प्राय आलोचकों की यह धारणा है कि भारतेंदु और प्रसाद के अनंतर हिंदी नाट्य-साहित्य ने कोई महत्वपूर्ण कृतिकार नहीं प्रस्तुत किया। इसे वे गतिरोध की स्थिति मानते हैं और भारतेंदु तथा प्रसाद को हिंदी नाटक के चरम-बिंदु घोषित करते हैं। प्रत्येक देश और साहित्य के कुछ महान् साहित्यकार होते हैं जो शीर्ष-स्थान के अधिकारी होते हैं। वे अपने देश की ही नहीं, वरन् समस्त विश्व-साहित्य की स्थायी निधि होते हैं। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि उनके अनंतर साहित्य कोई प्रगति नहीं करना, अथवा उन महत्तर ऊँचाइयों तक आना असंभव होता है। वास्तव में हर युग में एक ऐसे प्रतिभा-संपन्न महान् स्रष्टा का उदय होता है जो बिखरी हुई युग-चेतना को समशित कर देता है। शेक्सपियर मानव-जीवन का सर्वोत्तम अध्येता है, पर शॉ समाज पर व्यंग्य करने में अपना सानी नहीं रखता। भारतेंदु हिंदी-नाटक के प्रतिष्ठापक हैं तो प्रसाद उसके उन्नायक। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि इसके पश्चात् हिंदी-नाटकों ने विराम ले लिया।
नाटकों के क्षेत्र में भारतेंदु का महत्व ऐतिहासिक अधिक है। उन्होंने हिंदी नाटक के लिए ही नहीं, वरन् समस्त हिंदी साहित्य के लिए एक वातावरण की सृष्टि की। मंगलाचरण, नंदीपाठ, भरत-वाषय आदि की प्राचीन परंपराओं से भारतेंदु मुक्त न हो सके। उनमें कलात्मय परिपक्वता का अभाव है। प्रसाद अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत शैली के नाटककार हैं। भारतीय रस-दृष्टि के साथ पाश्चात्य चरित्रांकन का समन्वय उनके नाटकों में प्रतिफलित हुआ है। किन्तु संस्कृत गर्भित भाषा, अनभिनेय स्थल, शिथिल कार्य-व्यापार आदि के कारण प्रसाद के नाटक रंगमंच पर कठिनाई से प्रस्तुत किए जा सकते हैं। साथ ही एक कवि-व्यक्तित्व के कारण नाटक में जिस तटस्थता की आशा नाटककार से की जाती है, उसका उनमें अभाव है। अपनी सीमाओं के बावजूद प्रसाद ने हिंदी को जो पठनीय नाटक दिए उनकी परंपरा अभी तक चली आ रही है। इन नाटकों में भावनामयता, चारित्रिक अंतर्द्वंद्व तथा सांस्कृतिक स्वर की जो विशेषताएँ हैं, उन्होंने हरियाणा प्रेमी, डॉ. रामकुमार वर्मा, उदयशंकर भट्ट आदि नाटककारों को प्रभावित किया है।
ये तीनों ही नाटककार प्रसाद की भाँति कवि भी हैं, इसी कारण उनके नाटकों में भावुकता के साथ ही एक तीव्र मानवीय संवेदना है जिसे वे राष्ट्रीय भावना से मिला देते हैं। मुगलकालीन इतिहास से उन्होंने अपनी कथावस्तु ग्रहण की है, जिसमें हिंदू-मुस्लिम समस्या को एक भावुक स्तर पर सुलझाया गया है। कुछ-कुछ प्रेमचंद जी जैसा हल पेश किया गया। 'रक्षाबंधन' में हुमायूँ और कर्मवती की राखी पाकर चित्तौड़ के लिए प्रस्थान कर देता है। हुमायूँ और कर्मवती को भाई-बहिन के रूप प्रस्तुत किया जाना सांप्रदायिक समस्या का एक भावुक समाधान ही कहा जाएगा। प्रेमी की राष्ट्रीय भावना देश की सामयिक राजनीति से परिचालित है। उसपर गाँधी का स्पष्ट प्रभाव है। सांस्कृतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण के कारण प्रसाद समकालीन परिस्थितियों से ऊपर उठने में समर्थ हुए हैं। प्रेमी के भावुकतापूर्ण कथोपकथन प्रभाव-स्थापन में नाटककार की सहायता करते हैं। नाटक का नायक प्राय अपने उद्देश्य की अभिव्यक्ति ईमानदारी और सच्चाई से करता है। इस प्रकार नाटकों में एक भावुक संवेदना (Emotional appeal) रहती है।
