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पाकिस्तान का सफ़र

pakistan ka safar

बलराज साहनी

बलराज साहनी

पाकिस्तान का सफ़र

बलराज साहनी

और अधिकबलराज साहनी

    दिल्ली, 6 अक्टूबर, 1962

    पाकिस्तान की सैर का प्रोग्राम बनाते समय यह ध्यान नहीं आया कि उसका प्रभाव मेरी बूढ़ी माँ पर क्या पड़ेगा! उन्हें मेरा वहाँ जाना बिलकुल पसंद नहीं। मैं कहता हूँ, 'माता जी, ज़रा सोचिए तो सही, मैं पिंडी जाऊँगा, भेरा जाऊँगा, अपने पुराने घर देखूँगा, बचपन के दोस्तों से मिलूँगा।

    'अब कहाँ की दोस्ती और कहाँ के घर-बार! उन स्थानों से अब हमारा क्या नाता रह गया है?'

    वह तो ठीक है, पर सैर-सपाटा करने में क्या हर्ज है?'

    'तू तो बेटा, सैर-सपाटे में लगा रहेगा और बीच में मेरी जान टंगी रहेगी। बड़े मूर्ख लोग हैं वे। उनका क्या भरोसा?'

    'नहीं, वे सब बातें ख़त्म हो गई हैं। अब तो रोज़ ही लोग आते-जाते हैं। रत्ती-माशा भी कोई ख़तरा नहीं है। अच्छा लो, तुम्हें फ़िक्र चिंतन हो इसलिए मैं हर दूसरे-तीसरे दिन तार भेज दिया करूँगा।'

    चल तो पड़ा घर से मगर माताजी का चेहरा मुर्झाया हुआ था। मेरा मज़ा आधा रह गया। मुझे मालूम था कि मेरे लौटने की घड़ी तक उन्हें सुख-दुःख की चिंता लगी रहेगी।

    दिल्ली स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर बड़ी देर तक भटकने के बाद पता चला कि पाकिस्तान वाला डिब्बा गाड़ी के बिलकुल आख़ीर में लगा हुआ है। उस डिब्बे तक पहुँचा तो दिल बैठ गया। बड़ा ही गंदा था। ऐसा लगा जैसे पाकिस्तान की सवारियों के साथ अछूतों का-सा व्यवहार किया गया हो, जैसे उनके साथ मिलते ही मैं भी अपने देशवासियों से अलग कर दिया गया हूँ। बैठे हुए दिल से मैंने सामान भीतर रखवाया और कुली को विदा कर दिया।

    अच्छा, जो होगा देखा जाएगा, अब तो ओखली में सिर दिया ही है। ऊपरवाली बर्थ पर एक यात्री का बिस्तर बिछा हुआ था, पर वह कहीं गया हुआ था। जाने कैसा आदमी होगा? जाने उसके साथ कैसी निभेगी? डिब्बे के आसपास फ़िल्म एक्टर को देखने के लिए भीड़ जमा हो जाती है। आज एक आदमी भी क़रीब नहीं फटका, जैसे पाकिस्तान जाना कोई बहुत बड़ा अपराध हो।

    डिब्बे की ख़स्ता हालत देखकर फिर दुःख हुआ। ख़राब डिब्बे लगाने का अर्थ अगर पाकिस्तानियों का अपमान करना है तो इससे अपने देश का भी तो अपमान होता है। जब यह डिब्बा लाहौर पहुँचेगा तो वहाँ के लोग हमारी रेलवेज़ के बारे में कैसी धारणाएँ बनाएँगे? पराए देश को जानेवाले डिब्बे तो विशेषरूप से तड़क-भड़कवाले होने चाहि जिससे रोब पड़े!

    मेरा साथी गया। पक्का रंग, ख़ूब कद्दावर और भरा-भरा जिस्म। चटक कलेजी रंग की तहमद बाँधे हुए। उसको देखकर मैं घबरा-सा गया, और अपनी रक्षा के लिए सचेत रहने की सोची। बड़ा कट्टर पाकिस्तानी लग रहा था। पर बाद को शीघ्र ही पता चल गया कि वे हिंदू सज्जन हैं और केवल जालन्धर तक जा रहे हैं। बोलचाल जिला शाहपुर की थी, जो मेरा अपना पुश्तैनी वतन है। मैं भेरे का और वे सरगोधा के निकले। बड़े मौजी तबियत के व्यक्ति थे। रात काफ़ी देर तक उनसे बातें होती रहीं। वे पुनर्वास विभाग के अफ़सर हैं। पाकिस्तान के कई चक्कर लगा चुके हैं।

