गत पचीस वर्ष के भीतर हिंदी के काव्य-क्षेत्र में बड़ा परिवर्तन हुआ है। इस परिवर्तन को स्पष्ट करने के लिए मैं यहाँ चार कवियों की चर्चा करता हूँ। आधुनिक हिंदी-कवियों में सबसे अधिक प्रसिद्धि बाबू मैथिलीशरण गुप्त की है। उन्हीं की रचनाएँ सबसे अधिक लोकप्रिय हैं, उनके कारण उनका जन्म-स्थान चिरगाँव (झाँसी) भी प्रसिद्ध हो गया है। आधुनिक युग की सभी भावनाएँ उनकी कृतियों में विद्यमान हैं। देश-भक्ति, आत्म-सुधार, स्वावलंबन, विश्व-प्रेम, उच्चादर्श, देशाभिमान और स्वधर्मानुराग—यही सब भाव उनकी कविताओं में मूर्तिमान् हैं।
अपने कविता-काल के प्रारंभ से लेकर आज तक गुप्तजी सभी प्रकार के पाठकों में लोकप्रिय बने हुए हैं। पहले-पहल ब्रज-साहित्य के कल्पनोन्माद के विरुद्ध जो एक प्रतिक्रिया आरंभ हुई, वह सबसे प्रथम मैथिलीशरण जी की रचनाओं में ही बिलकुल स्पष्ट हुई है। उनकी 'भारत-भारती' में देश का यथार्थ चित्रण हुआ है। इसके बाद पौराणिक कहानियों को लेकर उन्होंने जो काव्य-कथाएँ लिखीं, उनमें सर्वत्र मानवीय भावों की ही प्रधानता रखी। तुलसीदास ने संसार में भगवान का दर्शन कराया, मनुष्य-जीवन में देवत्व का प्रदर्शन किया। गुप्तजी की यह विशेषता है कि उन्होंने देवों में मानवीय भावों की प्रतिष्ठा की। मनुष्यों की समस्त दुर्बलताएँ और क्षमताएँ उनके देव-तुल्य पात्रों में प्रकट हुई हैं। 'साकेत' की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यही है। उसमें उर्मिला की गूढ़ व्यथा, सीता का प्रेम, राम और लक्ष्मण की स्नेह-जन्य दुर्बलता—ये सब ऐसी बातें हैं, जो गुप्त जी के पात्रों को हमारे अत्यधिक निकट ला देती हैं। रामचरित मानस में सीता का जो अलौकिक प्रेम और रामचंद्र का जो अचिंत्य स्वरूप अंकित हुआ है, वह पाठकों के लिए अनधिगम्य है। राम और सीता उनके आराध्यदेव हैं—उनसे उनके हृदय में आतंक, विस्मय और भक्ति का उद्रेक हो सकता है। किंतु गुप्त जी के चरित्र-चित्रण की यह विशेषता है कि इन्हीं पात्रों से पाठकों के हृदय में सह-वेदना और सहानुभूति के भाव जाग्रत् होते हैं।
आधुनिक युग में सत्य की परीक्षा आरंभ होने पर लोग अपने अंतर्जगत् की यथार्थ परीक्षा करने के लिए उद्यत हुए, तब उन्होंने वहाँ एक अतींद्रिय जगत् का आभास पाया। वह जगत स्पष्ट रहने पर भी उतना ही यथार्थ है, जितना कि बाह्य जगत्। उसके प्रभाव का हम लोग अपने जीवन में अनुभव करते रहते हैं। जिस प्रकार अतीत काल के चरित्र जीवन पर अक्षय प्रभाव डालते हैं, उसी प्रकार हम लोग अपने जीवन में यह भी अनुभव करते हैं कि हम जो कुछ देख रहे हैं, उसी में हमारा अंत नहीं है। इसके अतिरिक्त भी हमारा एक जीवन है और उस जीवन का संबंध हमारे वर्तमान जीवन से है। इसी रहस्यमय जीवन को स्पष्ट करने के लिए हिंदी में वस्तुवाद के विरुद्ध जो एक प्रतिक्रिया आरंभ हुई, वह कवियों की रचनाओं में छायावाद के नाम से प्रकट हुई। लोग मानो यथार्थ जगत् की सीमाबद्ध मानव-लीला से विरक्त होकर किसी असीम या अनंत जीवन की प्राप्ति के लिए व्यग्र हो उठे। यह व्यग्रता छायावाद की रचनाओं में प्रकट हुई है। गुप्त जी की रचनाओं में भी हम उस भाव का पूर्वाभास पाते हैं, जो पीछे से छायावाद का नाम ग्रहण कर थोड़े ही दिनों में हिंदी के वर्तमान कवियों में अत्यंत लोकप्रिय हुआ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्त जी की कविताओं में जहाँ एक ओर देश की उच्चतम आकांक्षा की ध्वनि है, दूसरी ओर नवयुग की सभी भावनाएँ भी स्थान पा चुकी हैं।
सियारामशरण गुप्त हिंदी के प्रख्यात कवि मैथिलीशरण गुप्त के अनुज हैं। उन पर गुप्त जी का विशेष प्रभाव पड़ा है। उनकी शैली और भाषा तो गुप्त जी की शैली और भाषा का ही आभास देती है; परंतु दोनों की विचारधाराओं और काव्यवस्तु में बड़ी विभिन्नता है। मैथिलीशरण गुप्त ने विषय की महत्ता पर सदैव ध्यान दिया है। उनके काव्य-नायकों के चरित्र उदात्त हैं, काव्य वस्तु महत् है और उनका काव्य-क्षेत्र भी अत्यंत विस्तृत है। सियारामशरण ने सर्वसाधारण के दैनिक जीवन को ही अपनी कविता के लिए उपयुक्त समझा है। सुख-दुःख की जो घटनाएँ हमारे जीवन में प्रतिदिन होती रहती हैं, भावों के जो घात-प्रतिघात हम लोगों को हमें मोह जाल में फँसाएँ रहते हैं, वे सभी उनके वर्णनीय विषय हैं। उनकी कहानियाँ विक्षुब्ध करते रहते हैं, आशा-निराशा, संयोग-वियोग, उत्थान-पतन की जो लीलाएँ और नाटकों में हम यही बात पाते हैं। कवि द्रष्टा कहे जाते हैं, परंतु सियारामशरण जी ऐसे दर्शक हैं, जो कभी भी तटस्थ या विरक्त नहीं रह सकते उनका हृदय सदैव उन घटनाओं से द्रवीभूत होता रहता है, जिनका वे वर्णन करते हैं। उनकी रचनाओं में उनका यह उद्वेग, उनका यह क्षोभ बिलकुल स्पष्ट लक्षित होता है। मैथिलीशरण गुप्त अतीत और वर्तमान के चित्र प्रदर्शित कर हमें भविष्य का संकेत कराते हैं। उनकी वाणी में आशा और विश्वास की दृढ़ता है। उनमें गंभीरता और स्थिरता है; पर सियारामशरण जी की रचनाओं में एक अधैर्य है असहिष्णुता है, असंतोष की तीव्र भावना और विद्रोह है। उनकी गणना आधुनिक क्रांतिकारी कवियों में अवश्य नहीं की जा सकती, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उनकी रचनाओं में वह अशांति अवश्य है, जो क्रांति का पूर्वाभास देती है।
