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कृष्णायन

krishnayan

नंददुलारे वाजपेयी

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और अधिकनंददुलारे वाजपेयी

    1. काव्य-परिचय

    यहाँ मैं नवीन काव्यग्रंथ 'कृष्णायन' का परिचय देना चाहता हूँ जिसका निर्माण मध्यप्रांत के प्रसिद्ध राष्ट्रसेवी श्री द्वारकाप्रसाद मिश्र ने किया है। 'कृष्णायन' की रचना सन् 42 के 'भारत छोड़ो' आंदोलन के दिनों में कारावास के अंतर्गत हुई थी। नौ सौ से अधिक पृष्ठों के इस बृहत् ग्रंथ में श्रीकृष्ण की संपूर्ण जीवनी का संकलन किया गया है। पुस्तक का मूल आधार 'महाभारत' है। किंतु महाभारत में कौरवों और पांडवों की कथा मुख्य है।'कृष्णायन' में कृष्ण नायक हैं और उन्हीं का आख्यान मुख्य है, यद्यपि महाभारत के प्रमुख प्रसंगों का भी 'कृष्णायन' में समावेश हो गया है। महाभारत में इतनी कथाएँ और अंतर्कथाएँ जुड़ी हुई हैं कि उसमें एक नियमित घटनाप्रवाह का संकलित स्वरूप नहीं पाया। 'कृष्णायन' का कथाविकास सुस्पष्ट और सुसंबद्ध है। महाभारत में अनेक प्रकीर्णक विषय इस प्रकार संलग्न हो गए हैं कि उनका सापेक्षिक महत्व छिप सा गया है। 'कृष्णायन' में महाभारत का सारांश लेकर कृष्ण कथा के साथ सुंदर रूप में समाहित कर दिया गया है और साथ ही कृष्ण का महान् व्यक्तित्व भी काव्य में नायक रूप से प्रतिष्ठित किया गया है। 'कृष्णायन' में महाभारतीय वीर युग के संपूर्ण वातावरण के बीच कृष्ण के चरित्र का विकास ग्रंथ को महाकाव्य के अनुरूप सौष्ठव प्रदान करता है।

    'कृष्णायन' के निर्माण में 'महाभारत' के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों से भी सामग्री ग्रहण की गई है; उदाहरण के लिए बालचरित्र का कथानक भागवत और सूरसागर आदि ग्रंथों से लिया गया है। अनेक पुराणों और प्राचीन काव्य कृतियों से भी यथास्थान सहायता ली गई है। भारत की विविध भाषाओं की रचनाओं के सुंदर स्थलों का भी 'कृष्णायन' में उपयोग किया गया है। कवि ने विदेशी साहित्य के अध्ययन का भी आवश्यक लाभ उठाया है, किंतु कहीं भी विदेशीयता का प्रभाव उसकी रचना में नहीं पाया जाता।

    ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय जीवन और उसकी सर्वश्रेष्ठ सांस्कृतिक परंपरा को विशुद्ध भारतीय स्वरूप में उपस्थित करने के लिए 'कृष्णायन' का निर्माण किया गया है। महाभारत के विषय में उक्ति प्रसिद्ध है कि जो कुछ महाभारत में नहीं है वह भारतवर्ष में नहीं है, अर्थात् महाभारत में भारतीय जीवन का, उनकी संपूर्ण रीतिनीति, लोक व्यवहार, शास्त्रीय मर्यादा और दार्शनिकता के सहित उल्लेख किया गया है जिसके कारण उसे भारतीय जीवन और संस्कृति का आकर-ग्रंथ भी कहते हैं। कृष्णायन का कवि महाभारत की उस संपूर्ण जीवन परंपरा को अपने काव्य में प्रत्यक्ष करना चाहता है। जान पड़ता है कि 'भारत छोड़ो' आंदोलन को मिश्रजी नै केवल राजनीतिक परतंत्रता से मुक्त होने के लक्ष्य से ही नहीं अपनाया, वरन् शताब्दियों के मानसिक और सांस्कृतिक दासत्व को दूर फेंकने की दृष्टि से उन्होंने भारतीय जीवन के उस विशुद्ध और सर्वतोमुखी विकास को दिखाना चाहा है जो महाभारत के पृष्ठों में बिखरा पड़ा है। संभवतः इसी कारण उन्होंने 'कृष्णायन' की रचना में नई भाषा का भी प्रयोग नहीं किया, वरन् उसे पुरानी लोक भाषा में ही अंकित किया है।

