पृथ्वीराज रासो : रेवा तट ‘पृथ्वीराज रासो’ में 69 समय (सर्ग) हैं।
'रेवा तट' चंदबरदाई कृत 'पृथ्वीराज रासो का सत्ताइसवाँ समय (सर्ग) है।
पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामंड राय ने पृथ्वीराज से कहा कि रेवा (नर्मदा) नदी के तट पर ऐरावत हाथी के समान बहुत से हाथी पाए जाते है। अतः आप रेवा तट पर शिकार खेलने चलें, तभी पृथ्वीराज चौहान ने कवि चंद से पूछा कि ये देवताओं के वाहन पृथ्वी पर कैसे आ गए।
कवि चंदबरदाई ने उत्तर दिया कि हे महाराज! हिमालय के पास एक बहुत बड़ा वट वृक्ष था, जोकि सौ योजन तक फैला था।
एक दिन हाथियों ने विचरण करते हुए उस वृक्ष की शाखाएँ तोड़ी और ऋषि दीर्घतपा का आश्रम उजाड़ डाला। इस बात से क्रोधित होकर ऋषि ने मदांध हाथियों को श्राप दे दिया। इस कारण हाथी तब से गतिविहीन हो गए। तब मनुष्यों ने उन्हें अपनी सवारी बना लिया।
तभी चामंड राय ने पृथ्वीराज से कहा कि हे राजन्! रेवा तट पर बड़े दाँतों वाले हाथियों के साथ-साथ मार्ग में सिंह भी मिलेंगे। आप उनका भी शिकार कर सकते हैं। चामंड राय ने आगे कहा कि वहाँ पहाड़ों और जलाशयों पर कस्तूरी मृग, कबतूर व अन्य पक्षी भी रहते हैं और दक्षिण दिशा का सौंदर्य तो और भी अवर्णनीय है। यह सुनकर पृथ्वीराज ने सोचा कि मेरे वहाँ जाने से जयचंद को तो ईष्या होगी, साथ ही स्थान भी रमणीक है। अतः चौहान ने रेवा तट की ओर प्रस्थान कर दिया।
वहाँ के सभी राजाओं ने पृथ्वीराज का स्वागत किया और पृथ्वीराज ने भी वहाँ ख़ूब शिकार का आनंद लिया। उसी समय लाहौर के शासक चंद पुंडीर दाहिम का पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि शाहबुद्दीन गोरी ने चौहान पर आक्रमण करने के लिए एक बड़ी सेना तैयार की है। चंद पुंडीर के पत्र को पढ़कर चौहान लाहौर की ओर चल दिए। पृथ्वीराज ने सभी सामंतों से मंत्रणा करके गोरी से युद्ध की घोषणा कर दी।
चंद पुंडीर ने अपनी सेना को लाहौर में गोरी की सेना को रोकने के लिए सावधान कर दिया। गोरी ने चिनाब नदी को पार किया, जहाँ उसका मुक़ाबला चंद पुंडीर से हुआ। चंद पुंडीर ने अपने पाँच वीरों के मरते ही गोरी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, तभी चौहान के दूतों ने उसे बताया कि तातार मारूफ़ खाँ (गोरी का प्रधान सेनापति) लाहौर से केवल पाँच कोस दूरी पर ही है। यह सुनकर पृथ्वीराज ने गोरी की सेना पर आक्रमण कर दिया।
चौहान की सेना के लोहे के बाणों को देखकर गोरी की सेना घबरा गई। दोनों ओर की सेनाएँ भिड़ गई। चौहान पक्ष के साथ-साथ गोरी पक्ष के भी अनेक वीर योद्धा मारे गए। रावर, सँभरसिंह, सोलंकी माधवराय, गरुअ गोइंद, पंतग-जयसिंह, चंद पींर, कूरंभ, आहुट्ठ, लखन, लोहाना आदि बहुत से वीर मारे गए। चार दिन तक युद्ध निरंतर चलता रहा। चौथे दिन चौहान के एक योद्धा गुज्जर ने गोरी को पकड़ लिया। सुल्तान गोरी को हाथी पर बाँधकर दिल्ली ले गया।
वह एक माह और तीन दिन पृथ्वीराज की क़ैद में रहा। शहाबुद्दीन के अमीरों ने पृथ्वीराज से गोरी को छोड़ने की विनती की और दंडस्वरूप नौ हज़ार घोड़े, सात सौ ऐराकी घोड़े, आठ सफ़ेद हाथी, बीस ढली हुई ढालें, गजमुक्ता और अनेक माणिक्य दिए। तत्पश्चात् पृथ्वीराज चौहान ने गोरी से संधि कर ली। यही ’रेवा तट’ सर्ग की कथा समाप्त हो जाती है।
अमीर ख़ुसरो : ख़ुसरों की पहेलियाँ और मुकरियाँ
लोक परंपरा की मज़बूत बानगी उनकी पहेलियों में नज़र आती है। लोक साहित्य में सबसे पहले अमीर ख़ुसरो ने ही पहेलियाँ बनाने का रिवाज़ शुरू किया। संस्कृत साहित्य में गौण रूप में प्रहेलिका नाम से पहेलियाँ मिल जाती है, लेकिन ख़ुसरो ने इन्हें अपने बेमिसाल अंदाज़ में प्रस्तुत किया। उनकी रचनाओं में दो तरह की पहेलियाँ नजर आती हैं—'बूझ पहेली' और 'बिन बूझ पहेली'। बूझ पहेली में उत्तर पहेली में ही निहित होता है, जबकि बिन बूझ पहेली में अनुमान और युक्तियों के सहारे उत्तर हासिल किए जाते हैं। लोक संस्कृति की निरंतरता की सुवास समेटे इन पहेलियों के महत्व का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि अभी भी लोगों की ज़ुबां पर ये चढ़ी हुई हैं।
आधुनिक काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ऐसी मुकरियों की रचना की, जिन्हें ख़ासी लोकप्रियता भी हासिल हुई।
विद्यापति की पदावली (संपादक डॉ. नरेन्द्र झा) : पद संख्या 125
विद्यापति का जन्म-स्थान विस्फी (जिला-मधुबनी, मंडल दरभंगा, बिहार) है।
किंतु अवहट्ठ में लिखी उन्हीं की एक कविता की कुछ प्रारंभिक पंक्तियों के आधार पर उनका जन्म 1350 ई. (लक्ष्मण संवत 241, शक संवत 1272) तय होता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं—लीला के पद कब लिखे जाने लगे यह भी कुछ निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता, किंतु दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में मात्रिक छंदों में श्रीकृष्णलीला के गाने की प्रथा चल पड़ी थी, इसमें कोई संदेह नहीं। जयदेव का गीतगोविन्द इसी प्रकार के मात्रिक छंदों के पद में लिखा गया था।...जयदेव के बाद उसी प्रकार की पदावली बंगाल के चंडीदास और मिथिला के विद्यापति नामक कवियों ने लिखी।...जिस प्रकार के पद बंगाल और उड़ीसा में प्रचलित थे उसी प्रकार के पद सुदूर पश्चिम में भी प्रचलित थे। अर्थात पूर्व से पश्चिम तक संपूर्ण भारत में ऐसे पद व्याप्त थे। (हिंदी साहित्य का आदिकाल, पंचम व्याख्यान, पृ० 109)
पदावली के कारण ही विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाए। उन्होंने जन भाषा मैथिली में काव्य रचना की। विद्यापति जन कवि थे। उनके जन सरोकार जनचेतना, भावनात्मक उत्कर्ष तथा अनुभूति की सूक्ष्मता का परिचय उनकी पदावली ही देती है।
पदावली श्रेष्ठ गीतिकाव्य है। इनमें भावों की लयात्मक गति के साथ-साथ काव्य और संगीत का अनूठा सामंजस्य है। उनके असंख्य गीत लोककंठ में बस गए हैं। उनका यह काव्य लोकसंस्कृति से गहरे रूप से जुड़ा हुआ है। इसमें जन-जीवन की सामान्य सच्चाई प्रस्फुटित हुई है।
विद्यापति ने गीतिकाव्य के रूप में पदावली की रचना मुक्तक शैली में सफलतापूर्वक की। इसमें आए भाव अपने आप में पूर्ण और स्वतंत्र हैं। गीतिकाव्य में भावनाओं की अभिव्यक्ति की प्रमुखता होती है। विद्यापति पदावली में राधाकृष्ण के व्यक्तिगत प्रेम का सूक्ष्म अंकन हुआ है। संगीतात्मकता और कोमल कांत पदावली के लिए तो विद्यापति की पदावली प्रसिद्ध है। उनकी कविता में काव्य और संगीत का अद्भुत मेल हुआ है। विद्यापति पदावली के गेय तत्व और काव्यत्व इस कदर एक दूसरे में घुलमिल गए हैं कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करना मुश्किल प्रतीत होता है। भावों की तीव्र अभिव्यक्ति और संक्षिप्तता विद्यापति के गीतों की विशेषता है। ये सब तत्व मिलकर विद्यापति पदावली को एक श्रेष्ठ गीतिकाव्य बनाते हैं।
विद्यापति पदावली में तीन प्रकार के पद हैं :-
1. राधा-कृष्ण संबंधी पद
2.शिव, विष्णु, गंगा, जानकी, दुर्गा आदि के स्तुतिपरक पद
3.आश्रयदाता राजाओं की स्तुति भरे पद
राधा-कृष्ण संबंधी पदों में शृंगार रस की प्रधानता है। यहाँ रीतिकालीन काव्य के सारे लक्षण मिल जाएँगे, यथा रति क्रीड़ा, नखशिख वर्णन, संयोग वर्णन, विरह वर्णन आदि।
दूसरे भाग में शिव, दुर्गा, विष्णु आदि के स्तुतिपरक गीतों में विद्यापति का भक्ति भाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।
तीसरे प्रकार के पदों में विद्यापति ने अपने आश्रयदाताओं की वीरता का गुणगान किया है।
विद्यापति के पदों के संदर्भ में प्रो० मैनेजर पांडेय का कथन है कि लौकिक प्रेम ही ईश्वरोन्मुख होकर भक्ति में परिणत हो जाता है। लौकिक प्रेम भी जोड़ने का काम करता है और ईश्वरीय प्रेम भी। एकात्म्य की जो स्थिति भक्ति में दिखाई देती है और विद्यापति जिसे आत्मा परमात्मा के मिलन रूप में कहते हैं—तोहे जनमि पुनि तोहे समाओब सागर लहरि समाना।
यह स्थिति लौकिक प्रेम में कैसे फलित होती है यह देखने के लिए कृष्ण के विरह में नायिका द्वारा गाया गया वह गीत है—अनुखन माधव सुमरइत राधा भेल मधाई। अर्थात सुध-बुध खोकर प्रेम दिवानी होने वाली राधा की जो व्याकुलता यहीं है, भक्ति में यही व्याकुलता और विश्वलता भक्तों की होती है।
डॉ० शिव प्रसाद सिंह कहते हैं कि सौंदर्य उनका दर्शन है, सौंदर्य उनकी जीवन-दृष्टि। इस सौन्दर्य को उन्होंने नाना रूपों में देखा था, इसे कुशल मणिकार की तरह उन्होंने चुना, सजाया, सँवारा और आलोकित किया था। सौंदर्य मन को कितना भाव विह्वल और एकोन्मुख कर देता है, इसे विद्यापति जानते थे। (विद्यापति, पृ० 154)।
कबीर (सं. हजारी प्रसाद द्विवेदी) : पद संख्या—160-209
कबीर का जन्म विक्रमी संवत् 1455 में काशी नामक स्थान पर हुआ था।
हिंदी आलोचना में कबीर के मूल्यांकन की एक दीर्घ परंपरा है, किंतु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर संबंधी समझ में क्रांतिकारी हस्तक्षेप करते हैं। अपनी पुस्तक 'कबीर' में उन्होंने 'कबीर' के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व का समग्र अवलोकन किया तथा अपने पांडित्यपूर्ण अध्ययन द्वारा कबीर-दर्शन की परंपरा का मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार कबीर इस्लाम में सद्यःर्धान्तरित जुगी जाति की पृष्ठभूमि से आते हैं और इसका उनके दर्शन पर गहरा प्रभाव है। द्विवेदी जी कहते हैं कि इस सद्यःर्धान्तरित आश्रमभ्रष्ट वयनजीवी जाति की स्थिति न हिंदू न मुसलमान की थी, इसलिए जब कबीर स्वयं को 'ना-हिंदू ना मुसलमान' कहते हैं तो आध्यात्मिक दायरे से बाहर इसका संकेत एक सामाजिक तथ्य की ओर भी है और इस प्रकार वे स्वयं को 'उभय विशेष' बता रहे होते हैं।
द्विवेदी जी बताते हैं कि जोगी जाति का संबंध नाथ-पंथ से था, इसलिए कबीर का दर्शन नाथ-पंथी योगी परंपरा का सबसे अधिक ऋणी है। निराकार भाव की उपासना, जातिप्रथा और ब्राह्मण श्रेष्ठता की अवहेलना तथा अवतारवाद के प्रति अनास्था कबीर को उनकी पृष्ठभूमि से ही विरासत में मिली थी। आगे रामानंद के संपर्क तथा वेदांती अद्वैतवाद और इस्लाम के 'एकेश्वरवाद' से तत्व ग्रहण कर उन्होंने अपनी साधना का मौलिक राजपथ तैयार किया जिसे प्रेम रस से सिंचित करने में कबीर सूफ़ी दर्शन से भी प्रेरणा पाते हैं। द्विवेदी जी कबीर-दर्शन की सांगोपांग विवेचना करने में इतने सफल इसलिए होते हैं कि वे कबीर द्वारा प्रयुक्त बीज शब्दों की पूरी विकास-प्रक्रिया की परत-दर-परत पड़ताल करते चलते हैं।
