उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ के नाटकों का रचना-काल सन् 1938 से प्रारंभ होता है, जब द्विजेंद्र लाल राय और प्रसाद की शैली में जय-पराजय की रचना हई। 1938 में उनके एकांकी ‘लक्ष्मी का स्वागत’ और ‘अधिकार का रक्षक’ छपे। ‘पापी’ और ‘वेश्या’ इनसे पहले लिखे गए थे, पर छपे बाद में। इन सोलह वर्षों में उनके चार एकांकी संग्रह प्रकाशित हुए हैं—'देवताओं की छाया में’, ‘पक्का गाना’, ‘चरवाहे’ और ‘पर्दा उठाओ पर्दा गिराओ’, छ स्वतंत्र बड़े नाटक—'जय-पराजय’, ‘स्वर्ग की झलक’, ‘क़ैद उड़ान’, ‘छठा बेटा’ और ‘भंवर’ और तीन ऐसे नाटक जिनका आकार एकांकी से बड़ा होते हुए भी मूल प्रेरणा एकांकी की ही हैआदि मांगे, अजो दीदी और पैतरे। 16 वर्ष के इस दौरान में अश्क ने तीन बड़े उन्यास भी लिखे, कई कहानी-संग्रह, दो मार्मिक खंड-काव्य, फुटकर निबंध, संस्मरण इत्यादि और इसी दौरान में उन्होंने तपेदिक के रोगी के रूप में जीवन की उन्मुक्त धरती के सुई की नोक भर अंश के लिए मृत्यु से महाभारत लड़ा, जिसकी झलक ‘दीप जलेगी’ की चुनौती भरी पंक्तियों में मिलती है। ऐसे साहित्य-साधक की प्रतिभा और अज्ञेय लगन अभिनंदनीय है।
किंतु रचनाओं की संख्या अथवा कलेवर एवं व्यक्तिगत कठिनाइयों और संघर्ष के होते हुए भी साहित्य-साधन—इन दोनों के बल पर ही कोई लेखक युग का सफल और समर्थ नाटककार नहीं कहा जा सकता। जिन दिनों जयशंकर ‘प्रसाद’ की महान रचनाएँ काव्य में छायावाद की प्रतिध्वनि-स्वरूप हिंदी नाट्य-साहित्य का कलाकार हो रही थी, उन्हीं दिनों दो प्रवृत्तियाँ चुपचाप हमारी नाट्य-परंपरा की कायापलट कर रही थी। एक तो हमारे विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्र और अन्यापरांगत पाश्चात्य देशों के आधुनिक यथातथ्यवादी नाटककारों से परिचित होने लगे थे। उससे पूर्व प्रधानत: शेक्सपियर की कृतियों ही का प्रभाव व्यापक रूप से दृष्टिगत होना था। लेकिन इब्सन, शॉ, काल्सवर्दी इत्यादि लेखकों की रचनाओं से बारतीय शिक्षित-समाज को सहसा नए क्षितिज का आभास हुआ। इस कृतियों के सिद्धांत पक्ष की अवधारणा लक्ष्मीनारायण मिश्र के समस्या-नाटकों में हुई, यद्यपि यह स्पष्ट था कि रंगमंच-संबंधी ज्ञान का अभाव उन्हें एक सिद्धांतवादी के स्तर से ऊपर न उठने दे सका। दूसरी तत्कालीन प्रवृत्ति थी कॉलिजों के रंगमंचों पर लघु-नाटकों की माँग। सन् 32, 33 के आसपास आकर मानो शिक्षित-समाज के दर्शकगण नाटकों की ख़ातिर रतजगा करने के विचार से ऊब चले और रंगमंच के आग्रह के फलस्वरूप एकांकियों का लिखा जाना प्रारंभ हुआ। भुवनेश्वर प्रसाद और गणेशप्रसाद द्विवेदी ने इस क्षेत्र में क़दम बढ़ाया।
यो एक ओर तो पाश्चात्य समस्यामूलक नाट्य-साहित्य से किताबी परिचय प्राप्त लेखकों की रचना और दूसरी ओर अव्यावसायिक रंगमंच के लिए लघु नाटकों का प्रणयन, इन दो धाराओं का विकास सन् 36-38 तक हो चला था और उपेंद्रनाथ अश्क के नाटकों का महत्व यही है कि उनमें आगे चलकर इन दोनों धाराओं का समन्वय हुआ। पाश्चात्य नाट्य-साहित्य के किताबी ज्ञान को उन्होंने निजी अनुभव और पर्यवेक्षण के खरल में कूट-पीसकर सामाजिक दिग्दर्शन का नवीन और तथ्यपरक रसायन तैयार किया। एकांकियों से उन्होंने रंगमंच के संकेतों और शिल्प को अपनाया और इस तरह हमारे समकालीन नाटककारों में शायद अश्क ही ने स्पष्ट रूप से प्रसाद के बाद रंगमंच और साहित्य दोनों के मानदंड पर सही उतरने वाले नाट्य-साहित्य को प्रस्तुत किया। सफल एकांकीकार तो दूसरे भी हैं। सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं का प्रधानत सुपाठ्य संवादों (जिन्हें नाटकों की संज्ञा भी दी जाती है) के रूप में निरूपण भी अन्य चिंतनशील और शब्दों के चितेरे लेकर करते हैं। लेकिन दोनों प्रवृत्तियों का ऐसा सम्मिश्रण कि नाटकों की एक नवीन शैली का ही प्रस्फुटन हो जाए, अश्क ही ने किया है। पक्के इरादे और प्रयोजन के साथ उन्होंने अपने प्रथम नाटक 'जय-पराजय' के बाद प्रसाद-पद्धति को तिलांजलि दी और जो नूतन प्रेरणा, पृथक् दृष्टिकोण एवं आधुनिक शिल्पविधान इस युग में लोकप्रिय हो चले थे, उन्हें एक ढाँचे में ढालकर हिंदी नाटक को जो निजत्व और सुस्पष्ट रूपरेखा प्रदान की। हो सकता है कि जिस पद्धति का सृजन वे करते हैं, वह हिंदी में जड़ ही न पकड़ सके। भारतीय प्रकृति, रुचि और परंपरा शुद्ध यथातथ्यवादी साहित्य अथवा कला से मेल ही नहीं खाती। पाश्चात्य देशों में नाटक समाज के आगे दर्पण के तुल्य माना जाता रहा है। भारतीय वाङ्मय में नाटक दृश्य काव्य है—यानी कल्पना, अनुभूत रस और अलंकार की वह सामजस्यपूर्ण अभिव्यंजना जिसका आनंद सुनकर या पढ़कर ही नहीं रंगमंच पर देखकर उठाया जा सके। इस दृष्टि से तो अश्क के नाटक भारतीय परंपरा में एक असंगति के रूप में प्रतीत होते हैं। उन्होंने जो हिंदी नाटक को नया मोड़ दिया है, क्या वह स्थायी रह सकेगा? अभी इस प्रश्न का समुचित उत्तर नहीं दिया जा सकता। लेकिन इतना स्पष्ट है कि प्रसाद के बाद हिंदी नाटक का जो नई दिशा में उस्थान हुआ है, उपेंद्रनाथ अश्क उसके प्रमुख प्रतीक और स्तंभ माने जाएँगे। कारण कि शायद ही अन्य किसी नाटककार ने नई पद्धति को इतनी लगन के साथ अस्वीकार किया है और इतने परिश्रम और निश्चय के साथ सँवारा है।