    ‘कृष्णायन' में प्रथम बार कृष्ण की संपूर्ण जीवन कथा को संकलित काव्य का स्वरूप दिया गया है। इसके पूर्व कविगण या तो कृष्ण के ब्रज चरित्र का ही रमणीय गान करते थे अथवा उनके उपदेष्टा रूप की चर्चा कर लेते थे। कुछ कवि द्वारकावासी कृष्ण की परिणय-लीलाओं को ही अपना रचना विषय बनाते थे। इन सब का एक ही जीवनप्रसंग में समाहार करना और महाभारत के मुख्य कथानक को कृष्ण की जीवनकथा के अंतर्गत मिलाकर दोनों के संग्रथित स्वरूप का निर्माण करना मिश्र जी के अनुशीलन, शोध और कलात्मक सामर्थ्य का परिचय कराता है।

    बालचरित्र के वर्णन में कवि ने भारतीय पारिवारिक जीवन के सुख, सौंदर्य और परिपूर्णता को प्रदर्शित किया है। इसके लिए 'सूर सागर' से बढ़कर मनोरम वस्तुविन्यास और भावसामग्री कहाँ से मिल सकती थी। अतएव मिश्रजी ने इसका भरपूर उपयोग किया है। अवश्य उन्होंने सारे काव्य को दोहा चौपाई में ही लिपिबद्ध किया है, जिससे काव्य की प्रबंध-धारा तो अक्षुण्ण रही है, पर दोहा चौपाई और सोरठा के अतिरिक्त किसी अन्य छंद का व्यवहार होने से 'कृष्णायन' में कहीं कहीं कठोर एकरूपता प्रकट हो उठती है। यदि रामचरित मानस की भाँति कुछ अन्य छंदों को भी कवि ने अपनाया होता, तो निस्संदेह काव्यप्रवाह में अधिक मनोरमता जाती।

    बाललीला के प्रसंग में कृष्ण और राधा तथा कृष्ण और गोपियों का व्यवहार प्रदर्शित करने में मिश्रजी ने उनमें बाल्य और किशोरावस्था के भाव ही अंकित किए हैं। उनके समस्त कृष्ण चरित्र का यह अंश अपनी स्वाभाविक भूमि पर रहा है। भावगीतों की रचना करने वाले भक्त कवियों की भाँति उन्होंने इसमें कृष्ण और राधा को चिरंतन पुरुषत्व और चिरंतन नारीत्व का प्रतीक बनाकर नहीं अंकित किया है और प्रेम के संपूर्ण स्वरूपों की अभिव्यंजना उन दोनों का आधार लेकर की है। तात्पर्य यह है कि कवि ने राधाकृष्ण के बालचित्रण में व्यावहारिकता और वास्तविकता का अधिक ध्यान रखा है।

    प्रथम कांड की बाल लीलाओं के पश्चात् कंस-बंध के साथ द्वितीय कांड का आरंभ होता है। उग्रसेन को मथुरा का राज्य सौंपकर श्रीकृष्ण विद्याध्ययन के लिए उज्जयिनी जाते हैं। गुरुकुलों की प्राचीन परिपाटी का स्वरूप आँखों के सामने जाता है। विद्याध्ययन के पश्चात् समावर्तन संस्कार पूरा कर श्रीकृष्ण कर्मक्षेत्र में प्रवेश करते हैं। यहाँ से उनका राजनीतिक जीवन प्रारंभ होता है। उन्हें सर्वप्रथम मगधराज जरासंध के आक्रमणों का सामना करना पड़ता है जो असुर पक्ष का प्रधान प्रतिनिधि था। कवि ने इस प्रसंग में राज्य संचालन, शत्रु के छद्म व्यवहारों के प्रतिकार तथा रणनीति का भी परिचय दिया है। भारतीय युद्धकौशल की कई सुंदर प्रक्रियाओं का भी यहाँ वर्णन किया गया है।