'प्रसाद' जी प्रतिभा-संपन्न कलाकार थे। उनकी शैली उन्हीं की शैली है। उनके सभी ग्रंथों में एक विशेष प्रकार की मौलिकता निहित है, जिस पर 'प्रसाद' जी के व्यक्तित्व की पूरी-पूरी छाप है। लोगों ने कितने ही कवियों का अनुकरण किया है; पर 'प्रसाद' जी का अनुकरण कोई नहीं कर सका। उनकी भाषा संस्कृत-मिश्रित अवश्य है; परंतु उसमें एक विशेष ओज और भाषा की विशेषता के कारण वे पहले लोकप्रिय नहीं हुए। उनकी लोकप्रियता तब बढ़ी, जब लोगों ने उनकी कृतियों का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया। उनके सर्वश्रेष्ठ काव्य 'कामायनी' पर उन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिला भी, तो मृत्यु के बाद।
'प्रसाद' जी की सृजन-शक्ति भी अपूर्व थी। उन्होंने कविताएँ लिखीं, कहानियाँ लिखीं और नाटक तथा उपन्यास भी रचे। इस सब में उनकी अपूर्व सृजन-शक्ति विद्यमान है। वे हिंदी के एक मात्र ऐतिहासिक नाटककार कहे जा सकते हैं। उनके नाटकों में ऐतिहासिक वातावरण बड़ी कुशलता से निर्मित किया गया है। उनके पात्र इतिहास के नर-कंकाल नहीं हैं, अतीत युग के सजीव चरित्र हैं। उन्होंने अपनी कथाओं में समाज का यथार्थ चित्र अंकित करने का प्रयत्न नहीं किया, इसके विपरीत अपनी विशिष्ट भावना के अनुसार एक औपन्यासिक संसार की रचना कर उसमें भिन्न-भिन्न पात्रों के मानसिक जगत् का अंतर्द्वंद्व दिखलाया है। उनका कोई भी पात्र ऐसा नहीं है, जिसे हम अपना परिचित साथी समझ सकें। पाठकों के लिए वे सभी अपरिचित व्यक्ति के समान हैं। पर ऐसे पात्रों के प्रति भी पाठकों के हृदय में सहवेदना का भाव जाग्रत करने में 'प्रसाद' जी सफ़ल हुए हैं और उनकी सबसे बड़ी विशेषता यही है।
सुमित्रानंदन पंत अल्मोड़ा के निवासी हैं। हिंदी के वही एक ऐसे कवि हैं, जिनकी यथार्थ शिक्षा प्रकृति देवी की गोद में हुई है। बाल्यकाल से लेकर आज तक वे प्रकृति की उपासना में निमग्न हैं। उनकी कविता के प्रवाह में हम पर्वत की निर्झरिणी की गति देखते हैं। उनकी रचनाओं में वही कोमलता, वही स्निग्धता, वही मधुरता और वही उच्छृंखलता है, जो हम प्रकृति में सहज ही पाते हैं। पंत जी ने अपने लिए नए छंदों की रचना की, नई उपमाओं की सृष्टि की और एक नया ही पथ खोज निकाला। उनकी भाषा भी उनकी कल्पना के उपयुक्त है—उसमें मधुरता है, सुकुमारता है और क्षिप्रगति है। शब्दों के चयन में उन्होंने कौशल दिखाया है।
मुझे स्मरण है कि 1920 में इलाहाबाद के जैन-बोर्डिंग हाउस में एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया था। उसके सभापति थे पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय। उस सम्मेलन में पंत जी ने जब अपनी कविता पढ़ी, तब सारी उपस्थित जनता मुग्ध हो गई। उपाध्याय जी ने उन्हें माला पहनाई। उस समय पंत जी सोलह वर्ष के रहे होंगे। उनके स्वर में जो माधुर्य था, वही माधुर्य उनकी रचना में था। उनमें जो सुकुमारता और सुंदरता थी वही उनकी भाषा में थी। इसके पहले उनकी कविता प्रकाशित भी हो गई थी। मुझे ऐसा जान पड़ा था कि पंत जी ने अपनी एक भाषा के इंद्रजाल में सब लोगों को वशीभूत कर लिया है। मैं विज्ञ की तरह सिर हिलाकर अपने को उस इंद्रजाल से बचाना चाहता था। मैंने कहा कि शब्दों के अर्थहीन सौंदर्य में क्या रखा है। तब पंत जी ने मुझको 'कलरव' नाम की कविता दी। नदी की कलरव-ध्वनि, पत्तों की मर्मर-ध्वनि और खगों के कलरव में जो रमणीयता और सुंदरता है, वही उन्होंने अपनी उन तीन कविताओं में व्यक्त कर दी थी। मैं निरुत्तर हो गया; पर उनकी कविता के इस इंद्रजाल से बचने के लिए मैं और भी अधिक प्रयत्न करने लगा। एक दिन उन्होंने मुझको 'मौन निमंत्रण' और 'शिशु' नामक कविताएँ सुनाईं और उन्हें सुनकर मैं अवाक् रह गया। उसी दिन से मैं उनका भक्त अनुचर हो गया। आज हिंदी की जो पाँच पुस्तकें मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं उनमें एक पंत जी का ‘पल्लव’ है।
