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अपभ्रंश नाट्य-साहित्य

apabhransh naty sahity

हरिवंश कोछड़

हरिवंश कोछड़

अपभ्रंश नाट्य-साहित्य

हरिवंश कोछड़

और अधिकहरिवंश कोछड़

    अपभ्रंश-भाषा का समय भाषा-विज्ञान के आचार्यों ने 500 ई. से 1000 ई. तक बताया है किंतु इस का साहित्य हमें लगभग 8वीं शती से मिलना प्रारंभ होता है। प्राप्त अपभ्रंश-साहित्य में स्वयंभू सबसे पूर्व हमारे सामने आते हैं। अपभ्रंश-साहित्य का समृद्ध युग 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक है। इसी काल है स्वयंभू, पुष्पदंत, धवल, धनपाल, नयनन्दी, कनकामर, धाहिल इत्यादि अनेक प्रभावशाली अपभ्रंश-कवि हुए।

    जैनों द्वारा लिखे गए महापुराण, पुराण, चरिउ आदि ग्रन्थों में, बौद्ध सिद्धों द्वारा लिखित स्वतंत्र पदों, गीतों और दोहो में, कुमारपाल-प्रतिबोध, विक्रमोवंशीय, प्रबंध-चिंतामणि आदि संस्कृत एवं प्राकृत ग्रन्थों में जहाँ-तहाँ कुछ स्फुट पद्यों में और वैयाकरणों द्वारा अपने व्याकरण-ग्रंथों में उदाहरणार्थ दिए गए अनेक फुटकर पद्यों के रूप में हमें अपभ्रंश-साहित्य प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त विद्यापति की कीर्तिलता और अब्दुलरहमान के संदेश-रासक आदि ग्रंथों में अपभ्रंश-साहित्य उपलब्ध है।

    जिस प्रकार जैनाचार्यों ने संस्कृत-वाङ्मय में अनेक काव्य, पुराण-ग्रंथ, कलात्मक एवं रूपक-काव्यादि ग्रंथों का निर्माण किया इसी प्रकार उन्होंने अपभ्रंश-भाषा में भी इस प्रकार के ग्रंथों का प्रणयन कर अपभ्रंश-साहित्य को समृद्ध किया।

    जैनियों के अपभ्रंश को अपनाने का कारण यह था कि जैन पंडितों ने अधिकांश ग्रंथ प्रायः श्रावकों के अनुरोध से लिखे। ये श्रावक तत्कालीन बोलचाल की भाषा से अधिक परिचित होते थे अतः जैनाचार्यों एवं भट्टारकों द्वारा श्रावकगण के अनुरोध पर जो साहित्य लिखा गया वह तत्कालीन प्रचलित अपभ्रंश में ही लिखा गया। जैसे बौद्धों ने तत्कालीन प्रचलित पाली को अपने प्रचारार्थ अपनाया, इसी प्रकार जैन विद्वानों ने तत्कालीन प्रचलित अपभ्रंश-भाषा को अपने विचारों का माध्यम बनाना अभीष्ट समझा। जैन, बौध और इतर हिंदुओं के अतिरिक्त मुसलमानों ने भी अपभ्रंश में पैन्य-रचना की। संदेश-रासक का लेखक अब्दुलरहमान इसका प्रमाण है।

    जैन कवियों ने किसी राजा, राजमंत्री या गृहस्थ की प्रेरणा से काव्य-रचना की अतः इनकी कृतियों में उन्हीं की कल्याण-कामना के लिए किसी यज्ञ के माहात्म्य का प्रतिपादन या किसी महापुरुष के चरित का व्याख्यान किया गया है। राजाश्रय में रहते हुए भी इन्हें धन की इच्छा थी क्योंकि ये लोग अधिकतर निष्काम पुरुष थे और इन कवियों ने अपने आश्रयदाता के मिथ्या-वंश का वर्णन करने के लिए या किसी प्रकार की चाटुकारी के लिए कुछ लिखा। इन जन कवियों ने अपने मत का प्रचार करने की दृष्टि से भी कुछ काव्यों का निर्माण किया। बौद्ध सिद्धों की कविता का विषय अध्यात्मपरक होने के कारण उपरिलिखित विषयों से भिन्न है। अपनी महत्ता के प्रतिपादन के लिए प्राचीन रूढ़ियों का खंडन, गुरु की महिमा का गान, रहस्यवाद आदि ही इनकी कविता के मुख्य विषय रहे। अपभ्रंश-साहित्य की पृष्ठभूमि प्रायः धर्म-प्रचार है। जैन कवि प्रथम प्रचारक हैं फ़िर कवि।

    अपभ्रंश-साहित्य में हमें महापुराण, पुराण और चरित-काव्यों के अतिरिक्त रूपक काव्य, कलात्मक ग्रंथ, संधि-काव्य, रास, स्तोत्र आदि भी उपलब्ध होते हैं। अपभ्रंश कवियों का लक्ष्य जन-साधारण के हृदय तक पहुँचकर उनको सदाचार की दृष्टि में ऊँचा उठाना था। इन कवियों ने शिक्षित और पंडित-वर्ग के लिए ही लिखकर अशिक्षित और साधारण वर्ग के लिए भी लिखा। अपरिनिर्दिष्ट अपभ्रंश ग्रंथो के अतिरिक्त चूनरी, चचंरी, कुलकादि नामांकित कुछ अपभ्रंश ग्रंथ भी मिले हैं।

    अपभ्रंश-साहित्य के जिन भी ग्रंथों का ऊपर निर्देश किया गया है वे सब अपभ्रंशों के महाकाव्य, खंडकाव्य और मुक्तक काव्य के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इन ग्रंथों में अनेक काव्यात्मक सुंदर स्थल दृष्टिगत होते हैं।

    उपरिलिखित विषयों के अतिरिक्त अपभ्रंश में अनेक उपदेशात्मक ग्रंथ भी मिलते हैं। इनमें काव्य की अपेक्षा धार्मिक-उपदेश भावना प्रधान है। काव्य-रस गौण है, धर्म-भाव प्रधान। इस प्रकार की उपदेशात्मक कृतियाँ अधिकतर जैन धर्म के उपदेशकों की ही लिखी हुई है। इनमें से कुछ में आध्यात्मिक तत्त्व प्रधान है कुछ में लौकिक-उपदेश तत्व।

    जैन-धर्म संबंधी उपदेशात्मक रचनाओं के समान बौद्ध सिद्धों की भी कुछ फुटकर रचनाएँ मिलती हैं जिनमें वज्रयान और सहजयान के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। इन धार्मिक कृतियों का भाषा की दृष्टि से उतना महत्त्व नहीं जितना भाव-धारा की दृष्टि से।

    अपभ्रंश-साहित्य अधिकांश धार्मिक आवरण से आवृत है। माला के तंतु के समान सब प्रकार की रचनाएँ धर्मसूत्र से ग्रथित हैं। अपभ्रंश कवियों का लक्ष्य था एक धर्म-प्रवण समाज की रचना। पुराण, चरित, कथात्मक कृतियों, रासादि सभी प्रकार की रचनाओं में वही भाव दृष्टिगत होता है। कोई प्रेम कथा हो चाहे साहसिक कथा, किसी का चरित-वर्णन हो चाहे कोई और विषय सर्वत्र धर्म-तत्त्व अनुस्यूत है मानो धर्म इन लेखकों का प्राण था और धर्म ही इनकी आत्मा।

