चौदह नवंबर को ग्यारह बजे लंदन से विदाई ले मैं पेरिस को रवाना हुआ। उस दिन चारों ओर कुहरा फैला हुआ था। आज मेरा टिकट द्वितीय श्रेणी का था। कितने ही मित्र स्टेशन तक पहुँचाने आए थे। आज डोवर और केलेके रास्ते जाना था। कुछ दूर चलने के बाद कुहरा कम होने लगा। डोवर के पास पहुँचने से पूर्व ही बाईं ओर पथरीली पहाड़ियाँ दिखाई पड़ी। इंग्लैंड के गाँव फ़्रांस और जर्मनी की भाँति सुंदर नहीं है। बारह बजे के बाद जहाज़ पर पहुँचे। आज समुद्र उतना ख़राब न था। दूसरे पार केलेमें जा रेल पर सवार हुए। 6 बजे अँधेरा हो जाने के बाद पेरिस की गार-द-नोह (उत्तरी स्टेशन) पर उतरे। प्लेटफ़ार्म पर आते ही, मेरे पीले कपड़ों से मिस लून्जबरी (सभापति) और मदाम लाफ्वॉ मंत्री ने पहचान लिया। मैं अपने साथ तिब्बती चित्रपटों की पेटी भी लाया था। उसे अभी कस्टम में दिखलाना था। उस दिन समय न होने से कस्टम वालों ने दूसरे दिन के लिए रख छोड़ा।
मदम् लाफ्वाँ मोटर में रु-मदाम के ओ तेल द-ल आवे सीर में पहुँचा। यहीं मेरे ठहरने का प्रबंध किया गया था।
सर्दी का मौसम था, किंतु गर्म मकानों में प्रविष्ट होना सर्दी के मान की बात न थी। कमरा स्वच्छ और प्रशस्त था, कमरे के साथ ही स्नानागार भी था। नहाने का इतना आनंद देखकर मैंने अन्तरिया की जगह नित्य स्नान करने का नियम कर लिया। होटल का किराया मेरे मेज़बानों को देना था, इस लिए पूछ न सका, तो भी 30, 35 फ्रांक 5, 6 रुपए रोज़ से क्या कम होगा। सबेरे का जलपान होटल की ओर से था, मध्यान्ह भोजन मिस लून्जबरी के घर पर होता था, जो एक मिनट के रास्ते ही पर लुसमबुर्ग प्रासाद के पास था।
15 नवंबर को 3 बजे मिस लून्जबरी और मदाम् लाफवॉ के साथ मुजी-ग्विमे गया। भारत, हिन्दू-चीन आदि पूर्व के देशों की पुरानी चीज़ें यहीं रखी हुई हैं। यहाँ तिब्बतीय चित्रपटो का अच्छा संग्रह है और यूरोप में यह संग्रह सर्वोत्तम है। यहाँ आचार्य पेलियो द्वारा लाए मध्य एशिया के चित्रों का भी संग्रह है। बर्लिन के ला कॉक संग्रह के बाद यह सबसे अच्छा है। सबसे तो अधिक चित्त तब प्रसन्न हुआ जब शाह अमानुल्ला के शासन काल की खुदाई में हड्डा बामियाँ आदि से निकली चूने आदि की मूर्तियों और चेहरे को देखा। इनकी खोदाई आचार्य फूशे ने कराई थी। यह संग्रह सारे भूमंडल में अपने ढंग का अद्वितीय है। इनमें उस समय गंधार देश में आनेवाली नाना जाति के पुरुषों—उनकी नाक, ओठ, चेहरा, केश आदि को सजीवता के साथ मिट्टी चूने पर उतारा गया है। आचार्य फूशे कह रहे थे खुदाई में जब यह चीज़ें निकल आईं तो हमारे आनंद की सीमा न थी। हम छोटी-छोटी उठाने लायक़ चीज़ों को अपने डेरे में रखते जा रहे थे। फिर उन्होंने ठंडी साँस भरकर कहा—किंतु, मौलवियों ने इन मूर्तियों के ख़िलाफ़ ऐसी उत्तेजना पैदा कर दी थी कि रात को आस-पासवाले सैकड़ों मनुष्य चढ़ आए और अफ़सोस! कला के उन अनुपम नमूनों को क्रूरता के साथ तोड़ने लगे! हम आह भरी आँखों से उनके इस दानवी लीला को देखते रहे। कोई भी धर्म जो मनुष्य के हृदय में ऐसा भाव पैदा कर सकता है, वह मानवजाति के लिए अभिशाप है!
16 नवंबर को आचार्य सिल्वे लेवी से मिलने का निश्चय था। दो बजे हम उनके मकान (9. Rue Guyede la Bruma) पर पहुँचे। सीढ़ी पर चढ़ते-चढ़ते तरह-तरह के भाव पैदा हो रहे थे। पैदा होने ही चाहिए; क्योंकि हम प्राचीन भारत के विषय में भूमंडल के सबसे बड़े विद्वान के पास जा रहे थे। देवी लेवी के दर्शन पहले हुए। उन्होंने आचार्य श्री को सूचित किया। थोड़ी ही देर में आचार्य के साथ हम उनके कमरे में थे। अस्सी वर्ष के क़रीब का, पतला किंतु स्वस्थ्य शरीर था। सारे बाल सन की तरह सफ़ेद थे। यहूदी जाति के नर-नारियों की भाँति आप शुकनास थे। स्मित मुख, विकसित ललाट, चमकती ऑखों से स्नेह की किरणे चारों ओर फैल रही थीं। शिष्टाचारकी बातें, जो और जगह भी साधारण है, उसे लिखकर मैं वास्तविकता के महत्त्व को कम करना नहीं चाहता। मैं वक्स से एक पुस्तक निकालकर खड़ा हो दिखा रहा था, उस समय आपके मुख से जो शब्द निकले—Please be seated (कृपया, बैठिए) वह अपने स्वर, विराम, उच्चारण आदि में अपार स्नेह के भावों को रखता था। आचार्य लेवी वस्तुत मोह लेने में जादूगर (=यातुधान वैदिक अर्थ में) हैं। इन ज्ञान वयोवृद्ध महापुरुष के दर्शन फिर होंगे या नहीं यह नहीं कह सकता; किंतु पेरिस में उनकी मुलाक़ात की स्मृति आजन्म न भूलेगी। दो बजेसे छः बजे शाम तक पूरे चार घंटे अतृप्त हो हमारा वार्तालाप होता रहा। वहाँ ज्ञान का पारावार हमारे सामने तरंगित हो रहा था। एक बार प्रकरणवश मैंने कहा—और हृदय से कहा—आरंभ से ही विद्या के पथ पर अग्रसर होते वक़्त, आप ही मेरे आदर्श थे। उन्हों ने कहा—क्या कहते हो, मैं तो इतना ही जानता हूँ कि, मैं कुछ नहीं जानता। यह ध्रुव सत्य था। आदमी की विद्या क्या है—जितना हो वह अधिक पढ़ता है, उतना ही उसे यह स्पष्ट अनुभव होने लगता है कि, वह क्या-क्या नहीं जानता। विद्या होने पर पुरुष वैसे ही है, जैसे कोई आदमी आस-पास मीलों गहरे खड्डों वाली एक छोटी-सी टिब्बीपर बैठा है। अँधेरे में उसे अपनी स्थिति का ज्ञान कुछ नहीं होता, किंतु जैसे ही प्रकाश आता है वह अपने आस-पास के उन खड्डों को अनुभव करने लगता है; लेकिन हमें यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि विद्या का पढ़ना ही निरर्थक है। हमें यह समझकर कि कोई सर्वज्ञ नहीं है, अपने ज्ञान के क्षेत्र को बढ़ाते हुए भी; हमें एक दूसरे की सहायता को सत्कारपूर्वक लेने के लिए तैयार रहना चाहिए। सामूहिक ज्ञान से हम अपनी बहुत-सी कमियों को पूरा कर सकते हैं।
आचार्य श्री के साथ जिन विषयों पर वार्तालाप हुआ, उसे यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीं। यद्यपि वह हम दोनों के लिए बहुत ही सरस और आनंदकर थे, तो भी हमारे पाठकों में से अधिकांश के लिए वह नीरस ही होंगे। आचार्य, संस्कृत, पाली, प्राकृत, भारत की अनेक आधुनिक भाषाओं, तिब्बतीय, चीनी तथा यूरोप की बहुत-सी भाषाओं के आचार्य हैं। चीनी, तिब्बती, पाली संस्कृत ही नहीं, बल्कि मध्य एशिया की लुप्त भाषाओं में भी प्राप्त बौद्ध साहित्य के आप सर्वतोमुखी पंडित है। भारतमें आप कई बार आ चुके हैं और कितने ही भारतीय आपके शिष्य हैं। प्राचीन भारत के इतिहास के कितने ही भव्य और शताब्दियों से विस्मृत अंश को सभ्य दुनिया के सामने लाने में आपने वह काम किया है जिसे भारतीय और भारत प्रेमी कभी न भुला सकेंगे।