कहा जाता है कि 'गुंजन' में पंत जी जीवन क्षेत्र के भीतर अधिक प्रविष्ट हुए हैं। उनकी काव्य-शैली भी उसमें अधिक संयत और गंभीर है। 'गुंजन' के संबंध में स्वयं कवि ने लिखा है कि वह प्राणों का उन्मन 'गुंजन' है। यौवन-काल के औत्सुक्य पूर्ण लालसापूर्ण भावों का उद्गार उसमें है। युवावस्था में जो आदेश आता है, उसमें जीवन की मधुरता पाने के लिए जो आतुरता रहती है, उसी जीवन की इसमें अभिव्यक्ति हुई है। संसार में वेदना है; परंतु उसी वेदना को सहने से हृदय कोमल होता है, उसमें उज्ज्वलता आती है, उसी से वह संसार से आत्मीयता स्थापित कर लेता है। स्वार्थ की क्षुद्र सीमा से उसे छुटकारा मिल जाता है। तब समस्त विश्व से वह संबंध जोड़ लेता है। संसार में जो सुख-दुःख के भाव होते रहते हैं, उन सब को सह लेता है। अकेले में वह शून्यता का अनुभव करता है; परंतु जब वह अपने जीवन को विश्व के जीवन में मिला देता है, तब वह सार्थकता प्राप्त करता है और सुख का अनुभव करता है। संसार में सुख-दुःख का मिलन आनंद से रहित नहीं है। सुख-दुःख दोनों को समान भाव से ग्रहण करने में ही माधुर्य है। ऐसा कोई नहीं है जिसके हृदय में सुख के फूल के साथ दुःख के काँटे न हो। परंतु इसी सुख-दुःख में संसार का जीवन है। दुःख को आनंद-रहित नहीं समझना चाहिए, क्योंकि दुःख के आस्वादन करने पर ही हमें आनंद का अनुभव होता है। जैसे अंधकार के बाद प्रकाश होता है, वैसे ही दुःख के बाद सुख भी होता है। सुख और दुःख दोनों अस्थिर हैं। जीवन नित्य है। काँटों में रहकर ही फूल खिलते हैं, अग्नि में जलकर ही सोना उज्ज्वल होता है। दावाग्नि से जल जाने पर वन में मेघ की वृष्टि होने पर नए अंकुर उठते हैं। उसी प्रकार दुःख में भी हमको सुख छिपा फूल खिलते हुआ मिलता है। हमें सुख द्वारा दुःख को अपनाना चाहिए। मिथ्या पीड़ा से हम लोग प्रतिपल व्याकुल होते हैं। जीवन में हम तरह-तरह की इच्छाएँ करते हैं। वे इच्छाएँ मन में ही प्रकट होती हैं और मन में ही विलीन हो जाती हैं। इन इच्छाओं से हमारे अभीष्ट साधन में बाधा होती है। समभाव से सुख और दुःख दोनों को ग्रहण करने की इच्छा ही आत्म-तत्त्व प्राप्त करने का साधन है। मनुष्य जब सचराचर विश्व को अपना लेता है, तब वह सुख प्राप्त करता है। जब तक वह विश्व से यह संबंध नहीं जोड़ लेता तब तक उसे मानव जीवन अपूर्ण लगता है। सचराचर विश्व में जीवन की जो धारा बह रही है, उसी में मनुष्य को उल्लास का अनुभव होना चाहिए। तभी वह प्रकृति की सभी लीलाओं में आनंद का अनुभव कर अपने को सुखमय बना डालेगा। विश्व में छोटी-से छोटी वस्तु भी उपेक्षणीय नहीं है। छोटे-छोटे जल-कणों से समुद्र बनता है। छोटे-छोटे अणुओं से विश्व की रचना हुई है, जो छोटा है, वही बढ़कर बड़ा हो जाता है। संसार में सर्वत्र सौंदर्य है, सर्वत्र आनंद है; हमें विश्व के प्रति सहानुभूति ही होनी चाहिए। हमें फूल की तरह अपना सौरभ संसार में फैला देना चाहिए। एक क्षुद्र सीमा में बद्ध न रहकर अनंत की ओर अग्रसर होना चाहिए। उसी अनंत में लीन हो जाने पर हम जीवन का यथार्थ आशय समझ जाएंगे। यही कवि के 'गुंजन' का आशय है।
सभी देशों और सभी कालों में मनुष्यों ने अपनी सौंदर्य भावना, विस्मय और प्रेम को अप्सरा के रूप में प्रकट किया है। कथाओं में अप्सरा किसी-न-किसी को मोह में और प्रेम में डालने के लिए प्रकट होती है। सभी बच्चे अपने शैशव-काल में अपनी माताओं से इसी अप्सरा की कथा सुना करते हैं, और तब उनके हृदय में उसी अप्सरा के संबंध में किसी रूप राशि की कल्पित मूर्त्ति प्रकट हो जाती है। यौवनावस्था में वे अपनी प्रियतमा को इसी कल्पित अप्सरा के रूप में देखते हैं। कहा जाता है कि अप्सरा इंद्रलोक में नाचती है। देवों की सभा में वह न जाने कितनों को अपने कटाक्षों से चंचल करती है। मेघों में जो बिजली चमक जाती है, वही कदाचित् उसके कटाक्षों का आभास देती है। आकाश में जो इंद्रधनुष उदित होता है, उसी से उसके वस्त्र की छवि का अनुमान किया जा सकता है। नीले आकाश में चंद्रमा उसकी वेणी के फूल की सुधि दिलाता है। स्वर्ग-गंगा में वह जल-विहार करती है। वहाँ हंसों के समान चंद की प्रतिच्छायाएँ जल की तरंगों में तैरती हुई-सी मालूम होती होंगी। उसी के कानों के कण मानो तारे बन गए हैं। उसी की देह की कांति कमलों के समान चंचल तरंगों में प्रतिबिंबित होती है। वह बादल पर चलती है। चंद्रमा में जो मृग का बच्चा है, उसे वह गोद में लेकर मानो इंद्रधनुष के पुल पर से चलकर आकाश को पार करती है। स्वर्ग की यह कल्पित अप्सरा पृथ्वी पर युवती के रूप में अवतीर्ण होती है। युवती जो कटाक्ष करती है, उसकी शिक्षा मानो वह उसी से पाती है। कल्पना में कवियों ने इसी रूप-राशि का निर्माण किया है। वह रूप-राशि सबसे अलक्षित है; परंतु विश्व