन है—'मनुष्य इस संसार में अकेला, थका हुआ, निराश और भयभीत है।' मानव की यह निरुद्देश्य, प्रयोजनहीन, अलगाव तथा संत्रास स्थिति इस दुनिया को विसंगतियों का रंगमंच बना देती है।
अस्तित्ववाद के अनुसार मानव अपनी विषम स्थिति के लिए स्वयं उत्तरदायी है। (याद रहे मार्क्सवाद के तहत मनुष्य भौतिक ऐतिहासिक नियतिवाद का ग़ुलाम है। सिग्मंड फ़्रायड के अनुसार वह अवचेतन यौन प्रवृत्ति का दास है।)
अस्तित्ववाद में मनुष्य अपने कर्म तथा निर्णय के लिए स्वयं ही उत्तरदायी है। इस कर्म तथा निर्णय के लिए उसे वरण करना पड़ता है। वरण के लिए स्वतंत्रता मूल शर्त है। ईश्वर, राज्य या कोई अन्य व्यवस्था या व्यक्ति उसके लिए वरण नहीं कर सकता। इस स्वतंत्रता के बोझ से भयभीत होकर वह धर्म, राज्य या नैतिकता की शरण लेता है। अर्थात् स्वतंत्रता का बोझ सहन न कर पाने के कारण वह पलायन करता है।
चिंता एवं संत्रास वरण की स्वतंत्रता की स्थिति चिंता (ऐंग्स्ट) तथा संत्रास (ड्रेड) उत्पन्न करती है (मूल जर्मन शब्द 'ऍग्स्ट' में मानसिक परिवाप (चिंता और भय (संत्रास) दोनों शामिल हैं)
प्रामाणिक व्यक्ति तथा जीवन सच्चा व्यक्ति वही है जो स्वतंत्रता के बोझ को स्वीकार कर लेता है। जो वरण करने में संकोच नहीं करता।
प्रत्येक व्यक्ति स्थितियों के अलग-अलग होने के बावजूद अलग-अलग वरण करता है। अतः हर व्यक्ति का अर्थ-बोध दूसरे व्यक्ति के अर्थ-बोध से भिन्न होता है। इसलिए कोई व्यापक या सामान्य मूल्य या अर्थ संभव नहीं।
मानव की 'मानवता' वरण की अच्छाई में नहीं बल्कि सच्चाई में है। मूल्य का प्रश्न वरण के बाद पैदा होता है। क्योंकि सार अस्तित्व के बाद है। अस्तित्व सार से पूर्ववर्ती है।
अस्तित्ववाद की दो धाराएँ
अस्तित्ववादी दर्शन की दो मुख्य धाराएँ हैं :-
(1) ईश्वरवादी अस्तित्ववाद
(2) अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद
ईश्वरवादी अस्तित्ववाद अर्थात् आध्यात्मिक, धार्मिक, पराभौतिक। इस धारा में ईसाईयत का प्रभुत्व है। इस धारा में ईश्वर केंद्र में है। मनुष्य की मीमांसा ईश्वर के संदर्भ में ही संभव है।
ईश्वरवादी अस्तित्ववाद के अनुसार इस संसार में निर्थक जीवन को सार्थक तथा सारपूर्ण बनाने के लिए निष्ठा तथा (ईश्वर में) आस्था अनिवार्य है। ईश्वरवादी अस्तित्ववाद के प्रवर्तकों में सोरेन कीगार्ड (1813-65) तथा गेब्रियल मार्शल (1889-1973) के नाम उल्लेखनीय हैं।
अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद में मनुष्य इस संसार में निस्सहाय है। वह बिल्कुल अकेला है। फ्रेडरिक नीत्शे (1840-1900) के अनुसार ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है। ज्यां पाल सार्त्र (1905-80) के कथनानुसार संघर्ष में ही मानव की गति है। जब ईश्वर ही नहीं तो मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म के लिए स्वयं उत्तरदायी है। अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद के प्रमुख प्रवर्तकों में मार्टिन हाइडेगर (1889- 1978) और ज्यां पाल सार्त्र शामिल हैं।
अस्तित्ववाद ने हिंदी रचनात्मक साहित्य तथा आलोचना को भी प्रभावित किया है। कविता, कहानी तथा उपन्यास में मनुष्य की विसंगत स्थिति, महानगरों की भीड़ तथा पारिवारिक संबंधों में मनुष्य के अकेलापन, अजनबीपन तथा संत्रास का वर्णन किया गया है। अज्ञेय का उपन्यास 'अपने अपने अजनबी', धर्मवीर भारती का काव्य नाटक 'अंधायुग' तथा मोहन राकेश का नाटक 'आधे-अधूरे' अस्तित्ववादी चिंतन से प्रभावित कहे जा सकते हैं।
इसका प्रभाव साहित्य सृजन, आलोचना सिद्धांत, रंगमंच (एब्सर्ड नाटक की अवधारणा के मूल में अस्तित्ववाद ही है तथा इसी से संबंधित रंगमंच को 'एंटी थियेटर' कहा गया) आदि पर पड़ा।
नव-अस्तित्ववाद :
नव-अस्तित्ववाद पर आधारित साहित्य आलोचना साहित्यिक कृतियों का मूल्यांकन इस दृष्टि से करती है कि वह जीवन की कला को किस हद तक मनुष्य के लिए उपयोगी बनाती है और जीवन की अर्थवत्ता को किस हद तक स्थापित करती है। इसके साथ ही मनुष्य की सार्थक तौर पर ज़िदा रहने की कामना को तीव्र करती है।
उत्तर-आधुनिकतावाद :
उत्तर-आधुनिकतावाद से तात्पर्य
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था, राजनीति तथा कला, संगीत, वास्तुशास्त्र, साहित्य और चिंतन में जो परिवर्तन आए हैं, उत्तर-आधुनिकतावाद उनको परिलक्षित करने वाला एक व्यापक लेकिन विवादास्पद पारिभाषिक शब्द है।
'उत्तर-आधुनिकतावाद' शब्द कई भिन्न अर्थों में इस्तेमाल होता चला आ रहा है। यह वर्तमान समय की विचारधारा है। मूड़ है। एक ऐतिहासिक युग है। सांस्कृतिक कला वस्तु है।
पृष्ठभूमि और देशकाल
उत्तर-आधुनिकतावाद साठ के दशक के उन मुक्ति आंदोलनों से निकला है जिन्होंने व्यक्ति तथा व्यवस्था, अल्प-समूह तथा बृहत समाज, विचारों तथा विसंगतियों, मूल्यों तथा विधि-विधान, विचारधाराओं, नीतियों, राजनीति, राष्ट्रीयता आदि पर प्रश्नचिह्न लगा दिए।
नारी मुक्ति, अश्वेत रोष, शांति मार्च, युवा विद्रोह, यौन क्रांति और न जाने कितने छोटे-मोटे आंदोलनों ने विभेदों और केंद्रीयता के चक्रव्यूह को तोड़कर समाज तथा संस्कृति को विभिन्न विभाजित स्वायत्त संरचनाओं और इकाइयों में बदल दिया।
1968 एक ऐसा वर्ष था जो उत्तर-आधुनिकता की परवरिश में बहुत ही महत्त्वपूर्ण था।
इसी वर्ष फ़्रांस में छात्र विद्रोह हुआ और वर्ग संघर्ष के बजाय युवा वर्ग व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष का अग्रिम दस्ता बन गया।
इसी वर्ष रोलां बार्थ की पुस्तक 'द डेथ ऑफ़ द ऑथर' प्रकाशित हुई।