    दिल्ली से गाड़ी चलने से पहले ही हम दोनों काफ़ी घुल-मिल गए। डिब्बे के बाहर दर्शकों की भीड़ भी हमेशा की तरह ही हो गई थी। शुरु-शुरु में मुझमें भय पैदा होने के कारण भ्रम के सिवाय और कुछ नहीं था। जैसे भ्रम पैदा हुआ वैसे ही मर भी गया। डिब्बे को सबसे पीछे जोड़ने का कारण केवल यह था कि अमृतसर पहुँचकर उसे आसानी से काटकर दूसरे प्लेटफ़ार्म पर ले जाया जा सके। डिब्बे के घटिया होने का भी इस मित्र ने कारण बताया। यह डिब्बा वास्तव में उस गाड़ी का भाग है जो केवल अमृतसर और लाहौर के बीच चलती है। केवल तीस मील की दूरी होने के कारण हमारी रेलवेज़ को अच्छा इंजन या अच्छे डिब्बा लगाने में कोई लाभ नहीं। पाकिस्तान से अमृतसर पहुँचते ही अधिकतर यात्री दिल्ली, कलकत्ता, बंबई आदि दूर-दूर के स्थानों के लिए तेज़ रफ़्तार गाड़ियों में सवार हो जाते हैं। इसमें भेद-भाव की कोई बात नहीं। यह सेवा भी केवल भारत ही करता है। पाकिस्तान की कोई गाड़ी सरहद पार करके इधर नहीं आती।

    मेरे सहयात्री ने मुझे विश्वास दिलाया कि मेरी पाकिस्तानी यात्रा बड़ी मनोरंजक होगी। मेहमान-नवाज़ी उन लोगों में ख़त्म हो गई है, उन्होंने कहा, पर आपको सिर-आँखों पर लेंगे। और किसी प्रकार का आपको कोई ख़तरा भी नहीं है, अपनी मर्ज़ी से जहाँ चाहें जा सकेंगे। बातचीत ज़रा सोच-समझकर कीजिएगा। खुफ़िया पुलिस आपकी हर गतिविधि पर नज़र रखेगी।

    बातचीत के दौरान वे बड़ी देर तक चुप हो जाते थे, जैसे पाकिस्तानियों के विषय में पूरी तरह राय निर्धारित कर सके हों या शायद उन्हें वहाँ की अपनी कोई यात्रा याद रही हो। एक ओर वे दिल खोलकर प्रशंसा करते थे तो निंदा भी अच्छी-ख़ासी करते। “हो आइए, आप ख़ुद ही सब कुछ देख लेंगे। इस बार तो आपको ख़ूब मज़ा आएगा, पर दोबारा जाने को शायद दिल चाहे।

    बड़े ही मिलनसार और विचारवान सज्जन थे। मुझे गहरी नींद में सोता देखकर चुपचाप किसी इधर के ही स्टेशन पर उतर गए थे, जिससे सुबह तड़के हाथ-मुँह आदि धोने से मेरी नींद में विज पड़े। पर जब गाड़ी जालन्धर पहुँची तब मैं जाग चुका था। यह देखकर वे मुझे बड़े प्रेम से नमस्कार करने आए और अपने हाथ में लिया हुआ उपन्यास मुझे भेंट कर गए।

    10 अक्टूबर, 1962

    जब गाड़ी जालन्धर स्टेशन से चली तो कंबल में सिर-मुँह लपेटकर थोड़ी देर और सो लेने को जी चाहा। गाड़ी के सफ़र में यह सुबह-सुबह की नींद सचमुच बड़ी प्यारी होती है।

    मन में पाकिस्तान-यात्रा की सफलता की प्रार्थना करते वक़्त ये पंक्तियाँ उभर आई :

    भुखां लै के चलिआं रबा लाहवीं,

    आसां दी टहिणी ते फुल खिड़ावी।

    ग़ैर-मुल्कीए हो गए मेरे वतनी,

    होर उन्हां नूँ नां हुण गैर बणावीं।

    साढ़े आठ बजे गाड़ी अमृतसर स्टेशन पर पहुँची। मकानों की दीवारों पर उर्दू और गुरुमुखी में अजीब-अजीब विज्ञापन लिखे हुए थे। एक में तो बड़ी ललकार थी, 'ऐनक तोड़ सुरमा'। लाहौर शहर की दीवारों पर पता नहीं कैसे-कैसे विज्ञापन पढ़ने को मिलेंगे? पिछली बार लाहौर का स्टेशन तब देखा था जब दीवारें गिर रही थीं, आग जल रही थी!

    गाड़ी रुकते ही थैला लटकाए एक आदमी, जिसका लिबास बनियों-सा और आँखें डाकुओं जैसी थीं, भारतीय पैसे पाकिस्तानी पैसों में बदलने के लिए पहुँचा।

    सरमायेदारी निज़ाम में हर आदमी की अंतरात्मा बेईमान हो जाती है। मेरी जेब में कुल मिलाकर 110 रुपए थे। यदि सबके सब बदलवा लूँ तो संभव है कस्टमवाले मुझे सभी पैसे ले जाने दें। वैसे तो पचहत्तर रुपए ही देश के बाहर ले जाने की आज्ञा है। मैंने सौ का नोट उसे पकड़ाया और अपने लालच की तस्दीक़ करने के लिए पूछा, क्या पचहत्तर ही...?