यह चर्चा तो रही अश्क के ऐतिहासिक महत्व के बारे में, पर उनकी कला की महत्ता आभ्यतरिक गुण-दोषों पर भी आश्रित है। उनकी रचनाओं का एक पहलू प्रथम परिचय में ही सामने आ जाता है। ‘जय-पराजय’ को छोड़कर शायद कोई भी नाटक अश्क के निजी अनुभवों के दायरे के बाहर नहीं है। ‘उड़ान’ में कुछ कुलाचें अवश्य ली हैं और उस नाटक में संकर के चरित्र-चित्रण के लिए उनकी तूलिका को कल्पना के गहरे रंगों का प्रयोग करना पड़ा है। माया की उत्तेजनापूर्ण अनुभूति, उसकी और मदन की प्रथम रूमानी मुलाक़ात और नाटक का सामान्य वातावरण सभी यथार्थवादी स्वर से भिन्न स्वर की याद दिलाते हैं। किंतु ‘उड़ान’ की भी प्रेरणा हमारे समाज की दैनिक उलझनों में से ही मिली है। जिस विद्रोह का वहाँ अद्धेयन है, वह असंभ्य नारियों के मौन पीड़ित दृदयों का प्रवक्त्ता है। अश्क मध्य-वर्ग के दाम्पत्य जीवन को गहराई से पैठकर देख चुके हैं और पढ़ी-लिखी कुमारियों के विवाह की समस्या का उन्होंने उसी संवेदनशीलता और सांकेतिकता से विवेचन किया है जिसके कारण पाश्चात्य नाटकों का परकीया नायिकाओं और परस्त्री-प्रेम का चित्रण भी मर्मस्पर्शी जान पड़ता है। ‘भेंवर’ की नायिका प्रतिभा बुद्धिवादी आवरण के नीचे एक त्रस्त, एकांकी, सतन अभिलाषी आत्मा को छिपाए फिरती है—न पाई जाने वाली सांत्वना की खोज में। ‘स्वर्ग की झलक’ के रघु की तरह सैकड़ों समयुवक आज के दिन अपने स्तर से ऊपर फ़ैशनेबल समाज की लड़कियों पर मशां और निकट पहुँचने पर विरक्त होते रहे हैं। ‘आदि मार्ग’ और ‘विवाह के दिन’ नामक नाटकों में भी इसी समस्या का दैनिक जीवन के अनुभव की सीमाओं में, प्रदर्शन किया गया है। इसके अतिरिक्त ‘पापी’ और ‘लक्ष्मी का स्वागत’ के विधुर पति के दृदयदायक अंत संघर्ष में तो मानो अश्क के निजी अनुभवों की ताज़ी छाप है। जान पड़ता है, अश्क नाटक लिखते समय जब एक आधारभूत भावना के लिए आँखें दौड़ाते हैं तो वे कल्पना की आँखें नहीं, स्मृति के नेत्र होते हैं। इसलिए मध्य-वर्ग की आर्थिक और मनोवैज्ञानिक परिस्थिति के विश्लेषण में उन्हें लंबे भाषणों का सहारा नहीं लेना पड़ता, वे केवल परिस्थिति-विशेष के ऊपर से पर्दा उतारकर रख देते हैं। ‘झूठा बेटा’ में नई और पुरानी पीढ़ी की ज्वलंत झाँकी हमें मिलती है। उसमें कहीं पक्षपात नहीं, किंतु फिर भी उत्तेजना, कामुक, जलन, निराशा की किसस् क्रमवीरे, जीवन में ज्यों की त्यों फड़ान कर उस दी गी है। अश्क का समधने का व्यंग्य इसलइ और भी महान है सकी जड़ है एक विषम अस्थिर समस्या।
अश्क गरीब और शोषितों के जीवन से या तो अपने नाटकों के लिए सामग्री लेते ही नहीं और या लेते हैं तो बहुत ठोक-बजाकर, यह सोच-समझकर कि वह सामग्री उनके निजी अनुभव की कसौटी पर खरी उतर चुकी है या नहीं। 'तूफ़ान' और 'देवताओं की छाया में'—यही दो नाटक शोषित जीवन की झाँकियाँ देते हैं और यद्यपि घीसू में प्रेमचंद के सूरदास के आदर्शवाद को गंध मिलती है, तथापि सन् 46 के दिनों का स्मरण करते हुए उसका चरित्र अस्वाभाविक नहीं जान पड़ता। 'देवताओं की छाया में' में तो किसी प्रकार की अस्वाभाविकता का आभास नहीं। साधारण मुसलमान मज़दूर के जीवन की मर्मस्पर्शनी ट्रेजिडी के पीछे अश्क की पारदर्शक दृष्टि की शक्ति है। पिछले दिनों अश्क ने बंबई के सिनेमा जगत् के कृत्रिम, मानवीय-भावनाओं से शून्य, चापलूसी की दुर्गंध में बसे जीवन का भी नग्न और यथातथ्य वर्णन कुछ नाटकों में किया है। 'पक्का गाना' में यह आक्षेप चुटकी मात्र था, 'मस्केबाज़ो का स्वर्ग' में अट्टहास हो जाता है और 'पैतरे' में विपाक्त वाण। अतिरजना तो है, लेकिन फ़िल्मी जीवन जितना विकारग्रस्त है, उसके सुधार के लिए शायद कुछ ऐसी गहरी चोटें ही चाहिए। सामाजिक समस्याओं पर आश्रित इन नाटकों के अतिरिक्त अश्क जहाँ जीवन के सबसे अधिक सन्निकट आए हैं, वे हैं उनके नाटक जिनकी आधारभूत भावना उन्हें चारित्रिक विशेषताओं की सनक या धुन में मिली है। 'जौंक', 'तोलिए' और 'अजो दीदी' को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। 