    राजशेखर (10वीं शताब्दी) ने राजसभा में संस्कृत और प्राकृत कवियों के साथ अपभ्रंश-कवियों के बैठने की योजना भी बताई है। इससे स्पष्ट होता है उस समय अपभ्रंश कविता भी राज-सभा में आहत होती थी। उसी प्रकरण में भिन्न-भिन्न कवियों के बैठने की व्यवस्था बताते हुए राजशेखकर ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश कवियों के साथ बैठने वालों का भी निर्देश किया है। अपभ्रंश कवियों के साथ बैठने वाले चित्रकार, जौहरी, सुनार, बढ़ई आदि समाज के मध्यम कोटि के मनुष्य होते थे। इससे प्रतीत होता है कि संस्कृत कुछ थोड़े से पंडितों की भाषा थी, प्राकृत जानने वालों का क्षेत्र अपेक्षाकृत बड़ा था। अपभ्रंश जानने वालों का क्षेत्र और भी अधिक विस्तृत था एवं अपभ्रंश का संबंध जन-साधारण के साथ था। राजा के परिचारक-वर्ग का 'अपभ्रंश भाषण प्रवण' होना भी इसी बात की ओर संकेत करता है।

    श्री मुनि जिनविजय जी द्वारा संपादित 'पुरातन प्रबंध संग्रह' नामक ग्रंथ में स्थान-स्थान पर अनेक अपभ्रंश पद्य मिलते हैं। इस ग्रंथ से प्रतीत होता है कि अनेक राज-सभाओं में अपभ्रंश का आदर चिरकाल तक बना रहा। राजा भोज या उनके पूर्ववर्ती राजा अपभ्रंश कविताओं का सम्मान ही नहीं करते थे, स्वयं भी अपभ्रंश में कविता लिखते थे। राजा भोज से पूर्व गुज की सुंदर अपभ्रंश-कविताएँ मिलती हैं।

    इस विवेचन से हमारा अभिप्राय अपभ्रंश-साहित्य की आलोचना प्रस्तुत करना नहीं। हमारा इतना ही निवेदन है कि अपभ्रंश साहित्य पर्याप्त समृद्ध था और पूर्ण रूप से आदृत था। जैन विद्वानों ने अनेक काव्य आख्यायिका, चंपू, नाटकादि ग्रंथों का यद्यपि संस्कृत भाषा में निर्माण किया किंतु अपभ्रंश में नाना काव्यादि के उपलब्ध होने पर भी कोई नाटक उपलब्ध नहीं हुआ।

    जो भी अपभ्रंश-साहित्य अद्यावधि प्रकाश में सका है वह अधिकांश जैन-भांडारों से उपलब्ध हुआ है। जैन-मंदिरों में मंदिर के साथ एक पुस्तकालय भी संलग्न होता था। मंदिर में जाकर प्रतिमा-पूजनादि के साथ-साथ जैनी लोग यहाँ ग्रंथों का स्वाध्याय भी करते थे। किसी ग्रंथ की हस्त-लिखित प्रतिलिपि कर या करवाकर अन्य धायकों के लाभार्थ मंदिर में रखवा देना एक धार्मिक कृत्य समझा जाता था। फलतः मंदिरों में पर्याप्त ग्रंथों का संग्रह हो गया। अभी तक अनेक जैन-भंडारों के ग्रंथों का सम्यक् निरीक्षण, वर्गीकरण एवं अनुशीलन नहीं हो सका है। प्रचुर साहित्य अभी तक वहाँ प्रच्छन्न पड़ा है। ऐसी अवस्था में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि अपभ्रंश-साहित्य में नाटकों का सर्वथा अभाव है। हो सकता है कि नवीन अनुसंधान के परिणाम-स्वरूप अतीत के गर्भ में लीन कोई अपभ्रंश-नाटक प्रकाश में सके। जैन भंडारों की अधिकांश ग्रंथ राशि प्रायः धर्म-प्रधान है। अतः ऐसा भी संभव है कि अपभ्रंश में नाटक लिखे तो गए हों किंतु धार्मिक ग्रंथों के साथ मंदिर में प्रवेश पाने के कारण सुरक्षित रह सके हों। संस्कृत में लिखित अनेक नाटक श्रव्य-काव्य के अंतर्गत हो जाते हैं। दृश्यत्व रूप से नाटक रचना के लिए शांतिमय वातावरण का होना आवश्यक है। यवनो के आक्रमण से विक्षुब्ध परिस्थितियों में संभवतः ऐसे नाटकों की रचना हो सकी हो। कारण कुछ भी हो अपभ्रंश-भाषा में लिखित नाटकों का अभी तक अभाव है। ऐसी अवस्था में पर्याप्त सामग्री के होने से अपभ्रंश नाट्य-साहित्य की पूर्ण विवेचना संभव नहीं।

    अपभ्रंश भाषा में नाटक लिखे गए या नहीं इस विवाद को छोड़ दीजिए। श्री मुनि जिनविजय द्वारा संपादित 'पुरातन प्रबंध संग्रह’ के अंतर्गत एक प्रकरण से ऐसा आभास मिलता है कि हास्य-विनोद के लिए अपभ्रंश-नाटक लिखे जाते थे। राजा भोज ने सिद्ध रस' बनाने वाले योगियों को बुलवाकर यह रस बनवाना चाहा। जब वे इस प्रकार का रस बना सके तो उनकी हँसी उड़ाने के लिए अपभ्रंश में एक नाटक लिखवाया गया। नाटक के अभिनय के बीच पात्रों के सभाषण को सुन हँसी में लोट-पोट होते हुए राजा भोज को संबोधन कर एक सिद्धरस-योगी कहता है

    अस्थि कहंत किपि दीसइ।

    नत्थि कहउत सुहगुरु रूसइ॥

    जो जाणइ सो कहइ कीमइ।

    मरमाणं तु विपारद ईसई।-

    अपभ्रंश में यद्यपि कोई नाटक उपलब्ध नहीं तथापि चर्चरी, रास इत्यादि कुछ ग्रंथ उपलब्ध हुए हैं जिनसे अपभ्रंश के लोक-नाट्य पर कुछ प्रकाश पड़ता है। चच्चरी, चाचरि, चर्चरी ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। चर्चरी शब्द ताल एवं नृत्य के साथ, विशेषतः उत्सव आदि में गाई जाने वाली रचना का बोधक है| इसका उल्लेख विक्रमोर्वंशीय के चतुर्थ अंक के अनेक अपभ्रंश पद्यो में मिलता है। वहाँ अनेक पद्य चर्चरी कहे गए हैं। समरादित्य-कथा, कुवलय-माला कथा आदि ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। श्री हर्ष ने अपनी रत्नावली नाटिका के आरंभ मिलता है

    अये यथाऽयमभिहन्यमान मृदु मृदंगानुगत गीतमधुर पुरः पौराणां समुच्चरति चर्चरी ध्वनिस्तथा तर्कयामि इत्यादि