में व्याप्त है। संसार में जहाँ कहीं सुंदरता, सुकुमारता और विशदता है, वहीं उसका अस्तित्व है। तितलियों के पंख, चंद्रमा की किरणों से प्रतिबिंबित शीत-बिंदु, अस्फुटित कली, चंचल तरंग या अविकसित कमल में उसकी बास है। अंधकार में उसी के केश की श्यामता है। लहरें उसी के हार हैं। फूलों की लालिमा में उसी के पद-पाद की शोभा है। बर्फ़ से आच्छादित पहाड़ों में उसी की देह की कांति है। उषाकाल की लालिमा उसी के चर्म की लालिमा है। चंद्रमा की ज्योति से उद्भासित मेघ मानो उसके पर हैं। तारों का कंपन मानो उसी के हृदय का स्पंदन है। सौंदर्य की वह भावना चिरकाल से विद्यमान है। वह कभी बंद नहीं हुई, वह कभी क्षीण नहीं हुई। प्रत्येक युग में सौंदर्य की भावना में नवीनता आ जाती है। इस प्रकार किसी-न-किसी रूप में उस रूप-राशि का दर्शन हम लोग करते ही हैं। क्या मनुष्य, क्या देवता, क्या ऋषि, सभी प्रकार के लोगों के लिए यह रूप आकर्षक है। मनुष्यों की सभी इच्छाएँ उसमें लीन हैं। सुख-दुःख, पाप-पुण्य, सभी में उस रूप-राशि की विद्यमानता है और उसका कभी अंत नहीं होने का। जब तक संसार में सौंदर्य है, तब तक सौंदर्य को मूर्तिमती बनाकर अप्सरा के रूप में हम देखेंगे ही।
मेरी समझ में तो पंत जी की सबसे बड़ी विशेषता है, उनकी यही अप्सरा-सी कल्पना। अपने जीवन के प्रारंभ-काल में उन्होंने संसार को रहस्यमय देखाः किंतु उस रहस्य का उद्घाटन करने के लिए उन्होंने ज्ञान का आश्रय नहीं लिया। एकमात्र कल्पना से ही उन्होंने संसार को समझने की चेष्टा की। उन्हें विस्मय हुआ, आतंक हुआ, आनंद हुआ, मोह हुआ। पर इन सभी भावों के उद्रेक से वे प्रकृति के और भी अधिक समीप हो गए। प्रकृति उनके लिए जड़ वस्तु नहीं, सुंदरता की सजीव देवी है, जो उनकी सहचरी होकर सदैव उनके साथ बनी रहती है। प्रकृति के इस जीवन से पृथक् होकर पंत जी ने जो कुछ भी लिखा है, उसमें न भावों की वह सुकुमारता है और न कल्पना की वह नवीनता। पंत जी यथार्थ जगत् के कवि नहीं। जीवन-संघर्ष से उनका कोई प्रयोजन नहीं। संसार की समस्या उनके लिए नहीं। आत्मचिंतन उनका काम नहीं। वे तो प्रकृति के कवि हैं—कल्पना उनका क्षेत्र है और सौंदर्य उनका राज्य।
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sumitranandan pant almoDa ke nivasi hain. hindi ke vahi ek aise kavi hain, jinki yatharth shiksha prakrti devi ki god mein hui hai. balyakal se lekar aaj tak ve prakrti ki upasna mein nimagn hain. unki kavita ke pravah mein hum parvat ki nirjharinai ki gati dekhte hain. unki rachnaon mein vahi komalta, vahi snigdhata, vahin madhurta aur vahi uchchhrinkhalta hai, jo hum prakrti mein sahj hi pate hain. pant ji ne apne liye nae chhandon ki rachna ki, nai upmaon ki sirishti ki aur ek naya hi path khoj nikala. unki bhasha bhi unki kalpana ke upyukt hai—usmen madhurta hai, sukumarta hai aur kshipragati hai. shabdon ke chayan mein unhonne kaushal dikhaya hai.
mujhe smarn hai ki 1920 mein allahabad ke jain borDing house mein ek kavi sammelan ka ayojan kiya gaya tha. uske sabhapati the panDit ayodhyasinh upadhyay. us sammelan mein pant ji ne jab apni kavita paDhi, tab sari upasthit janta mugdh ho gai. upadhyay ji ne unhen mala pahnai. us samay pant ji solah varsh ke rahe honge. unke svar mein jo madhurya tha, vahi madhurya unki rachna mein tha. unmen jo sukumarta aur sundarta thi vahi unki bhasha mein thi. iske pahle unki kavita prakashit bhi ho gai thi. mujhe aisa jaan paDa tha ki pant ji ne apni ek bhasha ke indrajal mein sab logon ko vashibhut kar liya hai. main vij~n ki tarah sir hilakar apne ko us indrajal se bachana chahta tha. mainne kaha ki shabdon ke arthahin saundarya mein kya rakha hai. tab pant ji ne mujhko kalrav naam ki kavita di. nadi ki kalrav dhvani, patton ki marmar dhvani aur khagon ke kalrav mein jo ramnaiyata aur sundarta hai, vahi unhonne apni un teen kavitaon mein vyakt kar di thi. main niruttar ho gaya; par unki kavita ke is indrajal se bachne ke liye main aur bhi adhik prayatn karne laga. ek din unhonne mujhko maun nimantran aur shishu namak kavitayen sunai aur unhen sunkar main avak rah gaya. usi din se main unka bhakt anuchar ho gaya. aaj hindi ki jo paanch pustken mujhe sabse adhik priy hain unmen ek pant ji ka pallav hai.
