अरस्तू का विरेचन-सिद्धांत
arastu ka wirechan siddhant
विरेचन-सिद्धांत का उल्लेख अरस्तू के दो ग्रंथों में मिलता है—राजनीति-शास्त्र में और काव्य-शास्त्र में। राजनीति-शास्त्र में संगीत के प्रभाव का वर्णन करते हुए यवन भाचार्य लिखते हैं:
किंतु इससे आगे हमारा यह मत है कि संगीत का अध्ययन एक नहीं वरन् अनेक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए होना चाहिए—(1) अर्थात् शिक्षा के लिए (2) विरेचन (शुद्धि) के लिए (इस समय हम 'विरेचन' शब्द का प्रयोग बिना व्याख्या के कर रहे हैं, किंतु इसके उपरांत काव्य का विवेचन करते समय हम इस विषय का और अधिक यथार्थ प्रतिपादन करेंगे) (3) संगीत से बौद्धिक आनंद की भी उपलब्धि होती है, इससे परिश्रम के उपरांत मनोविनोद होता है। अतः यह है स्पष्ट कि हमें सभी रागों का प्रयोग करना चाहिए, किंतु सभी की विधि एक नहीं होनी चाहिए। शिक्षा के लिए सर्वाधिक नैतिक रागों को प्राथमिकता देनी चाहिए, किंतु दूसरो का संगीत सुनने के समय (अर्थात् संगीत-सभाओं में या रंगमंच पर) हम कार्य (उत्साह) और आवेग को अभिव्यक्त करने वाले रागों का भी आनंद ले सकते हैं क्योंकि करुणा और त्रास अथवा आवेश कुछ व्यक्तियों में बड़े प्रबल होते हैं और उनका न्यूनाधिक प्रभाव तो प्रायः सभी पर रहता है। कुछ व्यक्ति 'हाल' की दशा में आ जाते हैं, किंतु हम देखते हैं कि धार्मिक रागों के प्रभाव से—ऐसे रागों के प्रभाव से जो रहस्यात्मक आवेश को अद्बुद्ध करते हैं—ये शांत हो जाते हैं मानो उनके आवेश का शमन और विरेचन हो गया हो। करुणा और त्रास से आविष्ट व्यक्ति—प्रत्येक भावुक व्यक्ति इस प्रकार का अनुभव करता है और दूसरे भी अपनी-अपनी संवेदन-शक्ति के अनुसार प्रायः सभी—इस विधि से एक प्रकार की शुद्धि का अनुभव करते हैं—उनकी आत्मा विशद और प्रसन्न हो जाती है। इस प्रकार विरेचक राग मानव-समाज को निर्दोष आनंद प्रदान करते हैं। (राजनीति-शास्त्र, भाग 8, अध्याय 7)।
उपर्युक्त उद्धरण में काव्य-शास्त्र के जिस प्रसंग की ओर संकेत किया गया है, यह कदाचित् सटित है। उपलब्ध संस्करणों में केवल एक वाक्य है :
फ़ुटप्रिंट -
1. दो बेसिक वर्कस ऑफ़ अरिस्टोटिल –पृ. 1315- संपादक रिचर्ड मेकिओन
अस्तु: त्रासदी किसी गंभीर, स्वत पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है, जिसमें करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है। (काव्यशास्त्र पृ. 14)।
विरेचन का अर्थ—अरस्तू के व्याख्याताओं ने भिन्न-भिन्न शताब्दियों में विरेचन शब्द के अनेक अर्थ किए हैं। मूलत यह शब्द चिकित्सा-शास्त्र का है—जिसका अर्थ है रेचक औषधि के द्वारा शारीरिक विकारों—प्राय उदर के विकारों की शुद्धि। उदर में वाह्य अथवा अनावश्यक पदार्थ का अंतर्भाव हो जाने से जब आंतरिक व्यवस्था गड़बड़ हो जाती थी यूनानी चिकित्सक रेचक औषधि देकर बाह्य पदार्थ को निकालकर रोगी का उपचार करते थे। इस अनावश्यक अस्वास्थ्यकर पदार्थ के निकल जाने से रोगी पुन स्वास्थ्य और शांति लाभ करता था। अरस्तू स्वयं वैद्य के पुत्र थे और इस प्रकार के उपचार आदि का उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव था। अतः यह शब्द निश्चय ही उन्होंने चिकित्सा-शास्त्र से ग्रहण किया था, जहाँ उसका अर्थ था रेचक औषधि द्वारा अशुद्ध तथा अस्वास्थ्यकर पदार्थ का बहिष्कार कर शरीर-व्यवस्था को शुद्ध और स्वस्थ करना।
विरेचन शब्द इस अर्थ में यूनानी चिकित्सा-शास्त्र में अरस्तू के पहले से प्रचलित था—अरस्तू ने वहाँ से ग्रहण कर इसका लाक्षणिक प्रयोग किया है। लक्षण के आधार पर परवर्ती व्याख्याकारों ने इसके प्राय तीन अर्थ किए हैं—(1) धर्म-परक (2) नीति-परक और (3) कला-परक।
(1) धर्म-परक अर्थ- धर्म-परक अर्थ की एक विशेष पृष्ठभूमि है। अन्य देशों की भाँति यूनान में भी नाटक का आरंभ धार्मिक उत्सवों से ही हुआ था। प्रो. गिल्वर्ट का कथन है कि यूनान में दिओन्युसस नामक देवता से संबद्ध उत्सव अपने आपमें एक प्रकार की शुद्धि का प्रतीक था—विगत वर्ष के कलुप और विष, पाप और मृत्यु के दुससर्गों से शुद्धि का प्रतीक। लिवी के अनुसार 3361 ई.पू. में—अरस्तू के जीवन-काल में ही—यूनानी त्रासदी का रोम में प्रवेश कलात्मक उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं वरन् एक प्रकार के धार्मिक अंधविश्वास के रूप में हुआ था। उपर्युक्त उद्धरण में अरस्तू ने स्वयं एक अन्य प्रकार की धार्मिक प्रक्रिया का उल्लेख किया ही है। ‘हाल' की स्थिति से उत्पन्न आवेश के शमन के लिए यूनान में उद्दाम संगीत का उपयोग होता था, वाह्य विकारों के द्वारा आंतरिक विकारों की शांति का यह उपाय अरस्तू के समय में धार्मिक संस्थाओं में काफ़ी प्रचलित था—और उन्होंने इसका लाक्षणिक प्रयोग उसी के आधार पर किया है।
फ़ुटप्रिंट-
1. प्रो. गिल्बर्ट मरे की भूमिका पृ. 16 (काव्य-शास्त्र, अनुवादक वाईवाटर)
अतएव इन दो तथ्यों के आधार पर विरेचन का अर्थ हुआ—
बाह्य उत्तेजना और अंत में उसके शमन द्वारा शुद्धि और शांति।
