अपभ्रंश-भाषा का समय भाषा-विज्ञान के आचार्यों ने 500 ई. से 1000 ई. तक बताया है किंतु इस का साहित्य हमें लगभग 8वीं शती से मिलना प्रारंभ होता है। प्राप्त अपभ्रंश-साहित्य में स्वयंभू सबसे पूर्व हमारे सामने आते हैं। अपभ्रंश-साहित्य का समृद्ध युग 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक है। इसी काल है स्वयंभू, पुष्पदंत, धवल, धनपाल, नयनन्दी, कनकामर, धाहिल इत्यादि अनेक प्रभावशाली अपभ्रंश-कवि हुए।
जैनों द्वारा लिखे गए महापुराण, पुराण, चरिउ आदि ग्रन्थों में, बौद्ध सिद्धों द्वारा लिखित स्वतंत्र पदों, गीतों और दोहो में, कुमारपाल-प्रतिबोध, विक्रमोवंशीय, प्रबंध-चिंतामणि आदि संस्कृत एवं प्राकृत ग्रन्थों में जहाँ-तहाँ कुछ स्फुट पद्यों में और वैयाकरणों द्वारा अपने व्याकरण-ग्रंथों में उदाहरणार्थ दिए गए अनेक फुटकर पद्यों के रूप में हमें अपभ्रंश-साहित्य प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त विद्यापति की कीर्तिलता और अब्दुलरहमान के संदेश-रासक आदि ग्रंथों में अपभ्रंश-साहित्य उपलब्ध है।
जिस प्रकार जैनाचार्यों ने संस्कृत-वाङ्मय में अनेक काव्य, पुराण-ग्रंथ, कलात्मक एवं रूपक-काव्यादि ग्रंथों का निर्माण किया इसी प्रकार उन्होंने अपभ्रंश-भाषा में भी इस प्रकार के ग्रंथों का प्रणयन कर अपभ्रंश-साहित्य को समृद्ध किया।
जैनियों के अपभ्रंश को अपनाने का कारण यह था कि जैन पंडितों ने अधिकांश ग्रंथ प्रायः श्रावकों के अनुरोध से लिखे। ये श्रावक तत्कालीन बोलचाल की भाषा से अधिक परिचित होते थे अतः जैनाचार्यों एवं भट्टारकों द्वारा श्रावकगण के अनुरोध पर जो साहित्य लिखा गया वह तत्कालीन प्रचलित अपभ्रंश में ही लिखा गया। जैसे बौद्धों ने तत्कालीन प्रचलित पाली को अपने प्रचारार्थ अपनाया, इसी प्रकार जैन विद्वानों ने तत्कालीन प्रचलित अपभ्रंश-भाषा को अपने विचारों का माध्यम बनाना अभीष्ट समझा। जैन, बौध और इतर हिंदुओं के अतिरिक्त मुसलमानों ने भी अपभ्रंश में पैन्य-रचना की। संदेश-रासक का लेखक अब्दुलरहमान इसका प्रमाण है।
जैन कवियों ने किसी राजा, राजमंत्री या गृहस्थ की प्रेरणा से काव्य-रचना की अतः इनकी कृतियों में उन्हीं की कल्याण-कामना के लिए किसी यज्ञ के माहात्म्य का प्रतिपादन या किसी महापुरुष के चरित का व्याख्यान किया गया है। राजाश्रय में रहते हुए भी इन्हें धन की इच्छा न थी क्योंकि ये लोग अधिकतर निष्काम पुरुष थे और न इन कवियों ने अपने आश्रयदाता के मिथ्या-वंश का वर्णन करने के लिए या किसी प्रकार की चाटुकारी के लिए कुछ लिखा। इन जन कवियों ने अपने मत का प्रचार करने की दृष्टि से भी कुछ काव्यों का निर्माण किया। बौद्ध सिद्धों की कविता का विषय अध्यात्मपरक होने के कारण उपरिलिखित विषयों से भिन्न है। अपनी महत्ता के प्रतिपादन के लिए प्राचीन रूढ़ियों का खंडन, गुरु की महिमा का गान, रहस्यवाद आदि ही इनकी कविता के मुख्य विषय रहे। अपभ्रंश-साहित्य की पृष्ठभूमि प्रायः धर्म-प्रचार है। जैन कवि प्रथम प्रचारक हैं फ़िर कवि।
अपभ्रंश-साहित्य में हमें महापुराण, पुराण और चरित-काव्यों के अतिरिक्त रूपक काव्य, कलात्मक ग्रंथ, संधि-काव्य, रास, स्तोत्र आदि भी उपलब्ध होते हैं। अपभ्रंश कवियों का लक्ष्य जन-साधारण के हृदय तक पहुँचकर उनको सदाचार की दृष्टि में ऊँचा उठाना था। इन कवियों ने शिक्षित और पंडित-वर्ग के लिए ही न लिखकर अशिक्षित और साधारण वर्ग के लिए भी लिखा। अपरिनिर्दिष्ट अपभ्रंश ग्रंथो के अतिरिक्त चूनरी, चचंरी, कुलकादि नामांकित कुछ अपभ्रंश ग्रंथ भी मिले हैं।
अपभ्रंश-साहित्य के जिन भी ग्रंथों का ऊपर निर्देश किया गया है वे सब अपभ्रंशों के महाकाव्य, खंडकाव्य और मुक्तक काव्य के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इन ग्रंथों में अनेक काव्यात्मक सुंदर स्थल दृष्टिगत होते हैं।
उपरिलिखित विषयों के अतिरिक्त अपभ्रंश में अनेक उपदेशात्मक ग्रंथ भी मिलते हैं। इनमें काव्य की अपेक्षा धार्मिक-उपदेश भावना प्रधान है। काव्य-रस गौण है, धर्म-भाव प्रधान। इस प्रकार की उपदेशात्मक कृतियाँ अधिकतर जैन धर्म के उपदेशकों की ही लिखी हुई है। इनमें से कुछ में आध्यात्मिक तत्त्व प्रधान है कुछ में लौकिक-उपदेश तत्व।
जैन-धर्म संबंधी उपदेशात्मक रचनाओं के समान बौद्ध सिद्धों की भी कुछ फुटकर रचनाएँ मिलती हैं जिनमें वज्रयान और सहजयान के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। इन धार्मिक कृतियों का भाषा की दृष्टि से उतना महत्त्व नहीं जितना भाव-धारा की दृष्टि से।
अपभ्रंश-साहित्य अधिकांश धार्मिक आवरण से आवृत है। माला के तंतु के समान सब प्रकार की रचनाएँ धर्मसूत्र से ग्रथित हैं। अपभ्रंश कवियों का लक्ष्य था एक धर्म-प्रवण समाज की रचना। पुराण, चरित, कथात्मक कृतियों, रासादि सभी प्रकार की रचनाओं में वही भाव दृष्टिगत होता है। कोई प्रेम कथा हो चाहे साहसिक कथा, किसी का चरित-वर्णन हो चाहे कोई और विषय सर्वत्र धर्म-तत्त्व अनुस्यूत है मानो धर्म इन लेखकों का प्राण था और धर्म ही इनकी आत्मा।
राजशेखर (10वीं शताब्दी) ने राजसभा में संस्कृत और प्राकृत कवियों के साथ अपभ्रंश-कवियों के बैठने की योजना भी बताई है। इससे स्पष्ट होता है उस समय अपभ्रंश कविता भी राज-सभा में आहत होती थी। उसी प्रकरण में भिन्न-भिन्न कवियों के बैठने की व्यवस्था बताते हुए राजशेखकर ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश कवियों के साथ बैठने वालों का भी निर्देश किया है। अपभ्रंश कवियों के साथ बैठने वाले चित्रकार, जौहरी, सुनार, बढ़ई आदि समाज के मध्यम कोटि के मनुष्य होते थे। इससे प्रतीत होता है कि संस्कृत कुछ थोड़े से पंडितों की भाषा थी, प्राकृत जानने वालों का क्षेत्र अपेक्षाकृत बड़ा था। अपभ्रंश जानने वालों का क्षेत्र और भी अधिक विस्तृत था एवं अपभ्रंश का संबंध जन-साधारण के साथ था। राजा के परिचारक-वर्ग का 'अपभ्रंश भाषण प्रवण' होना भी इसी बात की ओर संकेत करता है।
श्री मुनि जिनविजय जी द्वारा संपादित 'पुरातन प्रबंध संग्रह' नामक ग्रंथ में स्थान-स्थान पर अनेक अपभ्रंश पद्य मिलते हैं। इस ग्रंथ से प्रतीत होता है कि अनेक राज-सभाओं में अपभ्रंश का आदर चिरकाल तक बना रहा। राजा भोज या उनके पूर्ववर्ती राजा अपभ्रंश कविताओं का सम्मान ही नहीं करते थे, स्वयं भी अपभ्रंश में कविता लिखते थे। राजा भोज से पूर्व गुज की सुंदर अपभ्रंश-कविताएँ मिलती हैं।
इस विवेचन से हमारा अभिप्राय अपभ्रंश-साहित्य की आलोचना प्रस्तुत करना नहीं। हमारा इतना ही निवेदन है कि अपभ्रंश साहित्य पर्याप्त समृद्ध था और पूर्ण रूप से आदृत था। जैन विद्वानों ने अनेक काव्य आख्यायिका, चंपू, नाटकादि ग्रंथों का यद्यपि संस्कृत भाषा में निर्माण किया किंतु अपभ्रंश में नाना काव्यादि के उपलब्ध होने पर भी कोई नाटक उपलब्ध नहीं हुआ।
जो भी अपभ्रंश-साहित्य अद्यावधि प्रकाश में आ सका है वह अधिकांश जैन-भांडारों से उपलब्ध हुआ है। जैन-मंदिरों में मंदिर के साथ एक पुस्तकालय भी संलग्न होता था। मंदिर में जाकर प्रतिमा-पूजनादि के साथ-साथ जैनी लोग यहाँ ग्रंथों का स्वाध्याय भी करते थे। किसी ग्रंथ की हस्त-लिखित प्रतिलिपि कर या करवाकर अन्य धायकों के लाभार्थ मंदिर में रखवा देना एक धार्मिक कृत्य समझा जाता था। फलतः मंदिरों में पर्याप्त ग्रंथों का संग्रह हो गया। अभी तक अनेक जैन-भंडारों के ग्रंथों का सम्यक् निरीक्षण, वर्गीकरण एवं अनुशीलन नहीं हो सका है। प्रचुर साहित्य अभी तक वहाँ प्रच्छन्न पड़ा है। ऐसी अवस्था में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि अपभ्रंश-साहित्य में नाटकों का सर्वथा अभाव है। हो सकता है कि नवीन अनुसंधान के परिणाम-स्वरूप अतीत के गर्भ में लीन कोई अपभ्रंश-नाटक प्रकाश में आ सके। जैन भंडारों की अधिकांश ग्रंथ राशि प्रायः धर्म-प्रधान है। अतः ऐसा भी संभव है कि अपभ्रंश में नाटक लिखे तो गए हों किंतु धार्मिक ग्रंथों के साथ मंदिर में प्रवेश न पाने के कारण सुरक्षित न रह सके हों। संस्कृत में लिखित अनेक नाटक श्रव्य-काव्य के अंतर्गत हो जाते हैं। दृश्यत्व रूप से नाटक रचना के लिए शांतिमय वातावरण का होना आवश्यक है। यवनो के आक्रमण से विक्षुब्ध परिस्थितियों में संभवतः ऐसे नाटकों की रचना न हो सकी हो। कारण कुछ भी हो अपभ्रंश-भाषा में लिखित नाटकों का अभी तक अभाव है। ऐसी अवस्था में पर्याप्त सामग्री के न होने से अपभ्रंश नाट्य-साहित्य की पूर्ण विवेचना संभव नहीं।
अपभ्रंश भाषा में नाटक लिखे गए या नहीं इस विवाद को छोड़ दीजिए। श्री मुनि जिनविजय द्वारा संपादित 'पुरातन प्रबंध संग्रह’ के अंतर्गत एक प्रकरण से ऐसा आभास मिलता है कि हास्य-विनोद के लिए अपभ्रंश-नाटक लिखे जाते थे। राजा भोज ने सिद्ध रस' बनाने वाले योगियों को बुलवाकर यह रस बनवाना चाहा। जब वे इस प्रकार का रस न बना सके तो उनकी हँसी उड़ाने के लिए अपभ्रंश में एक नाटक लिखवाया गया। नाटक के अभिनय के बीच पात्रों के सभाषण को सुन हँसी में लोट-पोट होते हुए राजा भोज को संबोधन कर एक सिद्धरस-योगी कहता है –
अस्थि कहंत किपि न दीसइ।
नत्थि कहउत सुहगुरु रूसइ॥
जो जाणइ सो कहइ न कीमइ।
मरमाणं तु विपारद ईसई।-
अपभ्रंश में यद्यपि कोई नाटक उपलब्ध नहीं तथापि चर्चरी, रास इत्यादि कुछ ग्रंथ उपलब्ध हुए हैं जिनसे अपभ्रंश के लोक-नाट्य पर कुछ प्रकाश पड़ता है। चच्चरी, चाचरि, चर्चरी ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। चर्चरी शब्द ताल एवं नृत्य के साथ, विशेषतः उत्सव आदि में गाई जाने वाली रचना का बोधक है| इसका उल्लेख विक्रमोर्वंशीय के चतुर्थ अंक के अनेक अपभ्रंश पद्यो में मिलता है। वहाँ अनेक पद्य चर्चरी कहे गए हैं। समरादित्य-कथा, कुवलय-माला कथा आदि ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। श्री हर्ष ने अपनी रत्नावली नाटिका के आरंभ मिलता है –
श्रीचंद्र कवि (वि. स. 1123) के 'रत्न करंड शास्त्र' में अनेक छंदों के साथ चच्चरि का उल्लेख किया गया है।
अब्दुल रहमान ने अपने 'संदेश-रासक' में वसंत वर्णन के प्रसंग में चर्चरी गान का उल्लेख किया है -
चच्चरिहि गेउ झुणि करिवि तालु,
नच्चीयइ अउम्प वसंतकालु।
घण निविड हार परि खिल्लरीहि,
रुणसुण रउ मेहल किकिणोहिं ॥ 219
इससे प्रतीत होता है कि चर्चरी, आनंदोत्सव के अवसर पर जनसाधारण में या मंदिरों में ताल और नृत्य के साथ गाई जाती थी। मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने 'पद्मावत' में वसंत, फाग एवं होली के प्रसंग में चाचरि या चाँचर का उल्लेख किया है, जोकि अपभ्रंश-कालीन चर्चरी के अवशिष्ट रूप के सूचक हैं।
जिनदत्त सूरि ने विक्रम की 12वीं शती के उत्तरार्ध में 'चर्चरी' की रचना की थी। रचनाकर ने सूचित किया है कि यह कृति पढ़ (ट) मजरी भाषा-राग में गाते हुए और नाचते हुए पढ़ी जानी चाहिए। इसमें कृतिकार ने 47 पद्यों में अपने गुरु जिनवल्लभ सूरि का गुणगान किया है और नाना चैत्य विधियों का विधान किया है।
इस चर्चरी के अतिरिक्त प्राचीन गुर्जर काव्य-संग्रह में सोलन कृत चर्चरी का व्याख्यान है। एक वेलाउली राग में गीयमान 36 पद्यों की 'चाचरि स्तुति' और गुर्जरी राग में गीयमान 15 पद्यों की 'गुरुस्तुति चाचरि' का पाटण-भंडार की ग्रंथ-सूची में निर्देश मिलता है।
अपभ्रंश में कुछ रास ग्रंथ भी उपलब्ध हुए हैं। इनमें से कुछ की भाषा को प्राचीन गुजराती वा प्राचीन राजस्थानी कहा जाता है। किंतु प्राचीन गुजराती, प्राचीन राजस्थानी सब अपभ्रंश के ही रूप हैं और इन सबका सामान्य आधार एवं स्रोत अपभ्रंश या उत्तरकालीन अपभ्रंश ही है।
रास, रासो या रासक शब्द का क्या अर्थ है, क्यों इन ग्रंथों का नाम रास पड़ा? इस विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। किसी ने इसे ब्रह्मवाचक रस से, किसी ने साहित्यिक रस से, किसी ने स्त्री-पुरुषों के मंडलाकार नृत्य-वाची रास से, किसी ने राजवंश से और किसी ने काव्य-वाचक रसायन से इस शब्द की व्युत्पत्ति मानी है।
संस्कृत के अलंकार-शास्त्र-संबंधी ग्रंथों में रास शब्द का उल्लेख है। वहाँ इसका लक्षण इस प्रकार दिया है –
षोडश द्वादशाष्टो वा यस्मिन् नृत्यन्ति नाप (वि) का:।
पिंडी बन्धावि विन्यासै रासकं तदुवाहृतम्॥
