यदि पूछा जाए कि जापानियों का कौन-सा सामाजिक गुण सर्वाधिक प्रभावित कर गया तो निःसंकोच मैं कहूँगी, उनकी ईमानदारी। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह हो सकता है कि यह सीधे-सीधे मेरे नफ़े-नुक़सान से जुड़ा है, लेकिन जितनी बार क़ीमती चीज़ें यहाँ-वहाँ भूल जाने के बाद मुझे जापान में वापिस मिली हैं, शायद दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में नहीं मिल सकतीं। अनेक पश्चिमी विदेशी मित्रों ने इसकी ताईद की है।
हिरोशिमा नागासाकी की यात्रा में हमने बहुत-से स्थान अपने कार्यक्रम में सम्मिलित किए हुए थे। रेल के सारे टिकट रिज़र्व करा रखे थे, होटलों में कमरे तय थे और यह ज़रूरी था कि हम सब गाड़ियाँ ठीक समय पर पकड़ते चले जाएँ। हिरोशिमा से हमें तोबा पहुँचना था। कहना जितना आसान है, करना उतना नहीं। हिरोशिमा से शिन-ओसाका, वहाँ से दूसरी गाड़ी लेकर नांबा और वहाँ से तीसरी गाड़ी लेकर तोबा पहुँचना था। इस बीच में हिमेजी में उतरकर डेढ़ घंटे के अंदर स्टेशन पर सामान टिका, हिमेजी का प्रसिद्ध क़िला देखकर हिमेजी से फिर शिन्कान्सेन यानी बुलेट-ट्रेन पकड़नी थी।
भारत में अपना सामान कभी ढोने की ज़रूरत नहीं पड़ी सो तमाम मनोबल के बावजूद देह थक जाती थी। तिस पर जापान के स्टेशनों की बेइंतहा सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने की भूलभुलैया, बीच में जैसे-तैसे जुटाए निरामिष भोजन से पेट भरते रहने की समस्या और मुँह में ज़बान होते हुए अवाक् रह जाने की मजबूरी। लेकिन फिर भी सहायता को उद्यत लोग हमारे यात्रा-सलाहकार की प्रबुद्ध योजना और रेल-परिवहन की सुचारु नियमितता से हम सारी मंज़िलें पूरी करते चले गए और तरह-तरह के अनुभवों व दृश्यों की मीठी थकान से भरे अपने अंतिम सफ़र के लिए आरामदेह सीटों पर सामान टिकाकर प्लेटफार्म पर टहलने लगे। अभी गाड़ी छूटने में थोड़ा समय बाक़ी था—पहली बार ऐसी रेलगाड़ी में बैठ रहे थे जो दुमंज़िली थी।
नीचे की आधी मंज़िल ज़मीन के नीचे रहती थी। सोचा इस अद्भुत रेलगाड़ी का चित्र खींच लिया जाए, लेकिन कैसे? कैमरा कहाँ है? बल्कि कैमरा, उसके दो लेंस, चल कैमरा का माइक्रोफ़ोन, कई खींची हुई फ़िल्मों, नई फ़िल्में सबका बैग-का-बैग ही कहाँ है? जल्दी-जल्दी सोचना शुरू किया और याद आया कि शिन ओसाका से नांबा की स्थानीय भूमिगत ट्रेन में बहुत भीड़ थी। लगभग बीस मिनट की यात्रा दरवाज़े के पास खड़े-खड़े की थी। बड़े बैग हाथ से सँभाले हुए थे और भीड़ जब ज़्यादा बढ़ने लगी तो कैमरा-बैग ऊपर सामान के रैक पर रख दिया था। नांबा आया—बाहर निकलती, भीतर आती भीड़ के बीच जल्दी से बड़े बैग लेकर बाहर चले आए और कैमरे का थैला ऊपर ही रखा छूट गया। इस बात को अब लगभग सवा घंटा हो चुका था। उधर—इस गाड़ी के छूटने में मुश्किल से पाँच मिनट बाक़ी थे। किसी तरह गाड़ी के कंडक्टर को सारी बात समझाई। उसने फ़ौरन सामान उतारने को कहा और फिर शुरू हुई कोशिशें...कोशिशें और कोशिशें। जापान रेलवे के उस वयोवृद्ध कर्मचारी को हम कभी न भूलेंगे। अगली गाड़ी का टिकट बदलवाते हुए, मेरे हाथ का सामान ख़ुद ढोते हुए वे हमें यहाँ से वहाँ संबंधित आफ़िसों में ले गए। अपनी ड्यूटी दूसरे साथी को सौंपी। अनेक फ़ोन करवाने के बाद उन्होंने बताया कि बैग कहीं किसी स्टेशन के खोए सामान-ऑफ़िस में जमा नहीं कराया गया है। यह कहते हुए कि कैमरा मिलने की संभावना अब कम ही है—उनके चेहरे पर खेद और लज्जा के ऐसे भाव थे, जैसे ग़लती हमारी नहीं उनकी है, मानो वे अपने देशवासियों के व्यवहार के लिए क्षमा माँग रहे हैं। उन्होंने फिर भी तोबा में हमारे होटल का नाम और फ़ोन नंबर ले लिया और आश्वासन दिया कि हमें अब और प्रतीक्षा करने की ज़रूरत नहीं, कैमरा मिले या न मिले, वे रात को आठ बजे हमारे होटल में फ़ोन करके हमें स्थिति से अवगत करा देंगे। इतना कुछ करने के बाद हमें ठीक से धन्यवाद भी दे पाने का अवकाश न देकर वे अपनी ड्यूटी पर लौट गए।
सारी स्फूर्ति खोकर थके मन से हम तोबा पहुँचे तो शाम काफ़ी नीचे उतर चुकी थी। सामान सीढ़ियों पर से ऊपर ले जा रहे थे कि देखा ऊपर एक सज्जन उत्तेजित से, हाथ हिला-हिलाकर नीचे किसी से कुछ कह रहे हैं। अचानक समझ पड़ा कि वे हम ही से कुछ कहना चाह रहे हैं। सारी बात में बस एक ही शब्द पल्ले पड़ रहा था—“कामेरा, कामेरा... आशा की चमकीली कौंध मन में दौड़ गई। और उसके बाद...आज तक यह सोचकर आश्चर्य होता है कि समझने की तीव्र इच्छा किस तरह मनुष्य को भाषा की सीमा से ऊपर उठा ले जाती है। वे अँग्रेज़ी या हिंदी बिलकुल नहीं जानते थे और हम जापानी का एक अक्षर नहीं समझते थे, लेकिन उन्होंने बख़ूबी यह हमारे ज़हन में उतरवा ही दिया कि नांबा से फ़ोन आया है कि वे इस गाड़ी से आने वाले भारतीय दंपत्ति को बता दें कि उनका कैमरा-बैग मिल गया है, कि वह अगली गाड़ी से भेजा जा रहा है, कि बैग आ जाने पर ये सज्जन जो स्टेशन मास्टर हैं, उसे ऑफ़िस लॉकर में सुरक्षित रख देंगे, हमें होटल फ़ोन कर देंगे ताकि हम उसे आकर ले जाएँ।