डॉ. रामकुमार वर्मा का स्थान एकांकी लेखकों में सर्वप्रमुख है। ऐतिहासिक कथा-वस्तु के मार्मिक स्थलों को उन्होंने अपने लेखन का विषय बनाया है। इस अवसर पर तुलसी का स्मरण हो आता है। रामचरितमानस के मार्मिक स्थलों का प्रयोग महाकवि ने कवितावली मं् किया है। यहाँ तुलसी की भावुकता को सहज ही देखा जा सकता है। डॉ. वर्मा के एकांकी गीत-खंड कहे जा सकते हैं। भावुकता का पूर्ण विकास नाटककार ने स्त्री-पात्रों में दिखाया है और इस दृष्टि से वह प्रसाद से बहुत समीप हैं। डॉ. वर्मा के एकांकी एक विचित्र वातावरण की सृष्टि करते हैं। दया, करुणा, प्रेम, सौहार्द आदि की भावनाओं पर उनमें अधिक ज़ोर दिया गया है। मानवीय संवेदना पर आधारित इसी धारा में उदयशंकर भट्ट ने भी कार्य किया है। भट्ट जी के अधिकांश नाटक पौराणिक कथाओं से संबंध रखते हैं। वे धर्म, नीति, मर्यादा आदि के प्रश्नों से उलझते हैं। इस दिशा में उनका दृष्टिकोण पुरातनपथी नहीं है। पौराणिक घटना के माध्यम से उन्होंने नई समस्याओं को प्रस्तुत किया है। ब्राह्मण, बौद्ध-जन आदि के संघर्षों में आधुनिक जाति-प्रथा पर विचार किया गया है।
नाटकों की इस भावना-प्रधान धारा में भारतीय आदर्शों की रक्षा का प्रयत्न भी देखा जा सकता है। इसी मोह में इन नाटककारों ने इतिहास से कथा-वस्तु अधिक ग्रहण की है। इसी के समकक्ष नाटककारों की एक अन्य प्रवृत्ति को भी रखा जा सकता है। इसमें सामाजिकता का आग्रह अधिक है। सामाजिक समस्याओं को एक भावुक रीति से सुलझाने का प्रयत्न इनमें मिलता है। किसी सीमा तक इन नाटकों में हम भारतीय जीवन का करुण और मार्मिक चित्र पा जाते हैं। यह प्रेमचंद की आदर्शवादी पार्थोन्मुख प्रवृत्ति का ही रूपांतर है। वातावरण का सजीव चित्रण आदर्शवादी आधार पर लिया गया है। यथार्थ को इस रूप में अंकित करने का कारण यह है कि लेखक भावुक दृष्टि से यथार्थ को पकड़ने की चेष्टा करते हैं, उसमें वैज्ञानिकता का आग्रह कम रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय आंदोलन के कारण लेखक राष्ट्रीय भावनाओं से इतना अभिभूत हो गए थे कि तटस्थ होकर लिखना उनके लिए संभव न था। सेठ गोविंददास, गोविंदवल्लभ पंत इसी धारा के नाटककार हैं। सेट गोविंददास ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लिया है। देश के प्रति उनकी एक ममता है। प्रकाश, सेवा-पथ, सिद्धांत-स्वातंत्र्य, दलित कुसुम, चा पापी कौन है? दुख क्यों? 'पाकिस्तान, प्रेम या पाप आदि अनेक सामाजिक नाटक उन्होंने लिखे हैं।
सामाजिक जीवन के प्रति अनेक प्रकार के दृष्टिकोण होते हैं। ये दृष्टिकोण विभिन्न मिना रचनाओं से परिभाषित होते हैं। इस अवसर पर हमें यह स्वीकार करने में अधिक लज्जा न होनी चाहिए कि आधुनिक युग में अनेक पाश्चात्य विचारधाराओं ने भारतीय साहित्य को प्रभावित किया है। यूरोप में इब्सन और शॉ बुद्धिजीवी नाटककार कहे जाते हैं। प्रचलित सामाजिक रूढ़ियों और परंपराओं पर उन्होंने प्रहार किए हैं। उनकी कृतियों के इस ‘समाज तत्व' को मार्क्सवादी लेखकों से किंचित् दूर पर देखना