संस्कृत नाट्य-शास्त्र में नाटक का जो रचनात्मक विश्लेषण है उसमें 'संधि-पंचक' (पाँच संधियों) का ही महत्व सर्वोपरि है। नाटककार 'संधि-पंचक' की योजना करते हुए नाटक की रचना नहीं किया करता। नाटककार की कला नाटक की रूपरेखा आविष्कृत किया करती है और इस रूपरेखा में 'संधि-पंचक' की योजना स्वभावतः हुआ करती है। यह तो नाट्य-शास्त्रकारों की समीक्षा है जो नाट्य-कृति को पाँच संधियों के रूप में संश्लिष्ट और संघटित देखा करती है। 'संधि-पंचक' की कल्पना नाटक-निर्माण के संबंध में नाट्य-शास्त्रकारों की कल्पना है। इस कल्पना में यथार्थ किंवा आदर्शवादी दर्शनों की सृष्टि-विषयक कल्पनाओं का पर्याप्त हाथ है। यथार्थवादी दर्शन के अनुसार 'संधि-पंचक' का अस्तित्व वास्तविक सिद्ध होता है और आदर्शवादी दर्शन की दृष्टि में संधि-पंचक' को व्यावहारिक अस्तित्व मिल सकता है। 'संधि-पंचक' को वास्तविक मानने वाले भी नाट्य-शास्त्रकार हैं और व्यावहारिक मानने वाले भी। भरत-नाट्यशास्त्र में दोनों प्रकार की संभावनाओं के सूत्र मिलते हैं। 'संधि-पचक' को वास्तविक मानने वाले आचार्यों की परंपरा संभवतः अधिक प्राचीन है। भरत-नाट्यशास्त्र में 'संधि-पंचक' का निरूपण कोई नवीन सिद्धांत नहीं अपितु प्राचीन मर्यादा का अनुसरण-सा लगता है। 'संधि-पंचक' की वास्तविक सत्ता के समर्थक आचार्यों में 'दशरूपक' के रचयिता आचार्य धनंजय और धनिक (8वीं-9वीं शताब्दी) विशेष उल्लेखनीय है और 'संधि-पंचक' को नाट्य-सृष्टि के नियामक, किंवा निर्धारक रस-रूप आत्म-तत्त्व का आभास मानने वाले आचार्यों में अभिनवगुप्तपादा (10वीं शताब्दी) का नाम कौन नहीं जानता?
नाटक और संधि-पंचक
चाहे जो भी दृष्टि हो, 'नाटक' और 'संधि-पंचक' का संबंध माना गया है। 'संधि-पंचक' क्या है? भरत-नाट्यशास्त्र के अनुसार 'संधि-पंचक' का यह स्वरूप है :
मुखं प्रतिमुख चैव गर्भों विमर्श एवं च।
तथा निर्वहण चेति नाटके पंचसंधयः॥
(नाट्य-शास्त्र 19:37)
जिसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक 'नाटक' में मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण नाम को पाँच संधियाँ रहा करती हैं। संधि-पंचक के उपर्युक्त नाम नाटक के रचनात्मक तत्त्वों में शरीरात्म-भाव की कल्पना को कुछ दूर तक तो प्रोत्साहित अवश्य करते हैं किंतु अंत तक नहीं जाने देते। मुख, प्रतिमुख और गर्भ तक ऐसा मालूम होता है जैसे नाटक-शरीर को प्राणि-शरीर के समान देखा जा सकता है किंतु विमर्श और निर्वहण के सामने यह कल्पना रुक जाती है। अब मुख, प्रतिमुख, गर्म, विमर्श और निर्वहण-रूप संधि-पंचक क्या है? संभवत नैयायिकों के प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपनय और निगमन रूप पंचावयव परार्थानुमान-वाक्य के आधार पर नाट्याचार्यों की 'संधि-पंचक' कल्पना निकली है। समस्त नाटक एक प्रकार का परार्थानुमान-वाक्य है। 'कला अनुकृति है और कला की अनुभूति एक अलौकिक अनुमिति है'—यह प्राचीन कला-विषयक भारतीय सिद्धांत संभवत संधि-पंचक' के अनुसंधान के मूल में स्थित है। इस सिद्धांत का प्रतिपक्ष यह सिद्धांत कि 'कला अभिव्यक्ति है और कला की अनुभूति आत्मानंद की अभिव्यक्ति है', 'संधि-पंचक' को मानता अवश्य है किंतु इसे स्वतंत्र नहीं अपितु रस-परतंत्र देखा करता है।
अस्तु, संधि-पंचक की योजना का अभिप्राय नाटक की समस्त अर्थराशि को अङ्गाङ्गिभाव से परस्पर-संबद्ध बनाना है। नाटक को एक 'महावाक्य' कह सकते हैं और नाटक का अर्थ एक 'महावाक्यार्थ' हुआ करता है। जैसे किसी परार्थानुमान-वाक्य के अर्थ में प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन रूप पंचविध अंशों का विश्लेषण किया जा सकता है वैसे ही महावाक्यार्थ-रूप नाटकार्थ में मुख, प्रतिमुख, गर्म, विमर्श और निर्वहण रूप अंश-पंचक का निरूपण संभव है। नैयायिकों की दृष्टि में 'प्रतिज्ञा' का जो स्थान और महत्व है वही नाट्य-शास्त्रकारों की दृष्टि में 'मुखसंधि' का है। नैयायिकों को 'प्रतिज्ञा' का अभिप्राय है 'साध्यनिर्देश' ('साध्यनिर्देश' प्रतिज्ञा-न्यायसूत्र 1.1 33)। जैसे कि 'शब्द अनित्य है' यह 'प्रतिज्ञा' है क्योंकि यहाँ अनित्य 'शब्द' को अनित्यत्व-धर्म से विशिष्ट सिद्ध करने का उपक्रम किया जा रहा है। नाट्य-शास्त्रकारों की 'मुखसंधि' भी नाटक का 'साध्यनिर्देश' ही है। किंतु शब्द अनित्य है यह 'साध्यनिर्देश' और मुद्राराक्षस नाटक का प्रथमाङ्क-रूप 'साध्यनिर्देश' (मुखसंधि) परस्पर इतने विलक्षण हैं कि जहाँ एक में कोई आनंद नहीं वहाँ दूसरे में आनंद-चमत्कार ही अन्ताप्न प्रतीत होता है। नैयायिकों का 'प्रतिाज्ञवाक्य' तो लोकगत किंवा लोकसिद्ध विषयों का साध्यनिर्देश है किंतु नाटककार का मुखसंधियोजन-रूप जो साध्यनिर्देश है वह एक कलात्मक विषय-वस्तुतः रस के अभिव्यंजन का उपक्रम है। इसीलिए आचार्य अभिनवगुप्त ने 'मुखसंधि' की यह परिभाषा की है—
प्रारम्भोपयोगी यांवानर्थराशिः प्रसक्तानुप्रसक्तया विचित्रास्वादः श्रापतितः तावान् मुखसंधि, तदभिषायी च रूपकैकदेश।
(अभिनव भारती; तृतीय भागः पृष्ठ- 23)।
अर्थात् मुख्यत तो 'मुखसंधि' का अभिप्राय उस रसभाव-सुंदर अर्थ-राशि से है जिससे किसी रूपक का उपक्रम किया जाया करता है और उपचारतः वह रूपक-भाग भी 'मुखसंधि' ही कहा जाता है जिनमें इस अर्थराशि का प्रतिपादन किया गया होता है।
'मुख' संधि और इसके बाद की संधि अर्थात् 'प्रतिमुख' संधि में वही संबंध रहा करता है जोकि 'प्रतिज्ञा' और 'हेतु' में न्याय-सम्मत माना गया है। 'प्रतिमुख-संधि' नाटक की वह अर्थराशि है जो 'मुखसंधि' में उपन्यस्त अर्थराशि को युक्तियुक्त रूप से परिपुष्ट किया करती है। जैसे न्याय-शास्त्र की परिभाषा में 'हेतु' का अभिप्राय 'साध्य-साधन' माना गया है वैसे ही नाट्य-शास्त्र की परिभाषा में 'प्रतिमुख' का अभिप्राय 'मुख' से आभिमुख्य अथवा आनुकूल्य बताया गया है। 'गर्भ' संधि को 'उदाहरण' अथवा 'दृष्टांत' का प्रतिरूप मान सकते हैं। 'गर्भ संधि' में नाटक की वह अर्थराशि निहित रहा करती है जिसकी योजना नाटककार के नाट्य-कला-कौशल की एक परीक्षा हुआ करती है। जैसे नैयायिकों को 'उदाहरण' देने में सतर्क होना पड़ता है वैसे ही नाटककारों को भी 'गर्भसंधि' की रचना में नायक और प्रतिनायक के परस्पर द्वंद्व और इस द्वंद्व में आशा-निराशा के अंतर्द्वंद्व के प्रकाशन करने और नाटक के लक्ष्य की ओर अग्रसर होने में पर्याप्त रूप से सतर्क होना पड़ता है क्योंकि बिना इसके नाटक के नाटकाभास में बदल जाने का डर निरंतर बना रहता है।
'उदाहरण' के अनंतर 'उपनय' का जो स्थान और महत्त्व न्याय-शास्त्र में माना गया, 'गर्भ-संधि' के बाद 'विमर्श संधि' का भी वैसा ही स्थान और महत्त्व नाट्य-शास्त्र में निर्दिष्ट किया गया है। नाटक में 'विमर्श' संधि के रूप में वह अर्थ-राशि उपन्यस्त हुआ करती है जिसमें नायक नियतफल-प्राप्ति की अवस्था में चित्रित रहा करता है। जहाँ गर्भसंधि में आशा और निराशा का द्वंद्व चलता दिखाया जाया करता है वहाँ विमर्श संधि में आशा की प्रबलता में भी नैराश्य के आघात की संभावना नायक के धैर्य-परीक्षण के सुअवसर के रूप में अवश्य अभिव्यक्त की जाया करती है। आचार्य अभिनवगुप्त ने तभी तो यह कहा है—
विमर्श संधिर्नियतफलप्राप्त्यवस्थया व्याप्त, तत्र नियतर्त्वं संदेहश्चेति किमेतत्? प्रबाहु तर्कानन्तरमपिहेत्वन्तरवशाद वाघच्छलरूपता पराकरणे सशयो भवेत, किं न भवति। इहापि च-निमित्तबलात् कुतश्चित् समावितमपि फल यदा बलवता प्रत्यूह्यते कारणानि च वलवंति भवंति तदा जनकविघातकयोस्तुल्यबल-स्वात् कय न संदेह। तुल्यबलविरोधकविधीयमानवैधुर्यव्याधूननसन्धीयमानस्फार-फलावलौकनार्या च पुरुषकारः सुतरामुद्धरकन्धरी भवतीति तर्कानन्तरमत्र सशयः सतो निर्णय इत्येतदेवोचिततरम्।''
(अभिनव भारती, तृतीय भाग, पृष्ठ 27)
नैयायिकों का 'उपनय' वाक्य भी 'हेतु' का 'पक्ष' में उपसंहार किया करता है क्योंकि बिना ऐसा किए हेतु अथवा साधन की पक्ष-धर्मता स्पष्टतया नहीं स्थापित की जा सकती।
नाटक की अंतिम संधि 'निर्वहण' अथवा 'उपसहृति' कही गई है। यह संधि नाटक की वह अर्थ-राशि है जिसमें चारो संधियों की अर्थराशि समंवित की गई होती है। परार्थानुमान-वाक्य में 'निगमन' वाक्य की योजना का भी यही उद्देश्य है कि प्रतिज्ञात विषय का हेतु-निर्देश के साथ इसलिए पुन कथन हो जिसमें साध्य अथवा प्रतिज्ञात विषय के विपरीत किसी विषय की सिद्धि की संभावना सर्वथा उच्छिन्न हो जाए। जैसे प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन का प्रयोजन परार्थानुमान-वाक्य के अर्थ का सम्मिलित रूप से निष्पादन हुआ करता है वैसे ही मुख, प्रतिमुख, गर्म, विमर्श और निर्वहण संधि का उद्देश्य नाटक-रूप महावाक्यार्थ का परस्पर संबद्ध रूप से निष्पादन ही है।
'संधि-पंचक' में किसका संधान?