(2) नीति-परक अर्थ नीति- नीती-परक अर्थ का आधार भी अरस्तू का यही उद्धरण है। वरनेज़ नामक जर्मन विद्वान ने इसी के आधार पर विरेचन का नीति-परक अर्थ प्रस्तुत किया है। मानव-मन अनेक मनोविकारों से आक्रांत रहता है जिनमें करुणा (शोक) और भय—वे दो मनोवेग मूलतः दुखद है। त्रासदी रंगमंच पर अवास्तविक परिस्थितियों के द्वारा इन्हें अतिरजित रूप में प्रस्तुत कर कृत्रिम अतः निर्दोष उपायों से प्रेक्षक के मन में वासना-रूप से स्थित मनोवेगों के दश का निराकरुण और उसके फलस्वरूप मानसिक सामंजस्य का स्थापन करती है। अतएव विरेचन का नीति-परक अर्थ हुआ विकारों की उर्त्तजना द्वारा संपन्न अतवृत्तियों का समजन अथवा मन की शांति एवं परिष्कृति मनोविकारों के उत्तेजन के उपरांत उद्वेग का शमन और तज्जन्य मानसिक विशदता। वर्तमान मनोविज्ञान और मनो-विश्लेषण शास्त्र इस अर्थ को पुष्ट करते हैं। हमारे मनोवेग प्राय कुंठित होकर अवचेतन में जाकर आश्रय लेते हैं और वहाँ से अध्यक्त रूप में मन को दक्षित करते रहते हैं। इस मानसिक करुणा का उपचार यह है उनको उद्बुद्ध कर उचित रूप से परितुष्ट किया जाए। अभुयत मनोवेग मनोग्रंथि में परिणत हो जाता है और सम्यक् रीति से परितृप्त मनोवेग मानसिक स्वास्थ्य और सामंजस्य प्रदान करता है। मनोविश्लेषण-शास्त्र में प्रतिपादित उन्मुक्त विचार-प्रवाह प्रणाली द्वारा मानसिक रोगों का उपचार इसी सिद्धांत पर आधृत है। इसमें संदेह नहीं कि अरस्तू इस प्रणाली से परिचित नहीं थे, परंतु उनकी क्रांतदर्शी प्रतिभा में जीवन के मूलभूत सत्यों का साक्षात्कार करने की सहज सपित थी। अतः यह मानना असंगत न होगा कि मनोविश्लेषण शास्त्र की आधुनिक-प्रणाली से अपरिचित होते हुए भी वे उसके आधारभूत सत्य से अवगत थे। मानसिक स्वास्थ्य की साधक होने के कारण यह पद्धति नैतिक मानी गई है। यूरोप में शताब्दियों तक इसी नीति-परक अर्थ का प्राधान्य रहा कारनेई, रेसीन आदि ने अपने-अपने ढंग से इसी को प्रतिपादित किया है।
(3) कला-परक अर्थ- कला-परक अर्थ के संकेत गेटे तथा अंगरेज़ी के स्वच्छन्दतावादी कवि-आलोचकों में मिलते हैं। बाद में अरस्तू के प्रसिद्ध व्याख्याकार प्रो. युगर ने इस अर्थ का अत्यंत आग्रह में साथ प्रकाशन किया है :
किंतु इस शब्द का, जिस रूप में अरस्तू ने इसे अपनी कला की शब्दावली में ग्रहण किया है और भी अधिक अर्थ हैं। यह केवल मनोविज्ञान अथवा निदान-शास्त्र के एक तथ्य विशेष का वाचक न होकर, एक कला-सिद्धांत का अभिव्यंजक है।
इस प्रकार त्रासदी का कर्तव्य-कर्म केवल करुणा या त्रास की अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना नहीं है, किंतु इन्हें एक सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है, उनको कला के माध्यम में ढालकर परिष्कृत तथा स्पष्ट करना है। प्रो. बुचर का आशय सर्वथा स्पष्ट है, उनके अनुसार विरेचन का केवल चिकित्सा-शास्त्रीय अर्थ करना अरस्तू के अभिप्राय को सीमित कर देना है। राजनीति-शास्त्र के उद्धरण में तो उसका केवल उतना ही अर्थ माना जा सकता है, परंतु काव्यशास्त्र में कला-संबंधी अन्य सिद्धांतों के प्रकाश में उसका अर्थ व्यापक है मानसिक संतुलन उसका पूर्व-भाग मात्र है, उसकी परिणति है कलात्मक परिष्कार जिसके बिना त्रासदी के कलागत आस्वाद का वृत्त पूरा नहीं होता।
अरस्तू का अभिप्राय अरस्तू का वास्तविक अभिप्राय क्या था? इस प्रश्न का उत्तर अनुमान और तर्क के आधार पर ही दिया जा सकता है क्योंकि प्रस्तुत प्रसंग से संबद्ध उनका अपना विवेचन अत्यंत अपर्याप्त है।
अपने अनुकरण-सिद्धांत की भांति अरस्तू ने विरेचन-सिद्धांत का प्रतिपादन भी प्लेटो के आक्षेप के प्रतिवाद के रूप में किया है। प्लेटो ने काव्य पर यह दोषारोप किया था कि कविता हमारी वासनाओं का दमन करने के स्थान पर उनका सिंचन करती है (गणतंत्र)। अरस्तू ने अपने समय में प्रचलित चिकित्सा-पद्धति से संकेत ग्रहण कर, विरेचन के लाक्षणिक प्रयोग द्वारा इसी आक्षेप का उत्तर दिया है त्रासदी में 'करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।' उनके इस वाक्य में वस्तुत क्या और कितना अर्थ निहित है, इसका अनुसंधान करना है।
विरेचन शब्द के उपरि-लिखित तीनों अर्थों में निश्चय ही सत्य का अंश वर्तमान है फ़िर भी हमारी धारणा है कि कदाचित् कुछ व्याख्याकारों ने उसमें अभिप्रेत से अधिक अर्थ भरने का प्रयत्न किया है। उदाहरण के लिए प्रो. गिल्बर्ट मरे का ही अर्थ लीजिए, उनकी दृष्टि यूनानी भाषा और पुराविद्या के ज्ञान से इतनी आक्रांत प्रतीत होती है कि सिद्धांत पक्ष उसके नीचे दबा जाता है, उनकी भूमिका का पूर्वार्घ, जिसमें उन्होंने काव्य-शास्त्र के शुद्ध अनुवाद का नमूना दिया है, इसका प्रमाण है। यूनान की प्राचीन प्रथा के साथ अरस्तु के विरेचन-सिद्धांत का सीधा
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1. आरिस्टोटिल्स थियरी ऑफ़ पोइट्री एंड फ़ाइन आर्ट- पृ. 236
संबंध-स्थापन कदाचित् उनकी इसी प्रवृत्ति का परिणाम है। इसमें संदेह नहीं कि अपने युग की परिस्थितियों से अरस्तू ने निश्चय ही प्रभाव ग्रहण किया होगा और संभव है विरेचन-सिद्धांत की परिकलना पर उपर्युक्त प्रथा अथवा इसी प्रकार की किसी अन्य प्रथा या घटना का प्रभाव रहा हो, परंतु वह प्रभाव सर्वथा अप्रत्यक्ष ही माना जा सकता है—दोनों में कोई सीधा संबंध स्थापित करना अनावश्यक है।
इसी प्रकार प्रो. बुचर का अर्थ भी विचारणीय है। उनके अनुसार विरेचन के अर्थ के दो पक्ष हैं : एक अभावात्मक और दूसरा भावात्मक। मनोवेगों के उत्तेजन और तत्पश्चात् उसके शमन से उत्पन्न मनःशांति उसका भावात्मक पक्ष है। यह भावात्मक पक्ष कदाचित् अरस्तू के शब्दों की परिधि से बाहर है। अरस्तू के सामंजस्य और तज्जन्य विशदता को ही त्रासदी का प्रयोजन मानते हैं—इस प्रकार का सामंजस्य परिणामत भावनाओं की शुद्धि और परिष्करण भी करता है, यह भी ग्राह्य है। परंतु उसके उपरांत कला-जन्य आस्वाद भी अरस्तू के विरेचन शब्द में अंतभूर्त है यह मानने में कठिनाई हो सकती है। कलागत आस्वाद से वे अपरिरित नहीं थे—काव्य-शास्त्र के आरंभ में ही उन्होंने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में अनुकरण-जन्य इस कलास्वाद का स्वरूप-विश्लेषण किया है। त्रासदी भी अनुकरण-मूलक कला है—वरन् अरस्तू के मत से कला का सर्वश्रेष्ठ रूप है, अतः कलास्वाद या बुचर के शब्दों में 'कलात्मक परितोष' की उपलव्धि त्रासदी के द्वारा निश्चित रूप में होती है और अन्य कला-भेदों से अधिक होती है। परंतु क्या यह आस्वाद 'विरेचन' के अंतर्गत आता है? हमारा मत है कि विरेचन कलास्वाद का साधक तो अवश्य है : समंज्जित मन कला के आनंद को अधिक तत्परता से ग्रहण करता है, परंतु विरेचन में कलास्वाद का सहज अंतर्भाव नहीं है। अतएव विरेचन-सिद्धांत को भावात्मक रूप देना न्याय्य नहीं है, यह व्याख्याकार की अपनी धारणा का आरोप है। अरस्तू का अभिप्राय मनोविकारों के उद्रेक और उनके शमन से उत्पन्न मनःशांति तक ही सीमित है। ‘विरेचन' शब्द से मन की यह विशदना अभिप्रेत है जिसके आधार पर वर्तमान आलोचक रिचर्ड्स ने अंतर्वृत्तियों के समजन का सिद्धांत प्रतिपादित किया है।