होगा। मार्क्सवादी वर्ग-संघर्ष की भावना लेकर चलता है और इस बात का प्रयत्न करता है कि सर्वहारा वर्ग की विजय घोषित की जाए। इब्सन और शॉ फेबियन समाजवादी लेखक हैं। उनकी कृतियों में एक नए समाज की कल्पना है, जो रूढ़िमुक्त होगा। इस क्रांति को बौद्धिक कहा जा सकता है। वह एक प्रकार का वैचारिक आंदोलन है, जो आदर्श की अपेक्षा साहित्य में यथार्थ की माँग करता है। हिंदी में लक्ष्मीनारयण मिश्र एक बुद्धिवादी नाटककार हैं। अपने नाटक 'मुक्ति का रहस्य' की भूमिका (मैं बुद्धिवादी क्यों हूँ।) में उन्होंने अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। वे स्वयं को पूरोपीय बुद्धिवादी नाटककारों से अनम रखना चाहते हैं और इसलिए उन्होंने भारतीय तर्क-शास्त्र और विचार पद्धति का सहारा लिया है। बुद्धिवादी नाटककार समाज के प्रश्नों से उलझने के कारण ममन्या नाटक की सृष्टि करता है। वह अपने युग और समाज से किंचित् घनिष्ठ संपर्क स्थापित कर लेता है। प्राचीन मान्यताओं पर यह निर्मम प्रहार करता है। समाज के विकास में उसका योगदान रहता है इस दृष्टि से उसका स्थान महत्त्वपूर्ण होता है। किंतु सामाजिक गर्पेरक के प्रोम में कहीं-कहीं वह एक पत्रकार हो जाता है और इसी गाना की मानर ऊँचाईयों तक नहीं पहुँच पाता। शेक्सपियर और शॉ में यही प्रकार है। लक्ष्मीनारायण मिश्र के नाटकों में एक तीव्र असंतोष की भावना है। भावना-प्रधान नाटकों के विरोध में लिखे गए उनके नाटक समस्या का बौद्धिक समाधान प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं। 'राजयोग' में प्रेम की समस्या बुद्धि द्वारा सुलझाई गई है। मिश्र जी ने हिंदी नाटकों में जिस बौद्धिक तत्व का सनिवेश किया, उस परंपरा में अधिक लोगों ने कार्य नहीं किया किंतु उन्होंने एक प्रकार से हिंदी नाटक को झकझोर दिया। नाटकों में बुद्धि-तत्त्व का प्रवेश मिश्र जी की देन है। वे उसे काल्पनिक जगत् से यथार्थ की ओर ले गए।
फ़ेबियन समाज के बुद्धि-तत्त्व और मार्क्सवाद के सामाजिक तत्त्व के समन्वय की प्रवृत्ति यूरोप के कतिपय लेखकों में रही है। फ़ेबियन समाजवाद की विचारधारा से प्रभावित लेखक कभी-कभी स्थूल यथार्थ तक रह जाते हैं। समस्या के मूल में जाकर वे उसका समाधान खोजने का प्रयत्न नहीं करते। मार्क्सवादी लेखक कभी-कभी वर्ग-संघर्ष में इतने उलझ जाते हैं कि कला-पक्ष का ध्यान ही नहीं रखते। सामाजिक तत्व के साथ कलात्मक परिपक्वता का प्रयास आधुनिक नाटककारों ने किया है। ये लेखक मुख्यतः मार्क्सवाद से प्रभावित हैं। उपेंद्रनाथ 'अश्क', भुवनेश्वर आदि इसी धारा के नाटककार हैं। समाज की पृष्ठभूमि में व्यक्ति का चित्रण इन लेखकों की मुख्य प्रवृत्ति है। व्यक्ति अपने संस्कारों से सहज में ही मुक्त नहीं हो सकता, 'अजोदीदी' इसका अच्छा उदाहरण हैं। घड़ी-सा नियमित जीवन उन्होंने अपने नानाजी से उत्तराधिकार में पाया है। सामाजिक प्रवृत्ति को लेकर नाटकों का सृजन करने वाले इन नाटककारों ने अपने समाज का किसी सीमा तक अन्वेषण किया है। उन्होंने आस-पास के जीवन को निकट से देखने का प्रयास किया है। अश्क जी के 'स्वर्ग की झलक' नाटक में वर्तमान शिक्षा के कुप्रभाव की चर्चा है। 'क़ैद और उड़ान' में प्रेम और विवाह की समस्या है। भुवनेश्वर प्रसाद का कारवाँ हिंदी के सर्वोत्तम एकांकी नाटकों में से एक है। वास्तव में स्वस्थ सामाजिक दृष्टिकोण की प्रवृत्ति को लेकर नाटकों की सृष्टि करने वाले लेखक इस बात का प्रयत्न करते हैं कि समस्या को उचित रीति से प्रस्तुत कर दिया जाए और यदि संभव हो तो उसका हल भी ढूँढ निकाला जाए।