इसी वर्ष फ्रेंक कर्मोंड ने वर्तमान युग को 'अंत के अहसास' का युग कहा। इसी वर्ष ऐसी तकनीकी क्रांति हुई जिसने जनसंचार की अदृश्य केंद्रीय व्यवस्था को विकेंद्रित कर दिया।
इससे एक वर्ष पूर्व जाक दरिदा ने विखंडनवाद (डिकन्स्ट्रक्शन) का सिद्धांत प्रस्तुत किया।
इस प्रकार मुक्ति आंदोलनों, पार्टेबल विडियो रिकॉर्डर-प्लेयर कैमरा, कंप्यूटर टैक्नोलॉजी, सूचना विस्फोट तथा विखंडनवान आदि ने मिलकर जो नया परिदृश्य निर्मित किया उसे उत्तर-आधुनिकतावाद की संज्ञा दी गई है।
कहा जाता है कि उत्तर-आधुनिकतावाद की प्रवृत्ति 1880 से ही चित्रकला में प्रदर्शित होती चली आ रही है। 1940 से वास्तु कला में इसका प्रभाव बढ़ना शुरू हो गया। आर्नल्ड टायनबी के अनुसार 1925 के लगभग यूरोपीय संस्कृति में उत्तर-आधुनिकतावाद का दौर शुरू हो चुका था।
1915 में रोडलक पॉमनविज्ञ उत्तर-आधुनिकतावाद का उल्लेख 'यूरोपीय शून्यवाद की रेडिकल क्रांति के महान पतन' के प्रसंग में कर चुके थे। इहाब हसन उत्तर-आधुनिकता के प्रकट होने का समय 1920 के आसपास बताते हैं।
उत्तर-आधुनिकतावाद जिसे जर्मनी में नीत्शे, हसरल और हाइडेगर से शुरू हुआ बताया जाता है, फ़्रांस में जां-फ्रांस्वा लियोतार, मिशल फूको, रोलां बार्थ, जां बोद्रीला और जाक दरिदा से होते हुए, पाल द मान के साथ सफ़र करता हुआ अमेरिका के विश्वविद्यालयों में प्रवेश कर गया। अमेरिकी चिंतकों की व्याख्याओं के हवाले से भारत में भी इसकी अनुगूँज सुनाई देने लगी।
हिंदी साहित्य में अस्सी के दशक से इसकी चर्चा होनी शुरू हो गई और यह चर्चा सदी के अंतिम दशक में साहित्यिक विमर्श का केंद्र बन गई।
नब्बे के दशक तक पहुँचते-पहुँचते उत्तर-आधुनिकता का प्रभाव क्षेत्र इतना विस्तृत हो गया कि यह कला, साहित्य, संस्कृति, राजनीति तथा समाजशास्त्र के विमर्श के केंद्र में आ गया।
उत्तर-आधुनिकता के सुप्रसिद्ध प्रवर्तक जाँ फ्रांस्वों लियोतार के कथनानुसार उत्तर-आधुनिकतावाद एक नया युग नहीं वह आधुनिकता की विशेषताओं को दुबारा लिख रही है। उन्होंने यह भी कहा कि सांस्कृतिक इतिहास में काल का कोई भी भेद 'पूर्व' या 'उत्तर' की परिभाषा में अर्थहीन है।
उत्तर-आधुनिकतावाद की अवधारणा
उत्तर-आधुनिकतावाद बहुलतावाद अथवा बहु-संस्कृतिवाद पर आधारित है।
उत्तर-आधुनिकतावाद केंद्रीयता की अपेक्षा क्षेत्रीयता/स्थानीयता पर बल देता है।
उत्तर-आधुनिकतावाद एकीकृत के बजाय विभिन्नता या अन्यता को मूल प्रश्न मानता है।
परिणामस्वरूप विरोधी विचार, हाशिए पर स्थित लोग, परिधि पर स्थित जातियाँ अश्वेत, दलित जनजातियाँ, मूलवंशी समूह, नारी वर्ग, समलैंगिक स्त्री-पुरुष, हर प्रकार के विपथगामी लोग जिनकी पहचान या आवाज़ नहीं थी और जिन्हें सत्ता की भागीदारी, समाज में सक्रियता तथा सांस्कृतिक संवाद के दायरे से बाहर रखा या समझा गया था, अब वर्चस्व के संघर्ष के नए समूह बनकर उभरने लगे।
उत्तर-आधुनिकतावाद ने इतिहास को क्रमिक के बजाए अवरुद्ध, रैखिक के बजाए वर्तुल, संयुक्त के बजाए विभाजित, एक के बजाए अनेक, केंद्रित के बजाए विकेंद्रित घोषित कर दिया।
उत्तर-आधुनिकतावाद के मूल तत्व
विकेंद्रीयता
उत्तर-आधुनिकतावाद केंद्र से परिधि की ओर यात्रा करता है। समाज के विभिन्न समूह जो हाशिए पर हैं या जिन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया है वे अब महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।
स्थानीयता
विकेंद्रीयता का प्रश्न स्थनीयता से सम्पृक्त है। उत्तर-आधुनिकतावाद वैचारिकता तथा राष्ट्रीयता के बजाए क्षेत्रीयता तथा स्थानीयता पर अधिक बल देता है।
विभिन्नता
विभिन्नता तथा विकेंद्रीयता का क्रियात्मक संबंध है। ये दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं तथा एक-दूसरे को सुदृढ़ करती हैं। उत्तर-आधुनिकतावाद इस बात पर बल देता है कि लोगों का एक समूह प्रायः दूसरे समूहों से अपनी मूल संरचनाओं (संस्कृति/संवेदना, रीति-रिवाज, परंपरा, भाषा, दिवास आदि) के कारण भिन्न तथा अलग होता है।
अस्मिता/स्वत्व/पहचान :
यह संघर्ष स्वत्व तथा पहचान की समस्याओं को जन्म देता है भिन्नता, अस्मिता तथा अन्यता इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि वे लोग जिनके हित तथा विचार एक-दूसरे से टकराते हैं वे यह महसूस करते हैं कि कोई ऐसा सर्वमान्य व्यापक मुद्दा नहीं जिसके लिए सब एकमत हों। इसी से स्वायत्तता का प्रश्न भी जुड़ा है।
युगल विपरीतता
उत्तर-आधुनिकता का यह मूल तत्व समझा जाना चाहिए। युगल विपरीतता का तात्पर्य यह है कि दो विपरीत समूह एक-दूसरे से इस प्रकार जुड़े होते हैं कि इन्हें बिल्कुल अलग कर देना संभव नहीं। लेकिन इस जुड़ाव में एक समूह का दूसरे समूह पर वर्चस्व स्थापित होता है। जैसा कि स्त्री/पुरुष। इसमें स्त्री पर पुरुष का वर्चस्व है। अतः इस असमानता को समाप्त करना आवश्यक है।
कर्ता का अंत उत्तर-आधुनिकतावाद कर्ता (सब्जेक्ट) के केंद्रीय स्थान या महत्व को स्वीकार नहीं करता अर्थात् अब मानव या मानव संवेदना का कोई अर्थ नहीं रह गया मिशल फूकों के शब्दों में 'सागर के किनारे रेत पर बनाए गए चेहरे की भाँति मनुष्य का निशान मिट जाएगा।'
चिह्नवाद
उत्तर-आधुनिकतावाद यथार्थ की नई परिभाषा प्रस्तुत करता है। इसकी दृष्टि में कोई वास्तविक संसार नहीं। यथार्थ एक सामाजिक अवधारणा है। एक प्रतिबिंब है एक विभ्रम है जिसकी सत्यता को प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
मार्शल ब्लावस्की के शब्दों में 'हम आकृतियों की दुनिया में जीने के लिए विवश हैं। हम यह भूल गए हैं कि कभी कोई वास्तविक आकाश भी था। वास्तविक आहार था। कभी कोई भी वास्तविक वस्तु थी।'
लोकप्रिय संस्कृति