    तृतीय, द्वारका कांड में श्रीकृष्ण द्वारा विपक्षियों के संहार के साथ-साथ मित्र शक्तियों के संग्रह और संगठन का कार्य अग्रसर होता है। स्वभावतः उन्हें इन अवसरों पर अनेक राजकन्याओं से वैवाहिक संबंध स्थापित कर मैत्री विस्तार करना पड़ता है। कृष्ण के इन विवाह वृत्तांतों को कवि ने राजनीतिक स्तर पर नियोजित किया है। इन विवाहों का एक नैतिक पक्ष भी है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती; परंतु 'कृष्णायन' के कवि ने इतिहास, गाथा, राजनीतिक परिस्थिति और जनश्रुति के आग्रहों को प्रमुखता दी है, जिसके कारण दूसरे पक्ष की ओर पाठक का ध्यान नहीं जाता।

    द्वारका कांड में रुक्मिणी-परिणय के अवसर पर श्रीकृष्ण अपने पार्षद अक्रूर को कौरवों और पांडवों की गतिविधि से संपर्क स्थापित करने के लिए भेजते हैं, और यहीं से यदुवंश की कथा-कालिंदी भरतवश की गाथा-भागीरथी के साथ एकाकार होकर बहने लगती है। श्रीकृष्ण आर्य साम्राज्य की व्यापक प्रतिष्ठा के लिए अपने यदुवंश की प्रादेशिक राजसत्ता का मोह त्याग देते हैं, और देश की संपूर्ण एकता के निमित्त प्रांतीय प्रलोभनों से विरत हो जाते हैं। यह व्यावहारिक उदाहरण और आदर्श उपस्थित करने के बाद ही वे गीता की अनासक्ति का संदेश देते हैं। इस प्रकार कर्म, वचन और मन की एकात्मकता की त्रिवेणी 'कृष्णायन' के कृष्ण की चरित्र कल्पना की सुंदर विशेषता बन गई है। केवल अनुवाद की दृष्टि से भी मिश्र जी द्वारा 'कृष्णायन' के गीता कांड के रूप में किया गया गीता अनुवाद अतिशय सुंदर बन पड़ा है।

    चतुर्थ, पूजाकांड में राजसूय यज्ञ की प्राचीन पद्धति का विशद वर्णन किया गया है। यज्ञ के पश्चात् समवेत राजसभा में पुरुषोत्तम रूप में कृष्ण की अग्रपूजा का प्रसंग आता है, किंतु कृष्ण के ऐश्वर्यं की चरम अवधि का यह क्षण उनके द्वारा समस्त अभ्यागतों के पादप्रक्षालन रूप सुविनीत कृत्य में अपनी परिणति प्राप्त करता है।

    जयकांड में 'कृष्णायन' के कवि ने महाभारत युद्ध का वर्णन किया है। इस प्रसंग में भीष्म, द्रोण, कर्ण, अर्जुन और युधिष्ठिर आदि के वीर चरित्र भारतीय रंगभूमि पर पृथक्-पृथक् व्यक्तित्व लेकर उपस्थित हुए हैं। 'कृष्णायन' के कवि ने भारतीय धर्मयुद्ध की सुंदर कल्पना की है जिसके अनुसार युद्ध जैसी अत्यंत भौतिक वस्तु भी ऊँचे नैतिक और आध्यात्मिक धरातल पर पहुँचा दी गई है। एक ओर सेनाएँ जीवन-मरण के संग्राम में संलग्न हैं और दूसरी ओर वहीं कृषक अपने नित्यप्रति के कृषिकार्य में संलग्न हैं। धर्मयुद्ध की ऐसी कल्पना भारत के अतिरिक्त कदाचित् किसी दूसरे देश में नहीं हुई।