    अपभ्रंश के वीरकवि (वि. स. 1076) ने अपने 'जबुसमिचरिउ' में भी एक स्थान पर चच्चरि का उल्लेख किया है -

    चच्चरि बंधि विरइउ सरसु, गाइज्जइ सतिउ तारु जसु। 14

    नयनदी कवि (वि. स. 1100) ने अपने 'सुदसण चरिउ' में वसंतोत्सव वर्णन के प्रसंग में लिखा है-

    जिणहरेसु आढक्यि सुचच्चरि, करहिं तरुणि सवियारी चच्चरि। 75

    श्रीचंद्र कवि (वि. स. 1123) के 'रत्न करंड शास्त्र' में अनेक छंदों के साथ चच्चरि का उल्लेख किया गया है।

    अब्दुल रहमान ने अपने 'संदेश-रासक' में वसंत वर्णन के प्रसंग में चर्चरी गान का उल्लेख किया है -

    चच्चरिहि गेउ झुणि करिवि तालु,

    नच्चीयइ अउम्प वसंतकालु।

    घण निविड हार परि खिल्लरीहि,

    रुणसुण रउ मेहल किकिणोहिं 219

    इससे प्रतीत होता है कि चर्चरी, आनंदोत्सव के अवसर पर जनसाधारण में या मंदिरों में ताल और नृत्य के साथ गाई जाती थी। मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने 'पद्मावत' में वसंत, फाग एवं होली के प्रसंग में चाचरि या चाँचर का उल्लेख किया है, जोकि अपभ्रंश-कालीन चर्चरी के अवशिष्ट रूप के सूचक हैं।

    जिनदत्त सूरि ने विक्रम की 12वीं शती के उत्तरार्ध में 'चर्चरी' की रचना की थी। रचनाकर ने सूचित किया है कि यह कृति पढ़ (ट) मजरी भाषा-राग में गाते हुए और नाचते हुए पढ़ी जानी चाहिए। इसमें कृतिकार ने 47 पद्यों में अपने गुरु जिनवल्लभ सूरि का गुणगान किया है और नाना चैत्य विधियों का विधान किया है।

    इस चर्चरी के अतिरिक्त प्राचीन गुर्जर काव्य-संग्रह में सोलन कृत चर्चरी का व्याख्यान है। एक वेलाउली राग में गीयमान 36 पद्यों की 'चाचरि स्तुति' और गुर्जरी राग में गीयमान 15 पद्यों की 'गुरुस्तुति चाचरि' का पाटण-भंडार की ग्रंथ-सूची में निर्देश मिलता है।

    अपभ्रंश में कुछ रास ग्रंथ भी उपलब्ध हुए हैं। इनमें से कुछ की भाषा को प्राचीन गुजराती वा प्राचीन राजस्थानी कहा जाता है। किंतु प्राचीन गुजराती, प्राचीन राजस्थानी सब अपभ्रंश के ही रूप हैं और इन सबका सामान्य आधार एवं स्रोत अपभ्रंश या उत्तरकालीन अपभ्रंश ही है।

    रास, रासो या रासक शब्द का क्या अर्थ है, क्यों इन ग्रंथों का नाम रास पड़ा? इस विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। किसी ने इसे ब्रह्मवाचक रस से, किसी ने साहित्यिक रस से, किसी ने स्त्री-पुरुषों के मंडलाकार नृत्य-वाची रास से, किसी ने राजवंश से और किसी ने काव्य-वाचक रसायन से इस शब्द की व्युत्पत्ति मानी है।

    संस्कृत के अलंकार-शास्त्र-संबंधी ग्रंथों में रास शब्द का उल्लेख है। वहाँ इसका लक्षण इस प्रकार दिया है

    षोडश द्वादशाष्टो वा यस्मिन् नृत्यन्ति नाप (वि) का:।

    पिंडी बन्धावि विन्यासै रासकं तदुवाहृतम्॥

    इस प्रकार 8, 12, 16 स्त्री-पुरुषों के मंडलाकार नर्तन को रासक कहा गया है। किंतु प्रश्न होता है कि रासक केवल नृत्त है या नृत्य या उसमें अभिनय का भी होना आवश्यक है? नाट्य नृत्त और नृत्य से भिन्न है। धनंजय ने अपने दशरूपक में तीनों पर विचार किया है। नृत्त में ताल-लय पर आश्रित पद-संचालनादि क्रियाएँ होती हैं (नृत्त ताललयाश्रयम्)। नृत्त में केवल मात्र-विक्षेप होता है, नृत्य में गात्र विक्षेप के साथ-साथ अनुकरण भी पाया जाता है, नृत्य में भाव-प्रदर्शन भी होता है (भावाश्रय नुत्यम्)। नृत्त और नृत्य से आगे नाट्य आता है। नृत्य और नाट्य में यह भेद है कि नृत्य केवल भावाश्रित होता है और नाट्य रसाश्रित। नृत्य में माहिर अभिनय का और नाट्य में वाचिक अभिनय का प्राधान्य होता है। नृत्य और नाट्य दोनों में अभिनय-साम्य होने पर भी नृत्य में पदार्थ-रूप अभिनय होता है और नाट्य में वाक्यार्थ-रूप अभिनय। नाट्य का लक्षण किया गया है अवस्था प्रकृति-नाट्यम् अर्थात् शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं के अनुकरण को नाट्य कहा जाता है। यह अनुकरण आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक चार प्रकार का होता है। इस प्रकार नाट्य में इन चारों प्रकार के अभिनयों के द्वारा सामाजिकों में रस का संचार किया जाता है।

    साहित्यदर्पणकार ने उपरूपकों का विभेद प्रदर्शित करते हुए नाट्य-रासक और रासक दोनों को विभिन्न उपरूपक माना है और दोनों के अलग-अलग लक्षण दिए हैं।

    इससे प्रतीत होता है हि विश्वनाथ के समय (11वीं शती) तक नाट्य-रासक और रासक उपरूपकों के एक भेद के रूप में स्वीकार किए जाने लगे थे। इस प्रकार इनमें केवल नृत्य ही होता था अपितु अभिनय भी किया जाता था। नृत्य और नाट्य दोनों का योग नाट्य-रास और रासक में होता था। नाट्य-रास और रासक दोनों एकांकी होते थे। नाट्य-रास में उदात्त-नायक और वासकसज्जा नायिका होती थी, रासक में कोई ख्यात नायिका किंतु मूर्ख नायक होता था और इसमें भाषा और विभाषा का अर्थात् प्राकृत और अशिक्षित एवं जन-साधारण से प्रयुक्त लोक-भाषा का प्राधान्य होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि लोक में जन-साधारण द्वारा किसी लोक-प्रचलित नायक को लेकर प्रदर्शित उपरूपक को अलंकारियों ने रासक का नाम दिया और शिक्षित

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    1. नाट्यरासकमेकाकं बहुताललयस्थिति॥

