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पत्तों की तरह चुप-जापान प्रवास

patto ki tarah chup-japan pravas

इंदु जैन

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पत्तों की तरह चुप-जापान प्रवास

इंदु जैन

और अधिकइंदु जैन

    यदि पूछा जाए कि जापानियों का कौन-सा सामाजिक गुण सर्वाधिक प्रभावित कर गया तो निःसंकोच मैं कहूँगी, उनकी ईमानदारी। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह हो सकता है कि यह सीधे-सीधे मेरे नफ़े-नुक़सान से जुड़ा है, लेकिन जितनी बार क़ीमती चीज़ें यहाँ-वहाँ भूल जाने के बाद मुझे जापान में वापिस मिली हैं, शायद दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में नहीं मिल सकतीं। अनेक पश्चिमी विदेशी मित्रों ने इसकी ताईद की है।

    हिरोशिमा नागासाकी की यात्रा में हमने बहुत-से स्थान अपने कार्यक्रम में सम्मिलित किए हुए थे। रेल के सारे टिकट रिज़र्व करा रखे थे, होटलों में कमरे तय थे और यह ज़रूरी था कि हम सब गाड़ियाँ ठीक समय पर पकड़ते चले जाएँ। हिरोशिमा से हमें तोबा पहुँचना था। कहना जितना आसान है, करना उतना नहीं। हिरोशिमा से शिन-ओसाका, वहाँ से दूसरी गाड़ी लेकर नांबा और वहाँ से तीसरी गाड़ी लेकर तोबा पहुँचना था। इस बीच में हिमेजी में उतरकर डेढ़ घंटे के अंदर स्टेशन पर सामान टिका, हिमेजी का प्रसिद्ध क़िला देखकर हिमेजी से फिर शिन्कान्सेन यानी बुलेट-ट्रेन पकड़नी थी।

    भारत में अपना सामान कभी ढोने की ज़रूरत नहीं पड़ी सो तमाम मनोबल के बावजूद देह थक जाती थी। तिस पर जापान के स्टेशनों की बेइंतहा सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने की भूलभुलैया, बीच में जैसे-तैसे जुटाए निरामिष भोजन से पेट भरते रहने की समस्या और मुँह में ज़बान होते हुए अवाक् रह जाने की मजबूरी। लेकिन फिर भी सहायता को उद्यत लोग हमारे यात्रा-सलाहकार की प्रबुद्ध योजना और रेल-परिवहन की सुचारु नियमितता से हम सारी मंज़िलें पूरी करते चले गए और तरह-तरह के अनुभवों दृश्यों की मीठी थकान से भरे अपने अंतिम सफ़र के लिए आरामदेह सीटों पर सामान टिकाकर प्लेटफार्म पर टहलने लगे। अभी गाड़ी छूटने में थोड़ा समय बाक़ी था—पहली बार ऐसी रेलगाड़ी में बैठ रहे थे जो दुमंज़िली थी।