'संधि' शब्द के अर्थ में दो वस्तुओं का संबंध अंतर्निहित है। नाटक में कौन-सी दो वस्तुएँ हैं जिनका संधान नाटककार का कर्तव्य है और जिस कर्तव्य का पालन 'संधि-पंचक' के रूप में देखा जाया करता है? नाट्य-शास्त्रकारों ने यहाँ एक स्वर से यही कहा है कि 'अवस्था-पंचक' और 'अर्थप्रकृति-पंचक' का परस्पर समन्वय संधि-पंचक' है। 'आरंभ' और 'बीज' का समन्वय मुख संधि, 'यत्न' और 'बिंदु' का संधान प्रतिमुख संधि, 'प्राप्त्याशा' और 'पताका' का सामंजस्य गर्भ संधि, 'नियताप्ति' और 'प्रकरी' का संबंध विमर्श संधि तथा 'फलागम' और 'कार्य' का संयोजन निर्वहण संधि है। दशरूपककार ने स्पष्ट कहा है-
अर्थप्रकृतयः पंच पंचावस्थासमंविताः।
यथासंख्येन जायंते मुखाद्याः पंचसंधयः॥
(दशरूपक 1.22)
अर्थात् क्रमशः एक-एक 'अवस्था' का एक-एक 'अर्थ-प्रकृति' से समन्वय मुखादि संधि-पंचक की रूपरेखा का निर्माण है।
अवस्था और अर्थ-प्रकृति
भरत-नाट्य-शास्त्र में 'अवस्था' का अभिप्राय नाटक में निबद्ध नायक के व्यक्तित्व का उत्तरोत्तर विकास है। नायक का व्यक्तित्व ही उसके सहायकों अथवा विरोधियों के व्यक्तित्व का आधार हुआ करता है और इस दृष्टि से नाटककार अन्यान्य नाटक-चरितों के व्यक्तित्व का विकास इसीलिए किया करता है जिसमें नायक का व्यक्तित्व शतदल कमल की भाँति उन्मीलित हो उठे। जिसे नायक का 'व्यक्तित्व' कहते हैं वह नायक की ज्ञान-इच्छा-क्रिया किंवा प्रयत्न-शक्तियों का सम्मिलित रूप हुआ करता है। वस्तुत: नाटक-निबद्ध समस्त व्यापार-परिस्पंद (ड्रामेटिक एक्शन) नायक के व्यक्तित्व का बाह्य रूप है। इस व्यक्तित्व का ही विश्लेषण आरंभ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम की पाँच अवस्थाओं की कल्पना का कारण है। कोई भी नाटककार बिना इस अवस्था-विश्लेषण के नाटक की रचना नहीं कर सकता। किंतु केवल इन पाँच अवस्थाओं की योजना ही नाटक की रूप-रेखा के लिए पर्याप्त नहीं। ये अवस्थाएँ तो नाटक-जगत के निर्माण की पंचतंमात्राएँ हैं। इनके साथ पंचमहाभूतों की भाँति पाँच अर्थ- प्रकृतियों का भी सहयोग अपेक्षित है और तभी रस-भाव की अंतर्नियामकता में नाटक का आविर्भाव संभव है।
'अर्थ-प्रकृति' क्या है?
'अर्थ-प्रकृति' की कल्पना भरत-नाट्यशास्त्र से प्राचीन है। भरत नाट्य-शास्त्र में जिस रूप में 'अर्थ-प्रकृति' का निरूपण है उससे यही प्रतीत होता है कि भरत मुनि ने 'अर्थ-प्रकृति' की कल्पना को प्राचीन नाट्य-दर्शन से प्राप्त किया है। भरत मुनि ने 'अर्थ प्रकृति' का यह स्वरूप और प्रकार निर्दिष्ट किया है-
इतिवृत्ते यथावस्थाः पंचारम्भाविकाः स्मृताः।
अर्थप्रकृतयः पंच बीजाविका अपि॥
बीजं बिन्दुः पताका च प्रकरी कार्यमेव च।
अर्थप्रकृतयः पंच ज्ञात्वा योज्या यथाविधि॥
(भरत नाट्यशास्त्र : 19-20, 21)
अर्थात् जैसे नाटक के इतिवृत्त में प्रारंभ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम की पाँच अवस्थाएँ उपनिबद्ध हुआ करती हैं वैसे ही बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य की पाँच अर्थ-प्रकृतियों की भी योजना स्वाभाविक है।
'अवस्था-पंचक' के संबंध में तो नाट्य-शास्त्रकारों में कोई मतभेद नहीं, किंतु 'अर्थप्रकृति-पंचक' के स्वरूप-निर्धारण में कई एक कल्पनाएँ की गई हैं। आचार्य अभिनवगुप्त ने किसी नाट्याचार्य के मत का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि 'अर्थ-प्रकृति' का अभिप्राय 'अर्थ' की, समस्त रूपक के वाच्य की, 'प्रकृति' अथवा अवयव-कल्पना का है। इस मत खंडन करते हुए उनका कहना यह है कि यदि 'अर्थ-प्रकृति' को समस्त रूपकार्थ के अवयवभूत 'अर्थ खंड' माना गया तब अर्थ-प्रकृति और पंचसंधि में अंतर क्या रहा? जिसे समस्त रूपकार्य कह सकते हैं वह इतिवृत्त के अतिरिक्त और क्या है? और 'संधि-पंचक' के अतिरिक्त इतिवृत्त के अवयव-खंड भी तो और कुछ नहीं। अर्थ-प्रकृति का अभिप्राय कुछ और होना चाहिए। 'अर्थ-प्रकृति' को रूपक के इतिवृत्त-रुप अर्थ में संयोजित 'प्रकृति' अथवा अवयव कल्पना मानना भी ठीक नहीं क्योंकि तब हमें केवल 'प्रकृति' कहना प्रर्याप्त है न कि 'अर्थ-प्रकृति'। भरत मुनि ने 'इतिवृत्त अर्थ प्रकृतय' कहा है। यदि 'इतिवृत्त' और 'अर्थ' समानार्थक हैं तब बीज, बिंदु आदि को 'प्रकृति-पंचक' कहना उचित है न कि अर्थ-प्रकृति-पंचक।
'प्रय-प्रकृति' का रहस्य क्या हो सकता है? 'अर्थ' का अभिप्राय इतिवृत्त- रूप रूपावाच्याय नहीं अपितु 'फल' है। इस प्रकार बीज, बिंदु भादि को जो 'मर्थ प्रकृति' कहा जाता है उस का यही तात्पर्य है कि ये पांचो नाटक में मथ अथवा फल की 'प्रकृति' अथवा उपाय या साधन हैं।
अर्थ-प्रकृति-पंचक किसके फल के उपाय?
नाट्य-शास्त्रकारों ने 'अर्थ-प्रकृति' को जिस दृष्टि से 'फलोपाय' कहा है उसका स्पष्टीकरण नहीं किया है। किंतु इसमें भी एक सत्य छिपा है। कई दृष्टियों से 'अर्थ-प्रकृति' को 'फलोपाय' माना जा सकता है। 'अर्थ-प्रकृति' नाटककार की दृष्टि में भी 'फलोपाय' है जिसका विवेचन और विश्लेषण नाट्य-शास्त्र का काम है और नायक की दृष्टि से भी, जिसका विचार-विमर्श नाटककार का नाट्य-कौशल है। नायक के साथ नाटककार और नाटक-दर्शक के साधारणीकरण की धारणा का ही संभवत यह प्रभाव है कि नायक के बीजोक्षेप अथवा नाटककार के बीजोक्षेप का स्पष्टीकरण संस्कृत नाट्य-शास्त्र में नहीं किया गया। जहाँ 'मुद्राराक्षस' (४.३) की यह उक्ति-
कुर्वन् बुद्धया विमर्श प्रसृतमपि पुनः संहरन् कार्यजातं,
कर्ता वा नाटकानामिममनुभवति क्लेशस्मद् विघो वा॥'
इस बात की ओर संकेत करती है कि बीज, बिंदु आदि अर्थ-प्रकृतियों और आरंभ आदि अवस्थाओं की समीचीन योजना नाटककार की नाट्य-कला का काम है, वहाँ 'नाट्य-दर्पण' की यह उक्ति—
'नेतुर्मुख्य फलं प्रति बीजाद्यु पायन् प्रयोक्तुरवस्था प्रधानवृत्तविषये काय-वाइ. मनसां व्यापाराः।'
(नाट्यदर्पण, पृष्ठ 48)
यह निर्देश करती है कि बीज आदि फलोपाय (अर्थ-प्रकृति) का संबंध उसके प्रयोक्ता नायक से है। ऐसा लगता है जैसे अर्थशास्त्र की 'राज्यप्रकृति' की भाँति, नाट्य-शास्त्र ने 'अर्थप्रकृति' की कल्पना की है। राज्य जैसे 'सप्त प्रकृति' हुआ करता है वैसे ही नाट्य 'पंचप्रकृति'। जैसे राज्य की सात प्रकृतियाँ स्वामी अथवा राजा के नियंत्रण में अपना अस्तित्व रखा करती हैं वैसे ही नाटक की पाँच अर्थ-प्रकृतियाँ नाटक की नियामकता में कार्यकर हुआ करती हैं।
नाटक का नायक वास्तविक जीवन का महापुरुष हुआ करता है। धर्म, अर्थ और काम में से किसी फल की अभिलाषा उसके व्यक्तित्व की मूल प्रेरणा हुआ करती है। अपने अथवा अपने सहायकों के नानाविध कार्य-व्यापार अथवा अनुकूल भाग्य की प्रेरणा के रूप में वह अपने धर्मार्थ-काम रूप फल के लिए 'बीज' बोया करता है। किसी 'बीज' के आवाप मात्र से ही फल नहीं मिल जाता। जैसे किसी माली को बीज बोने के बाद समय-समय पर पानी डालना (बिंदु-निक्षेप अथवा जलबिंदु-निक्षेप करना) पड़ता है वैसे ही नाटक का नायक भी अपने धमार्थ-काम रूप फल के 'बीज' को 'बिंदु' के द्वारा अपने अथवा सहायकों के व्यापार में, विघ्न-बाधाओं की मुठभेड़ के कारण, उग्रता अथवा शक्तिमत्ता के आधान के द्वारा सींचता रहा करता है। बीज के उपक्षेप किंवा बिंदु के निक्षेप की क्रिया नानाविध साधन-सामग्री की अपेक्षा करती है। नायक भी 'बीज' और 'बिंदु' को सफल किंवा कार्य-कर बनाने के लिए नाना प्रकार के साधनों की अपेक्षा करता है जो कि नाट्य-शास्त्र की परिभाषा में 'कार्य' (प्रधाननायक-पताकानायक-प्रकरीनायकै साध्ये प्रधान फलत्वेनाभिप्रेत ते वीजस्य प्रारम्भावस्योत्क्षिप्तस्य प्रधानोपायस्य सहकारी संपूर्णतादायी सैन्य-कोश-दुर्ग-सामाद्यु पायलक्षणों द्रव्यगुणक्रिया प्रभुति सर्वोऽर्थश्चेतनै कार्यते फलमिति कायम्-नाट्यदर्पण, पृष्ठ 47) कहे गए हैं। जैसे वृक्षारोपण में 'पताका' की स्थापना का प्रयोजन एक मांगलिक कार्य में सामाजिक सहयोग और सद्भावना का नियंत्रण है वैसे ही नाटक का नायक भी अपने महान उद्योग में पताका' की स्थापना किया करते हैं। वह उसके सहायकों को सद्भावना और उसकी फल-सिद्धि में सहायकों की सतत जागरूकता का आह्वान किया करती है। वृक्ष की रक्षा के लिए कभी-कभी छोटे-छोटे साधन भी आवश्यक हुआ करते हैं। नायक भी अपने धर्म अथवा अर्थ अथवा काम रूप वृक्ष की रक्षा के लिए ऐसे सहायकों की अपेक्षा किया करता है जो छोटे होने पर भी महत्त्वपूर्ण हुआ करते हैं। नाट्यशाला की पारिभाषिकता में इन्हें 'प्रकरी' कहा करते हैं।
इन उपर्युक्त पाँच अर्थ-प्रकृतियों अथवा फलोपायो में 'बीज, बिंदु' और 'कार्य' तो अपने आपमें अधिक महत्त्वपूर्ण हैं किंतु, 'पताका' और 'प्रकरी' का महत्त्व नायक की जनप्रियता पर अवलंबित है। अभिनवगुप्ताचार्य ने इन फलोपायो को 'जड़' और 'चेतन' रूप में विभक्त किया है। 'बीज' और 'कार्य' तो अचेतन फलोपाय हैं और 'बिंदु', 'पताका' तथा 'प्रकरी' चेतन फलोपाय। इन चेतनात्मक और अचेतनात्मक फलोपायो का अनुसंधान किंवा प्रयोग नायक किया करता है और इसीलिए नाटककार का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह भी इन्हें नायक के चरित्र-चित्रण में
यथास्थान किंवा यथोचित रूप से चित्रित करे।
नाटक में अर्थप्रकृति-योजना
