इतिहास का अर्थ है इति-ह-आस यानी 'यह ऐसा हुआ।' उपन्यास का अर्थ ही है 'नवलिका' (नौवले > नाविल) या कादंबरी। पहला, घटना का यथार्थ वर्णन है। दूसरा, कल्पना का रोचक रम्य विलास है। तो क्या दोनों में कोई मौलिक विरोध है? क्या यथार्थ की गौर-मिट्टी से ही हमारी कल्पना नहीं बनती? और हमारे सपनों का कुछ असर हमारे यथार्थ के निर्माण पर पड़े बिना रहता है? और फिर ऐतिहासिक उपन्यास एक कला-कृति भी है। यानी कलाकार व्यक्ति की मेघा और मार्मिक भावना से छनकर नया रूप और रंग दिखलाने वाला समाज दर्शन। कलाकार व्यक्ति समाज-निरपेक्ष नहीं है और न ही समाज के व्यक्तियों से अप्रभावित रहा है।
मेरा विचार ऐतिहासिक उपन्यास की सृजन-समस्या के इस मौलिक अंर्तद्वंद्व पर कुछ कहना है; जिसमें मेरे पढ़े हुए इतिहास-वृतांत और उनपर लिखे गए आख्यानों की बात भी आ जाएगी। साथ ही अँग्रेज़ी, हिंदी, मराठी, बाँग्ला, गुजराती और अन्यान्य देशी-विदेशी ऐतिहासिक उपन्यासों की चर्चा भी होगी। ऐतिहासिक उपन्यास की समस्याएँ भी इसी में आएँगी।
इतिहास का दर्शन
हेगेल की पुस्तक इस नाम से मैंने पढ़ी थी। बाद में मार्क्सवादियों की ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्याएँ, विशेषतः लेनिन-एंगेल्स की और नव्य आदर्शवादी क्रोचे और तर्कवादी रसेल की भी इस विषय में गवेषणाएँ और मंतव्य मैंने पढ़े हैं। एंगेल्स से हेगेल के आदर्शवादी इतिहास-दर्शन के विरोध में ‘एंटी-डूहरिंग' में लिखा है 'द हेगलियन सिस्टम एज़ सच वॉज़ ए क्लोज़ल मिसकैरेज. इट सफ़र्ड फ्रॉम एन इनटर्नल एंड इनसोल्युबल कॉनट्राडिक्शन.' हेगेल एक ओर इतिहास को निरा विकास मानता है और दूसरी ओर इसी को चरम सत्य भी कहता है। यह
परस्पर-विरोधी विधान है। मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि जैसे मैंने अपनी एक कविता में लिखा था :
मानव, तेरा क्या इतिहास?
ज्यादह आँसू, थोड़ा हास
रक्तपात साम्राज्य-विनास,
चक्र-नेमि-क्रम पुनर्विकास!
इतिहास की प्रगति द्वंद्वात्मक निश्चित है। परंतु इसके विषय में तीन तरह के मत-विश्वास बहुप्रचलित हैं। एक मत को हम आवर्तवादी कहें। इनके अनुसार इतिहास की पुनरावृत्ति होती रहती है। हम पुनः लौटकर वहीं पहुँचेंगे जहाँ पहले थे। और इस तरह से मनुष्य से कृतित्व का सारा दायित्व और सारी महत्ता छीनकर किसी अज्ञात, रहस्यवादी शक्ति (ईश्वर, कर्म, नियति प्रकृति या जो भी उसे कहें) के हाथों उसे सौंप देना है। इस मत के लोग पुनरुज्जीवनवादी होते हैं। उनके अनुसार फिर से हिंदू या आर्य ‘पद-पादशाही' का साम्राज्य हो सकेगा या राम के राज्य की पुनरावृत्ति हो सकेगी। इन संकीर्ण पुनरुत्थानवादियों के तर्क से यदि कोई यह कहे कि पुनः ‘कृण्वंतो विश्वम् बौद्धम्' हो जाएगा या फिर से मुगलों की सल्तनत या गोरों की कंपनीशाही भारत में आ जाएगी, तो लोग हँसने लगेंगे। परंतु सामाजिक मनोविज्ञान के अनुसार जीव की यह पुनः मूल की ओर जाने की वृत्ति (एटैविज़्म) एक प्रबल स्फूर्तिदायक प्रवृत्ति है। कहना नहीं होगा कि यह इतिहास-दर्शन चाहे कितना ही आदर्शवादी हो, कितना अवैज्ञानिक और अयथार्थ है। कलियुग के बाद फिर से प्रलय होगी और हजरत नूह की किश्ती में सिर्फ़ आदम और हौआ-मौज करेंगे, यह मानना अणु-युग में एक मजाक-मात्र है।
इसी आदर्शवादी पुनरुज्जीवनवादी वृत्ति को घटनाओं की तर्क-प्रतिष्ठा देकर और वैज्ञानिकता का बुर्का पहनाकर टायनबी जैसे इतिहास-वेत्ता भी एक दूसरी दृष्टि इतिहास के बारे में देते हैं। वह है उत्थान-पतन की आवृत्ति, प्रतीस्य-समुत्पाद की तरह लहरियों का कार्य-कारण-परंपरा की तरह एक के बाद दूरी का आना, यही इतिहास का सत्य है। इसमें भी मनुष्य केवल तरंगों पर के फेन-बुदबुद की भाँति उठकर फूट जाते हैं। ‘वे केवल महामिलन के चिह्न की तरह बचे हैं।' यह वैसे तो बहुत-कुछ तर्क-संगत इतिहास-दर्शन जान पड़ता है, परंतु यह पहले दर्शन की भाँति निराशावादी न होने पर भी स्थिति-व्यापकवादी दर्शन अवश्य है। इसमें मानवी प्रगति के लिए कोई प्रयोजन, संस्कृति की निरंतर ऊर्ध्वगति का कोई अभिप्राय नहीं दिखाई देता। हमारे कई साहित्यिकों ने जैसे पहली शैली अपनाई थी, दूसरी शैली भी कम प्रमाण में नहीं अपनाई गई है। इस विचार-सरणि में सबसे बड़ा दोष यह है कि यह महापुरुषों सा स्फोटक घटनाओं की संगति कैसे लगाई जाए।
इतिहास का यह तीसरा दर्शन भी है जो ऊपर के दोनों दर्शनों के ग्राह्यांश को ग्रहण करके, इतिहास और व्यक्ति-मानव या मानव-समूह के संबंधों को अधिक वैज्ञानिक ढंग से देखने का यत्न करता है। अब इतिहास कोई महाकाल की तरह होआ नहीं है, और न ही महासागर की तरह सदा हिलोरें मारने वाला, पर उसी सीमा की मर्यादा में रहने वाला पंचतत्त्व में से एक महाभूत-मात्र है। अब इतिहास मनुष्य-निर्मित, सुनिर्दिष्ट, दिशायुक्त गतिविधि है। काल मनुष्य की चेतना की मर्यादा ही नहीं, चेतना-सापेक्ष तत्त्व है। बुद्धिगम्य और परिवर्तनक्षम। अँग्रेज़ी कवि आडेन ने जैसे कहा था :
'दि सैंड्स आफ़ टाइम
आर प्लास्टिसीन इन माइ हैंड!'