हमारी ख़ुशी और अचरज का ठिकाना न था। बारंबार धन्यवाद और अनुग्रह में झुकते हुए हम टैक्सी पकड़कर होटल पहुँचे। तब तक स्टेशन मास्टर महोदय होटल फ़ोन करके सारा क़िस्सा बता चुके थे। सो जाते ही होटल के मैनेजर ने अत्यंत मृदुता से हमें बताया कि हम निश्चिन्त रहें—वे हमारा सामान स्वयं होटल की कार भेजकर मँगा लेंगे और हमारे कमरे में पहुँचा देंगे। उसके बाद वे उसी मृदुता, तत्परता और सहजता से हमारी दूसरी समस्या सुलझाने में लग गए—हम क्या निरामिष भोजन खा सकते हैं।
दूसरी बार फिर हमने कैमरा और उसके तमाम उपकरणों का बैग छोड़ दिया। इस बार वह नगर सप्पोरो से चितोसे हवाई अड्डे आते हुए बस में फिर से ऊपर सामान-रैक पर रखा छूट गया और हमें अपनी भूल का इल्म तब हुआ जब हवाई जहाज़ तोक्यो के हानेदा हवाई अड्डे से 10 मिनट की दूरी पर रह गया। फिर वही भाग-दौड़, दौड़-धूप हमारी और इस बार हवाई परिवहन कर्मचारियों की। फ़ोन पर फ़ोन लेकिन कुछ भी पता न चल पाया। हानेदा से ही हमने अपने मित्र श्री शिनोमिया को सप्पोरो फ़ोन करके अपनी मूर्खता बता दी थी। रात के दस बज चुके थे—तमाम दफ़्तर बंद हो चुके थे। अगले दिन रविवार था, लेकिन शिनोमिया जी ने भरसक कोशिश करके हमें फ़ोन करने का आश्वासन दिया।
रविवार को हमारी प्रतीक्षा जितनी आतुर थी, फ़ोन की चुप्पी उतनी ही स्थिर थी। सप्पोरो, हानेदा, चितोसे—सब चुप थे। चुओ बस सर्विस से भी कोई संदेश न था। मेरे पति का कहना था कि इस बार कैमरा न मिलना ही “पोएटिक जस्टिस होगा। कुछ देर बाद बोले—“बच्चा भी एक बार ग़लती करता है तो माफ़ कर दिया जाता है, लेकिन दूसरी बार वही भूल करता है तो उसकी पिटाई बनती है... फिर—“बस अब कैमरा नहीं मिलता तो ज़िंदगी-भर दूसरा नहीं ख़रीदूँगा। तुम्हारे जेबी कैमरे से ही काम चलाऊँगा।” और कुछ देर बाद फिर—“इतना बढ़िया कैमरा! शायद मैं उसके योग्य ही नहीं था...” सारी बातें उनकी हताशा और छटपटाहट को ध्वनित कर रही थीं।
लेकिन आख़िर उनसे न रहा गया। जमकर बैठ गए। चितोसे के दो-तीन नंबरों को फ़ोन, हानेदा में कम-से-कम छः-सात फ़ोन—“एक बैग जिस पर 'बीटल्स' का चित्र है उसमें एक निकौन एफ.ई. कैमरा, मूवी कैमरा, एक वाइड लैंस, एक टेली लैंस, फर की टोपी और दस्ताने, एक भूरी-नीली ऊन की जर्सी... और हर बार एक ही उत्तर—“यहाँ ऐसा कोई बैग नहीं है। हम नहीं जानते। हमने नोट कर लिया है।...फ़ोन करेंगे।
शाम को फ़ोन अपने-आप बजा। शिनोमिया जी थे। “मुझे बहुत दुःख है...” उन्होंने बात शुरू की और एम एम का बैठा दिल लेट गया। “.. मैं इतनी देर में फ़ोन कर रहा हूँ। बस के ड्राइवर ने अपनी कंपनी के हैड ऑफ़िस में आपका कैमरा और सामान जमा करा दिया था... आगे तो, राहत की हरहराहट में उन्हें कुछ सुनाई हो न दिया। फ़ोन को हथेली से ढक चमकती आँखों, खनकती आवाज़ में मुझे सूचना दी—“सुनो कैमरा मिल गया...” जी हाँ! बीटल्स बैग सही-सलामत हमारे मित्र के घर में आराम फ़रमा रहा था।
इसके बाद बीस-पच्चीस दिन तक हर दूसरे-तीसरे दिन किसी-न-किसी हवाई पदाधिकारी का फ़ोन आ जाता। “आपके बैग का कुछ पता नहीं चला हमें खेद है...।”
“जी नहीं, बैग मिल गया अनेक धन्यवाद…वह सप्पोरो में हमारे मित्र को सौंप दिया गया है।”
फिर कुछ दिन बाद किसी दूसरे अफ़सर का फ़ोन वही बातचीत आख़िरकार उन्होंने हमारा बैग स्वयं सप्पोरो से हानेदा मँगाकर ही दम लिया। पतिदेव जाकर उसे ले आए और तब फ़ोन आने बंद हुए। जब तक यह नहीं हुआ, निप्पौन एयरलाइंस शायद चैन की नींद न सो पाई।