    हाँ जी, और हम आपको कौन-से ज़ियादा देंगे। उसने बात काटते हुए 25 रुपए के भारतीय नोट और शेष धन पाकिस्तानी नोटों में जल्दी-जल्दी गिन दिया और चलता बना। उसकी इस फुर्ती ने मुझे सकते में डाल दिया। जाने कौन आदमी था कौन नहीं? जाने असली नोट दिए हैं कि नक़ली? भला मुझे एक अनजान आदमी से सौदा करने की क्या जल्दी थी? अब अगर वह जाली नोट थमा गया हो तो मैं क्या करूँगा? और लाहौर पहुँचकर क्या होगा? बम्बई से चलते वक़्त डा० नज़ीर अहमद को, जिन्होंने मुझे पाकिस्तान आने का निमंत्रण दिया था, तार अवश्य दे दिया था और दिल्ली से चलने से पहले उनका उत्तर भी गया था। फिर भी जाते ही उनसे पैसे तो नहीं माँगे जा सकते। क्या मालूम उन्होंने मेरे ठहरने का प्रबंध किसी होटल में किया हो? और मुझे ख़ुद पर ग़ुस्सा आने लगा। बेकायदा काम करने का मुझे लोभ ही क्यों हुआ? विदेश-यात्रा का इतना अनुभव होते हुए भी मैं कैसे भूल गया कि सरहदी पड़ावों पर कई प्रकार की चार सौ बीसें होती हैं। और चार सौ बीसी करनेवालों को शह ही लोगों के दिलों में छिपे लोभ से मिलती है। ...इतने में एक रेलवे कर्मचारी मुझे पहचानकर मेरे पास गया। मैंने उससे उस आदमी के बारे में पूछा। उसने बताया कि ख़ास-ख़ास लोगों को ही नक़दी बदलने का ठेका मिला हुआ है, और मैंने कोई नावाजिब बात नहीं की। एक और भ्रम दूर हो गया।

    प्लेटफ़ार्म पर बहुत-से लोग केले ख़रीद रहे थे। पाकिस्तान में अच्छी क़िस्म का केला नहीं होता, फिर यहाँ भाव आठ आने दर्जन है और लाहौर में तीन रुपए दर्जन! मैंने भी पाँच दर्जन ख़रीदकर टोकरी में रखवा लिए। अपने मेज़बान के लिए सौगात का काम देंगे।

    डिब्बा बग़लवाले प्लेटफ़ार्म पर पाकिस्तान जानेवाली गाड़ी से जोड़ दिया गया। वातावरण फिर कुछ उखड़ा-उखड़ा और बनावटी-बनावटी-सा लगा। सरहदी जगहों पर पुलिस और कस्टम के अफ़सरों की बहुलता के कारण अचानक ऐसा अनुभव होना स्वाभाविक भी है।

    फ़िल्म-अभिनेता होने पर जहाँ बहुत-सी परेशानियाँ हैं वहाँ लाभ भी कम नहीं है। सबसे बड़ा लाभ यह है कि हर कोई मदद बड़े चाव से और बेग़र्ज़ होकर करता है। मुझे ख़ाकी वर्दी वाले अफ़सरों ने बड़े प्रेम से अपने पास बैठा लिया और कहा, आप अपने सामान की चिंता करें। डिब्बे में ही हम उसकी जाँच कर लेंगे।

    डेढ़ घंटा मैं वहाँ बैठा रहा और उनका कार्य-प्रणाली देखता रहा। उनका काम बड़ी सिरदर्दी का है और डयूटी लंबी है। पाकिस्तान जानेवाली सवारियाँ ज़ियादा से ज़ियादा कपड़ा भारत से ले जाने का प्रयत्न करती हैं, क्योंकि. यहाँ से वहाँ महँगा है।