उत्तर-आधुनिकतावाद लोकप्रिय संस्कृति का समर्थन करता है। यह अभिजात्य कला को सामान्य कला से श्रेष्ठ स्वीकार नहीं करता।
अंतर्विषयीय (Interdisciplinary) चिंतन
उत्तर-आधुनिकतावाद ज्ञान-विज्ञान और कला की सीमा रेखाओं को स्वीकार नहीं करता। दो या अधिक शास्त्र मिलकर नए-नए शास्त्रों को जन्म दे रहे हैं।
अंतवाद
उत्तर-आधुनिकतावाद को अंतवाद की संज्ञा भी दी गई है। क्योंकि इसमें प्रत्येक विचार, वस्तु तथा कला अभिव्यक्ति के अंत की घोषणा कर दी गई है। इसमें ईश्वर का निधन, मनुष्य (कर्ता) की मृत्यु, इतिहास का अंत, विचारधारा का अंत, आधुनिकता का अंत, कला और साहित्य तथा लेखक का अवसान शामिल हैं।
पूर्णतावाद का विरोध
उत्तर-आधुनिकतावाद किसी प्रकार के पूर्णतावाद में विश्वास नहीं रखता। इसके अनुसार कुछ भी शाश्वत् संर्पण, अंतिम तथा स्थिर और स्थायी नहीं सब कुछ अनिश्चित और क्षणिक है। यहाँ तक कि शब्दों के कोई स्थायी अथवा निश्चित अर्थ नहीं होते।
अब कोई महान आख्यान (मेटा नैरेटिव) नहीं। आज आवश्यकता स्थायी/क्षेत्रीय आख्यानों की है जिन पर किसी विश्व व्यापी निरपेक्ष सिद्धांत को लागू नहीं किया जा सकता।
साहित्य में उत्तर-आधुनिकतावाद
उत्तर-आधुनिकतावाद किसी सर्वव्यापी शाश्वत मूल्यांकन के प्रतिमान को स्वीकार नहीं करता। क्योंकि यह प्रतिमान अभिजात्य वर्ग द्वारा निर्मित किए गए हैं इसलिए इनमें उन अल्प-समूहों के साहित्य को नज़रअंदाज़ किया गया है जोकि सामाजिक परिधि पर हैं। अर्थात् प्रत्येक साहित्य के लिए अलग-अलग सौंदर्यशास्त्र की आवश्यकता है।
कोई कृति कालजयी, श्रेष्ठ या विश्व व्यापी नहीं कोई मूल तथा केंद्रीय या एकीकृत, अंतिम, संपूर्ण साहित्यिक मानदंड नहीं।
जिन कृतियों को बौद्धिक, सांस्कृतिक तथा सौंदर्यात्मक तौर पर विशिष्ट माना गया है यदि इनका विखंडन करें तो पाठ (टैक्स्ट) के भीतर मौजूद उप-पाठों और भाषा के पीछे छिपी अभिजात्य विचारधारा और संवेदना स्पष्ट दिखाई देने लगती।
पाठ को इस प्रकार पढ़ने को विखंडनवाद कहा गया है जोकि उत्तर-संरचनावाद का मूल बिंदु है। इसका अभिप्राय यह है कि लेखक भाषीय संरचना द्वारा अपने वैचारिक पूर्वाग्रहों को जितना भी छिपाने का प्रयत्न करें विखंडन द्वारा वे प्रकट हो ही जाते हैं।
उत्तर-संरचनावाद के अनुसार साहित्यिक कृति अन्य पाठों में एक पाठ है। सब पाठ एकसमान हैं।
किसी को किसी अन्य पाठ पर वर्चस्व प्राप्त नहीं। पाठ अपने अर्थ में अनेक तथा अनिश्चित हैं।
भाषा वह कहने में असमर्थ है जो वह कहने का दावा करती है। हम अर्थो को स्थगित कर सकते हैं प्राप्त नहीं कर सकते।
उत्तर-आधुनिकतावादी कई वैचारिक पद्धतियों का साहित्यिक चिंतन पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इनमें नव-इतिहासवाद, सांस्कृतिक अध्ययन, सबार्ल्टन (अधीनस्थ ) अध्ययन तथा नारीवाद शामिल हैं। ये सब वैचारिक पद्धतियाँ साहित्यिक पाठ को असाहित्यिक दृष्टिकोण, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, नारीवादी, दलित चेतना आदि से देखती हैं और इसी दृष्टिकोण से उसका मूल्यांकन करती हैं।
इस प्रकार उत्तर-आधुनिकतावाद 'साहित्य समीक्षा' के स्थान पर विमर्श विश्लेषक (डिस्कोर्स अनालिस्ट) को बैठा देता है।
लेखक के अवसान की घोषणा की जाती है और पाठक के वर्चस्व का स्वीकार किया जाता है।
विमर्श
'अस्मिता' और 'विमर्श' उत्तर आधुनिक और उत्तर-संरचनावाद के बौद्धिक व्यवहार में प्रमुख और केंद्रीय बीज-शब्द बन गए हैं। कभी जो प्रतिष्ठा वर्ग, वर्गहित, वर्ग-चरित्र आदि अवधारणाओं के पास हुआ करती थी वह आज 'अस्मिता' के हिस्से में है। 'विमर्श' ने आलोचना की जगह ले ली है।
वैचारिक बहुलतावाद उसका मूलमंत्र है। दोनों मिलकर अस्मिता-विमर्श के घटक बनते हैं। अस्मिता और विमर्श दोनों का सक्रिय राजनीतिक आयाम है और साहित्यिक अनुषंग भी।
विमर्श : अर्थ और अवधारणा
हिंदी शब्दकोशों में 'विमर्श' का अर्थ विचार, विवेचन, परीक्षण, समीक्षा, गुण-दोष-मीमांसा, परामर्श, तर्क, ज्ञान दिया गया है।
'विमर्श हिंदी में डिस्कोर्स के स्थानापन्न की तरह स्वीकृत और व्यवहत शब्द है।
परंपरागत अर्थ के अनुसार वह भाषा के माध्यम से वैचारिक संप्रेषण है। डिस्कोर्स लैटिन भाषा के 'डिस्क्युरेरे' (discurrere) शब्द से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ दसों दिशाओं में चकराते दौड़ना है।
दलित विमर्श :
दलित का कोशीय अर्थ है—मसला हुआ, मर्दित दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, खंडित, विनिष्ट किया हुआ (संक्षिप्त हिंदी शब्द सागर, सं. रामचंद्र वर्मा, पृ. 468)
दूसरे शब्दकोश के अनुसार 'दलित' शब्द का अर्थ हुआ दल्+क्त - टूटा हुआ, चीरा हुआ, फाड़ा हुआ, फटा हुआ, टुकड़े-टुकड़े हुआ। (संस्कृत-हिंदी कोश, सं. वा. शि. आपटे, पृ. 45)
दलित का शाब्दिक अर्थ है—जिसका दमन/दलन किया गया हो।
ओमप्रकाश वाल्मीकि का विचार है कि दलित साहित्य जन साहित्य है, यानी मास लिटरेचर (MASS LITERATURE)। सिर्फ़ इतना ही नहीं; लिटरेचर ऑफ़ एक्शन (literature of action) भी है, जो मानवीय मूल्यों की भूमिका पर सामंती मानसिकता के विरुद्ध आक्रोशजनित संघर्ष हैं। इसी संघर्ष और विद्रोह से उपजा है दलित साहित्य। (ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र)
मोहनदास नैमिशराय के अनुसार कुछ लोगों ने लिखा और कहा है कि दलित साहित्य वेदना का, पीड़ा का साहित्य है। कुछ ने कहा यह मुक्ति का साहित्य है, इस संबंध में अगर हम ऐतिहासिक घटनाओं, दुर्घटनाओं का अध्ययन करें तो ऐसा मानना चाहिए कि दलित साहित्य पीड़ा, वेदना अथवा मुक्ति का ही साहित्य नहीं, बल्कि वह अपने अधिकारों, अस्मिता और पहचान के लिए संघर्ष करने वालों का साहित्य हैं। (मोहनदास नैमिशराय, मराठी और हिंदी दलित आत्मकथाएँ)