जबकि नाटककार नायक द्वारा प्रयुक्त फलोपायो की नाटकीय योजना प्रारंभ करता है तब उसका उद्देश्य लौकिक धर्मार्थ-काम की प्राप्त नहीं अपितु उस अलौकिक आनंद का सहृदय हृदय में अभिव्यंजन हो जाया करता है जिसे 'रस' कहा करते हैं। 'नाट्य में जो कुछ है वह रस है—रसप्राणों ही नाट्यविधि'—यही नाट्यशास्त्रकारों की नाटक-संबंधी मान्यता है। इस प्रकार बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य रमनिपत्ति-स्प फल के उपाय बन जाते हैं। नायक ने—लोक-जीवन के किसी महापुरष ने—अनुकूल भाग्य की प्रेरणा अथवा अपने पौरुष या अपने सहायकों के अध्यवसाय के रूप अपने धर्मार्थ-काम रूप फल का जो 'बीज' बोया होगा वही जब नाटककार की कला द्वारा नाटक में निक्षित किया जाया करता है तब नाना प्रकार के रस-भागों का अभिव्यञ्जा हो जाया करता है। लोक में नायक अयवा उसके महापफ का अपने-अपने अध्यवसाय आदि के रूप में बीज-निक्षेप किसी दर्शक के लिए दुखद भी हो सकता है किंतु नाट्य में उपक्षिप्त यही 'बीज' चाहे वह भाग्य की अनुकूलता मात्र हो, नायक आदि का अव्यवसाय-रूप हो, नायक पर पड़ने वाले संकटों का निर्देश मात्र हो, संकटों की मुठभेड़ में नायकों का अदम्य व्यक्तित्व-रूप हो, जैसा भी हो, एक मात्र विविध रस भावों का भावक अथवा व्यंजक बन जाया करता है। उदाहरण के लिए, 'मुद्राराक्षस' नाटक में नाटककार ने, चंद्रगुप्त पर पड़ने वाले संकटों के निवारण के लिए चाणक्य के महान अध्यवसाय को जो बीज रूप में बोया है वह संघर्ष, आवेग, चिंता प्रोत्सुक्य आदि-आदि भावों के रूप में सहृदय हृदय में अंकुरित होते हुए वीर रस का निष्पादक बन रहा है। यहाँ कूट-लेख की योजना, गुप्तचरों की उन कूट चालों में नियुक्ति आदि घटनाएँ ही बीज की शाखा-प्रशाखा के रूप में निकल रही हैं और इनका अंत सार है वह चाणक्य की महत्त्वाकांक्षा का उन्मेष-रूप है। मुद्राराक्षस के इतिवृत्त रूप शरीर की दृष्टि से यह सब प्रसंग 'मुख संधि' है जिसमें वीरभावोत्सिक्त चाणक्य की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के कृत्रिम विकास रूप में, राक्षस द्वारा किए जा सकने वाले उन-उन आक्रमण के उन-उन प्रतिरोध उपायों के चिंतन का रस-निर्भर 'बीज' बोया हुआ है। वही 'बीज' जहाँ चाणक्य नायक के राक्षस-वशीकार रूप फल का निदान है, वहाँ सहृदय सामाजिक के हृदय में वीर रस के अभिव्यंजना का भी निदान है।
बिंदु-निक्षेप का प्रयोजन उपक्षिप्त बीज का अंकुरण आदि हुआ करता है। 'बिंदु' के रूप में नाटककार नायक के प्रयत्नों का अभिव्यंजना करता है और इसके प्रभाव में नाटक का इतिवृत्त एक विचित्रता से प्रवाहित हो उठता है। जैसे कि 'मुद्राराक्षस में ही नाटककार ने चार-निवेदन (गुप्तचरों द्वारा उन-उन परिस्थितियों के परिज्ञान), मुद्रा-लाभ (राक्षस की अँगूठी का चारणक्य के हाथ पड़ना), कपटलेख-निष्पादन आदि वृत्तों की जो योजना की है वह वस्तुत बिंदु-निक्षेप ही है जिसकी सहायता से चाणक्य की महत्वाकांक्षा का 'बीज' उत्तरोत्तर उदीयमान किंवा समृद्ध होते दिखाई दे रहा है। इसी प्रकार यहाँ प्रतिनायक राक्षस द्वारा निक्षिप्त चाणक्य और चंद्रगुप्त के परस्पर-भेद की योजना का जो 'बीज' नाटककार ने बोया है उसे भी चार निवेदन, उत्तेजक प्रशस्ति-रचना आदि घटनाचक्र के बिंदु-निक्षेप से बड़ी कुशलता से सींचा है। बिंदु-सेक से परिपुष्ट यह 'बीज' सहृदय हृदय में वीर रस भाव के उद्घाटन की पर्याप्त सामर्थ्य रखता है।
'बिंदु' के बाद 'कार्य' ही अर्थप्रकृति-योजना में अधिक महत्व रखता है। 'कार्य' का अभिप्राय उस अन्यान्य साधन-सामग्री की योजना है जो 'बीज' के उत्तरोत्तर विकास में सहायक हुआ करती है। 'साध्ये बीज सहकारी कार्यम्' (नाट्यदर्पण, पृष्ठ 47)। कुछ नाट्यशास्त्रकार 'कार्य' का अभिप्राय धर्मार्थ-काम-रूप पुरुषार्थ मानते हैं। दशरूपककार ने ही स्पष्ट कहा है-
कार्य त्रिवर्गस्तच्छुद्धमेकानेकानुवधि च।
दशरूपक :1-16
अर्थात् पृथक्-पृथक् अथवा परस्पर अनुषक्त धर्म, अर्थ और काम ही 'कार्य' है। किंतु यह 'कार्य'-परिभाषा इस प्रकार की है जिसके देखते 'कार्य' को 'अर्थ-प्रकृति कहना असंभव हो जाता है। 'कार्य' को भरत मुनि ने अर्थ-प्रकृतियों में स्थान दिया है। इसलिए, जैसा कि आचार्य अभिनवगुप्त का कहना है, 'कार्य' का अभिप्राय धर्मार्थ-काम-रूप पुरुषार्थ नहीं अपितु उन 2 नाटकों में उपनिबद्ध जनपद, कोश, दुर्ग आदि का व्यापार-वैचित्र्य-वस्तुत एक शब्द में बीज—सहकारी साधन-समूह—ही है जिसके प्रभाव में किसी भी नायक की महत्वाकांक्षा उसके हृदय में ही उत्पन्न-विलीन दिखाई जा सकती है न कि कार्यकर अथवा सफल होते हुए चित्रित की जा सकती है। आचार्य अभिनवगुप्त ने इसीलिए कहा है—
'आरंभत इत्यारम्भशन्बवाच्यो द्रव्यगुणक्रियाप्रभृतिः सर्वोर्थ सहकारी कार्य-मित्यच्यते, चेतना कार्यते फलमिति व्युत्पत्या। तेन जनपद कोश दुर्गादिक व्यापार वैचित्र्य सामाघ पायवर्ग इत्येतत् सर्व कार्येऽन्तर्भवति।'
अभिनव भारती, तृतीय भाग, पृष्ठ 16।
'मुदाराक्षम' में ही साम, दाम, दंड आदि नीति-चिंतन किंवा सैन्य-सनाह आदि घटनाओं की जो योजना है वह 'कार्य' रूप अर्थ-प्रकृति की ही योजना है। यह 'कार्य' योजना सहृदय-हृदय में नीति-विषयक उत्साह के उद्बोधन का एक अत्यंत आवश्यक निदान है।
इस प्रकार बीज, बिंदु और कार्य-रूप तीन अर्थ-प्रकृतियाँ उन नाटकों में अनिवार्य रूप से उपनिबद्ध रहा करती हैं जिनके नायक एकमात्र आत्म-पौरुष के धनी हुआ करते हैं, अपने पराक्रम का अदम्य आत्म-विश्वास रखा करते हैं और जिनका कार्य-सिद्धि उनके आत्मोत्साह की ही अपेक्षा किया करती है। 'मुद्राराक्षस' नाटक के नायक का ऐसा ही व्यक्तित्व है—'स्वपराक्रम बहुभानशाली व्यक्तित्व—और इसीलिए इस नाटक में बीज, बिंदु और कार्य की तीन अर्थ-प्रकृतियों की ही योजना है।
नाट्याचार्य भरत ने इसीलिए कहा है :
'एतेषां यस्य येनार्थों यतश्च गुण इष्यते।
तत् प्रधान तु कर्त्तव्य गुणभूतान्यत परम्॥'
(नाटयशास्त्र 19-27)
अर्थात् 'नाटक' में अवस्था-पंचक की भाँति अर्थप्रकृति-पंचक की योजना नहीं हुआ करती। 'अवस्था-पंचक' का तो अनिवार्यत नाटक में उपनिबंध हुआ करता है किंतु 'अर्थ-पंचक' की अनिवार्य योजना आवश्यक नहीं। नायक के व्यक्तित्व की दृष्टि से उसके फलोपायो की योजना आवश्यक है। 'बीज' 'बिंदु' और 'कार्य' तो नायक मात्र के फलोपाय हैं किंतु 'पताका' और 'प्रकरी' उन्हीं नायकों के फलोपाय रूप में उपनिबद्ध हो सकती हैं जो लोक-जीवन में जनप्रिय रह चुके हैं, जिनके धर्मार्थकाम-रूप पुरुषार्थ-लाभ में जन-सहाय्य मिल चुका है और जिनका उत्कर्ष जन-जीवन पर स्थाई किंवा व्यापक प्रभाव डाल चुका है।
'पताका' और 'प्रकरी'—दोनों अर्थ-प्रकृतियाँ हैं। 'पताका' भरत-नाट्यशास्त्र में इस प्रकार प्रतिपादित है-
'यद्वृर्त्त तु परार्थ स्यात् प्रधानस्योपकारकम्।
प्रधानवच्च कल्प्येत सा पताकेति कीर्तिता।'
नाट्य-शास्त्र :19-24
और 'प्रकरी' इस प्रकार—
'फलं प्रकल्प्यते यस्याः परार्थायैव केवलम्।
अनुबंधविहीनत्वात् प्रकरीति विनिदिशेत्॥'
(नाट्य-शास्त्रः 19-25)
अभिप्राय यह है कि 'पताका' और 'प्रकरी' उस नाटक के प्रासंगिक वृत्त हैं जिसके नायक की धर्मार्थकाम-रूप फल-सिद्धि उपनायक अथवा सहायक के भी प्रयत्नों की अपेक्षा करती है। पाँचों अर्थ-प्रकृतियों में केवल 'पताका' और 'प्रकरी' ही वस्तुत नाटक के अवांतर वृत्त के रूप में नाट्य-शास्त्रकारों द्वारा निर्दिष्ट हैं। 'बीज' 'बिंदु और 'कार्य' अर्थ-प्रकृति तो अवश्य हैं किंतु प्रासंगिक वृत्त नहीं। वस्तुतः 'बीज', 'बिंदु' और 'कार्य' में नाटक की 'अर्थप्रकृति' अथवा 'फलोपायपरंपरा' की कल्पना इसीलिए की गई है कि इन्हीं के द्वारा नाटक के आधिकारिक इतिवृत्त (मेन प्लॉट) का उत्तरोतर विकास हुआ करता है और यथास्थान आधिकारिक और प्रासंगिक इतिवृत का संश्लिष्ट रूप' नाटकीय इतिवृत्त प्रकट हुआ करता है।
अर्थ-प्रकृतियों की योजना का उद्देश्य
नाटक में अर्थ-प्रकृतियों की योजना से ही नायक का चरित-विकास नाटकीय बना करता है। केवल 'अवस्था-पंचक' के विश्लेषण में नाटक की रूपरेखा नहीं खड़ी हो सकती। 'अवस्था-पंचक' की योजना से रसभाव की धाराएँ प्रवाहित हो सकती हैं। किंतु 'नाटक' के रूप में रस-स्रोत का दर्शन तभी हो सकता है जबकि 'अर्थ-प्रकृति'-योजना हुई हो। 'संधि-पंचक' की कल्पना भी अर्थ-प्रकृति की कल्पना पर ही अवलंबित है। सन्व्यङ्गो का स्वरूप 'बीज', 'बिंदु' और 'कार्य' की अर्थ प्रकृति पर ही निर्भर है। सन्ध्यङ्गो के रूप में नाट्य-शास्त्र नाटक के जिस कथनोपकथन का विशद विश्लेषण करता है वह वस्तुत अर्थ-प्रकृति योजना के ही रहस्य का स्पष्टीकरण है। क्या 'अवस्था-पंचक', क्या 'अर्थप्रकृति-पंचक' और क्या 'संधि-पंचक', सभी के सभी नाटक के कथनोपकथन में ही अपना अस्तित्व और उद्देश्य रखते हैं। नाटककार यदि चरित-विकास की दृष्टि से अवस्थाओं का उत्तरोत्तर संश्लिष्ट विकास करता है तो इतिवृत्त की दृष्टि से अर्थ-प्रकृतियों का यथोचित सनिवेश रचता है। 'संधि-पंचक' इस संश्लिष्ट इतिवृत्त के अवयवार्थ-रूप निकलते हैं और 'रस' है इस नाटक रचना का अंतस्तत्त्व, अंत सार किंवा अंतर्नियामक।
sandhi panchakः natk ka rachnatmak tattw