द्विवेदी जी मानते हैं कि कबीर में चुनौती देने का साहस भी है और सरलता भी। कबीरदास ऐतिहासिक परिवेश के ऐसे मिलन बिंदु पर खड़े थे, जहाँ एक ओर ज्ञान निकल जाता है, दूसरी ओर भक्ति मार्ग, जहाँ से एक तरफ़ निर्गुण भावना निकल जाती है, दूसरी ओर सगुण साधना। वे दोनों ओर देख सकते थे और परस्पर विरुद्ध दिशा में गए हुए मार्गों के दोष-गुण उन्हें स्पष्ट दिखाई दे जाते थे। उनकी दृष्टि की व्यापकता का रहस्य यही है और इसे दम ठोंक कर कह सकने का साहस उनकी अक्खड़ फक्कड़ प्रवृत्ति उन्हें प्रदान करती है। वे समस्त आडंबरों, रूढ़ियों, बाह्याचारों, विभाजनों की निंदा सस्वर करते हैं। यथास्थितिवाद उन्हें स्वीकार नहीं, अंधविश्वासों का तिमिर ज्ञान के मशाल से मिटाने का उनमें दम-खम है और यह महज़ थोथी बातें या दावे नहीं हैं, बल्कि आत्मानुभूत सत्य के आलोक में परिवर्तन की बेचैनी है। कबीर जिस समाज में पैदा हुए थे, न तो हिंदुओं द्वारा समादृत था और न ही मुसलमानों द्वारा पूर्ण रूप से स्वीकृत। वहाँ थी तो अयोग्यता, आत्महीनता का दंश, विपन्नता। 'ऐसे कुल में पैदा हुए व्यक्ति के लिए कल्पित ऊँच-नीच की भावना और जाति-व्यवस्था का फौलादी ढाँचा तर्क और बहस की वस्तु नहीं होती, जीवन-मरण का प्रश्न होता है। कबीर का व्यक्तित्व जो जैसा है वैसा ही उसे स्वीकारने वाला बिल्कुल नहीं था। इस तरह द्विवेदी जी के कबीर युगांतकारी प्रतिभा संपन्न हैं।
कबीर की छवि में द्विवेदी जी अनेक छटाएँ देखते हैं समाज-सुधारक के रूप में, सर्वधर्म समन्वयकारी के रूप में, हिंदू-मुस्लिम ऐक्य-विधायक के रूप में, विशेष सम्प्रदाय के प्रतिष्ठाता के रूप में, वेदांत-व्याख्याता दार्शनिक के रूप में, कवि के रूप में, व्यंग्यकार के रूप में।
परंतु कबीर का केंद्रीय रूप द्विवेदी जी के अनुसार भक्त, धर्मगुरु है, बाक़ी तो उसी का 'बाई-प्रोडक्ट' है, उसी एक छवि की नाम भंगिमाएँ। वे कहते हैं कि कबीर का भक्त-रूप ही उनका वास्तविक रूप है। वस्तुतः कबीर व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे। समष्टि-वृत्ति उनके चित्त का स्वाभाविक धर्म नहीं था। कबीर ने ऐसी बहुत-सी बातें कही हैं जिनसे समाज-सुधार में सहायता मिल सकती है, पर इसीलिए उन्हें समाज-सुधारक समझना ग़लती है। सर्वधर्म-समन्वय के लिए जिस मज़बूत आधार की ज़रूरत होती है वह कबीर के पदों में सर्वत्र पाई जाती है भगवान के प्रति निष्कारण प्रेम और मनुष्यमात्र को उसके निर्विशिष्ट रूप में समान समझना। परंतु द्विवेदी जी के अनुसार आजकल सर्व-धर्म-समन्वय से जिस प्रकार का भाव लिया जाता है, वह कबीर में एकदम नहीं था। सभी धर्मों के बाह्याचारों, संस्कारों के प्रति सम्मान की दृष्टि उत्पन्न करना यही भाव है। कबीर इनके कठोर विरोधी थे। उनसे अधिक ज़ोरदार शब्दों में हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतिपादन किसी ने नहीं किया, किंतु उन्होंने दोनों धर्मों की ऊँची संस्कृति या उच्चतर भावों में सामंजस्य स्थापित करने की कहीं भी कोशिश नहीं की, बल्कि उन सभी धर्मगत विशेषताओं की खिल्ली उड़ाई है जिसे मज़हबी नेता बहुत श्रेष्ठ धर्माचार कहकर व्याख्या करते हैं।
जायसी ग्रंथावली (सं. रामचंद्र शुक्ल) : नागमती वियोग खंड
जायसी के काव्य में सूफ़ी अराधना के तत्व तथा लोक जीवन के विविध पक्ष, दोनों से संबंधित अभिव्यक्तियाँ हैं। 'अखरावत' तथा 'आखिरी कलाम' उनकी साधना परक रचनाएँ है, जबकि 'पदमावत' में साधना और लोक जीवन परस्पर एक-दूसरे से घुले-मिले हुए हैं। जायसी की भक्ति में प्रेम केंद्रीय तत्व है। 'पद्मावत' में पद्मावती ब्रह्म की प्रतीक है जबकि रत्नसेन साधक का। इस काव्य-ग्रंथ में रत्नसेन का प्रमुख लक्ष्य पद्मावती की प्राप्ति है अर्थात साधक द्वारा ब्रह्म को पाने का उद्योग इस काव्य में वर्णित है लेकिन इस यात्रा में जायसी लोक जीवन के विभिन्न पक्षों को भी उकेरते हैं। 'पद्मावत' एक प्रबंधात्मक कृति है जिसमें अवधी के ठेठ रूप का इस्तेमाल जायसी ने किया।
रचना संसार :
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनकी तीन पुस्तकों का उल्लेख किया है—'पद्मावत', 'अखरावत' और 'आखिरी कलाम'। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य पुस्तकों का उल्लेख भी इनके नाम पर मिलता है :- 'चित्ररेखा', 'मसलानामा', 'कहरानामा', 'सखरावत' 'चंपावत', 'इतरावत' आदि। परंतु इन रचनाओं की प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं है। वैसे जायसी की प्रसिद्धि का आधार 'पद्मावत' ही है।
आचार्य शुक्ल द्वारा संपादित पद्मावत (जायसी ग्रंथावली) का 30वाँ खंड नागमती-वियोग खंड है।
पद्मावत में शृंगार का वियोग पक्ष तीन चरित्रों के माध्यम से दिखाया गया है—रत्नसेन, पद्मावती तथा नागमती।
जायसी ने नागमती के विरह का विस्तृत वर्णन किया है जो बेहद रमणीय, सुंदर व मार्मिक है। नागमती रत्नसेन की पत्नी है जो रत्नसेन के पद्मावती की खोज में सिंहलद्वीप जाने पर एक वर्ष तक पति से अलग रहने के कारण विरह वेदना भोगती है। सच यह है कि जायसी का भावुक मन नागमती के वियोग में ही अधिक रमा है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जायसी द्वारा वर्णित नागमती वियोग वर्णन को हिंदी साहित्य में 'एक अद्वितीय वस्तु' कहा है।
जायसी ने वैसे तो रत्नसेन, पद्मावती और नागमती तीनों के वियोग का वर्णन संदर्भानुकूल किया है पर नागमती का वियोग चित्र जितना उत्कृष्ट, उत्कट और अद्वितीय बन पड़ा है वैसा अन्य दोनों का नहीं।
रत्नसेन वियोग का अनुभव तब करता है जब वह पद्मावती को देखकर मूर्छित होता है और होश में आने के बाद उसे अपने समीप नहीं पाता। पद्मावती एक बार योग के प्रभाव से विरह अनुभव करती है। जैसे—नागमती का वियोग नितांत लौकिक संदर्भ में है पर प्रेम की आध्यात्मिकता में उसका बहुत विशिष्ट संदर्भ भी है।
वर्णन की इस पद्धति में लौकिक प्रेम के समानांतर अथवा साथ-साथ अलौकिक प्रेम की व्यंजना भी होने लगती है। जायसी ने नागमती के वियोग वर्णन में नायिका की शारीरिक और मानसिक दशाओं का चित्रण किया है।
नागमती के विरह वर्णन की एक बड़ी उपलब्धि बारहमासा भी माना जा सकता है। बारहमासा में जायसी ने अलग-अलग महीनों के अनुसार नागमती के वियोग का वर्णन किया है।
नागमती के विरह-वर्णन की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह मानी गई है कि इसमें नागमती को रानी के रूप में नहीं, एक साधारण विरहदग्ध नारी के रूप में वर्णित किया गया है। शुक्ल जी कहते हैं—अपनी भावुकता का बड़ा भारी परिचय जायसी ने इस बात में दिया है कि रानी नागमती विरहदशा में अपना रानीपन बिल्कुल भूल जाती है और अपने को केवल साधारण नारी के रूप में देखती है। इसी सामान्य स्वाभाविक वृत्ति के बल पर उसके विरहवाक्य छोटे-बड़े सबके हृदय को समान रूप में स्पर्श करते हैं। नागमती के विरह-वर्णन की एक और प्रमुख विशेषता यह है कि उसका विरह केवल वैयक्तिक संयोग सुख की प्रेरणा पर आधारित नहीं है बल्कि जीवन के लोक-व्यवहारों तथा कर्त्तव्यों से जुड़ा हुआ है। नागमती मध्यकाल की एक हिंदू नारी है जिसके जीवन की सारी सार्थकता उसके पति में केंद्रित है।
नागमती के वियोग में इस गार्हस्थिक चेतना ने अद्भुत मार्मिकता का समावेश कर दिया है।
विरह-वर्णन में फ़ारसी मसनवियों की शैली प्रायः ऊहात्मक हो जाती है। ऊहात्मकता का अर्थ है—विरह का ऐसा अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन जो असामान्य होने के साथ-साथ कहीं-कहीं कुरुचिपूर्ण या जुगुप्सापूर्ण होने लगे। नागमती के विरह वर्णन में जायसी ने ऊहात्मकता का सहारा तो लिया है किंतु उसे कहीं भी मज़ाक का विषय नहीं बनने दिया है।
सूरदास : भ्रमरगीत सार (सं. रामचंद्र शुक्ल) पद संख्या 21 से 70
सूरदास के जीवन-वृत्त के संबंध में डॉ. दीन दयाल गुप्त और डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा के निष्कर्षों को प्रायः स्वीकार कर लिया गया है। उल्लिखित विद्वानों के अनुसार सूरदास का जन्म 1478 ई. में हुआ था और उनकी मृत्यु तिथि अनुमानतः 1577 ई. और 1581 ई. के बीच पड़ती है।
सूरदास के साहित्य की विशेषता है—संगीत का कलात्मक उपयोग, ब्रजभूमि की लोकसंस्कृति का आत्मसातीकरण, वात्सल्य चित्रण और स्त्री-पुरुष संबंधों में स्वच्छंदता अथवा उन्मुक्तता का अनुमोदन।
'भ्रमरगीत' के उद्धव-गोपी संवाद में ज्ञान बनाम भक्ति, सगुण बनाम निर्गुण की बहस अपने प्रखर रूप में व्यक्त हुई है। इस तर्क-वितर्क, दार्शनिक ऊहापोह और वैचारिक टकराहट के भीतर अनेकानेक संदर्भ ऐसे हैं जिनसे पता चलता है कि सूरदास नाथपंथियों, सिद्धों और संतों की दलीलों का खंडन कर रहे हैं। सैकड़ों ऐसे पद हैं जिनमें योग, ज्ञान और निर्गुण निराकार ब्रह्म के अस्तित्व पर शंका व्यक्त की गई है, आपत्ति की गई है और उनकी निस्सारता सिद्ध की गई है। उद्धव-गोपी संवाद वस्तुतः निरगुनिया मत से सूर की मुठभेड़ का छाया-बिंब प्रतीत होता है। गोपियों की अश्रुपूरित, भावाकुल और करुण मनोदशा स्वयं में उद्धव को निरुत्तर करने, उन्हें चुप करने, ख़ामोश करने की तार्किक क्षमता रखती है। पिछले पाँच-छह सौ सालों से चले आ रहे वैचारिक द्वंद्वों में सूरदास अवतारवाद का अनुमोदन करते हैं और कृष्ण की सगुण मूर्ति की उपासना के पक्षघर के रूप में सामने आते हैं।
उद्धव स्वयं ज्ञानमार्गी हैं और ब्रह्म की निर्गुण निराकार सत्ता में विश्वास रखते हैं। कृष्ण उनके ज्ञान गर्व को चूर करना चाहते थे। इसलिए गोपियों के पास उद्धव को भेजते हैं। गोपियाँ निर्गुण की साधना कैसे कर सकती हैं, वे तो कृष्ण की सगुण लीला के रस और प्रेम में पगी हैं; कृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद विरह-व्याकुल हो रही हैं।
महाकवि सूर कृत 'सूरसागर' के दशम स्कंध में 'भ्रमरगीत' की रचना है। 'भ्रमरगीत सार' के संपादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा उप-संपादक विश्वनाथ प्रसाद मिश्र हैं। इस पुस्तक में कुल 400 पद हैं। पुस्तक में वक्तव्य और आलोचना रामचंद्र शुक्ल तथा आमुख विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है।
तुलसीदास : रामचरितमानस, उत्तर कांड
रामचरितमानस :
'रामचरितमानस' संपूर्ण हिंदी वाङ्मय की सर्वश्रेष्ठ कृत्तियों में से एक है। अवधी भाषा में लिखी गई इस प्रबंधात्मक कृति के रचनाकाल का ज़िक्र तुलसीदास ने स्वयं कर दिया है। तुलसीदास ने इसके लेखन का प्रारंभ संवत् 1631 (1574 ई.) में किया। इसके लेखन का कार्य दो वर्ष, सात महीने तथा छब्बीस दिन में पूरा हुआ।
'रामचरितमानस' में सात कांडों बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड तथा उत्तरकांड में राम की कथा कही गई है। कांडों की यह संख्या, नाम और क्रम तुलसीदास की अन्य कई रचनाओं में भी है।
इस कृति में तुलसीदास ने नानापुराणनिगमागमसम्मतं भक्ति निरूपण के साथ ही पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन की मर्यादा एवं आदर्श को प्रस्तुत किया है। इनके अतिरिक्त लोक जीवन के सांस्कृतिक पक्ष के समुच्चय को भी तुलसीदास ने अपनी इस रचना में पिरोया है।
उत्तरकांड गोस्वामी तुलसीदास के महाकाव्य श्रीरामचरितमानस के 7 कांडों में अंतिम है।
उत्तरकांड की कथावस्तु के दो भाग हैं। आरंभ में मूल कथा है राम अयोध्या पहुँचते हैं जहाँ उनका भव्य स्वागत होता है। वेद-स्तुति एवं शिव-स्तुति के साथ उनका राज्याभिषेक किया जाता है। वानरों को विदा किया जाता है। रामराज्य एक आदर्श राज्य के रूप में उपस्थित होता है।