यानी काल-घटिका की रेती के कण-क्षण पर चुपचाप खिसकने वाले मनुष्य के बस के बाहर के निमिष-मात्र नहीं; परंतु वह मेरे (मनुष्य के) हाथों के निरंतर रूपाकार ग्रहण करने वाले ‘प्लास्टिसीन' (मूर्ति बनाने की गीली मिट्टी की भाँति एक अर्द्ध-घन पदार्थ) की तरह यानी मनुष्य इतिहास का निर्माता भी है। यह नई भावना उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद सामने आई। और यह इतिहास बनाने वाले कोई गिने-चुने महापुरुष मात्र ही नहीं, जमात-की-जमात, वर्ग-के-वर्ग, यूथ-के-यूथ भी इतिहास बना सकते हैं। यह नया तथ्य फ्रांसीसी, रूसी, चीनी तथा अन्य क्रांतियों से उपलब्ध हुआ है। यह नया इतिहास-दर्शन इतिहास की गति को द्वंद्वात्मक मानता है, मानो यह प्राचीन के सर्वोत्तम का समाहार कर नित-नवीन की सृष्टि करता है। यह गति केवल चक्राकार या सर्पिल नहीं पर शंखाकार (स्पाइरल) है।
भारतीय इतिहास के उदाहरण : पहली इतिहास-दृष्टि के अनुसार भारत में वैदिक आर्यों का राज्य फिर से होगा, जैसे सावरकर ने 11 मई, 1952 को पूना की एक सभा में 'अभिनव भारत-समाज' के उत्सव में कहा “हमारे पूर्वजों ने जिस सिंधु नदी के किनारे स्नान-संध्या की, वह फिर से 'गंगे चैव गोदे चैव' हमारे अखंड भारत में मिलेगी और महाराष्ट्रवासियों ने भीमा नदी में जिन घोड़ों को पानी पिलाया, उन्हें सिंधु नदी में जाकर पानी पिलाया, वही कार्य फिर से करेंगे। कोई भी विवेकी व्यक्ति सहज कहेगा कि यह कोरी कल्पना-मात्र है।
दूसरी इतिहास-दृष्टि के अनुसार गुप्त मौर्य साम्राज्य उठे, गिरे; पठान-मुगल, राजपूत-मराठे-सिख-राज्य उठे, गिरे; अँग्रेज़ों का राज्य हुआ और वह भी नहीं रहा। यों हर साम्राज्य जो उठेगा अवश्य गिरेगा और इसलिए यह गर्व व्यर्थ है कि 'यूनानो-मिन-रोमा सब उठ गए जहाँ से!' और अब हम ही शेष हैं। इस तरह का चिंतन हमें कहीं भी प्रगति में आस्था और विश्वास नहीं जगाता, उल्टे हमसे एक प्रकार से 'ततः किम्' वाली अकर्मण्यता जगाता है।
इसलिए तीसरी आकृति बहुत-कुछ सही है, यानी आज जो हम है, यानी भारतीय संस्कृति है, वह इतिहास के प्रभाव से कटी हुई नहीं है। इतिहास हमारे लिए केवल 'भूमियों' से भरा या खंडित पाषाणों से भरा अजायबघर नहीं है। उससे हमें स्फूर्ति ग्रहण करनी है। मानव के बल-साहस और विक्रम तथा जीवन के प्रति दृढ़ निष्ठा का पाठ सीखना है, पर उसी में रम नहीं जाना है। उतना ही काफ़ी नहीं है। पीछे देखना है इसलिए कि आगे भी बढ़ना है, वरना वह केवल पीछे देखना ही हो जाएगा। प्रगति परा गति हो जाएगी। वर्तमान को भूत से तोलना बेकार है। होंगे हमारे पुरखे बड़े शेरदिल, पीते होंगे वे मन भर घी, पर उससे हमें क्या? सारा इतिहास निरी गपबाज़ी नहीं है, परंतु वह आज के यथार्थ की तुलना में बहुत-कुछ कपोलकल्पित अवश्य लगता है। मनुष्य को इतिहास ने बनाया, उसी तरह मनुष्य भी इतिहास बनाता है और हर क्षण यह क्रिया चल रही है। यह नहीं कि स्वातंत्र्य-युद्ध का जो कुछ इतिहास था वह 1857 या 1904 या 1919-20 या 30 या 42 में आकर समाप्त हो गया। आगे होने ही वाला नहीं है, यह मानना भूल है। यह निरंतर-विकासनशील, चिरंतन गतिमान, सततोर्ध्वगामी प्रक्रिया है। इतिहास, यों किसी एक विभूति-विशेष या सन्-संवत् विशेष की जागीर नहीं है, उनकी तालिका-मात्र भी नहीं। विभूति-पूजकों को यह भी उदाहरण इतिहास में मिलेंगे कि कल की विभूतियाँ आज की 'विभूति' (राख) मात्र हैं, तो कल के रज-कण आज के रत्नकण बनते जा रहे हैं। रेडियम घूरे पर ही तो पाया था मादाम क्यूरी ने।
प्रा. गं. ब. ग्रामोपाध्ये ने अपने मराठी लेख 'ऐतिहासिक कादंबरी : कांही विचार' (नवभारत, फरवरी, 1949) में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं। उनके अनुसार (1) ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना ऐसे काल में होती है जब समाज में गत इतिहास के लिए आदर और श्रद्धा होती है। (2) इतिहास में कल्पना और भावना का रंग मिला हुआ नहीं होता। उसका सत्य-दर्शन यथासंभव वस्तुनिष्ठ होता है। परंतु उपन्यास में सत्याभास-मात्र होता है। (3) अतः ललित कृति में ऐतिहासिक सत्याभास का क्या अर्थ है? उपन्यासकार उस समय की दंतकथाएँ, जन-विश्वास आदि जानता है और उस काल के रम्याद्भुत वातावरण में डूब जाता है। इतिहास की घटनाओं के रूखे विवरण में वह नहीं पड़ता। (4) ऐतिहासिक उपन्यास में पात्र काल्पनिक होते हैं परंतु प्रतिनिधि रूप होते हैं। लेखक की कल्पना को भी इतिहास के बंधन रहते हैं। (5) इस प्रकार से ऐतिहासिक यथार्थता एक भिन्न प्रकार की यथार्थता है। उसे यथार्थवादी रचनाओं की आलोचना की कसौटी से हम नहीं जाँच सकते। उसमें यथार्थवाद से अधिक अद्भुत रम्यतावाद ही होता है। इतिहास का यथार्थ आज के यथार्थ से अधिक रम्याद्भुत होता है। (6) इतिहास की मर्यादा कुछ दर्शकों तक या शतियों तक सीमित नहीं है। भारत का विभाजन और महात्माजी का निर्वाण आदि घटनाएँ ऐतिहासिक महत्त्व की हैं। उनपर आधरित ललित कृति भी ऐतिहासिक कहलाएगी।