sanskrit naty shastr mein natk ka jo rachnatmak wishleshan hai usmen sandhi panchak (panch sandhiyon) ka hi mahatw sarwopari hai natakkar sandhi panchak ki yojna karte hue natk ki rachna nahin kiya karta natakkar ki kala natk ki ruparekha awishkrit kiya karti hai aur is ruparekha mein sandhi panchak ki yojna swabhawat hua karti hai ye to naty shastrkaron ki samiksha hai jo naty kriti ko panch sandhiyon ke roop mein sanshlisht aur sanghtit dekha karti hai sandhi panchak ki kalpana natk nirman ke sambandh mein naty shastrkaron ki kalpana hai is kalpana mein yatharth kinwa adarshawadi darshnon ki sirishti wishayak kalpanaon ka paryapt hath hai yatharthawadi darshan ke anusar sandhi panchak ka astitw wastawik siddh hota hai aur adarshawadi darshan ki drishti mein sandhi panchak ko wyawaharik astitw mil sakta hai sandhi panchak ko wastawik manne wale bhi naty shastrakar hain aur wyawaharik manne wale bhi bharat natyashastr mein donon prakar ki sambhawnaon ke sootr milte hain sandhi pachak ko wastawik manne wale acharyon ki paranpra sambhwat adhik prachin hai bharat natyashastr mein sandhi panchak ka nirupan koi nawin siddhant nahin apitu prachin maryada ka anusarn sa lagta hai sandhi panchak ki wastawik satta ke samarthak acharyon mein dashrupak ke rachyita acharya dhananjay aur dhanik (8ween 9ween shatabdi) wishesh ullekhaniy hai aur sandhi panchak ko naty sirishti ke niyamak, kinwa nirdharak ras roop aatm tattw ka abhas manne wale acharyon mein abhinawguptpada (10ween shatabdi) ka nam kaun nahin janta?
natk aur sandhi panchak
chahe jo bhi drishti ho, natk aur sandhi panchak ka sambandh mana gaya hai sandhi panchak kya hai? bharat natyashastr ke anusar sandhi panchak ka ye swarup hai ha
mukhan pratimukh chaiw garbhon wimarsh ewan ch
tatha nirwahn cheti natke panchsandhayः॥
(naty shastr 19ha37)
jiska abhipray ye hai ki pratyek natk mein mukh, pratimukh, garbh, wimarsh aur nirwahn nam ko panch sandhiyan raha karti hain sandhi panchak ke uparyukt nam natk ke rachnatmak tattwon mein shariratm bhaw ki kalpana ko kuch door tak to protsahit awashy karte hain kintu ant tak nahin jane dete mukh, pratimukh aur garbh tak aisa malum hota hai jaise natk sharir ko prani sharir ke saman dekha ja sakta hai kintu wimarsh aur nirwahn ke samne ye kalpana ruk jati hai ab mukh, pratimukh, garm, wimarsh aur nirwahn roop sandhi panchak kya hai? sambhwat naiyayikon ke pratigya, hetu, drishtant, upnay aur nigman roop panchawayaw pararthanuman waky ke adhar par natyacharyon ki sandhi panchak kalpana nikli hai samast natk ek prakar ka pararthanuman waky hai kala anukrti hai aur kala ki anubhuti ek alaukik anumiti hai—yah prachin kala wishayak bharatiy siddhant sambhwat sandhi panchak ke anusandhan ke mool mein sthit hai is siddhant ka pratipaksh ye siddhant ki kala abhiwyakti hai aur kala ki anubhuti atmanand ki abhiwyakti hai, sandhi panchak ko manata awashy hai kintu ise swatantr nahin apitu ras partantr dekha karta hai
astu, sandhi panchak ki yojna ka abhipray natk ki samast arthrashi ko angangibhaw se paraspar sambaddh banana hai natk ko ek mahawaky kah sakte hain aur natk ka arth ek mahawakyarth hua karta hai jaise kisi pararthanuman waky ke arth mein pratigya, hetu, udaharn, upnay aur nigman roop panchwidh anshon ka wishleshan kiya ja sakta hai waise hi mahawakyarth roop natkarth mein mukh, pratimukh, garm, wimarsh aur nirwahn roop ansh panchak ka nirupan sambhaw hai naiyayikon ki drishti mein prtigya ka jo sthan aur mahatw hai wahi naty shastrkaron ki drishti mein mukhsandhi ka hai naiyayikon ko prtigya ka abhipray hai sadhynirdesh (sadhynirdesh prtigya nyaysutr 1 1 33) jaise ki shabd anity hai ye prtigya hai kyonki yahan anity shabd ko anityatw dharm se wishisht siddh karne ka upakram kiya ja raha hai naty shastrkaron ki mukhsandhi bhi natk ka sadhynirdesh hi hai kintu shabd anity hai ye sadhynirdesh aur mudrarakshas natk ka prathmank roop sadhynirdesh (mukhsandhi) paraspar itne wilakshan hain ki jahan ek mein koi anand nahin wahan dusre mein anand chamatkar hi antapn pratit hota hai naiyayikon ka pratiagywakya to lokgat kinwa loksiddh wishyon ka sadhynirdesh hai kintu natakkar ka mukhsandhiyojan roop jo sadhynirdesh hai wo ek kalatmak wishay wastut ras ke abhiwyanjan ka upakram hai isiliye acharya abhinawgupt ne mukhsandhi ki ye paribhasha ki hai—
arthat mukhyat to mukhsandhi ka abhipray us rasbhaw sundar arth rashi se hai jisse kisi rupak ka upakram kiya jaya karta hai aur upcharatः wo rupak bhag bhi mukhsandhi hi kaha jata hai jinmen is arthrashi ka pratipadan kiya gaya hota hai
mukh sandhi aur iske baad ki sandhi arthat pratimukh sandhi mein wahi sambandh raha karta hai joki prtigya aur hetu mein nyay sammat mana gaya hai pratimukh sandhi natk ki wo arthrashi hai jo mukhsandhi mein upanyast arthrashi ko yuktiyukt roop se paripusht kiya karti hai jaise nyay shastr ki paribhasha mein hetu ka abhipray sadhy sadhan mana gaya hai waise hi naty shastr ki paribhasha mein pratimukh ka abhipray mukh se abhimukhya athwa anukulya bataya gaya hai garbh sandhi ko udaharn athwa drishtant ka pratirup man sakte hain garbh sandhi mein natk ki wo arthrashi nihit raha karti hai jiski yojna natakkar ke naty kala kaushal ki ek pariksha hua karti hai jaise naiyayikon ko udaharn dene mein satark hona paDta hai waise hi natakkaron ko bhi garbhsandhi ki rachna mein nayak aur pratinayak ke paraspar dwandw aur is dwandw mein aasha nirasha ke antardwandw ke prakashan karne aur natk ke lakshya ki or agrasar hone mein paryapt roop se satark hona paDta hai kyonki bina iske natk ke natkabhas mein badal jane ka Dar nirantar bana rahta hai
udaharn ke anantar upnay ka jo sthan aur mahattw nyay shastr mein mana gaya, garbh sandhi ke baad wimarsh sandhi ka bhi waisa hi sthan aur mahattw naty shastr mein nirdisht kiya gaya hai natk mein wimarsh sandhi ke roop mein wo arth rashi upanyast hua karti hai jismen nayak niyatphal prapti ki awastha mein chitrit raha karta hai jahan garbhsandhi mein aasha aur nirasha ka dwandw chalta dikhaya jaya karta hai wahan wimarsh sandhi mein aasha ki prabalta mein bhi nairashy ke aghat ki sambhawana nayak ke dhairya parikshan ke suawsar ke roop mein awashy abhiwyakt ki jaya karti hai acharya abhinawgupt ne tabhi to ye kaha hai—
wimarsh sandhirniyataphlapraptywasthya wyapt, tatr niyatartwan sandehashcheti kimetat? prabahu tarkanantaramapihetwantarawshad waghachchhalrupta parakarne sashyo bhawet, kin na bhawati ihapi ch nimittablat kutashchit samawitamapi phal yada balawta pratyuhyte karnani ch walwanti bhawanti tada janakawighatakyostulybal swat kay na sandeh tulyabalawirodhakawidhiymanawaidhuryawyadhunansandhiymanasphar phalawlauknarya ch purushkarः sutramuddharkandhri bhawtiti tarkanantarmatr sashayः sato nirnay ityetdewochitatram
(abhinaw bharti, tritiy bhag, prishth 27)
naiyayikon ka upnay waky bhi hetu ka paksh mein upsanhar kiya karta hai kyonki bina aisa kiye hetu athwa sadhan ki paksh dharmta spashtatya nahin sthapit ki ja sakti
natk ki antim sandhi nirwahn athwa upasahriti kahi gai hai ye sandhi natk ki wo arth rashi hai jismen charo sandhiyon ki arthrashi samanwit ki gai hoti hai pararthanuman waky mein nigman waky ki yojna ka bhi yahi uddeshy hai ki pratigyat wishay ka hetu nirdesh ke sath isliye pun kathan ho jismen sadhy athwa pratigyat wishay ke wiprit kisi wishay ki siddhi ki sambhawana sarwatha uchchhinn ho jaye jaise pratigya, hetu, udaharn, upnay aur nigman ka prayojan pararthanuman waky ke arth ka sammilit roop se nishpadan hua karta hai waise hi mukh, pratimukh, garm, wimarsh aur nirwahn sandhi ka uddeshy natk roop mahawakyarth ka paraspar sambaddh roop se nishpadan hi hai
sandhi panchak mein kiska sandhan?