इस प्रकार 8, 12, 16 स्त्री-पुरुषों के मंडलाकार नर्तन को रासक कहा गया है। किंतु प्रश्न होता है कि रासक केवल नृत्त है या नृत्य या उसमें अभिनय का भी होना आवश्यक है? नाट्य नृत्त और नृत्य से भिन्न है। धनंजय ने अपने दशरूपक में तीनों पर विचार किया है। नृत्त में ताल-लय पर आश्रित पद-संचालनादि क्रियाएँ होती हैं (नृत्त ताललयाश्रयम्)। नृत्त में केवल मात्र-विक्षेप होता है, नृत्य में गात्र विक्षेप के साथ-साथ अनुकरण भी पाया जाता है, नृत्य में भाव-प्रदर्शन भी होता है (भावाश्रय नुत्यम्)। नृत्त और नृत्य से आगे नाट्य आता है। नृत्य और नाट्य में यह भेद है कि नृत्य केवल भावाश्रित होता है और नाट्य रसाश्रित। नृत्य में माहिर अभिनय का और नाट्य में वाचिक अभिनय का प्राधान्य होता है। नृत्य और नाट्य दोनों में अभिनय-साम्य होने पर भी नृत्य में पदार्थ-रूप अभिनय होता है और नाट्य में वाक्यार्थ-रूप अभिनय। नाट्य का लक्षण किया गया है — अवस्था प्रकृति-नाट्यम् अर्थात् शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं के अनुकरण को नाट्य कहा जाता है। यह अनुकरण आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक चार प्रकार का होता है। इस प्रकार नाट्य में इन चारों प्रकार के अभिनयों के द्वारा सामाजिकों में रस का संचार किया जाता है।
साहित्यदर्पणकार ने उपरूपकों का विभेद प्रदर्शित करते हुए नाट्य-रासक और रासक दोनों को विभिन्न उपरूपक माना है और दोनों के अलग-अलग लक्षण दिए हैं।
इससे प्रतीत होता है हि विश्वनाथ के समय (11वीं शती) तक नाट्य-रासक और रासक उपरूपकों के एक भेद के रूप में स्वीकार किए जाने लगे थे। इस प्रकार इनमें केवल नृत्य ही न होता था अपितु अभिनय भी किया जाता था। नृत्य और नाट्य दोनों का योग नाट्य-रास और रासक में होता था। नाट्य-रास और रासक दोनों एकांकी होते थे। नाट्य-रास में उदात्त-नायक और वासकसज्जा नायिका होती थी, रासक में कोई ख्यात नायिका किंतु मूर्ख नायक होता था और इसमें भाषा और विभाषा का अर्थात् प्राकृत और अशिक्षित एवं जन-साधारण से प्रयुक्त लोक-भाषा का प्राधान्य होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि लोक में जन-साधारण द्वारा किसी लोक-प्रचलित नायक को लेकर प्रदर्शित उपरूपक को अलंकारियों ने रासक का नाम दिया और शिक्षित
फ़ुटप्रिंट –
1. नाट्यरासकमेकाकं बहुताललयस्थिति॥
उदात्तनायकं सद्वत्त् पीठमर्वोपनायक।
हास्योऽङ्गपत्र स श्रृंगारो नारी वासकसज्जिका॥
मुखनिर्वहणे सन्धी लास्याङ्गानि दशापि च।
केचित्प्रतिमुख संधिमिह नेच्छन्ति केवलं॥
चौसभा संस्कृत सीरीज़ प्रकाशन पृष्ठ, परिच्छेद, 277-279।
रासफ पंचपात्र स्याम्मुखनिर्वहणान्वितम्।
भाषाविभाषाभूयिष्ठं भारतीकैशिकीयुतम्॥
असूत्रधारमेकांक सवीथ्यंगं फलान्वितम्।
श्लिष्टनान्दीयुतं र्ख्यातनायिकं मूर्खनायकम्॥
उदात्तभावविग्याससंबित घोत्तरोत्तरम्।
इह प्रतिमुख संधिमपि केचित्प्रचक्षते।।
छ. 281-290
एवं शास्त्र-प्रचलित नायक के आधार पर रचित उपरूपक को नाट्य-रास का नाम दिया।
अलंकार-ग्रंथों के अतिरिक्त संस्कृत-साहित्य में भी रासक का निर्देश मिलता है। बाण ने अपने हर्षचरित में हर्षवर्धन की उत्पत्ति पर पुत्र-जन्मोत्सव के वर्णन में इस रासक शब्द का प्रयोग किया है। वहाँ रासक शब्द मंडलाकार नृत्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
अपभ्रंश-साहित्य में भी रास और रासक के कुछ उल्लेख मिलते हैं। 'जबु सामि चरिउ' के कर्ता (वि. स. 1076) ने ग्रंथ के प्रारंभ में लिखा है :
यहाँ जिनपद-सेवकों द्वारा नृत्यपूर्वक गीयमान रास का निर्देश है। इस उद्धरण से एक और बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होना है। 'चच्चरि बधि' पद से प्रतीत होता है कि 'पद्धडिया बध' के समान 'चच्चरि बध' भी प्रयुक्त होता था। अर्थात् चच्चरि छंद में रचित रचना ही 'चच्चरि बध' कहलाती थी। विक्रमोर्वंशीय के चतुर्थ अंक में प्रयुक्त अनेक अपभ्रंश छंदों में चच्चरि के प्रयोग का पीछे निर्देश किया जा चुका है। श्रीचंद्र-रचित (वि. स. 1123) 'रत्न करण्ड शास्त्र' नामक अपभ्रंश ग्रंथ में एक स्थल पर अन्य छंदों के साथ चच्चरि, रासक और रास का उल्लेख किया गया है—
अपभ्रंश के अनेक छंद ग्रंथों में भी रासा जन्द का निर्देश मिलता है। इनसे प्रतीत होता है कि संभवत पहले चच्चरि और रास ग्रंथों में यही छंद पूर्णत या अधिकतः प्रयुक्त होता था पीछे से विषय और प्रकार की दृष्टि से चच्चरि और रास शब्द ग्रंथों के अर्थ में भी रूढ हो गए। अपभ्रंश के 'संदेश-रासक' नामक ग्रंथ में रासा (रासक) का, जिसे आभाणक भी कहा गया है, प्रचुरता से प्रयोग किया गया है।
रास शब्द का उल्लेख 'संदेश-रासक' में भी एक स्थल पर मिलता है। वहाँ कवि सामोरु-मूल स्थान-मुल्तान नामक नगर का रासा छंद में वर्णन करता हुआ कहता है –
कह व ठाइ चउवेइहिं वेउ पयासियइ,
कह बहुरूवि णिवद्वउ रासउ भासियइ॥ 43
अर्थात् उस नगर में किसी स्थान पर चतुर्वेदियों द्वारा वेद प्रकाशित किया जा रहा है, कहीं चित्र-विचित्र वेशधारी बहुरूपियों द्वारा निबद्ध रासक का पाठ किया जा रहा है। यहाँ रासक शब्द के साथ यद्यपि 'भाष्' धातु का ही प्रयोग किया गया है तथापि 'बहुरूवि णिबद्धउ' वाक्यांश से रामनीनादिवत् प्रदर्शन का भी आभास मिलता है।
संदेश-रासक का आरंभ और अंत मंगलाचरण से किया गया है -
रयणायर घर गिरितरुवराई गयर्णगणमि रिक्खाई,
जेणऽज सयल सिरियं सो बुहयण वो सिवं देउ॥1
माणुस्सदिक्ष्त्र विमाहरेहि णहमग्नि सूर-ससि बिंबे।
आएहिं जो णमिज्जइ तं णयरे णमह कत्तारं॥2
ग्रंथ समाप्ति पर कवि कहता है –
जेल अचिंतिउ कज्जु तसु सिद्ध खणद्धि महंतु,
तेम पढंत सुणतयह जपउ अणाइ अर्णतु॥ 223
आदि और अंक के ये मंगलाचरण के पद्य रूपक और उपरूपक के अंतर्गत नांदी और भरत-वाक्य का आभास देते हैं।
कथा-वस्तु में स्थान-स्थान पर सुंदर कथोपकथन भी दृष्टिगत होता है। उदाहरणार्थ -
पहिउ भणइ पहि जत अमंगलु महम करि,
रुयवि रुयवि पुणरुत्त वाह संवरिवि धरि।
पहिय! होउ तुह इच्छ अज्ज सिज्मउ गमण,
मइ न रुत्रु, विरहणि घम लोयण सवणु॥ 109
पथिक कहता है—(हे सुंदरि!) रो-रोकर, मार्ग में जाते हुए मेरा अमंगल मत करो, अपने इन आँसुओं को रोककर रखो।
विरहिणी कहती है—हे पथिक! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, तुम्हारा आज गमन मिद्ध हो। मैं रोई नहीं, विरहाग्नि के धूमाधिक्य से आँखों में जल आ गया।
संदेश-रासक में पात्रों की संख्या अधिक नहीं। उनकी वेशभूषा, सौंदर्य-चेष्टा अवस्थादि का निर्देश पद्यों द्वारा ही किया गया है। शब्द-योजना द्वारा वर्ण्य-वस्तु को साक्षात् चित्रवत् उपस्थित किया गया है। जैसे –
वयण णिसुणेवि मणमत्य सरवट्टिया,
मयउसर मुक्कणं हरिणि उत्तठ्ठिया।
मुक्क वीउन्ह नीसास उस संतिया,
पढिय इय गाह णियणयणि वरसंतिया॥3
अर्थात् पथिक के वचनों को सुनकर काम के बाण से बिद्ध वह विरहिणी शिकारी के बाण से विद्ध हरिणी के समान छटपटाने लगी। लंबे-लंबे उष्ण उच्छवास छोड़ने लगी। आहें भरते-भरते और आँखों से आँसू बरसाते हुए उसने यह गाथा पढ़ी।
वातावरण को सजीवता प्रदान करने के लिए यथास्थान उद्यान-शोभा और विविध ऋतुओं का दृश्य भी पद्यों द्वारा अंकित किया गया है।
इस प्रकार अपभ्रंश-काल में गद्य के विकसित न होने के कारण जैसे अनेक अपभ्रंश-ग्रंथों में उपन्यास के तत्त्व सूक्ष्म रूप से दृष्टिगत होते हैं, वैसे ही संदेश-रासक में सूक्ष्म रूप से नाट्य-शास्त्र संबंधी कुछ तत्त्वों का आभास मिल जाता है और ये गद्य के विकास-काल में लिखित रूपकों के पूर्वरूप से प्रतीत होते हैं।
संदेश-रासक के अतिरिक्त अन्य रास-ग्रंथ प्रायः राजस्थान में उपलब्ध हुए हैं। जैन-धर्मानुयायियों की अधिकांश जनता राजस्थान में रहती है अतः वहाँ इस प्रकार के रास-ग्रंथों का बाहुल्य से मिलना अस्वाभाविक नहीं।
संदेश-रासक का समय विद्वानों ने 11वीं-13वीं शताब्दी के बीच निर्धारित किया है। संदेश रासक अद्दहमाण (अब्दुल रहमान) नामक मुसलमान जुलाहे का लिखा काव्य है। संदेश-रासक के अतिरिक्त जिनदत्त सूरि कृत 'उपदेश रसायन रास' नामक रास भी उपलब्ध है। जिनदत सूरि वि. स. 1132 में उत्पन्न हुए थे।
'उपदेश रसायन रास' 80 पद्यों की एक छोटी-सी कृति है। इस का आरंभ भी मंगलाचरण से होता है। 'कृति के जल को जो कर्णांजलि से पान करते हैं वे अजरामर होते हैं’ इस वाक्य से मंगलकामना-पूर्वक कृति समाप्त होती है। रास में कवि ने गृहस्थोचित नाना धार्मिक कृत्यों का उल्लेख किया है।
'गय सुकुमार रास' की रचना वि. स. 1300 के आस-पास मानी जाती है। इसमें वसुदेव की पत्नी देवकी जी कृष्ण के समान गुण-रूप-निधान एक और पुत्र की कामना करती हैं। इनकी अभिलाषा के पूर्ण होने का वर्णन इसमें किया गया है।
उपरिनिर्दिष्ट रासों के अतिरिक्त राजस्थानी से प्रभावित अनेक रास-ग्रंथ उपलब्ध हैं।
शालिभद्र सूरि-रचित—'भरत बाहुबलि रास' की रचना वि. स. 1241 में हुई। यह वीररस-प्रधान रास-ग्रंथ है। इसमें पुष्पदंत के महापुराण में वर्णित कथा के आधार पर ऋषभ के पुत्र भरत और उसके छोटे भाई बाहुबली के युद्ध का वर्णन है।
धर्मसूरि ने वि. स. 1266 में जबू स्वामी के चरित के कथानक के आधार पर 'जबू स्वामि रासु' की रचना की थी। विजयसेन सूरि ने वि. स. 1288 में ‘रेवत गिरि रास' की रचना की। इसमें सोरठ देश में रेवत गिरि पर नेमिनाथ की प्रतिष्ठा के कारण रेवत गिरि की प्रशंसा और नेमिनाथ की स्तुति की गई है।
अबदेव (वि. स. 1371) रचित 'समरारासु' में सघपति देसल के पुत्र समर सिंह की दानवीरता का वर्णन किया गया है। उसी वर्ष इसने शत्रु जय तीर्थ का उद्धार किया। तीर्थ का भी सुंदर भाषा में वर्णन मिलता है।
रास-ग्रंथों के इस संक्षिप्त विवरण से प्रतीत होता है कि विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से रास-ग्रंथों में धार्मिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, नैतिक, लौकिक आदि सभी विषयों का वर्णन होता था। जैन मंदिरों में प्राय धार्मिक रासों का ही गान और नृत्य-पूर्वक पाठ एवं प्रदर्शन होता था।
उपरिनिर्दिष्ट रासों के अतिरिक्त ताला-रास और लकुट-रास का भी निदश 'उपदेश रसायन रास' में मिलता है –
उचिय थुत्ति-थुयपाढ पढिज्जहिं,
जे सिद्ध तिहिं सहु सधिज्जहिं।
तालारासु विदिंति न रयणिहिं,
दिवसि वि लउडारासु सहुं पुरिसिंहिं॥ 36
तालियों के ताल और लकड़ी की डंडियों के साथ गाए जाने वाले रास—ताला-रास और लकुट-रास—कहलाते हैं। लकुट रास तो गुजराती ‘गर्बा' से बहुत मिलता-जुलता है।
डॉ. दशरथ ओझा ने 'हिंदी-नाटक उद्भव और विकास' नामक अपने प्रबंध में रास-ग्रंथों का विशद विवेचन किया है। उनकी सम्मति में 'गय-सुकुमार रास' हिंदी-साहित्य का प्रथम नाटक है। उनका अभिप्राय यह है कि इन रास-ग्रंथों से ही आगे चलकर हिंदी-नाटकों का विकास हुआ।
उपरिलिखित रास-ग्रंथों के विवेचन का सारांश यह है कि 11वीं से 14वीं शताब्दी तक प्राप्त अनेक अपभ्रंश रासक एवं रास-ग्रंथ लोक-नाट्य के लिए उत्सवों एवं मंदिरों में किए जाते थे। साधारण जनता इन्हीं से मनोविनोद करती थी, किंतु शिष्ट समाज में संस्कृत-नाट्य किए जाते थे और उनका प्रचार भी अभी तक चल रहा था। इन रास-ग्रंथों में यद्यपि उत्तरकालीन नाटकों के नाट्य-तत्त्वों का सूक्ष्म रूप से आभास मिल जाता है तथापि इन रासों के पद्य रूप में होने के कारण वे तत्व पूर्णरूप से विकसित न हो सके थे। इन रासों में दृश्यत्व पूर्ण रूप से दृष्टिगत नहीं होता। नृत्य और संगीत का ही प्राधान्य था ऐसा प्रतीत होता है। संदेश-रासक के कर्ता ने अपने ग्रंथ को मध्यवर्ग के सन्मुख बार-बार पढ़ने का निर्देश किया है। ग्रंथ की समाप्ति पर भी लेखक ने इसके पढ़ने और सुनने का ही निर्देश किया है। 'उपदेश रसायन रास' में भी कवि ने कृति के जल को कर्णामृत से पान करने वालों के लिए अजरामरत्व की मंगल-कामना की है। 'समरारास' में भी इसके पढ़ने की ओर संकेत किया गया है। क्रमशः इन रासों में श्रव्यत्व के स्थान पर दृश्यत्व का भी प्रचार होने लगा और इनके रूपक तत्त्व उत्तरोत्तर अधिक स्पष्ट होने लगे।
फ़ुटप्रिंट –
1. जिण मुक्ख न पंडिय मझयार,
तिह पुरज पढिन्वउ सम्म वार ॥२१
2. म अधितिउ कज्ज़ तसु सिद्ध सरादि महतु,
तेम पत सुर्णतयह जयउ प्रणाइ प्रएंतु ॥२२३3.