    एक बड़ा बाँका मुसलमान युवक मेरे पास बैठे अफ़सर को ख़ुश करने की बड़े चुस्त ढंग से कोशिश कर रहा था। वह सिल्क की नीली कोरी तहमद बाँधे है, जिसको वह निश्चय ही पाकिस्तान पहुँचकर बेच देगा। दस-बारह और चादरें उसके सामान में है। अफ़सर ने पाँच माफ़ कर दी हैं पर वह तीन और बिना टैक्स दिए ले जाना चाहता है। कभी हाथ जोड़ता है, कभी अफ़सर के पैर दबाने लगता है। मेरठ की तरफ़ का आदमी है शायद। बाल बड़ी अच्छी तरह काढ़े हुए हैं, मुँह में पान, बोस्की की क़मीज़, बटन खुले हुए! उसका व्यवहार एक सुघड़ विदूषक अभिनेता-सा है। आख़िर जब उसका सामान पास हो गया तो उसने अपनी जेब से सुगंधित चुरुटों का पैकेट निकाला और चुरुट बाँटने शुरु कर दिए। कोई भी उन्हें, लेने को तैयार नहीं था पर वह ज़बर्दस्ती हम लोगों की जेबों में एक-एक चुरुट छोड़ गया, 'किसी और को पिला देना!' जंगले के पार जाकर उसने अपना सामान गाड़ी में रखवाया और फिर आकर जंगले के पास खड़ा हो गया। उसकी आँखों में अपनेपन की भावना थी, जैसे कह रही हों, 'तुम्हें कैसे समझाऊँ कि मैं तुम्हारा अपना ही आदमी हूँ। भारतीय होने का मुझे उतना ही अभिमान है जितना तुम्हें। मुझे अपने से अलग मत समझो!'

    उसका आधा परिवार पाकिस्तान में है और आधा हिंदुस्तान में। अपने किसी संबंधी के ब्याह में वह कुछ दिनों के लिए लाहौर जा रहा है। अफ़सरों ने मुझे बताया कि इस गाड़ी के यात्रियों में बड़ी संख्या ऐसे ही लोगों की होती है।

    गाड़ी छूटी तो मेरी आँखें सरहद की प्रतीक्षा में चौड़ी होने लगीं। एक सिक्योरिटी अफ़सर मेरे साथ आकर बैठ गया था। यह गाड़ी को सरहद तक पहुँचाकर उतर जाएगा। सरहद की दूसरी ओर पाकिस्तानी अफ़सर उसकी जगह ले लेगा।

    अटारी स्टेशन पर गाड़ी का ड्राइवर और फ़ायरमैन मुझे लिवाने गए। मुझे उनके इंजन में बैठकर सरहद की झाँकी देखने का निमंत्रण दिया गया था। यह कैसी झाँकी होगी? क्या दोनों तरफ़ पुलिस और फ़ौज का पहरा होगा? क्या कोई कांटेदार तार बिछाए गए होंगे? ये तार कितनी दूर तक बिछाए गए होंगे? इंजन टांगे में जुते बूढ़े घोड़े की तरह हचकोले खाता चल रहा था। दोनों ओर विशाल मरुस्थल-सा दिखाई पड़ रहा था। अचानक एक पेड़ के नीचे कुछ सिपाही लेटे हुए आराम करते दिखाई दिए। तभी ड्राइवर ने कहा, बस जी, यही हद है। और थोड़ी देर बाद मैं खेतों में मुसलमान किसानों, उनकी औरतों और बच्चों को देख रहा था।

    अब मैं पाकिस्तान में था, मुसलमानों के देश में, एक ग़ैरमुल्क में। पर ये मनुष्य तो मैंने पहले भी देखे थे। ये तो मेरे लिए नए हैं पराए। इनमें कौन-सी अनोखी बात देखने की मुझमें इतनी उत्सुकता थी? हाँ, एक अंतर अवश्य था, कहीं भी कोई सिख-सरदार नज़र नहीं पड़ रहा था।

    पाकिस्तान का पहला स्टेशन वाघा गया। गाड़ी रुकी। मैं प्लेटफ़ार्म पर उतरा। थोड़ा टहलकर जब अपने डिब्बे की तरफ़ वापस जा रहा था, एक सफ़ेद दाढ़ीवाले वृद्ध यात्री ने खिड़की से लटककर मुझसे हाथ मिलाया, फिर कहा, बलराज साहनी साहब, चन्द अल्फ़ाज़ इस नाचीज़ से भी सुनते जाइए। मेरी उम्र के आदमी को फ़िल्में देखने का बहुत कम शौक़ होता है, मगर आपकी फ़िल्में मैं हमेशा देखता हूँ, और मुझे आपको देखकर जो मुसर्रत हुई है मैं बयान नहीं कर सकता। आप इंसानी जज़्बात को हक़ीक़त बनाकर पेश करते हैं। आपकी फ़िल्में अख़लाक़ी और तमद्दुनी एतिबार से बहुत बुलंद होती हैं। आपसे दरख़्वास्त है कि अपने इंसानी मेयार को कभी मत छोडिएगा। अल्लाह आपको हर नेमत से माला-माल करे।

    मैं उस वृद्ध की ओर देखता ही रह गया। मेरे मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल सका। पर जब अपने डिब्बे में पहुँचा तो मेरे भीतर जज़्बातों का तूफ़ान-सा उमड़ रहा था।