इसके बाद उत्तरकांड में तुलसीदास का चिंतन-पक्ष उपस्थित हुआ है। यह कथा अपने युग की समस्याओं और मानव-जीवन को शाश्वत समस्याओं के समाधान से जुड़ती है।
इसमें तुलसी का भक्ति और ज्ञान संबंधी चिंतन विस्तार में अभिव्यक्त हुआ है।
वस्तुतः तुलसीदास ने उत्तरकांड के उत्तर-भाग में भुशुण्डि गरुड़ की कथा विशिष्ट उद्देश्य से रखी है। इस कथा के माध्यम से तुलसीदास ने ईश्वर के अवतार एवं उसकी लीला का मर्म, मानव-जन्म का महत्त्व, मानव का दुख, संत-असंत के लक्षण पाप और पुण्य आदि पर विचार किया है। अपने युग की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने कलियुग-वर्णन, शैव एवं वैष्णव मतों को समन्वय, निर्गुण-सगुण विवाद आदि प्रसंगों को इसमें समावेश किया है।
बिहारी सतसई (सं. जगन्नाथ दास रत्नाकर) : दोहा संख्या 1-50
बिहारी शृंगार के बड़े कवि हैं। उनके दोहों में शृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का विशद और सूक्ष्म चित्रण हुआ है। बिहारी की कविता में प्रेम के भौतिक पक्ष का वर्चस्व है। इसमें वर्णित प्रेम सामंती है जिसका मूल आधार रूपासक्ति है।
बिहारी की कविताओं में संयोग शृंगार के प्रति विशेष ललक दिखाई पड़ती है। संयोग शृंगार का मूल आधार रूपासक्ति और शारीरिक आकर्षण है जिसमें नायक-नायिका के रूप, भंगिमा, चेष्टा आदि का बाहुल्य है। देखकर, सुनकर, स्पर्श कर बातचीत कर संयोग का परिवेश तैयार होता है। बिहारी के शृंगार वर्णन में क्रीड़ा की प्रधानता है।
उनके संयोग-चित्रों में मानसिक विशदता और उत्फुल्लता उतनी नहीं मिलती जितना नायिका की विभिन्न शारीरिक चेष्टाओं का मनोरम अंकन मिलता है। इसे शास्त्रीय शब्दावली में 'अनुभाव योजना' कहते हैं। उदाहरण के लिए आँखों का लाल होना, भौहों का चढ़ना आदि अनुभाव हैं जिनसे क्रोध की व्यंजना होती है। बिहारी एक ही भाव की व्यंजना के लिए एक-साथ अनेक अनुभावों का चित्रण करते हैं। इस संदर्भ में बिहारी अपना सानी नहीं जानते।
रीति-युग के वे सबसे बड़े शब्द-चित्रकार हैं। उनकी बनाई तस्वीरें बड़ी साफ़ हैं, जिनमें नायिका की भिन्न-भिन्न भंगिमाओं, उसके अंगों के बाँकपन और उठान, उसकी एक-एक अदा और ख़ूबी को देखा जा सकता है।
बिहारी के संयोग शृंगार में युग का विलासी वातावरण चित्रित हुआ है जिसमें उन्होंने जीवन के रसीले प्रसंगों का सूक्ष्म निरीक्षण प्रस्तुत किया है। इसीलिए संयोग शृंगार को उनकी काव्य की आत्मा माना गया है। उनकी कविताओं में नायक-नायिका की मुद्राएँ, हाव-भाव, चेष्टाएँ पाठक को मुग्ध और चमत्कृत करती हैं।
वस्तुतः बिहारी का संयोग वर्णन जितना सफल हुआ है उतना वियोग वर्णन नहीं। लगता है बिहारी को जीवन के संयोग पक्ष का जैसा अनुभव था वैसा वियोग पक्ष का नहीं। नायिका की सुकुमारता, विरह ताप, विरह क्षीणता आदि में बिहारी कहीं-कहीं औचित्य की सीमा का अतिक्रमण कर गए हैं और वहाँ उनकी कविता खिलवाड़ मात्र बन गई है। इनके विरह वर्णन में न तो सूर की स्वाभाविकता और तीव्रता है और न जायसी की सी गहनता और अशेष सृष्टि के साथ रागात्मकता।
बिहारी का मन वियोग वर्णन में रमा नहीं और विरह में प्रेम के जिस उदात्त रूप का रससिद्ध कवि साक्षात्कार करा दिया करते हैं, बिहारी नहीं करा सके। वे प्रेम के सहज रूप को कम और उसके मनोहर रूप को अधिक पसंद करते हैं।
घनानंद कवित्त (सं. विश्वनाथ मिश्र) : कवित्त संख्या 1-30
घनानंद का जन्म सन् 1683 ई० में और मृत्यु सन् 1760 ई० में अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के कारण हुई। यह तथ्य आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र और डॉ० मनोहर लाल गौड़ द्वारा भी समर्थित है।
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने घनानंद ग्रंथावली की भूमिका में स्पष्ट रूप से इन्हें निंबार्क संप्रदाय में दीक्षित होना स्वीकार किया है।
डॉ० सत्यप्रकाश मिश्र ने लिखा है—प्रेम की पीर की रचनात्मक परिणति ही घनानंद की कविता है, क्योंकि उनकी कविता ने ही उन्हें निर्मित किया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में लिखा है—इनकी सी विशुद्ध, सरस और शक्ति-शलिनी ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ, विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व है। विप्रलंभ शृंगार ही अधिकतर इन्होंने लिया है। ये वियोग शृंगार के प्रधान मुक्तक कवि हैं। प्रेम की पीर लेकर ही इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबादानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।
घनानंद कवित्त के संकलनकर्ता श्री ब्रजनाथ ने निम्नलिखित सवैया में घनानंद की कविता समझने वाले (भावक) में कुछ गुणों की अपेक्षा की है।
मीरा (सं.- विश्वनाथ त्रिपाठी) : प्रारंभ से 20 पद
मीरा का जन्म 1498 के आसपास और मृत्यु 1546 के आसपास हुई। उनका बचपन मारवाड़ के मेड़ता में बीता और मृत्यु गुजरात स्थित द्वारिका में मानी जाती है।
निश्चय ही संत और भक्त तो वे हैं ही परंतु इसके साथ-साथ उनकी कविता में उनके स्त्री होने का एहसास भी हमें बार-बार दिखाई देता है। इसीलिए स्त्री की लाचारी और विवशता की छवियाँ हमें उनकी कविता में दिखाई देती हैं। वस्तुतः उनके स्त्री होने का यह एहसास ही उन्हें आज के स्त्री विमर्श से जोड़ता है आज स्त्री विमर्श की लेखिकाएँ पुरुष और स्त्री के साहित्य में जो अंतर करती हैं वह मूल अंतर है, अपनी यातना, कष्ट तथा अनुभूत को स्वयं शब्द देना।
इस संदर्भ में अगर हम मीरा से पूर्व की ओर जाएँ तो पाएँगे कि स्त्री के संदर्भ पहले जो कुछ भी लिखा गया, वह पुरुषों द्वारा ही, जैसे सीता, द्रौपदी, शकुंतला आदि के संदर्भ में। उन रचनाओं में स्त्री को सहानुभूति मिली, संवेदना मिली परंतु मीरा के यहाँ जो कुछ है वह उनका अनुभूत है, उनकी आत्माभिव्यक्ति है। उनका भोगा गया तथा सहा गया है। स्त्री-पुरुष के भेद को उन्होंने मिथ्या माना। वे स्वयं को मनुष्य के रूप में प्रस्तुत करना चाहती थीं। इसीलिए वे न तो सती हुई, न पर्दा किया और राजमहल छोड़कर, सामंतवादी व्यवस्था को छोड़कर सामान्य लोगों के साथ घूम-घूम कर अपनी बात कही।
मीरा मध्यकाल की थीं। एक सामंतवादी व्यवस्था में वह पली-बढ़ी थी। मीरा सामंतवाद से भी ऊपर उठीं। सामंतवादी और राजशाही व्यवस्था से उन्होंने विद्रोह किया।
मीरा की कविता पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के इस अधिकार को चुनौती देती है।
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध : प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
जन्म : 15 अप्रैल 1865 निज़ामाबाद, आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)
कविता : प्रियप्रवास, वैदेही वनवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्र पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई।
प्रियप्रवास :
प्रियप्रवास' (1914 ई०) खड़ीबोली का महाकाव्य है। इसमें 17 सर्ग है। इसमें 'शृंगार' और 'करुण रस' की प्रधानता है।
इसका रचनाकाल 15 अक्टूबर सन् 1909 ई० को शुरू हुआ और 24 फ़रवरी सन् 1913 ई० को समाप्त हुआ था। यह खड़ीबोली का प्रथम महाकाव्य है।
'हरिऔध' ने कहा है—“मैंने श्री कृष्णचंद्र को इस ग्रंथ में एक महापुरुष की भाँति अंकित किया है ब्रह्म मान के नहीं।
कृष्णचरित को इस प्रकार अंकित किया है जिससे आधुनिक लोग भी सहमत हो सकें।”
विश्वम्भर मानव के अनुसार—प्रियप्रवास भरतीय नवजागरण काल का महाकाव्य ही नहीं, यह जीवन के श्रेष्ठतम मानव-मूल्यों का कीर्ति-स्तंभ भी है। यह वैज्ञानिक युग की विभीषिका में मानवतावाद का विजयघोष है। कृष्ण को केंद्र बनाकर इसमें जो कथा वर्णित है, उससे मनुष्य की महत्ता, जीवन की सुंदरता, प्रेम की शक्ति और सबसे अधिक मानवीय संबंधों की अनुपमा कोमलता पर प्रकाश पड़ता है।”
इसकी कथावस्तु का मूल आधार श्रीमद्भागवत का दशम स्कंध है जिसमे श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनके यौवन, ब्रज से मथुरा का प्रवास और वापस ब्रज लौट आना वर्णित है। संपूर्ण कथा दो भागों में विभाजित है। पहले से आठवें सर्ग तक की कथा में कंस के निमंत्रण से लेकर अक्रूर जी के ब्रज आगमन तथा कृष्ण का समस्त ब्रजवासियों को छोड़कर मथुरा आना दिखाया गया है। नौवें सर्ग से लेकर सत्रहवें सर्ग तक की कथा में कृष्ण, अपने मित्र उद्धव को ब्रजवासियों को सांत्वना देने के लिए मथुरा भेजते हैं। राधा अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर मानवता के हित के लिए अपने आपको न्योछावर कर देती है। राधा की प्रसिद्ध उक्ति है—‘प्यारे जीवें जगहित करें, गेह चाहे न आवें।’
मैथिलीशरण गुप्त : भारत भारती, साकेत (नवम् सर्ग)
मैथिलीशरण गुप्त
जन्म : 3 अगस्त 1886, चिरगाँव, झाँसी (उत्तर प्रदेश)
मुख्य कृतियाँ :-
पंचवटी, साकेत, जयद्रथ वध, यशोधरा, द्वापर, झंकार, जयभारत, भारत भारती खंड काव्य के रूप में इस रचना की प्रेरणा चाहे उन्हें हाली के मुसद्दस से मिली किंतु सन् 1912 में प्रकाशित इस रचना में राष्ट्र के प्रति उनकी संवेदना बहुत मुखर होकर सामने आती है।
भारत भारती में अतीत, वर्तमान एवं भविष्य तीन खंड हैं, जिनमें अतीत खंड में गुप्त जी ने बहुत विस्तार से भारत के अतीत का वर्णन कर देशवासियों को अपने स्वर्णिम इतिहास, जातीय पहचान का परिचय देकर उन्हें इज्ज़त और सम्मान से खड़े होने की प्रेरणा देने का कार्य किया है।
मुसद्दस और भारत भारती दोनों अपने वर्णित विषय में और उद्देश्य में समान हैं किंतु भिन्न देश-काल के कारण उनमें निहित दृष्टिकोण और भावना में कुछ मौलिक अंतर भी आ गया है।
इसकी भूमिका में गुप्त जी लिखते हैं—यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में भारी अंतर है। अंतर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला-कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है।...परंतु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिंदी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्यत् के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्ति के लिए जहाँ तक मैं जानता हूँ, कोई यथोचित प्रयत्न नहीं किया गया। परंतु देशवत्सल सज्जनों को यह त्रुटि बहुत खटक रही है। ऐसे ही महानुभावों में कुर्री सुदौली के अधिपति माननीय श्रीमान्, राजा रामपाल सिंह जी के. सी. आई. ई. महोदय हैं। कोई दो वर्ष पूर्व मैंने 'पूर्वदर्शन' नाम की एक तुकबंदी लिखी थी। उस समय चित्त में आया था कि हो सका तो कभी इसे पल्लवित करने की चेष्टा भी करूँगा। इसके कुछ ही दिनों बाद उक्त राजा साहब का एक कृपा पत्र मुझे मिला, जिसमें श्रीमान् ने मौलाना हाली के मुसद्दस को लक्ष्य करके एक कविता पुस्तक हिन्दुओं के लिए लिखने का मुझसे अनुग्रहपूर्वक अनुरोध किया।..