'दलित' साहित्यकार 'श्योराज सिंह बेचैन' के अनुसार स्वामी अछूतानंद 'हरिहर' ने सन् 1910 में सर्वप्रथम 'दलित' शब्द का प्रयोग किया था।
दलित विद्वानों ने नवजागरण का आरंभ बंगाल से नहीं, महाराष्ट्र से माना है जहाँ से दलित मुक्ति की लहर चली।
ज्योतिबा फुले ने 1873 ई. में सत्यशोधक समाज की स्थापना की। नारायण गुरु (केरल), पेरियार रामास्वामी नायकर (तमिलनाडु), स्वामी अछूतानंद (उत्तर भारत), चांद गुरु (बंगाल) आदि दलित महापुरुष हैं।
दलित विमर्श का वैचारिक आधार डॉ. अंबेडकर का जीवन व रचना कर्म है। ज्योतिबा फुले व महात्मा बुद्ध का दर्शन दार्शनिक पृष्ठभूमि में है।
गांधीजी ने दलितों को 'हरिजन' कहा, जिसे दलित विमर्श ख़ारिज करता है।
आज़ादी के बाद संविधान में दलित समाज के लिए विशिष्ट उपबंध किए गए। 1960 का दशक में दलितों के लिए नया शब्द 'बहुजन' प्रचलित हुआ।
दलित विमर्श 'पूँजीवाद' व 'ब्राह्मणवाद' दोनों को ख़तरनाक मानता है। दलित चिंतक मार्क्सवादी विचारधारा से भी सहमत नहीं हैं। मार्क्स दलित समस्या को मूलतः आर्थिक समस्या मानते हैं व इसे श्रम विभाजन की दृष्टि से देखते हैं। लेकिन दलित जीवन की समस्या केवल श्रम नहीं, श्रमिक विभाजन से भी जुड़ी है।
दलित विमर्श, स्त्री विमर्श को अपने साथ रखकर देखने की पैरवी करता है। हालाँकि, कई महत्त्वपूर्ण स्त्री दलित रचनाकारों ने दलित समाज में स्त्री की ख़राब दशा को देखते हुए उसे 'दलितों में भी दलित' मानकर दलित-स्त्रियों के अलग विचार को आगे बढ़ाने की माँग की है।
दलित साहित्य वर्ण, जाति व्यवस्था से मुक्ति, वैज्ञानिक सोच व संवेदनशीलता का साहित्यिक हस्तक्षेप है, जो अंधविश्वासों, अन्याय एवं शोषण के विरुद्ध होकर मनुष्य को पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है।
साहित्य में सर्वप्रथम 1914 ई. में 'हीरा डोम' की कविता 'अछूत की शिकायत' सरस्वती पत्रिका में छपी थी।
स्वामी अछूतानंद, जो 'हरिहर' उपनाम से कविता लिखते थे, उस समय के प्रमुख दलित लेखक थे। कई चिंतक अछूतानंद को पहला दलित साहित्यकार मानते हैं।
हिंदी साहित्य के प्रमुख साहित्यकारों व धाराओं ने दलितों की पीड़ा को आवाज़ दी। प्रेमचंद की 'ठाकुर का कुआँ', 'सद्गति' प्रमुख कहानियाँ हैं। ‘गोदान' में भी दलित जीवन की पीड़ा है।
दलित साहित्य का मूल प्रयोजन सामजिक न्याय व मनुष्य की मुक्ति रहा है।
दलित साहित्य के मुख्य बिंदु हैं :-
1) मुक्ति और स्वतंत्रता के सवालों पर डॉ. आंबेडकर के दर्शन को स्वीकार करना।
2) बुद्ध का अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, वैज्ञानिक दृष्टिबोध, पाखंड कर्मकांड विरोध।
3) वर्ण-व्यवस्था विरोध, जातिभेद-विरोध, साम्प्रदायिकता विरोध।
4) अलगाववाद का नहीं, भाईचारे का समर्थन।
5) स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय की पक्षधरता।
6) सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्धता।
7) आर्थिक क्षेत्र में पूँजीवाद का विरोध
8) सामंतवाद, ब्राह्मणवाद का विरोध।
9) अधिनायकवाद का विरोध|
10) पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र का विरोध
11) वर्णविहीन, वर्गविहीन समाज की पक्षधरता।
12) भाषावाद, लिंगवाद का विरोध।
आठवें दशक से दलित कविता का स्वर बदलने लगता है और उसमें दलित-वर्ग की पीड़ा एवं विद्रोह-भावना की अभिव्यक्ति होने लगती है।
दलित कविता का विद्रोह सवर्णवादी मानसिकता के विरुद्ध है। सवर्ण समाज ने अलौकिकता के सहारे दलित समाज और उसकी सृजनात्मकता को अवरुद्ध कर रखा था। इसलिए दलित कविता सवर्ण संस्कृति को मुर्दा संस्कृति बताते हुए उसे पराई संस्कृति घोषित करती है।
'दलित कविता' दलित की स्थिति के लिए सीधे रूप में सवर्ण समाज विशेषकर ब्राह्मण जाति को ज़िम्मेदार ठहराती है।
आज की दलित कविता शोषण के बहुविध रूपों की पहचान कर रही है। भूमंडलीकरण, विचारधाराओं के छद्म, जाति-व्यवस्था की जकड़न, पूँजीवाद आदि के शोषणकारी स्वरूप की पहचान दलित कविता करती है।
दलित-साहित्य में आत्मकथाओं का बड़ी मात्रा में सृजन हुआ।
हिंदी में स्त्री द्वारा लिखित पहली दलित आत्मकथा 'दोहरा अभिशाप' है जिसकी लेखिका कौशल्या बैसंत्री मूलतः मराठी भाषी हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, डॉ. धर्मवीर, जय प्रकाश कर्दम, श्यौराज सिंह 'बेचैन', कौशल्या बैसंत्री, सूरजपाल चौहान आदि प्रमुख दलित लेखक हैं।
साहित्य में दलित विमर्श की तीन धाराएँ दिखाई देती हैं :-
पहली : दलित जातियों में जन्मे लेखक, जो स्वानुभूति के आधार पर केवल दलितों द्वारा रचित साहित्य को दलित साहित्य मानते हैं। जैसे- कंवल भारती।
दूसरी : दलित-इतर लेखक, जिन्होंने दलित जीवन के विषय में लिखा। जैसे- राजेंद्र यादव।
तीसरीः वे मार्क्सवादी लेखक, जो दलितों को सर्वहारा की स्थिति में देखते हैं। जैसे- स्त्री विमर्श।
स्त्री विमर्श की परिभाषा :
स्त्री विमर्श में 'विमर्श' शब्द अत्यंत व्यापक है अतः विमर्श शब्द का व्यक्तिपरक अर्थ विचार-विमर्श, सोचना, समझना, आलोचना करना है।
शब्दकोष के अनुसार स्त्रीवाद सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों और विचारधाराओं की एक श्रृंखला है जिसका उद्देश्य लिंगों की राजनीतिक, आर्थिक, व्यक्तिगत और सामाजिक समानता को परिभाषित और स्थापित करना है।
स्त्री विमर्श एक तरह का साहित्यिक आंदोलन है, जिसके केंद्र में समानता का अधिकार, स्त्री अस्मिता, अस्तित्व स्वतंत्रता और मुक्ति का सवाल है।