गिल्गित में निकले प्राचीन हस्तलिखित संस्कृत ग्रंथों—जिनके बारे में आक्सफ़ोर्ड के प्रकरण में लिख चुका हूँ—के बारे में प्राप्त पृष्ठों के सहारे आप जूर्नाल-आसियातिक में एक सचित्र गवेषणा पूर्ण लेख लिख चुके हैं। और उन पुस्तकों के बारे में वह मुझसे भी अधिक उत्सुक थे। पेरिस में भी उनकी खोज लेनेके लिए मुझे प्रेरित किया था और पीछे भारत लौटने पर पत्र द्वारा भी प्रेरित किया। मैं कश्मीर आया, वहाँ जो हुआ, उसे मैं संक्षेप में लिख चुका हूँ। उसे पढ़कर आचार्य को क्षोभ अवश्य होगा। उन्होंने उन ग्रंथों की रक्षा और प्रकाश में लाने के लिए मालवीय जी को एक पत्र मेरे द्वारा भिजवाया था। बड़े आदमियों से डरने वाला मे स्वयं तो नहीं गया; किंतु डाकद्वारा पत्र को मालवीय जी के पास भेज दिया, जिसका उत्तर मुझे कुछ नहीं मिला। गंगा के पुरातत्त्वांक के लिए 'महायानकी उत्पत्ति', 'मंत्रयान, वज्रयान चौरासी सिद्ध' पर दो लेख लिखे थे। मैंने अँग्रेज़ी में अनुवाद कर पहले लेख को तो लंदन से ही भेजा था, जिसे आचार्य ने अपने जूर्नाल-आसियातिक में प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की थी। दूसरा अब साथ लाया था, दोनों को उन्होंने ले लिया। हमारे वार्तालाप के बीच में एक बार देवी लेवी भी आई थी। वह 1921-22 में अपने पति देव के साथ भारत आई थीं। उस वक़्त उन्होंने फ़ेंच में 'सीलोन से नेपाल' नामक अपनी यात्रा लिखी थी। उसे मैं पढ़ चुका था, इसलिए उनके सहानुभूतिपूर्ण हृदय से पूर्णतया परिचित था। बीच में आचार्य के बड़े पुत्र आए, पिता द्वारा पुत्र का ललाट-चुंबन बड़ा ही मधुर दृश्य था। दूसरे दिन सोरवोन आने का वचन देकर मैंने विदाई ली।
हमारे वार्तालाप कें समय ही गोवानिवासी श्री बर्गन्सा वहाँ आ गए। उन्होंने मुझे अपने स्थान तक पहुँचाने का कष्ट उठाया। आपको यूरोप आए 16, 17 साल हो गए। मगठी आपकी मातृ-भाषा है। आपका वंश आंध्रसम्राट शातकर्णि या शातवाहनों से संबंध रखता है। पोर्तुगीजों के गोवापर अधिकार जमाने के बाद आपका वंश भी औरों की भाँति ईसाई हो गया। अँग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, इटालियन आदि यूरोप की भाषाओं को आप अप्रयास सुंदर रीति से बोलते हैं। पिछले छः-सात वर्ष आप रूस में ही रहे। निडर भविष्यचेता होते भी आप भारतीय संस्कृति का बड़ा सम्मान रखते हैं। भारत की कई आर्य भाषाओं के अतिरिक्त आप संस्कृत और पाली भी जानते हैं। इस वक़्त आप भारतीय नृत्यकला पर एक सुंदर ग्रंथ फ्रेंच भाषा में लिख रहे हैं। 'भारत नाट्यशास्त्र' और 'संगीत-रत्नाकर' नामक संस्कृत ग्रंथों में भारतीय नाट्यपर काफ़ी लिखा गया है। भारत नाट्य शास्त्र में तो चार-पाँच सौ श्लोकों में नाट्य का सविस्तार वर्णन है। इससे पहले भी मैं उन ग्रंथों को देख चुका था; किंतु मालूम होता है, उन प्रकरणों को विषय के परिचय न होने से छोड़ दिया था। कितनी ही बार श्री बर्गन्सासे मिला, किंतु पहले शायद संकोचवश उन्होंने कुछ नहीं कहा। परी छोड़ने से चार-पाँच दिन पूर्व 24 नवंबर को कहा, ''इन ग्रंथों के कुछ अंशां के अर्थ जानने में मैं आपकी सहायता चाहता हूँ।'' मैंने सहर्ष स्वीकृति देते कहा ''मैं तो सिर्फ शब्दार्थ में ही सहायता कर सकूँगा।'' ''हाँ, हो सकता है, आपके नाट्यज्ञान के मिलने से भाव स्पष्ट हो जाएँ।'' हाँ तो, श्री बर्गन्सा पाश्चात्य नाट्यकला के अच्छे अभिज्ञ हैं; और आपकी पत्नी तो मास्को की एक निपुण नटी हैं। 26 से 28 नवंबर तक हम दोनों मिलकर उक्त दोनों ग्रंथों के अभिलषित अंशों को पढ़ते रहे। उस समय उनके मुखसे यह भी पता लगा कि, यूरोप के उच्च कोटि के नृत्त्यों में भी वे यही 'करण' (=हाथ-पैर की विशेष गति से नृत्य प्रदर्शन की मूल इकाई) आदि है और पंद्रहवीं सोलहवी शताब्दियों में यूरोप ने पूर्व से इस विषय की बहुत-सी बातें सीखी हैं। श्री वर्गन्सा की पुस्तक, जिस समय (31 जुलाई 1633 ई०) में इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ, इस वक़्त तक छप गई होगी। उनसे मैंने कहा था कि, उसका मराठी में भी अनुवाद कर डाले। मराठी अनुवाद छप जाने पर किसी को उसका हिंदी अनुवाद ज़रूर करना चाहिए।
आज 9 बजे रात को बौद्ध मित्र मंडल (L Amis dn Buddhisma) में मेरा व्याख्यान हुआ। विषय था 'पूर्व में बौद्धधर्म की जागृति', साथ-साथ फ़्रेंच अनुवाद भी होता जाता था। मित्र मंडली में सभी शिक्षित तथा ऊपरी श्रेणी के नर-नारी है। आज यह भी निश्चय हुआ कि, चित्रपटों की प्रदर्शनी मुजी-ग्विमे में की जाय। तैयारी में कुछ समय भी लगेगा, इसलिए 28 नवंबर तक यही रहना निश्चय हुआ।
17 नवंबर को बर्गन्सा महाशय के साथ पेरिस के सबसे बड़े पुस्तकागार विब्लियोथिक-नाश्नाल (Bibliothic Nationale) में गए। अपने बज्रयानवाले लेखकों वहाँ कुछ पुस्तकों से मिलाना था। बिना विशेष सिफ़ारिश के इस पुस्तकालय में प्रवेश मुश्किल है। लेकिन वह काम आचार्य लेवी ने कर दिया था। एक कई तलोंवाले विशाल भवन में संसार के तीन महान पुस्तकालयों में से एक यह पुस्तकागार स्थापित है। फ्रेंच जाति के विद्या प्रेम का यह ज्वलंत उदाहरण है। वहाँ मुझे तिब्बती स्तन-ग्युर की एक पोथी से काम था। देखा, पुस्तक पैकिन के लकड़ी के छापे की है और लंबे चौकोर बक्सों में अलग-अलग सुरक्षित रखी हुई हैं।
वहाँ से तीन बजे सोरबोन (परिस् विश्वविद्यालय) गए। आचार्य लेवी, प्राचार्य फूशे, और उनके शिष्य वहाँ मौजूद थे। वहाँ चौरासी सिद्धों के बारे में ही मैंने कुछ कहा। वहीं श्वेत केशश्मश्रुधारी एक वृद्ध पुरुष के दर्शन का सौभाग्य हुआ। आचार्य लेवी ने मज़ाक़ करते हुए कहा—आप काम शास्त्र के विशेषज्ञ है! पीछे मुझे सर्दार उमरावसिंह से बातचीत करने का मौक़ा मिला। आप पंजाब के रहने वाले हैं। 4 वर्ष से इधर ही रह रहे है। आपके साथ सर्दारिनी भी आई थीं, किंतु अब यह भारत लौट गई थी। उनकी कन्या यहीं शिक्षा ग्रहण कर रही है, इसलिए सर्दार साहेब यहीं ठहरे हुए हैं।
18 नवंबर को लूत्रे प्रासाद में फ़्रांस के महान संग्राहालय को देखने गया। सिर्फ़ ग्रीस (यवन) मूर्तियों को ही देखने के लिए महीनों चाहिए। यवन-कला के इन भव्य नमूनों को देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता है। नाना प्रकार के चीनी बर्तनों को भी कई बड़े-बड़े कमरों में प्रदर्शित किया गया है। फ़्रांस सरस्वती की आराधना में यूरोप की सब जातियों में ज्येष्ठ है और उन्नति में किन्हीं विषयों में जर्मनी इस से श्रेष्ठ है और किन्हीं मे यह जर्मनी से। इंग्लैण्ड हर बात में तीसरे ही नंबर पर रहेगा। इस संग्रहालय मे आपको ईरान, असुर, मिश्र आदि देशों की अनेक पुरातन चीज़ें और कला के नमूने मिलेंगे। यहीं मूर्तियों की प्रतिकृति बनाने का भी प्रबंध है। आप जिस मूर्ति की प्रतिकृति लेने चाहे, वहाँ से बनवा सकते है।