kaha jata hai ki gunjan mein pant ji jivan kshaetr ke bhitar adhik pravisht hue hain. unki kaavy shaili bhi usmen adhik sanyat aur gambhir hai. gunjan ke sambandh mein svayan kavi ne likha hai ki wo pranon ka unman gunjan hai. yauvan kaal ke autsuky poorn lalsapurn bhavon ka udgaar usmen hai. yuvavastha mein jo adesh aata hai, usmen jivan ki madhurta pane ke liye jo aturta rahti hai, usi jivan ki ismen abhivyakti hui hai. sansar mein vedna hai; parantu usi vedna ko sahne se hirdai komal hota hai, usmen ujjvalta aati hai, usi se wo sansar se atmiyata sthapit kar leta hai. svaarth ki kshaudr sima se use chhutkara mil jata hai. tab samast vishv se wo sambandh joD leta hai. sansar mein jo sukh duःkh ke bhaav hote rahte hain, un sab ko sah leta hai. akele mein wo shunyata ka anubhav karta hai; parantu jab wo apne jivan ko vishv ke jivan mein mila deta hai, tab wo sarthakta praapt karta hai aur sukh ka anubhav karta hai. sansar mein sukh duःkh ka milan anand se rahit nahin hai. sukh duःkh donon ko saman bhaav se grahn karne mein hi madhurya hai. aisa koi nahin hai jiske hirdai mein sukh ke phool ke saath duःkh ke kante na ho. parantu isi sukh duःkh mein sansar ka jivan hai. duःkh ko anand rahit nahin samajhna chahiye, kyonki duःkh ke asvadan karne par hi hamein anand ka anubhav hota hai. jaise andhkar ke baad parkash hota hai, vaise hi duःkh ke baad sukh bhi hota hai. sukh aur duःkh donon asthir hain. jivan nity hai. kanton mein rahkar hi phool khilte hain agni mein jalkar hi sona ujjval hota hai. davagni se jal jane par van mein megh ki vrishti hone par nae ankur uthte hain. usi prakar duःkh mein bhi hamko sukh chhipa phool khilte hua milta hai. hamein sukh dvara duःkh ko apnana chahiye. mithya piDa se hum log pratipal vyakul hote hain. jivan mein hum tarah tarah ki ichhayen karte hain. ve ichhayen man mein hi prakat hoti hain aur man mein hi vilin ho jati hain. in ichchhaun se hamare abhisht sadhan mein badha hoti hai. sambhav se sukh aur duःkh donon ko grahn karne ki ichha hi aatm tattv praapt karne ka sadhan hai. manushya jab sachrachar vishv ko apna leta hai, tab wo sukh praapt karta hai. jab tak wo vishv se ye sambandh nahin joD leta tab tak use manav jivan apurn lagta hai. sachrachar vishv mein jivan ki jo dhara bah rahi hai, usi mein manushya ko ullaas ka anubhav hona chahiye. tabhi wo prakrti ki sabhi lilaon mein anand ka anubhav kar apne ko hai. jo chhota sukhmay bana Dalega. vishv mein chhoti se chhoti vastu bhi upekshanaiy nahin hai. chhote chhote sarvatr anand hai. hamein jal kanon se samudr banta hai. chhote chhote anuon se vishv ki rachna hai, vahi baDhkar baDha ho jata hai. sansar mein sarvatr saundarya vishv ke prati sahanubhuti hi honi chahiye. hamein phool ki tarah apna saurabh sansar mein phaila dena chahiye. ek kshaudr sima mein baddh na rahkar anant ki or agrasar hona chahiye. usi anant mein leen ho jane par hum jivan ka yatharth ashay samajh jayenge. yahi kavi ke gunjan ka ashay hai.
sabhi deshon aur sabhi kalon mein manushyon ne apni saundarya bhavna, vismay aur prem ko apsara ke roop mein prakat kiya hai. kathaon mein apsara kisi na kisi ko moh mein aur prem mein Dalne ke liye prakat hoti hai. sabhi bachche apne shaishav kaal mein apni mataon se isi apsara ki katha suna karte hain, aur tab unke hirdai mein usi apsara ke sambandh mein kisi roop rashi ki kalpit murtti prakat ho jati hai. yauvnavastha mein ve apni priyatma ko isi kalpit apsara ke roop mein dekhte hain. kaha jata hai ki apsara indralok mein nachti hai. devon ki sabha mein wo na jane kitnon ko apne katakshon se chanchal karti hai. meghon mein jo bijli chamak jati hai, vahi kadachit uske katakshon ka abhas deti hai. akash mein jo indradhnush udit hota hai, usi se uske vastra ki chhavi ka anuman kiya ja sakta hai. nile akash mein chandarma uski venai ke phool ki sudhi dilata hai. svarg ganga mein wo jal vihar karti hai. vahan hanson ke saman chand ki prtichchhayayen jal ki tarangon mein tairti hui si malum hoti hongi. usi ke kanon ke kan mano tare ban gaye hain. usi ki deh ki kanti kamlon ke saman chanchal tarangon mein pratibimbit hoti hai. wo badal par chalti hai. chandarma mein jo mrig ka bachcha hai, use wo god mein lekar manon indradhnush ke pul par se chalkar akash ko paar karti hai. svarg ki ye kalpit apsara prithvi par yuvati ke roop mein avtirn hoti hai. yuvati jo kataksh karti hai. uski shiksha mano wo usi se pati hai. kalpana mein kaviyon ne isi roop rashi ka nirman kiya hai. wo roop rashi sabse alakshait hai; parantu vishv mein vyaapt hai. sansar mein jahan kahin sundarta, sukumarta aur vishadta hai, vahin uska astitv hai. titliyon ke pankh, chandarma ki kirnon se pratibimbit sheet bindu, asphutit kali, panchal tarang ya aviksit kamal mein uski baas hai. andhkar mein usi ke kesh ki shyamata hai. lahren usi ke haar hain. phulon ki lalima mein usi ke pad paad ki shobha hai. barf se achchhadit pahaDon mein usi ke deh ki kanti hai. ushःkaar ki lalima usi ke charm ki lalima hai. chandarma ki jyoti se udbhasit megh manon uske par hain. taron ka kanpan manon usi ke hirdai ka spandan hai. saundarya ki wo bhavna chirkal se vidyaman hai. wo kabhi band nahin hui, wo kabhi kshain nahin hui. pratyek yug mein saundarya ki bhavna mein navinata aa jati hai. is prakar kisi na kisi roop mein us roop rashi ka darshan hum log karte hi hain. kya manushya, kya devta, kya rishi, sabhi prakar ke logon ke liye ye roop akarshak hai. manushyon ki sabhi ichhayen usmen leen hain. sukh duःkh, paap punny, sabhi mein us roop rashi ki vidymanta hai aur uska kabhi ant nahin hone ka. jab tak sansar mein saundarya hai, tab tak saundarya ko murtimti banakar apsara ke roop mein hum dekhenge hi.
