हिंदी का पद्य साहित्य
hindi ka pady sahity
पद्य-काव्य की बदौलत भारतीय अन्य भाषाओं में ही नहीं, वरन सभी देशों की सभी भाषाओं के सामने हिंदी का सिर ऊँचा है। पराधीन होने पर भी हम लोगों में इतना जात्यभिमान शेष है कि हम अपने यहाँ की सभी वस्तुओं को हीन नहीं समझते, विशेषतया उन विषयों में, जिनमें किसी स्वदेशी पदार्थ की उत्तमता सिद्ध हो सकती है। हम पहले ही कह आए हैं कि जिस शेक्सपियर को अंग्रेज़ लोग संसार के साहित्य का मुकुटुमणि मानते हैं, उसकी रचनाओं के सामने भी गोस्वामी तुलसीदास जी की कविता उच्चतर पाई जाती है। इसका सविस्तर विवेचन हमने अपने 'मिश्रबंधु-विनोद' एवं 'हिंदी नवरत्न' में किया है। उन्हीं बातों को दोहराकर मैं आप महानुभावों का अमूल्य समय नष्ट नहीं करना चाहता। कारणों के होते हुए यदि हम अपने जटाजूटधारी प्रिय गोस्वामी जी को समस्त संसार में अद्वितीय कवि मानें, तो किसी को उसमें अतिशियोक्ति का भ्रम क्यों होना चाहिए? हमने सांसारिक सभी चढ़ाइयों को प्रायः खो दिया है, पर हमारा अद्वितीय साहित्य अब भी हम लोगों का मस्तक ऊँचा किये हुए हैं। इसकी दृढ़ता प्रमाणित करने के लिए हम उन महानुभावों से, जिन्होंने हमारे उपर्युक्त 'मिश्रबंधु-विनोद' एवं 'हिंदी-नवरत्न’ नामक ग्रंथों का अवलोकन नहीं किया है, इतना कष्ट उठाने का अनुरोध करेंगे। इसमें संदेह नहीं कि व्यास, कालिदास, श्रीहर्ष, शेक्सपियर, चासर, मिल्टन, सादी, हाफ़िज़, खाकानी, उर्फ़ी, सौदा, मीर, आतिश, पुश्किन, होमर, वर्जिल, तुकाराम, मधुसूदन-दत्त प्रभृति अनेक कविजन संसार में हो गये हैं। पर जहाँ तक हमें ज्ञात हो सका है, इनकी कविता के सामने हिंदी कवियों को नीचा नहीं देखना पड़ सकता। तुलसी, सूर, देव, हितहरिवंश, बिहारी, भूषण, केशव, मतिराम, सेनापति, लाल, ठाकुरदास, पद्माकर, रहीम, दूलह, सेवक, कबीर, चंद, हरिश्चंद्र, मीराबाई, श्रीधर, रत्नाकर, नरोत्तम इत्यादि हिंदी के सैकड़ों उत्कृष्ट कवि पड़े हैं, जिनकी जितनी प्रशंसा की जाए, थोड़ी है। हमारा यह तात्पर्य कदापि नहीं कि इनमें से प्रत्येक अथवा बहुतेरे कवि अन्य भाषाओं के सभी कवियों से बढ़कर हैं, पर तुलसीदास को हम निस्संकोच सभी के ऊपर समझते हैं, एवं कतिपय अन्य हिंदी कवियों से बढ़कर कवि अन्य भाषाओं में खोज निकालना कठिन काम है। हम यह मानते हैं कि इधर 100-150 वर्ष से हिंदी में भारतेंदु के अतिरिक्त परमोच्च कक्षा का प्रायः कोई भी कवि उत्पन्न नहीं हुआ है, पर एक तो थोड़े-से समय का मिलान 5-7 सौ वर्ष से करना उचित नहीं, और दूसरे यह कि आजकल हिंदी का गद्य-काल है। तो भी थोड़े बहुत चमत्कारी कवि इस समय में भी हो गए, तथा वर्तमान हैं।