'तौलिए' की मधु और 'अजो दीदी' की अजो में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही नाटकों में बड़े कौशल के साथ नियमबद्ध जीवन को सनक बनाने वाले चरित्र का मखौल उड़ाया गया है। 'जौंक' में अनचाहे मेहमान का गुदगुदाने वाला चित्रण है। पर्दा उठाओ पर्दा गिराओ' नामक संग्रह के लगभग सभी नाटकों में परिस्थितियों का अनूठा चुनाव है। परिस्थिति चरित्र के अनुकूल ही जान पड़ती है, बल्कि पात्रों में व्यक्तित्व का अनिवार्य प्रस्फुटन प्रतीत होता है। जैसे मैने अन्यत्र लिखा है जीवन की सतत प्रवाहशील धारा का क्षणिक ठहराव ही मानो अश्क के एकांकियों में मूर्तिमान होकर उतरता है। बतसिया में ठहराव ने भँवर का रूप ले लिया है। शेष नाटकों में घटना-चक्र की गुत्थियाँ नहीं है, जीवन की शोभा यात्रा के कुछ दृश्य सामने ठहरकर फिर गतिशील हो जाते हैं। लेकिन इस अनायास प्रदर्शन के पीछे कितनी तैयारियाँ, कितनी तराश, कितनी नापजोख है, इसका अंदाज़ मननशील पाठक और दर्शक लगा सकते हैं।
असल में अश्क की प्रमुख विशेषताएँ हैं श्रमसाध्य और जानदार पात्रों का सृजन। उनका प्रत्येक पात्र अपनी भाव-भंगिमा और वाणी के द्वारा पहचाना जा सकता है। लेखक पात्रों के मुख से अपनी प्रवृत्तियों, अपनी भावनाओं का परिचय नहीं देता। लेखक का निजी व्यक्तित्व तो परिस्थितियों की प्रगति और नाटक के सामान्य प्रवाह और आधारभूत भावना में अंतर्हित रहता है। किंतु पात्र जो कुछ बोलते या करते हैं, वह उनका अपना है, वे लेखक के ही भिन्न-भिन्न समच नहीं है। इस दिशा में अश्क हिंदी के अनूठे नाटककार हैं। इस गुण की सिद्धि के लिए आवश्यकता है भीषण आत्म-संवरण की, पैनी समदर्शी दृष्टि की और भिन्न-भिन्न भाँति के चरित्रों के दृदय में बैठकर उनसे समरन होने की क्षमता की।
एक बात और, संवाद और कार्य-संपादन पात्रों के विकास के माध्यम से आज हिंदी में चुस्त और तीखे संवाद-लेखकों की कमी नहीं। हाज़िर-जवाबी के लिए शब्दों पर जिस भाँति के अधिकार और त्वरित एवं उर्वरा कल्पना-शक्ति की भावव्यक्ता होती है, उसका भी आज दिन अभाव नहीं। किंतु अश्क के संवाद इसलिए असाधारण हैं कि उनमें नदी की धारा की भाँति, परिस्थितियों के धरातल के ढलाव के अनुकूल ही उत्तर-प्रत्युत्तर चलते हैं। दरबारी तृग का वाहवाही वाला संवाद यहाँ नहीं है, उनकी नायिकाएँ शास्त्रीय पंडितों की भाँति सूत्र-गुम्फन नहीं करती। अश्क के पात्र असाधारण इसलिए हैं कि साधारण व्यक्तियों की तरह वे तकिया-कलामों का प्रयोग करते हैं, बातचीत करते-करते उलझन में पड़ जाते हैं, खंडित वात्वावलियाँ उनके मुख से झरती हैं, अधसुनी भंगिमाएँ उनके संवादों में बिखरी पड़ी रहती हैं और गंभीर बातचीत के बीच में वे एक छोटी-सी चर्चा छेड़ देते हैं।
कथानक के निरावरण (यानी प्लॉट) और कार्य-संपादन (यानी एक्शन) के प्रदर्शन में अश्क कहाँ तक सफल हुए हैं, इसपर दो राय हो सकती हैं। एक प्रसिद्ध अंग्रेज़ी उपन्यासकार ने एक स्थल पर लिखा है कि उसे खेद उसी बात का है कि उसे अपने उपन्यासों की प्रवृत्ति के लिए एक कथानक का सहारा लेना पड़ता है। कभी-कभी ऐसा लगता है मानों अश्क भी नाटक में कथानक को इतनी ही उलझन दी, कुछ बेकार की-सी वस्तु सामग्री है। चरित्र के प्रदर्शन से ही उन्हें इतनी गति की प्रतीति होती है कि घटना-गुम्फन व्यर्थ-सा जान पड़ता है। किंतु मेरे विचार में एकांकीकार का यह दृष्टिकोण उनके तीन-अंकी नाटकों में उन्हें पथभ्रष्ट कर देता है। सांकेतिकता उनकी सबल है, लेकिन नाटककार के लिए सांकेतिकता एक साधन मात्र होनी चाहिए, कहानी से पल्ला छुड़ाकर भागना दर्शक को ऐसे जवाब में फाँसने के तुल्य है जो उसे नाटक से भिन्न कर सकता है। लेकिन लेकिन लेख यह कथन अश्क के बड़े नाटकों पर ही साध्य होता है, एकांकियों पर नहीं।
वस्तुतः अश्क के बड़े नाटकों पर कवि-सुलभ सांकेतिक एक शीशे की तरह आवृत रहतची है। उसकी तह में उनकी नियमित भावुकता है औ है अनुपम सौंदर्य-दृष्टि। इस टैकनीक का सबसे सुंदर नमूना है उनका नाटक ‘कैद’ जिसमें उनके लगभग सभी गुण उभरे हैं—बड़ी संतुलित गति से, बढ़े मर्मस्पर्शी रूप में। ‘कैद’ को निश्चय ही आधुनिक भारतीय साहित्य के प्रमुख नाटकों की श्रेणी में रखा जा सकता है।
सुप्रसिद्ध अँग्रेज़ी नाटककार गाल्सवर्दी ने एक बार अपने आप ही प्रश्न किया—उन्नतिशील नाट्य-कला की बुनियाद क्या है? उत्तर भी गाल्सवर्दी ने स्वयं इन शब्दों दिया कि “उन्नतिशील नाटक के चिह्न हैं—सच्चाई और खरापन और लेखक की वफ़ादारी—अपनी अनुभूति के प्रति, अपने पर्यवेक्षण के प्रति और अपने व्यक्तित्व के प्रति! जिसकी कल्पना अनुभवगत और दृष्टिगत जीवन को ही ग्रहण करती है और जो इस भाँति गृहीत वस्तु-विशेष को रंगमंच पर इस तरह प्रस्तुत करता है कि दर्शकगण भी उसी मौलिक अनुमति से अभिभूत हो जाएँ, वही उच्च कोटि का नाटककार है।” हिंदी में बहुत कम नाटककार ही इस परिभाषा के दायरे में आ पाते हैं, अश्क उन्हीं विरलों में से एक हैं और कुछ मानी में तो अनूठे हैं।