    उदात्तनायकं सद्वत्त् पीठमर्वोपनायक।

    हास्योऽङ्गपत्र श्रृंगारो नारी वासकसज्जिका॥

    मुखनिर्वहणे सन्धी लास्याङ्गानि दशापि च।

    केचित्प्रतिमुख संधिमिह नेच्छन्ति केवलं॥

    चौसभा संस्कृत सीरीज़ प्रकाशन पृष्ठ, परिच्छेद, 277-279।

    रासफ पंचपात्र स्याम्मुखनिर्वहणान्वितम्।

    भाषाविभाषाभूयिष्ठं भारतीकैशिकीयुतम्॥

    असूत्रधारमेकांक सवीथ्यंगं फलान्वितम्।

    श्लिष्टनान्दीयुतं र्ख्यातनायिकं मूर्खनायकम्॥

    उदात्तभावविग्याससंबित घोत्तरोत्तरम्।

    इह प्रतिमुख संधिमपि केचित्प्रचक्षते।।

    छ. 281-290

    एवं शास्त्र-प्रचलित नायक के आधार पर रचित उपरूपक को नाट्य-रास का नाम दिया।

    अलंकार-ग्रंथों के अतिरिक्त संस्कृत-साहित्य में भी रासक का निर्देश मिलता है। बाण ने अपने हर्षचरित में हर्षवर्धन की उत्पत्ति पर पुत्र-जन्मोत्सव के वर्णन में इस रासक शब्द का प्रयोग किया है। वहाँ रासक शब्द मंडलाकार नृत्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

    अपभ्रंश-साहित्य में भी रास और रासक के कुछ उल्लेख मिलते हैं। 'जबु सामि चरिउ' के कर्ता (वि. स. 1076) ने ग्रंथ के प्रारंभ में लिखा है :

    कविगुण रस रंजिय विउससह, वित्यारिय सुद्दय वीर कह।

    चच्चरि बंधि विरइउ सरसु, गाइज्जइ सतिउ तारु जसु।

    नच्चिज्जइ जिणपय सेवयहिं, किउ रासठ अंबा देवयहिं॥ 14

    यहाँ जिनपद-सेवकों द्वारा नृत्यपूर्वक गीयमान रास का निर्देश है। इस उद्धरण से एक और बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होना है। 'चच्चरि बधि' पद से प्रतीत होता है कि 'पद्धडिया बध' के समान 'चच्चरि बध' भी प्रयुक्त होता था। अर्थात् चच्चरि छंद में रचित रचना ही 'चच्चरि बध' कहलाती थी। विक्रमोर्वंशीय के चतुर्थ अंक में प्रयुक्त अनेक अपभ्रंश छंदों में चच्चरि के प्रयोग का पीछे निर्देश किया जा चुका है। श्रीचंद्र-रचित (वि. स. 1123) 'रत्न करण्ड शास्त्र' नामक अपभ्रंश ग्रंथ में एक स्थल पर अन्य छंदों के साथ चच्चरि, रासक और रास का उल्लेख किया गया है—

    छंदणियारणाल आवलयहिं, चच्चरि रासय रासहिं ललियहिं।

    वत्यु अवत्थु जाइ विसेसहिं, अडिल मडिल पद्धडिया अंसहिं॥ 123

    अपभ्रंश के अनेक छंद ग्रंथों में भी रासा जन्द का निर्देश मिलता है। इनसे प्रतीत होता है कि संभवत पहले चच्चरि और रास ग्रंथों में यही छंद पूर्णत या अधिकतः प्रयुक्त होता था पीछे से विषय और प्रकार की दृष्टि से चच्चरि और रास शब्द ग्रंथों के अर्थ में भी रूढ हो गए। अपभ्रंश के 'संदेश-रासक' नामक ग्रंथ में रासा (रासक) का, जिसे आभाणक भी कहा गया है, प्रचुरता से प्रयोग किया गया है।

    फ़ुटप्रिंट -

    1. शनैःशनैव्यंजन्मत क्वचिन्नृत्तानुचित चिरंतन शालीन कुलपुत्रक लोक लास्य प्रवित पार्थिवानुरागः... सपर्वत इव कुसुम राशिभिः, सघारागृह इव सीधृप्रपाभि... सावर्त इव रासकमंडलैः, ... सप्ररोह इव प्रसाददानैरुत्सयामोदः।

    हर्ष. च. चतुर्थ उच्छ्वास

    .

    रास शब्द का उल्लेख 'संदेश-रासक' में भी एक स्थल पर मिलता है। वहाँ कवि सामोरु-मूल स्थान-मुल्तान नामक नगर का रासा छंद में वर्णन करता हुआ कहता है

    कह ठाइ चउवेइहिं वेउ पयासियइ,

    कह बहुरूवि णिवद्वउ रासउ भासियइ॥ 43

    अर्थात् उस नगर में किसी स्थान पर चतुर्वेदियों द्वारा वेद प्रकाशित किया जा रहा है, कहीं चित्र-विचित्र वेशधारी बहुरूपियों द्वारा निबद्ध रासक का पाठ किया जा रहा है। यहाँ रासक शब्द के साथ यद्यपि 'भाष्' धातु का ही प्रयोग किया गया है तथापि 'बहुरूवि णिबद्धउ' वाक्यांश से रामनीनादिवत् प्रदर्शन का भी आभास मिलता है।

    संदेश-रासक का आरंभ और अंत मंगलाचरण से किया गया है -

    रयणायर घर गिरितरुवराई गयर्णगणमि रिक्खाई,

    जेणऽज सयल सिरियं सो बुहयण वो सिवं देउ॥1

    माणुस्सदिक्ष्त्र विमाहरेहि णहमग्नि सूर-ससि बिंबे।

    आएहिं जो णमिज्जइ तं णयरे णमह कत्तारं॥2

    ग्रंथ समाप्ति पर कवि कहता है

    जेल अचिंतिउ कज्जु तसु सिद्ध खणद्धि महंतु,

    तेम पढंत सुणतयह जपउ अणाइ अर्णतु॥ 223

    आदि और अंक के ये मंगलाचरण के पद्य रूपक और उपरूपक के अंतर्गत नांदी और भरत-वाक्य का आभास देते हैं।

    कथा-वस्तु में स्थान-स्थान पर सुंदर कथोपकथन भी दृष्टिगत होता है। उदाहरणार्थ -

    पहिउ भणइ पहि जत अमंगलु महम करि,

    रुयवि रुयवि पुणरुत्त वाह संवरिवि धरि।

    पहिय! होउ तुह इच्छ अज्ज सिज्मउ गमण,

    मइ रुत्रु, विरहणि घम लोयण सवणु॥ 109

    पथिक कहता है—(हे सुंदरि!) रो-रोकर, मार्ग में जाते हुए मेरा अमंगल मत करो, अपने इन आँसुओं को रोककर रखो।

    विरहिणी कहती है—हे पथिक! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, तुम्हारा आज गमन मिद्ध हो। मैं रोई नहीं, विरहाग्नि के धूमाधिक्य से आँखों में जल गया।

    संदेश-रासक में पात्रों की संख्या अधिक नहीं। उनकी वेशभूषा, सौंदर्य-चेष्टा अवस्थादि का निर्देश पद्यों द्वारा ही किया गया है। शब्द-योजना द्वारा वर्ण्य-वस्तु को साक्षात् चित्रवत् उपस्थित किया गया है। जैसे