sandhi shabd ke arth mein do wastuon ka sambandh antarnihit hai natk mein kaun si do wastuen hain jinka sandhan natakkar ka kartawya hai aur jis kartawya ka palan sandhi panchak ke roop mein dekha jaya karta hai? naty shastrkaron ne yahan ek swar se yahi kaha hai ki awastha panchak aur arthaprakrti panchak ka paraspar samanway sandhi panchak hai arambh aur beej ka samanway mukh sandhi, yatn aur bindu ka sandhan pratimukh sandhi, praptyasha aur pataka ka samanjasy garbh sandhi, niytapti aur prakri ka sambandh wimarsh sandhi tatha phalagam aur kary ka sanyojan nirwahn sandhi hai dashrupakkar ne aspasht kaha hai
arthaprakritayः panch panchawasthasmanwitaः
yathasankhyen jayante mukhadyaः panchsandhayः॥
(dashrupak 1 22)
arthat kramash ek ek awastha ka ek ek arth prakrti se samanway mukhadi sandhi panchak ki ruparekha ka nirman hai
awastha aur arth prakrti
bharat naty shastr mein awastha ka abhipray natk mein nibaddh nayak ke wyaktitw ka uttarottar wikas hai nayak ka wyaktitw hi uske sahaykon athwa wirodhiyon ke wyaktitw ka adhar hua karta hai aur is drishti se natakkar anyany natk chariton ke wyaktitw ka wikas isiliye kiya karta hai jismen nayak ka wyaktitw shatdal kamal ki bhanti unmilit ho uthe jise nayak ka wyaktitw kahte hain wo nayak ki gyan ichha kriya kinwa prayatn shaktiyon ka sammilit roop hua karta hai wastutah natk nibaddh samast wyapar parispand (Drametik ekshan) nayak ke wyaktitw ka bahy roop hai is wyaktitw ka hi wishleshan arambh, yatn, praptyasha, niytapti aur phalagam ki panch awasthaon ki kalpana ka karan hai koi bhi natakkar bina is awastha wishleshan ke natk ki rachna nahin kar sakta kintu kewal in panch awasthaon ki yojna hi natk ki roop rekha ke liye paryapt nahin ye awasthayen to natk jagat ke nirman ki panchtanmatrayen hain inke sath panchamhabhuton ki bhanti panch arth prakritiyon ka bhi sahyog apekshait hai aur tabhi ras bhaw ki antarniyamakta mein natk ka awirbhaw sambhaw hai
arth prakrti kya hai?
arth prakrti ki kalpana bharat natyashastr se prachin hai bharat naty shastr mein jis roop mein arth prakrti ka nirupan hai usse yahi pratit hota hai ki bharat muni ne arth prakrti ki kalpana ko prachin naty darshan se prapt kiya hai bharat muni ne arth prakrti ka ye swarup aur prakar nirdisht kiya hai
itiwritte yathawasthaः pancharambhawikaः smritaः
arthaprakritayः panch bijawika api॥
bijan binduः pataka ch prakri karymew ch
arthaprakritayः panch gyatwa yojya yathawidhi॥
(bharat natyashastr ha 19 20, 21)
arthat jaise natk ke itiwrtt mein prarambh, yatn, praptyasha, niytapti aur phalagam ki panch awasthayen upanibaddh hua karti hain waise hi beej, bindu, pataka, prakri aur kary ki panch arth prakritiyon ki bhi yojna swabhawik hai
awastha panchak ke sambandh mein to naty shastrkaron mein koi matbhed nahin, kintu arthaprakrti panchak ke swarup nirdharan mein kai ek kalpnayen ki gai hain acharya abhinawgupt ne kisi natyacharya ke mat ka ullekh karte hue ye kaha hai ki arth prakrti ka abhipray arth ki, samast rupak ke wachy ki, prakrti athwa awyaw kalpana ka hai is mat khanDan karte hue unka kahna ye hai ki yadi arth prakrti ko samast rupkarth ke awayawbhut arth khanD mana gaya tab arth prakrti aur panchsandhi mein antar kya raha? jise samast rupkarya kah sakte hain wo itiwrtt ke atirikt aur kya hai? aur sandhi panchak ke atirikt itiwrtt ke awyaw khanD bhi to aur kuch nahin arth prakrti ka abhipray kuch aur hona chahiye arth prakrti ko rupak ke itiwrtt rup arth mein sanyojit prakrti athwa awyaw kalpana manna bhi theek nahin kyonki tab hamein kewal prakrti kahna praryapt hai na ki arth prakrti bharat muni ne itiwrtt arth prakritay kaha hai yadi itiwrtt aur arth samanarthak hain tab beej, bindu aadi ko prakrti panchak kahna uchit hai na ki arth prakrti panchak
pray prakrti ka rahasy kya ho sakta hai? arth ka abhipray itiwrtt roop rupawachyay nahin apitu phal hai is prakar beej, bindu bhadi ko jo marth prakrti kaha jata hai us ka yahi tatpary hai ki ye pancho natk mein math athwa phal ki prakrti athwa upay ya sadhan hain
arth prakrti panchak kiske phal ke upay?
naty shastrkaron ne arth prakrti ko jis drishti se phalopay kaha hai uska spashtikarn nahin kiya hai kintu ismen bhi ek saty chhipa hai kai drishtiyon se arth prakrti ko phalopay mana ja sakta hai arth prakrti natakkar ki drishti mein bhi phalopay hai jiska wiwechan aur wishleshan naty shastr ka kaam hai aur nayak ki drishti se bhi, jiska wichar wimarsh natakkar ka naty kaushal hai nayak ke sath natakkar aur natk darshak ke sadharanaikarn ki dharana ka hi sambhwat ye prabhaw hai ki nayak ke bijokshep athwa natakkar ke bijokshep ka spashtikarn sanskrit naty shastr mein nahin kiya gaya jahan mudrarakshas (४ ३) ki ye ukti
kurwan buddhya wimarsh prasritamapi pun sanhran karyajatan,
karta wa natkanamimamanubhawati kleshasmad wigho wa॥
is baat ki or sanket karti hai ki beej, bindu aadi arth prakritiyon aur arambh aadi awasthaon ki samichin yojna natakkar ki naty kala ka kaam hai, wahan naty darpan ki ye ukti—
neturmukhya phalan prati bijadyu payan pryokturwastha prdhanwrittawishye kay wai mansan wyaparaः
(natydarpan, prishth 48)
ye nirdesh karti hai ki beej aadi phalopay (arth prakrti) ka sambandh uske prayokta nayak se hai aisa lagta hai jaise arthshastr ki rajyaprakriti ki bhanti, naty shastr ne arthaprakrti ki kalpana ki hai rajy jaise sapt prakrti hua karta hai waise hi naty panchaprakriti jaise rajy ki sat prakritiyan swami athwa raja ke niyantran mein apna astitw rakha karti hain waise hi natk ki panch arth prakritiyan natk ki niyamakta mein karykar hua karti hain
natk ka nayak wastawik jiwan ka mahapurush hua karta hai dharm, arth aur kaam mein se kisi phal ki abhilasha uske wyaktitw ki mool prerna hua karti hai apne athwa apne sahaykon ke nanawidh kary wyapar athwa anukul bhagya ki prerna ke roop mein wo apne dharmarth kaam roop phal ke liye beej boya karta hai kisi beej ke awap matr se hi phal nahin mil jata jaise kisi mali ko beej bone ke baad samay samay par pani Dalna (bindu nikshaep athwa jalbindu nikshaep karna) paDta hai waise hi natk ka nayak bhi apne dhamarth kaam roop phal ke beej ko bindu ke dwara apne athwa sahaykon ke wyapar mein, wighn badhaon ki muthbheD ke karan, ugrata athwa shaktimatta ke adhan ke dwara sinchta raha karta hai beej ke upakshaep kinwa bindu ke nikshaep ki kriya nanawidh sadhan samagri ki apeksha karti hai nayak bhi beej aur bindu ko saphal kinwa kary kar banane ke liye nana prakar ke sadhnon ki apeksha karta hai jo ki naty shastr ki paribhasha mein kary (prdhannayak patakanayak prakarinayakai sadhye pardhan phalatwenabhipret te wijasya prarambhawasyotkshiptasya prdhanopayasya sahkari sampurntadayi sainy kosh durg samadyu paylakshnon drawyagunakriya prbhuti sarwoऽrthashchetanai karyte phalamiti kayam natydarpan, prishth 47) kahe gaye hain jaise wriksharopan mein pataka ki sthapana ka prayojan ek manglik kary mein samajik sahyog aur sadbhawana ka niyantran hai waise hi natk ka nayak bhi apne mahan udyog mein pataka ki sthapana kiya karte hain wo uske sahaykon ko sadbhawana aur uski phal siddhi mein sahaykon ki satat jagarukata ka ahwan kiya karti hai wriksh ki rakhsha ke liye kabhi kabhi chhote chhote sadhan bhi awashyak hua karte hain nayak bhi apne dharm athwa arth athwa kaam roop wriksh ki rakhsha ke liye aise sahaykon ki apeksha kiya karta hai jo chhote hone par bhi mahattwapurn hua karte hain natyashala ki paribhashikta mein inhen prakri kaha karte hain
in uparyukt panch arth prakritiyon athwa phalopayo mein beej, bindu aur kary to apne apmen adhik mahattwapurn hain kintu, pataka aur prakri ka mahattw nayak ki janapriyta par awlambit hai abhinawguptacharya ne in phalopayo ko jaD aur chetan roop mein wibhakt kiya hai beej aur kary to achetan phalopay hain aur bindu, pataka tatha prakri chetan phalopay in chetnatmak aur achetnatmak phalopayo ka anusandhan kinwa prayog nayak kiya karta hai aur isiliye natakkar ka ye karttawya ho jata hai ki wo bhi inhen nayak ke charitr chitran mein
yathasthan kinwa yathochit roop se chitrit kare
natk mein arthaprakrti yojna