    'कृष्णायन' के कवि ने युद्धनीति तथा युद्धकौशल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, जिससे हमें प्राचीन भारत की इस विद्या का परिचय मिलता है। 'कृष्णायन' के युद्धवर्णन में अस्त्र-शस्त्र के अनेक नामों और प्रयोग-विधियों का उल्लेख है। कवि की एक अन्य विशेषता यह है कि वह युद्ध के अवसर पर पात्रों के पारस्परिक वार्तालाप और विवाद द्वारा संघर्ष को मनोवैज्ञानिक उत्तेजना प्रदान करता है। इस संबंध में भीष्म और शिखंडी का संवाद उल्लेखनीय है। इस प्रकार के वर्णन कवि की अपनी सृष्टि हैं, वे कहीं से अनुकृत नहीं हैं।

    अंतिम आरोहण-कांड में कथावस्तु थोड़ी है, पर शर-शय्या-शायी भीष्म द्वारा दिए गए राजनीतिक उपदेश और स्वयं कृष्ण द्वारा मैत्रेय के सम्मुख उपस्थित की गई जीवनशिक्षा विशेष महत्त्व रखती है। यद्यपि इनमें भारतीय व्यवहार, नीति और आध्यात्मिकता का निदर्शन महाभारत के आधार पर ही किया गया है, किंतु कवि ने स्थान-स्थान पर अपने स्वतंत्र अनुभव भी प्रकट किए हैं। केवल एक उदाहरण यहाँ पर्याप्त होगा। जीव की मुक्त दशा का वर्णन हिंदू दार्शनिक जिस रूप में करते हैं, जैन दार्शनिक उससे भिन्न रूप में करते हैं। जैनों के निरूपण में मुक्त जीव ही ईश्वर संज्ञा धारण करता है, वही पृथ्वी पर अवतार लेकर प्रकट होता है। किंतु हिंदू दर्शनों में जीव को ईश्वर की संज्ञा नहीं दी गई है। 'कृष्णायन' के कवि ने मुक्त जीव की कल्पना जैन आधार पर ग्रहण की है, क्योंकि वह उसे अधिक व्यावहारिक प्रतीत हुई हैं।

    'कृष्णायन' के इस संपूर्ण निर्माण में यद्यपि प्राचीन भारतीय जीवन-स्वरूप और जीवनदर्शन को प्रस्तुत करने का प्रयत्न मुख्य है, परंतु उसमें एक नवीन संदेश भी है। संक्षेप में वह नवीन संदेश है एक भारतव्यापी राष्ट्रीयता का निर्माण। कृष्णायन के कृष्ण इसी राष्ट्रीयता के प्रतिनिधि हैं। कवि ने इस राष्ट्रीय निर्माण की प्रणाली या विधि का भी निर्देश किया है। वह विधि है असुरनीति के स्थान पर आर्यनीति की प्रतिष्ठा। यद्यपि आर्य और असुर संस्कृतियों का एक ऐतिहासिक आधार भी रहा होगा, पर 'कृष्णायन' में उक्त नीतियों को मानवीय जीवन-व्यवस्था की दो विभिन्न प्रणालियों के रूप में उपस्थित किया गया है। आर्यनीति का आधार है प्रेम, असुर-नीति का आधार है आतंक। असुर-नीति का स्वरूप कंस की राज्यव्यवस्था में दिखाया गया है—

    कंस धनी अनुचर धनी भोगहिं भोग विशाल।

    क्षुधित अकिंचन ग्राम जन विचरत जनु कंकाल।

    राजभक्ति हरिभक्ति भइ राजेच्छा जन धर्म,

    राज वचन श्रुति ऋषि गिरा, राजाज्ञा जन कर्म।

    एक प्रकार को पूँजीवादी फासिस्ट राज्यव्यवस्था का ही यह प्राचीन प्रतिरूप है। इस व्यवस्था का दार्शनिक आधार कवि ने चार्वाक् मत में दिखाया है। भारतीय आर्य-व्यवस्था इसके विपरीत प्रेममूलक और जनतांत्रिक है। इस व्यवस्था के दार्शनिक प्रवक्ता नारद, व्यास और स्वयं श्रीकृष्ण हैं।