प्रोफ़ेसर दुर (Durr) 'वद्-दो-थोस्-ग्रोल' नामक तिब्बती पुस्तक का फ़्रेंच अनुवाद कर रहे थे। यूरोप के लोग विद्या के काम में एक दूसरे की सहायता के महत्त्व को समझते हैं। चाहे स्वयं अच्छा जानते हों, तो भी दूसरे की सहायता से लाभ उठाने के लिए उत्कंठित रहते हैं। प्रोफ़ेसर दुर ने मुझसे कुछ सहायता चाही; मैंने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया। वह बराबर उसके लिए आते रहे। पेरिस में मैंने देखा, तिबत्ती जैसी अपरिचित भाषा के भी दर्जनों जानकार हैं। कुमारी लालू, जो बिब्लियोथिक नाश्नाल में काम करती हैं, तिब्बती चित्रों के एक संग्रह का एक सचित्र सुंदर सूचीपत्र बनाया है, जिसकी एक प्रति उन्होंने कृपाकर मुझे भी प्रदान की। मुजी-ग्विमे के आचार्य वको ने एक तिब्बती-संस्कृत कोश को प्रकाशित कराया है। नवयुवकों और नवयुवतियों के विद्या प्रेम को देखकर आश्चर्य होता था। 21 नवंबर को मेरे पास एक 18 वर्ष का तरुण आया। वह इस वर्ष बी० ए० के अंतिम वर्ष में था। उसका पिता पेरिस के श्वेत-रूसी समुदाय से संबंध रखता है। रूसी और फ़्रेंच के अतिरिक्त यह अँग्रेज़ी, जर्मन, इटालियन, स्पेनिश, पोर्तुगीज भाषाओं को जानता था। कुछ अरबी और फ़ारसी को भी समझता था। इस वक़्त पाली पढ़ रहा था। उसका पिता पेरिस का एक अच्छा गंधी (सुगन्धियों का व्यापारी) था। एक दूसरी आफ़त की परकाला लड़की कुमारी सेलवर्न सोरबोन में मिली, यह संस्कृत की छात्रा है और कालेज के अंतिम वर्षो में बौद्ध दर्शन उसका विषय है। दिंनाग की बड़ी भक्त है। योगाचार दर्शन पर मुझसे बातचीत कर रही थी। वहीं एक दूसरे विद्यार्थी ने बौद्धदर्शन पर चर्चा करते हुए कहा—कार्य-कारण के नियम को अचल मानने पर कर्ता स्वतंत्र कैसे रहेगा? —
मैंने कहा : ''चेतना का अर्थ ही है विचारों की स्वतंत्रता।''
22 नवंबर को मेरे चित्रपटों की प्रदर्शिनी का उद्घाटन हुआ। उसी दिन सोरोन के पास मुझे एक मिश्रदेशीय तरुण महाशय गलाल (जलाल) मिले। बड़े प्रेम से मुझे अपने निवास-स्थान पर ले गए। वह बड़े ही साधारण तौर से रहते थे। मैंने उनसे पूछा कि आपका खाना मकान आदि पर महीने में कुल कितना ख़र्च आता है। हिसाब करने पर मालूम हुआ 600 फ्रांक। 600 फ्रांक का मतलब है, जब रुपया और काग़ज़ी पौण्ड का गंठजोड़ा नहीं हुआ था, उस वक़्त के हिसाब से 60 रुपए से भी कम। आजकल के हिसाब से 100) मासिक के क़रीब। मुझे आश्चर्य होता है कि, भारतीय विद्यार्थी, जिन विषयों को फ़्रांस और जर्मनी में इंग्लैण्ड की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह पढ़ सकते हैं, वह इसके लिए इंग्लैण्ड क्यों जाते हैं?
रूस में बौद्ध इतिहास और संस्कृत संबंधी बहुत-सी वस्तुओं का उत्तम संग्रह है। आचार्य चिखास की, आचार्य ओल्डन वर्ग, ओवर मिलर जैसे बौद्ध साहित्य और दर्शन के चोटी के पंडित भी वहाँ रहते है, इसलिए मेरी बड़ी इच्छा थी कि वहाँ जाऊँ। पासपोर्ट तो ख़ैर मिल गया। अब रूसी बीसे की आवश्यकता थी। सोवियत दूतावास में जाने पर मालूम हुआ कि, इसमें एक मास लग जाएगा। तिसपर भी मिलना सन्दिग्ध था। रूसी यात्रा प्रबंधक संस्था के पास गया। उन्होंने कहा—एक सप्ताह में हम प्रबंध कर देंगे, किंतु रूस में रहते वक़्त द्वितीय श्रेणी के प्रबंध के लिए आपको 10 डालर रोज़ देने होंगे। यद्यपि 10 डालर में जो सुविधा (होटल ख़र्च, खाना-ख़र्च, म्युज़ियम सिनेमा थियेटर के टिकटों का ख़र्च, एक टैक्सी और एक दुभाषिया का ख़र्च आदि) मिलती थी, उसके सामने यह मूल्य कुछ नहीं था। किंतु मैं तो महीने दो महीने के लिए जानेवाला था, फिर इतना रुपया ला कहाँ से सकता था? मैंने रूस जाने की इच्छा से बड़े उत्साह-पूर्वक रूसी भाषा सीखनी शुरू की थी। मुझे यूरोप की सभी भाषाओं में यह सरल मालूम हुई। रूसी भाषा संस्कृत से बहुत समीप भी है। उदाहरणार्थ एतत् = एतोत् , तत् =तोत् , द्वे=द्वे, द्वा, चत्वारि=चेत्वेर। संस्कृत की भाँति ओस्ति भवतिक्रिया इसमें भी छोड़ दी जाती है। इसमें अँग्रेज़ी के आर्टिकलों का ही झगड़ा नहीं है, बल्कि इसकी वर्णमाला नागरीकी भाँति पूर्ण, और जैसे लिखी जाती है, वैसे ही बोली जाती है। मदाम् लाको तीस...से बड़े उत्साह से मुझे रूसी पढ़ाती थीं।
27 नवंबर को चित्रपटों की प्रदर्शिनी समाप्त हुई। यहाँ अभिज्ञो ने ख़ूब प्रशंसा की। इस बार भी श्री हेरमान से कितनी ही बार कथा-समागम का मौक़ा मिला। उन्होंने बड़ी सहायता की।
26 नवंबर को तीन बजे मदाम् लाफ्वाँ परी के उपनगर और दीहात को दिखलाने के लिए मुझे अपनी मोटर पर ले चलीं। फ़्राँस, जर्मनी आदि देशों में सड़क पर दाहिनी ओर से चलना होता है, और इसलिए ड्राइवर मोटर में बाईं ओर बैठता है। शहर से निकलते वक़्त अभी तीन ही बजा था, सूर्य इंगुर की भाँति लाल था। उपवनों, और वनों, पुलों और नदियों, कितने ही गाँवों को देखते हम बर्साइ (वर्सेलिस) प्रासाद तक गए। मदाम् लाफ्वाँ एक बड़े ही सम्भ्रांत कुल की महिला हैं। बुद्ध धर्म की बड़ी अनुरागिणी हैं। उन्होंने एक तिब्बती पुस्तक का अँग्रेज़ी से फ्रेंच में अनुवाद किया है। भगवान बुद्ध के 153 उपदेशों वाले मज्झिम निकाय का भी वह अनुवाद कर रही थीं। वह और कुमारी लेंजवरी फ़रवरी में लंका में आकर कितने ही मासों रही थीं। बौद्ध धर्म के प्रचार में बड़ा ही उत्साह रखती हैं।
कुमारी लेंजवरी अमेरिकन हैं, किंतु बहुत वर्षों से पेरिस में ही रह गई हैं, बड़ी ही सुसंस्कृत और भगवान बुद्ध में असीम प्रेम रखने वाली हैं। वह बुद्ध धर्मके प्रचार में सतत् परिश्रम करती रहती हैं। उनका विचार है कि, एक एकांत शांत स्थान में, एक बौद्ध आश्रम क़ायम किया जाए, जहाँ फ़्राँस के बौद्ध समय-समय पर एकांत चिंतन कर सकें। इनकी सहचरी, एक अँग्रेज़ महिला, जो अब फ़्रांस देशवासिनी हो गई है, बड़ी ही मधुर स्वभाववाली हैं। उनका भाई भारत में फ़ौजी अफ़सर था। उस समय वह भारत में आकर बहुत दिनों तक रही। इस वृद्धावस्था में भी उन्हें भारत की बहुत-सी बातें याद हैं, और, बुद्ध और उनकी मातृभूमि से बहुत प्रेम करती है। मेरे पेरिस में रहते मेरे भोजन आदि का बहुत ख़याल इसी देवी से रहता था।
इस प्रकार दो सप्ताह से अधिक पेरिस नगर में रहकर अनेक मित्रों की मधुर स्मृति लिए 26 नवंबर को रात्रि सवा नौ बजे वहाँ से जर्मनी के लिए रवाना हुआ।
chaudah nowember ko gyarah baje london se widai le main peris ko rawana hua us din charon or kuhra phaila hua tha aaj mera ticket dwitiy shrenai ka tha kitne hi mitr station tak pahunchane aaye the aaj Dowar aur keleke raste jana tha kuch door chalne ke baad kuhra kam hone laga Dowar ke pas pahunchne se poorw hi bain or pathrili pahaDiyan dikhai paDi england ke ganw frans aur jarmni ki bhanti sundar nahin hai barah baje ke baad jahaz par pahunche aaj samudr utna kharab na tha dusre par kelemen ja rail par sawar hue 6 baje andhera ho jane ke baad peris ki gar d noh (uttari station) par utre pletfarm par aate hi, mere pile kapDon se miss lunjabri (sabhapati) aur madam laphwau mantari ne pahchan liya main apne sath tibbati chitrapton ki peti bhi laya tha use abhi custam mein dikhlana tha us din samay na hone se custam walon ne dusre din ke liye rakh chhoDa
madam laphwan motor mein ru madam ke o tel d la aawe seer mein pahuncha yahin mere thaharne ka parbandh kiya gaya tha
sardi ka mausam tha, kintu garm makanon mein prawisht hona sardi ke man ki baat na thi kamra swachchh aur prashast tha, kamre ke sath hi snanagar bhi tha nahane ka itna anand dekhkar mainne antariya ki jagah nity snan karne ka niyam kar liya hotel ka kiraya mere mezbanon ko dena tha, is liye poochh na saka, to bhi 30, 35 phrank 5, 6 rupae roz se kya kam hoga sabere ka jalpan hotel ki or se tha, madhyanh bhojan miss lunjabri ke ghar par hota tha, jo ek minat ke raste hi par lusamburg prasad ke pas tha