jabki natakkar nayak dwara prayukt phalopayo ki natkiya yojna prarambh karta hai tab uska uddeshy laukik dharmarth kaam ki prapt nahin apitu us alaukik anand ka sahrday hirdai mein abhiwyanjan ho jaya karta hai jise ras kaha karte hain naty mein jo kuch hai wo ras hai—rasapranon hi natyawidhi—yahi natyshastrkaron ki natk sambandhi manyata hai is prakar beej, bindu, pataka, prakri aur kary ramanipatti sp phal ke upay ban jate hain nayak ne—lok jiwan ke kisi mahapurash ne—anukul bhagya ki prerna athwa apne paurush ya apne sahaykon ke adhyawsay ke roop apne dharmarth kaam roop phal ka jo beej boya hoga wahi jab natakkar ki kala dwara natk mein nikshit kiya jaya karta hai tab nana prakar ke ras bhagon ka abhiwyanja ho jaya karta hai lok mein nayak aywa uske mahapaph ka apne apne adhyawsay aadi ke roop mein beej nikshaep kisi darshak ke liye dukhad bhi ho sakta hai kintu naty mein upakshipt yahi beej chahe wo bhagya ki anukulata matr ho, nayak aadi ka awyawsay roop ho, nayak par paDne wale sankton ka nirdesh matr ho, sankton ki muthbheD mein naykon ka adamy wyaktitw roop ho, jaisa bhi ho, ek matr wiwidh ras bhawon ka bhawak athwa wyanjak ban jaya karta hai udaharn ke liye, mudrarakshas natk mein natakkar ne, chandragupt par paDne wale sankton ke niwaran ke liye chanakya ke mahan adhyawsay ko jo beej roop mein boya hai wo sangharsh, aaweg, chinta protsukya aadi aadi bhawon ke roop mein sahrday hirdai mein ankurit hote hue weer ras ka nishpadak ban raha hai yahan koot lekh ki yojna, guptachron ki un koot chalon mein niyukti aadi ghatnayen hi beej ki shakha prashakha ke roop mein nikal rahi hain aur inka ant sar hai wo chanakya ki mahattwakanksha ka unmesh roop hai mudrarakshas ke itiwrtt roop sharir ki drishti se ye sab prsang mukh sandhi hai jismen wirbhawotsikt chanakya ki rajnitik mahattwakanksha ke kritrim wikas roop mein, rakshas dwara kiye ja sakne wale un un akramn ke un un pratirodh upayon ke chintan ka ras nirbhar beej boya hua hai wahi beej jahan chanakya nayak ke rakshas washikar roop phal ka nidan hai, wahan sahrday samajik ke hirdai mein weer ras ke abhiwyanjna ka bhi nidan hai
bindu nikshaep ka prayojan upakshipt beej ka ankurn aadi hua karta hai bindu ke roop mein natakkar nayak ke pryatnon ka abhiwyanjna karta hai aur iske prabhaw mein natk ka itiwrtt ek wichitrata se prwahit ho uthta hai jaise ki mudrarakshas mein hi natakkar ne chaar niwedan (guptachron dwara un un paristhitiyon ke parigyan), mudra labh (rakshas ki anguthi ka charnakya ke hath paDna), kapatlekh nishpadan aadi writton ki jo yojna ki hai wo wastut bindu nikshaep hi hai jiski sahayata se chanakya ki mahatwakanksha ka beej uttarottar udiyaman kinwa samrddh hote dikhai de raha hai isi prakar yahan pratinayak rakshas dwara nikshaipt chanakya aur chandragupt ke paraspar bhed ki yojna ka jo beej natakkar ne boya hai use bhi chaar niwedan, uttejak prashasti rachna aadi ghatnachakr ke bindu nikshaep se baDi kushalta se sincha hai bindu sek se paripusht ye beej sahrday hirdai mein weer ras bhaw ke udghatan ki paryapt samarthy rakhta hai
bindu ke baad kary hi arthaprakrti yojna mein adhik mahatw rakhta hai kary ka abhipray us anyany sadhan samagri ki yojna hai jo beej ke uttarottar wikas mein sahayak hua karti hai sadhye beej sahkari karyam (natydarpan, prishth 47) kuch natyshastrkar kary ka abhipray dharmarth kaam roop purusharth mante hain dashrupakkar ne hi aspasht kaha hai
kary triwargastachchhuddhamekanekanuwadhi ch
dashrupak ha1 16
arthat prithak prithak athwa paraspar anushakt dharm, arth aur kaam hi kary hai kintu ye kary paribhasha is prakar ki hai jiske dekhte kary ko arth prakrti kahna asambhau ho jata hai kary ko bharat muni ne arth prakritiyon mein sthan diya hai isliye, jaisa ki acharya abhinawgupt ka kahna hai, kary ka abhipray dharmarth kaam roop purusharth nahin apitu un 2 natkon mein upanibaddh janpad, kosh, durg aadi ka wyapar waichitry wastut ek shabd mein bij—sahkari sadhan samuh—hi hai jiske prabhaw mein kisi bhi nayak ki mahatwakanksha uske hirdai mein hi utpann wilin dikhai ja sakti hai na ki karykar athwa saphal hote hue chitrit ki ja sakti hai acharya abhinawgupt ne isiliye kaha hai—
mudaraksham mein hi sam, dam, danD aadi niti chintan kinwa sainy sanah aadi ghatnaon ki jo yojna hai wo kary roop arth prakrti ki hi yojna hai ye kary yojna sahrday hirdai mein niti wishayak utsah ke udbodhan ka ek atyant awashyak nidan hai
is prakar beej, bindu aur kary roop teen arth prakritiyan un natkon mein aniwary roop se upanibaddh raha karti hain jinke nayak ekmatr aatm paurush ke dhani hua karte hain, apne parakram ka adamy aatm wishwas rakha karte hain aur jinka kary siddhi unke atmotsah ki hi apeksha kiya karti hai mudrarakshas natk ke nayak ka aisa hi wyaktitw hai—swaprakram bahubhanshali wyaktitw—aur isiliye is natk mein beej, bindu aur kary ki teen arth prakritiyon ki hi yojna hai
natyacharya bharat ne isiliye kaha hai ha
eteshan yasya yenarthon yatashch gun ishyte
tat pardhan tu karttawya gunbhutanyat param॥
(natayshastr 19 27)
arthat natk mein awastha panchak ki bhanti arthaprakrti panchak ki yojna nahin hua karti awastha panchak ka to aniwaryat natk mein upanibandh hua karta hai kintu arth panchak ki aniwary yojna awashyak nahin nayak ke wyaktitw ki drishti se uske phalopayo ki yojna awashyak hai beej bindu aur kary to nayak matr ke phalopay hain kintu pataka aur prakri unhin naykon ke phalopay roop mein upanibaddh ho sakti hain jo lok jiwan mein janapriy rah chuke hain, jinke dharmarthkam roop purusharth labh mein jan sahayya mil chuka hai aur jinka utkarsh jan jiwan par sthai kinwa wyapak prabhaw Dal chuka hai
pataka aur prakri—donon arth prakritiyan hain pataka bharat natyashastr mein is prakar pratipadit hai
yadwrirtt tu pararth syat prdhanasyopkarkam
prdhanwachch kalpyet sa pataketi kirtita
naty shastr ha19 24
aur prakri is prakar—
phalan prkalpyte yasyaः pararthayaiw kewlam
anubandhawihinatwat prkriti winidishet॥
(naty shastrः 19 25)
abhipray ye hai ki pataka aur prakri us natk ke prasangik writt hain jiske nayak ki dharmarthkam roop phal siddhi upnayak athwa sahayak ke bhi pryatnon ki apeksha karti hai panchon arth prakritiyon mein kewal pataka aur prakri hi wastut natk ke awantar writt ke roop mein naty shastrkaron dwara nirdisht hain beej bindu aur kary arth prakrti to awashy hain kintu prasangik writt nahin wastut beej, bindu aur kary mein natk ki arthaprakrti athwa phalopayaprampra ki kalpana isiliye ki gai hai ki inhin ke dwara natk ke adhikarik itiwrtt (men plaॉt) ka uttrotar wikas hua karta hai aur yathasthan adhikarik aur prasangik itiwrit ka sanshlisht roop natkiya itiwrtt prakat hua karta hai
arth prakritiyon ki yojna ka uddeshy
natk mein arth prakritiyon ki yojna se hi nayak ka charit wikas natkiya bana karta hai kewal awastha panchak ke wishleshan mein natk ki ruparekha nahin khaDi ho sakti awastha panchak ki yojna se rasbhaw ki dharayen prwahit ho sakti hain kintu natk ke roop mein ras srot ka darshan tabhi ho sakta hai jabki arth prakrti yojna hui ho sandhi panchak ki kalpana bhi arth prakrti ki kalpana par hi awlambit hai sanwyango ka swarup beej, bindu aur kary ki arth prakrti par hi nirbhar hai sandhyango ke roop mein naty shastr natk ke jis kathnopakthan ka wishad wishleshan karta hai wo wastut arth prakrti yojna ke hi rahasy ka spashtikarn hai kya awastha panchak, kya arthaprakrti panchak aur kya sandhi panchak, sabhi ke sabhi natk ke kathnopakthan mein hi apna astitw aur uddeshy rakhte hain natakkar yadi charit wikas ki drishti se awasthaon ka uttarottar sanshlisht wikas karta hai to itiwrtt ki drishti se arth prakritiyon ka yathochit saniwesh rachta hai sandhi panchak is sanshlisht itiwrtt ke awaywarth roop nikalte hain aur ras hai is natk rachna ka antastattw, ant sar kinwa antarniyamak
sandhi panchakः natk ka rachnatmak tattw
sanskrit naty shastr mein natk ka jo rachnatmak wishleshan hai usmen sandhi panchak (panch sandhiyon) ka hi mahatw sarwopari hai natakkar sandhi panchak ki yojna karte hue natk ki rachna nahin kiya karta natakkar ki kala natk ki ruparekha awishkrit kiya karti hai aur is ruparekha mein sandhi panchak ki yojna swabhawat hua karti hai ye to naty shastrkaron ki samiksha hai jo naty kriti ko panch sandhiyon ke roop mein sanshlisht aur sanghtit dekha karti hai sandhi panchak ki kalpana natk nirman ke sambandh mein naty shastrkaron ki kalpana hai is kalpana mein yatharth kinwa adarshawadi darshnon ki sirishti wishayak kalpanaon ka paryapt hath hai yatharthawadi darshan ke anusar sandhi panchak ka astitw wastawik siddh hota hai aur adarshawadi darshan ki drishti mein sandhi panchak ko wyawaharik astitw mil sakta hai sandhi panchak ko wastawik manne wale bhi naty shastrakar hain aur wyawaharik manne wale bhi bharat natyashastr mein donon prakar ki sambhawnaon ke sootr milte hain sandhi pachak ko wastawik manne wale acharyon ki paranpra sambhwat adhik prachin hai bharat natyashastr mein sandhi panchak ka nirupan koi nawin siddhant nahin apitu prachin maryada ka anusarn sa lagta hai sandhi panchak ki wastawik satta ke samarthak acharyon mein dashrupak ke rachyita acharya dhananjay aur dhanik (8ween 9ween shatabdi) wishesh ullekhaniy hai aur sandhi panchak ko naty sirishti ke niyamak, kinwa nirdharak ras roop aatm tattw ka abhas manne wale acharyon mein abhinawguptpada (10ween shatabdi) ka nam kaun nahin janta?