meri samajh mein to pant ji ki sabse baDi visheshata hai unki yahi apsara si kalpana. apne jivan ke prarambh kaal mein unhonne sansar ko rahasyamay dekhaः kintu us rahasy ka udghatan karne ke liye unhonne gyaan ka ashray nahin liya. ekmaatr kalpana se hi unhonne sansar ko samajhne ki cheshta ki. unhen vismay hua, atank hua, anand hua, moh hua. par in sabhi bhavon ke udrek se ve prakrti ke aur bhi adhik samip ho gaye. prakrti unke liye jaD vastu nahin, sundarta ki sajiv devi hai, jo unki sahachri hokar sadaiv unke saath bani rahti hai. prakrti ke is jivan se prithak hokar pant ji ne jo kuch bhi likha hai, usmen na bhavon ki wo sukumarta hai aur na kalpana ki wo navinata. pant ji yatharth jagat ke kavi nahin. jivan sangharsh se unka koi prayojan nahin. sansar ki samasya unke liye nahin. atmachintan unka kaam nahin. ve to prakrti ke kavi hain—kalpana unka kshaetr hai aur saundarya unka raajy.
gat pachis varsh ke bhitar hindi ke kaavy kshaetr mein baDa parivartan hua hai. is parivartan ko tumhein aspasht karne ke liye main yahan chaar kaviyon ki charcha karta hoon. adhunik hindi kaviyon mein sabse adhik prasiddhi babu maithilishran gupt ki hai. unhin ki rachnayen sabse adhik lokapriy hain, unke karan unka janm sthaan chirganv (jhansi) bhi prasiddh ho gaya hai. adhunik yug ki sabhi bhavnayen unki kritiyon mein vidyaman hain. desh bhakti, aatm sudhar, svavalamban, vishv prem, uchchadarsh, deshabhiman aur svdharmanurag—yahi sab bhaav unki kavitaon mein murtiman hain.
apne kavita kaal ke prarambh se lekar aaj tak guptji sabhi prakar ke pathkon mein lokapriy bane hue hain. pahle pahal braj sahity ke kalpnonmad ke viruddh jo ek pratikriya arambh hui, wo sabse pratham maithilishran ji ki rachnaon mein hi bilkul aspasht hui hai. unki bharat bharti mein desh ka yatharth chitran hua hai. iske baad pauranaik kahaniyon ko lekar unhonne jo kaavy kathayen likhin, unmen sarvatr manaviy bhavon ki hi pradhanta rakhi. tulsidas ne sansar mein bhagvan ka darshan karaya, manushya jivan mein devatv ka pradarshan kiya. guptji ki ye visheshata hai ki unhonne devon mein manaviy bhavon ki pratishtha ki. manushyon ki samast durbaltayen aur kshamtayen unke dev tuly patron mein prakat hui hain. saket ki lokapriyta ka sabse baDa karan yahi hai. usmen urmila ki gooDh vyatha, sita ka prem, raam aur laxman ki sneh jany durbalta—ye sab aisi baten hain, jo gupt ji ke patron ko hamare atyadhik nikat la deti hain. ramachrit manas mein sita ka jo alaukik prem aur ramachandr ka jo achintya svarup ankit hua hai, wo pathkon ke liye andhigamy hai. raam aur sita unke aradhyadev hain—unse unke hirdai mein atank, vismay aur bhakti ka udrek ho sakta hai. kintu gupt ji ke charitr chitran ki ye visheshata hai ki inhin patron se pathkon ke hirdai mein sah vedna aur sahanubhuti ke bhaav jagrat hote hain.
adhunik yug mein saty ki pariksha arambh hone par log apne antarjgat ki yatharth pariksha karne ke liye udyat hue, tab unhonne vahan ek atinindray jagat ka abhas paya. wo jagat aspasht rahne par bhi utna hi yatharth hai, jitna ki baahy jagat. uske prabhav ka hum log apne jivan mein anubhav karte rahte hain. jis prakar atit kaal ke charitr jivan par akshay prabhav Dalte hain, usi prakar hum log apne jivan mein ye bhi anubhav karte hain ki hum jo kuch dekh rahe hain, usi mein hamara ant nahin hai. iske atirikt bhi hamara ek jivan hai aur us jivan ka sambandh hamare vartaman jivan se hai. isi rahasyamay jivan ko aspasht karne ke liye hindi mein vastuvad ke viruddh jo ek pratikriya arambh hui, wo kaviyon ki rachnaon mein chhayavad ke naam se prakat hui. log mano yatharth jagat ki simabaddh manav lila se virakt hokar kisi asim ya anant jivan ki prapti ke liye vyagr ho uthe. ye vyagrata chhayavad ki rachnaon mein prakat hui hai. gupt ji ki rachnaon mein bhi hum us bhaav ka purvabhas pate hain, jo pichhe se chhayavad ka naam grahn kar thoDe hi dinon mein hindi ke vartaman kaviyon mein atyant lokapriy hua hai. is prakar hum dekhte hain ki gupt ji ki kavitaon mein jahan ek or desh ki uchchatam akanksha ki dhvani hai yahan dusri or navyug ki sabhi bhavnayen bhi sthaan pa chuki hain.
siyaramashran gupt hindi ke prakhyat kavi maithilishran gupt ke anuj hain. un par gupt ji ka vishesh prabhav paDa hai. unki shaili aur bhasha to gupt ji ki shaili aur bhasha ka hi abhas deti hai; parantu donon ki vichardharajon aur kavyvastu mein baDi vibhinnata hai. maithilishran gupt ne vishay ki mahatta par sadaiv dhyaan diya hai. unke kaavy naykon ke charitr udaatt hain, kaavy vastu mahat hai aur unka kaavy kshaetr bhi atyant vistrit hai. siyaramashran ne sarvasadharan ke dainik jivan ko hi apni kavita ke liye upyukt samjha hai. sukh duःkh ki jo ghatnayen hamare jivan mein pratidin hoti rahti hain, bhavon ke jo ghaat pratighat hum logon ko hamein moh jaal mein phansayen rahti hain, ve sabhi unke varnaniy vishay hain. unki kahaniyon vikshaubdh karte rahte hain, aasha nirasha, sanyog viyog, utthaan patan ki jo lilayen aur natkon mein hum yahi baat pate hain. kavi drashta kahe jate hain, parantu siyaramashran ji aise darshak hain, jo kabhi bhi tatasth ya virakt nahin rah sakte unka hirdai sadaiv un ghatnaon se dravibhut hota rahta hai, jinka ve varnan karte hai. unki rachnaon mein unka ye udveg, unka ye kshaobh bilkul aspasht lakshait hota hai. maithilishran gupt atit aur vartaman ke chitr pradarshit kar hamein bhavishya ka sanket karate hain. unki vani mein aasha aur vishvas ki driDhata hai. unmen gambhirta aur sthirta hai; par siyaramashran ji ki rachnaon mein ek adhairy hai ashishnauta hai, asantosh ki teevr bhavna aur vidroh hai. unki ganana adhunik krantikari kaviyon mein avashy nahin ki ja sakti, parantu ismen sandeh nahin ki unki rachnaon mein wo ashanti avashy hai, jo kranti ka purvabhas deti hai.