विरेचन-सिद्धांत और आनंद : इस प्रकार अरस्तू का विरेचन-सिद्धांत अपने ढंग से त्रासदी के आस्वाद की समस्या का समाधान प्रस्तुत करता है। त्रास और करुणा दोनों ही कटु भाव हैं : अरस्तू की अपनी परिभाषा के अनुसार दोनों ही दुखद अनुभूति के भेद हैं। त्रास में किसी आसंत घातक अनिष्ट से उत्पन्न कटु अनुभूति रहती है और करुणा में किसी निर्दोष व्यक्ति के घातक अनिष्ट के साक्षात्कार से—और इन दोनों में ही अपने अनिष्ट की भावना भी प्रच्छन्न रूप से वर्तमान रहती है। मानसिक विरेचन की प्रक्रिया द्वारा यह कटुता अथवा दश नष्ट हो जाता है और प्रेक्षक एक प्रकार की मनःशाति का उपभोग करता है। विरेचन के द्वारा उत्तेजना समाहित हो जाती है और मन सर्वथा विशद जाता है। यह मनःस्थिति कटु विकारों से मुक्त होने के कारण निश्चय ही सुखद होती है—पीड़ा या कटुता का अभाव भी अपने आपमें सुख है।
प्रो. बुचर ने 'दुख में सुख' का इस समस्या के समाधान में अरस्तू के विवेचन के आधार पर दो और प्रमुख कारण दिए हैं। त्रास और करुणा प्रत्यक्ष जीवन में दुखद अनुभूतियाँ हैं, परंतु त्रासदी में वे वैयक्तिक दश से युक्त, साधारणीकृत रूप में उपस्थित होती है। 'स्व' की भौतिक सीमा में बद्ध वे कटु अनुभूतियाँ हैं, परंतु 'स्व' की क्षुद्रता से मुक्त होकर उनकी कटुता नष्ट हो जाती है। स्व का यह विस्तार अथवा उन्नयन एक उदात्त और सुखद अनुभूति है। दूसरा कारण है कलात्मक प्रक्रिया। कला की प्रक्रिया का आधारभूत सिद्धांत है सभजन--अव्यवस्था में व्यवस्था की स्थापना ही अरूप को रूप देना है, यही कलात्मक सृजन है जो सुखद है। इस प्रक्रिया में पड़कर त्रास और करुणा का दश नष्ट हो जाता है, दुख सुख में परिणत हो जाता है।
उपर्युक्त दोनों कारण विरेचन-प्रक्रिया से संबद्ध होते हुए भी उसके अंगभूत नहीं हैं। विरेचन में न तो स्व का उन्नयन अंतर्भूत है और न कला का आनंद। अरस्तू इन दोनों तत्त्वों से सर्वथा अवगत थे और इन दोनों का संक्षिप्त विवेचन भी उन्होंने किया है, परंतु यह विवेचन विरेचन-सिद्धांत का अंग नहीं है। अतएव विरेचन-सिद्धांत में सुख का केवल अभावात्मक रूप ही प्रतिपादित है—मनःशांति, विशदता या राहत से आगे वह नहीं जाता। यह अनुभव में निश्चय ही सुखद है, परंतु यह सुख ऋणात्मक है, घनात्मक नहीं। भारतीय दर्शन के अनुसार आनंद की भूमिका है, आनंद नहीं है।
विरेचन का मनोवैज्ञानिक आधार- अनेक आलोचकों को त्रासदी द्वारा विरेचन की प्रक्रिया का अस्तित्व ही मान्य नहीं है। उनका आक्षेप है कि वास्तविक अनुभव में इस प्रकार का विरेचन नहीं होता। हमारे करुणा, भय आदि मनोवेग उद्बुद्ध तो हो जाते हैं, परंतु उनके रेचन से मनः शांति सर्वदा नहीं होती—अनेक नाटक केवल भावों को क्षुब्ध कर ही रह जाते हैं। इसके विपरीत कभी-कभी हम केवल कला का आस्वादन ही करते हैं, अवास्तविक होने के कारण त्रासदी में
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1. अरस्तू : भाषण-शास्त्र (भाग 2, अ. 4, 1382 अ. - 20) और भाग 2, अ. 7, 1385 ब 12-16 (दी बेसिक वर्क्स ऑफ़ अरिस्टोटिल-रिचर्ड मेकिओन)
प्रदर्शित भाव हमारे भावों को उत्तेजित ही नहीं करते अतः विरेचन का प्रश्न ही नहीं उठता। हमारे विचार में ये दोनों आक्षेप असंगत है; त्रासदी से प्रेक्षक को केवल कवि तथा नट की कला का चमत्कार ही प्राप्त होता है, रागात्मक प्रभाव नहीं पटता—यह मानना त्रासदी के महत्त्व का घोर अवमूल्यन करना है। काव्य के किसी भी रूप का और विशेषत त्रासदी का चमत्कार तो मूलतः रागात्मक ही होता है, अन्यथा वह काव्य-रूप कला न रहकर शिल्प मात्र रह जाता है। और जब त्रासदी का रागात्मक प्रभाव असंदिग्ध है तो उनके प्रेक्षण या श्रवण-पाठ से महृदय के भावों की उद्बुद्धि स्वत:सिद्ध है। भावों को उद्बुद्धि आनंद नहीं है, उनका समजन आनंद है और यह धारणा सर्वथा मिथ्या है कि त्रासदी केवल भावों को विक्षुब्ध कर छोड़ देती है। कोई भी सकल त्रासदी ऐसा नहीं करती—यह सारभूत समजनकारी प्रभाव ही तो उसकी सफलता का कारण है, इसी के लिए प्रेक्षक समय और रुपया खर्च करता है अतः. यह आक्षेप सर्वथा निर्मूल है, अनुभव से प्रसिद्ध है।
विरेचन-सिद्धांत और करुण रस :
अरस्तू-प्रतिपादित त्रासद प्रभाव का भारतीय काव्य-शास्त्र के करुण रस में पर्याप्त साम्य है। त्रासद प्रभाव के आधारभूत मनोवेग हैं करुणा और त्रास और इन दोनों में ही पीड़ा को अनुभूति का प्राधान्य है। उधर करुण रस का स्थायी भाव है, शोक, जिसके कुछ प्रतिनिधि लक्षण इस प्रकार हैं :
(1) शोको नाम इष्टजनवियोगविभवनाशवधवन्धनदुःखानुभवनादिभिर्विभा-वैस्तमुपजायते।
अर्थात् शोक नाम का भाव इप्ट-वियोग, विभव-नाश, वध, कैद तथा दुखानुभूति आदि विभावों (कारणों) से उत्पन्न होता है। (नाट्य-शास्त्र)
(2) इप्टनाशादिभिश्चेतो वैक्लव्य शोकशब्दभाक्।
अर्थात् इप्ट के नाश आदि से उत्पन्न चित्त के क्लेश का नाम शोक है। (साहित्य- दर्पण)