    डिब्बे में ठेठ लाहौरी ज़बान बोलनेवाले पाकिस्तानी सिक्योरिटी अफ़सर गए थे। गाड़ी में यही एक फ़र्स्ट क्लास का डिब्बा था, इसलिए अफ़सर यहीं आकर बैठते थे। तीस एक साल की उम्र थी, देखने में सुंदर, गोरे-चिट्टे। उन्होंने मेरा पासपोर्ट देखा, एक फ़ार्म भरने को दिया। उनके अंदाज़ से मुझ साफ़ लग रहा था कि वे मेरे नाम से परिचित हैं, पर इस बात पर विश्वास करना नहीं चाहते। एक बात से मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि उन्होंने मेरे साथ अँग्रेज़ी या उर्दू में बोलने की चेष्टा नहीं की। उनके साथ पंजाबी में बातचीत करके मुझे बड़ा आनंद रहा था, और परदेसी होने का एहसास घटता जा रहा था।

    “लाहौर में आप कहाँ ठहरेंगे? उन्होंने पूछा।

    मैंने बड़े शौक़ से उनको अपनी जेब के एक तार निकालकर दिखाया जो मुझे अमृतसर से चलने के कुछ देर पूर्व मिला था, और जिसने मेरी सारी चिंताएँ दूर कर दी थीं।

    कृपा करके हिंदुस्तानी मुसाफ़िर बलराज साहनी से मिलिए और उनसे कहिए कि वे गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर के प्रिंसिपल के यहाँ ठहरेंगे—डा० नज़ीर अहमद” गाड़ी रुकी तो उतरने से पहले मैंने खिड़की में से झाँककर लाहौर स्टेशन की बुर्जियों की ओर देखा। मुझे लाहौर कभी भी ज़ियादा याद नहीं आता था। अधिकतर रावलपिंडी के लिए ही जी तड़पता था। इसके कई कारण थे। एक तो मैं बचपन से वहाँ के पहाड़ देखने का आदी था। जब पिंडी छोड़कर गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर के न्यू होस्टल में पहुँचा तो उसकी छत पर से किसी ओर भी कोई पर्वत श्रृंखला देखकर मुझे ऐसा लगा था जैसे प्रकृति के किसी बहुत बड़े नियम का उल्लंघन हो गया हो।

    फिर पिंडी एक छोटा शहर था। वहाँ अँग्रेज़ी राज्य की कुटिलनीतियाँ लोक-जीवन पर पूरी तरह से हावी नहीं हुई थीं। मुहल्लेदारियाँ और बिरादरी के मेल-मिलाप प्रचलित थे, दोस्तियों में स्निग्धता और मिठास थी। शराफ़त की क़द्र की जाती थी। फ़िरक़ापरस्ती का ज़हरीला पौधा अवश्य बढ़ रहा था पर मज़बूत अभी नहीं हो सका था। पर लाहौर केंद्रीय शहर होने के कारण नए फ़ैशन की 'सभ्यता' के रंग में रंग चुका था। यहाँ पैसे और असर-रसूख के आदर्शों ने पुराने ढंग के रिवाज एकदम ख़त्म कर दिए थे। जैसे भी हो आगे बढ़ने के लिए हर प्रकार के हीले, अच्छे या बुरे, जायज़ प्रमाणित किए जा चुके थे। और इसीलिए मैं लाहौर को कभी भी अपना नहीं कह सका। पर आज लाहौर स्टेशन के बुर्ज देखकर पता नहीं मुझे क्या हो गया। ऐसा लगा जैसे उनके लिए मेरी आत्मा युग-युग से तरस रही थी। भीतर के किसी ढंके सोते में से प्यार और आदर फूट पड़ा। फुटबोर्ड से नीचे पैर रखने से पहले मैंने हाथ से धरती को प्रणाम किया।

    डा० नजीर अहनद (गवर्नमेंट कालेज, लाहौर के प्रिंसिपल) मुझे लेने के लिए यूनिवर्सिटी की एक आवश्यक मीटिंग से उठकर गए थे। उनके रसूख ने कस्टम, पासपोर्ट की कठिन घाटियाँ मिनिटों में पार करवा दी; यही नहीं अफ़सरों ने बड़े आदर से मुझे चाय भी पिलाई। डा० नजीर अहमद बड़े संतुष्ट थे कि उनके पाहुन को सामान वग़ैरा खोलने का कष्ट नहीं उठाना पड़ा, पर मैं इस उतावली से ज़रा भी संतुष्ट नहीं था। मेरा दिल एक बार फिर प्लेटफ़ार्म पर जाकर घूमने को मचल रहा था।