    वयण णिसुणेवि मणमत्य सरवट्टिया,

    मयउसर मुक्कणं हरिणि उत्तठ्ठिया।

    मुक्क वीउन्ह नीसास उस संतिया,

    पढिय इय गाह णियणयणि वरसंतिया॥3

    अर्थात् पथिक के वचनों को सुनकर काम के बाण से बिद्ध वह विरहिणी शिकारी के बाण से विद्ध हरिणी के समान छटपटाने लगी। लंबे-लंबे उष्ण उच्छवास छोड़ने लगी। आहें भरते-भरते और आँखों से आँसू बरसाते हुए उसने यह गाथा पढ़ी।

    वातावरण को सजीवता प्रदान करने के लिए यथास्थान उद्यान-शोभा और विविध ऋतुओं का दृश्य भी पद्यों द्वारा अंकित किया गया है।

    इस प्रकार अपभ्रंश-काल में गद्य के विकसित होने के कारण जैसे अनेक अपभ्रंश-ग्रंथों में उपन्यास के तत्त्व सूक्ष्म रूप से दृष्टिगत होते हैं, वैसे ही संदेश-रासक में सूक्ष्म रूप से नाट्य-शास्त्र संबंधी कुछ तत्त्वों का आभास मिल जाता है और ये गद्य के विकास-काल में लिखित रूपकों के पूर्वरूप से प्रतीत होते हैं।

    संदेश-रासक के अतिरिक्त अन्य रास-ग्रंथ प्रायः राजस्थान में उपलब्ध हुए हैं। जैन-धर्मानुयायियों की अधिकांश जनता राजस्थान में रहती है अतः वहाँ इस प्रकार के रास-ग्रंथों का बाहुल्य से मिलना अस्वाभाविक नहीं।

    संदेश-रासक का समय विद्वानों ने 11वीं-13वीं शताब्दी के बीच निर्धारित किया है। संदेश रासक अद्दहमाण (अब्दुल रहमान) नामक मुसलमान जुलाहे का लिखा काव्य है। संदेश-रासक के अतिरिक्त जिनदत्त सूरि कृत 'उपदेश रसायन रास' नामक रास भी उपलब्ध है। जिनदत सूरि वि. स. 1132 में उत्पन्न हुए थे।

    'उपदेश रसायन रास' 80 पद्यों की एक छोटी-सी कृति है। इस का आरंभ भी मंगलाचरण से होता है। 'कृति के जल को जो कर्णांजलि से पान करते हैं वे अजरामर होते हैं’ इस वाक्य से मंगलकामना-पूर्वक कृति समाप्त होती है। रास में कवि ने गृहस्थोचित नाना धार्मिक कृत्यों का उल्लेख किया है।

    'गय सुकुमार रास' की रचना वि. स. 1300 के आस-पास मानी जाती है। इसमें वसुदेव की पत्नी देवकी जी कृष्ण के समान गुण-रूप-निधान एक और पुत्र की कामना करती हैं। इनकी अभिलाषा के पूर्ण होने का वर्णन इसमें किया गया है।

    उपरिनिर्दिष्ट रासों के अतिरिक्त राजस्थानी से प्रभावित अनेक रास-ग्रंथ उपलब्ध हैं।

    शालिभद्र सूरि-रचित—'भरत बाहुबलि रास' की रचना वि. स. 1241 में हुई। यह वीररस-प्रधान रास-ग्रंथ है। इसमें पुष्पदंत के महापुराण में वर्णित कथा के आधार पर ऋषभ के पुत्र भरत और उसके छोटे भाई बाहुबली के युद्ध का वर्णन है।

    धर्मसूरि ने वि. स. 1266 में जबू स्वामी के चरित के कथानक के आधार पर 'जबू स्वामि रासु' की रचना की थी। विजयसेन सूरि ने वि. स. 1288 में ‘रेवत गिरि रास' की रचना की। इसमें सोरठ देश में रेवत गिरि पर नेमिनाथ की प्रतिष्ठा के कारण रेवत गिरि की प्रशंसा और नेमिनाथ की स्तुति की गई है।

    अबदेव (वि. स. 1371) रचित 'समरारासु' में सघपति देसल के पुत्र समर सिंह की दानवीरता का वर्णन किया गया है। उसी वर्ष इसने शत्रु जय तीर्थ का उद्धार किया। तीर्थ का भी सुंदर भाषा में वर्णन मिलता है।

    रास-ग्रंथों के इस संक्षिप्त विवरण से प्रतीत होता है कि विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से रास-ग्रंथों में धार्मिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, नैतिक, लौकिक आदि सभी विषयों का वर्णन होता था। जैन मंदिरों में प्राय धार्मिक रासों का ही गान और नृत्य-पूर्वक पाठ एवं प्रदर्शन होता था।

    उपरिनिर्दिष्ट रासों के अतिरिक्त ताला-रास और लकुट-रास का भी निदश 'उपदेश रसायन रास' में मिलता है

    उचिय थुत्ति-थुयपाढ पढिज्जहिं,

    जे सिद्ध तिहिं सहु सधिज्जहिं।

    तालारासु विदिंति रयणिहिं,

    दिवसि वि लउडारासु सहुं पुरिसिंहिं॥ 36

    तालियों के ताल और लकड़ी की डंडियों के साथ गाए जाने वाले रास—ताला-रास और लकुट-रास—कहलाते हैं। लकुट रास तो गुजराती ‘गर्बा' से बहुत मिलता-जुलता है।

    डॉ. दशरथ ओझा ने 'हिंदी-नाटक उद्भव और विकास' नामक अपने प्रबंध में रास-ग्रंथों का विशद विवेचन किया है। उनकी सम्मति में 'गय-सुकुमार रास' हिंदी-साहित्य का प्रथम नाटक है। उनका अभिप्राय यह है कि इन रास-ग्रंथों से ही आगे चलकर हिंदी-नाटकों का विकास हुआ।

    उपरिलिखित रास-ग्रंथों के विवेचन का सारांश यह है कि 11वीं से 14वीं शताब्दी तक प्राप्त अनेक अपभ्रंश रासक एवं रास-ग्रंथ लोक-नाट्य के लिए उत्सवों एवं मंदिरों में किए जाते थे। साधारण जनता इन्हीं से मनोविनोद करती थी, किंतु शिष्ट समाज में संस्कृत-नाट्य किए जाते थे और उनका प्रचार भी अभी तक चल रहा था। इन रास-ग्रंथों में यद्यपि उत्तरकालीन नाटकों के नाट्य-तत्त्वों का सूक्ष्म रूप से आभास मिल जाता है तथापि इन रासों के पद्य रूप में होने के कारण वे तत्व पूर्णरूप से विकसित हो सके थे। इन रासों में दृश्यत्व पूर्ण रूप से दृष्टिगत नहीं होता। नृत्य और संगीत का ही प्राधान्य था ऐसा प्रतीत होता है। संदेश-रासक के कर्ता ने अपने ग्रंथ को मध्यवर्ग के सन्मुख बार-बार पढ़ने का निर्देश किया है। ग्रंथ की समाप्ति पर भी लेखक ने इसके पढ़ने और सुनने का ही निर्देश किया है। 'उपदेश रसायन रास' में भी कवि ने कृति के जल को कर्णामृत से पान करने वालों के लिए अजरामरत्व की मंगल-कामना की है। 'समरारास' में भी इसके पढ़ने की ओर संकेत किया गया है। क्रमशः इन रासों में श्रव्यत्व के स्थान पर दृश्यत्व का भी प्रचार होने लगा और इनके रूपक तत्त्व उत्तरोत्तर अधिक स्पष्ट होने लगे।

    फ़ुटप्रिंट

    1. जिण मुक्ख पंडिय मझयार,

    तिह पुरज पढिन्वउ सम्म वार ॥२१

    2. अधितिउ कज्ज़ तसु सिद्ध सरादि महतु,

    तेम पत सुर्णतयह जयउ प्रणाइ प्रएंतु ॥२२३3.