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16 nowember ko acharya silwe lewi se milne ka nishchay tha do baje hum unke makan (9 rue ghuyede la bruma) par pahunche siDhi par chaDhte chaDhte tarah tarah ke bhaw paida ho rahe the paida hone hi chahiye; kyonki hum prachin bharat ke wishay mein bhumanDal ke sabse baDe widwan ke pas ja rahe the dewi lewi ke darshan pahle hue unhonne acharya shri ko suchit kiya thoDi hi der mein acharya ke sath hum unke kamre mein the assi warsh ke qarib ka, patla kintu swasthya sharir tha sare baal san ki tarah safed the yahudi jati ke nar nariyon ki bhanti aap shuknas the smit mukh, wiksit lalat, chamakti aukhon se sneh ki kirne charon or phail rahi theen shishtacharki baten, jo aur jagah bhi sadharan hai, use likhkar main wastawikta ke mahattw ko kam karna nahin chahta main waks se ek pustak nikalkar khaDa ho dikha raha tha, us samay aapke mukh se jo shabd nikle—please be seated (kripaya, baithiye) wo apne swar, wiram, uchcharan aadi mein apar sneh ke bhawon ko rakhta tha acharya lewi wastut moh lene mein jadugar (=yatudhan waidik arth mein) hain in gyan wayowriddh mahapurush ke darshan phir honge ya nahin ye nahin kah sakta; kintu peris mein unki mulaqat ki smriti ajanm na bhulegi do bajese chhः baje sham tak pure chaar ghante atrpt ho hamara wartalap hota raha wahan gyan ka parawar hamare samne tarangit ho raha tha ek bar prakaranwash mainne kaha—aur hirdai se kaha—arambh se hi widdya ke path par agrasar hote waqt, aap hi mere adarsh the unhon ne kaha—kya kahte ho, main to itna hi janta hoon ki, main kuch nahin janta ye dhruw saty tha adami ki widdya kya hai—jitna ho wo adhik paDhta hai, utna hi use ye aspasht anubhaw hone lagta hai ki, wo kya kya nahin janta widdya hone par purush waise hi hai, jaise koi adami aas pas milon gahre khaDDon wali ek chhoti si tibbipar baitha hai andhere mein use apni sthiti ka gyan kuch nahin hota, kintu jaise hi parkash aata hai wo apne aas pas ke un khaDDon ko anubhaw karne lagta hai; lekin hamein ye arth nahin nikalna chahiye ki widdya ka paDhna hi nirarthak hai hamein ye samajhkar ki koi sarwaj~n nahin hai, apne gyan ke kshaetr ko baDhate hue bhee; hamein ek dusre ki sahayata ko satkarpurwak lene ke liye taiyar rahna chahiye samuhik gyan se hum apni bahut si kamiyon ko pura kar sakte hain
acharya shri ke sath jin wishyon par wartalap hua, use yahan likhne ki awashyakta nahin yadyapi wo hum donon ke liye bahut hi saras aur anandkar the, to bhi hamare pathkon mein se adhikansh ke liye wo niras hi honge acharya, sanskrit, pali, prakirt, bharat ki anek adhunik bhashaon, tibbtiy, chini tatha europe ki bahut si bhashaon ke acharya hain chini, tibbati, pali sanskrit hi nahin, balki madhya asia ki lupt bhashaon mein bhi prapt bauddh sahity ke aap sarwatomukhi panDit hai bharatmen aap kai bar aa chuke hain aur kitne hi bharatiy aapke shishya hain prachin bharat ke itihas ke kitne hi bhawy aur shatabdiyon se wismrit ansh ko sabhy duniya ke samne lane mein aapne wo kaam kiya hai jise bharatiy aur bharat premi kabhi na bhula sakenge
gilgit mein nikle prachin hastalikhit sanskrit granthon—jinke bare mein aksforD ke prakarn mein likh chuka hun—ke bare mein prapt prishthon ke sahare aap jurnal asiyatik mein ek sachitr gaweshana poorn lekh likh chuke hain aur un pustakon ke bare mein wo mujhse bhi adhik utsuk the peris mein bhi unki khoj leneke liye mujhe prerit kiya tha aur pichhe bharat lautne par patr dwara bhi prerit kiya main kashmir aaya, wahan jo hua, use main sankshaep mein likh chuka hoon use paDhkar acharya ko kshaobh awashy hoga unhonne un granthon ki rakhsha aur parkash mein lane ke liye malawiy ji ko ek patr mere dwara bhijwaya tha baDe adamiyon se Darne wala mae swayan to nahin gaya; kintu Dakadwara patr ko malawiy ji ke pas bhej diya, jiska uttar mujhe kuch nahin mila ganga ke puratattwank ke liye mahayanki utpatti, mantryan, wajrayan chaurasi siddh par do lekh likhe the mainne angrezi mein anuwad kar pahle lekh ko to london se hi bheja tha, jise acharya ne apne jurnal asiyatik mein prakashit karne ki ichha prakat ki thi dusra ab sath laya tha, donon ko unhonne le liya hamare wartalap ke beech mein ek bar dewi lewi bhi i thi wo 1921 22 mein apne pati dew ke sath bharat i theen us waqt unhonne fench mein silon se nepal namak apni yatra likhi thi use main paDh chuka tha, isliye unke sahanubhutipurn hirdai se purnataya parichit tha beech mein acharya ke baDe putr aaye, pita dwara putr ka lalat chumban baDa hi madhur drishya tha dusre din sorwon aane ka wachan dekar mainne widai li
hamare wartalap ken samay hi gowaniwasi shri bargansa wahan aa gaye unhonne mujhe apne sthan tak pahunchane ka kasht uthaya aapko europe aaye 16, 17 sal ho gaye magthi apaki matri bhasha hai aapka wansh andhrsamrat shatkarni ya shatwahnon se sambandh rakhta hai portugijon ke gowapar adhikar jamane ke baad aapka wansh bhi auron ki bhanti isai ho gaya angrezi, phrench, german, rusi, italian aadi europe ki bhashaon ko aap apryas sundar riti se bolte hain pichhle chhः sat warsh aap roos mein hi rahe niDar bhawishycheta hote bhi aap bharatiy sanskriti ka baDa samman rakhte hain bharat ki kai aary bhashaon ke atirikt aap sanskrit aur pali bhi jante hain is waqt aap bharatiy nrityakla par ek sundar granth phrench bhasha mein likh rahe hain bharat natyashastr aur sangit ratnakar namak sanskrit granthon mein bharatiy natypar kafi likha gaya hai bharat naty shastr mein to chaar panch sau shlokon mein naty ka sawistar warnan hai isse pahle bhi main un granthon ko dekh chuka tha; kintu malum hota hai, un prakarnon ko wishay ke parichai na