    नीचे की आधी मंज़िल ज़मीन के नीचे रहती थी। सोचा इस अद्भुत रेलगाड़ी का चित्र खींच लिया जाए, लेकिन कैसे? कैमरा कहाँ है? बल्कि कैमरा, उसके दो लेंस, चल कैमरा का माइक्रोफ़ोन, कई खींची हुई फ़िल्मों, नई फ़िल्में सबका बैग-का-बैग ही कहाँ है? जल्दी-जल्दी सोचना शुरू किया और याद आया कि शिन ओसाका से नांबा की स्थानीय भूमिगत ट्रेन में बहुत भीड़ थी। लगभग बीस मिनट की यात्रा दरवाज़े के पास खड़े-खड़े की थी। बड़े बैग हाथ से सँभाले हुए थे और भीड़ जब ज़्यादा बढ़ने लगी तो कैमरा-बैग ऊपर सामान के रैक पर रख दिया था। नांबा आया—बाहर निकलती, भीतर आती भीड़ के बीच जल्दी से बड़े बैग लेकर बाहर चले आए और कैमरे का थैला ऊपर ही रखा छूट गया। इस बात को अब लगभग सवा घंटा हो चुका था। उधर—इस गाड़ी के छूटने में मुश्किल से पाँच मिनट बाक़ी थे। किसी तरह गाड़ी के कंडक्टर को सारी बात समझाई। उसने फ़ौरन सामान उतारने को कहा और फिर शुरू हुई कोशिशें...कोशिशें और कोशिशें। जापान रेलवे के उस वयोवृद्ध कर्मचारी को हम कभी भूलेंगे। अगली गाड़ी का टिकट बदलवाते हुए, मेरे हाथ का सामान ख़ुद ढोते हुए वे हमें यहाँ से वहाँ संबंधित आफ़िसों में ले गए। अपनी ड्यूटी दूसरे साथी को सौंपी। अनेक फ़ोन करवाने के बाद उन्होंने बताया कि बैग कहीं किसी स्टेशन के खोए सामान-ऑफ़िस में जमा नहीं कराया गया है। यह कहते हुए कि कैमरा मिलने की संभावना अब कम ही है—उनके चेहरे पर खेद और लज्जा के ऐसे भाव थे, जैसे ग़लती हमारी नहीं उनकी है, मानो वे अपने देशवासियों के व्यवहार के लिए क्षमा माँग रहे हैं। उन्होंने फिर भी तोबा में हमारे होटल का नाम और फ़ोन नंबर ले लिया और आश्वासन दिया कि हमें अब और प्रतीक्षा करने की ज़रूरत नहीं, कैमरा मिले या मिले, वे रात को आठ बजे हमारे होटल में फ़ोन करके हमें स्थिति से अवगत करा देंगे। इतना कुछ करने के बाद हमें ठीक से धन्यवाद भी दे पाने का अवकाश देकर वे अपनी ड्यूटी पर लौट गए।

    सारी स्फूर्ति खोकर थके मन से हम तोबा पहुँचे तो शाम काफ़ी नीचे उतर चुकी थी। सामान सीढ़ियों पर से ऊपर ले जा रहे थे कि देखा ऊपर एक सज्जन उत्तेजित से, हाथ हिला-हिलाकर नीचे किसी से कुछ कह रहे हैं। अचानक समझ पड़ा कि वे हम ही से कुछ कहना चाह रहे हैं। सारी बात में बस एक ही शब्द पल्ले पड़ रहा था—“कामेरा, कामेरा... आशा की चमकीली कौंध मन में दौड़ गई। और उसके बाद...आज तक यह सोचकर आश्चर्य होता है कि समझने की तीव्र इच्छा किस तरह मनुष्य को भाषा की सीमा से ऊपर उठा ले जाती है। वे अँग्रेज़ी या हिंदी बिलकुल नहीं जानते थे और हम जापानी का एक अक्षर नहीं समझते थे, लेकिन उन्होंने बख़ूबी यह हमारे ज़हन में उतरवा ही दिया कि नांबा से फ़ोन आया है कि वे इस गाड़ी से आने वाले भारतीय दंपत्ति को बता दें कि उनका कैमरा-बैग मिल गया है, कि वह अगली गाड़ी से भेजा जा रहा है, कि बैग जाने पर ये सज्जन जो स्टेशन मास्टर हैं, उसे ऑफ़िस लॉकर में सुरक्षित रख देंगे, हमें होटल फ़ोन कर देंगे ताकि हम उसे आकर ले जाएँ।