    3. एह रासु जो पहई गुणाई नाघिउ जिणहरि देई

    हिंदी नाटक का उद्भव

    डॉ. वीरेंद्र कुमार शुक्ल

    नाना भावोपसंपन्नं नानावस्थांतरात्मकम्।

    लोक वृत्तानुकरणं नाट्यमे तन्मया कृतम्॥ (नाट्य-शास्त्र 1।109)

    नाटक लोक-वृत्ति का अनुसरण है। भारतीय नाट्य-शास्त्र के प्रथम आचार्य भरत मुनि ने अपने कथन में इसकी पुष्टि की है। किसी किसी परंपरागत अथवा कल्पित कथा की अनुकृति नाटक में प्रदर्शित की जाती है। साहित्य लोक-जीवन के कार्यकलापों में ही नाटक का उद्भव खोजता है। आदियुग से नाटकों के उद्गम का क्रमबद्ध इतिहास चला रहा है। भारतीय संस्कृति के इतिहास का आविर्भाव वैदिक काल से है। नाटक की उत्पत्ति के विषय में लोक-प्रचलित प्राचीन किंवदन्तियाँ भी हैं। देवराज इंद्र ने वेदों के रचयिता ब्रह्मा से जन-साधारण के मनोरंजनार्थ एक ग्रंथ की रचना करने की प्रार्थना की जिससे कि सर्वसाधारण का मनोरंजन हो सके। ब्रह्मा ने पाठ्य सामग्री ऋग्वेद से, गीत सामवेद से, अभिनय यजुर्वेद से एवं रस-तत्त्व अथर्ववेद से लेकर एक पंचम वेद की रचना की जिसे नाट्यवेद कहते हैं। इसका सूत्रधार भरत मुनि को बनाकर नाट्याभिनय के कार्य-संचालन का भार इन्हें सौंपा। नाट्य की उत्पत्ति की प्रथम किंवदन्ती के रूप में यह कथा व्यापक रूप से प्रचलित है।

    भारतीय साहित्य की प्राय सभी साहित्यिक प्रेरणाओं का सूत्र वेदों में है। नाटकों की उत्पत्ति का आरंभिक विकासमान स्वरूप वेदों में विद्यमान है। संवादो की परंपरा का उद्भव वेंदो में दिखाई देता है। ऋग्वेद में 'संवाद सूत्र' विद्यमान हैं। उनमें नाटकीय प्रयोजन की प्रथम भूमिका उपस्थित प्रतीत होती है। ऋग्वेद में संवाद तथा स्वगत-कथन उपस्थित हैं। उदाहरण के रूप में संवाद-सूक्तों में क्रमशः यम तथा यमी, पुरुरवा और उर्वशी, अगस्त्य और लोपामुद्रा, इंद्र सवाक्

    1 जग्राह पाठ्य ऋग्वेवात्सामन्यो गीतमेंव च।

    यजुर्वेदादभिनयारसानायर्वणावपि ॥17॥

    वेदोपवेदैः सबद्धो नाट्यवेदो महात्मना

    एवं भगवता सृष्टो ब्रह्मणा सर्ववेविना (1) ॥18॥

    ऋग्वेद-मडल 10,10,18

    (नाट्य-शास्त्र, प्रथम अध्याय)

    आदि का कथोपकथन मिलता है। स्वगत कथनों में इंद्र अथवा सोमरस से छके हुए व्यक्ति का स्वगत कथन विद्यमान है। वस्तुतः यह मानना नि ‘संवाद सूक्त वैदिककालीन रहस्यात्मक नाटकों के अवशिष्ट चिन्ह हैं’ युक्तिसंगत होगा।

    नाटक के उदगम संबंध में पाश्चात्य विद्वानों के दो मत हैं। एक वर्ग भारतीय नाट्य का उद्भव धार्मिक कार्य-कलापों से प्रेरित मानता है परंतु दूसरा उसका उदय लौकिक और सामाजिक कृत्यों द्वारा मानता है। प्रो. मैक्ममुलर, लेवी तथा डॉक्टर हर्तेल आदि आचायों का मत है कि नाटक का उदय वैदिक ऋचाओं के गान से हुआ है। यज्ञों के अवसर पर ये ऋचाएँ समवेत म्यर में गाई जाती थीं, जिनके बीच कथोपकथन भी आते थे। नाटकीय संवादों की प्रेरणा संभवतः इन्हीं कथोपकथन युक्त ऋचाओं से मिलती है।

    अभिनय का स्वरूप नृत्त और नृत्य में विद्यमान प्रतीत होता है। नृत्त में ताल-स्वर के अनुसार पद-संचालन का भाव प्रदर्शित किया जाता है। उसका भाव-निरूपण पद चालन की गति पर निर्भर है। नृत्य के भावों में अभिनयमूलक प्रेरणा स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। नृत्य में भाव बनाकर मूक-इंगितों में अवयवों का परिचालन किया जाता है। नृत्त तथा नृत्य की प्रेरणा का उदय शंकर तथा पार्वती के तांडव तथा लास्य से माना गया है। पाश्चात्य विद्वानों में डॉ. रिजवे नाटक का उदय वीर-पूजा से मानते हैं। यह मन पाश्चात्य नाट्य के लिए उपयुक्त हो सकता है परंतु पीरिय नाट्योद्भव के लिए युक्ति-संगत नहीं है।

    महाकाव्य-काल में वात्मीकीय रामायण में नटों तथा नर्तकों का उल्लेख आया है। महाभारत काल में काष्ठ-पुतलिका के प्रयोग का उल्लेख मिलता है। विशेल ने इन्हीं उल्लेखों के आधार पर नाटक की प्रारंभिक अथवा कठपुतलियों के नाच तथा उनके द्वारा किए हाव-भाव पर आधारित की है। यद्यपि प्राचीन भारतीय साहित्य में कठपुतलियों के प्रचलन का उल्लेख तो मिलता है परंतु यह प्रामाणिक रूप में नहीं कहा जा सकता बताया कि अभिनय का आरंभ इन्हीं की प्रेरणा का फल है। यद्यपि नाटकों में आने वाले सूत्रधार में उपयुक्त कथन की कुछ सार्थकता का भान होता है। प्रो. कीथ ने भी उपर्युक्त कथन पर अपना मंतव्य अपनी पुस्तक 'मेलो ड्रामा' में दिया है। उन्होंने छाया-नाटकों के उल्लेख में पुतलियों के प्रचलन को आधार माना है।