हमने सन् 1900 की 'सरस्वती’ पत्रिका में हिंदी-काव्य आलोचना, शीर्षक एक बड़ा सा लेख लिखा था, जिसमें हम (मिश्रबंधुओं) ने हिंदी-साहित्य में जो-जो त्रुटियाँ समझ पड़ी, लिख दी थीं। आज 32 वर्ष पीछे यदि देखिए, तो विदित होगा कि उनमें से अधिकांश त्रुटियाँ दूर हो गई; और प्रायः उसी मार्ग पर उन्नति हुई है, जिसका हमने निर्देश किया था। समस्या-पुर्ति-प्रथा की हमने निंदा की थी, वह अब बहुत ही संकुचित रूप में पाई जाती है, और हमारे निवेदनानुसार अब अधिकांश में समस्याओं के ठौर पर कविजन से निर्धारित विषयों पर कविता करने को कहा जाता है। विद्वानों, शूरवीरों, कार्य-दक्ष व्यक्तियों तथा सुप्रसिद्ध शासकों की चरितावली अब बहुत कुछ देखने में आती है। हिंदी-शब्द-सागर' नामक एक वृहत कोश बन चुका है, और अन्य उत्तम कोशों के बनने का आयोजन हो रहा है। कई अच्छे साधारण व्याकरण बन चुके हैं, और मैं दृढ़ता-पूर्वक अभी निवेदन कर चुका हूँ कि उसको आगे बढ़ाना अत्यंत हानिकर होगा। भारतवर्ष एवं कई अन्य देशों के कतिपय उत्तम इतिहास अन्य प्रस्तुत हो गए हैं। भूगोल-ग्रंथों की कहाँ तक कहें, इस विषय का एक सामयिक पत्र भी प्रकाशित होता है। रसायन, विज्ञान, गणित और दर्शन शास्त्र के अनेक ग्रंथ दृष्टिगोचर होते हैं। त्वरित लेखन-कला भी अच्छी उन्नति कर रही है। उधर प्राकृतिक एवं हृदयांतरिक भावों के प्रदर्शक अनेक साहित्य-ग्रंथ तैयार हो गए हैं, जिनमें प्रसंगानुमार ठौर-ठौर पर सामाजिक कुरीतियों के सुधार तथा सुरीतियों के प्रचार का अनुरोध आया जाता है। चरित्र-चित्रण की प्रथा भी उन्नति पर है, और समालोचना का समुचित आदर हो चला है, यद्यपि दुर्भाग्यवश अनेक समालोचक कड़े शब्दों एवं गालिप्रदान तक से अपने लेखों तथा ग्रंथों को कलुषित करने से कभी-कभी नहीं हिचकते! थोड़ा ही समय हुआ, रायसाहब बाबू श्यामसुंदरदास जी ने 'हिंदी-भाषा और साहित्य’ नामक एक उत्तम ग्रंथ लिखा है, जिससे भाषा-विज्ञान तथा हिंदी-साहित्य का अच्छा पता लगता है, तथा पं. रामशंकर शुक्ल 'रसाल' का हिंदी साहित्य का इतिहास, भी अति श्लाघ्य ग्रंथ है। अद्भुत और आश्चर्यजणक घटनाओं से पूर्ण अप्राकृतिक उपन्यासों की अब तादृश भरमार नहीं पाई जाती, यह संतोष की बात है। पहले रीति-ग्रंथों (अलंकार, नायिका-भेद इत्यादि विषयों के ग्रंथों) की ऐसी चाल पड़ गई थी कि प्रायः प्रत्येक कवि इन पर दो एक ग्रंथ लिख डालना आवश्यक समझता था, और बहुतेरे तो इसी को कविता मानते थे, पर यह प्रथा भी अब बहुत कुछ घट गई है। एक प्रकार से कहा जा सकता है कि पदार्थ-निर्णय, भाव-भेद, रस-भेद, नायिका-भेद, पिंगल, अलंकारादि के काव्य-ग्रंथों का निर्माण होना अब प्रायः बंद-सा हो गया है, और कथा-प्रासंगिक, स्वदेश-प्रेमालंकृत कविताओं का प्रचार एवं सम्मान बढ़ चला है, जो आनंद की बात है। परंतु कहना ही पड़ता है कि ऐसे ग्रंथों का अभी प्रचुरता से निर्माण होना नहीं पाया जाता।
एक विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि अब तक काव्य-विषयों की संकीर्णता ही चली आती है; और बहुत करके कविगण उन्हीं शताब्दियों पुराने विषयों को ही रेतते चले आते हैं, जैसे रामचरित, कृष्ण-कथा, महाभारत के कुछ कथानक (यथा द्रौपदी का चीर-हरण, अभिमन्यु-वध, जयद्रथ-वध इत्यादि), और ऊपर से तुर्रा यह कि उनसे कुछ भी नूतनता लाने का प्रयत्न कदाचित् ही पाया जाता है! राम और कृष्ण अवश्य ही हमारे यहाँ के प्रातः स्मरणीय अवतारी महापुरुष थे, और उनके सद्गुणों