    हमारी ख़ुशी और अचरज का ठिकाना था। बारंबार धन्यवाद और अनुग्रह में झुकते हुए हम टैक्सी पकड़कर होटल पहुँचे। तब तक स्टेशन मास्टर महोदय होटल फ़ोन करके सारा क़िस्सा बता चुके थे। सो जाते ही होटल के मैनेजर ने अत्यंत मृदुता से हमें बताया कि हम निश्चिन्त रहें—वे हमारा सामान स्वयं होटल की कार भेजकर मँगा लेंगे और हमारे कमरे में पहुँचा देंगे। उसके बाद वे उसी मृदुता, तत्परता और सहजता से हमारी दूसरी समस्या सुलझाने में लग गए—हम क्या निरामिष भोजन खा सकते हैं।

    दूसरी बार फिर हमने कैमरा और उसके तमाम उपकरणों का बैग छोड़ दिया। इस बार वह नगर सप्पोरो से चितोसे हवाई अड्डे आते हुए बस में फिर से ऊपर सामान-रैक पर रखा छूट गया और हमें अपनी भूल का इल्म तब हुआ जब हवाई जहाज़ तोक्यो के हानेदा हवाई अड्डे से 10 मिनट की दूरी पर रह गया। फिर वही भाग-दौड़, दौड़-धूप हमारी और इस बार हवाई परिवहन कर्मचारियों की। फ़ोन पर फ़ोन लेकिन कुछ भी पता चल पाया। हानेदा से ही हमने अपने मित्र श्री शिनोमिया को सप्पोरो फ़ोन करके अपनी मूर्खता बता दी थी। रात के दस बज चुके थे—तमाम दफ़्तर बंद हो चुके थे। अगले दिन रविवार था, लेकिन शिनोमिया जी ने भरसक कोशिश करके हमें फ़ोन करने का आश्वासन दिया।

    रविवार को हमारी प्रतीक्षा जितनी आतुर थी, फ़ोन की चुप्पी उतनी ही स्थिर थी। सप्पोरो, हानेदा, चितोसे—सब चुप थे। चुओ बस सर्विस से भी कोई संदेश था। मेरे पति का कहना था कि इस बार कैमरा मिलना ही “पोएटिक जस्टिस होगा। कुछ देर बाद बोले—“बच्चा भी एक बार ग़लती करता है तो माफ़ कर दिया जाता है, लेकिन दूसरी बार वही भूल करता है तो उसकी पिटाई बनती है... फिर—“बस अब कैमरा नहीं मिलता तो ज़िंदगी-भर दूसरा नहीं ख़रीदूँगा। तुम्हारे जेबी कैमरे से ही काम चलाऊँगा।” और कुछ देर बाद फिर—“इतना बढ़िया कैमरा! शायद मैं उसके योग्य ही नहीं था...” सारी बातें उनकी हताशा और छटपटाहट को ध्वनित कर रही थीं।

    लेकिन आख़िर उनसे रहा गया। जमकर बैठ गए। चितोसे के दो-तीन नंबरों को फ़ोन, हानेदा में कम-से-कम छः-सात फ़ोन—“एक बैग जिस पर 'बीटल्स' का चित्र है उसमें एक निकौन एफ.ई. कैमरा, मूवी कैमरा, एक वाइड लैंस, एक टेली लैंस, फर की टोपी और दस्ताने, एक भूरी-नीली ऊन की जर्सी... और हर बार एक ही उत्तर—“यहाँ ऐसा कोई बैग नहीं है। हम नहीं जानते। हमने नोट कर लिया है।...फ़ोन करेंगे।

    शाम को फ़ोन अपने-आप बजा। शिनोमिया जी थे। “मुझे बहुत दुःख है...” उन्होंने बात शुरू की और एम एम का बैठा दिल लेट गया। “.. मैं इतनी देर में फ़ोन कर रहा हूँ। बस के ड्राइवर ने अपनी कंपनी के हैड ऑफ़िस में आपका कैमरा और सामान जमा करा दिया था... आगे तो, राहत की हरहराहट में उन्हें कुछ सुनाई हो दिया। फ़ोन को हथेली से ढक चमकती आँखों, खनकती आवाज़ में मुझे सूचना दी—“सुनो कैमरा मिल गया...” जी हाँ! बीटल्स बैग सही-सलामत हमारे मित्र के घर में आराम फ़रमा रहा था।