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ashk garib aur shoshiton ke jiwan se ya to apne natkon ke liye samagri lete hi nahin aur ya lete hain to bahut thok bajakar, ye soch samajhkar ki wo samagri unke niji anubhaw ki kasauti par khari utar chuki hai ya nahin tufan aur dewtaon ki chhaya mein—yahi do natk shoshait jiwan ki jhankiyan dete hain aur yadyapi ghisu mein premchand ke surdas ke adarshawad ko gandh milti hai, tathapi san 46 ke dinon ka smarn karte hue uska charitr aswabhawik nahin jaan paDta dewtaon ki chhaya mein mein to kisi prakar ki aswabhawikta ka abhas nahin sadharan musalman mazdur ke jiwan ki marmasparshni trejiDi ke pichhe ashk ki paradarshak drishti ki shakti hai pichhle dinon ashk ne bambai ke cinema jagat ke kritrim, manawiy bhawnaon se shunya, chaplusi ki durgandh mein base jiwan ka bhi nagn aur yathatathy warnan kuch natkon mein kiya hai pakka gana mein ye akshaep chutki matr tha, maskebazo ka swarg mein attahas ho jata hai aur paitre mein wipakt wan atirajna to hai, lekin filmi jiwan jitna wikaragrast hai, uske sudhar ke liye shayad kuch aisi gahri choten hi chahiye samajik samasyaon par ashrit in natkon ke atirikt ashk jahan jiwan ke sabse adhik sannikat aaye hain, we hain unke natk jinki adharabhut bhawna unhen charitrik wisheshtaon ki sanak ya dhun mein mili hai jaunk, toliye aur ajo didi ko isi shrenai mein rakha ja sakta hai tauliye ki madhu aur ajo didi ki ajo mein koi antar nahin hai donon hi natkon mein baDe kaushal ke sath niyambaddh jiwan ko sanak banane wale charitr ka makhaul uDaya gaya hai jaunk mein anchahe mehman ka gudgudane wala chitran hai parda uthao parda girao namak sangrah ke lagbhag sabhi natkon mein paristhitiyon ka anutha chunaw hai paristhiti charitr ke anukul hi jaan paDti hai, balki patron mein wyaktitw ka aniwary prasphutan pratit hota hai jaise maine anyatr likha hai jiwan ki satat prawahashil dhara ka kshanaik thahraw hi mano ashk ke ekankiyon mein murtiman hokar utarta hai batasiya mein thahraw ne bhanwar ka roop le liya hai shesh natkon mein ghatna chakr ki gutthiyan nahin hai, jiwan ki shobha yatra ke kuch drishya samne thaharkar phir gatishil ho jate hain lekin is anayas pradarshan ke pichhe kitni taiyariyan, kitni tarash, kitni napjokh hai, iska andaz mananshil pathak aur darshak laga sakte hain
asal mein ashk ki pramukh wisheshtayen hain shramsadhy aur janadar patron ka srijan unka pratyek patr apni bhaw bhangima aur wani ke dwara pahchana ja sakta hai lekhak patron ke mukh se apni prwrittiyon, apni bhawnaon ka parichai nahin deta lekhak ka niji wyaktitw to paristhitiyon ki pragti aur natk ke samany prawah aur adharabhut bhawna mein antarhit rahta hai kintu patr jo kuch bolte ya karte hain, wo unka apna hai, we lekhak ke hi bhinn bhinn samach nahin hai is disha mein ashk hindi ke anuthe natakkar hain is gun ki siddhi ke liye awashyakta hai bhishan aatm sanwran ki, paini samdarshi drishti ki aur bhinn bhinn bhanti ke charitron ke driday mein baithkar unse samran hone ki kshamata ki
ek baat aur, sanwad aur kary sampadan patron ke wikas ke madhyam se aaj hindi mein chust aur tikhe sanwad lekhkon ki kami nahin hazir jawabi ke liye shabdon par jis bhanti ke adhikar aur twarit ewan urwara kalpana shakti ki bhawawyakta hoti hai, uska bhi aaj din abhaw nahin kintu ashk ke sanwad isliye asadharan hain ki unmen nadi ki dhara ki bhanti, paristhitiyon ke dharatal ke Dhalaw ke anukul hi uttar pratyuttar chalte hain darbari trig ka wahawahi wala sanwad yahan nahin hai, unki nayikayen shastriy panDiton ki bhanti sootr gumphan nahin karti ashk ke patr asadharan isliye hain ki sadharan wyaktiyon ki tarah we takiya kalamon ka prayog karte hain, batachit karte karte uljhan mein paD jate hain, khanDit watwawaliyan unke mukh se jharti hain, adhasuni bhangimayen unke sanwadon mein bikhri paDi rahti hain aur gambhir batachit ke beech mein we ek chhoti si charcha chheD dete hain