हिंदी साहित्य में अस्मितामूलक विमर्शों के अंतर्गत स्त्री विमर्श मुख्य धारा का विमर्श रहा है।
इसमें लिंग (जेंडर) को मुख्य आधार बनाया गया है।
अँग्रेज़ी में इसे फेमिनिज़्म कहा जाता है।
स्त्री विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है जिसमें पूरे विश्व की स्त्रियों का संघर्ष अपने पितृसत्तामक समाज के विरोध में देखने को मिलता है।
पश्चिमी और भारतीय स्त्री आंदोलन और स्त्री विमर्श का इतिहास बहुत पुराना और लंबा रहा है।
स्त्री विमर्श एक ऐसा विमर्श है जो जाति, धर्म, वर्ग, वंश, प्रांत और देश आदि से अलग हटकर है। जहाँ स्त्री अपने ऊपर हो रहे अन्याय, अत्याचार, शोषण उत्पीड़न और उपेक्षा आदि का विरोध करती है।
स्त्री विमर्श को पश्चिम से आई एक अवधारणा के रूप में देखा और विचार किया जाता है।
विशेष रूप से यह विकासशील देशों की सभ्यता के परिणामस्वरूप स्त्रियों में आई जागृति से उत्पन्न हुआ है।
लिंग के आधार पर पितृसत्तात्मक समाज में जहाँ सारे नियम, कानून, वर्चस्व पुरुषों के हैं, वहाँ स्त्री का अपना कुछ भी नहीं है।
स्त्री एक ऐसी प्राणी बन चुकी है जो इस पुरुषवादी समाज की कठपुतली और विवशता के साथ निरीह प्राणी के समान जीवन व्यतीत कर रही है।
स्त्री के स्वभाव उसके मन और उसकी संवेदनाओं को समझने के लिए स्त्री विमर्श एक महत्त्वपूर्ण दृष्टि है।
स्त्री विमर्श केवल विमर्श या बहस का मुद्दा नहीं है जितना यह चेतना और जागृति का मुद्दा है।
स्त्री विमर्श और स्त्रीवाद दोनों अलग-अलग हैं किंतु दोनों के केंद्र में स्त्री और पितृसत्तात्मक व्यवस्था ही है। स्त्रीवाद किसी न किसी विचारधारा या सिद्धांत के आधार से स्त्री के बारे में विचार करता है और अपनी प्रतिक्रिया भी प्रस्तुत करता है जबकि स्त्री विमर्श केवल एक विमर्श और बहस है जो स्त्री से जुड़े किसी भी मुद्दे पर किया जा सकता है।
स्त्री विमर्श एक ऐसा संवाद और बहस है जिसमे स्त्री अपने अधिकारों की माँग करती है। इन अधिकारों के अंतर्गत लिंग के आधार पर समानता, निर्णय, अस्तित्व, अस्मिता, स्वतंत्रता और मुक्ति का सवाल भी उभर कर सामने आता है।
समाज में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षिक समानता का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियों द्वारा आंदोलन किए गए और इसे ही नारीवाद या स्त्रीवाद कहा गया।
इसके लिए अँग्रेज़ी में Feminism शब्द का प्रयोग किया जाता है। सर्वप्रथम यह आंदोलन ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रारंभ हुआ।
18वीं सदी में यह आंदोलन मानवतावाद और औद्योगिक क्रांति के समय से हुई थी।
प्रत्येक देश और प्रत्येक युग में स्त्रियों की स्थिति एक बराबर नहीं थी न ही स्त्रियों की स्थिति प्रत्येक वर्ग में एक समान थी। प्रत्येक देश राज्य संस्कृति और वहाँ की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार स्त्रियों पर पुरुष सत्ता हावी रही जब स्त्रियों ने अपनी समस्याओं पर विचार किया और लिंग के आधार पर सोचना प्रारंभ किया तब उन्हें अपनी दासता और हो रहे अन्याय का ज्ञान हुआ तब जा कर उन्होंने आवाज़ उठाई और आंदोलन किए, इसीलिए कहा जाता है कि स्त्री विमर्श स्त्रियों के ऊपर सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक रूप से मानसिक और शारीरिक दबाव डालने वाली पारंपरिक रूढ़ियों और मान्यताओं के विरोध में उमरा एक वैचारिक आंदोलन है।
जब से स्त्रियों ने अपने सामाजिक और पारिवारिक भूमिकाओं पर सोचना और विचारना आरंभ किया, तब से स्त्री आंदोलन, स्त्री विमर्श और स्त्री अस्मिता से जुड़े संदर्भों पर बहसों की शुरुआत हुई। स्त्री विमर्श को गहराई से समझने के लिए हमें उसके अर्थ और स्वरूप के साथ उसकी परिभाषा को जानना भी आवश्यक है। साथ ही साथ उसके उद्देश्यों को भी जानना आवश्यक है आइए आगे देखते हैं।
स्त्री विमर्श का अर्थ और स्वरूप :
स्त्री विमर्श दो शब्दों से मिलकर बना है—स्त्री और विमर्श स्त्री का अर्थ महिला, नारी, औरत लड़की मतलब लिंग के आधार पर स्त्री होना। विमर्श का अर्थ होता है बहस संवाद, वार्तालाप या विचारों का आदान-प्रदान अतः स्त्रियों को लेकर होने वाले बहस को हम स्त्री विमर्श कहते हैं। इन विमर्शों के माध्यम से स्त्री विमर्श का अर्थ स्त्री की परंपरागत छवि या पहचान से एक नई स्त्री छवि या पहचान का निर्माण करना है। स्त्री विमर्श एक प्रकार से रूढ़ परंपराओ मान्यताओं के प्रति असंतोष और उससे मुक्ति का स्वर है पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे नैतिक मापदंडों मूल्यों व अंतर्विरोधों को समझने व पहचानने की गहरी अंतर्दृष्टि है।
कई वर्षों से चली आ रही पुरुषों की दासता के विरोध में स्त्री के अधिकारों को लेकर उठाई गई आवाज़ को स्त्री विमर्श कहते हैं परंपराओं से इस समाज व्यवस्था ने पुरुषों को जो छूट प्रदान की है उनमें से कुछ स्त्रियों ने अपने लिए भी वही छूट माँगनी प्रारंभ कर दी, जिसमे प्रमुख रूप से लैंगिक समानता, भेदभाव न होना और घरेलू हिंसा का विरोध, यौन उत्पीड़न का विरोध और समान वेतन का अधिकार जैसे अनेक मुद्दे शामिल हैं।
आज समाज में स्त्रियों केवल जनसंख्या का हिस्सा बनकर गिनती में नहीं रहना चाहती बल्कि वे भी पुरुषों की तरह समाज और परिवार में मनुष्य बनकर केंद्र में आना चाहती हैं. और इसके लिए वे अपने अस्तित्व की लड़ाई आरंभ कर चुकी हैं। इस संघर्ष और लड़ाई को स्त्री विमर्श का नाम दे दिया गया है। इस संघर्ष में स्त्री से जुड़े वे सभी मुद्दे शामिल हैं जो वर्षो से इन्हें समाज में लिंग के आधार पर झेलने पड़े हैं। आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियों ने पुरुषों की तरह अपने अधिकारों की माँग करनी प्रारंभ कर दी है और यह माँग एक प्रकार के सामाजिक आंदोलन के रूप में उभरी है।