    शाम के चार बजे है। मैं काफ़ी देर तक सो चुका हूँ। बदन में ताज़गी गई है। जी चाहता है अभी सड़कों पर निकल पडूँ। गवर्नमेंट कॉलेज के टावर की वही पुरानी घड़ी टन-टन करती है। शायद ग्यारह बजाए हैं उसने। वही पुरानी बेपरवाही उसकी, जिसके बारे में तरह-तरह के लतीफ़े गढ़े जाते थे। अजीब-सी झनझनाहट होती है उसकी टन-टन सुनकर। कोई भी याद स्पष्ट नहीं हो रही थी- केवल एक गहरा एहसास, एक सांत्वना-सी, जैसे तेज़ कड़कड़ाती धूप से दूर-दूर तक उड़ाने भरकर लौटा हुआ भूखा-प्यासा पक्षी घोंसले का आनंद ले रहा हो। दूर से टाँगों की घंटियाँ, कॉलेज के सामने फल बेचनेवालों की आवाजें।

    जिस बंगले में मैं ठहरा था, पुराने वक़्तों में वह जी०डी०सौंधी साहब की रिहाइशगाह थी। वही हल्की-हल्की रौशनीवाले ठंडे ठंडे कमरे, जालीदार और दरवाज़े ग़ुसलख़ाने में तौलिया फैलाने वाला रैक। यह सब कुछ 'भवानी जंक्शन' फ़िल्म में बड़ी यथार्थता पूर्वक दिखलाया गया था। वैसे फ़िल्म बड़ी घटिया थी, फिर भी बम्बई के सिनेमा हॉल में बैठा-बैठा आज से दस साल पहले, मैं लाहौर के लिए तड़प उठा था।

    हमारे समय में इन बंगलों में घुसते हुए टाँगे काँपने लगती थीं। प्रोफ़ेसरों का बड़ा धमाकेदार 'अँग्रेज़ी-डर' होता था। पर आजकल यह बात नहीं रही। बाहर से घंटी बजते ही डा० नज़ीर अहमद ख़ुद दौड़कर बाहर जाते हैं, कोई दरबान नहीं है, कोई वरदीवाला पहरेदार नहीं है। नज़ीर साहब ने मुझे अपना सोनेवाला कमरा दे दिया है। उसमें कपड़ों की आलमारी होने का उन्हें खेद था। कहने लगे, यार, मेरे पास वार्डरोब नहीं है, तुम्हें तकलीफ़ होगी। दरअसल मेरे पास इतने कपड़े ही नहीं है। अगर तुझे ज़रूरत हो तो तकल्लुफ़ मत करना मैं मंगवा दूँगा। कितना अच्छा लगा था मुझे यह सुनकर। मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था कि गवर्नमेंट कालेज, लाहौर का प्रिंसपल ऐसा भी हो सकता है।

    डा० नजीर कमरे में आए और कहा, “आओ, बाहर लॉन में बैठ के चाय पिएँ। उनके कहने के अंदाज़ में कोई विशेषता नहीं है, फिर भी ऐसा लगा जैसे मेरी इच्छाओं को मेरे बिना कहे ही समझते हों। और शायद इसीलिए चाय के बाद मुझे मोटर में बिठाकर घुमाने निकल पड़े। ज़िला कचहरीवाले मोड़ पर से हम रावी रोड पर मुड़े। गवर्नमेंट कॉलेज के फाटक के पास एक मील-पत्थर हुआ करता था। न्यू होस्टल के सड़क पार करके कॉलेज जाते हुए मैं अकसर उस पर निगाह फेंककर जाया करता था 'रावलपिंडी- 178 मील, गुजरांवाला- 26 मील, जेहलम-117मील...' अब इस मील के पत्थर का शरीर बढ़कर चौगुना हो गया है, और उसपर कितनी ही और दरियों का विवरण लिखा हुआ है: 'कराची-867 मील, मुलतान-263...।' यह निकल गई सेंट्रल ट्रेनिंग कॉलेज की ओर जानेवाली सड़क! इसी ओर रैटीगन रोड और मेरे फूफाजी का घर था। उनके पास ही प्रोफ़ेसर रुचिराम रहते थे। शायद पारसियों का एक मंदिर भी था, जिसके बग़ल की गली में से होकर प्रोफ़ेसर गुलबहारसिंह और प्रोफ़ेसर मदनगोपाल सिंह के यहाँ जाया करते थे। यह भाटी की ओर से आने वाली सड़क मिल गई। यह 'गुरुदत्त भवन' गया। देखें तो सही, अब यहाँ क्या बोर्ड लगा है? ड्राइवर मोटर इतनी तेज़ क्यों भगाए लिए जा रहा है?