भारत भारती (पृष्ठ 6) :
भारत भारती का कवि मूलतः सुधारवादी भावनाओं में रोमांटिक रूप से अतीतानुरागी बनकर सामने आता दिखाई पड़ता है।
गुप्त जी के बारे में हिंदी साहित्य का इतिहास में आचार्य शुक्ल लिखते हैं—गुप्त जी की प्रतिभा की सबसे बड़ी विशेषता है कालानुसरण की क्षमता अर्थात उत्तरोत्तर बदलती हुई भावनाओं और काव्यप्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति। इस दृष्टि से हिंदी भाषी जनता के प्रतिनिधि कवि ये निःसंदेह कहे जा सकते हैं। (पृष्ठ 334)।
साकेत (नवम् सर्ग) :
इसकी रचना गुप्तजी ने 1931 ई. में की थी। रामायण लेखन की परंपरा में उर्मिला सदा से उपेक्षित रहती आई है। यह रचना एक प्रकार से 'उर्मिला' की अनकही कथा का कथन है।
साकेत के नवम सर्ग के आरंभ में राजा जनक की प्रशंसा है। राजा जनक राजा होते हुए भी विरागी थे। उनमें संसारिक भौतिकता के प्रति आकर्षण नहीं था। ऐसे ही महामानव की पुत्री उर्मिला थी। यहाँ अयोध्या के महत्वपूर्ण पात्रों का संक्षिप्त वर्णन है और उसके बाद उर्मिला का वियोग वर्णन है। उर्मिला अपने त्याग से वंश की कालिमा को मिटा देती है। राम वनगमन दशरथ के कुल में एक कलंकित प्रसंग है। उर्मिला का पति लक्ष्मण राम के साथ बन जाता है। यह एक उदात्त भाव परंतु इस उदात्त भाव के पीछे उर्मिला का त्याग है। उर्मिला को पति का वियोग सहना पड़ता है। वह अपने आत्म ज्ञान को विस्मृत कर देती है। वह प्रिय के अनुराग को अपने जीवन को जीने का स्रोत समझती है। उसमें समर्पण और निष्ठा है। वह आरती की तरह जलकर भी सुगंध बिखेरती है। लक्ष्मण जब उर्मिला से मिलने उसकी कुटिया में प्रवेश करते हैं तब उन्हें मात्र उर्मिला की छाया रेखा ही दिखाई पड़ती है। उर्मिला का मानना है नारी जीवन के लिए बंधन नहीं है, उसमें परिवार और कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए आत्म-बलिदान करने की अपूर्व क्षमता होती है।
जयशंकर प्रसाद : आँसू, कामायनी (श्रद्धा, लज्जा, इड़ा)
जयशंकर प्रसाद
जन्म : 30 जनवरी 1889, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
काव्य-कृतियाँ :- चित्राधार (1918/1928), कानन-कुसुम (1913/1929), प्रेमपथिक (ब्रजभाषा-1909), प्रेमपथिक (खड़ी बोली हिंदी-1914), महाराणा का महत्त्व (1914), झरना (1918), आँसू (1925/1933), लहर (1935), कामायनी (1935)।
'आँसू' एक गीति-काव्य है। यह छायावाद की महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है। इसका प्रथम संस्करण 1925 में प्रकाशित हुआ था। मैथिलीशरण गुप्त ने चिरगाँव, झाँसी से इसका प्रकाशन किया था। इसमें कुल 126 छंद थे तथा इस पुस्तक को लोकप्रियता मिली थी। जयशंकर प्रसाद ने जल्दी ही इसका दूसरा संस्करण तैयार किया। इसका प्रकाशन 1933 में प्रयाग से हुआ। दूसरे संस्करण में 190 छंद थे। इसमें अनेक पाठ-परिवर्तन थे। वर्तमान काल की जगह भूतकालिक क्रियाओं का प्रयोग किया गया था, जैसे- 'है' या 'हूँ' की जगह 'था' का प्रयोग। प्रथम संस्करण के दो छंदों को इसमें नहीं रखा गया था और 64 नए छंद जोड़ दिए गए थे।
'आँसू' की पंक्तियों में प्रेम की वेदना को प्रकट किया गया है। व्यक्तिगत वेदना को अनुभूति के विभिन्न रूपों में प्रस्तुत करते हुए यह पुस्तक संसार के दुखों पर मरहम लगाने की कोशिश करती है। विश्व-वेदना के प्रति करुणा उत्पन्न करना इस पुस्तक का उद्देश्य है। यह पुस्तक युवाओं के बीच अधिक प्रसिद्ध हुई। प्रस्तुत अंश में 18 परिच्छेद रखे गए हैं। इस पुस्तक के परिच्छेदों का क्रम बाद में प्रकाशित होने वाले सभी संस्करणों में एक जैसा नहीं हैं। संपादकों-प्रकाशकों ने इसके 190 परिच्छेदों को अलग-अलग क्रम में प्रकाशित किया है। इसलिए इस पुस्तक के बंध मुक्तक काव्य का भी आनंद देते हैं। यह पुस्तक प्रबंध-काव्य तो नहीं है, मगर इसकी पंक्तियों में निहित भावबोध में वेदना का एक क्रम ज़रूर महसूस किया जा सकता है।
'कामायनी' आधुनिक छायावादी युग का सर्वोत्तम और प्रतिनिधि हिंदी महाकाव्य है। कामायनी की रचना 1936 ई. में संपन्न हुई। श्रद्धा इसकी प्रधान पात्र है, जो कि काम की पुत्री है। उसका दूसरा नाम कामायनी है। इसी के नाम पर इस महाकाव्य का नामकरण किया गया है। एक स्त्री पात्र के नाम पर अपने महाकाव्य का नामकरण करके प्रसाद जी ने स्त्री को गरिमा प्रदान की है। 'कामायनी' नामक यह महाकाव्य कुल पंद्रह सर्गों में विभाजित है—चिंता, आशा, श्रद्धा, काम, वासना, लज्जा, कर्म, ईर्ष्या, इड़ा, स्वप्न, संघर्ष, निर्वेद, दर्शन, रहस्य और आनंद।
इन पंद्रह सर्गों में मानव मन की विविध अंतर्वृत्तियों का क्रमिक उन्मीलन इस कौशल से किया गया है कि मानव सृष्टि के आदि से अब तक के जीवन के मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक विकास का इतिहास भी स्पष्ट हो जाता है। कामायनी की कथावस्तु का आधार ऋग्वेद, छान्दोग्य उपनिषद, शतपथ ब्राह्मण तथा श्रीमदभागवत है। कामायनी में वर्णित घटनाक्रम मूलतः शतपथ ब्राह्मण से लिया गया है। उसमें मनु, श्रद्धा, इड़ा, किलात और आकुलि के नाम आए है और जल-प्लावन की घटना का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। शतपथ ब्राह्मण के प्रथम कांड के आठवें अध्याय से जलप्लावन संबंधी उल्लेखों का संकलन कर प्रसाद ने इस काव्य का कथानक निर्मित किया है। साथ ही उपनिषद और पुराणों में मनु और श्रद्धा का जो रूपक दिया गया है, उसका भी सहारा लिया गया है। इसमें प्रसाद जी ने मूल मनोभावों को पात्रों में रूपांतरित कर उनके माध्यम से प्रकारांतर से मनुष्य के संपूर्ण अस्तित्व की कथा कही है। कामायनी में मनु, श्रद्धा और इड़ा क्रमशः मन, हृदय और बुद्धि के प्रतीक हैं। इस दृष्टि से यह महाकाव्य अन्तःकरण में वृत्तियों के विकास की भी गाथा है। कामायनी पर प्रतमिज्ञा दर्शन, अरविंद दर्शन और गांधीवाद का भी प्रभाव परिलक्षित होता है।
'श्रद्धा' सर्ग में श्रद्धा का सौंदर्य चित्रण नई सौंदर्य-दृष्टि का संकेत है। रीतिकालीन कवियों के नख-शिख वर्णन से भिन्न इस चित्रण में सौंदर्य का जादू ही आकृष्ट नहीं करता, विश्व मंगल की भावना और उदारता भी आकृष्ट करती है। प्रसाद ने अपने भाववादी समाधान के लिए श्रद्धा का जैसा भी उपयोग किया हो, उसका व्यक्तित्व विधान आधुनिक संवेदना का ही परिणाम है।
इस सर्ग में प्रलय की विभीषिका देखकर उपजे दुःख से क्लांत और असहाय मनु के साथ-साथ श्रद्धा द्वारा निराश मनु के मन में आशा का संचार किए जाने के उल्लेखनीय प्रयास को दिखाया गया है।
श्रद्धा के रूप में स्त्री के उदार मन और विवेकयुक्त चरित्र का सुंदर चित्रण हुआ है।
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
(सन् 1898-1961)
सन् 1916 में उन्होंने प्रसिद्ध कविता 'जूही की कली' लिखी जिससे बाद में उनको बहुत प्रसिद्धि मिली।
रचनाएँ : जुही की कली, जागो फिर एक बार, सरोजस्मृति, राम की शक्तिपूजा, कुकरमुत्ता, बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
जागो फिर एक बार :
मतवाला', साप्ताहिक, कलकत्ता, 27 मार्च, 1926, परिमल में संकलित।
'जागो फिर एक बार' मूलतः पुनर्जागरण और पुनरुत्थान के भाव को समेटे हुए है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में यह भाव हिंदी की अनेक कविताओं में व्यक्त हुआ है कि हम पहले महान् थे, किंतु आज पराधीन हैं। यदि हम प्रयास करें तो पराधीनता को समाप्त कर सकते हैं और एक बार फिर से अपने महान् होने के प्रमाण दे सकते हैं। निराला ने सिक्खों की वीरता, धार्मिक मान्यताओं में मृत्यु को जीत लेने की अवधारणा, सिंह की तरह भारतीयों की वीरता और आध्यात्मिक स्तर पर मुक्ति की परिकल्पना आदि को आधार बनाकर पुनर्जागरण और पुनरुत्थान के भाव को इस कविता में व्यक्त किया है।
छायावादी कविता मुक्ति की कामना करती रही है। मुक्ति के प्रयास में वह इतिहास, धर्म, अध्यात्म, संस्कृति, काव्य आदि से शब्दावली लेती रही है। इन बातों को इतिहास के तथ्यों के रूप में व्याख्यायित करना उचित नहीं है। जैसे इस कविता में सिक्खों के संघर्ष की चर्चा है। उसमें गुरु गोविंद सिंह का भी नाम आया है। हम सब जानते हैं कि सिक्खों की ये लड़ाइयाँ मुग़लों से हुई थीं। मगर निराला इस बात को सिक्ख मुस्लिम की लड़ाई के रूप में चित्रित नहीं कर रहे हैं, बल्कि मुक्ति की लड़ाई के रूप में याद कर रहे हैं। वे कहना चाहते हैं कि हमें पराधीन बनाने वाली ताक़त चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो, हमें उससे मुक़ाबला करना चाहिए।
सरोज स्मृति :
सरोज स्मृति कविता निराला की दिवंगत पुत्री सरोज पर केंद्रित है। यह कविता बेटी के दिवंगत होने पर पिता का विलाप है। पिता के इस विलाप में कवि को कभी शकुंतला की याद आती है कभी अपनी स्वर्गीय पत्नी की। बेटी के रूप रंग में पत्नी का रूप रंग दिखाई पड़ता है, जिसका चित्रण निराला ने किया है। यही नहीं इस कविता में एक भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज से उसके संबंध, पुत्री के प्रति बहुत कुछ न कर पाने का अकर्मण्यता बोध भी प्रकट हुआ है। इस कविता के माध्यम से निराला का जीवन-संघर्ष भी प्रकट हुआ है। वे कहते हैं—दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही।
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! :
रचनाकाल 22 जनवरी, 1950, 'देशदूत', साप्ताहिक, प्रयाग, 11 फरवरी, 1951, में प्रकाशित 'अर्चना' में संकलित 'बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु!' एक गीत है। 'अर्चना' गीतों का संग्रह है। निराला ने इसकी भूमिका 'स्वयोक्ति' में लिखा है, प्रचलित कुल तालों से समन्वित 'अर्चना' नामक आधुनिक गीतों का संग्रह। ताल के अनुसार ये गीत लिखे गए हैं। प्रस्तुत गीत में एक लड़की की चर्चा है। वह नदी के एक घाट पर नहाती थी। वह उन्मुक्त भाव से नहाती और हँसती थी। उसे देखने वाले देखते रह जाते थे। उस लड़की के बारे में कही गई सभी बातों का संबंध भूतकाल से है। मगर कहने वाला नाव वाले को सावधान कर रहा है कि इस घाट पर नाव मत बाँधो!