3. एह रासु जो पहई गुणाई नाघिउ जिणहरि देई ।
हिंदी नाटक का उद्भव
डॉ. वीरेंद्र कुमार शुक्ल
नाना भावोपसंपन्नं नानावस्थांतरात्मकम्।
लोक वृत्तानुकरणं नाट्यमे तन्मया कृतम्॥ (नाट्य-शास्त्र 1।109)
नाटक लोक-वृत्ति का अनुसरण है। भारतीय नाट्य-शास्त्र के प्रथम आचार्य भरत मुनि ने अपने कथन में इसकी पुष्टि की है। किसी न किसी परंपरागत अथवा कल्पित कथा की अनुकृति नाटक में प्रदर्शित की जाती है। साहित्य लोक-जीवन के कार्यकलापों में ही नाटक का उद्भव खोजता है। आदियुग से नाटकों के उद्गम का क्रमबद्ध इतिहास चला आ रहा है। भारतीय संस्कृति के इतिहास का आविर्भाव वैदिक काल से है। नाटक की उत्पत्ति के विषय में लोक-प्रचलित प्राचीन किंवदन्तियाँ भी हैं। देवराज इंद्र ने वेदों के रचयिता ब्रह्मा से जन-साधारण के मनोरंजनार्थ एक ग्रंथ की रचना करने की प्रार्थना की जिससे कि सर्वसाधारण का मनोरंजन हो सके। ब्रह्मा ने पाठ्य सामग्री ऋग्वेद से, गीत सामवेद से, अभिनय यजुर्वेद से एवं रस-तत्त्व अथर्ववेद से लेकर एक पंचम वेद की रचना की जिसे नाट्यवेद कहते हैं। इसका सूत्रधार भरत मुनि को बनाकर नाट्याभिनय के कार्य-संचालन का भार इन्हें सौंपा। नाट्य की उत्पत्ति की प्रथम किंवदन्ती के रूप में यह कथा व्यापक रूप से प्रचलित है।
भारतीय साहित्य की प्राय सभी साहित्यिक प्रेरणाओं का सूत्र वेदों में है। नाटकों की उत्पत्ति का आरंभिक विकासमान स्वरूप वेदों में विद्यमान है। संवादो की परंपरा का उद्भव वेंदो में दिखाई देता है। ऋग्वेद में 'संवाद सूत्र' विद्यमान हैं। उनमें नाटकीय प्रयोजन की प्रथम भूमिका उपस्थित प्रतीत होती है। ऋग्वेद में संवाद तथा स्वगत-कथन उपस्थित हैं। उदाहरण के रूप में संवाद-सूक्तों में क्रमशः यम तथा यमी, पुरुरवा और उर्वशी, अगस्त्य और लोपामुद्रा, इंद्र त सवाक्
1 जग्राह पाठ्य ऋग्वेवात्सामन्यो गीतमेंव च।
यजुर्वेदादभिनयारसानायर्वणावपि ॥17॥
वेदोपवेदैः सबद्धो नाट्यवेदो महात्मना ।
एवं भगवता सृष्टो ब्रह्मणा सर्ववेविना (1) ॥18॥
ऋग्वेद-मडल 10,10,18
(नाट्य-शास्त्र, प्रथम अध्याय)
आदि का कथोपकथन मिलता है। स्वगत कथनों में इंद्र अथवा सोमरस से छके हुए व्यक्ति का स्वगत कथन विद्यमान है। वस्तुतः यह मानना नि ‘संवाद सूक्त वैदिककालीन रहस्यात्मक नाटकों के अवशिष्ट चिन्ह हैं’ युक्तिसंगत होगा।
नाटक के उदगम संबंध में पाश्चात्य विद्वानों के दो मत हैं। एक वर्ग भारतीय नाट्य का उद्भव धार्मिक कार्य-कलापों से प्रेरित मानता है परंतु दूसरा उसका उदय लौकिक और सामाजिक कृत्यों द्वारा मानता है। प्रो. मैक्ममुलर, लेवी तथा डॉक्टर हर्तेल आदि आचायों का मत है कि नाटक का उदय वैदिक ऋचाओं के गान से हुआ है। यज्ञों के अवसर पर ये ऋचाएँ समवेत म्यर में गाई जाती थीं, जिनके बीच कथोपकथन भी आते थे। नाटकीय संवादों की प्रेरणा संभवतः इन्हीं कथोपकथन युक्त ऋचाओं से मिलती है।
अभिनय का स्वरूप नृत्त और नृत्य में विद्यमान प्रतीत होता है। नृत्त में ताल-स्वर के अनुसार पद-संचालन का भाव प्रदर्शित किया जाता है। उसका भाव-निरूपण पद चालन की गति पर निर्भर है। नृत्य के भावों में अभिनयमूलक प्रेरणा स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। नृत्य में भाव बनाकर मूक-इंगितों में अवयवों का परिचालन किया जाता है। नृत्त तथा नृत्य की प्रेरणा का उदय शंकर तथा पार्वती के तांडव तथा लास्य से माना गया है। पाश्चात्य विद्वानों में डॉ. रिजवे नाटक का उदय वीर-पूजा से मानते हैं। यह मन पाश्चात्य नाट्य के लिए उपयुक्त हो सकता है परंतु पीरिय नाट्योद्भव के लिए युक्ति-संगत नहीं है।
महाकाव्य-काल में वात्मीकीय रामायण में नटों तथा नर्तकों का उल्लेख आया है। महाभारत काल में काष्ठ-पुतलिका के प्रयोग का उल्लेख मिलता है। विशेल ने इन्हीं उल्लेखों के आधार पर नाटक की प्रारंभिक अथवा कठपुतलियों के नाच तथा उनके द्वारा किए हाव-भाव पर आधारित की है। यद्यपि प्राचीन भारतीय साहित्य में कठपुतलियों के प्रचलन का उल्लेख तो मिलता है परंतु यह प्रामाणिक रूप में नहीं कहा जा सकता बताया कि अभिनय का आरंभ इन्हीं की प्रेरणा का फल है। यद्यपि नाटकों में आने वाले सूत्रधार में उपयुक्त कथन की कुछ सार्थकता का भान होता है। प्रो. कीथ ने भी उपर्युक्त कथन पर अपना मंतव्य अपनी पुस्तक 'मेलो ड्रामा' में दिया है। उन्होंने छाया-नाटकों के उल्लेख में पुतलियों के प्रचलन को आधार माना है।
कामसूत्र के द्वितीय शाक में बारयापम ने नटों द्वारा प्रस्तुत मनोरंजन का उल्लेख किया है। उनके वर्णन में 'कुशीलवों’ द्वारा सामाजिक उत्सवों में प्रदर्शित कौतुक-क्रीडा का वर्णन है। पाणिनि के नट-सूत्रों में भी नाट्य-बोध की गरिमा है। अतः वैदिक काल से विक्रम के समय तक अनेक रूपों में बिखरे हुए नाटक के परिवर्तित तथा परिवर्धित रूप मिलते हैं।
भारतीय नाट्य-साहित्य की रूपरेखा संस्कृत नाटकों में विद्यमान है। ईसा की प्रथम शताब्दी के अंतिम चरण तथा द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्घ में संस्कृत-साहित्य के प्रथम नाट्यकार अश्वघोष का रचनाकाल प्रमाणित किया गया है। इनके 'सारि-पुत्र' प्रकरण में नाटकीय अवयवों की व्यवस्थित रूपरेखा है। संस्कृत नाट्य-साहित्य के प्रमुख नाटककार अश्वघोष, भास, शूद्रक, श्रीहर्ष, विशाखदत्त, राजशेखर, कालिदास, भवभूति, क्षेमीश्वर, भट्टनारायण, मुरारि, श्रीदामोदर मिश्र तथा जयदेव आदि हैं। संस्कृत नाट्य-साहित्य में पौराणिक तथा सामाजिक आख्यायिकाओं के वर्णमय चित्र हैं। ईसा की प्रथम शताब्दी के अंतिम चरण से बारहवीं शताब्दी तक संस्कृत नाट्य-साहित्य का विकास हुआ है। संस्कृत के नाटक प्रसादांतक नीड पर विश्राम करते प्रतीत होते हैं। फलप्राप्ति की कल्पना हर्षातिरेक की भावना लेकर चलती है। मनोरंजन में भी मानव हर्ष तथा आह्लाद पाकर सुखानुभूति प्राप्त करता है अतः इसी विचारधारा से प्रेरित संस्कृत के नाटक सुखांतक रखे गए हैं। पाश्चात्य त्रासदी का संस्कृत नाट्य-साहित्य में अभाव है। नाटकों में नाट्यशास्त्रानुसार सैद्धांतिक मर्यादाओं का पालन किया गया है। नाटक के विभिन्न अवयवों में कथा-वस्तु कथोपकथन, पात्र तथा रस सभी विद्यमान प्रतीत होते हैं। संवादों में गद्य तथा पद्य शैली दोनों ही विद्यमान हैं। संस्कृत नाट्यकारों ने बड़ा ही प्रौढ़ तथा सुसंस्कृत साहित्य विश्व नाट्य-साहित्य के सम्मुख रखा है। अपनी अनूठी-कल्पना शक्ति और विलक्षण नाट्य-नैपुण्य के कारण संस्कृत के नाट्यकार एक परंपरा-सी बना गए हैं। हिंदी के आरंभिक नाट्यकारों ने उन्हीं का अनुकरण किया है।
हिंदी नाट्य-साहित्य को वास्तविक प्रेरणा संस्कृत नाट्य-साहित्य से प्राप्त हुई है। हिंदी के आरंभिक नाटक संस्कृत-नाटकों के अनुवादों के रूप में उपस्थित हुए हैं। हिंदी नाट्य-साहित्य को सर्वप्रथम संस्कृत-नाटक के पद्यात्मक संवादी ने आकृष्ट किया था। वस्तुतः यह कहना उपयुक्त है कि हिंदी नाटक का उदय संस्कृत के नाटकीय काव्य (Dramatic Poetry) से हुआ था। प्रारंभिक रचनाओं में से हनुमन्नाटक तथा समयसार आदि इसी कोटि की रचनाएँ हैं। रचना-क्रम
भवभूतिर्विशाखश्च भट्टनारायणस्तथा। मुरारि शक्तिभद्रश्च पुनः श्रीराजशेखरः॥
क्षेमीश्वरश्च मिश्रौच कृष्ण दामोदरा वुभो। जयदेवश्च वासश्च ख्याता नाट्यकारकाः।
के अनुसार प्रबोध-चंद्रोदय हिंदी-साहित्य का सर्वप्रथम नाटक है। इसका अनुवाद जोधपुर-नरेश महाराज जसवंतसिंह ने संस्कृत के मूल नाटक प्रबोध-चंद्रोदय से किया था। हिंदी नाटक के उदय-काल में भाषा का स्वरूप पद्य तथा गद्य मिश्रित ब्रजभाषा था। संस्कृत नाटकों के आधार पर उनके अनुवादों में यथास्थान गद्य तथा पद्य संवाद प्रस्तुत किए जाते थे। उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम ब्रजभाषा ही थी। हिंदी के आरंभिक नाट्यकारों ने अपने अनूदित नाटकों में मूल नाटकों का अक्षरण अनुवाद करने का प्रयास किया है।
सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आनंद रघुनंदन नाटक रीवा-नरेश विश्वनाथ सिंहजू द्वारा प्रस्तुत किया गया। यह नाटक हिंदी नाटक-साहित्य का प्रथम मौलिक नाटक माना जाता है। प्रस्तुत नाटककार ने भी प्रचलित रचना-शैली के अनुसार इसकी भाषा गद्य तथा पद्य मिश्रित ब्रजभाषा रखी है। तदुपरांत उपर्युक्त नाटककार द्वारा गीत रघुनंदन की रचना की गई। आदिकाल के नाटक केवल संस्कृत-नाटकों के अनुवाद मात्र ही रहे हैं, परंतु कालांतर में हिंदी नाटक दो विशिष्ट वर्गों में विभक्त हो गया। अनूदित तथा मौलिक नाटकों का प्रचलन हिंदी नाट्य-साहित्य में अपनाया गया। यह परंपरा चिरकाल तक हिंदी नाट्य-साहित्य का अंग बनी रही। हिंदी नाटक के आरंभिक विकास-काल में इन्हीं मनोवृत्तियों का प्रभाव दृष्टिगत होता है।
हिंदी नाट्य-साहित्य में संस्कृत नाट्य-प्रणाली की प्रतिच्छाया लिए हुए नाटकों की रचना हुई है, प्रायः उनका मूलाधार धार्मिक आख्यानों की कथा-वस्तु रही है। हिंदी साहित्य का आदि युग वीरगाथा काल से आरंभ होता है। इस युग में वीर नर-पुगयो की गाथा पद्यमय वर्ण-चित्रों में उपस्थित की गई थी। इन्हीं वीर-गाथाओं का काव्य-वर्णन पद्यमय कथोपकथनों के रूप में भी प्रस्तुत किया गया था। कथोपकथन नाट्य-साहित्य का विशिष्ट अंग है। वस्तुतः यह पद्यमय कथोपकथन भी हिंदी नाट्य-साहित्य के प्रोत्साह्न का कारण रहा है। अतः कहा जा सकता है कि
काव्य का यह स्वरूप नाट्योद्भव का प्रेरक है।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि पूर्व-भारतेंदु-काल से भारतेंदु-युग तक नाट्यकारों की प्रवृत्ति संस्कृत नाट्य-साहित्य तथा पौराणिक आख्यायिकाओं को भाषांतर रूप देकर हिंदी नाट्य-साहित्य की परंपरा का आविर्भाव करना ही रहा है। मौलिक नाटकों का अभाव इस काल में भटकने वाली वस्तु थी, यद्यपि मौलिक नाटकों की रचना कालांतर में अवश्य हुई है जिसका इस युग के साहित्य में नगण्य स्थान है। नाटककारों की मूल प्रवृत्ति अनुवादों की ही ओर थी। आरंभ के मौलिक नाटक अधिकांश पद्यमय ही थे। प्राणचंद चौहान कृत 'रामायण महानाटक', रघुराम नागर कृत 'सभासार', लच्छीराम कृत 'करूणाभरण' आदि को मौलिक रचनाओं की कोटि में रखा जा सकता है। इस युग के नाटकों का निर्माण-काल भक्ति और रीतिकाल के बीच का युग है। सम-सामयिक वातावरण के प्रभाव से इस युग की रचनाएँ अछूती नहीं रह सकी हैं। पौराणिक गाथाओं में श्रृंगारिक भावना का प्रयोग इस युग की मूल मनोवृत्ति प्रतीत होती है। इस युग के नाटककारों ने प्रेम-व्यापार के साथ वीररस की अभिव्यक्ति से कथानकों को अनुप्राणित किया है। उपर्युक्त शैली का प्रयोग संस्कृत नाट्य-साहित्य में पूर्व ही विद्यमान था। हिंदी नाटकों में भी उसका अनुसरण किया गया था।
सत्रहवीं शताब्दी में संस्कृत नाट्य-साहित्य से प्रभावित पद्यमय हिंदी नाटक का आविर्भाव हुआ था। आगे चलकर आलोच्य-काल में हिंदी नाट्य-प्रवाह दो प्रमुख धाराओं में विभक्त हो गया। इनका वर्गीकरण निम्न प्रकार से करना उपयुक्त होगा। सर्वप्रथम साहित्यिक नाटकों का उदय तथा विकास हुआ, जिसने आगे चलकर हिंदी साहित्य के अक्षय भांडार की अभिवृद्धि की है। परंतु युग का साहित्यकार अपने समुचित प्रसाधनों में ही सीमित न रह सका। वह रूपक के दृश्य-काव्यत्व की सार्थकता का उपयोग करना चाहता था। वैदिक युग में ही भरत मुनि द्वारा रंगमंच की उपयोगिता का महत्व बताया गया था। संस्कृत साहित्य के नाटक भी अपने काल में रंगमंच के हेतु प्रयोग में लाए गए थे। इस युग में साहित्यिक नाटक इतने परिष्कृत न थे कि उनका प्रयोग रंगमंच पर सरलता से किया जा सके। पद्यमय संवाद अथवा वर्णनात्मक लंबे गद्यात्मक कथोपकथन बाधा के रूप में उपस्थित हो जाते थे। नाटक के उपाग के रूप में जन नाट्य रंगमंच पर प्रयुक्त किया गया, धीरे-धीरे इसी अभिनय-मूलक रंगमंच ने अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया। यद्यपि यह प्रश्न युक्तिसंगत है कि रंगमंचीय नाटकों को साहित्यिक-नाटकों से पृथक् क्यों न रखा जाए, जबकि उनका अस्तित्त्व साहित्यिक नाटकों से भिन्न जान पड़ता है परंतु स्मरण रहे कि नाटक दृश्य-काव्य है और अभिनेय होना उसका आवश्यक लक्षण है। इस दृष्टिकोण से आदर्श कहे जाने वाले नाटक तो उसी वर्ग के कहे जाएँगे जिनमें साहित्य के साथ-साथ अभिनेय गुण भी होगा, रंगमंचीय नाटकों को साहित्य से पृथक नहीं किया जा सकता है, वे भी नाट्य-सिद्धांत के एक मुख्य अंश के प्रतिनिधि हैं।
जन-नाट्य को रंगमंचीय प्रेरणा चैतन्य महाप्रभु के कीर्तन संप्रदाय तथा महाप्रभु वल्लभाचार्य की भक्ति-भावना से मिली। रासलीला, यात्रा तथा रामलीला के स्वरूप रंगमंचीय प्रयोजन की परितुष्टि करते प्रतीत होते थे। हिंदी से संबंध रखने वाले मनोरंजनों में संभवतः रास-लीला सबसे प्राचीन है। भगवत चर्चा के साथ-साथ यह मनोरंजन का भी सुलभ साधन था। हिंदी रंगमंच भी साहित्यिक नाटकों के अनुरूप ही मनोवृत्तियों का पोषक रहा है। पौराणिक वृत्तों को ही लीला का स्वरूप दिया गया, रास में कृष्ण-लीला तथा राम-लीला में रामकथा वर्णित तथा अभिनीत की जाती थी जिस परंपरा का निर्वाह आज भी होना है। रंगमंच-नाट्य की परंपरा अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के विकास संबंध की आवश्यक श्रृंखला प्रस्तुत करती है।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि नाट्य लोक का अनुकरण है, अतएव लोक में जो कुछ हे उसकी छाया नाटकों से प्रदर्शित की जाती है। साहित्य, वास्तुकला, चित्र-कला, संगीत-नृत्यादि, ज्ञान-विज्ञान सभी कुछ नाटक में यथास्थान प्रयुक्त हो सकते हैं। नाटक की उद्भावना इसी अभिप्राय से प्रेरित है। हिंदी के नाटकों में भी उन्हीं संस्कारों की छाप विद्यमान है जो उसे प्राचीन भारतीय नाट्य साहित्य से प्राप्त हुए हैं। हिंदी नाटकों का उद्भव प्राचीन भारतीय नाट्य परंपरा से है जिसकी देन प्रौढ़ संस्कृत नाट्य-साहित्य है। हिंदी का नाटक आरंभ में संस्कृत नाट्य-साहित्य से पूर्ण प्रभावित था तथा संस्कृत साहित्य के नाट्यकारों ने यह मार्ग प्रदर्शित न किया होता तो संभवतः हिंदी के नाट्य-साहित्य का लोप हो गया होता और हिंदी के साहित्यकारों में साहित्य के इस अंग की कल्पना भी न उत्पन्न हुई होती।
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asthi kahant kipi na disai
natthi kahut suhaguru rusai॥
jo janai so kahai na kimai
maramanan tu wiparad isi