एकांकियों के विकास से नाट्य-साहित्य में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। यूरोप में स्ट्रिडबर्ग आदि नाटककारों ने नाटकों में मनोविज्ञान का प्रवेश कराया। सामाजिक विषमताओं ने हमारे बाह्य और आंतरिक जीवन को अस्त-व्यस्त किया है। बाह्य अथवा भौतिक विषमताओं को मार्क्सवादी लेखकों ने ग्रहण किया। मनुष्य के आंतरिक विश्लेषण की ओर जो लेखक प्रवृत्त हुए उन्होंने इस बात का ध्यान रखा है कि वर्तमान जीवन की पृष्ठभूमि में ही मानव का मनोवैज्ञानिक चित्र उतारा जाए। प्राचीन संस्कृत नाटकों में स्वगत-कथन की सहायता से मनुष्य की मानसिक अवस्था को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता था। एकांकियों में मानसिक स्थिति का अंकन कुछ कठिन कार्य था, इसलिए अनेक प्रकार के शैली-संबंधी प्रय़ोग किए गए। डॉ. रामकुमार वर्मा का रेडियो-रूपक औरगा की आख़िरी रात' औरगनेय की एक सुंदर प्रान्तरिक तस्वीर है। केवल मानसिक विश्लेषण के आदार पर नाट्य-सृष्टि एक कठिन कार्य है, वास्तव में नाटक में सा का इतना महत्व है कि दृष्टि से प्रोमात करना सहज नहीं हो सकता। ऐसे चरित्रों की सृष्टि की जा सकती है जिनमें आंतरिक द्वंद्व दिखाया जाए और उनकी मानसिक स्थिति का गांत हो। हेमलेट एक ऐसा ही चरित्र है। किंतु केवल मानसिक पोस्टमार्टम के आधार पर सुंदर नाटक की रचना संभव नहीं है।
प्रसादोत्तर नाट्य-साहित्य में विविधता है। भावभूमि के नए क्षेत्र उद्घाटित किए गए हैं। यथार्थ की नई भूमि पर उसका पदार्पण हुआ है। शैली के नए प्रयोग से हुए हैं, जैसे ध्वनि-रूपक आदि। किंतु नाटक को सबसे बड़ी आवश्यकता एक विकसित रंगमंच की होती है। उसके अभाव में नाट्य-साहित्य पंगु हो जाता है। नाटक पठनीय सामग्री बनकर रह जाते हैं। आशा है राष्ट्रीय रंगमंच के विकास के साथ हिंदी नाट्य-साहित्य अधिक समृद्ध हो सकेगा।
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Dau ramakumar warma ka sthan ekanki lekhkon mein sarwapramukh hai aitihasik katha wastu ke marmik sthlon ko unhonne apne lekhan ka wishay banaya hai is awsar par tulsi ka smarn ho aata hai ramacharitmanas ke marmik sthlon ka prayog mahakawi ne kawitawli manx kiya hai yahan tulsi ki bhawukta ko sahj hi dekha ja sakta hai Dau warma ke ekanki geet khanD kahe ja sakte hain bhawukta ka poorn wikas natakkar ne istri patron mein dikhaya hai aur is drishti se wo parsad se bahut samip hain Dau warma ke ekanki ek wichitr watawarn ki sirishti karte hain daya, karuna, prem, sauhard aadi ki bhawnaon par unmen adhik zor diya gaya hai manawiy sanwedna par adharit isi dhara mein udayshankar bhatt ne bhi kary kiya hai bhatt ji ke adhikansh natk pauranaik kathaon se sambandh rakhte hain we dharm, niti, maryada aadi ke prashnon se ulajhte hain is disha mein unka drishtikon puratanapthi nahin hai pauranaik ghatna ke madhyam se unhonne nai samasyaon ko prastut kiya hai brahman, bauddh jan aadi ke sangharshon mein adhunik jati pratha par wichar kiya gaya hai