kathanak ke nirawarn (yani plaॉt) aur kary sampadan (yani ekshan) ke pradarshan mein ashk kahan tak saphal hue hain, ispar do ray ho sakti hain ek prasiddh angrezi upanyasakar ne ek sthal par likha hai ki use khed usi baat ka hai ki use apne upanyason ki prawrtti ke liye ek kathanak ka sahara lena paDta hai kabhi kabhi aisa lagta hai manon ashk bhi natk mein kathanak ko itni hi uljhan di, kuch bekar ki si wastu samagri hai charitr ke pradarshan se hi unhen itni gati ki pratiti hoti hai ki ghatna gumphan byarth sa jaan paDta hai kintu mere wichar mein ekankikar ka ye drishtikon unke teen anki natkon mein unhen pathabhrasht kar deta hai sanketikta unki sabal hai, lekin natakkar ke liye sanketikta ek sadhan matr honi chahiye, kahani se palla chhuDakar bhagna darshak ko aise jawab mein phansne ke tuly hai jo use natk se bhinn kar sakta hai lekin lekin lekh ye kathan ashk ke baDe natkon par hi sadhy hota hai, ekankiyon par nahin
wastutः ashk ke baDe natkon par kawi sulabh sanketik ek shishe ki tarah awrit rahatchi hai uski tah mein unki niymit bhawukta hai au hai anupam saundarya drishti is taiknik ka sabse sundar namuna hai unka natk ‘kaid’ jismen unke lagbhag sabhi gun ubhre hain—baDi santulit gati se, baDhe marmasparshi roop mein ‘kaid’ ko nishchay hi adhunik bharatiy sahity ke pramukh natkon ki shrenai mein rakha ja sakta hai
suprasiddh angrezi natakkar galswardi ne ek bar apne aap hi parashn kiya—unnatishil naty kala ki buniyad kya hai? uttar bhi galswardi ne swayan in shabdon diya ki “unnatishil natk ke chihn hain—sachchai aur kharapan aur lekhak ki wafadari—apni anubhuti ke prati, apne paryawekshan ke prati aur apne wyaktitw ke prati! jiski kalpana anubhawgat aur drishtigat jiwan ko hi grahn karti hai aur jo is bhanti grihit wastu wishesh ko rangmanch par is tarah prastut karta hai ki darshakagn bhi usi maulik anumti se abhibhut ho jayen, wahi uchch koti ka natakkar hai ” hindi mein bahut kam natakkar hi is paribhasha ke dayre mein aa pate hain, ashk unhin wirlon mein se ek hain aur kuch mani mein to anuthe hain
upendrnath ‘ashk’ ke natkon ka rachna kal san 1938 se prarambh hota hai, jab dwijendr lal ray aur parsad ki shaili mein jay parajay ki rachna hai 1938 mein unke ekanki ‘lakshmi ka swagat’ aur ‘adhikar ka rakshak’ chhape ‘papi’ aur ‘weshya’ inse pahle likhe gaye the, par chhape baad mein in solah warshon mein unke chaar ekanki sangrah prakashit hue hain—dewtaon ki chhaya mein’, ‘pakka gana’, ‘charwahe’ aur ‘parda uthao parda girao’, chh swtantr baDe natk—jay parajay’, ‘swarg ki jhalak’, ‘qaid uDan’, ‘chhatha beta’ aur ‘bhanwar’ aur teen aise natk jinka akar ekanki se baDa hote hue bhi mool prerna ekanki ki hi haiadi mange, ajo didi aur paitre 16 warsh ke is dauran mein ashk ne teen baDe unyas bhi likhe, kai kahani sangrah, do marmik khanD kawy, phutkar nibandh, sansmran ityadi aur isi dauran mein unhonne tapedik ke rogi ke roop mein jiwan ki unmukt dharti ke sui ki nok bhar ansh ke liye mirtyu se mahabharat laDa, jiski jhalak ‘deep jalegi’ ki chunauti bhari panktiyon mein milti hai aise sahity sadhak ki pratibha aur agyey lagan abhinandniy hai