(3) मृर्त त्वेकत्र यत्रान्य. प्रलपेच्छोक एवं स.।
एक के मरने पर जहाँ दूसरा शोक करे वहाँ शोक होता है। (दशरूपफ)
इन सभी लक्षणों में शोक के अंतर्गत करुणा का प्राधान्य तो है ही, किंतु वध, बंधन आदि के कारण त्रास का भी सद्भाव है। अतः करुण रस के परिपाक में शोक स्थायी भाव के अंतर्गत भारतीय काव्य-शास्त्र भी करुणा के साथ त्रास के अस्तित्व को स्वीकार करता है। इष्टनाश अथवा विपत्ति शोक का कारण है—और इससे करुणा और त्रास दोनों की ही उद्भूति होती है करुणा की वास्तविक विपत्ति के साक्षात्कार से और त्रास की वैसी ही विपत्ति की आवृत्ति की आशंका से| परंतु अरस्तू और भारतीय आचार्य के दृष्टिकोण में कदाचित् एक मौलिक अंतर यह है कि अरस्तू का त्रासद प्रभाव एक प्रकार का मिश्र-भाव है परंतु भारतीय काव्य-शास्त्र का शोक स्थायी भाव मूलतः अमिश्र ही रहता है। यहाँ भयानक एक पृथक् रस माना गया है। वह करुणा का मित्र रस है और अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न कर प्राय उसका संबर्द्धन करता है। किंतु ऐसी स्थिति में वह करुणा का उद्दोपक एवं सचारी बन जाता है, उसके सयोग से किसी मिश्र रस अथवा भाव को उद्बुद्ध नहीं करता। और फ़िर उपरिलिखित अनेक कारण ऐसे भी हैं जो त्रास उत्पन्न नहीं करते। जहाँ तक इष्टजन के वध का संबंध है उसमें तो त्रास अनिवार्य है किंतु करुण के लिए वध तो अनिवार्य नहीं है—केवल मृत्यु ही अनिवार्य है, जो त्रास उत्पन्न किए बिना घटित हो सकती है। उदाहरण के लिए सीता के दुर्भाग्य से उत्पन्न करुणा में त्रास का स्पर्श नहीं है। अरस्तू भी ऐसी स्थिति से अनभिज्ञ नहीं हैं परंतु वे त्रासहीन करुण प्रसंग को आदर्श त्रासद-स्थिति नहीं मानते। भारतीय आचार्य इस विषय में उनसे सहमत नहीं है क्योंकि उसकी दृष्टि में सीता की कथा से अधिक 'करुण' प्रसंग कदाचित् और कोई नहीं है। इस अंतर के लिए दोनों के देश-काल और तज्जन्य संस्कार उत्तरदायी हो सकते हैं।
करुण रस का आस्वाद :
भारतीय काव्य-शास्त्र का प्रतिनिधि मत तो यही है कि करुण रस का आस्वाद भी श्रृंगार आदि की भाँति सुखात्मक ही होता है। करुण के साथ रस शब्द का प्रयोग ही इसके आनंद का द्योतक है। रसवादी आचार्यों ने इस प्रश्न को प्राय स्वतः सिद्ध मानकर अधिक तर्क-वितर्क नहीं किया-मानो करुण का रसत्व ही अपने आपमें इस प्रश्न का अंतिम उत्तर हो। फ़िर भी उनके पास इस विषमता का निश्चित समाधान था, इसमें संदेह नहीं हो सकता। इस समाधान के प्राय तीन रूप हैं।—(1) काव्य-रस अलौकिक होता है अतः लौकिक कार्य-कारण संबंध उसके लिए अनिवार्य नहीं है। दुख से दुःख की उत्पत्ति तो लौकिक नियम है। किंतु कवि की अलौकिक प्रतिभा के स्पर्श से काव्य में दुख से सुख की उत्पत्ति भी संभव हो जाती है—यही काव्य की अलौकिकता है।
(2) दूसरा समाधान अपेक्षाकृत अधिक गंभीर है। भट्टनायक की स्थापना के अनुसार काव्य में प्रत्येक भाव साधारणीकृत होकर अंततः योग्य बन जाता है। इस प्रकार भाव की विशिष्टता नष्ट हो जाती है। व्यक्ति संबंध से मुक्त हो जाने पर उसके स्थूल लौकिक संबंध नष्ट हो जाते हैं अर्थात् उसका रूप सामान्य जीवनगत अनुभूति की अपेक्षा अधिक उदान और अवदात्त हो जाता है। भारतीय दर्शन की शब्दावली में व्यक्तिबद्ध 'अल्प' की चेतना में सुख नहीं है, किंतु व्यक्ति की सीमाओं से मुक्त 'भूमा' की चेतना में परम सुख की उपलब्धि है। इसी न्याय से काव्य में शोक आदि अप्रिय भाव भी साधारणीकृत होकर व्यक्ति-संबंध-जन्य दोषों से मुक्त रसमय बन जाते हैं। स्वर्गीय पं. केशवप्रसाद मिश्र ने योग की 'मधुमती भूमिका' के आधार पर इसे काव्य की 'रसवती भूमिका' कहा है।
(3) तीसरा समाधान अभिव्यक्तिवादियों को ओर से प्रस्तुत किया गया है। इनका कहना है कि रस की उत्पत्ति नहीं होती, अभिव्यक्ति होती है। यदि उत्पति होती तब तो शोक से शोक की उत्पत्ति का तर्क काव्य पर लागू हो सकता था किंतु रस की तो अभिव्यक्ति होती है अर्थात् काव्य-नाट्य गुणों के प्रभाव से प्रेक्षक की आत्मा में रजोगुण तथा तमोगुण का तिरोभाव और सतोगुण का उद्रेक होता है—जिसके परिणामस्वरूप उसका आत्मानंद 'रस' रूप में अभिव्यक्त हो जाता है। सत्य का उद्रेक और रज-गम का तिरोभाव आनंद की स्थिति है जिसमें दूसरा भाव विद्यमान नहीं रह सकता। अतः रसत्व को प्राप्त होने पर, सत्व के पूर्ण उद्रेक तथा रजोगुण-तमोगुण के नाश के कारण, शोक आदि की कटुता स्वत: नष्ट हो जाती है और आनंदमयी चेतना शेष रह जाती है।
संस्कृत के प्रतिनिधि आचार्यों ने भारत ये ही तीन समाधान प्रस्तुत या व्यंजित किए हैं। किंतु कुछ स्वतंत्रचेता आचार्य अपवाद भी हैं। उदाहरणार्थ शारदाननय ने शैव-दर्शन के ही आधार पर एक चौथा समाधान प्रस्तुत किया है। उनका तर्क यह है : पद्यपि यह संगान दुखमोहादि से फलुषित है, फ़िर भी जीवात्मा राग, विधा और कला—अपने इन तीनों तत्त्वों के द्वारा उसका भोग करता है। इनमें गग सुखत्व का अभिमान है, विधा राग का वह उपादान है जिसके द्वारा अविद्या से आच्छन्न चैतन्य का ज्ञान अभिव्यक्त हो जाता है और कला आत्मा को अभिज्वलित (प्रदीप्त) करने वाला हेतु है। इसी न्याय से प्रेक्षक भी शोक, भय, नानि आदि से निष्पक्ष करुण, भयानक, वीभत्स आदि रसों का अपने आत्मस्थ तीन तत्वों—राग, विद्या और कला के द्वारा 'चचंग करता है।