अब इस विचारधारा में दो-चार बातें बहुत विवाद्य हैं। ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना केवल ऐसे समय में नहीं होती कि जब समाज-मन में प्राचीन के बहुत अधिक श्रद्धा-भाव हो, इससे उल्टे कई बार यह एक सामाजिक ह्रासोन्मुखता का भी लक्षण माना गया है कि वर्तमान हत-बल और हत-वीर्य अवस्था में केवल प्राचीन की पूजा की जाए, अतीत ही ओर मुड़ा जाए और पुनरुज्जीवन का नारा दिया जाए।
दूसरी विवाद्य बात यह है कि मानव की यथार्थता का क्या एक ऐतिहासिक सत्य नहीं है, क्या वह एक प्रगतिशील तत्त्व नहीं है? इतिहास की यथार्थता भिन्न है, और सामाजिक यथार्थता भिन्न है, ऐसा नहीं माना जा सकता। जो आज की यथार्थता है वह आगामी कल का इतिहास बनेगा। हमारी सामाजिक वास्तविकता के निर्माण में इस ऐतिहासिक तथ्य का बहुत बड़ा हाथ है। हमारा चिंतन मात्र देश-काल के इन निरंतर बदलते हुए साँचों से बँधा है और इसी कारण वह स्वतंत्र इस अर्थ में नहीं है कि वह एकदम समाज-विमुख या समाज-निरपेक्ष हो जाए।
तीसरी विचारणीय बात यह है कि ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक का दृष्टिकोण क्या हो? क्या वह पुनरुज्जीवनवादी की भाँति केवल इतिहास में रम जाए, या वह वर्तमान और भविष्यत का भी ध्यान रखे? 'बाणभट्ट की आत्मकथा' (इस युग के हिंदी के श्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यास) की आलोचना में मैंने 'प्रतीक' में लिखा था, जिसका भाव यह था कि इस उपन्यास में यह डर है कि उस सामंतकालीन मुमूर्षु संस्कृति के प्रति पाठक के मन में मोह न उत्पन्न हो जाए।
यह देखने के लिए कि भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों पर हमारे उपन्यासकारों ने कहाँ तक क्या और कैसे लिखा है उनकी एक तालिका देना आवश्यक है। यहाँ मैं उन्हीं उपन्यासों की सूची दे रहा हूँ जो मैंने पढ़े हैं और जिनका नाम इस समय स्मृति से मुझे याद है। भारतीय इतिहास के कालखंडों पर हिंदी, मराठी, बाँगला, गुजराती उपन्यासकारों की रचनाओं के नाम देकर बाद में उन भाषाओं में ऐतिहासिक उपन्यास के ऐतिहासिक क्रम-विकास का उल्लेख है :
प्राग ऐतिहासिक युग तथा आदिम वैदिक युग - 'संघर्ष', 'सबेरा' 'गर्जन' (भगवतशरण उपाध्याय), 'बोल्गा से गंगा' की आरंभिक कहानियाँ (राहुल सांकृत्यायन), ‘मुर्दो का टीला’ (रांगेय राघव), ‘लोपामुद्रा’ (क. मा. मुंशी)।
रामायण-महाभारत पुराण-काल - महाकाव्य-खंडकाव्य जैसे आख्यान-काव्य और चरित-प्रधान पद्य-रचनाएँ बहुत हैं, उपन्यास कम। कुछ नाटक भी मिलते हैं परंतु उपन्यास प्रायः नहीं है। ‘परशुराम’ (क. मा. मुंशी), ‘उत्तरा’ (एक पुराना मराठी उपन्यास) अपवाद हैं। वैसे ‘महाभारत’ को 'उग्र' जी ने 'साहित्य-संदेश' के उपन्यास-अंक से पूर्व के अंक में विश्व का एक श्रेष्ठ उपन्यास कहा है। रांगेय राघव कृष्ण पर शायद लिख रहे हैं।
जैन-बौद्ध प्रभाव से गुप्त मौर्यादि युग – ‘सम्राट अशोक’ (वा. ना. शाह, मराठी से हिंदी में अनूदित), ‘शशांक’, ‘करुणा’ (राखालदास वंद्योपाध्याय), ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ (हजारी प्रसाद द्विवेदी), ‘दिव्या’ (यशपाल), ‘जय यौधेय’, ‘सिंह सेनापति’ (राहुल सांकृत्यायन), समुद्रगुप्त (मिश्रबंधु), ‘चित्रलेखा’ (भगवतीचरण वर्मा), ‘वैशाली की नगर वधू’ (चतुरसेन शास्त्री), ‘अंबपाली’ (भटनागर); (अंतिम तीन उपन्यास इतिहास से अधिक उस काल के वातावरण पर आश्रित हैं)।
मध्य-युग और मुस्लिम राज्यकाल – ‘पाटणनी प्रभुता’, ‘जुरातनों नाथ’, ‘काल-बाघेली’, ‘पृथ्वीवल्लभ’ (क. मा. मुंशी), ‘कलंकविष’, ‘गड़ आला पण सिंह गेला’ (ह. ना. आप्टे), ‘देवी चौधुरानी’, ‘आनंद मठ’, ‘दुर्गेशनंदिनी’ (बंकिमचंद्र), ‘नाथ माधव की कादंबरीमय’ ‘शिवशाही और पेशवाई की बीस नाविलें’ (वि. वा. हडप), ‘अकबराचे वेद साधन’ (मराठी), ‘प्रजावती’ (निराला), ‘जेबुन्निसा’, ‘बेगमाता के आँसू’, ‘मुगल-दरबार-रहस्य’, ‘वीर छत्रसाल’, ‘रानी सारंधा और हरदॉल’ (दीर्घ कथाएँ), ‘चित्तौड़ की पद्मिनी’, ‘महाराणा प्रताप’, ‘शिवाजी’ आदि। (इनमें से अधिकांश ड्यूमा, स्कॉट, रेनाल्ड्स से प्रभावित उपन्यास रहस्य और रोमांच के प्रेमियों की रुचि के ऐयारी-तिलिस्मी उपन्यासों की कोटि के, या विभूतिपूजक उपदेशपूर्ण उपन्यासों के ढंग पर हैं।) वृंदावन लाल जी के उपन्यास गढ़कुंडार, मृगनयनी, अचल मेरा कोट, कचनार इसी युग के संबंध में है।