इस बीच दो छोटे-छोटे हादसे और हुए। हमारे बैग में से एक खींची हुई फ़िल्म की डिबिया लेकर शिनोमिया जी फ़ोटोग्राफ़र की दुकान पर धुलवाने देने गए। डिबिया खोली तो उसमें से ढेर-का-ढेर सफ़ेद चूरा निकलकर दुकान के तमाम काउंटर पर दूर-दूर तक फैल गया। भारतीय गृहणियाँ यात्रा पर निकलती हैं तो पूरी-सब्ज़ी बनाकर तो साथ ले ही जाती हैं—एक डिबिया में नमक, दूसरी में चीनी और तीसरी में अचार भी साथ चलता है। फ़िल्म रखने की, कसकर बंद होने वाली डिबियाँ इस काम के लिए बहुत माकूल रहती हैं। सो बेचारे भारतीय इतिहास के जापानी विद्यार्थी को इस भारतीय घरेलू तथ्य का साकार शिकार होना पड़ गया। डिबिया पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था—“न म क” लेकिन ये बात ही शिनोमिया जी के लिए कल्पनातीत थी कि कोई सप्पोरो आएगा तो अपने साथ तोक्यो से नमक लेकर चलेगा—इसलिए उन्होंने लेबल पढ़ने की ज़रूरत ही न समझी। यह घटना हमें बताते हुए वे फ़ोन पर ही हँस-हँसकर दुहरे हो गए।
दूसरी घटना भी उन्हीं के साथ घटी। उन्होंने हमारे कुछ चित्र खींचे थे। सोचा, क्यों न इसी बैग में उनकी कॉपी भी भेज दी जाए। जब वे फ़ोटोग्राफर के पास कॉपियाँ लेने पहुँचे तो जो चित्र उन्हें दिए गए, वे नितांत अपरिचितों के थे। कोई दूसरे शिनोमिया उनका लिफ़ाफ़ा ले गए थे और अपना भूल से छोड़ गए थे—बल्कि भूल तो दुकानदार की ही होगी। शिनोमिया जी का कहना था कि ऐसे ही चलता रहा तो शायद स्थिति अंत में ऐसी हो जाएगी कि उन्हें भारत आकर हमारा बैग वापस करना पड़ेगा।
विश्वविद्यालय के सहकर्मी माचिदा जी ने दो बार कैमरा खोने का क़िस्सा सुना तो बड़ी मासूमियत से बोले कि जापान में एक कहावत है कि दो बार कोई चीज़ खोकर मिल जाए तो उसे एक बार और खो देना चाहिए क्योंकि यदि तीसरी बार भी मिल जाए तो बिलकुल निश्चिन्त हो जाइए कि अब वह कभी नहीं खोएगी। “उनके सुझाव के लिए बहुत धन्यवाद, किंतु जी नहीं। ये भी तो हो सकता है कि निश्चिन्तता के आश्वासन से पहले ही हम उसकी सुरक्षा की चिंता से ही सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाएँ। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। हमारा कैमरा कोई “म्याऊँ नहीं, जो नौ ज़िंदगियाँ लेकर जन्मा है।
वैसे, एक बार और हम इस जापान देश में कुछ खोकर पा चुके हैं। जेम्युकुजी बाग़ में तेज़ ठंड में कुछ धूप खाने जा पहुँचे और ढलती शाम में धूप के एक चकत्ते से दूसरे पर सूर्य और पेड़ों की आँखमिचौली के साथ-साथ सरकते रहे। बढ़ते अँधेरे में पूरी झील का चक्कर लगाकर घर के आधे रास्ते पहुँचकर देखा कि मेरा पर्स कहीं वहीं छूट गया है। फ़ौरन लौटे। पति साइकिल पर पूरा वही रास्ता तय करते हुए उस बेंच पर पहुँचे जहाँ हम आख़िर में बैठे थे। पर्स कहीं नहीं था। आज तो चला ही गया! पैसे तो ख़ासे थे ही उसमें क्योंकि पार्क आने से पहले ही बैंक से निकाले थे—बल्कि इसीलिए देर भी हो गई थी। लेकिन पैसों से बढ़कर और चीज़ें थीं—विदेशी नागरिक का रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट—(जो हर समय अपने साथ होना ज़रूरी है), रेल-पास, पुस्तकालयों के कार्ड, बैंक की पास-बुक, बैंक-कार्ड और तीन डायरियाँ, जिनमें जापानी के नितांत आवश्यक वाक्यों से लेकर मित्रों के पते, टेलीफ़ोन नंबर, कार्य-सूचियाँ आदि तमाम ऐसी बातें थीं, जिनके बिना जीवन पंगु हो जाता। शृंगार-प्रसाधन सामग्री तो हर महिला के बैग में होती ही है। एम एम चिंता में ही थे कि एक क्षीण-कटि, जॉगिंग करती ठंड में भी पसीना-पसीना युवती रुक गई और पास में मछली पकड़ते कुछ बच्चों से बातचीत कर मेरे पति को पास के पुलिस-बॉक्स की ओर ले चली। रास्ते में ही उन्हें मोटर साइकिल पर उसी ओर आता एक पुलिसमैन दिखाई दिया, जिसके हाथ में मेरा बैग था। मोटर साइकिल पर पीछे आठ साल का बच्चा था। हुआ ये कि बच्चे ने बैग बेंच पर रखे देखा और उसे उठाकर वह सीधा पुलिस चौकी पहुँचा। अब सिपाही उसे साथ लेकर पर्स मिलने की जगह आ रहा था। युवती ने सारी बात मेरे पति और सिपाही के बीच स्पष्ट कराई और वे उस अचानक अवतरित सहायिका को शतशः धन्यवाद दे ही रहे थे कि मैं भी पैदल चलती हुई पहुँच गई। पर्स ज्यों-का-त्यों सही सलामत था। एक तिनका भी इधर-उधर न हुआ था।
भारत में रहने के बाद जापान के नागरिकों का यह चारित्रिक पक्ष हमें बार-बार चमत्कृत करता रहा है। यहाँ अक्सर बढ़िया-से-बढ़िया चीज़ें, बच्चों की साइकिलें, क़ीमती खिलौने, बढ़िया कंबल, अन्य कपड़े-खुले आँगनों या घर के लगभग बाहर टिके दिखाई देते हैं। कोई उन्हें हाथ नहीं लगाता। दुकानों में तंगी की वजह से बाहर तक बिक्री की चीज़ों का अंबार लगा रहता है। अक्सर दुकान चलानेवाली महिला दुकान के पीछे बने मकान में बिलकुल भीतर घर के काम में लगी रहती है—दुकान में ग्राहक के घुस आने पर पर्दे से टँगी हल्की-सी घंटी के टनटना उठने पर काफ़ी देर में इत्मीनान से निकलकर आती है, लेकिन उसकी बाहर रखी विक्रय सामग्री को कोई ख़तरा नहीं। ऐसा क्यों है?