यह आंदोलन लैंगिक भेदभाव को स्वीकार नहीं करता है। स्त्री विमर्श में मध्यवर्गीय स्त्री का पूरा संघर्ष प्रमुख रूप से लैंगिक समानता, शारीरिक शोषण, सामाजिक स्वतंत्रता से लेकर आर्थिक स्वतंत्रता तक सिमटा हुआ है। इस धारा की उत्पत्ति मुख्यतः पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरोध के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है। परंतु स्त्री विमर्श अपने सवालों के कटघरे में पुरुष को नहीं रखती बल्कि समरत पुरुष व्यवस्था को खड़ा करती है। अतः कहा जा सकता है कि स्त्री विमर्श का स्वरूप पितृसत्ता के इर्द-गिर्द ही खड़ा रहता है।
स्त्री विमर्श के उद्देश्य
स्त्री को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करना।
शोषण और उत्पीड़न के विरोध में संघर्ष करना।
स्त्री संबंधी विभिन्न समस्याओं पर विचार विमर्श करना।
स्त्री को अपने अस्तित्व और अस्मिता की पहचान करवाना।
मानसिक रूप से सुदृढ़ बनाना।
मानसिक और शारीरिक शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना।
साहित्य मीडिया और सिनेमा में स्त्री संबंधी मुद्दों से जागृति लाना।
स्त्री को अपने भीतर सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक रूप से मानसिक परिवर्तन लाना।
स्त्री विमर्श का पाश्चात्य संदर्भ
पाश्चात्य संदर्भ में पितृसत्ता का इतिहास लगभग चार हज़ार साल पुराना है।
पितृसत्ता यानी वह पुरुष समाज जिसके पास विशेषाधिकार है, जिसके कारण वह स्त्रियों पर किसी भी प्रकार का दबाव डालकर उसका शोषण कर सकता है, क्योंकि पूरा सामाजिक तंत्र लिंग पर आधारित है।
पाश्चात्य देशों में हुए स्त्रीवाद, स्त्री विमर्श और स्त्री मुक्ति आंदोलन को चार चरणों में देख सकते हैं।
पहला चरण
स्त्रीवादी आंदोलन अमेरिका से यूरोप और यूरोप से पूरे विश्व के अलग-अलग भागों तक पहुँचने लगा।
वहाँ की महिलाओं ने अपने मौलिक अधिकार और लिंग के आधार पर समानता और मताधिकार की माँग को लेकर आवाज़ उठाई।
इसके बाद पूरे विश्व में महिलाओं ने अपने ऊपर हो रहे भेदभाव और शोषण के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की। इन आंदोलनों में मताधिकार के साथ-साथ महिलाओं ने उच्च शिक्षा का अधिकार, रोज़गार का अधिकार, विवाहित महिला की संपत्ति का अधिकार, प्रजनन नियंत्रण और समान वैवाहिक कानून की माँग की। महिला के संपत्ति के अधिकार को लेकर पहले कोई कानूनी व्यवस्था नहीं थीं।
ब्रिटेन में सन् 1872 ई. में एक कानून बना जिसके अनुसार पत्नी अपनी संपत्ति अलग रख सकती थी और पति उस संपत्ति का उपयोग बिना पत्नी की इच्छा के नहीं कर सकता था।
अमेरिका के संविधान में 19वें संशोधन (1920) के तहत स्त्रियों के लिए सबसे बड़ी सफलता मताधिकार प्राप्त होना था।
आधुनिक समय में पितृसत्ता के ख़िलाफ़ स्त्रियों ने महत्वपूर्ण आवाज़ उठाई, जिनमें प्रमुख रूप से एलिजाबेथ केडी स्टैंटन, लूसी स्टोन, सूजन बी. एथनी, ओलम्पिया ब्राउन, फ्रांसिस बिलाई और वर्जिनिया वुल्फ इत्यादि महत्त्वपूर्ण नाम हैं।
दूसरा चरण
स्त्रीवादी आंदोलन का दूसरा चरण 1955 के दशक के मध्य में हुए अफ़्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (सिविल राइट मूवमेंट) से प्रभावित था।
दूसरे चरण में महिलाओं के प्रजनन अधिकार, घरेलू हिंसा, स्वतंत्रता, कार्यस्थल पर सुरक्षा जैसे मुद्दे मुख्य रूप उठाए गए थे।
दरअसल यह आंदोलन दशकों से चल रहे नस्लीय उत्पीड़न और ग़ुलामी प्रथा के ख़िलाफ़ उपजा था। हम जानते हैं कि इसी आंदोलन के बाद हुए गृहयुद्ध के परिणामस्वरूप अमेरिका में ग़ुलामी प्रथा को ख़त्म कर दिया गया और वहाँ के संविधान के चौदहवें और पंद्रहवें संशोधन के तहत ब्लैक लोगों को बेसिक सिविल राइट दिए गए।
सन् 1963 में प्रकाशित द फ़ेमिनाइन मिस्टीक में बेट्टी फ्रीडन (Betty Friedan) मिलदर्द जेफ्री (Mildred jeffrey) और न्यूयार्क की बेल्ला अब्ज़ग (Bella Abzug) आदि ने मिलकर 'नेशनल वीमन पोलिटिकल कैसेस' (National womens political caucus) की स्थापना की।
ग्लोरिया स्टेमन (Gloria steinem) की पत्रिका मिस मैगज़ीन ने सन् 1976 में नारीवाद को अपनी मैंगज़ीन के कवर पेज पर जगह दी। यह नारीवाद को विषय के रूप में छापने वाली पहली मैगज़ीन बनी।
सन् 1970 में रो बनाम वेड मामले में सुनवाई करते हुए अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए महिलाओं को गर्भसमापन का अधिकार दे दिया।
तीसरा चरण
स्त्रीवादी आंदोलन का तीसरा चरण, सन् 1990 से अमेरिका में प्रारंभ हुआ। इस दौर में पुनः स्त्रीवादी होने के अर्थ को तलाशा जाने लगा और इसका प्रारंभ 1990 में ओलम्पिया के रायट गर्ल (Riot girl) नाम के एक स्त्रीवादी उपसंस्कृति समूह (Feminist Punk Subculture) के उद्भव से माना जाता है।
नारीवाद का तीसरा दौर शोषणयुक्त सामाजिक गतिविधियों की प्रतिक्रिया भर नहीं था, बल्कि यह अपने आप में एक आंदोलन था।
साल 1992 महिलाओं का साल कहा जाता है क्योंकि इस दौरान अमेरिकी सीनेट की कुल महिला संख्या 6 थी।
1990 के बाद और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में संचार क्रांति से कंप्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक के माध्यमों से तीसरे चरण को विशेष सफलता प्राप्त हुई।