    कॉलेज के ज़माने में रावी रोड की सैर साइकिल या टाँगे पर किया करते थे। आज यह मोटर बेरहमी से दिमाग़ में जुगराफ़िया बदलती जा रही है। जो स्थान मेरी कल्पना में दर-दर थे अब वे चप्पे-चप्पे के अंदर पर गए थे। पलक झपकने में जामा मस्जिद के आलीशान गुंबद दिख गए फिर मंटो पार्क-इसे अब मुहम्मद इक़बाल पार्क कहते हैं। लाहौर की तस्वीर एकदम सरल और संक्षिप्त हो गई है। गोल बाग़ की गोलाई बड़े नुमाइशी ढंग से शहर के गिर्द घूम रही थी। गुरु अर्जुनदेव की समाधि, महाराजा रणजीत सिंह की समाधि, पुराना क़िला, सारे स्थानों के चित्र फिर से दिमाग़ में जड़े। भला विद्यार्थी जीवन में इस ओर आता ही कब था? तब मैं साहब बहादुर था। गोरों की तरह सोला हैट लगाए माल रोड और मैक्लोड रोड को ही नापा करता था। बहुत हुआ तो कभी निसबत रोड का राउंड मार लिया। पर अब के एकदम देशी आदमी बनकर लाहौर की गलियों के चक्कर लगाऊँगा! शहर की फ़सील में ऊची-सी ढकी पर एक पुराना दरवाज़ा दिखाई पड़ा (नाम भूल गया!...क़ाबली दरवाज़ा?) मुझे शहर की ओर ललचाई नज़रें फेंकते देखकर डा० नज़ीर ने तजवीज़ पेश की कि इस दरवाज़े के पीछे एक तंग गली में, उनका पुश्तैनी मकान है, चलकर एक रात वहाँ रहा जाए। कितना ख़ुश हुआ मैं इस बात पर! पाकिस्तान आने का सबसे बड़ा लोभ ही मुझे यही था। (जी भरकर) अपनी पंजाबी बोली सुनना-माझी, लहिंदी, पोठोहारी, मेरी अपनी मातृ-बोलियाँ जिनसे मैंने अपनी आयु का इतना बड़ा भाग विमुख रहकर बिता दिया था। कितना बड़ा गुनाह किया था मैंने। पर फिर भी उन्होंने मुझे नहीं बिसराया। मुझे पछताते और अपनी ओर लौट के आते देखकर उन्होंने बाँहें फैलाकर मुझे गले से लगा लिया। मुठ्ठियाँ भर-भर के अनमोल रत्न मेरी जेबों में भरने शुरू कर दिए, जैसे बचपन में मेरी माँ रेवड़ियों, पिन्नियों और चिलगोज़ों से मेरी जेबें भरा करती थीं। कितनी प्यारी है लाहौर-वालों की बोली। यहाँ यह इतनी ताज़ी और निखरी-निखरी-सी लगती है, जैसे खेतों में लहलहाती सुनहरी सरसों, जैसे झरनों से बहता पानी! बंबई में मेरे अनेकों मित्र यही बोली बोलते हैं, पर वहाँ यह कानों को कुछ बासी-बासी-सी लगती है।

    ताँगानुमा रेहड़ियों में बाँके घोड़े जोतकर शाम को सैर के लिए निकलना छैलों का ख़ास शौक़ है। मलमल का सफ़ेद कुर्ता या फ़तूई, तहमद और हाथों में फूलों के गजरे। कितने हसीन गोरे-गोरे और शोहदे-शोहदे-से चेहरे हैं इनके। यूँ पलक झपकने में निकल जाते हैं। (दोस्त की मोटर है नहीं तो अभी गाली दे देता!) वह निकल गया! कितना ख़ूबसूरत जवान था! इतना ख़ूबसूरत आदमी तो दुनिया में कम ही देखने को मिलेगा।

    वारिसशाह की बात याद गई—नाज़ाँ पालिआ दुध मलाइआं वे।

    मन ने पलटा खाया, 'छोड़ भी यार, ये तो मुसलमान हैं, ग़ैर-मुल्की हैं! कितने हिन्दू मार चुके हैं, कितना आग लगाई हैं, कितनी औरतों की आबरू लूटी है, कैसे भूल गया वे सब बातें?...'

    अच्छा, ठीक है! अब मैं इनको ग़ैर समझ के ही देखूगा... पर हाय, करूँ तो क्या करूँ? ये फिर भी मुसलमान नहीं दिखते, ग़ैर नहीं लगते—जो कुकर्म जिसने किए हैं स्वयं ही उनका हिसाब देगा, मुझे तो किसीने न्यायाधीश नहीं बनाया?