kintu rachnaon ki sankhya athwa kalewar ewan wyaktigat kathinaiyon aur sangharsh ke hote hue bhi sahity sadhan—in donon ke bal par hi koi lekhak yug ka saphal aur samarth natakkar nahin kaha ja sakta jin dinon jayshankar ‘parsad’ ki mahan rachnayen kawy mein chhayawad ki pratidhwani swarup hindi naty sahity ka kalakar ho rahi thi, unhin dinon do prwrittiyan chupchap hamari naty parampara ki kayaplat kar rahi thi ek to hamare wishwwidyalyon aur kaulejon mein chhatr aur anyaprangat pashchaty deshon ke adhunik yathatathywadi natakkaron se parichit hone lage the usse poorw prdhantah shakespeare ki kritiyon hi ka prabhaw wyapak roop se drishtigat hona tha lekin ibsan, shau, kalswardi ityadi lekhkon ki rachnaon se bartiy shikshait samaj ko sahsa nae kshaitij ka abhas hua is kritiyon ke siddhant paksh ki awdharana lakshminarayan mishr ke samasya natkon mein hui, yadyapi ye aspasht tha ki rangmanch sambandhi gyan ka abhaw unhen ek siddhantwadi ke star se upar na uthne de saka dusri tatkalin prawrtti thi kaulijon ke rangmanchon par laghu natkon ki mang san 32, 33 ke asapas aakar mano shikshait samaj ke darshakagn natkon ki khatir ratjaga karne ke wichar se ub chale aur rangmanch ke agrah ke phalaswarup ekankiyon ka likha jana prarambh hua bhuwneshwar parsad aur ganeshaprsad dwiwedi ne is kshaetr mein qadam baDhaya
yo ek or to pashchaty samasyamulak naty sahity se kitabi parichai prapt lekhkon ki rachna aur dusri or awyawsayik rangmanch ke liye laghu natkon ka pranayan, in do dharaon ka wikas san 36 38 tak ho chala tha aur upendrnath ashk ke natkon ka mahatw yahi hai ki unmen aage chalkar in donon dharaon ka samanway hua pashchaty naty sahity ke kitabi gyan ko unhonne niji anubhaw aur paryawekshan ke kharal mein koot piskar samajik digdarshan ka nawin aur tathyaprak rasayan taiyar kiya ekankiyon se unhonne rangmanch ke sanketon aur shilp ko apnaya aur is tarah hamare samkalin natakkaron mein shayad ashk hi ne aspasht roop se parsad ke baad rangmanch aur sahity donon ke mandanD par sahi utarne wale naty sahity ko prastut kiya saphal ekankikar to dusre bhi hain samajik aur wyaktigat samasyaon ka prdhanat supathy sanwadon (jinhen natkon ki sangya bhi di jati hai) ke roop mein nirupan bhi any chintanshil aur shabdon ke chitere lekar karte hain lekin donon prwrittiyon ka aisa sammishran ki natkon ki ek nawin shaili ka hi prasphutan ho jaye, ashk hi ne kiya hai pakke irade aur prayojan ke sath unhonne apne pratham natk jay parajay ke baad parsad paddhati ko tilanjali di aur jo nutan prerna, prithak drishtikon ewan adhunik shilpawidhan is yug mein lokapriy ho chale the, unhen ek Dhanche mein Dhalkar hindi natk ko jo nijatw aur suspasht ruparekha pradan ki ho sakta hai ki jis paddhati ka srijan we karte hain, wo hindi mein jaD hi na pakaD sake bharatiy prakrti, ruchi aur parampara shuddh yathatathywadi sahity athwa kala se mel hi nahin khati pashchaty deshon mein natk samaj ke aage darpan ke tuly mana jata raha hai bharatiy wanmay mein natk drishya kawy hai—yani kalpana, anubhut ras aur alankar ki wo samjasypurn abhiwyanjna jiska anand sunkar ya paDhkar hi nahin rangmanch par dekhkar uthaya ja sake is drishti se to ashk ke natk bharatiy parampara mein ek asangati ke roop mein pratit hote hain unhonne jo hindi natk ko naya moD diya hai, kya wo sthayi rah sakega? abhi is parashn ka samuchit uttar nahin diya ja sakta lekin itna aspasht hai ki parsad ke baad hindi natk ka jo nai disha mein usthan hua hai, upendrnath ashk uske pramukh pratik aur stambh mane jayenge karan ki shayad hi any kisi natakkar ne nai paddhati ko itni lagan ke sath aswikar kiya hai aur itne parishram aur nishchay ke sath sanwara hai
ye charcha to rahi ashk ke aitihasik mahatw ke bare mein, par unki kala ki mahatta abhyatrik gun doshon par bhi ashrit hai unki rachnaon ka ek pahlu pratham parichai mein hi samne aa jata hai ‘jay parajay’ ko chhoDkar shayad koi bhi natk ashk ke niji anubhwon ke dayre ke bahar nahin hai ‘uDan’ mein kuch kulachen awashy li hain aur us natk mein sankar ke charitr chitran ke liye unki tulika ko kalpana ke gahre rangon ka prayog karna paDa hai maya ki uttejnapurn anubhuti, uski aur madan ki pratham rumani mulaqat aur natk ka samany watawarn sabhi yatharthawadi swar se bhinn swar ki yaad dilate hain kintu ‘uDan’ ki bhi prerna hamare samaj ki dainik ulajhnon mein se hi mili hai jis widroh ka wahan addheyan hai, wo asambhya nariyon ke