सुमित्रानंदन पंत : परिवर्तन, प्रथम रश्मि, द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र
सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई सन् 1900 ई. में रविवार को कौसानी में हुआ।
राजनीतिक एवं सामाजिक चिंतन में वे गांधी, मार्क्स और अरविंद तीनों से आंदोलित-प्रभावित होकर लिखते रहे। रीतिवादी रूढ़ियों के प्रति वे जन्मजात विद्रोही रहे हैं। पल्लव का प्रवेश (भूमिका) उनके इसी रूढ़ि-विरोधी क्रांतिकारी चिंतन का सुविचारित घोषणा पत्र है।
कविवर पंत जी का रचनाकाल सन् 1916 ई. से लेकर 1977 ई. तक लगभग साठ वर्षों तक फैला हुआ है।
काव्य-कृतियाँ :-
वीणा (1927), ग्रन्थि (1920-1929), पल्लव (1926), गुंजन (1932), युगान्त (1936), युगपथ (1949), युगवाणी (1939), ग्राम्या (1940), स्वर्णकिरण (1947), स्वर्णधूलि (1947), मधुज्वाल (1947), उत्तरा (1949), रजत-शिखर (1952), शिल्पी (1952), सौवर्ण (1956), अतिमा (1955), किरण-वीणा (1967), वाणी (1958), कला और बूढ़ा चाँद (1959), पौ फटने से पहिले (1967), पतझर (एक भाव-क्रांति 1967), गीतहंस (1969), लोकायतन (1965) शंखध्वनि (1971), शशि की तरी (1971), समाधिता (1973), आस्था (1973), सत्यकाम (1975), गीत-अगीत (1977), संक्रांति (1977)
नाट्य-कृतियाँ :-
ज्योत्स्ना (1934), परी (जनवरी, 1925), ज़िंदगी का चौराहा (1939), अस्पृश्या (1937). सष्टा (1938), करमपुर की रानी (1949), चौराहा (1948), शकुंतला (1948), युग-पुरुष (1948), छाया (1948)
कहानी-संग्रह :-
पाँच कहानियाँ (1936) उपन्यास हार (1917)
निबंध :-
छायावाद पुनर्मूल्यांकन (1965), शिल्प और दर्शन(1961), कला और संस्कृति (1965), साठ वर्ष एक रेखांकन (1969)
प्रथम रचना उच्छवास नाम से छपी। पंत जी की लंबी काव्य यात्रा के विकास को हम अध्ययन की सुविधा के लिए तीन सोपानों में विभक्त कर सकते हैं।
(क) छायावादी काव्य : इसे उनके सृजन युग का सौंदर्य भी कह सकते हैं।
(ख) प्रगतिवादी काव्य : इसे हम लोकमंगल वादी या शिव युग भी कह सकते हैं।
(ग) आध्यात्मिक नव चेतना का अरविंदवादी काल : इसे सत्य से साक्षात्कार का चिंतन युग या सत्य युग भी मान सकते हैं। साहित्य में पंत जी के काव्य चेतना के विकास के इन युगों की प्रसिद्धि 'सौंदर्य' 'शिव', 'सत्य' के नाम से रही ही है।
(1) छायावादी काव्य : (1916 ई. से 1935 ई. तक) पंत जी के सृजन का सर्वोत्तमरूप उनके छायावादी काव्य में ही दृष्टिगत होता है। इस काल में ही वे 'वीणा' लेकर आए और 'ग्रांथि', 'पल्लव', 'गुंजन' तथा 'ज्योत्सना' जैसे छायावादी काव्य मुहावरे की, भाव संकल्पना की। प्रकृति-सौंदर्य-चेतना और शिल्पकला की चमत्कारी रचनात्मकता वे इसी समय दे गए। 'वीणा' कवि की काव्य भावना का कोमल शिशु संसार है जिसमें प्रगीतात्मक गीत विहग कल्पना के रंगीन पंख फैलाकर उड़ते हैं। इन प्रगीतों की मूल प्रेरणा प्रकृति-सौंदर्य है। पर कभी-कभार विवेकानंद और तिलक पर भी नवजागरणवादी रचनाएँ लिखी हैं। 'ग्रंथि' असफल प्रेम की मार्मिक जीवनानुभव से भरी रचना है।
'पल्लव' की भूमिका का चिंतन और प्रगीत-कला छायावादी सर्जनात्मकता का चरम उत्कर्ष है। हिंदी के सभी आलोचक 'पल्लव' (1926) को ही पंत जी की प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ प्रस्फुटन मानते हैं। इस संग्रह की भूमिका का वही महत्व हिंदी में है जो वर्डस्वर्थ की 'लिरिकल वैलेड्स' की भूमिका का पश्चिमी स्वच्छंदतावादी काव्यशास्त्र में रहा है। 'पल्लव' के बाद 'गुजन' और 'ज्योत्सना' जैसे काव्य-संग्रह आए।
(2) प्रगतिवादी काव्य : छायावाद के बाद पंत जी पर मार्क्स की विचारधारा का प्रभाव पड़ा। वे छायावाद की भाव भूमि से हटकर मार्क्सवादी भाव भूमि की कविताएँ लिखने लगे। पंत जी 'ज्योत्सना' में ही मार्क्सवाद से प्रभावित हुए। किंतु इस प्रभाव का खुलासा 'युगांत' में दिखाई दिया। 'युगांत' 'गुण-वाणी' तथा 'ग्राम्या' में इनके काव्य स्वभाव का बदलाव स्पष्टतः देखा जा सकता है। वे भाववादी आदर्शवादी भूमि को छोड़कर यथार्थवाद की कठोर वास्तविकता-वादी भूमि पर आते हैं।
पंत जी ने लिखा है—ज्योत्सना तक मैं सौंदर्य-बोध की भावना से ही जगत का परिचय प्राप्त करता रहा। उसके बाद मैं बुद्धि से भी संसार को समझाने की चेष्टा करने लगा हूँ। यह कहा जा सकता है कि यहाँ मेरी काव्य साधना का दूसरा युग आरंभ होता है। (आधुनिक कवि पंत जी पृ.11)
(3) पंत के काव्य विकास का यह तीसरा सोपान मूलतः उनके आत्म विकास और आत्म मंथन का काल है। उन्हें लगा अरविंद दर्शन ही मानवों की समस्याओं का हल है। उन्हें मनुष्य का आध्यात्मिक विकास भी ज़रूरी लगने लगा। 'स्वर्ण-धूलि', 'अंतिमा', 'रजत शिखर' और 'लोकायतन' इसी अध्यात्मवादी भावलोक की रचनाएँ हैं।
परिवर्तन :
परिवर्तन सुमित्रानंदन पंत की लंबी कविता है जो 1926 में प्रकाशित कविता-संग्रह पल्लव में संकलित है।
इस कविता में प्रकृति के कोमल और कठोर चित्रों के साथ भाग्यवाद और निराशावाद के स्वर भी प्रस्फुटित हुए हैं। इस कविता का वैशिष्ट्य और महत्व सभी विद्वानों ने एक स्वर से स्वीकार किया है।
इस कविता की प्रासंगिकता के विषय में डॉक्टर नगेंद्र लिखते हैं कि वास्तव में पंतजी ने न तो इससे पूर्व ही और न इसके बाद ही इतनी आवेशपूर्ण कविता लिखी है। 'परिवर्तन' पंत के काव्यकाश में उस दूरवर्ती तारे के सदृश है जो सबसे पृथक रहकर अपनी ज्योति विकीर्ण करता है—लाइक ए स्टार दैट् डवैल्स अपार्ट। 'परिवर्तन' के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की मान्यता है—पल्लव' के अंत में पंत जी जगत के विषम परिवर्तन के नाना दृश्य सामने लाए हैं। इसकी प्रेरणा शायद उनके व्यक्तिगत जीवन की किसी विषम स्थिति ने की है। जगत की परिवर्तनशीलता मनुष्य जाति को चिरकाल से क्षुब्ध करती है आ रही है परिवर्तन संसार का नियम है। यह बात स्वतः सिद्ध होने पर भी सहृदयों और कवियों का मर्म स्पर्श करती रही है और करती रहेगी, क्योंकि इसका संबंध जीवन के नित्य स्वरूप में है। जीवन के व्यापक क्षेत्र में प्रवेश के कारण कवि कल्पना को कोमल, कठोर, मधुर, कटु भयंकर कई प्रकार की भूमियों पर बहुत दूर तक एक संबंध धारा के रूप में चलना पड़ा है। 'परिवर्तन' के कथ्य में एक विशिष्ट क्रम दिखाई पड़ता है।
इस कविता के स्पष्टतः दो भाग हैं एक आत्मगत संवेदना-प्रेम, विरह और विषाद का चित्रण करने वाला दूसरा परिवर्तन के विराट बिंब को प्रस्तुत करने वाला।
प्रथम रश्मि :
सुमित्रानंदन पंत की 'प्रथम रश्मि' कविता 1919 में लिखी गई थी और 'वीणा' (1927) में संगृहीत हुई थी। यह कविता छायावाद की शुरुआती कविताओं में प्रमुख है। इसमें छायावादी प्रवृत्तियों को प्रमुखता से व्यक्त होने का अवसर प्राप्त हुआ था। पंत ने प्रारंभिक दौर में ही जिस तरह की परिपक्व छायावादी काव्य-भाषा प्राप्त कर ली थी, उसका सुंदर उदाहरण है यह कविता। पंत ने इस कविता में चिड़िया को संबोधित करके कुछ बातें कही है। यह चिड़िया किशोर उम्र की है। वे उसे 'बाल विहगिनी' कहते है, जिसका अर्थ है बालिका चिड़िया। प्रकृति में मनुष्य को देखने का यह एक सुंदर उदाहरण है।
वे उस चिड़िया से कोमलतापूर्वक बात करते हैं। इस एक तरफ़ा संवाद में रोमानियत की अंतर्धारा बहती हुई जान पड़ती है। नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक 'छायावाद' में एक अध्याय का नाम ही रखा है प्रथम रश्मि।
द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र :
'द्रुत झरो' कविता में कवि प्राचीन सड़ी-गली परंपराओं के नष्ट होने की बात करता है। कवि नव युग चाहता है जहाँ अंधविश्वास और वैमनस्य से रहित संसार हो। कवि चाहता है कि पुराने पत्ते शीघ्र गिर जाएँ और नए पत्ते आ जाएँ। निष्वाण पुराना युग जाए और आशापूर्ण नव युग आ जाए। जीवन में फिर से नई हरियाली आए। कवि आशा करता है कि विश्व में वापस चेतना आएगी और फिर से नवयुग की प्याली भरेगी।
महादेवी वर्मा : 'बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ, मैं नीर भरी दुख की बदली, फिर विकल है प्राण मेरे, यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो।'
महादेवी वर्मा का जन्म होली के दिन सन् 1907 ई. में उत्तर प्रदेश के फ़र्रूख़ाबाद नगर में हुआ था।
काव्य-कृतियाँ :-
नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1935), सांध्यगीत (1936), दीपशिखा (1942), हिमालय (1963), सप्तपर्णा (अनूदित 1966), प्रथम आयाम (1982), अग्निरेखा (1990) गद्य-कृतियाँ।
अतीत के चलचित्र (रखाचित्र 1941), श्रृंखला की कड़ियाँ (नारी-विषयक सामाजिक निबंध-1942), स्मृति की रेखाएँ (रेखाचित्र 1943), पथ के साथी (संस्मरण-1956), क्षणदा (ललित निबंध 1956), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (आलोचनात्मक 1960), संकल्पिता (आलोचनात्मक 1969), मेरा परिवार (पशु-पक्षियों के संस्मरण-1971), चिंतन के क्षण (1986) संकलन यामा (नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत का संग्रह 1936), संधिनी (कविता संग्रह-1964), स्मृतिचित्र (गद्य-संग्रह 1966), महादेवी साहित्य (भाग 1-1969), महादेवी साहित्य (भाग 2- 1970), महादेवी साहित्य (भाग 3-1970), गीतपर्व (कविता संग्रह 1970), स्मारिका (1971), परिक्रमा (कविता संग्रह 1974), सम्भाषण (कविता संग्रह-1975), मेरे प्रिय निबंध (निबंध संग्रह-1981), आत्मिका नीलांबरा (कविता संग्रह-1983), दीपगीत (कविता संग्रह-1983)।
महादेवी वर्मा के काव्य में जागरण की चेतना के साथ स्वतंत्रता की कामना है और दुःख की अनुभूति के साथ करुणा का बोध भी। दूसरे छायावादी कवियों की तरह उनके गीतों में भी प्रकृति-सौंदर्य के कई रूप मिलते हैं। महादेवी वर्मा के प्रगीतों में भक्तिकाल के गीतों की प्रतिध्वनि और लोकगीतों की अनुगूँज है, इसके साथ ही उनके गीत आधुनिक बौद्धिक मानस के द्वंद्रों को भी अभिव्यक्त करते हैं।
महादेवी वर्मा के गीत अपने विशिष्ट रचाव और संगीतात्मकता के कारण अत्यंत आकर्षक हैं। लाक्षणिकता, चित्रमयता और रहस्याभास उनके गीतों की विशेषता है। महादेवी जी ने नए बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से प्रगीत की अभिव्यक्ति शक्ति का नया विकास किया। उनकी काव्य-भाषा प्रायः तत्सम शब्दों से निर्मित है। भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।
यामा के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। 'बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ' शीर्षक कविता महादेवी वर्मा के काव्य-संग्रह 'नीरजा' (1935) में संगृहीत है।