natkon ki is bhawna pardhan dhara mein bharatiy adarshon ki rakhsha ka prayatn bhi dekha ja sakta hai isi moh mein in natakkaron ne itihas se katha wastu adhik grahn ki hai isi ke samkaksh natakkaron ki ek any prawrtti ko bhi rakha ja sakta hai ismen samajikta ka agrah adhik hai samajik samasyaon ko ek bhawuk riti se suljhane ka prayatn inmen milta hai kisi sima tak in natkon mein hum bharatiy jiwan ka karun aur marmik chitr pa jate hain ye premchand ki adarshawadi parthonmukh prawrtti ka hi rupantar hai watawarn ka sajiw chitran adarshawadi adhar par liya gaya hai yatharth ko is roop mein ankit karne ka karan ye hai ki lekhak bhawuk drishti se yatharth ko pakaDne ki cheshta karte hain, usmen waigyanikta ka agrah kam rahta hai aisa pratit hota hai ki rashtriya andolan ke karan lekhak rashtriya bhawnaon se itna abhibhut ho gaye the ki tatasth hokar likhna unke liye sambhaw na tha seth gowinddas, gowindwallabh pant isi dhara ke natakkar hain set gowinddas ne rashtriya swtantrta sangram mein bhag liya hai desh ke prati unki ek mamta hai parkash, sewa path, siddhant swatantrya, dalit kusum, cha papi kaun hai? dukh kyon? pakistan, prem ya pap aadi anek samajik natk unhonne likhe hain
samajik jiwan ke prati anek prakar ke drishtikon hote hain ye drishtikon wibhinn mina rachnaon se paribhashit hote hain is awsar par hamein ye swikar karne mein adhik lajja na honi chahiye ki adhunik yug mein anek pashchaty wichardharaon ne bharatiy sahity ko prabhawit kiya hai europe mein ibsan aur shau buddhijiwi natakkar kahe jate hain prachalit samajik ruDhiyon aur parampraon par unhonne prahar kiye hain unki kritiyon ke is ‘samaj tatw ko marksawadi lekhkon se kinchit door par dekhana hoga marksawadi warg sangharsh ki bhawna lekar chalta hai aur is baat ka prayatn karta hai ki sarwahara warg ki wijay ghoshait ki jaye ibsan aur shau phebiyan samajwadi lekhak hain unki kritiyon mein ek nae samaj ki kalpana hai, jo ruDhimukt hoga is kranti ko bauddhik kaha ja sakta hai wo ek prakar ka waicharik andolan hai, jo adarsh ki apeksha sahity mein yatharth ki mang karta hai hindi mein lakshminaryan mishr ek buddhiwadi natakkar hain apne natk mukti ka rahasy ki bhumika (main buddhiwadi kyon hoon ) mein unhonne apna drishtikon prastut kiya hai we swayan ko puropiy buddhiwadi natakkaron se anam rakhna chahte hain aur isliye unhonne bharatiy tark shastr aur wichar paddhati ka sahara liya hai buddhiwadi natakkar samaj ke