समृद्धि के कारण? समृद्धि यदि ईमानदारी को जन्म देती तो अमरीका का वह हाल न होता, जो आज है। इंग्लैंड में टी.वी. के एक साक्षात्कार में भारतीय उद्योगपति जे.आर.डी. टाटा से प्रश्न पूछा गया कि आप अपनी निजी सुरक्षा पर कितना व्यय करते हैं, कितने अंगरक्षक रखते हैं? उनके नकारात्मक उत्तर पर फिर प्रश्न किया गया कि भारत में इतनी ग़रीबी है, ग़रीब-अमीर के बीच इतना आर्थिक अंतर है। आपको अपहरण या हानि पहुँचने का कोई भय नहीं है? उन्होंने यही उत्तर दिया कि अब तक तो मुझे इस तरह की कोई ज़रूरत नहीं महसूस हुई।
किसी देश की संस्कृति और नागरिकों की चरित्रगत विशेषताओं के निर्माण के क्या आधार हैं—यह निश्चित कर पाना असाध्य कार्य है। जापान अपराधरहित है यह कहना तो बचपना होगा, लेकिन यहाँ बड़े अपराध, बड़ी बेईमानी अधिक पाई जाती है—छोटे-छोटे अपराध, चोरी, लूटमार अन्य देशों की अपेक्षा बहुत कम है। संभवतः इसका मूल यहाँ के सामाजिक अनुशासन की परंपरा, अपमान और मर्यादा की गहरी मानसिकता में ढूँढ़ा जा सकता है। सामाजिक विनियम में इस तरह की ईमानदारी की परंपरा क्या बहुत पुरानी है—इसका कोई निश्चित उत्तर मुझे किसी जापानी से नहीं मिला, लेकिन यहाँ की लोककथाओं, काबुकी नाटक की कहानियों और आत्महत्या-हाराकिरी की मनोवैज्ञानिक भूमिका के थोड़े अध्ययन से ऐसा आभास मिला कि भीतर का कलुष समाज के सामने उजागर हो जाना असह्य स्थिति है।
मानापमान की कड़ी मर्यादाएँ यहाँ सदा से रही हैं और हर अच्छे-बुरे कृत्य के लिए मनुष्य स्वयं ज़िम्मेदार होते हुए भी अपने साथ संबंधित परिवार, वर्ग या स्वामी की प्रतिष्ठा को ख़तरे में डाल सकता है। इस तरह व्यक्तिगत आचरण कभी भी समाज निरपेक्ष या एकांतिक नहीं रह जाता और उस पर बोझ बढ़ता चला जाता है।
भारत में भी एक युग था, जब कहते हैं लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे। शहरी और ग्रामीण जीवन में परिस्थिति, परिवेश और विभिन्न मानसिकता से जनित अंतर अभी भी देखा जा सकता है। सच तो यह है कि सामाजिक चरित्रगत “स को समझ पाना ज़्यादा आसान है, चारित्रिक गुणों की स्थिरता का अध्ययन कठिन।
ईमानदारी के ही कुछ दूसरे पक्ष भी जापानी चरित्र में दिखाई देते हैं। निजी अनुभव के आधार पर कह सकती हूँ कि जापानी जो कहते हैं, वह करते हैं। वे वायदे भूलते नहीं। जो काम उठाते हैं उसे संपूर्णता से पूरा करते हैं। उनकी हाँ, हाँ है। “ना” करना उन्हें पसंद नहीं। उनका असमंजस या कुछ न कहना ही उनकी “ना” है।
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is beech do chhote chhote hadse aur hue. hamare bag mein se ek khinchi hui film ki Dibiya lekar shinomiya ji photographer ki dukan par dhulvane dene gaye. Dibiya kholi to usmen se Dher ka Dher safed chura nikalkar dukan ke tamam counter par door door tak phail gaya. bharatiy grihaniyan yatra par nikalti hain to puri sabzi banakar to saath le hi jati hain—ek Dibiya mein namak, dusri mein chini aur tisri mein achar bhi saath chalta hai. film rakhne ki, kaskar band hone vali Dibiyan is kaam ke liye bahut makul rahti hain. so bechare bharatiy itihas ke japani vidyarthi ko is bharatiy gharelu tathy ka sakar shikar hona paD gaya. Dibiya par baDe baDe akshron mein likha tha—“n madh k” lekin ye baat hi shinomiya ji ke liye kalpanatit thi ki koi sapporo ayega to apne saath tokyo se namak lekar chalega—isliye unhonne label paDhne ki zarurat hi na samjhi. ye ghatna hamein batate hue ve phone par hi hans hansakar duhre ho gaye.
dusri ghatna bhi unhin ke saath ghati. unhonne hamare kuch chitr khinche the. socha, kyon na isi bag mein unki copy bhi bhej di jaye. jab ve fotographar ke paas kaupiyan lene pahunche to jo chitr unhen diye gaye, ve nitant aparichiton ke the. koi dusre shinomiya unka lifafa le gaye the aur apna bhool se chhoD gaye the—balki bhool to dukandar ki hi hogi. shinomiya ji ka kahna tha ki aise hi chalta raha to shayad sthiti ant mein aisi ho jayegi ki unhen bharat aakar hamara bag vapas karna paDega.