इस कविता में महादेवी ने दार्शनिक मतों का सहारा लेकर भेद में अभेद की स्थापना की है। यह यात्रा द्वैत से अद्वैत की तरफ़ है। इस कविता की सुंदरता इस बात में है कि इसका एक अर्थ रहस्यवादी ढंग से ईश्वरीय प्रेम का अर्थ देता है तो दूसरी तरफ़ स्त्री जीवन की पूर्णता का अर्थ देता है। स्त्री के बारे में यह बात कई तरह से कही गई है कि वह 'आधी है या अधूरी' है। वह पुरुष से जुड़कर पूर्ण होती है। इन भेदों को मिटाते हुए महादेवी स्त्री के व्यक्तित्व को अभेद और अद्वैत की तरह पूर्णता प्रदान करना चाहती हैं। महादेवी की अनेक कविताओं की तरह यह कविता भी 'मैं' शैली में लिखी गई है, जो स्त्री की तरफ़ से कही गR बात का बोध कराती है।
मैं नीर भरी दुख की बदली :
इस कविता में कवयित्री महादेवी वर्मा ने विरहित जीवन व्यथा को अभिव्यक्ति दी है।
वह कहती हैं कि मेरा दुख जल से भरे बादलों के दुःख के समान है। जो दूसरों को तृप्त करने के लिए लगातार स्वयं कष्ट झेलते हैं। मेरा दुख भी स्थायी दुख है। मेरे शरीर का रोम-रोम इस दुःख से कंपित हो रहा है। मेरे इस रुदन से आहत (दुखी) होने के बजाय विश्व के लोग हँस रहे हैं।
मेरी आँखें लगातार जल से भरी रहती हैं। और पलकों से सदा बरसात सी रोती रहती हैं, इस के बावजूद भी अपने प्रियतम को पाने की आशा लगातार बनी हुई है। मैं ज्यों-ज्यों अपने प्रियतम की ओर बढ़ती हूँ। मेरे हर क़दम से एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि निलकती है, जो मेरे क़दमों में और अधिक गति भर देती है। और मेरी हर श्वास मेरे प्रियतम से मिलने के लिए पराग के समान उड़कर उन तक पहुँचने के लिए व्याकुल हैं।
लेखिका आगे कहती है कि मौसम मे परिवर्तन के साथ ही आकाश में भी परिवर्तन देखने को मिलता है। आज तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आकाश ने नए रंग के दुपट्टे धारण कर लिए हैं। उसकी छाया में मलयांचल पर्वत से ठंडी हवाएँ चलने लगी हैं। पूरी प्रकृति आनंदमय हो गई है। किंतु लेखिका की भौहैं, चिंता के कारण तन आई है तब भी उनके प्रियतम से मिलने के कोई आसार नहीं दिखाई दे रहे हैं।
बरसात का मौसम आ रहा है। धूल की कणों पर बरसात की बूँदों के मिलने से चारों और सौंधी गंध फैल गई है। जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति के सभी तत्वों में नवजीवन संचारित होने लगा है। चारों ओर एक तरह की नवीनता छा गई है। रास्ते इतने साफ़ हो चुके हैं कि उन पर अब आते-जाते लोगों के पदचिह्न भी अंकित नहीं होते।
लेखिका इस बात को लेकर चिंतित है कि प्रकृति के सभी तत्वों का अपने आप में मग्न होने के कारण अब उसके आने की याद तक लोगों की स्मृति से ग़ायब दिखाई दे रही है, अर्थात लेखिका को उसके सुख की कल्पना का अंत होता दिखाई दे रहा है। वह यह मान चुकी है कि संपूर्ण आकाश के किसी भी कोने में उसके लिए कोई स्थान नहीं दिखाई दे रहा है।
अंततः लेखिका जीवन का परिचय देते हुए कहती है कि मैं अपना परिचय क्या दूँ। मेरा यही इतिहास है कि मैं जीवन के जिस उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ी थी, जिसने मुझे जीने के लिए सबल प्रदान किया। आज उसी का अंत होने की स्थिति में है। अर्थात लेखिका ने जीवन में कर्म को प्रधानता दी है। और लोगों को भी लगातार कार्य करने की प्रेरणा दी है।
फिर विकल है प्राण मेरे! :
इस कविता का संकलन ‘सांध्यगीत’ काव्य संग्रह में किया गया है।
यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो :
'यह मंदिर का दीप' कविता में महादेवी वर्मा ने कहना चाहा है कि साधक को अपनी साधना करने दो! साधक प्रचार के लिए साधना नहीं करता है। वह किसी को दिखाने के लिए या प्रशंसा के लिए साधना नहीं करता है। वह अपने संकल्प को पूरा करने के लिए साधना करता है। इस कविता में मंदिर के दीप को साधक का प्रतीक बनाया गया है।
रामधारी सिंह दिनकर : उर्वशी (तृतीय अंक), रश्मिरथी
जन्म : 23 सितंबर 1908, सिमरिया, मुंगेर (बिहार)
कविता संग्रह : रश्मिरथी, उर्वशी, हुंकार, कुरुक्षेत्र, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार
आलोचना : मिट्टी की ओर; काव्य की भूमिका, पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण, हमारी सांस्कृतिक कहानी, शुद्ध कविता की खोज।
इतिहास : संस्कृति के चार अध्याय
सम्मान : साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मविभूषण, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार।
दिनकर ओज के कवि माने जाते हैं। इनकी भाषा अत्यंत प्रवाहपूर्ण, ओजस्वी और सरल है। दिनकर की सबसे बड़ी विशेषता है अपने देश और युग के सत्य के प्रति सजगता। दिनकर में विचार और संवेदना का सुंदर समन्वय दिखाई देता है।
दिनकर ने 'उर्वशी' की भूमिका में यह स्पष्ट कर दिया है कि पौराणिक पात्रों के साथ-साथ इन पात्रों के शाब्दिक अर्थ भी अपनी प्रतीकात्मकता द्वारा कथा को स्वाभाविक रूपकत्व की ओर ले जाते हैं। दिनकर के अनुसार—कहते हैं, निरुक्त के अनुसार, आयु का अर्थ भी मनुष्य होता है। उर्वशी शब्द का कोषगत अर्थ होगा उत्कट अभिलाषा, अपरिमित वासना, इच्छा अथवा कामना और पुरूरवा शब्द का अर्थ है वह व्यक्ति जो नाना प्रकार के रव करे, नाना ध्वनियों से आक्रांत हो। उनके कोषगत अर्थ के साथ ही कवि उनकी प्रतीकात्मकता पर प्रकाश डालता हुआ लिखता है— उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा श्रोत की कामनाओं का प्रतीक है; पुरूरवा रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द से मिलने वाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य।
...मेरी दृष्टि में पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है और उर्वशी सनातन नारी का। इससे स्पष्ट है कि दिनकर इस काव्य को प्रतीक रूप में देखना चाहते हैं।
नागार्जुन : कालिदास, बादल को घिरते देखा है, अकाल और उसके बाद, खुरदरे पैर, शासन की बंदूक़, मनुष्य हूँ।
जन्म: 1911, तारिणी, दरभंगा (बिहार)
भाषा : हिंदी, मैथिली, संस्कृत, बंगाली
कविता संग्रह : युगधारा, सतरंगे पंखो वाली, प्यासी पथारी आँखें, तालाब की मछलियाँ, चन्दना, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, हज़ार-हज़ार बाँहोंवाली, पका है यह कटहल, अपने खेत में, मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा।
खंडकाव्य : भस्मांकुर, भूमिजा स्वातंत्र्योत्तर काल में नागार्जुन का सर्वाधिक महत्व इनकी राजनीतिक कविताओं के माध्यम से उजागर हुआ है। स्वाधीन भारत के शासक वर्ग का कोई भी बड़ा नेता या कोई भी महत्वपूर्ण घटना नागार्जुन की कविता की परिधि से बाहर नहीं रह पाई है। स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति के प्रामाणिक इतिहास की जानकारी के लिए नागार्जुन की कविताओं से अधिक सार्थक अन्य कोई माध्यम नहीं है। विश्व राजनीति के घटनाक्रम और उसके नेतृत्वकारी व्यक्तियों पर भी नागार्जुन ने खुलकर अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की हैं।
नागार्जुन के काव्य की एक अन्य विशेषता है, साहित्य जगत के विशिष्ट व्यक्तियों पर लिखी उनकी कविताएँ। इसके अंतर्गत कालिदास से लेकर रविंद्रनाथ ठाकुर भारतेंदु निराला, त्रिलोचन, आदि बहुत सारी हस्तियाँ उल्लेखनीय हैं।
शोषित-उत्पीड़ित किसानी जीवन के प्रति लगाव, गहन सामाजिक प्रतिबद्धता, प्रखर राजनीतिक चेतना की कलात्मक अभिव्यक्ति के साथ ही प्रकृति के प्रति नागार्जुन का गहरा आकर्षण रहा है। हरे-भरे खेतों, आंचलिक नदी-नालों के साथ ही कवि ने प्रातः, संध्या, बादल, धूप, वर्षा, चाँदनी आदि के मोहक रूप को अत्यंत कुशलता के साथ अपने काव्य में अंकित किया है। इसके साथ ही सागर के विस्तार और पर्वतीय अँचल की अनुपम सुषमा को भी कवि ने भाव-विभोर होकर चित्रित किया है।
नागार्जुन के काव्य की अंतर्वस्तु का दायरा बहुत बड़ा है। उन्होंने अपने कवि जीवन के लगभग पचास वर्षों में हज़ार के आसपास कविताएँ लिखी हैं। अरुण कमल उन के काव्य की अंतर्वस्तु के बारे में लिखते हैं—एक-एक कतरे को एक-एक कविता को जोड़ने से जो नक़्शा बनता है, वह इतना विस्तृत, इतना जनसंकुल है कि किसी एक बिंब या सूत्र में उनके काव्य लोक को व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह हज़ार-हज़ार बाँहों वाली कविताएँ हैं, हज़ार दिशाओं को इंगित करती, हज़ार वस्तुओं को अपनी मुट्ठियों में थामे। वास्तव में नागार्जुन की काव्य भूमि इतनी व्यापक है कि उसे खंड-खंड करके देख पाना संभव नहीं है। नागार्जन का काव्य संसार 'मिथिला के रुचिर भूभाग से लेकर' मुलुंड के अति सुदूर प्रदेश तक फैली हुई काव्य भूमि, बिहार के सामंती उत्पीड़न से लेकर अमरीकी साम्राज्यवाद तक की शोषण-श्रृंखला, भूमिहीन मज़दूरों के दुर्दम संघर्ष से लेकर जूलियन रोज़नबर्ग की महान संघर्ष गाथा और नितांत व्यक्तिगत जीवन-प्रसंगों से प्राप्त सुख-दुःख से लेकर बाक़ी सारे जगत के सुख-दुःख मोतिया नेवले और मधुमती गाय तक के, यह चौहद्दी है नागार्जुन के काव्य-महादेश की। (अरुण कमल, आलोचना, अंक 56-57, पृष्ठ 27)।
कालिदास :
'कालिदास' कविता का मूल प्रतिपाद्य यह है कि कविकर्म जीवन के अनुभवों से स्वायत्त नहीं होता है। कवि के व्यक्तिगत सामाजिक अनुभवों से ही काव्यानुभवों की संरचना निर्मित होती है। कवि का कहना है कि कालिदास की आत्मपीड़ा से ही उनके काव्य के पात्रों की रचना हुई हैं। रचनाकार के अनुभव की छाया उसकी सर्जनात्मक कृतियों में प्रस्तावित होती है। नागार्जुन की यह कविता छोटी होते हुए भी शिल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें कवि ने कविता की रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है। इसमें नागार्जुन बताते है कि कवि अपनी रचनाओं में दुःख, व्यथा, पीड़ा आदि का चित्रण करते है परंतु उसके लिए उसे स्वयं वेदना और पीड़ा से गुज़रना पड़ता है। कवि एक प्रकार से परकाय प्रवेश करता है। जब कोई विरहिणी नारी विलाप करती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कवि उसके मनोभावों को धारण करता है।
यहाँ कवि संस्कृत के महाकवि कालिदास के माध्यम से कविता की रचना प्रक्रिया की बात करते है कि कवि जब अपने काव्य में किसी की विरह व्यथा का चित्रण करता है तब उसे उस कविता की विरह व्यथा को आत्मसात करना पड़ता है। प्रस्तुत कविता में नागार्जुन जी ने कालिदास के तीन महाकाव्यों का संदर्भ देते हुए इस बात को समझाने का प्रयत्न करते हैं कि ये तीन महाकाव्य विरह व्यथा से परिपूर्ण है:-