maun piDit dridyon ka prwaktta hai ashk madhya warg ke dampatya jiwan ko gahrai se paithkar dekh chuke hain aur paDhi likhi kumariyon ke wiwah ki samasya ka unhonne usi sanwedanshilta aur sanketikta se wiwechan kiya hai jiske karan pashchaty natkon ka parkiya nayikaon aur parastri prem ka chitran bhi marmasparshi jaan paDta hai ‘bhenwar’ ki nayika pratibha buddhiwadi awarn ke niche ek trast, ekanki, satan abhilashai aatma ko chhipaye phirti hai—n pai jane wali santwna ki khoj mein ‘swarg ki jhalak’ ke raghu ki tarah saikDon samayuwak aaj ke din apne star se upar faishanebal samaj ki laDakiyon par mashan aur nikat pahunchne par wirakt hote rahe hain ‘adi marg’ aur ‘wiwah ke din’ namak natkon mein bhi isi samasya ka dainik jiwan ke anubhaw ki simaon mein, pradarshan kiya gaya hai iske atirikt ‘papi’ aur ‘lakshmi ka swagat’ ke widhur pati ke dridaydayak ant sangharsh mein to mano ashk ke niji anubhwon ki tazi chhap hai jaan paDta hai, ashk natk likhte samay jab ek adharabhut bhawna ke liye ankhen dauDate hain to we kalpana ki ankhen nahin, smriti ke netr hote hain isliye madhya warg ki arthik aur manowaigyanik paristhiti ke wishleshan mein unhen lambe bhashnon ka sahara nahin lena paDta, we kewal paristhiti wishesh ke upar se parda utarkar rakh dete hain ‘jhutha beta’ mein nai aur purani piDhi ki jwlant jhanki hamein milti hai usmen kahin pakshapat nahin, kintu phir bhi uttejna, kamuk, jalan, nirasha ki kisas kramwire, jiwan mein jyon ki tyon phaDan kar us di gi hai ashk ka samadhne ka wyangya isalai aur bhi mahan hai saki jaD hai ek wisham asthir samasya
ashk garib aur shoshiton ke jiwan se ya to apne natkon ke liye samagri lete hi nahin aur ya lete hain to bahut thok bajakar, ye soch samajhkar ki wo samagri unke niji anubhaw ki kasauti par khari utar chuki hai ya nahin tufan aur dewtaon ki chhaya mein—yahi do natk shoshait jiwan ki jhankiyan dete hain aur yadyapi ghisu mein premchand ke surdas ke adarshawad ko gandh milti hai, tathapi san 46 ke dinon ka smarn karte hue uska charitr aswabhawik nahin jaan paDta dewtaon ki chhaya mein mein to kisi prakar ki aswabhawikta ka abhas nahin sadharan musalman mazdur ke jiwan ki marmasparshni trejiDi ke pichhe ashk ki paradarshak drishti ki shakti hai pichhle dinon ashk ne bambai ke cinema jagat ke kritrim, manawiy bhawnaon se shunya, chaplusi ki durgandh mein base jiwan ka bhi nagn aur yathatathy warnan kuch natkon mein kiya hai pakka gana mein ye akshaep chutki matr tha, maskebazo ka swarg mein attahas ho jata hai aur paitre mein wipakt wan atirajna to hai, lekin filmi jiwan jitna wikaragrast hai, uske sudhar ke liye shayad kuch aisi gahri choten hi chahiye samajik samasyaon par ashrit in natkon ke atirikt ashk jahan jiwan ke sabse adhik sannikat aaye hain, we hain unke natk jinki adharabhut bhawna unhen charitrik wisheshtaon ki sanak ya dhun mein mili hai jaunk, toliye aur ajo didi ko isi shrenai mein rakha ja sakta hai tauliye ki madhu aur ajo didi ki ajo mein koi antar nahin hai donon hi natkon mein baDe kaushal ke sath niyambaddh jiwan ko sanak banane wale charitr ka makhaul uDaya gaya hai jaunk mein anchahe mehman ka gudgudane wala chitran hai parda uthao parda girao namak sangrah ke lagbhag sabhi natkon mein paristhitiyon ka anutha chunaw hai paristhiti charitr ke anukul hi jaan paDti hai, balki patron mein wyaktitw ka aniwary prasphutan pratit hota hai jaise maine anyatr likha hai jiwan ki satat prawahashil dhara ka kshanaik thahraw hi mano ashk ke ekankiyon mein murtiman hokar utarta hai batasiya mein thahraw ne bhanwar ka roop le liya hai shesh natkon mein ghatna chakr ki gutthiyan nahin hai, jiwan ki shobha yatra ke kuch drishya samne thaharkar phir gatishil ho jate hain lekin is anayas pradarshan ke pichhe kitni taiyariyan, kitni tarash, kitni napjokh hai, iska andaz mananshil pathak aur darshak laga sakte hain