अँग्रेज़ी राज्यकाल और वर्तमान काल – ‘झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई’ (वृंदावनलाल वर्मा), ‘चंद्रशेखर’ (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय), ‘पथ के दावेदार’ (शरत्चंद्र), 'दि कन्फेशन्स ऑफ़ ए ठग', ‘शृंगेरी-मठ’ (गोआ में पुर्तगाली अत्याचारों पर मराठी उपन्यास), ‘काला पानी’ (सावरकर), ‘कंठपुर’ (राजाराव का गाँधीजी के असहयोग आंदोलन पर अँग्रेज़ी उपन्यास), मुल्कराज आनंद के तीन अँग्रेज़ी उपन्यास स्वाधीनता-आंदोलन के विषय में जानने के लिए (राहुल जी का महायुद्ध पर जाकर लौटने वाले सिपाही पर उपन्यास), ‘इंदुमती’ (सेठ गोविंददास का काँग्रेस के इतिहास पर उपन्यास), वैसे ‘चार अध्याय’, ‘सुनीता’, ‘शेखर’, टेढ़े-मेढ़े रास्ते में भी आतंकवादी आंदोलन का एक चित्र है, पर वह एकांगी है। राष्ट्रीय आंदोलन पर साने गुरुजी के दो उपन्यास, सन् 42 के आंदोलन पर मराठी में 4 (प्रभद्वरा, शाकुंतल, अमावस्या, क्रांतिकाल)।, ‘हिंदी में देशद्रोही’ (यशपाल), पैरोल पर (ब्रजेंद्रनाथ गौड़) आदि और बंगाल के अकाल पर मन्वनतर (ताराशंकर वंद्योपाध्याय), ‘महाकाल’ (अमृतलाल नागर) और नोआखाली के दंगे पर खुद वहाँ हुआ मराठी उपन्यास ‘सुनीता’ बिवलकर बहुत अच्छे हैं। ‘पूर्वेकडील कालोख' (हड़प की जापान-विरोधी युद्धकालीन कथा मराठी में है) और भारतीय भाषाओं में शायद विदेशों के ऐतिहासिक प्रसंगों पर बहुत कम मौलिक लिखा गया है। वैसे राहुल जी का 'मधुर स्वप्न' अपवाद है।
ऊपर दी हुई तालिका किसी भी प्रकार से संपूर्ण या यथाक्रम नहीं है। जैसे नाम याद, मैं लिखता गया हूँ। इसमें बहुत से लेखक या उनके ग्रंथों के नाम छूट गए हों, यह हो सकता है।
अब मैं एक-एक करके भाषाओं में ऐतिहासिक उपन्यास का क्या क्रम रहा है उसकी प्रवृत्तियों का संक्षिप्त इतिहास देता हूँ।
अँग्रेज़ी तथा अन्य यूरोपीय भाषाएँ - अँग्रेज़ी में उपन्यास बहुत बाद में शुरू हुए। उनमें पहले गद्य में निबंध विकसित थे। स्वाभाविक था कि आरंभिक उपन्यासों पर भी निबंध घूमकर लिखा आते गए, की छाया गहरी हो। फिर भी फ्रांसीसी उपन्यासों के प्रभाव में घटना-बहुल ऐतिहासिक उपन्यास अधिक लिखे जाते थे, जैसे वाल्टर स्कॉट के उपन्यास या फ्रांस में ड्यूमा के उपन्यास। इन उपन्यासों का अच्छा मखौल है ई. एम. फार्टर ने अपने 'आस्पेक्ट्स ऑफ़ दि नॉवेल' में उड़ाया है। ह्य वालपोल ने भी 'इंग्लिश नॉवल्स एंड नॉवलिस्ट्स' में इन्हें उच्चकोटि के उपन्यास नहीं कहा है। बल्कि बाद के बहुत से भीत्योत्पादक वीभत्स-रौद्र रस वाले उपन्यासों का जनक इन्हीं उपन्यासों को माना है। माना कि कौतूहल बुद्धि इन उपन्यासों में बराबर होती रहती है, परंतु वह आधुनिक जासूसी उपन्यासों की भाँति क्षणिक प्रभाव मन पर डालती है।
इसमें अधिक स्थाई प्रभाव डालने वाले ऐतिहासिक उपन्यास चरित्र-प्रधान हैं, जैसे तालस्ताय का 'वॉर एंड पीस' या डिकेंस या विक्तर ह्यूगो या आत्याधुनिक अलेक्सी तालस्ताय के उपन्यास। इनमें इतिहास के जिस कालखंड का चित्रण है वह बहुत ईमानदारी और बारीकी के साथ किया गया है। आधुनिक अँग्रेज़ी लेखकों जैसा दिशा-विशेष का आग्रह (टेंडेन्शसनेस) नहीं दिखाई देता। अलेक्सी ताल्स्त्ताय का उद्देश्य यद्यपि आयवन टी टेरीबल के काल पर लिखना रहा है फिर भी उसमें युद्धकालीन सोवियत उपन्यासों की भाँति, घृणा का संगठित प्रचार नहीं, यद्यपि विभूति-पूजा अधिक मात्रा में है। शोलोखोव के 'दीन्' नदी-विषयक उपन्यास उल्लेखनीय हैं।
चाहे इस कारण से हो कि यूरोप-निवासी विशेष पुराण-पूजक नहीं या अन्य किसी कारण से, उन्होंने अपने देश के प्राचीन गौरव पर कम उपन्यास लिखे हैं। ‘पाम्पुआई के अंतिम दिन' या 'नार्मन-विजय' या डिज़रायली के दो-तीन उपन्यासों की भाँति वे किसी घटना-विशेष से प्रभावित अधिक हैं। अधिकांश पश्चिमी उपन्यास सामाजिक अधिक है, ऐतिहासिक कम।