vishvavidyalay ke sahkarmi machida ji ne do baar camera khone ka qissa suna to baDi masumiyat se bole ki japan mein ek kahavat hai ki do baar koi cheez khokar mil jaye to use ek baar aur kho dena chahiye kyonki yadi tisri baar bhi mil jaye to bilkul nishchint ho jaiye ki ab wo kabhi nahin khoegi. “unke sujhav ke liye bahut dhanyavad, kintu ji nahin. ye bhi to ho sakta hai ki nishchintta ke ashvasan se pahle hi hum uski suraksha ki chinta se hi sada sada ke liye mukt ho jayen. na rahega baans na bajegi bansuri. hamara camera koi “myaun nahin, jo nau zindagiyan lekar janma hai.
vaise, ek baar aur hum is japan desh mein kuch khokar pa chuke hain. jemyukuji baagh mein tez thanD mein kuch dhoop khane ja pahunche aur Dhalti shaam mein dhoop ke ek chakatte se dusre par surya aur peDon ki ankhmichauli ke saath saath sarakte rahe. baDhte andhere mein puri jheel ka chakkar lagakar ghar ke aadhe raste pahunchakar dekha ki mera purse kahin vahin chhoot gaya hai. fauran laute. pati cycle par pura vahi rasta tay karte hue us bench par pahunche jahan hum akhir mein baithe the. purse kahin nahin tha. aaj to chala hi gaya! paise to khase the hi usmen kyonki park aane se pahle hi baink se nikale the—balki isiliye der bhi ho gai thi. lekin paison se baDhkar aur chizen thin—videshi nagarik ka registration sartiphiket—(jo har samay apne saath hona zaruri hai), rail paas, pustkalyon ke card, baink ki paas buk, baink card aur teen Dayariyan, jinmen japani ke nitant avashyak vakyon se lekar mitron ke pate, telephone nambar, kaary suchiyan aadi tamam aisi baten theen, jinke bina jivan pangu ho jata. shringar prasadhan samagri to har mahila ke bag mein hoti hi hai. em em chinta mein hi the ki ek kshain kati, jauging karti thanD mein bhi pasina pasina yuvati ruk gai aur paas mein machhli pakaDte kuch bachchon se batachit kar mere pati ko paas ke police box ki or le chali. raste mein hi unhen motor cycle par usi or aata ek pulismain dikhai diya, jiske haath mein mera bag tha. motor cycle par pichhe aath saal ka bachcha tha. hua ye ki bachche ne bag bench par rakhe dekha aur use uthakar wo sidha police chauki pahuncha. ab sipahi use saath lekar purse milne ki jagah aa raha tha. yuvati ne sari baat mere pati aur sipahi ke beech aspasht karai aur ve us achanak avatrit sahayika ko shatashः dhanyavad de hi rahe the ki main bhi paidal chalti hui pahunch gai. purse jyon ka tyon sahi salamat tha. ek tinka bhi idhar udhar na hua tha.
bharat mein rahne ke baad japan ke nagarikon ka ye charitrik paksh hamein baar baar chamatkrit karta raha hai. yahan aksar baDhiya se baDhiya chizen, bachchon ki saikilen, qimti khilaune, baDhiya kambal, any kapDe khule anganon ya ghar ke lagbhag bahar tike dikhai dete hain. koi unhen haath nahin lagata. dukanon mein tangi ki vajah se bahar tak bikri ki chizon ka ambar laga rahta hai. aksar dukan chalanevali mahila dukan ke pichhe bane makan mein bilkul bhitar ghar ke kaam mein lagi rahti hai—dukan mein gerahak ke ghus aane par parde se tangi halki si ghanti ke tanatna uthne par kafi der mein itminan se nikalkar aati hai, lekin uski bahar rakhi vikray samagri ko koi khatra nahin. aisa kyon hai?
samrddhi ke karan? samrddhi yadi imandari ko janm deti to america ka wo haal na hota, jo aaj hai. inglainD mein t. vi. ke ek sakshatkar mein bharatiy udyogapti je. aar. d. tata se parashn puchha gaya ki aap apni niji suraksha par kitna vyay karte hain, kitne angrakshak rakhte hain? unke nakaratmak uttar par phir parashn kiya gaya ki bharat mein itni gharib hai, gharib amir ke beech itna arthik antar hai. aapko apharn ya hani pahunchne ka koi bhay nahin hai? unhonne yahi uttar diya ki ab tak to mujhe is tarah ki koi zarurat nahin mahsus hui.
kisi desh ki sanskriti aur nagarikon ki charitrgat visheshtaon ke nirman ke kya adhar hain—yah nishchit kar pana asadhy kaary hai. japan apradharhit hai ye kahna to bachpana hoga, lekin yahan baDe apradh, baDi beimani adhik pai jati hai—chhote chhote apradh, chori, lutamar any deshon ki apeksha bahut kam hai. sambhvatः iska mool yahan ke samajik anushasan ki parampara, apman aur maryada ki gahri manasikta mein DhunDha ja sakta hai. samajik viniyam mein is tarah ki imandari ki parampara kya bahut purani hai—iska koi nishchit uttar mujhe kisi japani se nahin mila, lekin yahan ki lokakthaon, kabuki naatk ki kahaniyon aur atmahatya harakiri ki manovaigyanik bhumika ke thoDe adhyayan se aisa abhas mila ki bhitar ka kalush samaj ke samne ujagar ho jana asahy sthiti hai.
manapman ki kaDi maryadayen yahan sada se rahi hain aur har achchhe bure krity ke liye manushya svayan zimmedar hote hue bhi apne saath sambandhit parivar, varg ya svami ki pratishtha ko khatre mein Daal sakta hai. is tarah vyaktigat acharn kabhi bhi samaj nirpeksh ya ekantik nahin rah jata aur us par bojh baDhta chala jata hai.
bharat mein bhi ek yug tha, jab kahte hain log gharon mein tale nahin lagate the. shahri aur gramin jivan mein paristhiti, parivesh aur vibhinn manasikta se janit antar abhi bhi dekha ja sakta hai. sach to ye hai ki samajik charitrgat “s ko samajh pana zyada asan hai, charitrik gunon ki sthirta ka adhyayan kathin.