    इसके बाद बीस-पच्चीस दिन तक हर दूसरे-तीसरे दिन किसी-न-किसी हवाई पदाधिकारी का फ़ोन जाता। “आपके बैग का कुछ पता नहीं चला हमें खेद है...।”

    “जी नहीं, बैग मिल गया अनेक धन्यवाद…वह सप्पोरो में हमारे मित्र को सौंप दिया गया है।”

    फिर कुछ दिन बाद किसी दूसरे अफ़सर का फ़ोन वही बातचीत आख़िरकार उन्होंने हमारा बैग स्वयं सप्पोरो से हानेदा मँगाकर ही दम लिया। पतिदेव जाकर उसे ले आए और तब फ़ोन आने बंद हुए। जब तक यह नहीं हुआ, निप्पौन एयरलाइंस शायद चैन की नींद सो पाई।

    इस बीच दो छोटे-छोटे हादसे और हुए। हमारे बैग में से एक खींची हुई फ़िल्म की डिबिया लेकर शिनोमिया जी फ़ोटोग्राफ़र की दुकान पर धुलवाने देने गए। डिबिया खोली तो उसमें से ढेर-का-ढेर सफ़ेद चूरा निकलकर दुकान के तमाम काउंटर पर दूर-दूर तक फैल गया। भारतीय गृहणियाँ यात्रा पर निकलती हैं तो पूरी-सब्ज़ी बनाकर तो साथ ले ही जाती हैं—एक डिबिया में नमक, दूसरी में चीनी और तीसरी में अचार भी साथ चलता है। फ़िल्म रखने की, कसकर बंद होने वाली डिबियाँ इस काम के लिए बहुत माकूल रहती हैं। सो बेचारे भारतीय इतिहास के जापानी विद्यार्थी को इस भारतीय घरेलू तथ्य का साकार शिकार होना पड़ गया। डिबिया पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था—“न क” लेकिन ये बात ही शिनोमिया जी के लिए कल्पनातीत थी कि कोई सप्पोरो आएगा तो अपने साथ तोक्यो से नमक लेकर चलेगा—इसलिए उन्होंने लेबल पढ़ने की ज़रूरत ही समझी। यह घटना हमें बताते हुए वे फ़ोन पर ही हँस-हँसकर दुहरे हो गए।

    दूसरी घटना भी उन्हीं के साथ घटी। उन्होंने हमारे कुछ चित्र खींचे थे। सोचा, क्यों इसी बैग में उनकी कॉपी भी भेज दी जाए। जब वे फ़ोटोग्राफर के पास कॉपियाँ लेने पहुँचे तो जो चित्र उन्हें दिए गए, वे नितांत अपरिचितों के थे। कोई दूसरे शिनोमिया उनका लिफ़ाफ़ा ले गए थे और अपना भूल से छोड़ गए थे—बल्कि भूल तो दुकानदार की ही होगी। शिनोमिया जी का कहना था कि ऐसे ही चलता रहा तो शायद स्थिति अंत में ऐसी हो जाएगी कि उन्हें भारत आकर हमारा बैग वापस करना पड़ेगा।

    विश्वविद्यालय के सहकर्मी माचिदा जी ने दो बार कैमरा खोने का क़िस्सा सुना तो बड़ी मासूमियत से बोले कि जापान में एक कहावत है कि दो बार कोई चीज़ खोकर मिल जाए तो उसे एक बार और खो देना चाहिए क्योंकि यदि तीसरी बार भी मिल जाए तो बिलकुल निश्चिन्त हो जाइए कि अब वह कभी नहीं खोएगी। “उनके सुझाव के लिए बहुत धन्यवाद, किंतु जी नहीं। ये भी तो हो सकता है कि निश्चिन्तता के आश्वासन से पहले ही हम उसकी सुरक्षा की चिंता से ही सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाएँ। रहेगा बाँस बजेगी बाँसुरी। हमारा कैमरा कोई “म्याऊँ नहीं, जो नौ ज़िंदगियाँ लेकर जन्मा है।