का अंत नहीं मिलता, पर रामचरित जे सुनत अघाही, रस विसेस पावा तिन नाहीं” का समय अब नहीं रहा। अब सरस्वती जी को यदि भद्र, प्राकृत जनों के गुणगान में विशेष लगाया जाए, तो कदाचित् वह सिर धुनकर पछताने वाली अपनी पुरानी टेव को छोड़ भी बैठे, एवं विधि-भवन से इस लोक तक आते हुए आने का श्रम नितांत व्यर्थ न मानें। निदान अब देशोपकारी, देश-प्रेममय, ज्ञान-विवर्द्धक, आधुनिक प्रकार की मनोरंजक कविता करने का समय आ गया है, सो पुरानी लकीर के फ़कीर ही बने रहने से न देश एवं जाति का उपकार हो सकता है, और न हिंदी माता ही का। अब तो रटो निरंतर एक ज़बान—हिंदी, हिंदू, हिंदुस्थान' की धूम मचाना ही परम धर्म है। इसी में भलाई है। इसी में स्वर्गीय सुख की प्राप्ति संभव है। इसी ध्वनि को देश व्यापी बना देने ही से कल्याण है। केवल शृंगाररस में पड़े रहने, नायिकाओं की ब्रह्मविचार से भी सूक्ष्म कटि” एवं विंध्य लगु बाढ़िबो उरोजन को पेख्यो है इत्यादि बेसिर-पैर के वर्णनों का समय अब सदा के लिए चल बसा!
हिंदी में सैकडों हज़ारों प्रकार के छंद हैं, पर बहुधा लोग बहुत थोड़े से छंदों का ही व्यवहार करते हैं, सो ठीक नहीं। हमारे एक मित्र—विशाल कवि एक बार 'सरस्वती' पत्रिका में एक ही छंदवाली में एक वृहत् कविता को देखकर ऐसे ऊबे कि बोले—बिरच्यो छंद राम को रसरा, जो सरसुती पत्र महँ पसरा बीच-बीच में समुचित प्रकार से छंदों के बदलते रहने से कविता का आनंद अवश्य बढ़ जाता है, यद्यपि उसमें बहुत द्रुतगति दिखलाना भी ठीक नहीं। छंदों में तुकांत तीन प्रकार के हैं—सम सरि, विषम सरि और कष्ट सरि, हम इन सबों के प्रयोग के पक्ष में हैं। छंदों में प्रति पंक्ति के अंत में विश्राम-चिह्न प्रायः हुआ ही करता है, पर इसकी भी कोई आवश्यकता कदापि नहीं है। अँग्रेज़ी में तो इसके विरुद्ध 'रन-ऑन लाइन्स (विश्राम-चिह्न-रहित-पंक्तियाँ) बड़ी श्लाघ्य मानी गई है। तुकांत के लिए एवं अन्य कारणों से कविजन कभी-कभी शब्दों का अनुचित तोड़-मरोड़ करते हैं, जो अच्छा नहीं कहला सकता। थोड़ी-बहुत पद-मैत्री अच्छी हो सकती है, पर उसका बहुतायत से प्रयोग करना नितांत अनुचित है। चित्र-काव्य का प्रचार भले ही अब उठ सा गया है। अतिशयोक्ति का व्यवहार कविता में अवश्य ही थोड़ा-बहुत हो सकता है, पर उसे उपहासास्पद कदापि न हो जाने देना चाहिए। अप्राकृतिक एवं असंभव वर्णन कभी हृदय-ग्राही नहीं हो सकते। किसी विरहिणी की उसाँसों से जाड़े में भी किसी ग्राम के आस-पास लूएँ चलने का वर्णन हमारी समझ में अवश्य उपहास की बात है। अश्लीलता दो प्रकार की होती है—एक शब्दों की और दूसरी अर्थ की। शब्दाश्लीलता तो सत्कवि प्रायः बचाए ही रहते हैं, पर अश्लीलता के चक्कर में कभी-कभी भारी कवि तक पड़ जाते हैं। इन दोनों को ही एकदम बचाए रहना आवश्यक है। कूट-काव्य को हम प्रशंसनीय नहीं समझते। कविता एक वस्तु है, और पहेलियाँ बुझाना दूसरी ही बात, तथा इसमें कुछ भी अलौकिक आनंद नहीं आ सकता। प्रायः यही दशा दूर की कौड़ी लाने की है। यों तो कवित्व-शक्ति ईश्वर-प्रदत्त होती है, पर जो मनुष्य पिंगल के नियमों से अपनी रचनाओं को नाप-नापकर लिखेगा, वह वास्तविक कविता कर ही नहीं सकता। सच्चे कवियों की कर्ण-तुला ही पिंगल हुआ करती है।