बंगाली - बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, राखालदास बंद्योपाध्याय और अन्य उपन्यासकारों के जो अनुवाद पढ़े हैं उनसे जान पड़ता है कि बंगाली स्वभाव की भावुकता और काव्यात्मकता इन उपन्यासों को अत्यंत रोचक बनाने में सहायक रही है। उनमें रोमांस का भाग अधिक है, यथार्थ का कम, फिर भी उनकी कल्पना और इतिहास के यथार्थ में सहज सम्मिलन जान पड़ता है। जैसे दूध और मिसरी। याद आता है कि रविंद्रनाथ के 'साहित्य' निबंध संग्रह में ‘ऐतिहासिक उपन्यास' पर एक परिच्छेद है, जिसमें इस प्रकार के लेखन में काव्यमयता का समर्थन करते हुए कवि-गुरु ने लिखा है कि इस प्रकार के लेखन में लेखक को अपने-आप भुलाकर उस काल में प्रक्षपित करना होता है, और उस काल के भग्न प्राचीर-खंडों और पाषाण-स्तंभों को लेकर पुनः नव्य-स्थापत्य निर्माण करना होता है। वाल्टर बैगेहोट नामक अँग्रेज़ समालोचक ने ऐतिहासिक उपन्यास की तुलना, बहते हुए जल-प्रवाह में पड़ी हुई प्राचीन दुर्ग-मीनार की छाया से की है। पानी नया है, नित्य परिवर्तनशील है, परंतु मीनार पुरानी है, अपने स्थान पर स्थित है। ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक की भी यही समस्या है कि उसके पैर तो इस जमीन पर हैं। वह साँस इस युग और निमिष में ले रहा है, परंतु उसका स्वप्न पुरातन है, और फिर भी नवीन है। एक ही ऐतिहासिक विषय पर विभिन्न युग के लेखक इसी कारण से विभिन्न प्राकार के लेख लिखेंगे। रवींद्र-शरत्चंद्र-तारा-शंकर-माणिक वंद्योपाध्याय की परंपरा में बहुत कम लोगों ने ऐतिहासिक कथानक चुने। वैसे डी. एल. राय, मन्मथराय आदि ने ऐतिहासिक नाटक अवश्य बहुत से लिखे हैं। वह भिन्न विषय है।
मराठी - मैंने सर्वाधिक ऐतिहासिक उपन्यास अपनी मातृभाषा में पढ़े हैं। हरिनारायण आप्टे, नाथमाघव, वि. वा. हड़प, चि. वि. वैद्य, वि. वा. भिड़े और अन्य कई लेखकों के सैकड़ों उपन्यास मुझे याद आ रहे हैं। उनमें अधिकांश शिवकाल-संबंधी हैं। वैसे 'कोरसईचा किल्लेदार' और 'रूपनगर राजकन्या' और 'लाला वैरागीण' और 'अल्ला हो अकबर' और 'काला पहाड़' और 'पिवका बागुलछोवा' और 'नीरूदेवी' और न जाने कौन-कौन से बचपन में पढ़े हुए आख्यान याद आ रहे हैं। परंतु अधिकतर उपन्यास रोमांस और ऐयारी-तिलिस्मी प्रभाव वाले ही अधिक थे। किसी ने सचेतन रूप से इतिहास का अध्ययन उपन्यास में ढाला हो, ऐसा नहीं जान पड़ता। इतिहास संशोधकों की एक गौरवशाली पीढ़ी महाराष्ट्र में हो गई। राजवाड़े, खहे, पारसनीस, भांडार कर आदि। और उसी परंपरा में रियासतकार सरदेसाई, दत्तो वामन पोतदार, न. र. फाटक, बेंद्रे, भ. खु. देशपांडे और अन्य कई व्यक्ति कार्य कर रहे हैं। परंतु इनके परिश्रम और अध्यवसाय को उपन्यास का आवरण बहुत कम लोगों ने पहनाया। उपन्यासकार सामाजिक समस्याओं से ही उलझे रहे। खांडेकर, माडखोलकर, पु. भ. देशपांडे बोकील, वरेरकर, शिराडकर, वनारेकर, बिवलकर, मालतीबाई बेडेकरगीता, साने आदि की सब कृतियाँ सामाजिक हैं। परंतु ना. सी. फड़के ने एक-दो ऐतिहासिक उपन्यास आरंभ में लिखे थे। और सब तो केवल हरि नारायण आप्टे का नाम लेते हैं और उसके बाद वह सोता भी उसी तरह सूख गया जैसे बंगाल में राखाल वंद्योपाध्याय के बाद। इसका प्रधान कारण हमारे उपन्यास पर पश्चिम के उपन्यास का पड़ा हुआ प्रभाव है। आधुनिक उपन्यासकार इतिहास की अपेक्षा अनतिदूर वर्तमान से प्रेरणा अधिक लेता है, ऐसा जान पड़ता है। वह अध्ययन से भी कतराता जान पड़ता है और उसकी बहुप्रसवा लेखनी त्वरा से अधिक काम लती है।
गुजराती - 'सरस्वतीचंद्र' को वैसे ऐतिहासिक उपन्यास एक दृष्टि से कह सकते हैं, परंतु प्रधान नाम इस दिशा में कन्हैयालाल मुंशी का है। उन्होंने अपने आत्मचरित में स्पष्ट लिखा ही है कि वे ड्यूमा के उपन्यासों से बचपन में बहुत प्रभावित रहे हैं। अतः उनके सभी उपन्यासों में पात्रों की, घटनाओं की, चरित्रों की पुनरावृत्ति-सी जान पड़ती है। इतिहास की पृष्ठभूमि मानों एक परदा है। जो पीछे से हटा लिया जाता है और वही प्रणय, वीरता, आदि भावनाओं का संग्राम बराबर चलता रहता है। फिर भी मुझे उनकी ‘काल वाघेली' कृति अनन्य लगती है। 'पृथ्वीवल्लभ' भी भली प्रकार से एक श्रेष्ठ उपन्यास है, जिसमें नाटकीय गुण प्रधान हैं। परंतु 'राजाधिराज' ‘जय सोमनाथ' आदि उनकी इधर की कृतियों में स्पष्ट पुनरुज्जीवनवादी (रिवाइवलिस्ट) स्वर हैं। उन्होंने सोमनाथ की भूमिका में स्वयं लिखा है “यह शैली का अंतर 25 और 52 वर्ष के पुरुष के विचारों का अंतर है। यह उपन्यास-रस की उतनी ही हानि करता है जितना राहुलजी के ऐतिहासिक उपन्यासों में साम्यवादी प्रचार का अप्रच्छन्न आरोपित यत्न। यह बात मैंने ‘सिंह सेनापति' की 'विशाल भारत' में आलोचना करते हुए लिखी थी। स्व. मेघाणी के 'सोरठ तारा बहेता पाणि' जैसे उपन्यास अधिक बलवान और कलापूर्ण जान पड़ते हैं।