गारदानगाव तो अंतत्वोगत्वा भाववादियों की परिधि में ही रहे हैं। परंतु मिन्ट और उससे भी अधिक नाट्य-दर्पण के लेखक-दय रामचंद्र-गुणचंद्र ने शास्त्रीय परंपरा के विरुद्ध अत्यंत निर्भीक शब्दों में यह स्थापना की है सुखदु खात्मकोरस (नाट्यदर्पण—श्लोक 09 पृ. 1148) अर्थात् रस की अनुभूति सर्वत्र सुखात्मक ही न होकर दुखात्मक भी होती है। इनके अनुसार तश्रेष्ट विभावादिप्रथितस्वरूपसम्पत्तय श्रृंगार-हास्य-वीराद्भुत-शांता पंचसुखात्मनोऽपरे पुनरनिप्टविभा- वाद्युपनातात्मान करुण-रौद्र-वीभत्स-भयानकाश्चत्वारो दुखात्मान (नाट्यदर्पण पृ. 109) अर्थात् श्रृंगार, हास्य, वीर, अद्भुत और शांत (इष्टविभावादि पर आश्रित रहने के कारण) सुखात्मक हैं और करुण, रौद्र, वीभत्स और भयानक (अनिष्ट विभावादि से उपनीत होने के कारण) दुखात्मक हैं। तब फ़िर प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिति में सामाजिक करुण आदि का प्रेक्षण या श्रवण क्यों करता है? नाट्यदर्पण में इसका विस्तृत उत्तर दिया गया है।
यत् पुनरेभिरपि चमत्कारो दृश्यते स रसास्वादविरामे सति यथावस्थितवस्तु-प्रदर्शकेन कवि-नटशक्तिकौशलेन। विस्मयन्ते हि शिरश्छेदकारिणाऽपि प्रहारकुशलेन वैरिणा शौण्डीरमानिन। अनेनैव च सर्वागाह्लादकेन कवि-नटशक्तिजन्मना चमत्कारेण विप्रलब्धा परआनंदरूपता दुखात्मकेष्वपि करुणादिषु सुमेधस प्रतिजानते। एतदास्वा-दलौल्येन प्रेक्षका अपि एतेषु प्रवर्तन्ते। कवयस्तु सुखदु खात्मकससारानुरूप्येण रामादिचरित निबघ्न्नत सुख-दुखात्मकरसानुविद्धमेव ग्रथ्नन्ति। पानकमाधुर्यमिव च तीक्ष्णा-स्वादेन दु खास्वादेन सुतरा सुखानि स्वदन्ते इति।
(नाट्यदर्पण पृ. 159)
इसका सारांश यह है कि करुण, रौद्र आदि के द्वारा भी जो चमत्कार की प्रतीति होती है उसका कारण है यथार्थवस्तु-प्रदर्शन में निपुण नट का कौशल। शौर्य-गर्वित वीर शत्रु के शिरश्छेदकारी प्रहार-कौशल को देखकर भी विस्मय-विमुग्ध हो जाते हैं। प्रेक्षक इसी चमत्कार के लोभ से करुणादि दृश्यों को देखता है—इस चमत्कार से ही प्रवचित होकर वह दुखात्मक दृश्यों में आनंद की प्रतीति करता है। उधर कवि भी सुख-दुखात्मक संसार के अनुरूप रामादि के चरित्र को सुख-दुखात्मक रस से अनुबिद्ध प्रस्तुत करते हैं। जिस प्रकार मिर्च आदि के सयोग से पानक (सोठ) के स्वाद में चमत्कार आ जाता है, इसी प्रकार दुख के तीक्ष्ण आस्वाद से सुख और भी आस्वाद्य हो जाता है।
इस विवेचन से पूर्वोक्त चार समाधानों के अतिरिक्त दो और समाधान उपलब्ध होते हैं
(5) करुण रस से प्राप्त आनंद (चमत्कार) काव्य-कौशल अथवा काव्य तथा नाट्य दोनों के समवेत कौशल पर आधृत रहता है। प्रेक्षक या श्रोता करुण रस में आनंदानुभूति नहीं करता, वरन् उसकी अभिव्यंजना करने वाले कवि तथा अभिनेता के कला-नैपुण्य से चमत्कृत होता है। इस चमत्कार से ही करुण रस में आनंद की भ्राँति अथवा आभास हो जाता है।
(6) जीवन में अपार वैविध्य है। पट्रसों में जहाँ मधुर रस है, वहाँ तिक्त और अम्ल रस भी। विपरीत स्वादु होने पर भी सभी को 'रस' नाम से अभिहित किया जाता है और प्रपानफ आदि में रसना-रसिक इनका 'रस' लेते हैं। इसी प्रकार नव रस में एक ओर रतिमूलका श्रृंगार है तो दूसरी ओर शोकमूलक करुण भी। अनुभूत्यात्मिक रूप सर्वथा विपरीत होने पर भी शास्त्र में इनका नाम 'रस' ही है और काव्य के 'प्रपानक' में सहृदय इन सभी का आस्वादन करते हैं।
इस प्रकार 'दुख में सुख' की इस विषम समस्या के भारतीय काव्य-शास्त्र छह मौलिक समाधान प्रस्तुत करता है।
काव्य की सृष्टि अलौकिक है, वह नियतिकृत नियमों से रहित नाना चमत्कारमयी है अतः लोकानुभव से भिन्न दुख से सुख की उद्भूति उसमें सहज संभव है। यह मूलतः वही तर्क है जिसको कलावादियों ने—ब्रेटले, पानाइव बैल आदि ने बीसवीं शती आरंभ में नवीन रूप में पुनः प्रस्तुत किया है, पहले तो यह अनुभव अपना उद्देश्य आप ही है, अपने ही लिए उसकी स्पृहा की जा सकती है, इसका अपना निजी मूल्य है। दूसरे काव्य की दृष्टि से उसके इस निजी मूल्य का महत्व है क्योंकि सामान्य अर्थ में वस्तु-जगत का एक अंग होना या उसकी अनुकृति होना इसका स्वभाव नहीं है, यह तो अपने आप में ही एक दुनिया है—स्वतंत्र, स्वतःपूर्ण और स्वायत्त।
(यंदले-प्रारसफट लेक्चसं, पृ. 5)
रस की अनुभूति साधारणीकृत अनुभूति होने के कारण व्यक्ति-बद्ध रागद्वेष से मुक्त होती है-अतः करुण आदि रसों में शोकादि का दश नष्ट हो जाता है, शुद्ध भाव ‘आस्वाद’ रूप में शेष रह जाता है। इस तर्क का संकेत वास्तव में अरस्तू में भी मिल जाता है, किंतु वह अत्यंत अविकसित रूप में है प्रो. पुचर ने जिस शब्दावली में उसे प्रस्तुत किया है, वह यूरोप के विकासशील आलोचना-शास्त्र से प्राप्त आधुनिक शब्दावली है। इस दृष्टि से भारतीय आचार्य भट्टनायक का महत्व अक्षृण है : उन्होंने अत्यंत तर्कसंगत तथा तात्विक शब्दों में साधारणीकरण के द्वारा ‘करुण’ आदि के भोग का प्रतिपादन किया है।
भट्टनायक के सिद्धांत से एक और समाधान का संकेत मिला है : काव्य- निबद्ध अनुभव प्रत्यक्ष न होकर भावित अनुभव होते हैं, अतः कटु अनुभवों की प्रत्यक्ष अनुभूत कटुता उनमें नहीं रह जाती, वरन् कल्पना के चमत्कार का समावेश हो जाता है जिससे शोक भी आस्वाद्य बन जाता है। पश्चिम के आलोचना-शास्त्र में यह मत काफ़ी प्रचलित रहा है।
रस का परिपाक सत्त्व के उद्रेक की अवस्था में ही होता है—अर्थात् ऐसी अवस्था में होता है जब रजोगुण और तमोगुण तिरोभूत हो जाते हैं और सहृदय की चेतना सतोगुण से परिव्याप्त हो जाती है। यह अवस्था सुख की अवस्था है, इसमें तमोगुण से उत्पन्न (मोह-विकारी) शोक की कटु अनुभूति संभव नहीं है। यह शब्दावली भारतीय काव्य-शास्त्र की अपनी पारिभाषिक शब्दावली है, वर्तमान यूरोप का मनोविज्ञान अथवा प्राचीन-नवीन आलोचना-शास्त्र इससे परिचित नहीं है। परंतु शब्द-भेद को हटा देने से उपर्युक्त मत अधिक अपरिचित नहीं रह जाता। अभिनव का सत्वोद्रेक वास्तव में अरस्तू के ‘विरेचन’, रिचर्ड्स के अंतर्वृत्तियों के सामंजस्य और शुक्लजी द्वारा प्रतिपादित हृदय की मुक्तावस्था से बहुत भिन्न नहीं है। भेद केवल विचार-पद्धति का है अरस्तू ने चिकित्सा-शास्त्र की पद्धति और शब्दावली ग्रहण की है, रिचर्ड्स ने मनोविज्ञान की, शुक्लजी ने आलोचना-शास्त्र की और अभिनव आदि ने दर्शन (अधिमानस-शास्त्र) की। तमोगुण और रजोगुण के तिरोभाव के उपरांत सत्य का भाव शेष रहना अरस्तू के शब्दों में कटु भावों का रेचन और तज्जन्य मन शांति ही तो है। अंतर केवल ‘उद्रेक’ शब्द पर आश्रित है जिसका विवेचन आगे करेंगे।