पर इन सब बातों का तात्पर्य यह नहीं कि काता और ले दौड़ी।” कोई ग्रंथ लिखकर उसे तत्काल प्रकाशित कराने का प्रयत्न करने लगना ठीक नहीं; उसे दो-चार बार संशोधन करने से उसकी त्रुटिययाँ बहुत कुछ निकल जाती हैं। स्मरण रखना चाहिए कि स्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी ने जगत्-प्रसिद्ध 'रामचरित-मानस' (रामायण) का निर्माण संवत् 1631 में प्रारंभ किया, पर प्रायः 40 वर्ष तक उसे अपनी बगल में ही दबाये रहे, और 1670 के पीछे सर्व-साधारण को दिखाया। इसी भाँति बिहारी ने हज़ारों दोहे फाड़-फाड़कर फेंक दिए, और केवल 712 रख छोड़े, जिन पर उनका सारा यश अवलंबित है।
कवि में जिन-जिन बातों की आवश्यकता है, वे हैं ईश्वरीय देन, काव्य-रीति का पठन, प्राकृतिक एवं मनुष्य कृत पदार्थों पर पैनी दृष्टि। ध्यान-पूर्वक निरीक्षण, अनुभव, विषय का विचार-पूर्वक और समयानुकूल चुनाव, तल्लीनता एवं सहृदयता। इन सब के एकत्रित होने से ही श्रेष्ठ कविता बन सकती है। ऐसे ही कवियों पर देश और जाति को अभिमान हो सकता है। प्रसिद्ध है, अंग्रेज़ लोग यहाँ तक कह देते हैं कि हम ब्रिटिश साम्राज्य तक खो देने को तैयार हैं, पर शेक्सपियर को कदापि खोना नहीं चाहते! क्या इसी भाँति हमें गोस्वामी तुलसीदास पर श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए? ऐसा अब भी है, पर ऐसे विचारों की अधिक उन्नति पूर्णतया वांछनीय है।
भाषा की शुद्धता, वर्णनों की मनोरमता, अलंकारादि का नैसर्गिक प्रयोग, प्राकृतिक एवं हृदय-ग्राही भाव इत्यादि बिना विशेष परिश्रम के सत्कवियों की रचनाओं में आप-ही-आप प्रचुरना से पाए जाते हैं, यह नहीं कि संख्या करि लीजै अलंकार हैं अधिक यामै इत्यादि। इन्हें एवं ऐसे ही विचारों से हमने अपने ‘मिश्रबंधु विनोद' में कवियों के वर्गीकरण करने का साहस किया है, और नवरत्नों तथा 6-7 अन्य श्रेणियों में—हिंदी के वर्तमान लेखकों को छोड़, क्योंकि उसमें तो बड़ा ही कोलाहल मच जाता—सभी छोटे-बड़े कवियों का यथायोग्य स्थान नियत करने का प्रयत्न किया है। ऐसा करने में, संभव है हमने अनेक भूलें की हो; पर जान-बूझकर किसी का स्थान अनुचित रीति से ऊँचा अथवा नीचा करने में हमें क्या लाभ अथवा हानि हो सकती थी? अधिकांश हिंदी-प्रेमियों ने हमारे इस प्रयत्न को अच्छा एवं सराहनीय माना, पर दो-चार आलोचकों ने उसका काफ़ी विरोध किया, और हमसे पूछने लगे कि हमारे पास कविता के गुण-दोष नापने वाली वह कौनसी तुला थी, जिसकी सहायता से हमने ऐसा करने का साहस किया, यद्यपि हमने इस तुला का ब्योरेवार वर्णन अपने 'विनोद' की ही भूमिका में पूर्ण रीति से कर दिया था! भला ऐसे सज्जनों को कोई क्या उत्तर दे? कुछ महानुभाव तो यहां तक बिगड़े कि हमें बहुतेरी टेढ़ी-सीधी तक सुनाई, तथा देव और बिहारी की हमारी तुलनात्मक अलोचना पर तो पूरा बखेड़ा ही उपस्थित हो गया, यहाँ तक कि चिरंजीवि कृष्णबिहारी मिश्र