हिंदी - हिंदी के अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में उपन्यास बहुत बाद में शुरू हुए और संख्या में भी कम है। उनमें भी सामाजिक अधिक हैं। ऐतिहासिक उपन्यास आरंभ में तो अनूदित ही अधिक मिलते हैं। बंगाली से बंकिम के राखाल वंद्योपाध्याय के, मराठी से हरि नारायण आप्टे या बालचंद नेमचंद शाह के। मौलिक ऐतिहासिक उपन्यास लिखने का यत्न न प्रेमचंद्र ने किया न 'प्रसाद' ने न उनके पूर्ववर्ती देवकीनंदन खत्री या गोपालराम गहमरी ने। 'निराला' जी की 'प्रभावती' वैसे एक अपवाद है। पं. शुकदेव बिहारी मिश्र ने भी गुप्तकाल पर एक उपन्यास लिखा है, परंतु उसे सफल उपन्यास नहीं कहा जा सकता। साहित्य के इतिहास में संस्मरणीय ऐतिहासिक उपन्यास लेखक केवल चार-पाँच ही हैं और वे हैं : राहुल सांकृत्यायन, भगवतशरण उपाध्याय (जिनकी उपन्यास से अधिक बड़ी कहानियाँ हैं), हजारी प्रसाद द्विवेदी, यशपाल, रांगेय राघव, चतुरसेन शास्त्री और इन सबमें गुण ओर परिमाण दोनों दृष्टियों से सर्वाधिक और अच्छा लिखने वाले श्री वृंदावनलाल वर्मा। 'कचनार' की आलोचना दिल्ली रेडियो से मार्च 1948 में करते हुए कहा गया था कि वर्मा जी जनतंत्र के उपन्यासकार हैं। उनकी भाषा-शैली जैसी सादी और प्रवाहमान है उनकी विषय-वस्तु का आदर्श भी वैसा ही सहज और प्राकृत है। यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता है, यही उनकी कृति की भी विशेषता है। उनकी रचनाओं में हजारीप्रसाद जी का वाग्वैदग्ध्य या यशपाल या राहुल जी का सोद्देश्य मत-प्रचार नहीं मिलता, इतिहास के प्रति निर्भय प्रामाणिकता या भगवतशरण या रांगेय राघव का-सा आग्रह भी नहीं मिलता, तो भी उनकी सबसे अच्छी विशेषता यह है कि वे अपनी भूमि के निकट का ही विषय चुनते हैं, उससे बाहर नहीं जाते। बहुत कम लेखकों में अपनी मर्यादा का इतना अच्छा भान होगा। हिंदी के लिए विशाल ऐतिहासिक क्षेत्र खुला पड़ा है। मध्यभारत-राजस्थान की गाथाएँ, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर-प्रदेश के प्राचीन आख्यान कोई नए लेखक छूते ही नहीं, इसका आश्चर्य है। प्रेम के सस्ते त्रिकोण से त्राण मिले तब न? अब हिंदी के एक ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक वृंदावनलाल वर्मा को उदाहरण के तौर पर ले लें और गुण-दोष-विवेचना कर, तो मेरी अल्प मति में वर्मा जी के ऐतिहासिक उपन्यासों के निम्न गुण हैं :
(1) अपनी विषय-वस्तु का गहरा और सन्निकट परिचय, अध्ययन और गवेषणा।
(2) जनतांत्रिक दृष्टि। पात्रों को कहीं भी अतिमानुष नहीं होने दिया जाता, न सर्वसाधारण पाठकों का ध्यान ही भुलाया जाता है।
(3) उपन्यास की रोचकता के लिए आवश्यक कौतूहल बनाए रखने वाली घटनाओं का गुम्फन।
(4) भाषा-शैली में प्रादेशिक रंग।
(5) चरित्र-चित्रण में पात्रों के परस्पर-संबंधों का ध्यान और निर्वा।
(6) प्राकृतिक वर्णनों तथा युद्धादि घटनाओं के वर्णनों में कहीं भी अनावश्यक विस्तार की कमी।
(7) देश की उठती हुई स्वाधीनता की चेतना का ध्यान। यानी परंपरा को पीटने या प्राचीन को उत्तम कहने का मोह टालते हुए भविष्य की ओर भी स्फूर्तिदायक इंगित।
(8) किसी भी रस के चित्रण में (उदाहरणार्थ श्रृंगार, करुणा या वीर) अतिरेक की ओर झुकाव नहीं। भड़कीले रंगों की अपेक्षा सौम्य रंगों का अधिक उपयोग।
(9) चरित्रों की रेखाएँ दृढ़ और स्पष्ट, कभी-कभी बहुत स्थूल भी। जिससे प्रत्येक पात्र की विशेषता, दूसरे से भिन्नता स्पष्ट हो जाती है। ‘मृगनयनी' में यही विशेषता है।
(10) पूरा उपन्यास पढ़ जाने के बाद उस काल के वातावरण का सजीव पुनर्निमाण सफल जान पड़ता है, जैसे 'गढ़कुंडार' या 'लक्ष्मीबाई' में।
इनके कुछ सामान्य दोष यह हैं :
1. काव्यात्मकता की कमी। वर्णन-शैली के अधिक 'इतिवृत्तात्मक' होने के रस-भंग।
2. संवाद में नाटकीयता अधिक होने से कहीं-कहीं कृत्रिमता।
3. पात्रों के मन के अंदर स्वयं उपन्यास-लेखक पैठता जान पड़ता है। उन पात्रों के व्यवहार या आचार से उनके मनोविकार अधिक व्यक्त नहीं होते।
4. तीन-चार उपन्यास पढ़ लेने पर जान पड़ता है कि काफी जल्दी में वे लिखे गए हैं। कुछ पुनःसंपादन से वे अधिक सँवरे-से जान पड़ते।
5. इतिहास के साथ कहाँ तक स्वतंत्रता ली जानी चाहिए यह एक विवादास्पद विषय हो सकता है। परंतु कहीं-कहीं ऐसा लगता है कि वह ली गई है और उपन्यास में सहज रोचकता लाने-मात्र के लिए।
इस कारण से वृंदावनलाल जी की रचनाओं से जो आशाएँ हमारे मन में जगती हैं वे इस प्रकार से हैं : किसी भी उपन्यासकार के लिए कोई दंडक (या नियम) बना देना उचित नहीं। वह अपने संस्कार, शिक्षण, आदर्श और विचारों के अनुसार ही इतिहास को देखेगा और उसका कलात्मक पुनर्मूल्यांकन करेगा। फिर भी चूँकि वृंदावनलाल जी बुंदेलखंड की माटी की सौंधी पौध पहचानते हैं, हमारा आग्रह है कि 'मुसाहिबजू' की भाँति पिछले 30 वर्षों में बुंदेलखंड में जो सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक परिवर्तन हुए हैं उन्हें बेतवा के मुँह से सुनवाएँ। 'झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई' की भाँति वे एक दूसरा बड़ा उपन्यास इन गए तीस वर्षों के गाँव शहरों में बुंदेलों की दो-तीन पीढ़ियों में हुए परिवर्तनों पर लिखेंगे, तो हिंदी को ही नहीं विश्व-साहित्य को एक अमर यथार्थवादी कृति की भेंट मिलेगी। उसमें वे जितनी प्रादेशिकता ला सकें लाएँ। मराठी मे कोंकण के किसान जीवन पर लिखे दो-तीन उपन्यासों में पीछे नोट दिए गए हैं, शब्दों-मुहावरों के अर्थों और स्थान-नाम, रीति-रिवाजों पर वैसी ही चीज़ इसमें हो।
ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक की शैली - ऐतिहासिक उपन्यास की विषय-वस्तु का विचार ऊपर बहुत किया जा चुका। अब उसके कलेवर यानी शैली को ध्यान में लें तो यह पता चलेगा कि विषय-वस्तु से शैली अवश्य निर्णीत होगी। कहीं-कहीं उपन्यास लेखक को छूट है कि वह आचार-शास्त्रीय या दार्शनिक चर्चा में उलझें, परंतु वह इस सीमा तक नहीं जैसे आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने अपने उपन्यास 'वैशाली की नगर-वधू' में अंत में 'भूमि' में पृष्ठ 793 पर कहा है वास्तव में ऐतिहासिक काव्यों, उपन्यासों और कहानियों का इतिहास की सीमा का उल्लंघन करने के कारण इतिहासकुल से विच्छद कर दिया गया है। यह केवल भारतीय साहित्य की ही बात नहीं है, पाश्चात्य साहित्य में भी ऐसा हुआ है। इतिहास के 'विशेष सत्य' और साहित्य के भी 'चिर सत्य' के सिद्धांतों पर हम थोड़ा विचार करेंगे। 'चिर सत्य' ऐसे साहित्य का प्राण है। ...इतिहास की विशिष्ट सत्य घटनाओं का उसे पूरा ज्ञान नहीं होता। होने पर भी वह जान-बूझकर उनकी उपेक्षा कर सकता है क्योंकि उसका काम तात्कालिक घटनाओं की सूची देना नहीं, तात्कालिक समाज-प्रवाह का वेग दिखाना होता है। यह कथन कितना भ्रांतिपूर्ण है यह कहना आवश्यक नहीं है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री एक ‘इतिहास-रस' की सृष्टि करके वेश्याओं का इतिहास पृ. 853 से 859 तक देते हैं और अपने उपन्यास की भाषा शैली के बारे में पृ. 893-94 पर कहते हैं “उपन्यास में लगभग दो सहस्र नए पारिभाषिक शब्द आए हैं। जिनका प्रचलन चिर-काल से भाषा-प्रवाह में समाप्त हो गया है। ...भाषा और भाव, सब मिलाकर प्रस्तुत उपन्यास सर्वसाधारण के पढ़ने योग्य नहीं है। परंतु हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति से परिचित होने के लिए यह उपन्यास प्रत्येक शिक्षित भारतीय को दस-बीस बार पढ़ना चाहिए। खासकर उच्च सरकारी अफ़सर, जो अँग्रेज़ी भाषा के पंडित और अँग्रेज़ी सभ्यता के अधीन हैं। ...अपनी टेबुल पर इस उपन्यास को अनिवार्य रूप में डाल रखें और निरंतर इसे पढ़ते रहें तो उन्हें मौलिक भारतीय विचारधारा अपने रक्त में प्रवाहित करने में बहुत सहायता मिलेगी। उचित तो यह है कि भारतीय सरकार ही यह आदेश जारी कर दे और उपन्यास की एक-एक प्रति अपने अफसरों की टेबुल पर रख देने की व्यवस्था कर दे।” संक्षेप में, ऐतिहासिक उपन्यास क्यों नहीं होना चाहिए इसका परम उदाहरण यह 787 पृष्ठों का 'बुद्ध कालीन इतिहास-रस का मौलिक उपन्यास' (जो सन् 1949 में छपा) है। 1922 के 'शशांक' से अभी तक हम क्या आगे नहीं बढ़ पाए हैं?
बौद्धकाल पर और गुप्त मौर्यकाल पर कितने उत्तम उपन्यास लिखे गए हैं। इनका उदाहरण देखना हो तो राखालदास वंद्योपाध्याय के 'शशांक' उपन्यास को देखिए, जिसे रामचंद्र शुक्ल ने अनूदित किया था, 1922 में। यद्यपि रामचंद्र शुक्ल ने मूल लेखक की कृति को अंत में बदल दिया है, फिर भी मूल का आनंद इस उपन्यास में सुरक्षित है। उदाहरण कहाँ तक दें। पृ. 214-215 पर ऋतु वर्णन देखिए:
“वर्षा के अंत में गंगा बढ़कर करारों से जा लगी हैं। नावों का बेड़ा तैयार हो चुका है। नौसेना सुशिक्षित हो चुकी है। हेमंत लगते ही बंग देश पर चढ़ाई होगी। सामान्य सैनिक से लेकर यशोधवल तक उत्सुक होकर जाड़े का आसरा देख रहे थे। वर्षाकाल में तो सारा बंग-देश जल में डूबकर महासमुद्र हो जाता था, शरद ऋतु में जल के हट जाने पर सारी भूमि कीचड़ और दलदल से ढकी रहती थी। इससे हेमंत के पहले युद्ध के लिए उस ओर की यात्रा नहीं हो सकती थी।
और पृ. 367 पर जनसाधारण की उत्सवप्रियता का यह सरल संक्षिप्त वर्णन “पाटलिपुत्र में आज बड़ी चहल-पहल है। तोरण-तोरण पर मंगलवाद्य बज रहे हैं। राजपथ रंग-बिरंग की पताकाओं और फूल-पत्तों से सजाया गया है। दल-के-दल नागरिक रंग-बिरंगे और विचित्र-विचित्र वस्त्र पहने ढोल, झाँझ आदि बजाते और गाते निकल रहे हैं। पहर-पहरभर पर नगर में तुमुल शंखध्वनि हो रही है। धूप के सुगंधित धुएँ से छाए हुए मंदिरों में से नगाड़ों और घंटों की ध्वनि आ रही है। आज सम्राट माधवगुप्त का विवाह है।