asal mein ashk ki pramukh wisheshtayen hain shramsadhy aur janadar patron ka srijan unka pratyek patr apni bhaw bhangima aur wani ke dwara pahchana ja sakta hai lekhak patron ke mukh se apni prwrittiyon, apni bhawnaon ka parichai nahin deta lekhak ka niji wyaktitw to paristhitiyon ki pragti aur natk ke samany prawah aur adharabhut bhawna mein antarhit rahta hai kintu patr jo kuch bolte ya karte hain, wo unka apna hai, we lekhak ke hi bhinn bhinn samach nahin hai is disha mein ashk hindi ke anuthe natakkar hain is gun ki siddhi ke liye awashyakta hai bhishan aatm sanwran ki, paini samdarshi drishti ki aur bhinn bhinn bhanti ke charitron ke driday mein baithkar unse samran hone ki kshamata ki
ek baat aur, sanwad aur kary sampadan patron ke wikas ke madhyam se aaj hindi mein chust aur tikhe sanwad lekhkon ki kami nahin hazir jawabi ke liye shabdon par jis bhanti ke adhikar aur twarit ewan urwara kalpana shakti ki bhawawyakta hoti hai, uska bhi aaj din abhaw nahin kintu ashk ke sanwad isliye asadharan hain ki unmen nadi ki dhara ki bhanti, paristhitiyon ke dharatal ke Dhalaw ke anukul hi uttar pratyuttar chalte hain darbari trig ka wahawahi wala sanwad yahan nahin hai, unki nayikayen shastriy panDiton ki bhanti sootr gumphan nahin karti ashk ke patr asadharan isliye hain ki sadharan wyaktiyon ki tarah we takiya kalamon ka prayog karte hain, batachit karte karte uljhan mein paD jate hain, khanDit watwawaliyan unke mukh se jharti hain, adhasuni bhangimayen unke sanwadon mein bikhri paDi rahti hain aur gambhir batachit ke beech mein we ek chhoti si charcha chheD dete hain
kathanak ke nirawarn (yani plaॉt) aur kary sampadan (yani ekshan) ke pradarshan mein ashk kahan tak saphal hue hain, ispar do ray ho sakti hain ek prasiddh angrezi upanyasakar ne ek sthal par likha hai ki use khed usi baat ka hai ki use apne upanyason ki prawrtti ke liye ek kathanak ka sahara lena paDta hai kabhi kabhi aisa lagta hai manon ashk bhi natk mein kathanak ko itni hi uljhan di, kuch bekar ki si wastu samagri hai charitr ke pradarshan se hi unhen itni gati ki pratiti hoti hai ki ghatna gumphan byarth sa jaan paDta hai kintu mere wichar mein ekankikar ka ye drishtikon unke teen anki natkon mein unhen pathabhrasht kar deta hai sanketikta unki sabal hai, lekin natakkar ke liye sanketikta ek sadhan matr honi chahiye, kahani se palla chhuDakar bhagna darshak ko aise jawab mein phansne ke tuly hai jo use natk se bhinn kar sakta hai lekin lekin lekh ye kathan ashk ke baDe natkon par hi sadhy hota hai, ekankiyon par nahin
wastutः ashk ke baDe natkon par kawi sulabh sanketik ek shishe ki tarah awrit rahatchi hai uski tah mein unki niymit bhawukta hai au hai anupam saundarya drishti is taiknik ka sabse sundar namuna hai unka natk ‘kaid’ jismen unke lagbhag sabhi gun ubhre hain—baDi santulit gati se, baDhe marmasparshi roop mein ‘kaid’ ko nishchay hi adhunik bharatiy sahity ke pramukh natkon ki shrenai mein rakha ja sakta hai
suprasiddh angrezi natakkar galswardi ne ek bar apne aap hi parashn kiya—unnatishil naty kala ki buniyad kya hai? uttar bhi galswardi ne swayan in shabdon diya ki “unnatishil natk ke chihn hain—sachchai aur kharapan aur lekhak ki wafadari—apni anubhuti ke prati, apne paryawekshan ke prati aur apne wyaktitw ke prati! jiski kalpana anubhawgat aur drishtigat jiwan ko hi grahn karti hai aur jo is bhanti grihit wastu wishesh ko rangmanch par is tarah prastut karta hai ki darshakagn bhi usi maulik anumti se abhibhut ho jayen, wahi uchch koti ka natakkar hai ” hindi mein bahut kam natakkar hi is paribhasha ke dayre mein aa pate hain, ashk unhin wirlon mein se ek hain aur kuch mani mein to anuthe hain
स्रोत :
पुस्तक : भारतीय नाट्य साहित्य, (पृष्ठ 369)
संपादक : नगेन्द्र
रचनाकार : जगदीशचंद्र माथुर
प्रकाशन : सेठ गोविंददास हीरक जयंती समारोह समिति नई दिल्ली
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‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।