hone se chhoD diya tha kitni hi bar shri bargansase mila, kintu pahle shayad sankochwash unhonne kuch nahin kaha pari chhoDne se chaar panch din poorw 24 nowember ko kaha, in granthon ke kuch anshan ke arth janne mein main apaki sahayata chahta hoon mainne saharsh swikriti dete kaha main to sirph shabdarth mein hi sahayata kar sakunga han, ho sakta hai, aapke natyagyan ke milne se bhaw aspasht ho jayen han to, shri bargansa pashchaty natyakla ke achchhe abhij~n hain; aur apaki patni to masco ki ek nipun nati hain 26 se 28 nowember tak hum donon milkar ukt donon granthon ke abhilshait anshon ko paDhte rahe us samay unke mukhse ye bhi pata laga ki, europe ke uchch koti ke nrittyon mein bhi we yahi karn (=hath pair ki wishesh gati se nrity pradarshan ki mool ikai) aadi hai aur pandrahwin solahwi shatabdiyon mein europe ne poorw se is wishay ki bahut si baten sikhi hain shri wargansa ki pustak, jis samay (31 julai 1633 i०) mein in panktiyon ko likh raha hoon, is waqt tak chhap gai hogi unse mainne kaha tha ki, uska marathi mein bhi anuwad kar Dale marathi anuwad chhap jane par kisi ko uska hindi anuwad zarur karna chahiye
aj 9 baje raat ko bauddh mitr manDal (l amis dn buddhisma) mein mera wyakhyan hua wishay tha poorw mein bauddhdharm ki jagriti, sath sath french anuwad bhi hota jata tha mitr manDali mein sabhi shikshait tatha upri shrenai ke nar nari hai aaj ye bhi nishchay hua ki, chitrapton ki pradarshani muji gwime mein ki jay taiyari mein kuch samay bhi lagega, isliye 28 nowember tak yahi rahna nishchay hua
17 nowember ko bargansa mahashay ke sath peris ke sabse baDe pustakagar wibliyothik nashnal (bibliothic nationale) mein gaye apne bajryanwale lekhkon wahan kuch pustakon se milana tha bina wishesh sifarish ke is pustakalaya mein prawesh mushkil hai lekin wo kaam acharya lewi ne kar diya tha ek kai talonwale wishal bhawan mein sansar ke teen mahan pustkalyon mein se ek ye pustakagar sthapit hai phrench jati ke widdya prem ka ye jwalant udaharn hai wahan mujhe tibbati stan gyur ki ek pothi se kaam tha dekha, pustak paikin ke lakDi ke chhape ki hai aur lambe chaukor bakson mein alag alag surakshait rakhi hui hain
wahan se teen baje sorbon (paris wishwawidyalay) gaye acharya lewi, prachary phushe, aur unke shishya wahan maujud the wahan chaurasi siddhon ke bare mein hi mainne kuch kaha wahin shwet keshashmashrudhari ek wriddh purush ke darshan ka saubhagya hua acharya lewi ne mazaq karte hue kaha—ap kaam shastr ke wisheshaj~n hai! pichhe mujhe sardar umrawsinh se batachit karne ka mauqa mila aap punjab ke rahne wale hain 4 warsh se idhar hi rah rahe hai aapke sath sardarini bhi i theen, kintu ab ye bharat laut gai thi unki kanya yahin shiksha grahn kar rahi hai, isliye sardar saheb yahin thahre hue hain
18 nowember ko lutre prasad mein frans ke mahan sangrahalay ko dekhne gaya sirf grease (yawan) murtiyon ko hi dekhne ke liye mahinon chahiye yawan kala ke in bhawy namunon ko dekhkar chitt prasann ho jata hai nana prakar ke chini bartanon ko bhi kai baDe baDe kamron mein pradarshit kiya gaya hai frans saraswati ki aradhana mein europe ki sab jatiyon mein jyeshth hai aur unnati mein kinhin wishyon mein jarmni is se shreshth hai aur kinhin mae ye jarmni se inglainD har baat mein tisre hi number par rahega is sangrahalay mae aapko iran, asur, mishr aadi deshon ki anek puratan chizen aur kala ke namune milenge yahin murtiyon ki pratikrti banane ka bhi parbandh hai aap jis murti ki pratikrti lene chahe, wahan se banwa sakte hai
professor dur (Durr) wad do thos grol namak tibbati pustak ka french anuwad kar rahe the europe ke log widdya ke kaam mein ek dusre ki sahayata ke mahattw ko samajhte hain chahe swayan achchha jante hon, to bhi dusre ki sahayata se labh uthane ke liye utkanthit rahte hain professor dur ne mujhse kuch sahayata chahi; mainne prasannatapurwak swikar kiya wo barabar uske liye aate rahe peris mein mainne dekha, tibatti jaisi aprichit bhasha ke bhi darjanon jankar hain kumari lalu, jo bibliyothik nashnal mein kaam karti hain, tibbati chitron ke ek sangrah ka ek sachitr sundar suchipatr banaya hai, jiski ek prati unhonne kripakar mujhe bhi pradan ki muji gwime ke acharya wako ne ek tibbati sanskrit kosh ko prakashit karaya hai nawayuwkon aur nawayuwatiyon ke widdya prem ko dekhkar ashchary hota tha 21 nowember ko mere pas ek 18 warsh ka tarun aaya wo is warsh b० e० ke antim warsh mein tha uska pita peris ke shwet rusi samuday se sambandh rakhta hai rusi aur french ke atirikt ye angrezi, german, italian, spenish, portugij bhashaon ko janta tha kuch arbi aur farsi ko bhi samajhta tha is waqt pali paDh raha tha uska pita peris ka ek achchha gandhi (sugandhiyon ka wyapari) tha ek dusri aafat ki parkala laDki kumari selwarn sorbon mein mili, ye sanskrit ki chhatra hai aur kalej ke antim warsho mein bauddh darshan uska wishay hai dinnag ki baDi bhakt hai yogachar darshan par mujhse batachit kar rahi thi wahin ek dusre widyarthi ne bauddhdarshan par charcha karte hue kaha—kary karan ke niyam ko achal manne par karta swatantr kaise rahega? —
mainne kaha ha chetna ka arth hi hai wicharon ki swatantrata
22 nowember ko mere chitrapton ki prdarshini ka udghatan hua usi din soron ke pas mujhe ek mishrdeshiy tarun mahashay galal (jalal) mile baDe prem se mujhe apne niwas sthan par le gaye wo baDe hi sadharan taur se rahte the mainne unse puchha ki aapka khana makan aadi par mahine mein kul kitna kharch aata hai hisab karne par malum hua 600 phrank 600 phrank ka matlab hai, jab rupaya aur kaghazi paunD ka ganthjoDa nahin hua tha, us waqt ke hisab se 60 rupae se bhi kam ajkal ke hisab se 100) masik ke qarib mujhe ashchary hota hai ki, bharatiy widyarthi, jin wishyon ko frans aur jarmni mein inglainD ki apeksha adhik achchhi tarah paDh sakte hain, wo iske liye inglainD kyon jate hain?