parsad ji pratibha sampann kalakar the. unki shaili unhin ki shaili hai. unke sabhi granthon mein ek vishesh prakar ki maulikta nihit hai, jis par parsad ji ke vyaktitv ki puri puri chhaap hai. logon ne kitne hi kaviyon ka anukarn kiya hai; par parsad ji ka anukarn koi nahin kar saka. unki bhasha sanskrit mishrit avashy hai; parantu usmen ek vishesh oj aur bhasha ki visheshata ke karan ve pahle lokapriy nahin hue. unki lokapriyta tab baDhi, jab logon ne unki kritiyon ka dhyanapurvak adhyayan kiya. unke sarvashreshth kaavy kamayini par unhen manglaprsad paritoshik mila bhi, to mirtyu ke baad.
parsad ji ki srijan shakti bhi apurv thi. unhonne kavitayen likhin, kahaniyan likhin aur naatk tatha upanyas bhi rache. is sab mein unki apurv srijan shakti vidyaman hai. ve hindi ke ek maatr aitihasik natakkar kahe ja sakte hain. unke natkon mein aitihasik vatavarn baDi kushalta se nirmit kiya gaya hai. unke paatr itihas ke nar kankal nahin hain, atit yug ke sajiv charitr hain. unhonne apni kathaon mein samaj ka yatharth chitr ankit karne ka prayatn nahin kiya, iske viprit apni vishisht bhavna ke anusar ek aupanyasik sansar ki rachna kar usmen bhinn bhinn patron ke manasik jagat ka antardvandv dikhlaya hai. unka koi bhi paatr aisa nahin hai, jise hum apna parichit sathi samajh saken. pathkon ke liye ve sabhi aprichit vekti ke saman hain. par aise patron ke prati bhi pathkon ke hirdai mein sahvedna ka bhaav jagrat karne mein parsad ji safal hue hain aur unki sabse baDi visheshata yahi hai.
sumitranandan pant almoDa ke nivasi hain. hindi ke vahi ek aise kavi hain, jinki yatharth shiksha prakrti devi ki god mein hui hai. balyakal se lekar aaj tak ve prakrti ki upasna mein nimagn hain. unki kavita ke pravah mein hum parvat ki nirjharinai ki gati dekhte hain. unki rachnaon mein vahi komalta, vahi snigdhata, vahin madhurta aur vahi uchchhrinkhalta hai, jo hum prakrti mein sahj hi pate hain. pant ji ne apne liye nae chhandon ki rachna ki, nai upmaon ki sirishti ki aur ek naya hi path khoj nikala. unki bhasha bhi unki kalpana ke upyukt hai—usmen madhurta hai, sukumarta hai aur kshipragati hai. shabdon ke chayan mein unhonne kaushal dikhaya hai.
mujhe smarn hai ki 1920 mein allahabad ke jain borDing house mein ek kavi sammelan ka ayojan kiya gaya tha. uske sabhapati the panDit ayodhyasinh upadhyay. us sammelan mein pant ji ne jab apni kavita paDhi, tab sari upasthit janta mugdh ho gai. upadhyay ji ne unhen mala pahnai. us samay pant ji solah varsh ke rahe honge. unke svar mein jo madhurya tha, vahi madhurya unki rachna mein tha. unmen jo sukumarta aur sundarta thi vahi unki bhasha mein thi. iske pahle unki kavita prakashit bhi ho gai thi. mujhe aisa jaan paDa tha ki pant ji ne apni ek bhasha ke indrajal mein sab logon ko vashibhut kar liya hai. main vij~n ki tarah sir hilakar apne ko us indrajal se bachana chahta tha. mainne kaha ki shabdon ke arthahin saundarya mein kya rakha hai. tab pant ji ne mujhko kalrav naam ki kavita di. nadi ki kalrav dhvani, patton ki marmar dhvani aur khagon ke kalrav mein jo ramnaiyata aur sundarta hai, vahi unhonne apni un teen kavitaon mein vyakt kar di thi. main niruttar ho gaya; par unki kavita ke is indrajal se bachne ke liye main aur bhi adhik prayatn karne laga. ek din unhonne mujhko maun nimantran aur shishu namak kavitayen sunai aur unhen sunkar main avak rah gaya. usi din se main unka bhakt anuchar ho gaya. aaj hindi ki jo paanch pustken mujhe sabse adhik priy hain unmen ek pant ji ka pallav hai.