    'कृष्णायन' के इन बौद्धिक, दार्शनिक और सैद्धांतिक उपकरणों के साथ उसका काव्य-पक्ष भी कम परिपुष्ट नहीं है। पुस्तक में ऐतिहासिक और पुरातत्त्व संबंधी अनेक निर्देश हैं। भौगोलिक स्थानों का व्यापक उल्लेख है। नगरों और नृपतियों के नामों की भरमार है। कवि महाभारत-काल की घटनाओं और परिस्थितियों के संपूर्ण विवरणों से परिचित और अवगत है। उसकी यह बहुज्ञता काव्य के लिए उपादेय हुई है।

    प्रकृति के विविध रूपों का वर्णन करने में कवि-दृष्टि का सुंदर परिचय मिलता है। यहाँ केवल एक छोटे वर्णन का ही उदाहरण दे सकूँगा—

    निरखेउ उत्तर विंध्य प्रदेशा,

    दुर्गम निविड़ अरण्य अशेषा।

    दीपित दिनकर कतहुँ पहारा,

    कहुँ गिरि कंदर चिर अँधियारा।

    कहुँ कुहुँ नभ चुंबन अभिलाषी,

    शोभित प्रांशु शालतरु राशी।

    कहुँ कहुँ अतुल गतं भयदाता,

    लय जनु विनु बराह उत्खाता।

    'कृष्णायन' की शैली में पांडित्य और प्रवाह का सुंदर योग है। प्रयोग की गई भाषा पर लेखक का अच्छा अधिकार है। शब्दों की सार्थकता के साथ कवि ने उपयुक्त ध्वनि का भी विवेक रखा है। युद्ध वर्णन की कतिपय पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:—

    वृंत विहीन प्रसून समाना।

    होत छिन्न शिर लागत वाणा॥

    *** *** ***

    तजि गज गजारोहि गजपाला।

    गिरे शराहत शिथिल बिहाला॥

    *** *** ***

    चेतन विरहति सारथि आहत।

    शोणित परिप्लुत रथी कराह॥

    *** *** ***

    नष्ट त्रिवेणु ऋक्ष रथ चाका।

    कीर्ण किंकिणी ध्वस्त पताका॥

    *** *** ***

    यह सुप्रयुक्त पदावली भाषा पर कवि के प्रचुर अधिकार की सूचना देती है, जिसके अभाव में ऐसे वर्णनों को संभालना कठिन हो जाता।

    सबसे अधिक सौंदर्य कवि द्वारा प्रयुक्त छोटी-छोटी उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं में दिखाई देता है—

    विरह विथा क्षण माँझ भुलानी।

    शोक नदी सुख सिंधु समानी॥

    *** *** ***

    अस्त अचिह्न अमर समुदाई।

    जात फेन जिमि लहर बिलाई॥

    *** *** ***

    विफल प्रयास भए सब तैसे।

    शंख निनाद बधिर ढिग जैसे॥

    *** *** ***

    खल स्वामी सेवा सहवासा।

    अहिफण तल जन दादुर वासा॥

    *** *** ***

    त्रास चपल गोलक विमल,

    सबल वलोचन छोर।

    शी वेधी मीन जनु

    करत वारि झकझोर॥

    *** *** ***

    अस्तु मैं पुस्तक का सहर्ष स्वागत करता हूँ। विशेषतः इसलिए कि वर्तमान राजनीतिक कार्यकताओं में साहित्यिक अभिरुचि बहुत ही कम है, और साहित्यिक निर्माण तो नहीं के बराबर है। यदि 'कृष्णायन' के उदाहरण से हमारे राजनीतिज्ञ प्रेरणा ग्रहण कर सकें, तो साहित्य और राजनीति दोनों का बड़ा लाभ हो। देश के सांस्कृतिक उत्थान के लिए राजनीतिक क्षेत्रों में साहित्यिक चेतना का जाग्रत होना अत्यावश्यक और उपयोगी है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक साहित्य (पृष्ठ 106)
    • रचनाकार : नंददुलारे वाजपेयी
    • प्रकाशन : भारती भंडार लीडर प्रेस
    • संस्करण : 2007

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