natk aur sandhi panchak
chahe jo bhi drishti ho, natk aur sandhi panchak ka sambandh mana gaya hai sandhi panchak kya hai? bharat natyashastr ke anusar sandhi panchak ka ye swarup hai ha
mukhan pratimukh chaiw garbhon wimarsh ewan ch
tatha nirwahn cheti natke panchsandhayः॥
(naty shastr 19ha37)
jiska abhipray ye hai ki pratyek natk mein mukh, pratimukh, garbh, wimarsh aur nirwahn nam ko panch sandhiyan raha karti hain sandhi panchak ke uparyukt nam natk ke rachnatmak tattwon mein shariratm bhaw ki kalpana ko kuch door tak to protsahit awashy karte hain kintu ant tak nahin jane dete mukh, pratimukh aur garbh tak aisa malum hota hai jaise natk sharir ko prani sharir ke saman dekha ja sakta hai kintu wimarsh aur nirwahn ke samne ye kalpana ruk jati hai ab mukh, pratimukh, garm, wimarsh aur nirwahn roop sandhi panchak kya hai? sambhwat naiyayikon ke pratigya, hetu, drishtant, upnay aur nigman roop panchawayaw pararthanuman waky ke adhar par natyacharyon ki sandhi panchak kalpana nikli hai samast natk ek prakar ka pararthanuman waky hai kala anukrti hai aur kala ki anubhuti ek alaukik anumiti hai—yah prachin kala wishayak bharatiy siddhant sambhwat sandhi panchak ke anusandhan ke mool mein sthit hai is siddhant ka pratipaksh ye siddhant ki kala abhiwyakti hai aur kala ki anubhuti atmanand ki abhiwyakti hai, sandhi panchak ko manata awashy hai kintu ise swatantr nahin apitu ras partantr dekha karta hai
astu, sandhi panchak ki yojna ka abhipray natk ki samast arthrashi ko angangibhaw se paraspar sambaddh banana hai natk ko ek mahawaky kah sakte hain aur natk ka arth ek mahawakyarth hua karta hai jaise kisi pararthanuman waky ke arth mein pratigya, hetu, udaharn, upnay aur nigman roop panchwidh anshon ka wishleshan kiya ja sakta hai waise hi mahawakyarth roop natkarth mein mukh, pratimukh, garm, wimarsh aur nirwahn roop ansh panchak ka nirupan sambhaw hai naiyayikon ki drishti mein prtigya ka jo sthan aur mahatw hai wahi naty shastrkaron ki drishti mein mukhsandhi ka hai naiyayikon ko prtigya ka abhipray hai sadhynirdesh (sadhynirdesh prtigya nyaysutr 1 1 33) jaise ki shabd anity hai ye prtigya hai kyonki yahan anity shabd ko anityatw dharm se wishisht siddh karne ka upakram kiya ja raha hai naty shastrkaron ki mukhsandhi bhi natk ka sadhynirdesh hi hai kintu shabd anity hai ye sadhynirdesh aur mudrarakshas natk ka prathmank roop sadhynirdesh (mukhsandhi) paraspar itne wilakshan hain ki jahan ek mein koi anand nahin wahan dusre mein anand chamatkar hi antapn pratit hota hai naiyayikon ka pratiagywakya to lokgat kinwa loksiddh wishyon ka sadhynirdesh hai kintu natakkar ka mukhsandhiyojan roop jo sadhynirdesh hai wo ek kalatmak wishay wastut ras ke abhiwyanjan ka upakram hai isiliye acharya abhinawgupt ne mukhsandhi ki ye paribhasha ki hai—
arthat mukhyat to mukhsandhi ka abhipray us rasbhaw sundar arth rashi se hai jisse kisi rupak ka upakram kiya jaya karta hai aur upcharatः wo rupak bhag bhi mukhsandhi hi kaha jata hai jinmen is arthrashi ka pratipadan kiya gaya hota hai
mukh sandhi aur iske baad ki sandhi arthat pratimukh sandhi mein wahi sambandh raha karta hai joki prtigya aur hetu mein nyay sammat mana gaya hai pratimukh sandhi natk ki wo arthrashi hai jo mukhsandhi mein upanyast arthrashi ko yuktiyukt roop se paripusht kiya karti hai jaise nyay shastr ki paribhasha mein hetu ka abhipray sadhy sadhan mana gaya hai waise hi naty shastr ki paribhasha mein pratimukh ka abhipray mukh se abhimukhya athwa anukulya bataya gaya hai garbh sandhi ko udaharn athwa drishtant ka pratirup man sakte hain garbh sandhi mein natk ki wo arthrashi nihit raha karti hai jiski yojna natakkar ke naty kala kaushal ki ek pariksha hua karti hai jaise naiyayikon ko udaharn dene mein satark hona paDta hai waise hi natakkaron ko bhi garbhsandhi ki rachna mein nayak aur pratinayak ke paraspar dwandw aur is dwandw mein aasha nirasha ke antardwandw ke prakashan karne aur natk ke lakshya ki or agrasar hone mein paryapt roop se satark hona paDta hai kyonki bina iske natk ke natkabhas mein badal jane ka Dar nirantar bana rahta hai
udaharn ke anantar upnay ka jo sthan aur mahattw nyay shastr mein mana gaya, garbh sandhi ke baad wimarsh sandhi ka bhi waisa hi sthan aur mahattw naty shastr mein nirdisht kiya gaya hai natk mein wimarsh sandhi ke roop mein wo arth rashi upanyast hua karti hai jismen nayak niyatphal prapti ki awastha mein chitrit raha karta hai jahan garbhsandhi mein aasha aur nirasha ka dwandw chalta dikhaya jaya karta hai wahan wimarsh sandhi mein aasha ki prabalta mein bhi nairashy ke aghat ki sambhawana nayak ke dhairya parikshan ke suawsar ke roop mein awashy abhiwyakt ki jaya karti hai acharya abhinawgupt ne tabhi to ye kaha hai—
wimarsh sandhirniyataphlapraptywasthya wyapt, tatr niyatartwan sandehashcheti kimetat? prabahu tarkanantaramapihetwantarawshad waghachchhalrupta parakarne sashyo bhawet, kin na bhawati ihapi ch nimittablat kutashchit samawitamapi phal yada balawta pratyuhyte karnani ch walwanti bhawanti tada janakawighatakyostulybal swat kay na sandeh tulyabalawirodhakawidhiymanawaidhuryawyadhunansandhiymanasphar phalawlauknarya ch purushkarः sutramuddharkandhri bhawtiti tarkanantarmatr sashayः sato nirnay ityetdewochitatram
(abhinaw bharti, tritiy bhag, prishth 27)
naiyayikon ka upnay waky bhi hetu ka paksh mein upsanhar kiya karta hai kyonki bina aisa kiye hetu athwa sadhan ki paksh dharmta spashtatya nahin sthapit ki ja sakti
natk ki antim sandhi nirwahn athwa upasahriti kahi gai hai ye sandhi natk ki wo arth rashi hai jismen charo sandhiyon ki arthrashi samanwit ki gai hoti hai pararthanuman waky mein nigman waky ki yojna ka bhi yahi uddeshy hai ki pratigyat wishay ka hetu nirdesh ke sath isliye pun kathan ho jismen sadhy athwa pratigyat wishay ke wiprit kisi wishay ki siddhi ki sambhawana sarwatha uchchhinn ho jaye jaise pratigya, hetu, udaharn, upnay aur nigman ka prayojan pararthanuman waky ke arth ka sammilit roop se nishpadan hua karta hai waise hi mukh, pratimukh, garm, wimarsh aur nirwahn sandhi ka uddeshy natk roop mahawakyarth ka paraspar sambaddh roop se nishpadan hi hai
sandhi panchak mein kiska sandhan?
sandhi shabd ke arth mein do wastuon ka sambandh antarnihit hai natk mein kaun si do wastuen hain jinka sandhan natakkar ka kartawya hai aur jis kartawya ka palan sandhi panchak ke roop mein dekha jaya karta hai? naty shastrkaron ne yahan ek swar se yahi kaha hai ki awastha panchak aur arthaprakrti panchak ka paraspar samanway sandhi panchak hai arambh aur beej ka samanway mukh sandhi, yatn aur bindu ka sandhan pratimukh sandhi, praptyasha aur pataka ka samanjasy garbh sandhi, niytapti aur prakri ka sambandh wimarsh sandhi tatha phalagam aur kary ka sanyojan nirwahn sandhi hai dashrupakkar ne aspasht kaha hai
arthaprakritayः panch panchawasthasmanwitaः
yathasankhyen jayante mukhadyaः panchsandhayः॥
(dashrupak 1 22)
arthat kramash ek ek awastha ka ek ek arth prakrti se samanway mukhadi sandhi panchak ki ruparekha ka nirman hai
awastha aur arth prakrti
bharat naty shastr mein awastha ka abhipray natk mein nibaddh nayak ke wyaktitw ka uttarottar wikas hai nayak ka wyaktitw hi uske sahaykon athwa wirodhiyon ke wyaktitw ka adhar hua karta hai aur is drishti se natakkar anyany natk chariton ke wyaktitw ka wikas isiliye kiya karta hai jismen nayak ka wyaktitw shatdal kamal ki bhanti unmilit ho uthe jise nayak ka wyaktitw kahte hain wo nayak ki gyan ichha kriya kinwa prayatn shaktiyon ka sammilit roop hua karta hai wastutah natk nibaddh samast wyapar parispand (Drametik ekshan) nayak ke wyaktitw ka bahy roop hai is wyaktitw ka hi wishleshan arambh, yatn, praptyasha, niytapti aur phalagam ki panch awasthaon ki kalpana ka karan hai koi bhi natakkar bina is awastha wishleshan ke natk ki rachna nahin kar sakta kintu kewal in panch awasthaon ki yojna hi natk ki roop rekha ke liye paryapt nahin ye awasthayen to natk jagat ke nirman ki panchtanmatrayen hain inke sath panchamhabhuton ki bhanti panch arth prakritiyon ka bhi sahyog apekshait hai aur tabhi ras bhaw ki antarniyamakta mein natk ka awirbhaw sambhaw hai
arth prakrti kya hai?
arth prakrti ki kalpana bharat natyashastr se prachin hai bharat naty shastr mein jis roop mein arth prakrti ka nirupan hai usse yahi pratit hota hai ki bharat muni ne arth prakrti ki kalpana ko prachin naty darshan se prapt kiya hai bharat muni ne arth prakrti ka ye swarup aur prakar nirdisht kiya hai
itiwritte yathawasthaः pancharambhawikaः smritaः
arthaprakritayः panch bijawika api॥
bijan binduः pataka ch prakri karymew ch
arthaprakritayः panch gyatwa yojya yathawidhi॥
(bharat natyashastr ha 19 20, 21)
arthat jaise natk ke itiwrtt mein prarambh, yatn, praptyasha, niytapti aur phalagam ki panch awasthayen upanibaddh hua karti hain waise hi beej, bindu, pataka, prakri aur kary ki panch arth prakritiyon ki bhi yojna swabhawik hai
awastha panchak ke sambandh mein to naty shastrkaron mein koi matbhed nahin, kintu arthaprakrti panchak ke swarup nirdharan mein kai ek kalpnayen ki gai hain acharya abhinawgupt ne kisi natyacharya ke mat ka ullekh karte hue ye kaha hai ki arth prakrti ka abhipray arth ki, samast rupak ke wachy ki, prakrti athwa awyaw kalpana ka hai is mat khanDan karte hue unka kahna ye hai ki yadi arth prakrti ko samast rupkarth ke awayawbhut arth khanD mana gaya tab arth prakrti aur panchsandhi mein antar kya raha? jise samast rupkarya kah sakte hain wo itiwrtt ke atirikt aur kya hai? aur sandhi panchak ke atirikt itiwrtt ke awyaw khanD bhi to aur kuch nahin arth prakrti ka abhipray kuch aur hona chahiye arth prakrti ko rupak ke itiwrtt rup arth mein sanyojit prakrti athwa awyaw kalpana manna bhi theek nahin kyonki tab hamein kewal prakrti kahna praryapt hai na ki arth prakrti bharat muni ne itiwrtt arth prakritay kaha hai yadi itiwrtt aur arth samanarthak hain tab beej, bindu aadi ko prakrti panchak kahna uchit hai na ki arth prakrti panchak
pray prakrti ka rahasy kya ho sakta hai? arth ka abhipray itiwrtt roop rupawachyay nahin apitu phal hai is prakar beej, bindu bhadi ko jo marth prakrti kaha jata hai us ka yahi tatpary hai ki ye pancho natk mein math athwa phal ki prakrti athwa upay ya sadhan hain
arth prakrti panchak kiske phal ke upay?