kaha jata hai ki gunjan mein pant ji jivan kshaetr ke bhitar adhik pravisht hue hain. unki kaavy shaili bhi usmen adhik sanyat aur gambhir hai. gunjan ke sambandh mein svayan kavi ne likha hai ki wo pranon ka unman gunjan hai. yauvan kaal ke autsuky poorn lalsapurn bhavon ka udgaar usmen hai. yuvavastha mein jo adesh aata hai, usmen jivan ki madhurta pane ke liye jo aturta rahti hai, usi jivan ki ismen abhivyakti hui hai. sansar mein vedna hai; parantu usi vedna ko sahne se hirdai komal hota hai, usmen ujjvalta aati hai, usi se wo sansar se atmiyata sthapit kar leta hai. svaarth ki kshaudr sima se use chhutkara mil jata hai. tab samast vishv se wo sambandh joD leta hai. sansar mein jo sukh duःkh ke bhaav hote rahte hain, un sab ko sah leta hai. akele mein wo shunyata ka anubhav karta hai; parantu jab wo apne jivan ko vishv ke jivan mein mila deta hai, tab wo sarthakta praapt karta hai aur sukh ka anubhav karta hai. sansar mein sukh duःkh ka milan anand se rahit nahin hai. sukh duःkh donon ko saman bhaav se grahn karne mein hi madhurya hai. aisa koi nahin hai jiske hirdai mein sukh ke phool ke saath duःkh ke kante na ho. parantu isi sukh duःkh mein sansar ka jivan hai. duःkh ko anand rahit nahin samajhna chahiye, kyonki duःkh ke asvadan karne par hi hamein anand ka anubhav hota hai. jaise andhkar ke baad parkash hota hai, vaise hi duःkh ke baad sukh bhi hota hai. sukh aur duःkh donon asthir hain. jivan nity hai. kanton mein rahkar hi phool khilte hain agni mein jalkar hi sona ujjval hota hai. davagni se jal jane par van mein megh ki vrishti hone par nae ankur uthte hain. usi prakar duःkh mein bhi hamko sukh chhipa phool khilte hua milta hai. hamein sukh dvara duःkh ko apnana chahiye. mithya piDa se hum log pratipal vyakul hote hain. jivan mein hum tarah tarah ki ichhayen karte hain. ve ichhayen man mein hi prakat hoti hain aur man mein hi vilin ho jati hain. in ichchhaun se hamare abhisht sadhan mein badha hoti hai. sambhav se sukh aur duःkh donon ko grahn karne ki ichha hi aatm tattv praapt karne ka sadhan hai. manushya jab sachrachar vishv ko apna leta hai, tab wo sukh praapt karta hai. jab tak wo vishv se ye sambandh nahin joD leta tab tak use manav jivan apurn lagta hai. sachrachar vishv mein jivan ki jo dhara bah rahi hai, usi mein manushya ko ullaas ka anubhav hona chahiye. tabhi wo prakrti ki sabhi lilaon mein anand ka anubhav kar apne ko hai. jo chhota sukhmay bana Dalega. vishv mein chhoti se chhoti vastu bhi upekshanaiy nahin hai. chhote chhote sarvatr anand hai. hamein jal kanon se samudr banta hai. chhote chhote anuon se vishv ki rachna hai, vahi baDhkar baDha ho jata hai. sansar mein sarvatr saundarya vishv ke prati sahanubhuti hi honi chahiye. hamein phool ki tarah apna saurabh sansar mein phaila dena chahiye. ek kshaudr sima mein baddh na rahkar anant ki or agrasar hona chahiye. usi anant mein leen ho jane par hum jivan ka yatharth ashay samajh jayenge. yahi kavi ke gunjan ka ashay hai.
sabhi deshon aur sabhi kalon mein manushyon ne apni saundarya bhavna, vismay aur prem ko apsara ke roop mein prakat kiya hai. kathaon mein apsara kisi na kisi ko moh mein aur prem mein Dalne ke liye prakat hoti hai. sabhi bachche apne shaishav kaal mein apni mataon se isi apsara ki katha suna karte hain, aur tab unke hirdai mein usi apsara ke sambandh mein kisi roop rashi ki kalpit murtti prakat ho jati hai. yauvnavastha mein ve apni priyatma ko isi kalpit apsara ke roop mein dekhte hain. kaha jata hai ki apsara indralok mein nachti hai. devon ki sabha mein wo na jane kitnon ko apne katakshon se chanchal karti hai. meghon mein jo bijli chamak jati hai, vahi kadachit uske katakshon ka abhas deti hai. akash mein jo indradhnush udit hota hai, usi se uske vastra ki chhavi ka anuman kiya ja sakta hai. nile akash mein chandarma uski venai ke phool ki sudhi dilata hai. svarg ganga mein wo jal vihar karti hai. vahan hanson ke saman chand ki prtichchhayayen jal ki tarangon mein tairti hui si malum hoti hongi. usi ke kanon ke kan mano tare ban gaye hain. usi ki deh ki kanti kamlon ke saman chanchal tarangon mein pratibimbit hoti hai. wo badal par chalti hai. chandarma mein jo mrig ka bachcha hai, use wo god mein lekar manon indradhnush ke pul par se chalkar akash ko paar karti hai. svarg ki ye kalpit apsara prithvi par yuvati ke roop mein avtirn hoti hai. yuvati jo kataksh karti hai. uski shiksha mano wo usi se pati hai. kalpana mein kaviyon ne isi roop rashi ka nirman kiya hai. wo roop rashi sabse alakshait hai; parantu vishv mein vyaapt hai. sansar mein jahan kahin sundarta, sukumarta aur vishadta hai, vahin uska astitv hai. titliyon ke pankh, chandarma ki kirnon se pratibimbit sheet bindu, asphutit kali, panchal tarang ya aviksit kamal mein uski baas hai. andhkar mein usi ke kesh ki shyamata hai. lahren usi ke haar hain. phulon ki lalima mein usi ke pad paad ki shobha hai. barf se achchhadit pahaDon mein usi ke deh ki kanti hai. ushःkaar ki lalima usi ke charm ki lalima hai. chandarma ki jyoti se udbhasit megh manon uske par hain. taron ka kanpan manon usi ke hirdai ka spandan hai. saundarya ki wo bhavna chirkal se vidyaman hai. wo kabhi band nahin hui, wo kabhi kshain nahin hui. pratyek yug mein saundarya ki bhavna mein navinata aa jati hai. is prakar kisi na kisi roop mein us roop rashi ka darshan hum log karte hi hain. kya manushya, kya devta, kya rishi, sabhi prakar ke logon ke liye ye roop akarshak hai. manushyon ki sabhi ichhayen usmen leen hain. sukh duःkh, paap punny, sabhi mein us roop rashi ki vidymanta hai aur uska kabhi ant nahin hone ka. jab tak sansar mein saundarya hai, tab tak saundarya ko murtimti banakar apsara ke roop mein hum dekhenge hi.
meri samajh mein to pant ji ki sabse baDi visheshata hai unki yahi apsara si kalpana. apne jivan ke prarambh kaal mein unhonne sansar ko rahasyamay dekhaः kintu us rahasy ka udghatan karne ke liye unhonne gyaan ka ashray nahin liya. ekmaatr kalpana se hi unhonne sansar ko samajhne ki cheshta ki. unhen vismay hua, atank hua, anand hua, moh hua. par in sabhi bhavon ke udrek se ve prakrti ke aur bhi adhik samip ho gaye. prakrti unke liye jaD vastu nahin, sundarta ki sajiv devi hai, jo unki sahachri hokar sadaiv unke saath bani rahti hai. prakrti ke is jivan se prithak hokar pant ji ne jo kuch bhi likha hai, usmen na bhavon ki wo sukumarta hai aur na kalpana ki wo navinata. pant ji yatharth jagat ke kavi nahin. jivan sangharsh se unka koi prayojan nahin. sansar ki samasya unke liye nahin. atmachintan unka kaam nahin. ve to prakrti ke kavi hain—kalpana unka kshaetr hai aur saundarya unka raajy.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।