roos mein bauddh itihas aur sanskrit sambandhi bahut si wastuon ka uttam sangrah hai acharya chikhas ki, acharya olDan warg, ower millar jaise bauddh sahity aur darshan ke choti ke panDit bhi wahan rahte hai, isliye meri baDi ichha thi ki wahan jaun passport to khair mil gaya ab rusi bise ki awashyakta thi sowiyat dutawas mein jane par malum hua ki, ismen ek mas lag jayega tispar bhi milna sandigdh tha rusi yatra prabandhak sanstha ke pas gaya unhonne kaha—ek saptah mein hum parbandh kar denge, kintu roos mein rahte waqt dwitiy shrenai ke parbandh ke liye aapko 10 Dalar roz dene honge yadyapi 10 Dalar mein jo suwidha (hotel kharch, khana kharch, myuziyam cinema thiyetar ke tikton ka kharch, ek taxi aur ek dubhashaiya ka kharch aadi) milti thi, uske samne ye mooly kuch nahin tha kintu main to mahine do mahine ke liye janewala tha, phir itna rupaya la kahan se sakta tha? mainne roos jane ki ichha se baDe utsah purwak rusi bhasha sikhni shuru ki thi mujhe europe ki sabhi bhashaon mein ye saral malum hui rusi bhasha sanskrit se bahut samip bhi hai udaharnarth etat = etot , tat =tot , dwe=dwe, dwa, chatwari=chetwer sanskrit ki bhanti osti bhawtikriya ismen bhi chhoD di jati hai ismen angrezi ke artiklon ka hi jhagDa nahin hai, balki iski warnamala nagriki bhanti poorn, aur jaise likhi jati hai, waise hi boli jati hai madam lako tees se baDe utsah se mujhe rusi paDhati theen
27 nowember ko chitrapton ki prdarshini samapt hui yahan abhigyo ne khoob prashansa ki is bar bhi shri herman se kitni hi bar katha samagam ka mauqa mila unhonne baDi sahayata ki
26 nowember ko teen baje madam laphwan pari ke upangar aur dihat ko dikhlane ke liye mujhe apni motor par le chalin frans, jarmni aadi deshon mein saDak par dahini or se chalna hota hai, aur isliye Draiwar motor mein bain or baithta hai shahr se nikalte waqt abhi teen hi baja tha, surya ingur ki bhanti lal tha upawnon, aur wanon, pulon aur nadiyon, kitne hi ganwon ko dekhte hum barsai (warselis) prasad tak gaye madam laphwan ek baDe hi sambhrant kul ki mahila hain buddh dharm ki baDi anuragini hain unhonne ek tibbati pustak ka angrezi se phrench mein anuwad kiya hai bhagwan buddh ke 153 updeshon wale majjhim nikay ka bhi wo anuwad kar rahi theen wo aur kumari lenjawri february mein lanka mein aakar kitne hi mason rahi theen bauddh dharm ke parchar mein baDa hi utsah rakhti hain
kumari lenjawri amerikan hain, kintu bahut warshon se peris mein hi rah gai hain, baDi hi susanskrit aur bhagwan buddh mein asim prem rakhne wali hain wo buddh dharmke parchar mein satat parishram karti rahti hain unka wichar hai ki, ek ekant shant sthan mein, ek bauddh ashram qayam kiya jaye, jahan frans ke bauddh samay samay par ekant chintan kar saken inki sahachri, ek angrez mahila, jo ab frans deshwasini ho gai hai, baDi hi madhur swbhawwali hain unka bhai bharat mein fauji afsar tha us samay wo bharat mein aakar bahut dinon tak rahi is wriddhawastha mein bhi unhen bharat ki bahut si baten yaad hain, aur, buddh aur unki matribhumi se bahut prem karti hai mere peris mein rahte mere bhojan aadi ka bahut khayal isi dewi se rahta tha
is prakar do saptah se adhik peris nagar mein rahkar anek mitron ki madhur smriti liye 26 nowember ko ratri sawa nau baje wahan se jarmni ke liye rawana hua
chaudah nowember ko gyarah baje london se widai le main peris ko rawana hua us din charon or kuhra phaila hua tha aaj mera ticket dwitiy shrenai ka tha kitne hi mitr station tak pahunchane aaye the aaj Dowar aur keleke raste jana tha kuch door chalne ke baad kuhra kam hone laga Dowar ke pas pahunchne se poorw hi bain or pathrili pahaDiyan dikhai paDi england ke ganw frans aur jarmni ki bhanti sundar nahin hai barah baje ke baad jahaz par pahunche aaj samudr utna kharab na tha dusre par kelemen ja rail par sawar hue 6 baje andhera ho jane ke baad peris ki gar d noh (uttari station) par utre pletfarm par aate hi, mere pile kapDon se miss lunjabri (sabhapati) aur madam laphwau mantari ne pahchan liya main apne sath tibbati chitrapton ki peti bhi laya tha use abhi custam mein dikhlana tha us din samay na hone se custam walon ne dusre din ke liye rakh chhoDa
madam laphwan motor mein ru madam ke o tel d la aawe seer mein pahuncha yahin mere thaharne ka parbandh kiya gaya tha
sardi ka mausam tha, kintu garm makanon mein prawisht hona sardi ke man ki baat na thi kamra swachchh aur prashast tha, kamre ke sath hi snanagar bhi tha nahane ka itna anand dekhkar mainne antariya ki jagah nity snan karne ka niyam kar liya hotel ka kiraya mere mezbanon ko dena tha, is liye poochh na saka, to bhi 30, 35 phrank 5, 6 rupae roz se kya kam hoga sabere ka jalpan hotel ki or se tha, madhyanh bhojan miss lunjabri ke ghar par hota tha, jo ek minat ke raste hi par lusamburg prasad ke pas tha
15 nowember ko 3 baje miss lunjabri aur madam laphawau ke sath muji gwime gaya bharat, hindu cheen aadi poorw ke deshon ki purani chizen yahin rakhi hui hain yahan tibbtiy chitrapto ka achchha sangrah hai aur europe mein ye sangrah sarwottam hai yahan acharya peliyo dwara laye madhya asia ke chitron ka bhi sangrah hai berlin ke la kauk sangrah ke baad ye sabse achchha hai sabse to adhik chitt tab prasann hua jab shah amanulla ke shasan kal ki khudai mein haDDa bamiyan aadi se nikli chune aadi ki murtiyon aur chehre ko dekha inki khodai acharya phushe ne karai thi ye sangrah sare bhumanDal mein apne Dhang ka adwitiy hai inmen us samay gandhar desh mein anewali nana jati ke purushon—unki nak, oth, chehra, kesh aadi ko sajiwata ke sath mitti chune par utara gaya hai acharya phushe kah rahe the khudai mein jab ye chizen nikal ain to hamare anand ki sima na thi hum chhoti chhoti uthane layaq chizon ko apne Dere mein rakhte ja rahe the phir unhonne thanDi sans bharkar kaha—kintu, maulwiyon ne in murtiyon ke khilaf aisi uttejna paida kar di thi ki raat ko aas paswale saikDon manushya chaDh aaye aur afsos! kala ke un anupam namunon ko krurata ke sath toDne lage! hum aah bhari ankhon se unke is danawi lila ko dekhte rahe koi bhi dharm jo manushya ke hirdai mein aisa bhaw paida kar sakta hai, wo manawjati ke liye abhishap hai!