apabhransh mein yadyapi koi natk uplabdh nahin tathapi charchari, ras ityadi kuch granth uplabdh hue hain jinse apabhransh ke lok naty par kuch parkash paDta hai chachchri, chachari, charchari ye sab paryayawachi shabd hain charchari shabd tal ewan nrity ke sath, wisheshatः utsaw aadi mein gai jane wali rachna ka bodhak hai iska ullekh wikrmorwanshiy ke chaturth ank ke anek apabhransh padyo mein milta hai wahan anek pady charchari kahe gaye hain samraditya katha, kuwlay mala katha aadi granthon mein bhi iska ullekh milta hai shri harsh ne apni ratnawali natika ke arambh milta hai –
shrichandr kawi (wi s 1123) ke ratn karanD shastr mein anek chhandon ke sath chachchari ka ullekh kiya gaya hai
abdul rahman ne apne sandesh rasak mein wasant warnan ke prsang mein charchari gan ka ullekh kiya hai
chachcharihi geu jhuni kariwi talu,
nachchiyai aump wasantkalu
ghan niwiD haar pari khillrihi,
runsun rau mehal kikinohin ॥ 219
isse pratit hota hai ki charchari, anandotsaw ke awsar par jansadharan mein ya mandiron mein tal aur nrity ke sath gai jati thi malik mohammad jayasi ne apne padmawat mein wasant, phag ewan holi ke prsang mein chachari ya chanchar ka ullekh kiya hai, joki apabhransh kalin charchari ke awshisht roop ke suchak hain
jindatt suri ne wikram ki 12ween shati ke uttarardh mein charchari ki rachna ki thi rachnakar ne suchit kiya hai ki ye kriti paDh (t) majri bhasha rag mein gate hue aur nachte hue paDhi jani chahiye ismen kritikar ne 47 padyon mein apne guru jinwallabh suri ka gungan kiya hai aur nana chaity widhiyon ka widhan kiya hai
is charchari ke atirikt prachin gurjar kawy sangrah mein solan krit charchari ka wyakhyan hai ek welauli rag mein giyman 36 padyon ki chachari istuti aur gurjari rag mein giyman 15 padyon ki gurustuti chachari ka patan bhanDar ki granth suchi mein nirdesh milta hai
apabhransh mein kuch ras granth bhi uplabdh hue hain inmen se kuch ki bhasha ko prachin gujarati wa prachin rajasthani kaha jata hai kintu prachin gujarati, prachin rajasthani sab apabhransh ke hi roop hain aur in sabka samany adhar ewan srot apabhransh ya uttarkalin apabhransh hi hai
ras, raso ya rasak shabd ka kya arth hai, kyon in granthon ka nam ras paDa? is wishay mein widwanon ke bhinn bhinn mat hain kisi ne ise brahmwachak ras se, kisi ne sahityik ras se, kisi ne istri purushon ke manDlakar nrity wachi ras se, kisi ne rajawansh se aur kisi ne kawy wachak rasayan se is shabd ki wyutpatti mani hai
sanskrit ke alankar shastr sambandhi granthon mein ras shabd ka ullekh hai wahan iska lachchhan is prakar diya hai –
shaoDash dwadshashto wa yasmin nrityanti nap (wi) kah
pinDi bandhawi winyasai rasakan taduwahritam॥
is prakar 8, 12, 16 istri purushon ke manDlakar nartan ko rasak kaha gaya hai kintu parashn hota hai ki rasak kewal nritt hai ya nrity ya usmen abhinay ka bhi hona awashyak hai? naty nritt aur nrity se bhinn hai dhananjay ne apne dashrupak mein tinon par wichar kiya hai nritt mein tal lai par ashrit pad sanchalnadi kriyayen hoti hain (nritt talalyashryam) nritt mein kewal matr wikshaep hota hai, nrity mein gatr wikshaep ke sath sath anukarn bhi paya jata hai, nrity mein bhaw pradarshan bhi hota hai (bhawashray nutyam) nritt aur nrity se aage naty aata hai nrity aur naty mein ye bhed hai ki nrity kewal bhawashrit hota hai aur naty rasashrit nrity mein mahir abhinay ka aur naty mein wachik abhinay ka pradhany hota hai nrity aur naty donon mein abhinay samy hone par bhi nrity mein padarth roop abhinay hota hai aur naty mein wakyarth roop abhinay naty ka lachchhan kiya gaya hai — awastha prakrti natyam arthat sharirik aur manasik awasthaon ke anukarn ko naty kaha jata hai ye anukarn angik, wachik, ahary aur satwik chaar prakar ka hota hai is prakar naty mein in charon prakar ke abhinyon ke dwara samajikon mein ras ka sanchar kiya jata hai
sahitydarpankar ne uprupkon ka wibhed pradarshit karte hue naty rasak aur rasak donon ko wibhinn uprupak mana hai aur donon ke alag alag lachchhan diye hain
isse pratit hota hai hi wishwanath ke samay (11ween shati) tak naty rasak aur rasak uprupkon ke ek bhed ke roop mein swikar kiye jane lage the is prakar inmen kewal nrity hi na hota tha apitu abhinay bhi kiya jata tha nrity aur naty donon ka yog naty ras aur rasak mein hota tha naty ras aur rasak donon ekanki hote the naty ras mein udatt nayak aur wasaksajja nayika hoti thi, rasak mein koi khyat nayika kintu moorkh nayak hota tha aur ismen bhasha aur wibhasha ka arthat prakirt aur ashikshait ewan jan sadharan se prayukt lok bhasha ka pradhany hota tha aisa pratit hota hai ki lok mein jan sadharan dwara kisi lok prachalit nayak ko lekar pradarshit uprupak ko alankariyon ne rasak ka nam diya aur shikshait
futaprint –
1 natyarasakamekakan bahutalalyasthiti॥
udattanayakan sadwatt pithmarwopnayak
hasyoऽngpatr s shrringaro nari wasaksajjika॥
mukhnirwahne sandhi lasyangani dashapi ch
kechitpratimukh sandhimih nechchhanti kewlan॥
chausbha sanskrit series prakashan prishth, parichchhed, 277 279
rasaph panchpatr syammukhnirwahnanwitam
bhashawibhashabhuyishthan bhartikaishikiyutam॥
asutrdharmekank sawithyangan phalanwitam
shlishtanandiyutan rkhyatanayikan murkhnaykam॥
udattbhawwigyassambit ghottrottram
ih pratimukh sandhimapi kechitprchakshte
chh 281 290
ewan shastr prachalit nayak ke adhar par rachit uprupak ko naty ras ka nam diya
alankar granthon ke atirikt sanskrit sahity mein bhi rasak ka nirdesh milta hai ban ne apne harshachrit mein harshwardhan ki utpatti par putr janmotsaw ke warnan mein is rasak shabd ka prayog kiya hai wahan rasak shabd manDlakar nrity ke arth mein prayukt hua hai
apabhransh sahity mein bhi ras aur rasak ke kuch ullekh milte hain jabu sami chariu ke karta (wi s 1076) ne granth ke prarambh mein likha hai ha
kawigun ras ranjiy wiussah, wityariy sudday weer kah
nachchijjai jinpay sewayahin, kiu rasath amba dewayhin॥ 14
yahan jinpad sewkon dwara nritypurwak giyman ras ka nirdesh hai is uddharn se ek aur baat ki or hamara dhyan akrisht hona hai chachchari badhi pad se pratit hota hai ki paddhaDiya badh ke saman chachchari badh bhi prayukt hota tha arthat chachchari chhand mein rachit rachna hi chachchari badh kahlati thi wikrmorwanshiy ke chaturth ank mein prayukt anek apabhransh chhandon mein chachchari ke prayog ka pichhe nirdesh kiya ja chuka hai shrichandr rachit (wi s 1123) ratn karanD shastr namak apabhransh granth mein ek sthal par any chhandon ke sath chachchari, rasak aur ras ka ullekh kiya gaya hai—
watyu awatthu jai wisesahin, aDil maDil paddhaDiya ansahin॥ 123
apabhransh ke anek chhand granthon mein bhi rasa jand ka nirdesh milta hai inse pratit hota hai ki sambhwat pahle chachchari aur ras granthon mein yahi chhand purnat ya adhikatः prayukt hota tha pichhe se wishay aur prakar ki drishti se chachchari aur ras shabd granthon ke arth mein bhi rooDh ho gaye apabhransh ke sandesh rasak namak granth mein rasa (rasak) ka, jise abhanak bhi kaha gaya hai, prachurta se prayog kiya gaya hai
futaprint
1 shanaiःshanaiwyanjanmat wa kwchinnrittanuchit chirantan shalin kulputrak lok lasy prwit parthiwanuragः saparwat iw kusum rashibhiः, sagharagrih iw sidhriprpabhi sawart iw rasakmanDalaiः, saprroh iw prsaddanairutsyamodः
harsh ch chaturth uchchhwas
ras shabd ka ullekh sandesh rasak mein bhi ek sthal par milta hai wahan kawi samoru mool sthan multan namak nagar ka rasa chhand mein warnan karta hua kahta hai –
kah wa thai chauweihin weu payasiyai,
kah bahuruwi niwadwau rasau bhasiyai॥ 43
arthat us nagar mein kisi sthan par chaturwediyon dwara wed prakashit kiya ja raha hai, kahin chitr wichitr weshdhari bahurupiyon dwara nibaddh rasak ka path kiya ja raha hai yahan rasak shabd ke sath yadyapi bhash dhatu ka hi prayog kiya gaya hai tathapi bahuruwi nibaddhau wakyansh se ramninadiwat pradarshan ka bhi abhas milta hai
sandesh rasak ka arambh aur ant manglacharan se kiya gaya hai
raynayar ghar giritaruwrai gayarnaganami rikkhai,
jenऽj sayal siriyan so buhyan wo siwan deu॥1
manussdikshtr wimahrehi nahmagni soor sasi bimbe
ayehin jo namijjai tan nayre namah kattaran॥2
granth samapti par kawi kahta hai –
jel achintiu kajju tasu siddh khanaddhi mahantu,
tem paDhant sunatyah japau anai arnatu॥ 223
adi aur ank ke ye manglacharan ke pady rupak aur uprupak ke antargat nandi aur bharat waky ka abhas dete hain
katha wastu mein sthan sthan par sundar kathopakthan bhi drishtigat hota hai udaharnarth
pahiu bhanai pahi jat amangalu maham kari,
ruyawi ruyawi punrutt wah sanwariwi dhari
pahiy! hou tuh ichchh ajj sijmau gaman,
mai na rutru, wirahani gham loyan sawanu॥ 109
pathik kahta hai—(he sundari!) ro rokar, marg mein jate hue mera amangal mat karo, apne in ansuon ko rokkar rakho
wirhinai kahti hai—he pathik! tumhari ichha poorn ho, tumhara aaj gaman middh ho main roi nahin, wirhagni ke dhumadhikya se ankhon mein jal aa gaya
sandesh rasak mein patron ki sankhya adhik nahin unki weshbhusha, saundarya cheshta awasthadi ka nirdesh padyon dwara hi kiya gaya hai shabd yojna dwara warnya wastu ko sakshat chitrawat upasthit kiya gaya hai jaise –
wayn nisunewi manmatya sarwattiya,
mayausar mukkanan harini uttaththiya
mukk wiunh nisas us santiya,
paDhiy iy gah niyanayani warsantiya॥3
arthat pathik ke wachnon ko sunkar kaam ke ban se biddh wo wirhinai shikari ke ban se widdh harini ke saman chhataptane lagi lambe lambe ushn uchchhwas chhoDne lagi ahen bharte bharte aur ankhon se ansu barsate hue usne ye gatha paDhi
watawarn ko sajiwata pradan karne ke liye yathasthan udyan shobha aur wiwidh rituon ka drishya bhi padyon dwara ankit kiya gaya hai
is prakar apabhransh kal mein gady ke wiksit na hone ke karan jaise anek apabhransh granthon mein upanyas ke tattw sookshm roop se drishtigat hote hain, waise hi sandesh rasak mein sookshm roop se naty shastr sambandhi kuch tattwon ka abhas mil jata hai aur ye gady ke wikas kal mein likhit rupkon ke purwarup se pratit hote hain
sandesh rasak ke atirikt any ras granth praya rajasthan mein uplabdh hue hain jain dharmanuyayiyon ki adhikansh janta rajasthan mein rahti hai at wahan is prakar ke ras granthon ka bahuly se milna aswabhawik nahin
sandesh rasak ka samay widwanon ne 11ween 13ween shatabdi ke beech nirdharit kiya hai sandesh rasak addahman (abdul rahman) namak musalman julahe ka likha kawy hai sandesh rasak ke atirikt jindatt suri krit updesh rasayan ras namak ras bhi uplabdh hai jindat suri wi s 1132 mein utpann hue the
updesh rasayan ras 80 padyon ki ek chhoti si kriti hai is ka arambh bhi manglacharan se hota hai kriti ke jal ko jo karnanjali se pan karte hain we ajramar hote hain’ is waky se mangalkamna purwak kriti samapt hoti hai ras mein kawi ne grihasthochit nana dharmik krityon ka ullekh kiya hai
gay sukumar ras ki rachna wi s 1300 ke aas pas mani jati hai ismen wasudew ki patni dewki ji krishn ke saman gun roop nidhan ek aur putr ki kamna karti hain inki abhilasha ke poorn hone ka warnan ismen kiya gaya hai
uparinirdisht rason ke atirikt rajasthani se prabhawit anek ras granth uplabdh hain
shalibhadr suri rachit—bharat bahubali ras ki rachna wi s 1241 mein hui ye wiraras pardhan ras granth hai ismen pushpdant ke mahapuran mein warnait katha ke adhar par rshabh ke putr bharat aur uske chhote bhai bahubli ke yudh ka warnan hai
dharmsuri ne wi s 1266 mein jabu swami ke charit ke kathanak ke adhar par jabu swami rasu ki rachna ki thi wijaysen suri ne wi s 1288 mein ‘rewat giri ras ki rachna ki ismen sorath desh mein rewat giri par neminath ki pratishtha ke karan rewat giri ki prashansa aur neminath ki istuti ki gai hai
abdew (wi s 1371) rachit samrarasu mein saghapati desal ke putr samar singh ki danwirta ka warnan kiya gaya hai usi warsh isne shatru jay teerth ka uddhaar kiya teerth ka bhi sundar bhasha mein warnan milta hai
ras granthon ke is sankshaipt wiwarn se pratit hota hai ki wishay pratipadan ki drishti se ras granthon mein dharmik, aitihasik, pauranaik, naitik, laukik aadi sabhi wishyon ka warnan hota tha jain mandiron mein pray dharmik rason ka hi gan aur nrity purwak path ewan pradarshan hota tha
uparinirdisht rason ke atirikt tala ras aur lakut ras ka bhi nidash updesh rasayan ras mein milta hai –
uchiy thutti thuypaDh paDhijjahin,
je siddh tihin sahu sadhijjahin
talarasu widinti na rayanihin,
diwasi wi lauDarasu sahun purisinhin॥ 36