imandari ke hi kuch dusre paksh bhi japani charitr mein dikhai dete hain. niji anubhav ke adhar par kah sakti hoon ki japani jo kahte hain, wo karte hain. ve vayde bhulte nahin. jo kaam uthate hain use sampurnta se pura karte hain. unki haan, haan hai. “na” karna unhen pasand nahin. unka asmanjas ya kuch na kahna hi unki “na” hai.
yadi puchha jaye ki japaniyon ka kaun sa samajik gun sarvadhik prabhavit kar gaya to niःsankoch main kahungi, unki imandari. iska ek mahattvapurn karan ye ho sakta hai ki ye sidhe sidhe mere nafe nuqsan se juDa hai, lekin jitni baar qimti chizen yahan vahan bhool jane ke baad mujhe japan mein vapis mili hain, shayad duniya ke kisi dusre mulk mein nahin mil saktin. anek pashchimi videshi mitron ne iski taid ki hai.
hiroshima nagasaki ki yatra mein hamne bahut se sthaan apne karyakram mein sammilit kiye hue the. rail ke sare ticket reserv kara rakhe the, hotlon mein kamre tay the aur ye zaruri tha ki hum sab gaDiyan theek samay par pakaDte chale jayen. hiroshima se hamein toba pahunchna tha. kahna jitna asan hai, karna utna nahin. hiroshima se shin osaka, vahan se dusri gaDi lekar namba aur vahan se tisri gaDi lekar toba pahunchna tha. is beech mein himeji mein utarkar DeDh ghante ke andar station par saman tika, himeji ka prasiddh qila dekhkar himeji se phir shinkansen yani bullet train pakaDni thi.
bharat mein apna saman kabhi Dhone ki zarurat nahin paDi so tamam manobal ke bavjud deh thak jati thi. tis par japan ke steshnon ki beintha siDhiyan chaDhne utarne ki bhulabhulaiya, beech mein jaise taise jutaye niramish bhojan se pet bharte rahne ki samasya aur munh mein zaban hote hue avak rah jane ki majburi. lekin phir bhi sahayata ko udyat log hamare yatra salahakar ki prabuddh yojna aur rail parivhan ki sucharu niyamitta se hum sari manzilen puri karte chale gaye aur tarah tarah ke anubhvon va drishyon ki mithi thakan se bhare apne antim safar ke liye aramdeh siton par saman tikakar pletpharm par tahalne lage. abhi gaDi chhutne mein thoDa samay baqi tha—pahli baar aisi relgaDi mein baith rahe the jo dumanzili thi.
niche ki aadhi manzil zamin ke niche rahti thi. socha is adbhut relgaDi ka chitr kheench liya jaye, lekin kaise? camera kahan hai? balki camera, uske do lens, chal camera ka maikrofon, kai khinchi hui filmon, nai filmen sabka bag ka bag hi kahan hai? jaldi jaldi sochna shuru kiya aur yaad aaya ki shin osaka se namba ki asthaniya bhumigat train mein bahut bheeD thi. lagbhag bees minat ki yatra darvaze ke paas khaDe khaDe ki thi. baDe bag haath se sambhale hue the aur bheeD jab zyada baDhne lagi to camera bag upar saman ke rack par rakh diya tha. namba aya—bahar nikalti, bhitar aati bheeD ke beech jaldi se baDe bag lekar bahar chale aaye aur camere ka thaila upar hi rakha chhoot gaya. is baat ko ab lagbhag sava ghanta ho chuka tha. udhar—is gaDi ke chhutne mein mushkil se paanch minat baqi the. kisi tarah gaDi ke kanDaktar ko sari baat samjhai. usne fauran saman utarne ko kaha aur phir shuru hui koshishen. . . koshishen aur koshishen. japan railway ke us vayovriddh karmachari ko hum kabhi na bhulenge. agli gaDi ka ticket badalvate hue, mere haath ka saman khu Dhote hue ve hamein yahan se vahan sambandhit afison mein le gaye. apni duty dusre sathi ko saumpi. anek phone karvane ke baad unhonne bataya ki bag kahin kisi station ke khoe saman office mein jama nahin karaya gaya hai. ye kahte hue ki camera milne ki sambhavna ab kam hi hai—unke chehre par khed aur lajja ke aise bhaav the, jaise ghalati hamari nahin unki hai, mano ve apne deshvasiyon ke vyvahar ke liye kshama maang rahe hain. unhonne phir bhi toba mein hamare hotel ka naam aur phone nambar le liya aur ashvasan diya ki hamein ab aur pratiksha karne ki zarurat nahin, camera mile ya na mile, ve raat ko aath baje hamare hotel mein phone karke hamein sthiti se avgat kara denge. itna kuch karne ke baad hamein theek se dhanyavad bhi de pane ka avkash na dekar ve apni duty par laut gaye.
sari sphurti khokar thake man se hum toba pahunche to shaam kafi niche utar chuki thi. saman siDhiyon par se upar le ja rahe the ki dekha upar ek sajjan uttejit se, haath hila hilakar niche kisi se kuch kah rahe hain. achanak samajh paDa ki ve hum hi se kuch kahna chaah rahe hain. sari baat mein bus ek hi shabd palle paD raha tha—“kamera, kamera. . . aasha ki chamkili kaundh man mein dauD gai. aur uske baad. . . aaj tak ye sochkar ashchary hota hai ki samajhne ki teevr ichha kis tarah manushya ko bhasha ki sima se upar utha le jati hai. ve angrezi ya hindi bilkul nahin jante the aur hum japani ka ek akshar nahin samajhte the, lekin unhonne bakhubi ye hamare zahan mein utarva hi diya ki namba se phone aaya hai ki ve is gaDi se aane vale bharatiy dampatti ko bata den ki unka camera bag mil gaya hai, ki wo agli gaDi se bheja ja raha hai, ki bag aa jane par ye sajjan jo station master hain, use office locker mein surakshait rakh denge, hamein hotel phone kar denge taki hum use aakar le jayen.