16 nowember ko acharya silwe lewi se milne ka nishchay tha do baje hum unke makan (9 rue ghuyede la bruma) par pahunche siDhi par chaDhte chaDhte tarah tarah ke bhaw paida ho rahe the paida hone hi chahiye; kyonki hum prachin bharat ke wishay mein bhumanDal ke sabse baDe widwan ke pas ja rahe the dewi lewi ke darshan pahle hue unhonne acharya shri ko suchit kiya thoDi hi der mein acharya ke sath hum unke kamre mein the assi warsh ke qarib ka, patla kintu swasthya sharir tha sare baal san ki tarah safed the yahudi jati ke nar nariyon ki bhanti aap shuknas the smit mukh, wiksit lalat, chamakti aukhon se sneh ki kirne charon or phail rahi theen shishtacharki baten, jo aur jagah bhi sadharan hai, use likhkar main wastawikta ke mahattw ko kam karna nahin chahta main waks se ek pustak nikalkar khaDa ho dikha raha tha, us samay aapke mukh se jo shabd nikle—please be seated (kripaya, baithiye) wo apne swar, wiram, uchcharan aadi mein apar sneh ke bhawon ko rakhta tha acharya lewi wastut moh lene mein jadugar (=yatudhan waidik arth mein) hain in gyan wayowriddh mahapurush ke darshan phir honge ya nahin ye nahin kah sakta; kintu peris mein unki mulaqat ki smriti ajanm na bhulegi do bajese chhः baje sham tak pure chaar ghante atrpt ho hamara wartalap hota raha wahan gyan ka parawar hamare samne tarangit ho raha tha ek bar prakaranwash mainne kaha—aur hirdai se kaha—arambh se hi widdya ke path par agrasar hote waqt, aap hi mere adarsh the unhon ne kaha—kya kahte ho, main to itna hi janta hoon ki, main kuch nahin janta ye dhruw saty tha adami ki widdya kya hai—jitna ho wo adhik paDhta hai, utna hi use ye aspasht anubhaw hone lagta hai ki, wo kya kya nahin janta widdya hone par purush waise hi hai, jaise koi adami aas pas milon gahre khaDDon wali ek chhoti si tibbipar baitha hai andhere mein use apni sthiti ka gyan kuch nahin hota, kintu jaise hi parkash aata hai wo apne aas pas ke un khaDDon ko anubhaw karne lagta hai; lekin hamein ye arth nahin nikalna chahiye ki widdya ka paDhna hi nirarthak hai hamein ye samajhkar ki koi sarwaj~n nahin hai, apne gyan ke kshaetr ko baDhate hue bhee; hamein ek dusre ki sahayata ko satkarpurwak lene ke liye taiyar rahna chahiye samuhik gyan se hum apni bahut si kamiyon ko pura kar sakte hain
acharya shri ke sath jin wishyon par wartalap hua, use yahan likhne ki awashyakta nahin yadyapi wo hum donon ke liye bahut hi saras aur anandkar the, to bhi hamare pathkon mein se adhikansh ke liye wo niras hi honge acharya, sanskrit, pali, prakirt, bharat ki anek adhunik bhashaon, tibbtiy, chini tatha europe ki bahut si bhashaon ke acharya hain chini, tibbati, pali sanskrit hi nahin, balki madhya asia ki lupt bhashaon mein bhi prapt bauddh sahity ke aap sarwatomukhi panDit hai bharatmen aap kai bar aa chuke hain aur kitne hi bharatiy aapke shishya hain prachin bharat ke itihas ke kitne hi bhawy aur shatabdiyon se wismrit ansh ko sabhy duniya ke samne lane mein aapne wo kaam kiya hai jise bharatiy aur bharat premi kabhi na bhula sakenge
gilgit mein nikle prachin hastalikhit sanskrit granthon—jinke bare mein aksforD ke prakarn mein likh chuka hun—ke bare mein prapt prishthon ke sahare aap jurnal asiyatik mein ek sachitr gaweshana poorn lekh likh chuke hain aur un pustakon ke bare mein wo mujhse bhi adhik utsuk the peris mein bhi unki khoj leneke liye mujhe prerit kiya tha aur pichhe bharat lautne par patr dwara bhi prerit kiya main kashmir aaya, wahan jo hua, use main sankshaep mein likh chuka hoon use paDhkar acharya ko kshaobh awashy hoga unhonne un granthon ki rakhsha aur parkash mein lane ke liye malawiy ji ko ek patr mere dwara bhijwaya tha baDe adamiyon se Darne wala mae swayan to nahin gaya; kintu Dakadwara patr ko malawiy ji ke pas bhej diya, jiska uttar mujhe kuch nahin mila ganga ke puratattwank ke liye mahayanki utpatti, mantryan, wajrayan chaurasi siddh par do lekh likhe the mainne angrezi mein anuwad kar pahle lekh ko to london se hi bheja tha, jise acharya ne apne jurnal asiyatik mein prakashit karne ki ichha prakat ki thi dusra ab sath laya tha, donon ko unhonne le liya hamare wartalap ke beech mein ek bar dewi lewi bhi i thi wo 1921 22 mein apne pati dew ke sath bharat i theen us waqt unhonne fench mein silon se nepal namak apni yatra likhi thi use main paDh chuka tha, isliye unke sahanubhutipurn hirdai se purnataya parichit tha beech mein acharya ke baDe putr aaye, pita dwara putr ka lalat chumban baDa hi madhur drishya tha dusre din sorwon aane ka wachan dekar mainne widai li
hamare wartalap ken samay hi gowaniwasi shri bargansa wahan aa gaye unhonne mujhe apne sthan tak pahunchane ka kasht uthaya aapko europe aaye 16, 17 sal ho gaye magthi apaki matri bhasha hai aapka wansh andhrsamrat shatkarni ya shatwahnon se sambandh rakhta hai portugijon ke gowapar adhikar jamane ke baad aapka wansh bhi auron ki bhanti isai ho gaya angrezi, phrench, german, rusi, italian aadi europe ki bhashaon ko aap apryas sundar riti se bolte hain pichhle chhः sat warsh aap roos mein hi rahe niDar bhawishycheta hote bhi aap bharatiy sanskriti ka baDa samman rakhte hain bharat ki kai aary bhashaon ke atirikt aap sanskrit aur pali bhi jante hain is waqt aap bharatiy nrityakla par ek sundar granth phrench bhasha mein likh rahe hain bharat natyashastr aur sangit ratnakar namak sanskrit granthon mein bharatiy natypar kafi likha gaya hai bharat naty shastr mein to chaar panch sau shlokon mein naty ka sawistar warnan hai isse pahle bhi main un granthon ko dekh chuka tha; kintu malum hota hai, un prakarnon ko wishay ke parichai na hone se chhoD diya tha kitni hi bar shri bargansase mila, kintu pahle shayad sankochwash unhonne kuch nahin kaha pari chhoDne se chaar panch din poorw 24 nowember ko kaha, in granthon ke kuch anshan ke arth janne mein main apaki sahayata chahta hoon mainne saharsh swikriti dete kaha main to sirph shabdarth mein hi sahayata kar sakunga han, ho sakta hai, aapke natyagyan ke milne se bhaw aspasht ho jayen han to, shri bargansa pashchaty natyakla ke achchhe abhij~n hain; aur apaki patni to masco ki ek nipun nati hain 26 se 28 nowember tak hum donon milkar ukt donon granthon ke abhilshait anshon ko paDhte rahe us samay unke mukhse ye bhi pata laga ki, europe ke uchch koti ke nrittyon mein bhi we yahi karn (=hath pair ki wishesh gati se nrity pradarshan ki mool ikai) aadi hai aur pandrahwin solahwi shatabdiyon mein europe ne poorw se is wishay ki bahut si baten sikhi hain shri wargansa ki pustak, jis samay (31 julai 1633 i०) mein in panktiyon ko likh raha hoon, is waqt tak chhap gai hogi unse mainne kaha tha ki, uska marathi mein bhi anuwad kar Dale marathi anuwad chhap jane par kisi ko uska hindi anuwad zarur karna chahiye
aj 9 baje raat ko bauddh mitr manDal (l amis dn buddhisma) mein mera wyakhyan hua wishay tha poorw mein bauddhdharm ki jagriti, sath sath french anuwad bhi hota jata tha mitr manDali mein sabhi shikshait tatha upri shrenai ke nar nari hai aaj ye bhi nishchay hua ki, chitrapton ki pradarshani muji gwime mein ki jay taiyari mein kuch samay bhi lagega, isliye 28 nowember tak yahi rahna nishchay hua
17 nowember ko bargansa mahashay ke sath peris ke sabse baDe pustakagar wibliyothik nashnal (bibliothic nationale) mein gaye apne bajryanwale lekhkon wahan kuch pustakon se milana tha bina wishesh sifarish ke is pustakalaya mein prawesh mushkil hai lekin wo kaam acharya lewi ne kar diya tha ek kai talonwale wishal bhawan mein sansar ke teen mahan pustkalyon mein se ek ye pustakagar sthapit hai phrench jati ke widdya prem ka ye jwalant udaharn hai wahan mujhe tibbati stan gyur ki ek pothi se kaam tha dekha, pustak paikin ke lakDi ke chhape ki hai aur lambe chaukor bakson mein alag alag surakshait rakhi hui hain