'शशांक' या 'करुणा' में लेखक अवांतर वादविवाद या उपदेशों में नहीं उलझता।
'निराला' की ‘प्रभावती’ में पृ. 63 पर लेखक बीच में ही अपने स्वाभाविक आवेश से कह उठता है हाय रे देश! कितने फूल इस प्रकार सामयिक प्रवाह में चढ़कर दृष्टि से दूर अँधेरे में बहते हुए अदृश्य हो गए, पर किसी ने तत्त्व-रूप को न देखा; सब बाहरी चहल-पहल में भूले रहे, इतिहास वेत्ताओं के सत्य के भुलावे में आश्वस्त। यह अँधेरा चिरंतन है। ...देश अँधेरे में है, प्रकाश नहीं दीख पड़ता...” इत्यादि। इसे आरंभिक 'निवेदन' में निराला जी ने रोमांटिक उपन्यास' कहा है और “अभी उस रोज भी डॉक्टर रामविलास शर्मा के लेख में इसके उद्धरण आए हैं। भाषा और भाव की दृष्टि से पुस्तक मध्यम या उच्च कक्षाओं में रखने योग्य है। यदि अधिकारी ध्यान दें तो हिंदी के साथ सहयोग और सराहनीय...” लिखा है। यह सफल ऐतिहासिक उपन्यास नहीं है।
राहुल जी की रचनाओं में भी ‘सिंह सेनापति' और 'जय यौधेय' अधिक सफल ऐतिहासिक कृतियाँ थीं। ‘मधुर स्वप्न' में तो कई स्थल अवांतर चर्चा से भर गए हैं। यथा पृ. 51 पर का यह उद्धरण देखिए:
“अबकी सियाबख्श ने हठात् पूछ दिया अर्थात् जिस प्रकार हमारे यहाँ एक पुरुष की बहुत-सी पत्नियाँ होती हैं, वहाँ इससे उल्टा होता है।
मज्दक इसमें क्या आश्चर्य है? देश-काल-भेद से हर जगह के सदाचारों में भेद होता है। एक जगह जो बात निषिद्ध है, वही दूसरी जगह विहित।
कवात्क्या स्त्री-पुरुषों के संबंध में यह शिक्षा हिंदी-ऋषि बुद्ध ने भी दी थी। मित्रवर्मा नहीं, बुद्ध ने तो उच्च श्रेणी के शिष्यों के लिए स्त्री-पुरुष संबंध निषिद्ध कर दिया था। इसलिए उनके उच्च श्रेणी के अनुयायी स्त्री-पुरुष अविवाहित रहते हैं।
मज्दकमानी ने भी अपने उच्च अनुयायियों को परिवार और पत्नी से असंग रहने का उपदेश दिया था। यवन-विचारक प्लातोन ने बतलाया कि महान उद्देश्य को लेकर चलने वाले नर-नारियों को संपत्ति से ही मेरा-तेरा संबंध नहीं हटाना होगा, बल्कि उनके लिए स्त्री में मेरा-तेरा का भाव होना भी हानिकारक है क्योंकि स्त्री में केंद्रित वह मेरा-तेरा का भाव फिर पुत्र-पुत्रियों में केंद्रित हो जाएगा, फिर उनकी संतानों में। मेरा-तेरा के लिए संसार में लोग क्या नहीं करते? जगत-कल्याण के लिए आदमी अपनी शक्ति को तभी पूरी तरह लगा सकता है, जबकि उसके पास अपनी संतान न हो।
कवात्तो क्या प्लातोन ने भी साधु-साधुनी बन जाने का उपदेश दिया था?
मज्दक नहीं, प्लातोन व्यावहारिक विचारक था। उसने सोचा कि इंद्रियों पर पूरी तरह से संयम विरले ही कर सकते हैं, इसलिए उसने स्त्री-पुरुष के संबंध का विरोध नहीं किया, किंतु उसने यह अवश्य बतलाया कि उच्च जीवन और आदर्श के अनुयायियों को अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है, कि उनका स्त्री-पुरुष के तौर पर पारस्परिक संबंध भी मेरा-तेरा के भाव से मुक्त हो।
मित्रवर्मा है यह बड़ा ही लोक-विद्रोहकारी आचार-विचार, किंतु जनता के पथ-प्रदर्शकों के लिए जन-मंगल की भावना से प्रेरित परम त्यागियों के लिए यही एक व्यवहार-पथ दिखाई पड़ता है। मैं समझता हूँ, लोकरूढ़ि के विरुद्ध मार्ग पर चलने के लिए अयरान में इसपर जोर न दिया जाता, यदि वहाँ पहले से ही भगिनी-विवाह, पुत्री-विवाह, मातृ-विवाह जैसी प्रथाएँ प्रचलित न होतीं। लेकिन यह तो ऐसी चीज़ है जिसपर अंदर्जगर का बहुत जोर नहीं है। वह इसको अप्रतिषिद्ध-भर मानते हैं, जीवन का लक्ष्य नहीं मानते।
मज्दकमानव की प्रवृत्तियों को नीचे जाने से बचाना और उसकी सारी शक्ति को नवीन संसार के निर्माण में लगाना, यही हमारा उद्देश्य है। अकामेनू की पराजय के बाद अब समय आ गया है कि हम नए संसार की दृढ़ नींव रखें। भीषण अकाल के बाद आज जनता सारे आयरान में भूख के कष्ट से मुक्त हो, जल्दी-जल्दी अपने दोषों को छोड़ती जा रही है। आज उसकी भावना में जो भारी परिवर्तन देखा जा रहा है, क्या वह इसका प्रमाण नहीं है कि नए युग का आरंभ हो गया है? आज मनुष्य से पूछा जा रहा है कि विजयी अहुर्मज्द के पथ पर कौन आना चाहता है।
इस प्रकार से ऐतिहासिक उपन्यास की शैली में हिंदी ने कोई विशेष प्रगति नहीं की है। इस विषय में अभी बहुत-सा कार्य करने को शेष है। संशोधकों को, औपन्यासिकों को और समीक्षकों को भी। ऐतिहासिक उपन्यास की समीक्षा में कौन से मानदंड हों, यह भी एक विचारणीय विषय है, जिसके संकेत ऊपर आरंभिक चर्चा में हमने दिए हैं।
('हिंदी गद्य की प्रवृत्तियाँ' नामक पुस्तक से)
- पुस्तक : हिंदी गद्य की प्रवृत्तियाँ (पृष्ठ 153)
- रचनाकार : प्रभाकर माचवे
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