hamari khushi aur achraj ka thikana na tha. barambar dhanyavad aur anugrah mein jhukte hue hum taxi pakaDkar hotel pahunche. tab tak station master mahoday hotel phone karke sara qissa bata chuke the. so jate hi hotel ke manager ne atyant mriduta se hamein bataya ki hum nishchint rahen—ve hamara saman svayan hotel ki kaar bhejkar manga lenge aur hamare kamre mein pahuncha denge. uske baad ve usi mriduta, tatparta aur sahajta se hamari dusri samasya suljhane mein lag gaye—ham kya niramish bhojan kha sakte hain.
dusri baar phir hamne camera aur uske tamam upakarnon ka bag chhoD diya. is baar wo nagar sapporo se chitose havai aDDe aate hue bus mein phir se upar saman rack par rakha chhoot gaya aur hamein apni bhool ka ilm tab hua jab havai jahaz tokyo ke haneda havai aDDe se 10 minat ki duri par rah gaya. phir vahi bhaag dauD, dauD dhoop hamari aur is baar havai parivhan karmchariyon kee. phone par phone lekin kuch bhi pata na chal paya. haneda se hi hamne apne mitr shri shinomiya ko sapporo phone karke apni murkhata bata di thi. raat ke das baj chuke the—tamam daftar band ho chuke the. agle din ravivar tha, lekin shinomiya ji ne bharsak koshish karke hamein phone karne ka ashvasan diya.
ravivar ko hamari pratiksha jitni aatur thi, phone ki chuppi utni hi sthir thi. sapporo, haneda, chitose—sab chup the. chuo bus service se bhi koi sandesh na tha. mere pati ka kahna tha ki is baar camera na milna hi “poetik justice hoga. kuch der baad bole—“bachcha bhi ek baar ghalati karta hai to maaf kar diya jata hai, lekin dusri baar vahi bhool karta hai to uski pitai banti hai. . . phir—“bus ab camera nahin milta to zindagi bhar dusra nahin kharidunga. tumhare jebi camere se hi kaam chalaunga. ” aur kuch der baad phir—“itna baDhiya camera! shayad main uske yogya hi nahin tha. . . ” sari baten unki hatasha aur chhatpatahat ko dhvanit kar rahi theen.
lekin akhir unse na raha gaya. jamkar baith gaye. chitose ke do teen nambron ko phone, haneda mein kam se kam chhः saat phone—“ek bag jis par bitals ka chitr hai usmen ek nikaun eph. i. camera, muvi camera, ek vaiD lains, ek teli lains, faar ki topi aur dastane, ek bhuri nili un ki jarsi. . . aur har baar ek hi uttar—“yahan aisa koi bag nahin hai. hum nahin jante. hamne not kar liya hai. . . . phone karenge.
shaam ko phone apne aap baja. shinomiya ji the. “mujhe bahut duःkh hai. . . ” unhonne baat shuru ki aur em em ka baitha dil let gaya. “. . main itni der mein phone kar raha hoon. bus ke Draivar ne apni kampni ke haiD office mein aapka camera aur saman jama kara diya tha. . . aage to, rahat ki harahrahat mein unhen kuch sunai ho na diya. phone ko hatheli se Dhak chamakti ankhon, khanakti avaz mein mujhe suchana di—“suno camera mil gaya. . . ” ji haan! bitals bag sahi salamat hamare mitr ke ghar mein aram farma raha tha.
iske baad bees pachchis din tak har dusre tisre din kisi na kisi havai padadhikari ka phone aa jata. “apke bag ka kuch pata nahin chala hamein khed hai. . . . ”
“ji nahin, bag mil gaya anek dhanyavad…vah sapporo mein hamare mitr ko saump diya gaya hai. ”
phir kuch din baad kisi dusre afsar ka phone vahi batachit akhiraka unhonne hamara bag svayan sapporo se haneda mangakar hi dam liya. patidev jakar use le aaye aur tab phone aane band hue. jab tak ye nahin hua, nippaun eyarlains shayad chain ki neend na so pai.
is beech do chhote chhote hadse aur hue. hamare bag mein se ek khinchi hui film ki Dibiya lekar shinomiya ji photographer ki dukan par dhulvane dene gaye. Dibiya kholi to usmen se Dher ka Dher safed chura nikalkar dukan ke tamam counter par door door tak phail gaya. bharatiy grihaniyan yatra par nikalti hain to puri sabzi banakar to saath le hi jati hain—ek Dibiya mein namak, dusri mein chini aur tisri mein achar bhi saath chalta hai. film rakhne ki, kaskar band hone vali Dibiyan is kaam ke liye bahut makul rahti hain. so bechare bharatiy itihas ke japani vidyarthi ko is bharatiy gharelu tathy ka sakar shikar hona paD gaya. Dibiya par baDe baDe akshron mein likha tha—“n madh k” lekin ye baat hi shinomiya ji ke liye kalpanatit thi ki koi sapporo ayega to apne saath tokyo se namak lekar chalega—isliye unhonne label paDhne ki zarurat hi na samjhi. ye ghatna hamein batate hue ve phone par hi hans hansakar duhre ho gaye.
dusri ghatna bhi unhin ke saath ghati. unhonne hamare kuch chitr khinche the. socha, kyon na isi bag mein unki copy bhi bhej di jaye. jab ve fotographar ke paas kaupiyan lene pahunche to jo chitr unhen diye gaye, ve nitant aparichiton ke the. koi dusre shinomiya unka lifafa le gaye the aur apna bhool se chhoD gaye the—balki bhool to dukandar ki hi hogi. shinomiya ji ka kahna tha ki aise hi chalta raha to shayad sthiti ant mein aisi ho jayegi ki unhen bharat aakar hamara bag vapas karna paDega.
vishvavidyalay ke sahkarmi machida ji ne do baar camera khone ka qissa suna to baDi masumiyat se bole ki japan mein ek kahavat hai ki do baar koi cheez khokar mil jaye to use ek baar aur kho dena chahiye kyonki yadi tisri baar bhi mil jaye to bilkul nishchint ho jaiye ki ab wo kabhi nahin khoegi. “unke sujhav ke liye bahut dhanyavad, kintu ji nahin. ye bhi to ho sakta hai ki nishchintta ke ashvasan se pahle hi hum uski suraksha ki chinta se hi sada sada ke liye mukt ho jayen. na rahega baans na bajegi bansuri. hamara camera koi “myaun nahin, jo nau zindagiyan lekar janma hai.