शारदातनय का समाधान इसी का विकास है। उसका आधार यह है कि आत्मा नित्य आनंदरूप है। उसकी आनंदमयी प्रवृत्ति इतनी प्रबल है कि वह संसार के दुखमोहादि मायाजन्य कलुषों पर अनिवार्यत विजय प्राप्त कर उन्हें भोग्य बना लेती है। करुण रस के आस्वाद्य का मूल कारण आत्मा की यही आनंदमयी प्रवृत्ति है। यह समाधान शुद्ध भारतीय आनंदवाद पर आधृत है--करुणा-प्रधान मसीही दर्शन पर आश्रित पाश्चात्य काव्य-शास्त्र में इसकी प्रतिध्वनि भी प्राय नहीं मिलती।
कला का सौंदर्य करुण के उद्वेग को चमत्कार में परिणत कर देता है। कला का आधारभूत सिद्धांत है सामंजस्य—अनेकता में एकता की स्थापना। अंतर्वृत्तियों का समन्वय करने के कारण यह प्रक्रिया अपने आपमें सुखद होती है इसे ही कला-सृजन या सौंदर्य की सृष्टि का आनंद कहते हैं। कला-सृजन के समय कवि तथा कलानुभूति के समय सहृदय का चित्त इस प्रक्रिया द्वारा
फ़ुटप्रिंट-
(1) मेटाफ़िज़िक्स।
समाहित होकर उक्त आनंद का अनुभव करता है। इसके अतिरिक्त समृद्ध अभिव्यंजना, विशिष्ट पद-रचना, संगीत-गुण तथा नाटक में नाट्य-प्रसाधन आदि समाहित ‘काव्यालकार’-जन्य मालाद भी करुण की कटुता को नष्ट करने में सहायक होता है।
यूरोप के आलोचना-शास्त्र में भी इसी मन की स्थापना की गई है : यहाँ इसे ‘काव्य-रूप सिद्धांत’ के नाम से अभिहित किया जाता है। इस सिद्धांत के अनुनार काव्य-रूप के सौंदर्य से करुण रस की कटुता नष्ट हो जाती है और सहृदय का चित्त चमत्कार का अनुभव करता है।
अंतिम समाधान उपर्युक्त समाधान की अपेक्षा अधिक दार्शनिक है—मानव-प्रकृति विगुणात्मक है, मधुर और कटु दोनों प्रकार की अनुभूतियाँ जीवन का अंग हैं। मानव जीवन के वैविध्य में रस लेता है, अतः करुण आदि के प्रदर्शन या अभिव्यंजन में उसकी अभिरुचि होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आधुनिक आलोचना-शास्त्र का ‘अभिरुचि-सिद्धांत’ भी इससे मिलता-जुलता है। इस सिद्धांत के अनुसार मानव को मानव-जीवन के सभी अनुभवों में अभिरुचि है—वह जहाँ विवाह आदि मंगल-उत्सवों में रस लेता है, वहाँ मृत्यु आदि से संबद्ध दुर्घटनाओं में भी उसकी कम रुचि नहीं है। वरयात्रा और शवयात्रा दोनों में मानव का उत्साह दृष्टव्य है। इसी न्याय से कामद और त्रासद दोनों प्रकार के दृश्यों में प्रेक्षक की दिलचस्पी होती है।
इन छह समाधानों के अतिरिक्त यौद्ध-दर्शन के दुखवाद पर आधृत एक और भी समाधान भारतीय शास्त्र की ओर से प्रस्तुत किया जा सकता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार दुख प्रथम आर्य-सत्य है। इसका सम्यक् ज्ञान जीवन की प्रथम सिद्धि है जिसपर अन्य सिद्धियाँ आश्रित हैं। अतः करुण रस जीवन का आद्य रस है। सत्य की उपलब्धि में जो आनंद निहित रहता है, वही आनंद जीवन में करुण का अगित्य प्रतिपादन करने वाले काव्य में प्राप्त होता है। भारत में दुखवाद का प्रतिपादन प्रधानत बौद्ध दर्शन में ही हुआ है अतः करुण रस का यह दुखवादी समाधान केवल वहीं से उपलब्ध है।
यूरोप के दर्शन तथा आलोचना-शास्त्र में दुखवादियों प्रस्तुत ने समस्या के प्राय इसी प्रकार के समाधान उपस्थित किए हैं। जर्मनी के प्रसिद्ध दुखवादी दार्शनिक तीनहीं का तर्क है कि त्रासदी जीवन के गंभीर और दुखमय पक्ष को महत्व देती है, जीवन की व्यर्थता एवं जगत-प्रपंच की अमारता को व्यक्त कर परम सत्य का उद्घाटन उसका प्रयोजन है। सत्य की यही उपलब्धि प्रेक्षा के आनंद का कारण है। श्लेगेल का तर्क इससे थोड़ा भिन्न है उसके अनुसार त्रासदी के द्वारा हमारे मन में इस चेतना का उदय होता है कि पार्थिव जीवन का संचालन किसी अदृष्ट शक्ति (नियति) के हाथ में है जिसके समक्ष मानव का समस्त बल-वैभव तुच्छ है। यह विचार एक ओर अहंकार का शमन करता है और दूसरी ओर दुख में हमें धैर्य प्रदान करता है। जीवन के इस अलौकिक विधान की अनुभूति निश्चय ही एक उदात्त एवं सुखद भाव है और यही ‘त्रासद आनंद' का रहस्य है। प्रो. बुचर ने अरस्तू के विवेचन में इस सिद्धांत का भी अनुसंधान कर लिया है। यहाँ भी हमारा मत यही है कि अरस्तू के त्रासदी-प्रकरण में इसका बीज मात्र मिलता है, उसका विकास प्रो. बुचर ने परवर्ती शोधों के आधार पर किया है जिस विकसित रूप में बुचर ने उसे प्रस्तुत किया है, वह अरस्तू में निश्चय ही उपलब्ध नहीं है। भारती चिंतक के लिए यह धारणा अज्ञात नहीं है। साहित्य में इस ‘नियतिवाद’ की शत-शत मार्मिक व्यजनाएँ मिलती हैं। रामायण, महाभारत, पुराण, भक्ति-काव्य और आधुनिक साहित्य में इसकी अनुगूँज स्थान-स्थान पर मिलती है। न जाने कबसे भारतीय मन यह गा-गाकर अपने को धीरज देता चला आ रहा है—
करम गति टारे नाहिं टरी।
मुनि बसिष्ठ से पंडित ज्ञानी सोघि के लगन घरी।
सीता-हरन भरन दसरथ को बन में विपति परी।।
परंतु अंतर केवल यही है कि इस धारणा ने काव्य-शास्त्र के सिद्धांत का रूप कभी धारण नहीं किया।
क्यों?—भारतीय काव्य-शास्त्र के प्राण रस-सिद्धांत का विरोधी होने के कारण।
निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचन में स्पष्ट है कि अरस्तू का विरेचन-सिद्धांत भारत के रस-सिद्धांत से बहुत भिन्न नहीं है—यह कहना कदाचित् असंगत न होगा कि भारतीय रस-सिद्धांत में प्रकारान्तर से विरेचन-सिद्धांत अंतर्भूत है। विरेचन-प्रक्रिया के दो अंग हैं (1) अतिशय उत्तेजना द्वारा मनोवेगों का शमन और (2) तज्जन्य मनःशाति। मनोवेगों की अतिशय उत्तेजना रस-सिद्धांत के अंतर्भूत स्थायी भावों के चरम उद्बोध के समानांतर है। मनःशांति रस-सिद्धांत की ‘समाहिति’ की अवस्था है जब सहृदय श्रोता का मनोमुकुर भौतिक विकार-जन्य मलिनता से मुक्त सर्वथा निर्मल हो जाता है। रस की स्फुरणा के समय कवि का मन और रस के आस्वाद के समय सहृदय का मन व्यक्ति-संबंधों से मुक्त होकर अनिवार्यत समाहिति की अवस्था को प्राप्त करता है। तमोगुण तथा रजोगुण के तिरोभाव और सत्व की परिव्याप्ति की स्थिति वही है। परंतु इसके आगे भेद हो जाता है। अरस्तू का विरेचन-सिद्धांत यहीं रुक जाता है—यदि प्रो. बुचर के माश्यान को स्वीकार कर लें तो भी अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि इस समाहिति की स्थिति में प्रेक्षक या श्रोता का मन कला के आनंद का आस्वाद करने में तत्वर हो जाता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि त्रासदी का आनंद या तो मनःशांति की सुखद स्थिति मात्र है, जिसमें भावों के परिष्करण को सुखद अनुभूति का भी नसावेश है, या फ़िर वह कला के आनंद से (जो पर्याप्त मात्रा में बौद्धिक होता है) एकात्म है। अर्थात् अरस्तू के अनुसार त्रासदी के आस्वाद के तीन तत्व हैं :
(1) उद्वेग के शमन से उत्पन्न मनःशांति।
(2) भावों के परिष्कार की अनुभूति।
(3) कला-जन्य चमत्कार।
भारतीय काव्य-शास्त्र के करुण रस और उपर्युक्त आस्वाद में मौलिक अंतर यह है कि करुण रस उद्वेग या (राहत) शमन मात्र न होकर उसका भोग है। भावों का परिष्कार यहाँ भी यथावत् मान्य है : भाव के साधारणीकरण में उसका परिष्कार स्वतः सिद्ध है, तमोगुण तथा रजोगुण के तिरोभाव में उद्वेग का शमन भी निहित है, परंतु रस इनसे अतिरिक्त है। रस तो भौतिक रागद्वेष से मुक्त आत्मा द्वारा 'अस्मिता' का भोग है—उसके लिए तमोगुण और रजोगुण का तिरोभाव ही पर्याप्त नहीं है, उसके लिए तो आनंदरूप आत्मा से सत्त्व का प्रचुर उद्रेक अनिवार्य है। यहाँ हम वास्तव में भारतीय दर्शन की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं। भारत में आनंद के विषय में भावात्मक और अभावात्मक दोनों सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ है। न्याय, वैशेषिका, सास्य आदि में आनंद का स्वरूप आभावात्मक माना गया है—उनकी स्थापना है कि दुख का अत्यंत विमोक्ष ही अपवर्ग है : तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्ग: (न्यायमजरी 1।1।22।) किंतु इसके विपरीत मोमामा, वेदांत आदि में आनंद के भावात्मक रूप की अत्यंत प्रबल शब्दों में प्रतिष्ठा की गई है :
दुखात्यन्तसमुच्छेदे सति प्रागात्मवर्तिनः
सुखस्य मनसा मुक्तिर्मुतिरुक्त्ता कुमारिलैः।
अर्थात् कुमारिल के अनुमार दुख का नितांत समुच्छेद हो जाने पर आत्मा में स्थित नित्य सुख का मनना उपभोग ही मुक्ति है। इन वेदान्नी, भीमानक आदि आचार्यों, शैवों और वैष्णवों ने न्याय-वैशेषिक-प्रतिपादित अभावात्मक अपवर्ग का उपहास किया है। और वास्तव में अपवर्ग की भावात्मक कल्पना ही भारतीय दर्शन का प्रतिनिधि सिद्धांत है जिसके अनुसार आनंद दुख का अभाव मात्र नहीं है, वह शुद्ध-शुद्ध आत्मा का ‘आत्म-भोग’ है।
भारत का रस-सिद्धांत, जैसा कि प्रसाद जी ने स्पष्ट किया है, शैव-दर्शन पर आधृत है अतः उसका स्वरूप भी तदनुकूल आत्मानंद-प्रधान ही है। भारतीय काव्य-शास्त्र का शैवाचार्य अभिनव-प्रतिपादित प्राय सर्वमान्य अभिव्यक्तिवाद सिद्धांत अत्यंत भावात्मक ‘रस’ की ही स्थापना करता है। यह रस शोकादि भावों के उन्नयन से भी आगे आत्मानंद का भोग है। यह शांति-रूप नहीं है, भोग-रूप है। कलाजन्य चमत्कार, भावों की परिष्कृति आदि उसकी सहायक अथवा आनुपगिक उपलब्धियाँ हैं वह स्वयं उनसे कहीं ऊपर है।
भारत के अन्य प्रमुख सिद्धांतों की भाँति, उसका रस-सिद्धांत भी अध्यात्मवाद पर आधृत है उसको यथावत् ग्रहण करने के लिए आत्मा की स्थिति और उसकी सहज आनंदरूपता में विश्वास करना आवश्यक है। आधुनिक आलोचक को इसमें कठिनाई हो सकती है। परंतु उपर्युक्त स्थापना विज्ञान के विरुद्ध नहीं है, मनो-विज्ञान भी उसकी पुष्टि करता है। दुःख और सुख भावों के ये दो अनुभूत्यात्मक रूप है। इच्छा की (प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष) विफलता की अनुभूति दुखात्मक होती है और इच्छा-पूर्ति या सफलता की अनुभूति सुखात्मक। अब प्रश्न यह है कि दुख और सुख का परस्पर संबंध क्या है? कुछ विचारक दुख के अभाव को ही सुख मानते हैं—उनके अनुसार दुख की स्थिति भावात्मक है और सुख की अभावात्मक। उनका तर्क यह है कि व्यावहारिक जीवन में विभिन्न प्रकार की बाधाओं के कारण हमें दुख की अनुभूति होती है और उनके निराकरण से सुख की, अतः दुख का अभाव ही सुख है। यह तर्क सामान्यत ग्राह्य प्रतीत होता है, परंतु इसमें एक सूक्ष्म हेत्वाभास विद्यमान है। उदाहरण के लिए शिर-शूल दुख का कारण है, उसके शमन से हमें राहत मिलती है—प्राय प्रसन्नता भी होती है। तो क्या शिर-शूल का प्रभाव ही आनंद है? नहीं। वास्तव में रोगविशेष की शांति से हमने स्वास्थ्य का लाभ किया इससे मन क्लेश-मुक्त तथा विशद हो गया। यह तो रोग-शांति का तर्क-सम्मत परिणाम है, परंतु इसके आगे जो प्रसन्नता होती है उसका कारण रोग-शांति नहीं है, वरन् यह आश्वासन है कि अब हम जीवव के भोग में समर्थ हैं जिसके पीछे कदाचित् अपनी विजय का भाव भी लगा हुआ है। ऋण-शोध से आत्मा प्राय अत्यंत विशद हो जाती है, किंतु एक तो यह विशदता सर्वदा अनिवार्य नहीं है—कभी-कभी ऋण-शोध के उपरांत मन में एक प्रकार की ग्लानि और आतक-सा भी शेष रह जाता है, दूसरे इसमें और लाभ-जन्य आनंद में स्पष्ट अंतर है। एक ऋणात्मक है, दूसरा धनात्मक। ऋण-शोध के पश्चात् भी प्रसन्नता का अनुभव हो सकता है, परंतु उसका कारण ऋण-मुक्ति न होकर यह विश्वास है कि अब मेरे लिए लाभ का मार्ग प्रशस्त हो गया है। अभिज्ञान-शाकुंतलम् के चतुर्थ अंक में कालिदास की पारदर्शिनी प्रतिभा ने इन दोनों मनोदशाओं का भेद स्पष्ट किया है—शकुंतला को विदा करने के पश्चात् कण्व को जो अनुभव होता है उसे कालिदास आनंद की संज्ञा नहीं देते, वह तो आत्मा का वैशद्य मात्र है जो न्यास के भार से मुक्त होने पर या ऋण-मोक्ष के उपरांत प्राप्त होना है—