    कामसूत्र के द्वितीय शाक में बारयापम ने नटों द्वारा प्रस्तुत मनोरंजन का उल्लेख किया है। उनके वर्णन में 'कुशीलवों’ द्वारा सामाजिक उत्सवों में प्रदर्शित कौतुक-क्रीडा का वर्णन है। पाणिनि के नट-सूत्रों में भी नाट्य-बोध की गरिमा है। अतः वैदिक काल से विक्रम के समय तक अनेक रूपों में बिखरे हुए नाटक के परिवर्तित तथा परिवर्धित रूप मिलते हैं।

    भारतीय नाट्य-साहित्य की रूपरेखा संस्कृत नाटकों में विद्यमान है। ईसा की प्रथम शताब्दी के अंतिम चरण तथा द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्घ में संस्कृत-साहित्य के प्रथम नाट्यकार अश्वघोष का रचनाकाल प्रमाणित किया गया है। इनके 'सारि-पुत्र' प्रकरण में नाटकीय अवयवों की व्यवस्थित रूपरेखा है। संस्कृत नाट्य-साहित्य के प्रमुख नाटककार अश्वघोष, भास, शूद्रक, श्रीहर्ष, विशाखदत्त, राजशेखर, कालिदास, भवभूति, क्षेमीश्वर, भट्टनारायण, मुरारि, श्रीदामोदर मिश्र तथा जयदेव आदि हैं। संस्कृत नाट्य-साहित्य में पौराणिक तथा सामाजिक आख्यायिकाओं के वर्णमय चित्र हैं। ईसा की प्रथम शताब्दी के अंतिम चरण से बारहवीं शताब्दी तक संस्कृत नाट्य-साहित्य का विकास हुआ है। संस्कृत के नाटक प्रसादांतक नीड पर विश्राम करते प्रतीत होते हैं। फलप्राप्ति की कल्पना हर्षातिरेक की भावना लेकर चलती है। मनोरंजन में भी मानव हर्ष तथा आह्लाद पाकर सुखानुभूति प्राप्त करता है अतः इसी विचारधारा से प्रेरित संस्कृत के नाटक सुखांतक रखे गए हैं। पाश्चात्य त्रासदी का संस्कृत नाट्य-साहित्य में अभाव है। नाटकों में नाट्यशास्त्रानुसार सैद्धांतिक मर्यादाओं का पालन किया गया है। नाटक के विभिन्न अवयवों में कथा-वस्तु कथोपकथन, पात्र तथा रस सभी विद्यमान प्रतीत होते हैं। संवादों में गद्य तथा पद्य शैली दोनों ही विद्यमान हैं। संस्कृत नाट्यकारों ने बड़ा ही प्रौढ़ तथा सुसंस्कृत साहित्य विश्व नाट्य-साहित्य के सम्मुख रखा है। अपनी अनूठी-कल्पना शक्ति और विलक्षण नाट्य-नैपुण्य के कारण संस्कृत के नाट्यकार एक परंपरा-सी बना गए हैं। हिंदी के आरंभिक नाट्यकारों ने उन्हीं का अनुकरण किया है।

    हिंदी नाट्य-साहित्य को वास्तविक प्रेरणा संस्कृत नाट्य-साहित्य से प्राप्त हुई है। हिंदी के आरंभिक नाटक संस्कृत-नाटकों के अनुवादों के रूप में उपस्थित हुए हैं। हिंदी नाट्य-साहित्य को सर्वप्रथम संस्कृत-नाटक के पद्यात्मक संवादी ने आकृष्ट किया था। वस्तुतः यह कहना उपयुक्त है कि हिंदी नाटक का उदय संस्कृत के नाटकीय काव्य (Dramatic Poetry) से हुआ था। प्रारंभिक रचनाओं में से हनुमन्नाटक तथा समयसार आदि इसी कोटि की रचनाएँ हैं। रचना-क्रम

    फ़ुटप्रिंट

    1. अश्वघोषस्तथा भास शूद्रकश्चापि भूपति। कालिदासश्च विचनागो नृपति हर्षवर्धनः।

    भवभूतिर्विशाखश्च भट्टनारायणस्तथा। मुरारि शक्तिभद्रश्च पुनः श्रीराजशेखरः॥

    क्षेमीश्वरश्च मिश्रौच कृष्ण दामोदरा वुभो। जयदेवश्च वासश्च ख्याता नाट्यकारकाः।

    के अनुसार प्रबोध-चंद्रोदय हिंदी-साहित्य का सर्वप्रथम नाटक है। इसका अनुवाद जोधपुर-नरेश महाराज जसवंतसिंह ने संस्कृत के मूल नाटक प्रबोध-चंद्रोदय से किया था। हिंदी नाटक के उदय-काल में भाषा का स्वरूप पद्य तथा गद्य मिश्रित ब्रजभाषा था। संस्कृत नाटकों के आधार पर उनके अनुवादों में यथास्थान गद्य तथा पद्य संवाद प्रस्तुत किए जाते थे। उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम ब्रजभाषा ही थी। हिंदी के आरंभिक नाट्यकारों ने अपने अनूदित नाटकों में मूल नाटकों का अक्षरण अनुवाद करने का प्रयास किया है।

    सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आनंद रघुनंदन नाटक रीवा-नरेश विश्वनाथ सिंहजू द्वारा प्रस्तुत किया गया। यह नाटक हिंदी नाटक-साहित्य का प्रथम मौलिक नाटक माना जाता है। प्रस्तुत नाटककार ने भी प्रचलित रचना-शैली के अनुसार इसकी भाषा गद्य तथा पद्य मिश्रित ब्रजभाषा रखी है। तदुपरांत उपर्युक्त नाटककार द्वारा गीत रघुनंदन की रचना की गई। आदिकाल के नाटक केवल संस्कृत-नाटकों के अनुवाद मात्र ही रहे हैं, परंतु कालांतर में हिंदी नाटक दो विशिष्ट वर्गों में विभक्त हो गया। अनूदित तथा मौलिक नाटकों का प्रचलन हिंदी नाट्य-साहित्य में अपनाया गया। यह परंपरा चिरकाल तक हिंदी नाट्य-साहित्य का अंग बनी रही। हिंदी नाटक के आरंभिक विकास-काल में इन्हीं मनोवृत्तियों का प्रभाव दृष्टिगत होता है।

    हिंदी नाट्य-साहित्य में संस्कृत नाट्य-प्रणाली की प्रतिच्छाया लिए हुए नाटकों की रचना हुई है, प्रायः उनका मूलाधार धार्मिक आख्यानों की कथा-वस्तु रही है। हिंदी साहित्य का आदि युग वीरगाथा काल से आरंभ होता है। इस युग में वीर नर-पुगयो की गाथा पद्यमय वर्ण-चित्रों में उपस्थित की गई थी। इन्हीं वीर-गाथाओं का काव्य-वर्णन पद्यमय कथोपकथनों के रूप में भी प्रस्तुत किया गया था। कथोपकथन नाट्य-साहित्य का विशिष्ट अंग है। वस्तुतः यह पद्यमय कथोपकथन भी हिंदी नाट्य-साहित्य के प्रोत्साह्न का कारण रहा है। अतः कहा जा सकता है कि