taliyon ke tal aur lakDi ki DanDiyon ke sath gaye jane wale ras—tala ras aur lakut ras—kahlate hain lakut ras to gujarati ‘garba se bahut milta julta hai
Dau dashrath ojha ne hindi natk udbhaw aur wikas namak apne parbandh mein ras granthon ka wishad wiwechan kiya hai unki sammati mein gay sukumar ras hindi sahity ka pratham natk hai unka abhipray ye hai ki in ras granthon se hi aage chalkar hindi natkon ka wikas hua
uparilikhit ras granthon ke wiwechan ka saransh ye hai ki 11ween se 14ween shatabdi tak prapt anek apabhransh rasak ewan ras granth lok naty ke liye utswon ewan mandiron mein kiye jate the sadharan janta inhin se manowinod karti thi, kintu shisht samaj mein sanskrit naty kiye jate the aur unka parchar bhi abhi tak chal raha tha in ras granthon mein yadyapi uttarkalin natkon ke naty tattwon ka sookshm roop se abhas mil jata hai tathapi in rason ke pady roop mein hone ke karan we tatw purnarup se wiksit na ho sake the in rason mein drishyatw poorn roop se drishtigat nahin hota nrity aur sangit ka hi pradhany tha aisa pratit hota hai sandesh rasak ke karta ne apne granth ko madhyawarg ke sanmukh bar bar paDhne ka nirdesh kiya hai granth ki samapti par bhi lekhak ne iske paDhne aur sunne ka hi nirdesh kiya hai updesh rasayan ras mein bhi kawi ne kriti ke jal ko karnamrit se pan karne walon ke liye ajramratw ki mangal kamna ki hai samraras mein bhi iske paDhne ki or sanket kiya gaya hai kramash in rason mein shrawyatw ke sthan par drishyatw ka bhi parchar hone laga aur inke rupak tattw uttarottar adhik aspasht hone lage
futaprint –
1 jin mukkh na panDiy majhyar,
tih puraj paDhinwau samm war ॥२१
2 madh adhitiu kajz tasu siddh saradi mahtu,
tem pat surnatyah jayau prnai prentu ॥२२३3
3 eh rasu jo pahi gunai naghiu jinahari dei
hindi natk ka udbhaw
Dau wirendr kumar shukl
nana bhawopasampannan nanawasthantratmkam
lok writtanukaranan natyme tanmya kritam॥ (naty shastr 1 109)
natk lok writti ka anusarn hai bharatiy naty shastr ke pratham acharya bharat muni ne apne kathan mein iski pushti ki hai kisi na kisi paranpragat athwa kalpit katha ki anukrti natk mein pradarshit ki jati hai sahity lok jiwan ke karyaklapon mein hi natk ka udbhaw khojta hai adiyug se natkon ke udgam ka krambaddh itihas chala aa raha hai bharatiy sanskriti ke itihas ka awirbhaw waidik kal se hai natk ki utpatti ke wishay mein lok prachalit prachin kinwdantiyan bhi hain dewraj indr ne wedon ke rachyita brahma se jan sadharan ke manoranjnarth ek granth ki rachna karne ki pararthna ki jisse ki sarwasadharan ka manoranjan ho sake brahma ne pathya samagri rigwed se, geet samwed se, abhinay yajurwed se ewan ras tattw atharwawed se lekar ek pancham wed ki rachna ki jise natywed kahte hain iska sutradhar bharat muni ko banakar natyabhinay ke kary sanchalan ka bhaar inhen saunpa naty ki utpatti ki pratham kinwdanti ke roop mein ye katha wyapak roop se prachalit hai
bharatiy sahity ki pray sabhi sahityik prernaon ka sootr wedon mein hai natkon ki utpatti ka arambhik wikasaman swarup wedon mein widyaman hai sanwado ki paranpra ka udbhaw wendo mein dikhai deta hai rigwed mein sanwad sootr widyaman hain unmen natkiya prayojan ki pratham bhumika upasthit pratit hoti hai rigwed mein sanwad tatha swagat kathan upasthit hain udaharn ke roop mein sanwad sukton mein kramash yam tatha yami, pururwa aur urwashi, agasty aur lopamudra, indr t sawak
1 jagrah pathya rigwewatsamanyo gitmenw ch
yajurwedadabhinyarsanayarwnawapi ॥17॥
wedopwedaiः sabaddho natywedo mahatmna
ewan bhagawta srishto brahmna sarwwewina (1) ॥18॥
rigwed maDal 10,10,18
(naty shastr, pratham adhyay)
adi ka kathopakthan milta hai swagat kathnon mein indr athwa somras se chhake hue wekti ka swagat kathan widyaman hai wastut ye manna ni ‘sanwad sookt waidikkalin rahasyatmak natkon ke awshisht chinh hain’ yuktisangat hoga
natk ke udgam sambandh mein pashchaty widwanon ke do mat hain ek warg bharatiy naty ka udbhaw dharmik kary kalapon se prerit manata hai parantu dusra uska uday laukik aur samajik krityon dwara manata hai pro maikmamular, lewi tatha doctor hartel aadi achayon ka mat hai ki natk ka uday waidik richaon ke gan se hua hai yagyon ke awsar par ye richayen samwet myar mein gai jati theen, jinke beech kathopakthan bhi aate the natkiya sanwadon ki prerna sambhwat inhin kathopakthan yukt richaon se milti hai
abhinay ka swarup nritt aur nrity mein widyaman pratit hota hai nritt mein tal swar ke anusar pad sanchalan ka bhaw pradarshit kiya jata hai uska bhaw nirupan pad chalan ki gati par nirbhar hai nrity ke bhawon mein abhinaymulak prerna aspasht drishtigochar hoti hai nrity mein bhaw banakar mook ingiton mein awaywon ka parichalan kiya jata hai nritt tatha nrity ki prerna ka uday shankar tatha parwati ke tanDaw tatha lasy se mana gaya hai pashchaty widwanon mein Dau rijwe natk ka uday weer puja se mante hain ye man pashchaty naty ke liye upyukt ho sakta hai parantu piriy natyodbhaw ke liye yukti sangat nahin hai
mahakawya kal mein watmikiy ramayan mein naton tatha nartkon ka ullekh aaya hai mahabharat kal mein kashth putalika ke prayog ka ullekh milta hai wishel ne inhin ullekhon ke adhar par natk ki prarambhik athwa kathaputaliyon ke nach tatha unke dwara kiye haw bhaw par adharit ki hai yadyapi prachin bharatiy sahity mein kathaputaliyon ke prachalan ka ullekh to milta hai parantu ye pramanaik roop mein nahin kaha ja sakta bataya ki abhinay ka arambh inhin ki prerna ka phal hai yadyapi natkon mein aane wale sutradhar mein upyukt kathan ki kuch sarthakta ka bhan hota hai pro keeth ne bhi uparyukt kathan par apna mantawy apni pustak melo Drama mein diya hai unhonne chhaya natkon ke ullekh mein putliyon ke prachalan ko adhar mana hai
kamsutr ke dwitiy shak mein baryapam ne naton dwara prastut manoranjan ka ullekh kiya hai unke warnan mein kushilwon’ dwara samajik utswon mein pradarshit kautuk kriDa ka warnan hai panaini ke nat sutron mein bhi naty bodh ki garima hai at waidik kal se wikram ke samay tak anek rupon mein bikhre hue natk ke pariwartit tatha pariwardhit roop milte hain
bharatiy naty sahity ki ruparekha sanskrit natkon mein widyaman hai isa ki pratham shatabdi ke antim charn tatha dwitiy shatabdi ke purwargh mein sanskrit sahity ke pratham natyakar ashwghosh ka rachnakal pramanait kiya gaya hai inke sari putr prakarn mein natkiya awaywon ki wyawasthit ruparekha hai sanskrit naty sahity ke pramukh natakkar ashwghosh, bhas, shudrak, shriharsh, wishakhdatt, rajshekhar, kalidas, bhawbhuti, kshemishwar, bhattnarayan, murari, shridamodar mishr tatha jaydew aadi hain sanskrit naty sahity mein pauranaik tatha samajik akhyayikaon ke warnmay chitr hain isa ki pratham shatabdi ke antim charn se barahwin shatabdi tak sanskrit naty sahity ka wikas hua hai sanskrit ke natk prsadantak neeD par wishram karte pratit hote hain phalaprapti ki kalpana harshatirek ki bhawna lekar chalti hai manoranjan mein bhi manaw harsh tatha ahlad pakar sukhanubhuti prapt karta hai at isi wicharadhara se prerit sanskrit ke natk sukhantak rakhe gaye hain pashchaty trasadi ka sanskrit naty sahity mein abhaw hai natkon mein natyshastranusar saiddhantik maryadaon ka palan kiya gaya hai natk ke wibhinn awaywon mein katha wastu kathopakthan, patr tatha ras sabhi widyaman pratit hote hain sanwadon mein gady tatha pady shaili donon hi widyaman hain sanskrit natykaron ne baDa hi prauDh tatha susanskrit sahity wishw naty sahity ke sammukh rakha hai apni anuthi kalpana shakti aur wilakshan naty naipunya ke karan sanskrit ke natyakar ek parampara si bana gaye hain hindi ke arambhik natykaron ne unhin ka anukarn kiya hai
hindi naty sahity ko wastawik prerna sanskrit naty sahity se prapt hui hai hindi ke arambhik natk sanskrit natkon ke anuwadon ke roop mein upasthit hue hain hindi naty sahity ko sarwapratham sanskrit natk ke padyatmak sanwadi ne akrisht kiya tha wastut ye kahna upyukt hai ki hindi natk ka uday sanskrit ke natkiya kawy (Dramatic poetry) se hua tha prarambhik rachnaon mein se hanumannatak tatha samaysar aadi isi koti ki rachnayen hain rachna kram
ke anusar prabodh chandroday hindi sahity ka sarwapratham natk hai iska anuwad jodhpur naresh maharaj jaswantsinh ne sanskrit ke mool natk prabodh chandroday se kiya tha hindi natk ke uday kal mein bhasha ka swarup pady tatha gady mishrit brajbhasha tha sanskrit natkon ke adhar par unke anuwadon mein yathasthan gady tatha pady sanwad prastut kiye jate the unki abhiwyakti ka madhyam brajbhasha hi thi hindi ke arambhik natykaron ne apne anudit natkon mein mool natkon ka akshran anuwad karne ka prayas kiya hai
satrahwin shatabdi ke uttarardh mein anand raghunandan natk riwa naresh wishwanath sinhju dwara prastut kiya gaya ye natk hindi natk sahity ka pratham maulik natk mana jata hai prastut natakkar ne bhi prachalit rachna shaili ke anusar iski bhasha gady tatha pady mishrit brajbhasha rakhi hai taduprant uparyukt natakkar dwara geet raghunandan ki rachna ki gai adikal ke natk kewal sanskrit natkon ke anuwad matr hi rahe hain, parantu kalantar mein hindi natk do wishisht wargon mein wibhakt ho gaya anudit tatha maulik natkon ka prachalan hindi naty sahity mein apnaya gaya ye paranpra chirkal tak hindi naty sahity ka ang bani rahi hindi natk ke arambhik wikas kal mein inhin manowrittiyon ka prabhaw drishtigat hota hai
hindi naty sahity mein sanskrit naty pranali ki pratichchhaya liye hue natkon ki rachna hui hai, praya unka muladhar dharmik akhyanon ki katha wastu rahi hai hindi sahity ka aadi yug wiragatha kal se arambh hota hai is yug mein weer nar pugyo ki gatha padymay warn chitron mein upasthit ki gai thi inhin weer gathaon ka kawy warnan padymay kathopakathnon ke roop mein bhi prastut kiya gaya tha kathopakthan naty sahity ka wishisht ang hai wastut ye padymay kathopakthan bhi hindi naty sahity ke protsahn ka karan raha hai at kaha ja sakta hai ki
kawy ka ye swarup natyodbhaw ka prerak hai
ye sarwamany tathy hai ki poorw bhartendu kal se bhartendu yug tak natykaron ki prawrtti sanskrit naty sahity tatha pauranaik akhyayikaon ko bhashantar roop dekar hindi naty sahity ki paranpra ka awirbhaw karna hi raha hai maulik natkon ka abhaw is kal mein bhatakne wali wastu thi, yadyapi maulik natkon ki rachna kalantar mein awashy hui hai jiska is yug ke sahity mein nagny sthan hai natakkaron ki mool prawrtti anuwadon ki hi or thi arambh ke maulik natk adhikansh padymay hi the pranchand chauhan krit ramayan mahanatak, raghuram nagar krit sabhasar, lachchhiram krit karunabhran aadi ko maulik rachnaon ki koti mein rakha ja sakta hai is yug ke natkon ka nirman kal bhakti aur ritikal ke beech ka yug hai sam samayik watawarn ke prabhaw se is yug ki rachnayen achhuti nahin rah saki hain pauranaik gathaon mein shrringarik bhawna ka prayog is yug ki mool manowritti pratit hoti hai is yug ke natakkaron ne prem wyapar ke sath wiraras ki abhiwyakti se kathankon ko anupranait kiya hai uparyukt shaili ka prayog sanskrit naty sahity mein poorw hi widyaman tha hindi natkon mein bhi uska anusarn kiya gaya tha
satrahwin shatabdi mein sanskrit naty sahity se prabhawit padymay hindi natk ka awirbhaw hua tha aage chalkar alochy kal mein hindi naty prawah do pramukh dharaon mein wibhakt ho gaya inka wargikarn nimn prakar se karna upyukt hoga sarwapratham sahityik natkon ka uday tatha wikas hua, jisne aage chalkar hindi sahity ke akshay bhanDar ki abhiwrddhi ki hai parantu yug ka sahityakar apne samuchit prsadhnon mein hi simit na rah saka wo rupak ke drishya kawyatw ki sarthakta ka upyog karna chahta tha waidik yug mein hi bharat muni dwara rangmanch ki upyogita ka mahatw bataya gaya tha sanskrit sahity ke natk bhi apne kal mein rangmanch ke hetu prayog mein laye gaye the is yug mein sahityik natk itne parishkrit na the ki unka prayog rangmanch par saralta se kiya ja sake padymay sanwad athwa warnanatmak lambe gadyatmak kathopakthan badha ke roop mein upasthit ho jate the natk ke upag ke roop mein jan naty rangmanch par prayukt kiya gaya, dhire dhire isi abhinay mulak rangmanch ne apna mahattwapurn sthan bana liya yadyapi ye parashn yuktisangat hai ki rangmanchiy natkon ko sahityik natkon se prithak kyon na rakha jaye, jabki unka astittw sahityik natkon se bhinn jaan paDta hai parantu smarn rahe ki natk drishya kawy hai aur abhiney hona uska awashyak lachchhan hai is drishtikon se adarsh kahe jane wale natk to usi warg ke kahe jayenge jinmen sahity ke sath sath abhiney gun bhi hoga, rangmanchiy natkon ko sahity se prithak nahin kiya ja sakta hai, we bhi naty siddhant ke ek mukhy ansh ke pratinidhi hain