prashnon se ulajhne ke karan mamanya natk ki sirishti karta hai wo apne yug aur samaj se kinchit ghanishth sampark sthapit kar leta hai prachin manytaon par ye nirmam prahar karta hai samaj ke wikas mein uska yogadan rahta hai is drishti se uska sthan mahattwapurn hota hai kintu samajik garperak ke prom mein kahin kahin wo ek patrakar ho jata hai aur isi gana ki manar unchaiyon tak nahin pahunch pata shakespeare aur shau mein yahi prakar hai lakshminarayan mishr ke natkon mein ek teewr asantosh ki bhawna hai bhawna pardhan natkon ke wirodh mein likhe gaye unke natk samasya ka bauddhik samadhan prastut karne ka prayatn karte hain rajayog mein prem ki samasya buddhi dwara suljhai gai hai mishr ji ne hindi natkon mein jis bauddhik tatw ka saniwesh kiya, us parampara mein adhik logon ne kary nahin kiya kintu unhonne ek prakar se hindi natk ko jhakjhor diya natkon mein buddhi tattw ka prawesh mishr ji ki den hai we use kalpanik jagat se yatharth ki or le gaye
febiyan samaj ke buddhi tattw aur marksawad ke samajik tattw ke samanway ki prawrtti europe ke katipay lekhkon mein rahi hai febiyan samajawad ki wicharadhara se prabhawit lekhak kabhi kabhi sthool yatharth tak rah jate hain samasya ke mool mein jakar we uska samadhan khojne ka prayatn nahin karte marksawadi lekhak kabhi kabhi warg sangharsh mein itne ulajh jate hain ki kala paksh ka dhyan hi nahin rakhte samajik tatw ke sath kalatmak paripakwata ka prayas adhunik natakkaron ne kiya hai ye lekhak mukhyatः marksawad se prabhawit hain upendrnath ashk, bhuwneshwar aadi isi dhara ke natakkar hain samaj ki prishthabhumi mein wekti ka chitran in lekhkon ki mukhy prawrtti hai wekti apne sanskaron se sahj mein hi mukt nahin ho sakta, ajodidi iska achchha udaharn hain ghaDi sa niymit jiwan unhonne apne nanaji se uttaradhikar mein paya hai samajik prawrtti ko lekar natkon ka srijan karne wale in natakkaron ne apne samaj ka kisi sima tak anweshan kiya hai unhonne aas pas ke jiwan ko nikat se dekhne ka prayas kiya hai ashk ji ke swarg ki jhalak natk mein wartaman shiksha ke kuprabhaw ki charcha hai qaid aur uDan mein prem aur wiwah ki samasya hai bhuwneshwar parsad ka karwan hindi ke sarwottam ekanki natkon mein se ek hai wastaw mein swasth samajik drishtikon ki prawrtti ko lekar natkon ki sirishti karne wale lekhak is baat ka prayatn karte hain ki samasya ko uchit riti se prastut kar diya jaye aur yadi sambhaw ho to uska hal bhi DhoonDh nikala jaye
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स्रोत :
पुस्तक : भारतीय नाट्य साहित्य, (पृष्ठ 329)
संपादक : नगेन्द्र
रचनाकार : प्रेमशंकर तिवारी
प्रकाशन : सेठ गोविंददास हीरक जयंती समारोह समिति नई दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।