    काव्य का यह स्वरूप नाट्योद्भव का प्रेरक है।

    यह सर्वमान्य तथ्य है कि पूर्व-भारतेंदु-काल से भारतेंदु-युग तक नाट्यकारों की प्रवृत्ति संस्कृत नाट्य-साहित्य तथा पौराणिक आख्यायिकाओं को भाषांतर रूप देकर हिंदी नाट्य-साहित्य की परंपरा का आविर्भाव करना ही रहा है। मौलिक नाटकों का अभाव इस काल में भटकने वाली वस्तु थी, यद्यपि मौलिक नाटकों की रचना कालांतर में अवश्य हुई है जिसका इस युग के साहित्य में नगण्य स्थान है। नाटककारों की मूल प्रवृत्ति अनुवादों की ही ओर थी। आरंभ के मौलिक नाटक अधिकांश पद्यमय ही थे। प्राणचंद चौहान कृत 'रामायण महानाटक', रघुराम नागर कृत 'सभासार', लच्छीराम कृत 'करूणाभरण' आदि को मौलिक रचनाओं की कोटि में रखा जा सकता है। इस युग के नाटकों का निर्माण-काल भक्ति और रीतिकाल के बीच का युग है। सम-सामयिक वातावरण के प्रभाव से इस युग की रचनाएँ अछूती नहीं रह सकी हैं। पौराणिक गाथाओं में श्रृंगारिक भावना का प्रयोग इस युग की मूल मनोवृत्ति प्रतीत होती है। इस युग के नाटककारों ने प्रेम-व्यापार के साथ वीररस की अभिव्यक्ति से कथानकों को अनुप्राणित किया है। उपर्युक्त शैली का प्रयोग संस्कृत नाट्य-साहित्य में पूर्व ही विद्यमान था। हिंदी नाटकों में भी उसका अनुसरण किया गया था।

    सत्रहवीं शताब्दी में संस्कृत नाट्य-साहित्य से प्रभावित पद्यमय हिंदी नाटक का आविर्भाव हुआ था। आगे चलकर आलोच्य-काल में हिंदी नाट्य-प्रवाह दो प्रमुख धाराओं में विभक्त हो गया। इनका वर्गीकरण निम्न प्रकार से करना उपयुक्त होगा। सर्वप्रथम साहित्यिक नाटकों का उदय तथा विकास हुआ, जिसने आगे चलकर हिंदी साहित्य के अक्षय भांडार की अभिवृद्धि की है। परंतु युग का साहित्यकार अपने समुचित प्रसाधनों में ही सीमित रह सका। वह रूपक के दृश्य-काव्यत्व की सार्थकता का उपयोग करना चाहता था। वैदिक युग में ही भरत मुनि द्वारा रंगमंच की उपयोगिता का महत्व बताया गया था। संस्कृत साहित्य के नाटक भी अपने काल में रंगमंच के हेतु प्रयोग में लाए गए थे। इस युग में साहित्यिक नाटक इतने परिष्कृत थे कि उनका प्रयोग रंगमंच पर सरलता से किया जा सके। पद्यमय संवाद अथवा वर्णनात्मक लंबे गद्यात्मक कथोपकथन बाधा के रूप में उपस्थित हो जाते थे। नाटक के उपाग के रूप में जन नाट्य रंगमंच पर प्रयुक्त किया गया, धीरे-धीरे इसी अभिनय-मूलक रंगमंच ने अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया। यद्यपि यह प्रश्न युक्तिसंगत है कि रंगमंचीय नाटकों को साहित्यिक-नाटकों से पृथक् क्यों रखा जाए, जबकि उनका अस्तित्त्व साहित्यिक नाटकों से भिन्न जान पड़ता है परंतु स्मरण रहे कि नाटक दृश्य-काव्य है और अभिनेय होना उसका आवश्यक लक्षण है। इस दृष्टिकोण से आदर्श कहे जाने वाले नाटक तो उसी वर्ग के कहे जाएँगे जिनमें साहित्य के साथ-साथ अभिनेय गुण भी होगा, रंगमंचीय नाटकों को साहित्य से पृथक नहीं किया जा सकता है, वे भी नाट्य-सिद्धांत के एक मुख्य अंश के प्रतिनिधि हैं।

    जन-नाट्य को रंगमंचीय प्रेरणा चैतन्य महाप्रभु के कीर्तन संप्रदाय तथा महाप्रभु वल्लभाचार्य की भक्ति-भावना से मिली। रासलीला, यात्रा तथा रामलीला के स्वरूप रंगमंचीय प्रयोजन की परितुष्टि करते प्रतीत होते थे। हिंदी से संबंध रखने वाले मनोरंजनों में संभवतः रास-लीला सबसे प्राचीन है। भगवत चर्चा के साथ-साथ यह मनोरंजन का भी सुलभ साधन था। हिंदी रंगमंच भी साहित्यिक नाटकों के अनुरूप ही मनोवृत्तियों का पोषक रहा है। पौराणिक वृत्तों को ही लीला का स्वरूप दिया गया, रास में कृष्ण-लीला तथा राम-लीला में रामकथा वर्णित तथा अभिनीत की जाती थी जिस परंपरा का निर्वाह आज भी होना है। रंगमंच-नाट्य की परंपरा अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के विकास संबंध की आवश्यक श्रृंखला प्रस्तुत करती है।

    यह सर्वमान्य तथ्य है कि नाट्य लोक का अनुकरण है, अतएव लोक में जो कुछ हे उसकी छाया नाटकों से प्रदर्शित की जाती है। साहित्य, वास्तुकला, चित्र-कला, संगीत-नृत्यादि, ज्ञान-विज्ञान सभी कुछ नाटक में यथास्थान प्रयुक्त हो सकते हैं। नाटक की उद्भावना इसी अभिप्राय से प्रेरित है। हिंदी के नाटकों में भी उन्हीं संस्कारों की छाप विद्यमान है जो उसे प्राचीन भारतीय नाट्य साहित्य से प्राप्त हुए हैं। हिंदी नाटकों का उद्भव प्राचीन भारतीय नाट्य परंपरा से है जिसकी देन प्रौढ़ संस्कृत नाट्य-साहित्य है। हिंदी का नाटक आरंभ में संस्कृत नाट्य-साहित्य से पूर्ण प्रभावित था तथा संस्कृत साहित्य के नाट्यकारों ने यह मार्ग प्रदर्शित किया होता तो संभवतः हिंदी के नाट्य-साहित्य का लोप हो गया होता और हिंदी के साहित्यकारों में साहित्य के इस अंग की कल्पना भी उत्पन्न हुई होती।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय नाट्य साहित्य (पृष्ठ 246)
    • संपादक : नगेन्द्र
    • रचनाकार : हरिवंश कोछड़
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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