jan naty ko rangmanchiy prerna chaitany mahaprabhu ke kirtan sanpraday tatha mahaprabhu wallbhacharya ki bhakti bhawna se mili raslila, yatra tatha ramlila ke swarup rangmanchiy prayojan ki paritushti karte pratit hote the hindi se sambandh rakhne wale manoranjnon mein sambhwat ras lila sabse prachin hai bhagwat charcha ke sath sath ye manoranjan ka bhi sulabh sadhan tha hindi rangmanch bhi sahityik natkon ke anurup hi manowrittiyon ka poshak raha hai pauranaik writton ko hi lila ka swarup diya gaya, ras mein krishn lila tatha ram lila mein ramaktha warnait tatha abhinit ki jati thi jis paranpra ka nirwah aaj bhi hona hai rangmanch naty ki paranpra atit, wartaman tatha bhawishya ke wikas sambandh ki awashyak shrrinkhla prastut karti hai
ye sarwamany tathy hai ki naty lok ka anukarn hai, atew lok mein jo kuch he uski chhaya natkon se pradarshit ki jati hai sahity, wastukla, chitr kala, sangit nrityadi, gyan wigyan sabhi kuch natk mein yathasthan prayukt ho sakte hain natk ki udbhawana isi abhipray se prerit hai hindi ke natkon mein bhi unhin sanskaron ki chhap widyaman hai jo use prachin bharatiy naty sahity se prapt hue hain hindi natkon ka udbhaw prachin bharatiy naty paranpra se hai jiski den prauDh sanskrit naty sahity hai hindi ka natk arambh mein sanskrit naty sahity se poorn prabhawit tha tatha sanskrit sahity ke natykaron ne ye marg pradarshit na kiya hota to sambhwat hindi ke naty sahity ka lop ho gaya hota aur hindi ke sahitykaron mein sahity ke is ang ki kalpana bhi na utpann hui hoti
apabhransh bhasha ka samay bhasha wigyan ke acharyon ne 500 i se 1000 i tak bataya hai kintu is ka sahity hamein lagbhag 8ween shati se milna prarambh hota hai prapt apabhransh sahity mein swayambhu sabse poorw hamare samne aate hain apabhransh sahity ka samrddh yug 9ween shatabdi se 13ween shatabdi tak hai isi kal hai swayambhu, pushpdant, dhawal, dhanpal, naynandi, kankamar, dhahil ityadi anek prabhawashali apabhransh kawi hue
jis prakar jainacharyon ne sanskrit wanmay mein anek kawy, puran granth, kalatmak ewan rupak kawyadi granthon ka nirman kiya isi prakar unhonne apabhransh bhasha mein bhi is prakar ke granthon ka pranayan kar apabhransh sahity ko samrddh kiya
jainiyon ke apabhransh ko apnane ka karan ye tha ki jain panditon ne adhikansh granth praya shrawkon ke anurodh se likhe ye shrawak tatkalin bolachal ki bhasha se adhik parichit hote the at jainacharyon ewan bhattarkon dwara shrawakgan ke anurodh par jo sahity likha gaya wo tatkalin prachalit apabhransh mein hi likha gaya jaise bauddhon ne tatkalin prachalit pali ko apne prachararth apnaya, isi prakar jain widwanon ne tatkalin prachalit apabhransh bhasha ko apne wicharon ka madhyam banana abhisht samjha jain, baudh aur itar hinduon ke atirikt musalmanon ne bhi apabhransh mein painya rachna ki sandesh rasak ka lekhak abdularahman iska praman hai
jain kawiyon ne kisi raja, rajmantri ya grihasth ki prerna se kawy rachna ki at inki kritiyon mein unhin ki kalyan kamna ke liye kisi yaj~n ke mahatmy ka pratipadan ya kisi mahapurush ke charit ka wyakhyan kiya gaya hai rajashray mein rahte hue bhi inhen dhan ki ichha na thi kyonki ye log adhiktar nishkam purush the aur na in kawiyon ne apne ashraydata ke mithya wansh ka warnan karne ke liye ya kisi prakar ki chatukari ke liye kuch likha in jan kawiyon ne apne mat ka parchar karne ki drishti se bhi kuch kawyon ka nirman kiya bauddh siddhon ki kawita ka wishay adhyatmaprak hone ke karan uparilikhit wishyon se bhinn hai apni mahatta ke pratipadan ke liye prachin ruDhiyon ka khanDan, guru ki mahima ka gan, rahasyawad aadi hi inki kawita ke mukhy wishay rahe apabhransh sahity ki prishthabhumi praya dharm parchar hai jain kawi pratham parcharak hain fir kawi
apabhransh sahity mein hamein mahapuran, puran aur charit kawyon ke atirikt rupak kawy, kalatmak granth, sandhi kawy, ras, stotr aadi bhi uplabdh hote hain apabhransh kawiyon ka lakshya jan sadharan ke hirdai tak pahunchakar unko sadachar ki drishti mein uncha uthana tha in kawiyon ne shikshait aur panDit warg ke liye hi na likhkar ashikshait aur sadharan warg ke liye bhi likha aparinirdisht apabhransh grantho ke atirikt chunari, chachanri, kulkadi namankit kuch apabhransh granth bhi mile hain
apabhransh sahity ke jin bhi granthon ka upar nirdesh kiya gaya hai we sab apabhranshon ke mahakawya, khanDkawy aur muktak kawy ke sundar udaharn prastut karte hain in granthon mein anek kawyatmak sundar sthal drishtigat hote hain
uparilikhit wishyon ke atirikt apabhransh mein anek updeshatmak granth bhi milte hain inmen kawy ki apeksha dharmik updesh bhawna pardhan hai kawy ras gaun hai, dharm bhaw pardhan is prakar ki updeshatmak kritiyan adhiktar jain dharm ke updeshkon ki hi likhi hui hai inmen se kuch mein adhyatmik tattw pardhan hai kuch mein laukik updesh tatw
jain dharm sambandhi updeshatmak rachnaon ke saman bauddh siddhon ki bhi kuch phutkar rachnayen milti hain jinmen wajrayan aur sahajyan ke siddhanton ka pratipadan kiya gaya hai in dharmik kritiyon ka bhasha ki drishti se utna mahattw nahin jitna bhaw dhara ki drishti se
apabhransh sahity adhikansh dharmik awarn se awrit hai mala ke tantu ke saman sab prakar ki rachnayen dharmsutr se grthit hain apabhransh kawiyon ka lakshya tha ek dharm prawn samaj ki rachna puran, charit, kathatmak kritiyon, rasadi sabhi prakar ki rachnaon mein wahi bhaw drishtigat hota hai koi prem katha ho chahe sahasik katha, kisi ka charit warnan ho chahe koi aur wishay sarwatr dharm tattw anusyut hai mano dharm in lekhkon ka paran tha aur dharm hi inki aatma
rajshekhar (10ween shatabdi) ne rajasbha mein sanskrit aur prakirt kawiyon ke sath apabhransh kawiyon ke baithne ki yojna bhi batai hai isse aspasht hota hai us samay apabhransh kawita bhi raj sabha mein aahat hoti thi usi prakarn mein bhinn bhinn kawiyon ke baithne ki wyawastha batate hue rajshekhkar ne sanskrit, prakirt aur apabhransh kawiyon ke sath baithne walon ka bhi nirdesh kiya hai apabhransh kawiyon ke sath baithne wale chitrkar, jauhari, sunar, baDhai aadi samaj ke maddhyam koti ke manushya hote the isse pratit hota hai ki sanskrit kuch thoDe se panditon ki bhasha thi, prakirt janne walon ka kshaetr apekshakrit baDa tha apabhransh janne walon ka kshaetr aur bhi adhik wistrit tha ewan apabhransh ka sambandh jan sadharan ke sath tha raja ke paricharak warg ka apabhransh bhashan prawn hona bhi isi baat ki or sanket karta hai
shri muni jinawijay ji dwara sanpadit puratan parbandh sangrah namak granth mein sthan sthan par anek apabhransh pady milte hain is granth se pratit hota hai ki anek raj sabhaon mein apabhransh ka aadar chirkal tak bana raha raja bhoj ya unke purwawarti raja apabhransh kawitaon ka samman hi nahin karte the, swayan bhi apabhransh mein kawita likhte the raja bhoj se poorw guj ki sundar apabhransh kawitayen milti hain
is wiwechan se hamara abhipray apabhransh sahity ki alochana prastut karna nahin hamara itna hi niwedan hai ki apabhransh sahity paryapt samrddh tha aur poorn roop se adrit tha jain widwanon ne anek kawy akhyayika, champu, natkadi granthon ka yadyapi sanskrit bhasha mein nirman kiya kintu apabhransh mein nana kawyadi ke uplabdh hone par bhi koi natk uplabdh nahin hua
jo bhi apabhransh sahity adyawadhi parkash mein aa saka hai wo adhikansh jain bhanDaron se uplabdh hua hai jain mandiron mein mandir ke sath ek pustakalaya bhi sanlagn hota tha mandir mein jakar pratima pujnadi ke sath sath jaini log yahan granthon ka swadhyay bhi karte the kisi granth ki hast likhit pratilipi kar ya karwakar any dhaykon ke labharth mandir mein rakhwa dena ek dharmik krity samjha jata tha phalat mandiron mein paryapt granthon ka sangrah ho gaya abhi tak anek jain bhanDaron ke granthon ka samyak nirikshan, wargikarn ewan anushilan nahin ho saka hai prachur sahity abhi tak wahan prachchhann paDa hai aisi awastha mein ye nishchit roop se nahin kaha ja sakta ki apabhransh sahity mein natkon ka sarwatha abhaw hai ho sakta hai ki nawin anusandhan ke parinam swarup atit ke garbh mein leen koi apabhransh natk parkash mein aa sake jain bhanDaron ki adhikansh granth rashi praya dharm pardhan hai at aisa bhi sambhaw hai ki apabhransh mein natk likhe to gaye hon kintu dharmik granthon ke sath mandir mein prawesh na pane ke karan surakshait na rah sake hon sanskrit mein likhit anek natk shrawy kawy ke antargat ho jate hain drishyatw roop se natk rachna ke liye shantimay watawarn ka hona awashyak hai yawno ke akramn se wikshaubdh paristhitiyon mein sambhwat aise natkon ki rachna na ho saki ho karan kuch bhi ho apabhransh bhasha mein likhit natkon ka abhi tak abhaw hai aisi awastha mein paryapt samagri ke na hone se apabhransh naty sahity ki poorn wiwechana sambhaw nahin
apabhransh bhasha mein natk likhe gaye ya nahin is wiwad ko chhoD dijiye shri muni jinawijay dwara sanpadit puratan parbandh sangrah’ ke antargat ek prakarn se aisa abhas milta hai ki hasya winod ke liye apabhransh natk likhe jate the raja bhoj ne siddh ras banane wale yogiyon ko bulwakar ye ras banwana chaha jab we is prakar ka ras na bana sake to unki hansi uDane ke liye apabhransh mein ek natk likhwaya gaya natk ke abhinay ke beech patron ke sabhashan ko sun hansi mein lot pot hote hue raja bhoj ko sambodhan kar ek siddhras yogi kahta hai –
asthi kahant kipi na disai
natthi kahut suhaguru rusai॥
jo janai so kahai na kimai
maramanan tu wiparad isi
apabhransh mein yadyapi koi natk uplabdh nahin tathapi charchari, ras ityadi kuch granth uplabdh hue hain jinse apabhransh ke lok naty par kuch parkash paDta hai chachchri, chachari, charchari ye sab paryayawachi shabd hain charchari shabd tal ewan nrity ke sath, wisheshatः utsaw aadi mein gai jane wali rachna ka bodhak hai iska ullekh wikrmorwanshiy ke chaturth ank ke anek apabhransh padyo mein milta hai wahan anek pady charchari kahe gaye hain samraditya katha, kuwlay mala katha aadi granthon mein bhi iska ullekh milta hai shri harsh ne apni ratnawali natika ke arambh milta hai –
shrichandr kawi (wi s 1123) ke ratn karanD shastr mein anek chhandon ke sath chachchari ka ullekh kiya gaya hai
abdul rahman ne apne sandesh rasak mein wasant warnan ke prsang mein charchari gan ka ullekh kiya hai
chachcharihi geu jhuni kariwi talu,
nachchiyai aump wasantkalu
ghan niwiD haar pari khillrihi,
runsun rau mehal kikinohin ॥ 219
isse pratit hota hai ki charchari, anandotsaw ke awsar par jansadharan mein ya mandiron mein tal aur nrity ke sath gai jati thi malik mohammad jayasi ne apne padmawat mein wasant, phag ewan holi ke prsang mein chachari ya chanchar ka ullekh kiya hai, joki apabhransh kalin charchari ke awshisht roop ke suchak hain
jindatt suri ne wikram ki 12ween shati ke uttarardh mein charchari ki rachna ki thi rachnakar ne suchit kiya hai ki ye kriti paDh (t) majri bhasha rag mein gate hue aur nachte hue paDhi jani chahiye ismen kritikar ne 47 padyon mein apne guru jinwallabh suri ka gungan kiya hai aur nana chaity widhiyon ka widhan kiya hai
is charchari ke atirikt prachin gurjar kawy sangrah mein solan krit charchari ka wyakhyan hai ek welauli rag mein giyman 36 padyon ki chachari istuti aur gurjari rag mein giyman 15 padyon ki gurustuti chachari ka patan bhanDar ki granth suchi mein nirdesh milta hai
apabhransh mein kuch ras granth bhi uplabdh hue hain inmen se kuch ki bhasha ko prachin gujarati wa prachin rajasthani kaha jata hai kintu prachin gujarati, prachin rajasthani sab apabhransh ke hi roop hain aur in sabka samany adhar ewan srot apabhransh ya uttarkalin apabhransh hi hai
ras, raso ya rasak shabd ka kya arth hai, kyon in granthon ka nam ras paDa? is wishay mein widwanon ke bhinn bhinn mat hain kisi ne ise brahmwachak ras se, kisi ne sahityik ras se, kisi ne istri purushon ke manDlakar nrity wachi ras se, kisi ne rajawansh se aur kisi ne kawy wachak rasayan se is shabd ki wyutpatti mani hai