    वैसे, एक बार और हम इस जापान देश में कुछ खोकर पा चुके हैं। जेम्युकुजी बाग़ में तेज़ ठंड में कुछ धूप खाने जा पहुँचे और ढलती शाम में धूप के एक चकत्ते से दूसरे पर सूर्य और पेड़ों की आँखमिचौली के साथ-साथ सरकते रहे। बढ़ते अँधेरे में पूरी झील का चक्कर लगाकर घर के आधे रास्ते पहुँचकर देखा कि मेरा पर्स कहीं वहीं छूट गया है। फ़ौरन लौटे। पति साइकिल पर पूरा वही रास्ता तय करते हुए उस बेंच पर पहुँचे जहाँ हम आख़िर में बैठे थे। पर्स कहीं नहीं था। आज तो चला ही गया! पैसे तो ख़ासे थे ही उसमें क्योंकि पार्क आने से पहले ही बैंक से निकाले थे—बल्कि इसीलिए देर भी हो गई थी। लेकिन पैसों से बढ़कर और चीज़ें थीं—विदेशी नागरिक का रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट—(जो हर समय अपने साथ होना ज़रूरी है), रेल-पास, पुस्तकालयों के कार्ड, बैंक की पास-बुक, बैंक-कार्ड और तीन डायरियाँ, जिनमें जापानी के नितांत आवश्यक वाक्यों से लेकर मित्रों के पते, टेलीफ़ोन नंबर, कार्य-सूचियाँ आदि तमाम ऐसी बातें थीं, जिनके बिना जीवन पंगु हो जाता। शृंगार-प्रसाधन सामग्री तो हर महिला के बैग में होती ही है। एम एम चिंता में ही थे कि एक क्षीण-कटि, जॉगिंग करती ठंड में भी पसीना-पसीना युवती रुक गई और पास में मछली पकड़ते कुछ बच्चों से बातचीत कर मेरे पति को पास के पुलिस-बॉक्स की ओर ले चली। रास्ते में ही उन्हें मोटर साइकिल पर उसी ओर आता एक पुलिसमैन दिखाई दिया, जिसके हाथ में मेरा बैग था। मोटर साइकिल पर पीछे आठ साल का बच्चा था। हुआ ये कि बच्चे ने बैग बेंच पर रखे देखा और उसे उठाकर वह सीधा पुलिस चौकी पहुँचा। अब सिपाही उसे साथ लेकर पर्स मिलने की जगह रहा था। युवती ने सारी बात मेरे पति और सिपाही के बीच स्पष्ट कराई और वे उस अचानक अवतरित सहायिका को शतशः धन्यवाद दे ही रहे थे कि मैं भी पैदल चलती हुई पहुँच गई। पर्स ज्यों-का-त्यों सही सलामत था। एक तिनका भी इधर-उधर हुआ था।

    भारत में रहने के बाद जापान के नागरिकों का यह चारित्रिक पक्ष हमें बार-बार चमत्कृत करता रहा है। यहाँ अक्सर बढ़िया-से-बढ़िया चीज़ें, बच्चों की साइकिलें, क़ीमती खिलौने, बढ़िया कंबल, अन्य कपड़े-खुले आँगनों या घर के लगभग बाहर टिके दिखाई देते हैं। कोई उन्हें हाथ नहीं लगाता। दुकानों में तंगी की वजह से बाहर तक बिक्री की चीज़ों का अंबार लगा रहता है। अक्सर दुकान चलानेवाली महिला दुकान के पीछे बने मकान में बिलकुल भीतर घर के काम में लगी रहती है—दुकान में ग्राहक के घुस आने पर पर्दे से टँगी हल्की-सी घंटी के टनटना उठने पर काफ़ी देर में इत्मीनान से निकलकर आती है, लेकिन उसकी बाहर रखी विक्रय सामग्री को कोई ख़तरा नहीं। ऐसा क्यों है?