उसके बाद इंटरनेट क्रांति का दौर प्रारंभ हुआ और यह तीव्र गति से विकसित हुआ। इसके आ जाने से दुनिया एक दूसरे से जुड़ गई और पूरा विश्व एक हो गया स्त्रीवादी महिलाएँ एक दूसरे के संघर्ष में न केवल लिखकर अथवा बोलकर (सॉलिडेरिटी) सहयोग दे सकती थीं, बल्कि अपने मुद्दे भी एक दूसरे से साझा कर सकती थीं। इसके कारण वैश्विक स्तर पर अपने उद्देश्यों और मूल्यों को संप्रेषित करना आसान हो गया। साथ ही, संस्कृति में निहित लैंगिक रूढ़ भूमिकाएँ और नस्लीय भेदभाव के ख़िलाफ़ एक साथ दुनिया भर की दूसरी आबादी ने भी आवाज़ उठानी प्रारंभ कर दी। इंटरनेट के माध्यम से स्त्रियों ने अध्ययन करते हुए समाज की गतिविधियों को समझते हुए अपने आप को विकसित किया और यहीं से उनके भीतर एक नई पहचान बनाने और नई उड़ान भरने का आत्मविश्वास जागृत हुआ।
1992 में रेबेका वॉकर और शैनन लिस्स रिऑर्डन द्वारा युवा नारीवादियों के सहयोग के लिए थर्ड वेव डायरेक्ट ऐक्शन कॉरपोरेशन नामक समूह बनाया गया।
चौथा चरण
स्त्रीवाद का चौथा चरण सन् 2010 के बाद से माना जाता है।
आज विश्व में जो बदलाव आ रहा है उसमें सभी चीज़ें इंटरनेट की तीव्र गति के माध्यम से अधिक खुली हुई हैं।
सोशल मीडिया पर स्त्रियाँ अपनी बात खुलकर लिख रही हैं, बोल रही हैं, अपने जीवन से जुड़ी तस्वीरें पोस्ट कर रही हैं इसी वजह से आज साइबर क्राइम अधिक बढ़ने लगा है और इसकी शिकार महिलाएँ अधिक हो रही हैं।
मुख्य रूप से नारीवाद को तीन धाराओं में बाँटकर देखा जा सकता है :- उदारवादी नारीवाद, आमूलपरिवर्तनवादी नारीवाद एवं समाजवादी नारीवाद।
1. उदारवादी नारीवाद
उदार नारीवाद, नारीवाद से जुड़ी आरंभिक विचारधारा है जो उदारवाद से जुड़ी मान्यताओं के आधार पर स्त्रियों के अधिकारों की वकालत करती है। यह विचारधारा क्रांति के विपरीत क्रमिक और कानूनी सुधार का समर्थन करती है।
एक प्रकार से यह सुधारवादी आंदोलन है।
मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट, जे. एस. मिल, बेट्टी फ्रीडन, कैरोल पेटमैन प्रमुख उदारवादी नारीवादी विचारक हैं।
जॉन स्टूअर्ट मिल ने अपनी रचना ‛सब्जेक्शन ऑफ़ वीमेन’ (1869) के अंतर्गत स्त्री अधिकारों का समर्थन किया। मिल ने कहा कि स्त्री-पुरुष का संबंध आधिपत्य के बजाए साहचर्य पर आधारित होना चाहिए। उसने स्त्रियों की शिक्षा, नागरिकता तथा संपत्ति में अधिकार की वकालत की।
बेट्टी फ्रीडन जिन्हें ‛महिला मुक्त की जन्मदाता’ भी कहा जाता है ने अपनी रचना ‛द फेमिनिन मिस्टीक’(1963) में कहा कि स्त्रियों को भी स्वायत्तता और आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए।
2. आमूलपरिवर्तनवादी नारीवाद
आमूल परिवर्तनवादी या उत्कट नारीवादी विचारधारा की शुरुआत मुख्य रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात हुई।
यह विचारधारा सामाजिक व्यवस्था की यथास्थिति में आमूल परिवर्तन की माँग करती है। यह विचारधारा निजी जीवन में समानता की समर्थक है। इस धारा की प्रमुख विचारक सिमोन द बुआ, शुलामिथ फायरस्टोन, केट मिलेट, वर्जीनिया वूल्फ़, एलस्टीन, आयरिश मेरियम यंग हैं।
वर्जीनिया वूल्फ़ ने महिलाओं की पराधीन स्थिति को देखते हुए कहा कि,“महिला होने के नाते मेरा कोई देश नहीं है।” फायरस्टोन ने अपनी चर्चित कृति ‛डायलेक्टिक ऑफ़ सेक्स’(1970) के अंतर्गत नारीवाद की नई व्याख्या देकर इससे जुड़े आंदोलन को एक नई दिशा प्रदान की। उन्होंने तकनीकी के विकास को स्त्री मुक्ति का साधन बताया। केट मिलेट ने अपनी पुस्तक ‛सेक्सुअल पॉलिटिक्स’(1970) के अंतर्गत बताया कि नारीवाद को एक राजनीतिक आंदोलन का रूप देने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि स्त्री-पुरुष का संबंध प्राकृतिक न होकर राजनीतिक है। उन्होंने कहा कि स्त्री पर पुरुष का जो नियंत्रण है वह जीव वैज्ञानिक अंतर की देन नहीं बल्कि सामाजिक संरचना का परिणाम है । केट मिलेट की उपर्युक्त पुस्तक अमेरिका में नारी मुक्ति आंदोलन को बढ़ावा देने में विशेष रूप से उपयोगी साबित हुई।
3. समाजवादी नारीवाद
समाजवादी नारीवादी विचारधारा समाजवाद से जुड़ी मान्यताओं को आधार बनाकर महिलाओं के उत्थान का समर्थन करती है।
समाजवादी नारीवादी यह नहीं मानते कि स्त्रियों की समस्या राजनीतिक और कानूनी रूप से समाप्त हो सकती है। उनके अनुसार स्त्री-पुरुष की असमानता का मूल कारण सामाजिक-आर्थिक संरचना है जो एक सामाजिक क्रांति के द्वारा ही समाप्त की जा सकती है। समाजवादी नारीवादी मुख्य रूप से पूंजीवादी व्यवस्था को स्त्रियों के शोषण का कारण मानते हैं। इस धारा के प्रमुख विचारक चार्ल्स फ्यूरिए, फ्रेडरिक एंगेल्स और शीला रोबाथम हैं।
फ्रेडरिक एंगेल्स का मानना है कि स्त्रियों का दमन परिवार की संस्था से आरंभ होता है क्योंकि बुर्जुआ परिवार की संरचना पितृसत्तात्मक होती है। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक ‛द ओरिजिन ऑफ़ द फैमिली, प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड स्टेट’(1884) में यह तर्क दिया कि समाजवाद के आगमन से निजी संपत्ति का अंत हो जाएगा जिससे स्त्रियों को गृह कार्य के भार से मुक्ति मिल जाएगी और समानता स्थापित होगी।
शीला रोबाथम प्रमुख समाजवादी नारीवादी विचारक हैं। इन्होंने मुख्य रूप से स्त्रियों के इतिहास का पता लगाने की कोशिश की। इन्होंने अपनी चर्चित कृति ‛विमेन रेजिस्टेंस एंड रिवॉल्यूशन’ के अंतर्गत बताया कि स्त्रियों के अतीत की जानकारी से हमें उनके भविष्य के लिए दिशा दृष्टि मिल सकती है। शीला रोबाथम का मानना था कि नारी मुक्ति का संघर्ष वस्तुतः पूँजीवाद विरोधी संघर्ष का एक हिस्सा है।
स्त्री विमर्श: समकालीन हिंदी साहित्य