1. रघुवंश
2. कुमार संभव
3. मेघदूत
कविता की शिल्पगत विशेषता यह है कि तीन काव्यों के लिए कवि ने तीन छोटे-छोटे परिच्छेद लिखे हैं और यह परिच्छेद क्रमशः बड़े होते गए है। प्रथम परिच्छेद चार पंक्तियों का, दूसरा परिच्छेद आठ पंक्तियों का व तीसरा परिच्छेद सत्रह पंक्तियों का है।
बादल को घिरते देखा है :
यह कविता नागार्जुन के कविता संग्रह 'युगधारा' में संकलित है। घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कारण वे जगह-जगह घूमते थे और उस यात्रा को जी भर कर जीते थे, महसूस करते थे, उन अनुभवों को अपनी कविता का अंग बनाते थे। इस कविता में उन्होंन मानसरोवर यात्रा की स्मृतियों को उकेरा है, जिसमें वे दुर्गम घाटियों के मनोरम दृश्य का वर्णन करते हैं।
छोटी-छोटी नदियों, झीलों, ओस की बूँदों, हंस के झुंड, सूर्य की स्वर्णिम किरणों, चकवा-चकवी, किन्नर किन्नरियों, कस्तूरी सुगंध, अलकापुर राज्य, धनपति कुबेर, कवि प्रिया को संदेश भेजने वाला बादल, बादलों का आपस में गरजना बरसना, देवदार के वन कुटिया, सुगंधित फूल कोमल-कोमल उँगलियों से बंशी बजाते नाचते गाते सभी का बहुत ही मनोरम चित्रण किया है। जो निश्चय ही उस सौंदर्य को निहारने, अवलोकन करने के लिए प्रेरित करता है।
अकाल और उसके बाद :
अकाल और उसके बाद कविता नागार्जुन द्वारा रचित चाक्षुष बिंबों से युक्त महत्वपूर्ण, अत्यंत मार्मिक एवं हृदयग्राही कविता है। इसमें कवि ने अकाल तथा उसके बाद की परिस्थितियों का सजीव अंकन किया है। इस कविता का रचनाकाल 1952 है। आठ पंक्ति की यह कविता अकाल व उसके बाद की स्थिति की चित्रात्मक व्यंजना करती है। चित्र ग्रामीण भारत के जीवन से लिया है। पूरी कविता में आशा व निराशा का दृश्य है। अकाल की परिस्थिति में समस्त प्राणियों की जो स्थिति होती है। उसके यथार्थ चित्रण को बिंबित करते हुए यह कविता हमारे जीवन के संबंधों को रेखांकित करती है।
कवि अकाल की स्थिति में मनुष्य तो क्या अन्य जीवों की भी भयंकर कारुणिक यंत्रणा, भोगा हुए यथार्थ को प्रस्तुत कर रहा है। जिसमें सभी सजीव-निर्जीव वस्तुओं को अकाल के समय व उसके बाद की स्थिति को बयाँ करते हुए दिखाया गया है। यह कविता किसी एक आम आदमी के घर की व्यथा नहीं बल्कि भारत के हर एक-एक घर की कहानी कहती है। कवि ने जीव व निर्जीव वस्तुओं का उदाहरण लेकर आम जन की यथार्थ स्थिति का कच्चा चिट्ठा लोक के सामने खोलकर रख दिया है। साथ ही निराशा में आशा का संचार, किस प्रकार से विपरीत परिस्थतियों से मनुष्य को जूझना चाहिए उसकी ओर भी संकेत किया है।
खुरदरे पैर :
नागार्जुन की कविता में शोषितों और पीड़ितों के प्रति गहरी सहानुभूति है। कुली और मजदूर नो देखकर कवि को कैसा लगता है इसका बड़ा कारूणिक दृश्य 'खुरदरे पैर' कविता में मिलता है। फटी बिवाइयों वाले खुरदरे पैर कवि के कोमल मन में धँस जाते हैं। श्रमिक के श्रम को कवि पूजाभाव से देखता है।
शासन की बंदूक़ :
'शासन की बंदूक' कविता में कवि व्यवस्था को चुनौती देता है। व्यवस्था बंदूक़ के बल पर जनता पर शासन नहीं कर सकती है। जनता के प्रतिरोध के सामने बंदूक़ की ताक़त नगण्य हो जाती है।
मनुष्य हूँ
नागार्जुन ने कवि-कलाकार की वांछनीयता की सबसे बड़ी कसौटी उसकी मनुष्यता को स्वीकार किया है। यह मनुष्यता ही किसी कवि को छोटा या बड़ा सिद्ध करती है।
अज्ञेय : सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय-कलगी बाजरे की, यह दीप अकेला, हरी घास पर क्षण भर, असाध्य वीणा, कितनी नावों में कितनी बार।
मूल नाम : सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन
जन्म : 7 मार्च 1911, कुशीनगर, देवरिया (उत्तर प्रदेश)
कविता :- भग्नदूत, चिंता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्रधनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करुणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, पूर्वा, सुनहले शैवाल, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर-मुद्रा, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, महावृक्ष के नीचे, नदी की बाँक पर छाया, ऐसा कोई घर आपने देखा है (हिंदी) प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोयम्स (अँग्रेज़ी)।
अज्ञेय प्रकृति-प्रेम और मानव-मन के अंतद्वंद्वों के कवि हैं। उनकी कविता में व्यक्ति की स्वतंत्रता का आग्रह है और बौद्धिकता का विस्तार भी। उन्होंने शब्दों को नया अर्थ देने का प्रयास करते हुए, हिंदी काव्य-भाषा का विकास किया है।
'आँगन के पार द्वार' में भाव-परिष्कार से प्राप्त सौंदर्यानुभूति की कविताएँ हैं। इसी संग्रह पर 1964 ई. में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है।
कलगी बाजरे की :
यह कविता ‘हरि घास में क्षण भर’ काव्य संग्रह से है। इसका प्रकाशन 1949 में हुआ था। इस कविता में कवि ने अपनी प्रेमिका की तुलना तारा, कुमुदनी या चंपे की कली जैसी पुराने प्रतीकों को छोड़कर ‘चिकनी हरि घास’ और ‘बाजरे की बाली’ से करते हैं।
कवि अज्ञेय की इस कविता में पारंपरिक प्रतिमानों, उपमानों और प्रतीकों के विरोध के साथ-साथ नए उपमानों के प्रति आग्रह है। नए उपमानों का प्रयोग है। जीवन की एकरसता को त्यागकर उसमें नयापन लाने का प्रयास भी दिखाई पड़ता है। इस कविता में रचना को लोकजीवन से जोड़ने का भी प्रयास परिलक्षित होता है। शाब्दिक चमत्कार से नहीं हृदयगत भावों की अभिव्यंजना ही सर्वश्रेष्ठ होती है। निष्कपट और निश्छल अभिव्यक्ति ही प्रेम के लिए उत्कृष्ट होती है। यह कवि की प्रयोगशील दृष्टि का सुंदर उदाहरण है। इस कविता में कवि की प्रेम चेतना और जीवन दृष्टि का भी काव्यिक समावेश हुआ है।
यह दीप अकेला :
यह कविता 'बावरा अहेरी' (1952) कविता संग्रह में शामिल।
'यह दीप अकेला' कविता में अज्ञेय ऐसे दीप की बात करते हैं जो स्नेह भरा है, गर्व भरा है, मदमाता भी है किंतु अकेला है। अहंकार का मद हमें अपनो से अलग कर देता है। कवि कहता है कि इस अकेले दीप को भी पंक्ति में शामिल कर लो।
पंक्ति में शामिल करने से उस दीप की महत्ता एवं सार्थकता बढ़ जाएगी। दीप सब कुछ है, सारे गुण एवं शक्तियाँ उसमें हैं, उसकी व्यक्तिगत सत्ता भी कम नहीं है फिर भी पंक्ति की तुलना में वह एक है, एकाकी है। दीप का समूह में विलय ही उसके लक्ष्य एवं उद्देश्य का सर्वव्यापीकरण है। ठीक यही स्थिति मनुष्य की भी है। व्यक्ति सर्वशक्तिमान है, सर्वगुणसंपन्न है फिर भी समाज में उसका विलय, समाज के साथ उसकी अंतरंगता से समाज मज़बूत होगा, राष्ट्र मज़बूत होगा। इस कविता के माध्यम से अज्ञेय ने व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता के साथ जोड़ने पर बल दिया है। दीपक का पंक्ति में विलय व्यष्टि का समष्टि में विलय है और आत्मबोध का विश्वबोध में रूपांतरण।
हरी घास पर क्षण भर : (इलाहाबाद, 14 अक्टूबर, 1949)
इस कविता में हरि घास कवि के निजता का प्रतीक है। यहाँ कवि ने वर्तमान का महत्व भी आँका है, जिसका मनुष्य को शहरी व्यस्त जीवन में प्रायः अनुभव नहीं होता। जिसमे से मनुष्य सामजिक बंधनों, शहरी जीवन की यांत्रिकता और अपनी संस्कारगत वर्जनाओं को भूलकर उस क्षण को सहज और मुक्त मन से प्रकृति के गोद में बिता सके। प्रकृति के बिंबात्मक वर्णन और विरोधाभास द्वारा शहरी यांत्रिकता और सामाजिक वर्जनाओं की अभिव्यक्ति के द्वारा कविता के विभिन्न घटकों का सार्थक व नाटकीय संयोजन किया गया है। यहाँ शहरी यांत्रिकता पर जो व्यंग्य किया गया है वह कविता को केवल प्रकृति चित्रण की कविता बनाने से बचाता है। यह व्यंग्य कविता को चिंतनशील कविता का स्वरुप प्रदान करता है।
असाध्य वीणा :
यह अज्ञेय की एक लंबी कविता है जिसकी रचना 'रमेशचन्द्र शाह' के अनुसार 18-20 जून, 1961 के दौरान हुई थी। यह कविता अज्ञेय के काव्य-संग्रह 'आंगन के पार द्वार' में संगृहीत है।
'असाध्य वीणा' एक जापानी पुराकथा पर आधारित है यह कथा 'आकोकुरा' की पुस्तक द बुक ऑफ़ टी में 'टेमिंग ऑफ़ द हार्प' शीर्षक से संगृहीत है।
अज्ञेय जी ने इस कथा का भारतीयकरण करते हुए बताया है कि किरीटी नामक वृक्ष से यह वीणा वज्रकीर्ति ने बनाई थी। लेकिन राजदरबार के समस्त कलावंत इस वीणा को बजाने का प्रयास करते हुए हार गए किंतु सबकी विद्या व्यर्थ हो गई क्योंकि यह वीणा तभी बजेगी जब कोई सच्चा साधक इसे साधेगा। अंत में इस 'असाध्य वीणा' को केशकंबली प्रियंवद ने साधकर दिखाया। जब केशकंबली प्रियंवद ने असाध्य वीणा को बजाकर दिखाया तब उससे निकलने वाले स्वरों को राजा, रानी और प्रजाजनों ने अलग-अलग सुना। किसी को उसमें ईश्वरीय कृपा सुनाई पड़ रही थी तो किसी को उसकी खनक तिजोरी में रखे धन की खनक लग रही थी। किसी को उसमें से नववधू की पायल की रूनझुन सुनाई दे रही थी तो किसी को उसमें शिशु की किलकारी की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। वस्तुत: असाध्य वीणा जीवन का प्रतीक है, हर व्यक्ति को अपनी भावना के अनुरूप ही उसकी स्वर लहरी प्रतीत होती है। व्यक्ति को अपनी भावना के अनुरूप ही सत्य की उपलब्धि होती है तथा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को कला की प्रतीति भिन्न-भिन्न रूप मे इसलिए होती है, क्योकि उनकी आंतरिक भावनाओं में भिन्नता होती है।
'असाध्य वीणा' को वही साध पाता है जो स्वयं को शोधता है यह बाहर से भीतर मुड़ने की प्रक्रिया है जिसे अंतर्मुखी होना भी कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन में इसे 'तथता' कहा गया है जिसमें स्वयं को देकर ही सत्य को पाया जा सकता है।
कितनी नावों में कितनी बार :
ज्ञानपीठ पुरस्कार (1978) से सम्मानित 'कितनी नावों में कितनी बार' अज्ञेय की 1962 से 1966 के बीच रचित कविताओं का संकलन है। 'कितनी नावों में कितनी बार' कविता इसी संकलन (1967) में संकलित है।
इस कविता में कवि ने यह स्पष्ट किया है कि व्यक्ति कई बार सत्य की खोज में भटक जाता है। वह सत्य को अपने पास खोजने की अपेक्षा अधिक दूर-दूर स्थानों पर ढ़ूँढ़ने चला जाता है। उस निर्मम प्रकाश ने उसके अंधकार को और बढ़ा दिया। अर्थात उस चौंधियाते प्रकाश ने उसे सत्य से और अधिक दूर कर दिया।
इसके विपरीत कवि को अपने देश की शांति और धुँधलेपन में अपनेपन की भावना अनुभव होती है जिससे आत्मा को एक संतुष्टि मिलती है। कवि के अनुसार अपने देश जैसा सत्य और प्रकाश अन्यत्र दुर्लभ है। कवि ने अपने अनुभव से जान लिया है कि भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्य विश्व में अमूल्य हैं।