को 'देव और बिहारी’ नामक एक प्रसिद्ध ग्रंथ इस पर लिखना पड़ा। हम इस विषय पर इतना ही और निवेदन कर देना चाहते हैं कि न देव जी हमारे कोई रिश्तेदार थे, और न बिहारी जी किसी प्रकार के बैरी। हमने तो निष्पक्ष भाव से दोनों महाकवियों की कविताओं का मिलान करके हमें जैसा कुछ न्याय-संगत समझ पड़ा, लिख दिया। हम यह नहीं कहते कि विद्या-संबंधी वाद-विवाद होने ही न चाहिए। इनका होना सजीवता का एक बड़ा लक्षण है, पर ऐसा करने में किसी को निष्कारण अनुचित पक्षपात का दोषी ठहराना अथवा तू-तू मैं-मैं करना किसी विद्वान् पुरुष को शोभा नहीं देता।
कविता में ओज, माधुर्य और प्रसाद, ये तीन गुण माने गए हैं। अवसर एवं विषय के अनुकूल ये सभी अच्छे लगते हैं, पर प्रसाद गुण प्रायः सभी ठौर पर सुहावना जान पड़ता है, एवं माधुर्य की भी ओज के सामने बहुधा प्रधानता समझी जाती है। अतुकांत कविता संस्कृत, अँग्रेज़ी एवं कतिपय अन्य-देशीय और प्रांतीय भाषाओं में प्रचुरता से पाई जाती है, और हिंदी में भी इसके प्रचार से हमें कुछ हानि प्रतीत नहीं होती। खड़ी बोली में सीतल कवि ने 18 वीं शताब्दी में तथा पं, श्रीधर पाठक, बाबू मैथिलीशरण गुप्त एवं कतिपय अन्य कवियों ने हाल में अच्छी कविता की, तथा कर रहे हैं। स्मरण रहे कि कोरी तुकबंदी का नाम कविता कदापि नहीं हो सकता। बिना किसी प्रकार की प्रतिभा के काव्य कैसा? मैं तो मानता हूँ कि लावै उक्ति ना अनूठी, तो लौ झूठी कविताई है।”
नाटकों के लिए कोई विशेष नियम होने की कुछ भी आवश्यकता नहीं मालूम पड़ती, चाहे वे सुखांत हो अथवा दुःखांत। हाँ, विषय वर्णनीय हो, और उसका वर्णन अच्छी तरह किया जाए। नाटकों में यह ध्यान रखना चाहिए कि उनका अभिनय सुगमता से किया जा सके। एक तो उत्तरीय भारत में शुद्ध हिंदी के नाटकों का अभिनय बहुआ होता ही बहुत कम है। अधिकांश में उर्दू के तथा निम्न श्रेणीवाले हँसी-मजाक के नाटक खेले जाते हैं, जिसका परिणाम हिंदी-नाटककारों के उत्साह को भंग करने वाला होता है। बंगाल एवं दक्षिणी तथा पश्चिमी भारत में बंगला, मराठी, गुज़राती इत्यादि भाषाओं के नाटक अभिनय-मंच पर धूमधाम से खेले जाते हैं, जिससे उनके रचयिताओं का शीघ्र ही यश फैल जाता और उनका उत्साह दिन दूना, रात चौगुना विवर्द्धित होता है। दूसरे, यदि कोई नाटक ऐसा बने, जिसके अभिनय में प्रबंध की अड़चन पड़े, तब उसका खेला जाना असंभव ही समझना चाहिए। नाटक-रचयिताओं को इस बात पर सदैव ध्यान रखना चाहिए। हिंदी-नाटकों की उन्नति में इस अभिनय के प्रायः अभाव के कारण सबसे अधिक अड़चन पड़ी है, और परिणाम यह हुआ कि साहित्य के बहुतेरे अंगों की इतनी परिपूर्णता होते हुए भी हिंदी में अच्छे नाटक-ग्रंथों की संख्या बहुत थोड़ी है। आशा है, नाटक-प्रेमीगण इन बातों पर ध्यान देने की कृपा करेंगे।
- पुस्तक : सम्मेलन निबंध माला (भाग 2) (पृष्ठ 27)
- संपादक : गिरिजदत्त शुक्ला व ब्रजबहुषण शुक्ल
- रचनाकार : श्यामबिहारी मिश्र
- प्रकाशन : गिरिजदत्त शुक्ला व ब्रजबहुषण शुक्ल
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