vaise, ek baar aur hum is japan desh mein kuch khokar pa chuke hain. jemyukuji baagh mein tez thanD mein kuch dhoop khane ja pahunche aur Dhalti shaam mein dhoop ke ek chakatte se dusre par surya aur peDon ki ankhmichauli ke saath saath sarakte rahe. baDhte andhere mein puri jheel ka chakkar lagakar ghar ke aadhe raste pahunchakar dekha ki mera purse kahin vahin chhoot gaya hai. fauran laute. pati cycle par pura vahi rasta tay karte hue us bench par pahunche jahan hum akhir mein baithe the. purse kahin nahin tha. aaj to chala hi gaya! paise to khase the hi usmen kyonki park aane se pahle hi baink se nikale the—balki isiliye der bhi ho gai thi. lekin paison se baDhkar aur chizen thin—videshi nagarik ka registration sartiphiket—(jo har samay apne saath hona zaruri hai), rail paas, pustkalyon ke card, baink ki paas buk, baink card aur teen Dayariyan, jinmen japani ke nitant avashyak vakyon se lekar mitron ke pate, telephone nambar, kaary suchiyan aadi tamam aisi baten theen, jinke bina jivan pangu ho jata. shringar prasadhan samagri to har mahila ke bag mein hoti hi hai. em em chinta mein hi the ki ek kshain kati, jauging karti thanD mein bhi pasina pasina yuvati ruk gai aur paas mein machhli pakaDte kuch bachchon se batachit kar mere pati ko paas ke police box ki or le chali. raste mein hi unhen motor cycle par usi or aata ek pulismain dikhai diya, jiske haath mein mera bag tha. motor cycle par pichhe aath saal ka bachcha tha. hua ye ki bachche ne bag bench par rakhe dekha aur use uthakar wo sidha police chauki pahuncha. ab sipahi use saath lekar purse milne ki jagah aa raha tha. yuvati ne sari baat mere pati aur sipahi ke beech aspasht karai aur ve us achanak avatrit sahayika ko shatashः dhanyavad de hi rahe the ki main bhi paidal chalti hui pahunch gai. purse jyon ka tyon sahi salamat tha. ek tinka bhi idhar udhar na hua tha.
bharat mein rahne ke baad japan ke nagarikon ka ye charitrik paksh hamein baar baar chamatkrit karta raha hai. yahan aksar baDhiya se baDhiya chizen, bachchon ki saikilen, qimti khilaune, baDhiya kambal, any kapDe khule anganon ya ghar ke lagbhag bahar tike dikhai dete hain. koi unhen haath nahin lagata. dukanon mein tangi ki vajah se bahar tak bikri ki chizon ka ambar laga rahta hai. aksar dukan chalanevali mahila dukan ke pichhe bane makan mein bilkul bhitar ghar ke kaam mein lagi rahti hai—dukan mein gerahak ke ghus aane par parde se tangi halki si ghanti ke tanatna uthne par kafi der mein itminan se nikalkar aati hai, lekin uski bahar rakhi vikray samagri ko koi khatra nahin. aisa kyon hai?
samrddhi ke karan? samrddhi yadi imandari ko janm deti to america ka wo haal na hota, jo aaj hai. inglainD mein t. vi. ke ek sakshatkar mein bharatiy udyogapti je. aar. d. tata se parashn puchha gaya ki aap apni niji suraksha par kitna vyay karte hain, kitne angrakshak rakhte hain? unke nakaratmak uttar par phir parashn kiya gaya ki bharat mein itni gharib hai, gharib amir ke beech itna arthik antar hai. aapko apharn ya hani pahunchne ka koi bhay nahin hai? unhonne yahi uttar diya ki ab tak to mujhe is tarah ki koi zarurat nahin mahsus hui.
kisi desh ki sanskriti aur nagarikon ki charitrgat visheshtaon ke nirman ke kya adhar hain—yah nishchit kar pana asadhy kaary hai. japan apradharhit hai ye kahna to bachpana hoga, lekin yahan baDe apradh, baDi beimani adhik pai jati hai—chhote chhote apradh, chori, lutamar any deshon ki apeksha bahut kam hai. sambhvatः iska mool yahan ke samajik anushasan ki parampara, apman aur maryada ki gahri manasikta mein DhunDha ja sakta hai. samajik viniyam mein is tarah ki imandari ki parampara kya bahut purani hai—iska koi nishchit uttar mujhe kisi japani se nahin mila, lekin yahan ki lokakthaon, kabuki naatk ki kahaniyon aur atmahatya harakiri ki manovaigyanik bhumika ke thoDe adhyayan se aisa abhas mila ki bhitar ka kalush samaj ke samne ujagar ho jana asahy sthiti hai.
manapman ki kaDi maryadayen yahan sada se rahi hain aur har achchhe bure krity ke liye manushya svayan zimmedar hote hue bhi apne saath sambandhit parivar, varg ya svami ki pratishtha ko khatre mein Daal sakta hai. is tarah vyaktigat acharn kabhi bhi samaj nirpeksh ya ekantik nahin rah jata aur us par bojh baDhta chala jata hai.
bharat mein bhi ek yug tha, jab kahte hain log gharon mein tale nahin lagate the. shahri aur gramin jivan mein paristhiti, parivesh aur vibhinn manasikta se janit antar abhi bhi dekha ja sakta hai. sach to ye hai ki samajik charitrgat “s ko samajh pana zyada asan hai, charitrik gunon ki sthirta ka adhyayan kathin.
imandari ke hi kuch dusre paksh bhi japani charitr mein dikhai dete hain. niji anubhav ke adhar par kah sakti hoon ki japani jo kahte hain, wo karte hain. ve vayde bhulte nahin. jo kaam uthate hain use sampurnta se pura karte hain. unki haan, haan hai. “na” karna unhen pasand nahin. unka asmanjas ya kuch na kahna hi unki “na” hai.
स्रोत :
पुस्तक : बीसवीं सदी का हिंदी महिला-लेखन (खंड-3) (पृष्ठ 521)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।