साहित्य में स्त्री विमर्श का अर्थ मात्र स्त्री या पुरुष द्वारा स्त्री के ही विषय में स्त्री विषयक मुद्दों में लिखा गया साहित्य नहीं है, बल्कि स्त्री जीवन की सामाजिक, पारिवारिक समस्याओं, विडंबनाओं को अभिव्यक्त करना और उस पर विचार स्त्री विमर्श है।
स्त्री विमर्श से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण लेखिकाओं के उपन्यास इस प्रकार है— कृष्णा सोबती (मित्रो मरजानी, ऐ लड़की, सूरजमुखी अँधेरे के, दिलो दानिश), प्रभा खेतान (छिन्नमस्ता, पीली आँधी, आओ पेपे घर चलें), मैत्रेयी पुष्पा (अल्मा कबूतरी, इदन्नमम, चाक), मृदुला गर्ग (चित्तकोबरा, कठगुलाब, अनित्य), चित्रा मुद्गल (आवां, एक ज़मीन अपनी), अनामिका (दस द्वारे का पिंजरा, तिनका तिनके पास), मंजुल भगत (अनारो) गीतांजलि श्री (तिरोहित, ख़ाली जगह, माई), ममता कालिया (बेघर,वएक पत्नी के नोट्स, नरक दर नरक) आदि अनेक उपन्यास हैं।
समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श से संबंधित आत्मकथाओं में प्रमुख लेखिकाओं में कुसुम असल (जो कहा नहीं गया), मैत्रेयी पुष्पा (कस्तूरी कुंडल बसै, गुड़िया भीतर गुड़िया), रमणिका गुप्ता (हादसे, आपहुदरी), प्रभा खेतान (अन्या से अनन्या), चंद्र किरण सौनरेक्सा (पिंजरे की मैना), कौशल्या बैसंत्री (दोहरा अभिशाप), सुशीला टाकभौरे (शिकंजे का दर्द) आदि प्रमुख हैं।
आदिवासी विमर्श :
आदिवासी साहित्य की परंपरा को तीन भागों में बाँटकर समझा जा सकता है :-
1. पुरखा साहित्य।
2. आदिवासी भाषाओं में लिखित साहित्य की परंपरा।
3. समकालीन हिंदी आदिवासी लेखन।
पुरखा साहित्य
आदिवासी दर्शन व साहित्य का मूलाधार पुरखा साहित्य ही है। पुरखा साहित्य आदिवासी समाज में हज़ारों वर्षों से जारी मौखिक साहित्य की परंपरा है। 20वीं सदी में इसके संकलन, संपादन और प्रकाशन के कार्य भी हुए हैं।
आदिवासी चिंतक वंदना टेटे के अनुसार चूंकि आदिवासी समाज में बाहरी समाज की तरह लोक और शास्त्र का भेद नहीं है, इसलिए साहित्य को भी नहीं बाँटा जा सकता। चूँकि आदिवासी समाज और संस्कृति में पुरखों का बहुत महत्त्व है और मौखिक परंपरा में मिलने वाले गीत, कथाएँ आदि भी पुरखों ने ही रची हैं, इसलिए इस मौखिक परंपरा को सम्मिलित रूप में पुरखा साहित्य कहना चाहिए।
तमाम आदिवासी भाषाओं में पुरखा साहित्य की समृद्ध परंपरा मौजूद है। इसी के माध्यम से हम उनके जीवन-दर्शन, ज्ञान परंपरा, मूल्यों-विश्वासों आदि को जान सकते हैं।
उपलब्ध पुरखा साहित्य में विशेषताएँ हैं—
पुरखों के प्रति कृतज्ञता का भाव, प्रकृति और प्रेम के प्रति गहरी संवेदनशीलता, बाहरी समाज के हमलों के प्रति सजगता, अपनी परंपरा और संस्कृति को बचाने का भाव आदि।
आदिवासी भाषाओं में रचित साहित्य की परंपरा।
आदिवासी भाषाओं में लिपियाँ विकसित होने की शुरुआत अब से लगभग डेढ़ सौ साल पहले हो गई। अब तक एक दर्जन से अधिक आदिवासी भाषाओं की लिपियाँ तैयार हो चुकी हैं।
कई आदिवासी भाषाओं ने पड़ोस की किसी बड़ी भाषा की लिपि को स्वीकार कर लिया है।
निष्कर्षतः आदिवासी भाषाओं में लेखन और मुद्रण की परंपरा भी सौ साल से अधिक पुरानी है। इस परंपरा की और पड़ताल किए जाने की ज़रूरत है।
मौजूदा स्रोत सामग्री के अनुसार मेन्नस ओड़ेय का 'मतुराअ कहनि' नामक मुंडारी उपन्यास पहला आदिवासी उपन्यास है।
यह 20वीं सदी के दूसरे दशक में लिखा गया। इसके एक भाग का अनुवाद हिंदी में 'चलो चाय बागान' शीर्षक से किया गया।
पूर्वोत्तर की खासी, गारो आदि भाषाओं में शौर्यगाथाओं की लंबी परंपरा है। धीरे-धीरे हिंदी आदि अन्य भाषाओं में भी इनके अनुवाद होने लगे हैं।
समकालीन हिंदी आदिवासी लेखन
पुरखा साहित्य और आदिवासी भाषाओं में लिखित साहित्य से प्रेरणा ग्रहण कर बाहरी साहित्य के प्रभाव में हिंदी, बांग्ला, तमिल, मलयालम, उड़िया आदि बड़ी भाषाओं में भी लेखन शुरू किया।
हिंदी में इसकी शुरुआत तीन दशक पहले से मानी जा सकती है।
हिंदी आदिवासी कविता में पहला नाम सुशीला सामद का है।
'आदिवासी साहित्य का रांची घोषणा-पत्र’
इसके अनुसार आदिवासी दर्शन युक्त साहित्य ही आदिवासी साहित्य है।
आदिवासी साहित्य की अवधारणा निर्मिति में यह एक महत्त्वपूर्ण क़दम है। इस घोषणा-पत्र के सूत्र निम्नलिखित है:-
1. प्रकृति की लय-ताल और संगीत का जो अनुसरण करता हो।
2. जो प्रकृति और प्रेम के आत्मीय संबंध और गरिमा का सम्मान करता हो।
3. जिसमें पुरखा-पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल और इंसानी बेहतरी के अनुभवों के प्रति आभार हो।
4. जो समूचे जीव जगत की अवहेलना नहीं करें।
5. जो धनलोलुप और बाज़ारवादी हिंसा और लालसा का नकार करता हो।
6. जिसमें जीवन के प्रति आनंदमयी अदम्य जिजीविषा हो।
7. जिसमें सृष्टि और समष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव हो।
8. जो धरती को संसाधन की बजाए माँ मानकर उसके बचाव और रचाव के लिए ख़ुद को उसका संरक्षक मानता हो।
9. जिसमें रंग, नस्ल, लिंग, धर्म आदि का विशेष आग्रह न हो।
10. जो हर तरह की ग़ैर-बराबरी के ख़िलाफ़ हो।
11. जो भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और आत्मनिर्णय के अधिकार पक्ष में हो।
12. जो सामंती, ब्राह्मणवादी, धनलोलुप और बाज़ारवादी शब्दावलियों, प्रतीकों, मिथकों और व्यक्तिगत महिमामंडन से असहमत हो।
13. जो सहअस्तित्व, समता, सामूहिकता, सहजीविता, सहभागिता और सामंजस्य को अपना दार्शनिक आधार मानते हुए रचाव-बचाव में यक़ीन करता हो।
14. सहानुभूति, स्वानुभूति की बजाए सामूहिक अनुभूति जिसका प्रबल स्वर-संगीत हो।
15. मूल आदिवासी भाषाओं में अपने विश्वदृष्टिकोण के साथ जो प्रमुखतः अभिव्यक्त हुआ हो।
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