जातो ममार्य विशदः प्रकार्म,
प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा।
इसके अतिरिक्त चतुर्थ अंक में ही एक और प्रकरण है : शकुंतला के इस कातर प्रश्न के उत्तर में कि अब में तात के दर्शन कब करूँगी कण्य कहते हैं-
भूत्वा चिराय चतुरन्तमहोसपत्नी
वोप्पन्तिमप्रतिरर्थ तनर्थ निवेश्य।
भर्वा सदर्पितकुटुम्बभरेण सार्ध
शान्ते करिष्यसि पर्व पुनराश्रमेंऽस्मिन् ।4।20।
अर्थात्—बनि तिय बहुत दिवस भूपति की। सौतिनि चार कौन वसुमति
की करके ब्याह सुवन समरथ फो। मारग रुके न जाके रय कौ॥
वैकै ताहि कुटुम को भारा। तजि के राजकाज उपमहारा॥
पति तेरो तुहि संग ते ऐहै। या आश्रम तब तू पग देहै॥ (लक्षमणामिह)
कण्व के जीवन में यह प्रसंग आया या नहीं इसके विषय में शाकुंतलम् मौन है और महाभारत भी। परंतु उनकी यह मनोदशा आत्मा का वैशद्य मात्र न होकर आनंदरूपिणी होतो इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। सहृदय पाठक कल्पनात्मक तादात्म्य के द्वारा दोनों का अंतर स्पष्ट अनुभव कर सकते हैं। कव्या की विदा और पुत्रवधू के आगमन के समय गृहस्थ की दो भिन्न मनोवृत्तियाँ मेरे कथन को पुष्ट करेंगी।
सुख का अर्थ है सु+ख=आत्मा की वृद्धि और दुख का अर्थ है दु+ख आत्मा की क्षति। मनोविज्ञान के शब्दों में सुख को चेतना का उत्कर्ष और दुःख को चेतना का अपकर्ष कह सकते हैं। अतः दुख के अभाव का अर्थ हुआ आत्मा की क्षति की पूर्ति—अथवा चेतना के अपकर्ष का निराकरण। यह स्थिति भी निश्चय ही अनुकूल है परंतु आत्मा की वृद्धि अथवा चेतना के उत्कर्ष समकक्ष तो वह नहीं हो सकती। अरस्तू प्रतिपादित विरेचन-जन्य प्रभाव तथा भट्टनायक-अभिनव के रस में यही अंतर है और यह अंतर साधारण नहीं है, 'क्षतिपूति' और 'लाभ' का अंतर है।
साधारणतः यह प्रसंग यहीं समाप्त हो जाना चाहिए। किंतु मेरे जिज्ञासु मन का परितोष अभी नहीं हुआ और मेरी भाँति कदाचित् अन्य जिज्ञासुओं के मन में भी अभी यह शंका विसमान हो सकती है। मान लिया कि भारतीय करण रस की स्थिति अरस्तू के त्रासद-करुण प्रभाव से अधिक उदात्त है, परंतु क्या वह अधिक सत्य भी है? इस शंका का समाधान शास्त्र की दृष्टि से ऊपर किया जा चुका है, यहाँ हम शास्त्र का आश्रय न लेकर सहृदय के अनुभव को ही प्रमाण मानकर चलना चाहते हैं। करुण-रस प्रधान नाटक या काव्य का प्रेक्षण-अवण सहृदय किस लिए करता है? इसका एक सीधा उत्तर है--आनंद के लिए। आनंद-उपलब्धि की प्रक्रिया और आनंद के आधार के विषय में मतभेद हो सकता है, परंतु आनंद की प्रयोजनता असंदिग्ध है। यदि यह उत्तर स्वीकार्य है, तब तो शंका निश्शेष हो जाती है। किंतु हम यह देख चुके हैं कि यह उत्तर सर्वमान्य नहीं है। रामचंद्र-गुणचंद्र, आई. ए. रिचर्ड्स, रामचंद्र शुक्ल जैसे तत्त्वविद् इसे स्वीकार नहीं करते। आनंद के विकल्प दो हैं—-(1) मनोरागों का समजन और परिष्कार—त्रासदी आदि के प्रेक्षण से हमारी अंतर्वृत्तियों का समजन और परिष्कार होता है, यही उसकी सिद्धि है—इसी के लिए हमें उसके प्रति आग्रह है। (2) जीवन में अनुराग—हमें जीवन के प्रति अनुराग है अतः उसके हर्ष-विषादमय सभी रूपों के प्रति हमारी अभिरुचि है, वरयात्रा में भी हमें उत्साह है और शवयात्रा में भी। इनमें से पहला विकल्प अर्थात् अंतर्वृत्तियों का समजन और परिष्करण तो निश्चय ही एक उपलब्धि है। अंतर्वृत्तियों के परिष्कार से हमारी चेतना का उत्कर्ष—अथवा आत्मा की वृद्धि होती है। दूसरा विकल्प भी अधिक भिन्न नहीं है—स्थूल भौतिक अर्थ में नहीं वरन् तात्त्विक अर्थ में जीवन के प्रति अनुराग या आस्था का नाम ही आस्तिक भाव है। जीवन की मूल वृत्ति यही है और जीवन के भोग (आनंद) का आधार भी यही है, इसका विचलन क्लेश है और अविचल भाव आनंद। शवयात्रा में सहृदय का उत्साह दुखमूलक नहीं होता, उसमें एक ओर दिवगत व्यक्ति के जीवित संबंधियों के प्रति कर्तव्य का आनंद और दूसरी ओर मृत्यु की बाधा से अनवरुद्ध जीवन-प्रवाह में आस्था का आनंद विद्यमान रहता है। इसलिए मैं इन दोनों विकल्पों को केवल दृष्टि-भेद मानता हूँ। वास्तव में ये विकल्प आनंद के स्वरूप की अशुद्ध धारणा पर आधृत हैं—आनंद की परिकल्पना हमारे यहाँ बड़े गंभीर रूप में की गई है। वह मनोरंजन, लज़्जत या प्लैज़र का पर्याय नहीं है। इसीलिए भारतीय दर्शन में उसकी उपमा समुद्र से दी गई है—जीवन के सुख-दुख जिसकी लहरों के समान हैं। जिस प्रकार असंख्य लहरों को अपने वक्ष पर खिलाती हुई समुद्र की अंतर्धारा आत्मस्थ बहती रहती है, इसी प्रकार अनेक करुण-मधुर अनुभूतियों से खेलती हुई आत्मा या चेतना की अंतर्धारा अपने सुख में निरंतर प्रवाहित रहती है। उदात्त काव्य—वह चाहे श्रृंगार-मूलक हो या करुण-मूलक सहृदय के मन को श्रृंगार और करुण की लौकिक अनुभूति से नीचे इसी अंतर्धारा में निमज्जन का सुयोग प्रदान करता है। इसी अर्थ में रस अखंड है और उसमें आस्वाद-भेद नहीं है।
- रचनाकार : डॉ. नगेंद्र
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