wahan se teen baje sorbon (paris wishwawidyalay) gaye acharya lewi, prachary phushe, aur unke shishya wahan maujud the wahan chaurasi siddhon ke bare mein hi mainne kuch kaha wahin shwet keshashmashrudhari ek wriddh purush ke darshan ka saubhagya hua acharya lewi ne mazaq karte hue kaha—ap kaam shastr ke wisheshaj~n hai! pichhe mujhe sardar umrawsinh se batachit karne ka mauqa mila aap punjab ke rahne wale hain 4 warsh se idhar hi rah rahe hai aapke sath sardarini bhi i theen, kintu ab ye bharat laut gai thi unki kanya yahin shiksha grahn kar rahi hai, isliye sardar saheb yahin thahre hue hain
18 nowember ko lutre prasad mein frans ke mahan sangrahalay ko dekhne gaya sirf grease (yawan) murtiyon ko hi dekhne ke liye mahinon chahiye yawan kala ke in bhawy namunon ko dekhkar chitt prasann ho jata hai nana prakar ke chini bartanon ko bhi kai baDe baDe kamron mein pradarshit kiya gaya hai frans saraswati ki aradhana mein europe ki sab jatiyon mein jyeshth hai aur unnati mein kinhin wishyon mein jarmni is se shreshth hai aur kinhin mae ye jarmni se inglainD har baat mein tisre hi number par rahega is sangrahalay mae aapko iran, asur, mishr aadi deshon ki anek puratan chizen aur kala ke namune milenge yahin murtiyon ki pratikrti banane ka bhi parbandh hai aap jis murti ki pratikrti lene chahe, wahan se banwa sakte hai
professor dur (Durr) wad do thos grol namak tibbati pustak ka french anuwad kar rahe the europe ke log widdya ke kaam mein ek dusre ki sahayata ke mahattw ko samajhte hain chahe swayan achchha jante hon, to bhi dusre ki sahayata se labh uthane ke liye utkanthit rahte hain professor dur ne mujhse kuch sahayata chahi; mainne prasannatapurwak swikar kiya wo barabar uske liye aate rahe peris mein mainne dekha, tibatti jaisi aprichit bhasha ke bhi darjanon jankar hain kumari lalu, jo bibliyothik nashnal mein kaam karti hain, tibbati chitron ke ek sangrah ka ek sachitr sundar suchipatr banaya hai, jiski ek prati unhonne kripakar mujhe bhi pradan ki muji gwime ke acharya wako ne ek tibbati sanskrit kosh ko prakashit karaya hai nawayuwkon aur nawayuwatiyon ke widdya prem ko dekhkar ashchary hota tha 21 nowember ko mere pas ek 18 warsh ka tarun aaya wo is warsh b० e० ke antim warsh mein tha uska pita peris ke shwet rusi samuday se sambandh rakhta hai rusi aur french ke atirikt ye angrezi, german, italian, spenish, portugij bhashaon ko janta tha kuch arbi aur farsi ko bhi samajhta tha is waqt pali paDh raha tha uska pita peris ka ek achchha gandhi (sugandhiyon ka wyapari) tha ek dusri aafat ki parkala laDki kumari selwarn sorbon mein mili, ye sanskrit ki chhatra hai aur kalej ke antim warsho mein bauddh darshan uska wishay hai dinnag ki baDi bhakt hai yogachar darshan par mujhse batachit kar rahi thi wahin ek dusre widyarthi ne bauddhdarshan par charcha karte hue kaha—kary karan ke niyam ko achal manne par karta swatantr kaise rahega? —
mainne kaha ha chetna ka arth hi hai wicharon ki swatantrata
22 nowember ko mere chitrapton ki prdarshini ka udghatan hua usi din soron ke pas mujhe ek mishrdeshiy tarun mahashay galal (jalal) mile baDe prem se mujhe apne niwas sthan par le gaye wo baDe hi sadharan taur se rahte the mainne unse puchha ki aapka khana makan aadi par mahine mein kul kitna kharch aata hai hisab karne par malum hua 600 phrank 600 phrank ka matlab hai, jab rupaya aur kaghazi paunD ka ganthjoDa nahin hua tha, us waqt ke hisab se 60 rupae se bhi kam ajkal ke hisab se 100) masik ke qarib mujhe ashchary hota hai ki, bharatiy widyarthi, jin wishyon ko frans aur jarmni mein inglainD ki apeksha adhik achchhi tarah paDh sakte hain, wo iske liye inglainD kyon jate hain?
roos mein bauddh itihas aur sanskrit sambandhi bahut si wastuon ka uttam sangrah hai acharya chikhas ki, acharya olDan warg, ower millar jaise bauddh sahity aur darshan ke choti ke panDit bhi wahan rahte hai, isliye meri baDi ichha thi ki wahan jaun passport to khair mil gaya ab rusi bise ki awashyakta thi sowiyat dutawas mein jane par malum hua ki, ismen ek mas lag jayega tispar bhi milna sandigdh tha rusi yatra prabandhak sanstha ke pas gaya unhonne kaha—ek saptah mein hum parbandh kar denge, kintu roos mein rahte waqt dwitiy shrenai ke parbandh ke liye aapko 10 Dalar roz dene honge yadyapi 10 Dalar mein jo suwidha (hotel kharch, khana kharch, myuziyam cinema thiyetar ke tikton ka kharch, ek taxi aur ek dubhashaiya ka kharch aadi) milti thi, uske samne ye mooly kuch nahin tha kintu main to mahine do mahine ke liye janewala tha, phir itna rupaya la kahan se sakta tha? mainne roos jane ki ichha se baDe utsah purwak rusi bhasha sikhni shuru ki thi mujhe europe ki sabhi bhashaon mein ye saral malum hui rusi bhasha sanskrit se bahut samip bhi hai udaharnarth etat = etot , tat =tot , dwe=dwe, dwa, chatwari=chetwer sanskrit ki bhanti osti bhawtikriya ismen bhi chhoD di jati hai ismen angrezi ke artiklon ka hi jhagDa nahin hai, balki iski warnamala nagriki bhanti poorn, aur jaise likhi jati hai, waise hi boli jati hai madam lako tees se baDe utsah se mujhe rusi paDhati theen
27 nowember ko chitrapton ki prdarshini samapt hui yahan abhigyo ne khoob prashansa ki is bar bhi shri herman se kitni hi bar katha samagam ka mauqa mila unhonne baDi sahayata ki
26 nowember ko teen baje madam laphwan pari ke upangar aur dihat ko dikhlane ke liye mujhe apni motor par le chalin frans, jarmni aadi deshon mein saDak par dahini or se chalna hota hai, aur isliye Draiwar motor mein bain or baithta hai shahr se nikalte waqt abhi teen hi baja tha, surya ingur ki bhanti lal tha upawnon, aur wanon, pulon aur nadiyon, kitne hi ganwon ko dekhte hum barsai (warselis) prasad tak gaye madam laphwan ek baDe hi sambhrant kul ki mahila hain buddh dharm ki baDi anuragini hain unhonne ek tibbati pustak ka angrezi se phrench mein anuwad kiya hai bhagwan buddh ke 153 updeshon wale majjhim nikay ka bhi wo anuwad kar rahi theen wo aur kumari lenjawri february mein lanka mein aakar kitne hi mason rahi theen bauddh dharm ke parchar mein baDa hi utsah rakhti hain
kumari lenjawri amerikan hain, kintu bahut warshon se peris mein hi rah gai hain, baDi hi susanskrit aur bhagwan buddh mein asim prem rakhne wali hain wo buddh dharmke parchar mein satat parishram karti rahti hain unka wichar hai ki, ek ekant shant sthan mein, ek bauddh ashram qayam kiya jaye, jahan frans ke bauddh samay samay par ekant chintan kar saken inki sahachri, ek angrez mahila, jo ab frans deshwasini ho gai hai, baDi hi madhur swbhawwali hain unka bhai bharat mein fauji afsar tha us samay wo bharat mein aakar bahut dinon tak rahi is wriddhawastha mein bhi unhen bharat ki bahut si baten yaad hain, aur, buddh aur unki matribhumi se bahut prem karti hai mere peris mein rahte mere bhojan aadi ka bahut khayal isi dewi se rahta tha
is prakar do saptah se adhik peris nagar mein rahkar anek mitron ki madhur smriti liye 26 nowember ko ratri sawa nau baje wahan se jarmni ke liye rawana hua
स्रोत :
पुस्तक : मेरी यूरोप यात्रा (पृष्ठ 128)
रचनाकार : राहुल सांकृत्यायन
प्रकाशन : साहित्य-सेवक-संघ, छपरा
संस्करण : 1935
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