sanskrit ke alankar shastr sambandhi granthon mein ras shabd ka ullekh hai wahan iska lachchhan is prakar diya hai –
shaoDash dwadshashto wa yasmin nrityanti nap (wi) kah
pinDi bandhawi winyasai rasakan taduwahritam॥
is prakar 8, 12, 16 istri purushon ke manDlakar nartan ko rasak kaha gaya hai kintu parashn hota hai ki rasak kewal nritt hai ya nrity ya usmen abhinay ka bhi hona awashyak hai? naty nritt aur nrity se bhinn hai dhananjay ne apne dashrupak mein tinon par wichar kiya hai nritt mein tal lai par ashrit pad sanchalnadi kriyayen hoti hain (nritt talalyashryam) nritt mein kewal matr wikshaep hota hai, nrity mein gatr wikshaep ke sath sath anukarn bhi paya jata hai, nrity mein bhaw pradarshan bhi hota hai (bhawashray nutyam) nritt aur nrity se aage naty aata hai nrity aur naty mein ye bhed hai ki nrity kewal bhawashrit hota hai aur naty rasashrit nrity mein mahir abhinay ka aur naty mein wachik abhinay ka pradhany hota hai nrity aur naty donon mein abhinay samy hone par bhi nrity mein padarth roop abhinay hota hai aur naty mein wakyarth roop abhinay naty ka lachchhan kiya gaya hai — awastha prakrti natyam arthat sharirik aur manasik awasthaon ke anukarn ko naty kaha jata hai ye anukarn angik, wachik, ahary aur satwik chaar prakar ka hota hai is prakar naty mein in charon prakar ke abhinyon ke dwara samajikon mein ras ka sanchar kiya jata hai
sahitydarpankar ne uprupkon ka wibhed pradarshit karte hue naty rasak aur rasak donon ko wibhinn uprupak mana hai aur donon ke alag alag lachchhan diye hain
isse pratit hota hai hi wishwanath ke samay (11ween shati) tak naty rasak aur rasak uprupkon ke ek bhed ke roop mein swikar kiye jane lage the is prakar inmen kewal nrity hi na hota tha apitu abhinay bhi kiya jata tha nrity aur naty donon ka yog naty ras aur rasak mein hota tha naty ras aur rasak donon ekanki hote the naty ras mein udatt nayak aur wasaksajja nayika hoti thi, rasak mein koi khyat nayika kintu moorkh nayak hota tha aur ismen bhasha aur wibhasha ka arthat prakirt aur ashikshait ewan jan sadharan se prayukt lok bhasha ka pradhany hota tha aisa pratit hota hai ki lok mein jan sadharan dwara kisi lok prachalit nayak ko lekar pradarshit uprupak ko alankariyon ne rasak ka nam diya aur shikshait
futaprint –
1 natyarasakamekakan bahutalalyasthiti॥
udattanayakan sadwatt pithmarwopnayak
hasyoऽngpatr s shrringaro nari wasaksajjika॥
mukhnirwahne sandhi lasyangani dashapi ch
kechitpratimukh sandhimih nechchhanti kewlan॥
chausbha sanskrit series prakashan prishth, parichchhed, 277 279
rasaph panchpatr syammukhnirwahnanwitam
bhashawibhashabhuyishthan bhartikaishikiyutam॥
asutrdharmekank sawithyangan phalanwitam
shlishtanandiyutan rkhyatanayikan murkhnaykam॥
udattbhawwigyassambit ghottrottram
ih pratimukh sandhimapi kechitprchakshte
chh 281 290
ewan shastr prachalit nayak ke adhar par rachit uprupak ko naty ras ka nam diya
alankar granthon ke atirikt sanskrit sahity mein bhi rasak ka nirdesh milta hai ban ne apne harshachrit mein harshwardhan ki utpatti par putr janmotsaw ke warnan mein is rasak shabd ka prayog kiya hai wahan rasak shabd manDlakar nrity ke arth mein prayukt hua hai
apabhransh sahity mein bhi ras aur rasak ke kuch ullekh milte hain jabu sami chariu ke karta (wi s 1076) ne granth ke prarambh mein likha hai ha
kawigun ras ranjiy wiussah, wityariy sudday weer kah
nachchijjai jinpay sewayahin, kiu rasath amba dewayhin॥ 14
yahan jinpad sewkon dwara nritypurwak giyman ras ka nirdesh hai is uddharn se ek aur baat ki or hamara dhyan akrisht hona hai chachchari badhi pad se pratit hota hai ki paddhaDiya badh ke saman chachchari badh bhi prayukt hota tha arthat chachchari chhand mein rachit rachna hi chachchari badh kahlati thi wikrmorwanshiy ke chaturth ank mein prayukt anek apabhransh chhandon mein chachchari ke prayog ka pichhe nirdesh kiya ja chuka hai shrichandr rachit (wi s 1123) ratn karanD shastr namak apabhransh granth mein ek sthal par any chhandon ke sath chachchari, rasak aur ras ka ullekh kiya gaya hai—
watyu awatthu jai wisesahin, aDil maDil paddhaDiya ansahin॥ 123
apabhransh ke anek chhand granthon mein bhi rasa jand ka nirdesh milta hai inse pratit hota hai ki sambhwat pahle chachchari aur ras granthon mein yahi chhand purnat ya adhikatः prayukt hota tha pichhe se wishay aur prakar ki drishti se chachchari aur ras shabd granthon ke arth mein bhi rooDh ho gaye apabhransh ke sandesh rasak namak granth mein rasa (rasak) ka, jise abhanak bhi kaha gaya hai, prachurta se prayog kiya gaya hai
futaprint
1 shanaiःshanaiwyanjanmat wa kwchinnrittanuchit chirantan shalin kulputrak lok lasy prwit parthiwanuragः saparwat iw kusum rashibhiः, sagharagrih iw sidhriprpabhi sawart iw rasakmanDalaiः, saprroh iw prsaddanairutsyamodः
harsh ch chaturth uchchhwas
ras shabd ka ullekh sandesh rasak mein bhi ek sthal par milta hai wahan kawi samoru mool sthan multan namak nagar ka rasa chhand mein warnan karta hua kahta hai –
kah wa thai chauweihin weu payasiyai,
kah bahuruwi niwadwau rasau bhasiyai॥ 43
arthat us nagar mein kisi sthan par chaturwediyon dwara wed prakashit kiya ja raha hai, kahin chitr wichitr weshdhari bahurupiyon dwara nibaddh rasak ka path kiya ja raha hai yahan rasak shabd ke sath yadyapi bhash dhatu ka hi prayog kiya gaya hai tathapi bahuruwi nibaddhau wakyansh se ramninadiwat pradarshan ka bhi abhas milta hai
sandesh rasak ka arambh aur ant manglacharan se kiya gaya hai
raynayar ghar giritaruwrai gayarnaganami rikkhai,
jenऽj sayal siriyan so buhyan wo siwan deu॥1
manussdikshtr wimahrehi nahmagni soor sasi bimbe
ayehin jo namijjai tan nayre namah kattaran॥2
granth samapti par kawi kahta hai –
jel achintiu kajju tasu siddh khanaddhi mahantu,
tem paDhant sunatyah japau anai arnatu॥ 223
adi aur ank ke ye manglacharan ke pady rupak aur uprupak ke antargat nandi aur bharat waky ka abhas dete hain
katha wastu mein sthan sthan par sundar kathopakthan bhi drishtigat hota hai udaharnarth
pahiu bhanai pahi jat amangalu maham kari,
ruyawi ruyawi punrutt wah sanwariwi dhari
pahiy! hou tuh ichchh ajj sijmau gaman,
mai na rutru, wirahani gham loyan sawanu॥ 109
pathik kahta hai—(he sundari!) ro rokar, marg mein jate hue mera amangal mat karo, apne in ansuon ko rokkar rakho
wirhinai kahti hai—he pathik! tumhari ichha poorn ho, tumhara aaj gaman middh ho main roi nahin, wirhagni ke dhumadhikya se ankhon mein jal aa gaya
sandesh rasak mein patron ki sankhya adhik nahin unki weshbhusha, saundarya cheshta awasthadi ka nirdesh padyon dwara hi kiya gaya hai shabd yojna dwara warnya wastu ko sakshat chitrawat upasthit kiya gaya hai jaise –
wayn nisunewi manmatya sarwattiya,
mayausar mukkanan harini uttaththiya
mukk wiunh nisas us santiya,
paDhiy iy gah niyanayani warsantiya॥3
arthat pathik ke wachnon ko sunkar kaam ke ban se biddh wo wirhinai shikari ke ban se widdh harini ke saman chhataptane lagi lambe lambe ushn uchchhwas chhoDne lagi ahen bharte bharte aur ankhon se ansu barsate hue usne ye gatha paDhi
watawarn ko sajiwata pradan karne ke liye yathasthan udyan shobha aur wiwidh rituon ka drishya bhi padyon dwara ankit kiya gaya hai
is prakar apabhransh kal mein gady ke wiksit na hone ke karan jaise anek apabhransh granthon mein upanyas ke tattw sookshm roop se drishtigat hote hain, waise hi sandesh rasak mein sookshm roop se naty shastr sambandhi kuch tattwon ka abhas mil jata hai aur ye gady ke wikas kal mein likhit rupkon ke purwarup se pratit hote hain
sandesh rasak ke atirikt any ras granth praya rajasthan mein uplabdh hue hain jain dharmanuyayiyon ki adhikansh janta rajasthan mein rahti hai at wahan is prakar ke ras granthon ka bahuly se milna aswabhawik nahin
sandesh rasak ka samay widwanon ne 11ween 13ween shatabdi ke beech nirdharit kiya hai sandesh rasak addahman (abdul rahman) namak musalman julahe ka likha kawy hai sandesh rasak ke atirikt jindatt suri krit updesh rasayan ras namak ras bhi uplabdh hai jindat suri wi s 1132 mein utpann hue the
updesh rasayan ras 80 padyon ki ek chhoti si kriti hai is ka arambh bhi manglacharan se hota hai kriti ke jal ko jo karnanjali se pan karte hain we ajramar hote hain’ is waky se mangalkamna purwak kriti samapt hoti hai ras mein kawi ne grihasthochit nana dharmik krityon ka ullekh kiya hai
gay sukumar ras ki rachna wi s 1300 ke aas pas mani jati hai ismen wasudew ki patni dewki ji krishn ke saman gun roop nidhan ek aur putr ki kamna karti hain inki abhilasha ke poorn hone ka warnan ismen kiya gaya hai
uparinirdisht rason ke atirikt rajasthani se prabhawit anek ras granth uplabdh hain
shalibhadr suri rachit—bharat bahubali ras ki rachna wi s 1241 mein hui ye wiraras pardhan ras granth hai ismen pushpdant ke mahapuran mein warnait katha ke adhar par rshabh ke putr bharat aur uske chhote bhai bahubli ke yudh ka warnan hai
dharmsuri ne wi s 1266 mein jabu swami ke charit ke kathanak ke adhar par jabu swami rasu ki rachna ki thi wijaysen suri ne wi s 1288 mein ‘rewat giri ras ki rachna ki ismen sorath desh mein rewat giri par neminath ki pratishtha ke karan rewat giri ki prashansa aur neminath ki istuti ki gai hai
abdew (wi s 1371) rachit samrarasu mein saghapati desal ke putr samar singh ki danwirta ka warnan kiya gaya hai usi warsh isne shatru jay teerth ka uddhaar kiya teerth ka bhi sundar bhasha mein warnan milta hai
ras granthon ke is sankshaipt wiwarn se pratit hota hai ki wishay pratipadan ki drishti se ras granthon mein dharmik, aitihasik, pauranaik, naitik, laukik aadi sabhi wishyon ka warnan hota tha jain mandiron mein pray dharmik rason ka hi gan aur nrity purwak path ewan pradarshan hota tha
uparinirdisht rason ke atirikt tala ras aur lakut ras ka bhi nidash updesh rasayan ras mein milta hai –
uchiy thutti thuypaDh paDhijjahin,
je siddh tihin sahu sadhijjahin
talarasu widinti na rayanihin,
diwasi wi lauDarasu sahun purisinhin॥ 36
taliyon ke tal aur lakDi ki DanDiyon ke sath gaye jane wale ras—tala ras aur lakut ras—kahlate hain lakut ras to gujarati ‘garba se bahut milta julta hai
Dau dashrath ojha ne hindi natk udbhaw aur wikas namak apne parbandh mein ras granthon ka wishad wiwechan kiya hai unki sammati mein gay sukumar ras hindi sahity ka pratham natk hai unka abhipray ye hai ki in ras granthon se hi aage chalkar hindi natkon ka wikas hua
uparilikhit ras granthon ke wiwechan ka saransh ye hai ki 11ween se 14ween shatabdi tak prapt anek apabhransh rasak ewan ras granth lok naty ke liye utswon ewan mandiron mein kiye jate the sadharan janta inhin se manowinod karti thi, kintu shisht samaj mein sanskrit naty kiye jate the aur unka parchar bhi abhi tak chal raha tha in ras granthon mein yadyapi uttarkalin natkon ke naty tattwon ka sookshm roop se abhas mil jata hai tathapi in rason ke pady roop mein hone ke karan we tatw purnarup se wiksit na ho sake the in rason mein drishyatw poorn roop se drishtigat nahin hota nrity aur sangit ka hi pradhany tha aisa pratit hota hai sandesh rasak ke karta ne apne granth ko madhyawarg ke sanmukh bar bar paDhne ka nirdesh kiya hai granth ki samapti par bhi lekhak ne iske paDhne aur sunne ka hi nirdesh kiya hai updesh rasayan ras mein bhi kawi ne kriti ke jal ko karnamrit se pan karne walon ke liye ajramratw ki mangal kamna ki hai samraras mein bhi iske paDhne ki or sanket kiya gaya hai kramash in rason mein shrawyatw ke sthan par drishyatw ka bhi parchar hone laga aur inke rupak tattw uttarottar adhik aspasht hone lage
futaprint –
1 jin mukkh na panDiy majhyar,
tih puraj paDhinwau samm war ॥२१
2 madh adhitiu kajz tasu siddh saradi mahtu,
tem pat surnatyah jayau prnai prentu ॥२२३3
3 eh rasu jo pahi gunai naghiu jinahari dei
hindi natk ka udbhaw
Dau wirendr kumar shukl
nana bhawopasampannan nanawasthantratmkam
lok writtanukaranan natyme tanmya kritam॥ (naty shastr 1 109)