naty shastrkaron ne arth prakrti ko jis drishti se phalopay kaha hai uska spashtikarn nahin kiya hai kintu ismen bhi ek saty chhipa hai kai drishtiyon se arth prakrti ko phalopay mana ja sakta hai arth prakrti natakkar ki drishti mein bhi phalopay hai jiska wiwechan aur wishleshan naty shastr ka kaam hai aur nayak ki drishti se bhi, jiska wichar wimarsh natakkar ka naty kaushal hai nayak ke sath natakkar aur natk darshak ke sadharanaikarn ki dharana ka hi sambhwat ye prabhaw hai ki nayak ke bijokshep athwa natakkar ke bijokshep ka spashtikarn sanskrit naty shastr mein nahin kiya gaya jahan mudrarakshas (४ ३) ki ye ukti
kurwan buddhya wimarsh prasritamapi pun sanhran karyajatan,
karta wa natkanamimamanubhawati kleshasmad wigho wa॥
is baat ki or sanket karti hai ki beej, bindu aadi arth prakritiyon aur arambh aadi awasthaon ki samichin yojna natakkar ki naty kala ka kaam hai, wahan naty darpan ki ye ukti—
neturmukhya phalan prati bijadyu payan pryokturwastha prdhanwrittawishye kay wai mansan wyaparaः
(natydarpan, prishth 48)
ye nirdesh karti hai ki beej aadi phalopay (arth prakrti) ka sambandh uske prayokta nayak se hai aisa lagta hai jaise arthshastr ki rajyaprakriti ki bhanti, naty shastr ne arthaprakrti ki kalpana ki hai rajy jaise sapt prakrti hua karta hai waise hi naty panchaprakriti jaise rajy ki sat prakritiyan swami athwa raja ke niyantran mein apna astitw rakha karti hain waise hi natk ki panch arth prakritiyan natk ki niyamakta mein karykar hua karti hain
natk ka nayak wastawik jiwan ka mahapurush hua karta hai dharm, arth aur kaam mein se kisi phal ki abhilasha uske wyaktitw ki mool prerna hua karti hai apne athwa apne sahaykon ke nanawidh kary wyapar athwa anukul bhagya ki prerna ke roop mein wo apne dharmarth kaam roop phal ke liye beej boya karta hai kisi beej ke awap matr se hi phal nahin mil jata jaise kisi mali ko beej bone ke baad samay samay par pani Dalna (bindu nikshaep athwa jalbindu nikshaep karna) paDta hai waise hi natk ka nayak bhi apne dhamarth kaam roop phal ke beej ko bindu ke dwara apne athwa sahaykon ke wyapar mein, wighn badhaon ki muthbheD ke karan, ugrata athwa shaktimatta ke adhan ke dwara sinchta raha karta hai beej ke upakshaep kinwa bindu ke nikshaep ki kriya nanawidh sadhan samagri ki apeksha karti hai nayak bhi beej aur bindu ko saphal kinwa kary kar banane ke liye nana prakar ke sadhnon ki apeksha karta hai jo ki naty shastr ki paribhasha mein kary (prdhannayak patakanayak prakarinayakai sadhye pardhan phalatwenabhipret te wijasya prarambhawasyotkshiptasya prdhanopayasya sahkari sampurntadayi sainy kosh durg samadyu paylakshnon drawyagunakriya prbhuti sarwoऽrthashchetanai karyte phalamiti kayam natydarpan, prishth 47) kahe gaye hain jaise wriksharopan mein pataka ki sthapana ka prayojan ek manglik kary mein samajik sahyog aur sadbhawana ka niyantran hai waise hi natk ka nayak bhi apne mahan udyog mein pataka ki sthapana kiya karte hain wo uske sahaykon ko sadbhawana aur uski phal siddhi mein sahaykon ki satat jagarukata ka ahwan kiya karti hai wriksh ki rakhsha ke liye kabhi kabhi chhote chhote sadhan bhi awashyak hua karte hain nayak bhi apne dharm athwa arth athwa kaam roop wriksh ki rakhsha ke liye aise sahaykon ki apeksha kiya karta hai jo chhote hone par bhi mahattwapurn hua karte hain natyashala ki paribhashikta mein inhen prakri kaha karte hain
in uparyukt panch arth prakritiyon athwa phalopayo mein beej, bindu aur kary to apne apmen adhik mahattwapurn hain kintu, pataka aur prakri ka mahattw nayak ki janapriyta par awlambit hai abhinawguptacharya ne in phalopayo ko jaD aur chetan roop mein wibhakt kiya hai beej aur kary to achetan phalopay hain aur bindu, pataka tatha prakri chetan phalopay in chetnatmak aur achetnatmak phalopayo ka anusandhan kinwa prayog nayak kiya karta hai aur isiliye natakkar ka ye karttawya ho jata hai ki wo bhi inhen nayak ke charitr chitran mein
yathasthan kinwa yathochit roop se chitrit kare
natk mein arthaprakrti yojna
jabki natakkar nayak dwara prayukt phalopayo ki natkiya yojna prarambh karta hai tab uska uddeshy laukik dharmarth kaam ki prapt nahin apitu us alaukik anand ka sahrday hirdai mein abhiwyanjan ho jaya karta hai jise ras kaha karte hain naty mein jo kuch hai wo ras hai—rasapranon hi natyawidhi—yahi natyshastrkaron ki natk sambandhi manyata hai is prakar beej, bindu, pataka, prakri aur kary ramanipatti sp phal ke upay ban jate hain nayak ne—lok jiwan ke kisi mahapurash ne—anukul bhagya ki prerna athwa apne paurush ya apne sahaykon ke adhyawsay ke roop apne dharmarth kaam roop phal ka jo beej boya hoga wahi jab natakkar ki kala dwara natk mein nikshit kiya jaya karta hai tab nana prakar ke ras bhagon ka abhiwyanja ho jaya karta hai lok mein nayak aywa uske mahapaph ka apne apne adhyawsay aadi ke roop mein beej nikshaep kisi darshak ke liye dukhad bhi ho sakta hai kintu naty mein upakshipt yahi beej chahe wo bhagya ki anukulata matr ho, nayak aadi ka awyawsay roop ho, nayak par paDne wale sankton ka nirdesh matr ho, sankton ki muthbheD mein naykon ka adamy wyaktitw roop ho, jaisa bhi ho, ek matr wiwidh ras bhawon ka bhawak athwa wyanjak ban jaya karta hai udaharn ke liye, mudrarakshas natk mein natakkar ne, chandragupt par paDne wale sankton ke niwaran ke liye chanakya ke mahan adhyawsay ko jo beej roop mein boya hai wo sangharsh, aaweg, chinta protsukya aadi aadi bhawon ke roop mein sahrday hirdai mein ankurit hote hue weer ras ka nishpadak ban raha hai yahan koot lekh ki yojna, guptachron ki un koot chalon mein niyukti aadi ghatnayen hi beej ki shakha prashakha ke roop mein nikal rahi hain aur inka ant sar hai wo chanakya ki mahattwakanksha ka unmesh roop hai mudrarakshas ke itiwrtt roop sharir ki drishti se ye sab prsang mukh sandhi hai jismen wirbhawotsikt chanakya ki rajnitik mahattwakanksha ke kritrim wikas roop mein, rakshas dwara kiye ja sakne wale un un akramn ke un un pratirodh upayon ke chintan ka ras nirbhar beej boya hua hai wahi beej jahan chanakya nayak ke rakshas washikar roop phal ka nidan hai, wahan sahrday samajik ke hirdai mein weer ras ke abhiwyanjna ka bhi nidan hai
bindu nikshaep ka prayojan upakshipt beej ka ankurn aadi hua karta hai bindu ke roop mein natakkar nayak ke pryatnon ka abhiwyanjna karta hai aur iske prabhaw mein natk ka itiwrtt ek wichitrata se prwahit ho uthta hai jaise ki mudrarakshas mein hi natakkar ne chaar niwedan (guptachron dwara un un paristhitiyon ke parigyan), mudra labh (rakshas ki anguthi ka charnakya ke hath paDna), kapatlekh nishpadan aadi writton ki jo yojna ki hai wo wastut bindu nikshaep hi hai jiski sahayata se chanakya ki mahatwakanksha ka beej uttarottar udiyaman kinwa samrddh hote dikhai de raha hai isi prakar yahan pratinayak rakshas dwara nikshaipt chanakya aur chandragupt ke paraspar bhed ki yojna ka jo beej natakkar ne boya hai use bhi chaar niwedan, uttejak prashasti rachna aadi ghatnachakr ke bindu nikshaep se baDi kushalta se sincha hai bindu sek se paripusht ye beej sahrday hirdai mein weer ras bhaw ke udghatan ki paryapt samarthy rakhta hai
bindu ke baad kary hi arthaprakrti yojna mein adhik mahatw rakhta hai kary ka abhipray us anyany sadhan samagri ki yojna hai jo beej ke uttarottar wikas mein sahayak hua karti hai sadhye beej sahkari karyam (natydarpan, prishth 47) kuch natyshastrkar kary ka abhipray dharmarth kaam roop purusharth mante hain dashrupakkar ne hi aspasht kaha hai
kary triwargastachchhuddhamekanekanuwadhi ch
dashrupak ha1 16
arthat prithak prithak athwa paraspar anushakt dharm, arth aur kaam hi kary hai kintu ye kary paribhasha is prakar ki hai jiske dekhte kary ko arth prakrti kahna asambhau ho jata hai kary ko bharat muni ne arth prakritiyon mein sthan diya hai isliye, jaisa ki acharya abhinawgupt ka kahna hai, kary ka abhipray dharmarth kaam roop purusharth nahin apitu un 2 natkon mein upanibaddh janpad, kosh, durg aadi ka wyapar waichitry wastut ek shabd mein bij—sahkari sadhan samuh—hi hai jiske prabhaw mein kisi bhi nayak ki mahatwakanksha uske hirdai mein hi utpann wilin dikhai ja sakti hai na ki karykar athwa saphal hote hue chitrit ki ja sakti hai acharya abhinawgupt ne isiliye kaha hai—
mudaraksham mein hi sam, dam, danD aadi niti chintan kinwa sainy sanah aadi ghatnaon ki jo yojna hai wo kary roop arth prakrti ki hi yojna hai ye kary yojna sahrday hirdai mein niti wishayak utsah ke udbodhan ka ek atyant awashyak nidan hai
is prakar beej, bindu aur kary roop teen arth prakritiyan un natkon mein aniwary roop se upanibaddh raha karti hain jinke nayak ekmatr aatm paurush ke dhani hua karte hain, apne parakram ka adamy aatm wishwas rakha karte hain aur jinka kary siddhi unke atmotsah ki hi apeksha kiya karti hai mudrarakshas natk ke nayak ka aisa hi wyaktitw hai—swaprakram bahubhanshali wyaktitw—aur isiliye is natk mein beej, bindu aur kary ki teen arth prakritiyon ki hi yojna hai
natyacharya bharat ne isiliye kaha hai ha
eteshan yasya yenarthon yatashch gun ishyte
tat pardhan tu karttawya gunbhutanyat param॥
(natayshastr 19 27)
arthat natk mein awastha panchak ki bhanti arthaprakrti panchak ki yojna nahin hua karti awastha panchak ka to aniwaryat natk mein upanibandh hua karta hai kintu arth panchak ki aniwary yojna awashyak nahin nayak ke wyaktitw ki drishti se uske phalopayo ki yojna awashyak hai beej bindu aur kary to nayak matr ke phalopay hain kintu pataka aur prakri unhin naykon ke phalopay roop mein upanibaddh ho sakti hain jo lok jiwan mein janapriy rah chuke hain, jinke dharmarthkam roop purusharth labh mein jan sahayya mil chuka hai aur jinka utkarsh jan jiwan par sthai kinwa wyapak prabhaw Dal chuka hai
pataka aur prakri—donon arth prakritiyan hain pataka bharat natyashastr mein is prakar pratipadit hai
yadwrirtt tu pararth syat prdhanasyopkarkam
prdhanwachch kalpyet sa pataketi kirtita
naty shastr ha19 24
aur prakri is prakar—
phalan prkalpyte yasyaः pararthayaiw kewlam
anubandhawihinatwat prkriti winidishet॥
(naty shastrः 19 25)
abhipray ye hai ki pataka aur prakri us natk ke prasangik writt hain jiske nayak ki dharmarthkam roop phal siddhi upnayak athwa sahayak ke bhi pryatnon ki apeksha karti hai panchon arth prakritiyon mein kewal pataka aur prakri hi wastut natk ke awantar writt ke roop mein naty shastrkaron dwara nirdisht hain beej bindu aur kary arth prakrti to awashy hain kintu prasangik writt nahin wastut beej, bindu aur kary mein natk ki arthaprakrti athwa phalopayaprampra ki kalpana isiliye ki gai hai ki inhin ke dwara natk ke adhikarik itiwrtt (men plaॉt) ka uttrotar wikas hua karta hai aur yathasthan adhikarik aur prasangik itiwrit ka sanshlisht roop natkiya itiwrtt prakat hua karta hai
arth prakritiyon ki yojna ka uddeshy
natk mein arth prakritiyon ki yojna se hi nayak ka charit wikas natkiya bana karta hai kewal awastha panchak ke wishleshan mein natk ki ruparekha nahin khaDi ho sakti awastha panchak ki yojna se rasbhaw ki dharayen prwahit ho sakti hain kintu natk ke roop mein ras srot ka darshan tabhi ho sakta hai jabki arth prakrti yojna hui ho sandhi panchak ki kalpana bhi arth prakrti ki kalpana par hi awlambit hai sanwyango ka swarup beej, bindu aur kary ki arth prakrti par hi nirbhar hai sandhyango ke roop mein naty shastr natk ke jis kathnopakthan ka wishad wishleshan karta hai wo wastut arth prakrti yojna ke hi rahasy ka spashtikarn hai kya awastha panchak, kya arthaprakrti panchak aur kya sandhi panchak, sabhi ke sabhi natk ke kathnopakthan mein hi apna astitw aur uddeshy rakhte hain natakkar yadi charit wikas ki drishti se awasthaon ka uttarottar sanshlisht wikas karta hai to itiwrtt ki drishti se arth prakritiyon ka yathochit saniwesh rachta hai sandhi panchak is sanshlisht itiwrtt ke awaywarth roop nikalte hain aur ras hai is natk rachna ka antastattw, ant sar kinwa antarniyamak
स्रोत :
रचनाकार : सत्यव्रत सिंह
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।