    समृद्धि के कारण? समृद्धि यदि ईमानदारी को जन्म देती तो अमरीका का वह हाल होता, जो आज है। इंग्लैंड में टी.वी. के एक साक्षात्कार में भारतीय उद्योगपति जे.आर.डी. टाटा से प्रश्न पूछा गया कि आप अपनी निजी सुरक्षा पर कितना व्यय करते हैं, कितने अंगरक्षक रखते हैं? उनके नकारात्मक उत्तर पर फिर प्रश्न किया गया कि भारत में इतनी ग़रीबी है, ग़रीब-अमीर के बीच इतना आर्थिक अंतर है। आपको अपहरण या हानि पहुँचने का कोई भय नहीं है? उन्होंने यही उत्तर दिया कि अब तक तो मुझे इस तरह की कोई ज़रूरत नहीं महसूस हुई।

    किसी देश की संस्कृति और नागरिकों की चरित्रगत विशेषताओं के निर्माण के क्या आधार हैं—यह निश्चित कर पाना असाध्य कार्य है। जापान अपराधरहित है यह कहना तो बचपना होगा, लेकिन यहाँ बड़े अपराध, बड़ी बेईमानी अधिक पाई जाती है—छोटे-छोटे अपराध, चोरी, लूटमार अन्य देशों की अपेक्षा बहुत कम है। संभवतः इसका मूल यहाँ के सामाजिक अनुशासन की परंपरा, अपमान और मर्यादा की गहरी मानसिकता में ढूँढ़ा जा सकता है। सामाजिक विनियम में इस तरह की ईमानदारी की परंपरा क्या बहुत पुरानी है—इसका कोई निश्चित उत्तर मुझे किसी जापानी से नहीं मिला, लेकिन यहाँ की लोककथाओं, काबुकी नाटक की कहानियों और आत्महत्या-हाराकिरी की मनोवैज्ञानिक भूमिका के थोड़े अध्ययन से ऐसा आभास मिला कि भीतर का कलुष समाज के सामने उजागर हो जाना असह्य स्थिति है।

    मानापमान की कड़ी मर्यादाएँ यहाँ सदा से रही हैं और हर अच्छे-बुरे कृत्य के लिए मनुष्य स्वयं ज़िम्मेदार होते हुए भी अपने साथ संबंधित परिवार, वर्ग या स्वामी की प्रतिष्ठा को ख़तरे में डाल सकता है। इस तरह व्यक्तिगत आचरण कभी भी समाज निरपेक्ष या एकांतिक नहीं रह जाता और उस पर बोझ बढ़ता चला जाता है।

    भारत में भी एक युग था, जब कहते हैं लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे। शहरी और ग्रामीण जीवन में परिस्थिति, परिवेश और विभिन्न मानसिकता से जनित अंतर अभी भी देखा जा सकता है। सच तो यह है कि सामाजिक चरित्रगत “स को समझ पाना ज़्यादा आसान है, चारित्रिक गुणों की स्थिरता का अध्ययन कठिन।

    ईमानदारी के ही कुछ दूसरे पक्ष भी जापानी चरित्र में दिखाई देते हैं। निजी अनुभव के आधार पर कह सकती हूँ कि जापानी जो कहते हैं, वह करते हैं। वे वायदे भूलते नहीं। जो काम उठाते हैं उसे संपूर्णता से पूरा करते हैं। उनकी हाँ, हाँ है। “ना” करना उन्हें पसंद नहीं। उनका असमंजस या कुछ कहना ही उनकी “ना” है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का हिंदी महिला-लेखन (खंड-3) (पृष्ठ 521)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : इंदु जैन
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2015

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