natk lok writti ka anusarn hai bharatiy naty shastr ke pratham acharya bharat muni ne apne kathan mein iski pushti ki hai kisi na kisi paranpragat athwa kalpit katha ki anukrti natk mein pradarshit ki jati hai sahity lok jiwan ke karyaklapon mein hi natk ka udbhaw khojta hai adiyug se natkon ke udgam ka krambaddh itihas chala aa raha hai bharatiy sanskriti ke itihas ka awirbhaw waidik kal se hai natk ki utpatti ke wishay mein lok prachalit prachin kinwdantiyan bhi hain dewraj indr ne wedon ke rachyita brahma se jan sadharan ke manoranjnarth ek granth ki rachna karne ki pararthna ki jisse ki sarwasadharan ka manoranjan ho sake brahma ne pathya samagri rigwed se, geet samwed se, abhinay yajurwed se ewan ras tattw atharwawed se lekar ek pancham wed ki rachna ki jise natywed kahte hain iska sutradhar bharat muni ko banakar natyabhinay ke kary sanchalan ka bhaar inhen saunpa naty ki utpatti ki pratham kinwdanti ke roop mein ye katha wyapak roop se prachalit hai
bharatiy sahity ki pray sabhi sahityik prernaon ka sootr wedon mein hai natkon ki utpatti ka arambhik wikasaman swarup wedon mein widyaman hai sanwado ki paranpra ka udbhaw wendo mein dikhai deta hai rigwed mein sanwad sootr widyaman hain unmen natkiya prayojan ki pratham bhumika upasthit pratit hoti hai rigwed mein sanwad tatha swagat kathan upasthit hain udaharn ke roop mein sanwad sukton mein kramash yam tatha yami, pururwa aur urwashi, agasty aur lopamudra, indr t sawak
1 jagrah pathya rigwewatsamanyo gitmenw ch
yajurwedadabhinyarsanayarwnawapi ॥17॥
wedopwedaiः sabaddho natywedo mahatmna
ewan bhagawta srishto brahmna sarwwewina (1) ॥18॥
rigwed maDal 10,10,18
(naty shastr, pratham adhyay)
adi ka kathopakthan milta hai swagat kathnon mein indr athwa somras se chhake hue wekti ka swagat kathan widyaman hai wastut ye manna ni ‘sanwad sookt waidikkalin rahasyatmak natkon ke awshisht chinh hain’ yuktisangat hoga
natk ke udgam sambandh mein pashchaty widwanon ke do mat hain ek warg bharatiy naty ka udbhaw dharmik kary kalapon se prerit manata hai parantu dusra uska uday laukik aur samajik krityon dwara manata hai pro maikmamular, lewi tatha doctor hartel aadi achayon ka mat hai ki natk ka uday waidik richaon ke gan se hua hai yagyon ke awsar par ye richayen samwet myar mein gai jati theen, jinke beech kathopakthan bhi aate the natkiya sanwadon ki prerna sambhwat inhin kathopakthan yukt richaon se milti hai
abhinay ka swarup nritt aur nrity mein widyaman pratit hota hai nritt mein tal swar ke anusar pad sanchalan ka bhaw pradarshit kiya jata hai uska bhaw nirupan pad chalan ki gati par nirbhar hai nrity ke bhawon mein abhinaymulak prerna aspasht drishtigochar hoti hai nrity mein bhaw banakar mook ingiton mein awaywon ka parichalan kiya jata hai nritt tatha nrity ki prerna ka uday shankar tatha parwati ke tanDaw tatha lasy se mana gaya hai pashchaty widwanon mein Dau rijwe natk ka uday weer puja se mante hain ye man pashchaty naty ke liye upyukt ho sakta hai parantu piriy natyodbhaw ke liye yukti sangat nahin hai
mahakawya kal mein watmikiy ramayan mein naton tatha nartkon ka ullekh aaya hai mahabharat kal mein kashth putalika ke prayog ka ullekh milta hai wishel ne inhin ullekhon ke adhar par natk ki prarambhik athwa kathaputaliyon ke nach tatha unke dwara kiye haw bhaw par adharit ki hai yadyapi prachin bharatiy sahity mein kathaputaliyon ke prachalan ka ullekh to milta hai parantu ye pramanaik roop mein nahin kaha ja sakta bataya ki abhinay ka arambh inhin ki prerna ka phal hai yadyapi natkon mein aane wale sutradhar mein upyukt kathan ki kuch sarthakta ka bhan hota hai pro keeth ne bhi uparyukt kathan par apna mantawy apni pustak melo Drama mein diya hai unhonne chhaya natkon ke ullekh mein putliyon ke prachalan ko adhar mana hai
kamsutr ke dwitiy shak mein baryapam ne naton dwara prastut manoranjan ka ullekh kiya hai unke warnan mein kushilwon’ dwara samajik utswon mein pradarshit kautuk kriDa ka warnan hai panaini ke nat sutron mein bhi naty bodh ki garima hai at waidik kal se wikram ke samay tak anek rupon mein bikhre hue natk ke pariwartit tatha pariwardhit roop milte hain
bharatiy naty sahity ki ruparekha sanskrit natkon mein widyaman hai isa ki pratham shatabdi ke antim charn tatha dwitiy shatabdi ke purwargh mein sanskrit sahity ke pratham natyakar ashwghosh ka rachnakal pramanait kiya gaya hai inke sari putr prakarn mein natkiya awaywon ki wyawasthit ruparekha hai sanskrit naty sahity ke pramukh natakkar ashwghosh, bhas, shudrak, shriharsh, wishakhdatt, rajshekhar, kalidas, bhawbhuti, kshemishwar, bhattnarayan, murari, shridamodar mishr tatha jaydew aadi hain sanskrit naty sahity mein pauranaik tatha samajik akhyayikaon ke warnmay chitr hain isa ki pratham shatabdi ke antim charn se barahwin shatabdi tak sanskrit naty sahity ka wikas hua hai sanskrit ke natk prsadantak neeD par wishram karte pratit hote hain phalaprapti ki kalpana harshatirek ki bhawna lekar chalti hai manoranjan mein bhi manaw harsh tatha ahlad pakar sukhanubhuti prapt karta hai at isi wicharadhara se prerit sanskrit ke natk sukhantak rakhe gaye hain pashchaty trasadi ka sanskrit naty sahity mein abhaw hai natkon mein natyshastranusar saiddhantik maryadaon ka palan kiya gaya hai natk ke wibhinn awaywon mein katha wastu kathopakthan, patr tatha ras sabhi widyaman pratit hote hain sanwadon mein gady tatha pady shaili donon hi widyaman hain sanskrit natykaron ne baDa hi prauDh tatha susanskrit sahity wishw naty sahity ke sammukh rakha hai apni anuthi kalpana shakti aur wilakshan naty naipunya ke karan sanskrit ke natyakar ek parampara si bana gaye hain hindi ke arambhik natykaron ne unhin ka anukarn kiya hai
hindi naty sahity ko wastawik prerna sanskrit naty sahity se prapt hui hai hindi ke arambhik natk sanskrit natkon ke anuwadon ke roop mein upasthit hue hain hindi naty sahity ko sarwapratham sanskrit natk ke padyatmak sanwadi ne akrisht kiya tha wastut ye kahna upyukt hai ki hindi natk ka uday sanskrit ke natkiya kawy (Dramatic poetry) se hua tha prarambhik rachnaon mein se hanumannatak tatha samaysar aadi isi koti ki rachnayen hain rachna kram
ke anusar prabodh chandroday hindi sahity ka sarwapratham natk hai iska anuwad jodhpur naresh maharaj jaswantsinh ne sanskrit ke mool natk prabodh chandroday se kiya tha hindi natk ke uday kal mein bhasha ka swarup pady tatha gady mishrit brajbhasha tha sanskrit natkon ke adhar par unke anuwadon mein yathasthan gady tatha pady sanwad prastut kiye jate the unki abhiwyakti ka madhyam brajbhasha hi thi hindi ke arambhik natykaron ne apne anudit natkon mein mool natkon ka akshran anuwad karne ka prayas kiya hai
satrahwin shatabdi ke uttarardh mein anand raghunandan natk riwa naresh wishwanath sinhju dwara prastut kiya gaya ye natk hindi natk sahity ka pratham maulik natk mana jata hai prastut natakkar ne bhi prachalit rachna shaili ke anusar iski bhasha gady tatha pady mishrit brajbhasha rakhi hai taduprant uparyukt natakkar dwara geet raghunandan ki rachna ki gai adikal ke natk kewal sanskrit natkon ke anuwad matr hi rahe hain, parantu kalantar mein hindi natk do wishisht wargon mein wibhakt ho gaya anudit tatha maulik natkon ka prachalan hindi naty sahity mein apnaya gaya ye paranpra chirkal tak hindi naty sahity ka ang bani rahi hindi natk ke arambhik wikas kal mein inhin manowrittiyon ka prabhaw drishtigat hota hai
hindi naty sahity mein sanskrit naty pranali ki pratichchhaya liye hue natkon ki rachna hui hai, praya unka muladhar dharmik akhyanon ki katha wastu rahi hai hindi sahity ka aadi yug wiragatha kal se arambh hota hai is yug mein weer nar pugyo ki gatha padymay warn chitron mein upasthit ki gai thi inhin weer gathaon ka kawy warnan padymay kathopakathnon ke roop mein bhi prastut kiya gaya tha kathopakthan naty sahity ka wishisht ang hai wastut ye padymay kathopakthan bhi hindi naty sahity ke protsahn ka karan raha hai at kaha ja sakta hai ki
kawy ka ye swarup natyodbhaw ka prerak hai
ye sarwamany tathy hai ki poorw bhartendu kal se bhartendu yug tak natykaron ki prawrtti sanskrit naty sahity tatha pauranaik akhyayikaon ko bhashantar roop dekar hindi naty sahity ki paranpra ka awirbhaw karna hi raha hai maulik natkon ka abhaw is kal mein bhatakne wali wastu thi, yadyapi maulik natkon ki rachna kalantar mein awashy hui hai jiska is yug ke sahity mein nagny sthan hai natakkaron ki mool prawrtti anuwadon ki hi or thi arambh ke maulik natk adhikansh padymay hi the pranchand chauhan krit ramayan mahanatak, raghuram nagar krit sabhasar, lachchhiram krit karunabhran aadi ko maulik rachnaon ki koti mein rakha ja sakta hai is yug ke natkon ka nirman kal bhakti aur ritikal ke beech ka yug hai sam samayik watawarn ke prabhaw se is yug ki rachnayen achhuti nahin rah saki hain pauranaik gathaon mein shrringarik bhawna ka prayog is yug ki mool manowritti pratit hoti hai is yug ke natakkaron ne prem wyapar ke sath wiraras ki abhiwyakti se kathankon ko anupranait kiya hai uparyukt shaili ka prayog sanskrit naty sahity mein poorw hi widyaman tha hindi natkon mein bhi uska anusarn kiya gaya tha
satrahwin shatabdi mein sanskrit naty sahity se prabhawit padymay hindi natk ka awirbhaw hua tha aage chalkar alochy kal mein hindi naty prawah do pramukh dharaon mein wibhakt ho gaya inka wargikarn nimn prakar se karna upyukt hoga sarwapratham sahityik natkon ka uday tatha wikas hua, jisne aage chalkar hindi sahity ke akshay bhanDar ki abhiwrddhi ki hai parantu yug ka sahityakar apne samuchit prsadhnon mein hi simit na rah saka wo rupak ke drishya kawyatw ki sarthakta ka upyog karna chahta tha waidik yug mein hi bharat muni dwara rangmanch ki upyogita ka mahatw bataya gaya tha sanskrit sahity ke natk bhi apne kal mein rangmanch ke hetu prayog mein laye gaye the is yug mein sahityik natk itne parishkrit na the ki unka prayog rangmanch par saralta se kiya ja sake padymay sanwad athwa warnanatmak lambe gadyatmak kathopakthan badha ke roop mein upasthit ho jate the natk ke upag ke roop mein jan naty rangmanch par prayukt kiya gaya, dhire dhire isi abhinay mulak rangmanch ne apna mahattwapurn sthan bana liya yadyapi ye parashn yuktisangat hai ki rangmanchiy natkon ko sahityik natkon se prithak kyon na rakha jaye, jabki unka astittw sahityik natkon se bhinn jaan paDta hai parantu smarn rahe ki natk drishya kawy hai aur abhiney hona uska awashyak lachchhan hai is drishtikon se adarsh kahe jane wale natk to usi warg ke kahe jayenge jinmen sahity ke sath sath abhiney gun bhi hoga, rangmanchiy natkon ko sahity se prithak nahin kiya ja sakta hai, we bhi naty siddhant ke ek mukhy ansh ke pratinidhi hain
jan naty ko rangmanchiy prerna chaitany mahaprabhu ke kirtan sanpraday tatha mahaprabhu wallbhacharya ki bhakti bhawna se mili raslila, yatra tatha ramlila ke swarup rangmanchiy prayojan ki paritushti karte pratit hote the hindi se sambandh rakhne wale manoranjnon mein sambhwat ras lila sabse prachin hai bhagwat charcha ke sath sath ye manoranjan ka bhi sulabh sadhan tha hindi rangmanch bhi sahityik natkon ke anurup hi manowrittiyon ka poshak raha hai pauranaik writton ko hi lila ka swarup diya gaya, ras mein krishn lila tatha ram lila mein ramaktha warnait tatha abhinit ki jati thi jis paranpra ka nirwah aaj bhi hona hai rangmanch naty ki paranpra atit, wartaman tatha bhawishya ke wikas sambandh ki awashyak shrrinkhla prastut karti hai
ye sarwamany tathy hai ki naty lok ka anukarn hai, atew lok mein jo kuch he uski chhaya natkon se pradarshit ki jati hai sahity, wastukla, chitr kala, sangit nrityadi, gyan wigyan sabhi kuch natk mein yathasthan prayukt ho sakte hain natk ki udbhawana isi abhipray se prerit hai hindi ke natkon mein bhi unhin sanskaron ki chhap widyaman hai jo use prachin bharatiy naty sahity se prapt hue hain hindi natkon ka udbhaw prachin bharatiy naty paranpra se hai jiski den prauDh sanskrit naty sahity hai hindi ka natk arambh mein sanskrit naty sahity se poorn prabhawit tha tatha sanskrit sahity ke natykaron ne ye marg pradarshit na kiya hota to sambhwat hindi ke naty sahity ka lop ho gaya hota aur hindi ke sahitykaron mein sahity ke is ang ki kalpana bhi na utpann hui hoti
स्रोत :
पुस्तक : भारतीय नाट्य साहित्य (पृष्ठ 246)
संपादक : नगेन्द्र
रचनाकार : हरिवंश कोछड़
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