भवानीप्रसाद मित्र : गीत फ़रोश, सतपुड़ा के जंगल
भवानीप्रसाद मिश्र
जन्म : 29 मार्च 1913, टिगरिया, होशंगाबाद (मध्य प्रदेश)
प्रथम काव्य-संग्रह 'गीत फरोश' सन् 1956 ई. में प्रकाशित।
गांधी-विचार दर्शन से ओतप्रोत पाँच सौ कविताओं का संकलन 'गांधी पंचशती' के नाम से आया।
कविता संग्रह : गीतफ़रोश, चकित है दुख, गांधी पंचशती, बुनी हुई रस्सी, ख़ुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, व्यक्तिगत, परिवर्तन जिए, अनाम तुम आते हो, इदं न मम, शरीर कविता फ़सलें और फूल, मानसरोवर दिन, संप्रति, अँधेरी कविताएँ,कालजयी, नीली रेखा, तूस की आग, ये कोहरे मेरे हैं, दूसरा सप्तक (छह अन्य कवियों के साथ कविताएँ संकलित) सन् 1968 ई. में 'बुनी हुई रस्सी' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
उनकी काव्यानुभूति में प्रकृति की लय है। भारतीय जीवन की संत-लय ने उनकी कविताओं में स्थान पाया है। 'गीत फ़रोश', 'सतपुड़ा के जंगल', 'सन्नाटा', 'शब्दों के तल्प पर', 'घर की याद, 'त्रिकाल संध्या', 'नीली रेखा तक', तूस की आग' आदि उनकी ऐसी ही श्रेष्ठ कविताएँ हैं।
दुसरे सप्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि मैंने अपनी कविता में प्रायः वही लिखा है जो मेरी ठीक पकड़ में आ गया है। दूर से कौड़ी लाने की महत्वाकांक्षा भी मैंने कभी नहीं की। गीत-फ़रोश कविता की पृष्ठभूमि के विषय में कवि ने स्वयं कहा है कि—गीत-फरोश शीर्षक हँसाने वाली कविता मैंने बड़ी तकलीफ़ में लिखी थी। मैं पैसे को कोई महत्व नहीं देता लेकिन पैसा बीच- बीच में अपना महत्त्व स्वयं प्रतिष्ठित करा लेता है। मुझे अपनी बहन की शादी करनी थी। पैसा मेरे पास था नहीं तो मैंने कलकत्ते में बन रही फ़िल्म के लिए गीत लिखे। गीत अच्छे लिखे गए। लेकिन मुझे इस बात का दुख था कि मैंने पैसे लेकर गीत लिखे। मैं कुछ लिखूँ इसका पैसा मिल जाए, यह अलग बात है, लेकिन कोई मुझसे कहे कि इतने पैसे देता तुम गीत लिख दो यह स्थिति मुझे बहुत नापसंद। क्योंकि मैं ऐसा मानता हूँ कि आदमी की जो साधना का विषय है वह उसकी जीविका का विषय नहीं होना चाहिए। फिर कविता तो अपनी इच्छा से लिखी जाने वाली चीज़ है। इस तकलीफ़ देह पृष्ठभूमि में लिखी गई गीत-फ़रोश।
यह कविता कविकर्म के प्रति समाज और स्वयं कवि के बदलते हुए दृष्टिकोण को उजागर करती है। व्यंग्य के साथ-साथ इसमें वस्तु स्थिति का मार्मिक निरूपण भी है। 'सतपुड़ा के घने जंगल' कविता पाठक को प्रकृति की ऐसी अकल्पनीय दुनिया में ले जाती है जो मनोरम सौंदर्य और आश्चर्य से भरी है। इस कविता में सतपुड़ा के जंगल का जीवंत वर्णन है। यह कविता अपने लयात्मक प्रवाह के लिए विशेष रूप से सराही जाती है।
भवानीप्रसाद मिश्र की 'सतपुड़ा के घने जंगल' एक मार्मिक कविता है। मध्य भारत का यह जंगल अपनी जैविक संपदा के लिए बहुत प्रसिद्ध है। कवि ने जीव-जगत के बीच मनुष्य की उपस्थिति को बहुत तटस्थता से उकेरा है। उन्होंने बहुत ख़ामोशी से हमें यह समझाया है कि पृथ्वी सभी जीवों का आश्रय है। मनुष्य इन सभी जीवों में से एक प्राणी है। पूरी कविता की बनावट वाचिक शैली में है। अपनी ऊपरी बुनावट से यह कविता एक शिशु गीत का आनंद देती है।
मुक्तिबोध : भूल ग़लती, ब्रह्मराक्षस, अँधेरे में
गजानन माधव मुक्तिबोध
जन्म : 13 नवंबर 1917, श्योपुर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कविता संग्रह : चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी ख़ाक धूल।
पहली बार वह व्यवस्थित रूप में 'अज्ञेय' द्वारा संपादित 'तार सप्तक' में अपनी कविताओं के साथ उपस्थित हुए।
उनके जीवित रहते उनकी सिर्फ़ एक किताब छपी, यह थी 'एक साहित्यिक की डायरी।'
'भूल-ग़लती' कविता उनके काव्य संग्रह 'चाँद का मुँह टेढ़ा' में 1964 में प्रकाशित हुई थी।
गजानन माधव मुक्तिबोध की इस कविता का अर्थ समझने के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है। इस कविता में फ़ारसी बहुल शब्दावली का मुक्तिबोध ने उपयोग किया है। इससे यह भ्रम उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है कि वे शायद मुग़लिया दरबार की किसी घटना के बारे में कविता लिख रहे हैं। लेकिन इसके ज़रिए वे केवल मध्ययुगीनता का वातावरण तैयार करना चाहते हैं जिसमें शासक की क्रूरता बुद्धि, विवेक और ज्ञान सबके ऊपर शासन करती है। सुलतान के दरबार का समूचा वर्णन वस्तुतः अप्रस्तुत है, प्रतीकवत आया है और असली कथा ग़लती और ईमान के बीच विरोध के इर्द-गिर्द चक्कर काटती है। पुनः प्रस्तुत की भाषा भी ऐसी है कि उससे कविता की मनोवैज्ञानिक व्याख्या की इच्छा पैदा हो सकती है। हमारे जीवन की जो भूलें हैं, वे ही स्वार्थ के हथियारों से सुसज्जित होकर समूचे व्यक्तित्व पर क़ाबिज़ हो जाती हैं तथा सच्चाई और ईमान को ख़त्म करना इसके लिए ज़रूरी हो जाता है। मनोविज्ञान एक तरह से कालातीत विज्ञान होने का दावा करता है और इसके आधार पर की गई व्याख्या से कविता की समय सम्बद्धता ख़त्म हो जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है। इस कविता को पूरी तरह से समझने के लिए मुक्तिबोध और उनके समय को थोड़ा और गहराई से जानना होगा।
ब्रह्मराक्षस : काव्य संग्रह 'चाँद का मुँह टेढ़ा' में 1964 में प्रकाशित।
'ब्रह्मराक्षस' का अर्थ होता है। मृत्यु के बाद प्रेत-योनी को धारण करने वाला विद्वान। इस कविता में जो ब्रह्मराक्षस है। वह अपने पूर्व मानव योनी में एक प्रकांड महत्वाकांक्षी विद्वान था। किंतु उसकी आत्मचेता को यथार्थ महत्व नहीं मिला।
आत्म-चेतना को विश्व चेतना बनाने की अभिलाषा में सच्चे गुरु की तलाश में वह दर-दर भटकते रहा, पर उसे योग्य गुरु नहीं मिला। जिससे अतृप्त आत्मा 'ब्रह्मराक्षस' बन गया।
कविता के 32 पंक्तियों में एक परित्यक्त बावड़ी और उसके परिवेश का चित्र है। बावड़ी शहर से बाहर किसी खँडहर का हिस्सा है। उसके ठहरे हुए पानी के अंदर तक सीढ़ियाँ हैं।
'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' शीर्षक से मुक्तिबोध की एक कहानी भी है।
कविता ब्रह्मराक्षस' के संबंध में कुबेरनाथ राय ने कहा है—अन्य कविताओं में तो चेतन-उपचेतन के अनुभवों की यात्राएँ हैं जबकि ब्रह्मराक्षस में बौद्धिक सचेत स्तर पर रहस्य के नक़ाब में अनुभवों का जुलूस है।
मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस आत्म-संशोधन और आत्म-परिष्कार के लिए व्याकुल है। कवि उस ब्रह्मराक्षस का संवेदनशील शिष्य बनना चाहता है, ताकि उसके द्वारा अधूरे छोड़े गए कार्य को पूर्णता तक ले जा सके।
धूमिल : नक्सलबाड़ी, मोचीराम, अकाल दर्शन, रोटी और संसद
सुदामा पांडेय धूमिल
जन्म : 9 नवंबर 1936, खेवली, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
धूमिल विद्रोही कविता और विद्रोही पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्होंने चुस्त, सूक्तिपरक, सूत्रबद्ध और व्यंग्यमय भाषा में युवा पीढ़ी की आकांक्षाओं, उम्मीदों, सपनों और संघषों को अभिव्यक्ति दी। प्रजातंत्र और उसके संचालकों के प्रति इस युवा पीढ़ी के मन में तीव्र घृणा, असंतोष और निराशा भरी हुई थी। स्वातंत्र्योत्तर युवा पीढ़ी का यह असंतोष और विद्रोह धूमिल की कविता का मूल तेवर है। उन्होंने नेताओं की चालाकी, धूर्तता और स्वार्थपरता का लगातार पर्दाफ़ाश किया। उनकी कविता में जहाँ बेबस और शोषित-उत्पीड़ित आम जनता के प्रति गहरी सहानुभूति है, वहीं उसके यथास्थितिवादी रवैये, उसकी मिमियाहट और बेमतलब ज़िंदगी के प्रति गहरा असंतोष, बीज और पीड़ा का भाव मौजूद है।
कविता संग्रह : संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे।
नक्सलबाड़ी :
धूमिल की यह कविता उनके पहले काव्य संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ में कुल चार पृष्ठों में प्रकाशित है।
संग्रह से पहले 1967 में बनारस से निकलने वाली पत्रिका ‘आमुख’ में छपी थी।
सुदामा पांडे ‘धूमिल’ को उनके प्रसिद्ध काव्य ‘कल सुनना मुझे’ के लिए 1979 में ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
धूमिल की कविताओं के आकार के लिहाज़ से यह थोड़ी लंबी कविता है। आम तौर पर वे लंबी कविता कम ही लिखते थे। इसका अपवाद ‘पटकथा’ और ‘भाषा की रात’ जैसी कुछेक कविताएँ ही हैं।
नक्सलबाड़ी कविता में धूमिल ने स्वातंत्र्योत्तर भारत की उस निराशाजनक परिस्थिति का चित्रण किया है जिसने नक्सलबाड़ी आंदोलन को जन्म दिया।
मोचीराम :
संबोधन शैली में लिखी गई इस कविता में कवि धूमिल मोचीराम के माध्यम से समाज के पूरे ढाँचे की जाँच-पड़ताल करते हैं। समाज में मौजूद ग़ैर-बराबरी और नाइंसाफ़ी को उमारकर उस पर चोट करते हैं। वे बताते हैं कि अलग-अलग हैसियत का आदमी, अलग-अलग क़िस्म के जूते पहनता है। एक तरफ श्रमजीवी वर्ग है, जिसके जूते में चकतियाँ-ही-चकतियाँ हैं। घनघोर अभाव और बेबसी ने उसके चेहरे पर झुर्रियों का जाल बुन दिया है। इस अथाह पीड़ा के बावजूद वह अपनी उम्मीद ख़त्म नहीं होने देता। मोचीराम को ऐसे मेहनतकश आदमी के पूरी तरह फटेहाल जूते की मरम्मत करने में बेहद ध्यानपूर्वक काम करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में वह कई बार विचलित हो जाता है और बड़ी मुश्किल से अपने पेशागत दायित्व का निर्वाह करता है। इस श्रमजीवी के साथ कवि धूमिल बुर्जुआ आदमी के चरित्र का खुलासा करते हैं।
इस अमीर आदमी का जूता पैर को सजाने-सँवारने के काम आता है। वह जमकर सैर-सपाटा और मौज़-मस्ती करता है। न वह अक्लमंद है, न वक़्त का पाबंद है, फिर भी दुनियावी अथों में बेहद सफल और संपन्न है। उसके अंदर मानवीयता की जगह व्यापारी बुद्धि है जो हर चीज़ को नफ़ा-नुक़सान के तराज़ू पर तौलता है।
अकाल दर्शन :
कविता में कवि प्रश्न करता है—भूख कौन उपजाता है? चतुर आदमी जबाव दिए बग़ैर बेतहाशा होकर बढ़ती आबादी की ओर इशारा करता है। कवि इस कविता के माध्यम से उन लोगों को तलाशता है जो देश के जंगल में भेड़िया की तरह लोगों को खा रहे हैं और शोषित उन्हीं की जय-जयकार करने में जुटे हुए हैं।
रोटी और संसद :
धूमिल इस कविता के माध्यम से समाज के बहुत बड़े सत्य को उद्घाटित करते हैं । प्रश्न पूछता हुआ आदमी ख़तरनाक होता है। वह आपको कटघरे में खड़ा करता है, जिरह करता है और आपकी समाज सम्मत उपदेयता को सामने लाता है।
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