    बाग़वान पुरे में अच्छी-ख़ासी नई आबादी है। बढ़िया-बढ़िया और पक्के-पक्के बंगले हैं, आवागमन भी बहुत है। पर पुराने डिज़ाइन के लाहौरी ताँगे नज़र नहीं रहे। ड्राइवर ने बताया कि अब हर जगह पेशावरी ताँगों का चलन हो गया है। पिंडी में केवल तीन सवारियाँ बैठती थीं, यहाँ अब भी चार ही का दस्तूर है। हम पिंडी वाले लाहौरी टाँगों को 'दिचकू-दिचकू' कहकर मज़ाक़ किया करते थे। आख़िर पिंडी की जीत हुई न! बड़ी ख़ुशी हुई सोच के। पर दूसरे दिन फिर मन में वही विचार उठ पड़ें... 'पिंडी और लाहौर से तुझे क्या लेना? ख़्वाह-मख़्वाह पराई छाछ पर मूछे मुँड़वा रहा है।'

    'चलो जी, मैं बेगाना तो बेगाना सही। पर पिंडी और लाहौर को यहाँ, के ताँगों को जी भर के देखने की तो छूट है मुझे! सदा सलामत रहें ये। इन्हें कभी गर्म हवा लगे। इनकी मुरादें पूरी हों। इनके बच्चे जिएँ...'

    यह सिख नेशनल कॉलेज की इमारत थी। इस हिसाब से वह नई नहर की तरफ़ से आनेवाली सड़क... हाँ, ठीक ही तो है... यहीं पास में पीर मियाँ मीर का मज़ार है, जिसने अमृतसर में सिखों के सोने के हरि-मंदिर की नींव का पत्थर रखा था। दाराशिकोह का गुरू था वह दाराशिकोह, जिसने उपनिषदों के अनुवाद फ़ारसी में करवाए थे। पर अब ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं का कोई अर्थ नहीं निकलता।

    शालीमार बाग़ जा पहुँचे, जहाँ पच्चीस साल पहले मैंने सिगरेट पी थी, और खाँसते-खाँसते मेरा बुरा हाल हो गया था। मैं और मेरा एक प्यारा दोस्त साइकिलों पर सवार होते और यूँही बेमतलब शालीमार की ओर निकल पड़ते थे। दिल में कुछ इस तरह की दबी-दबी आशाएँ हुआ करती थीं कि आज ज़रूर कोई हसीना मिलेगी, मेरी ओर मद-भरी नज़रों से देखेगी, फिर हमारी दोस्ती हो जाएगी और जीवन में कोई उन्माद-भरी लहर आएगी। पर शाम तक हमारे सारे महल ढह जाते थे। सिवाए बेमतलब चक्कर लगाने के, फटी-फटी नज़रों से चारों ओर देखने के, और सिगरेट फूँक-फूँककर जंटलमैनी दिखाने के लिए और कुछ हाथ नहीं लगता था। हाँ, बारह मील साइकिल पर पैर मारने से भूख ज़रूर तेज़ हो जाती थी, जिसे शाँत करने के लिए कभी 'स्टिफ़ल्ज़' और कभी 'लॉरेंग' जा पहुँचते थे। वहाँ पहुँचते-पहुँचते सोई हुई हसरतों के नाग़ पर फिर चौक पड़ते थे। शायद रेस्तराँ में ही कोई सुंदरी प्रतीक्षा कर रही हो!

    भविष्य का सूर्य अब अतीत के पहाड़ों के पीछे जा छुपा था। केवल धीरे-धीरे फीकी पड़ती जा रही यादों की लाली आकाश में रह गई थी। कर लिए रोमाँस जितने करने थे, खेल लिए जितने खेल खेलने थे। अब तो वह जो किसीने कहा—बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे,

    होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।

    डाक्टर नज़ीर अहमद ने मुझे मेरे ख़याल पर छोड़ दिया है। चाय मंगाते हैं। चुपचाप सरू के एक पेड़ के नीचे घास पर बैठकर चुस्की लेते हैं। शाम की ख़ामोशी की आवाज़ें सुनते हैं। रह-रहकर बीती बातें फुलझड़ियों की तरह छूट-छूट पड़ती हैं, जैसे आज यहाँ चिराग़ों का मेला लगा हो।... आख़िर प्यार हुआ भी तो था एक लड़की से, सारी उम्र एक उसी के नाम की ही माला जपी थी। उस मेहराबदार दरवाज़े के दोनों ओर बने और छोटे-छोटे चबूतरों पर खड़े होकर हमने बारी-बारी से एक-दूसरे के फोटो खींचे ये उसके सारे परिवार को शालीमार की पिकनिक के लिए किस तरह एड़ी से चोटी तक का ज़ोर लगाकर प्रेरित करता था... कितने निवेदन, कितनी राजनीति, कितनी मिन्नतें।

    पूरे जोश-ख़रोश से इसी दरवाज़े में से होकर कभी गाँव के लोग चिराग़ों के मेल की रौनक़ देखने आते होंगे। वहाँ, उस जगह पर बादशाह बैठता होगा। तालाब के दोनों किनारों पर बनी बारहदरियों में से चरागों और फ़व्वारों की झिलमिल में अपने ज़रा लिबासों को ग़लतान करते हुए गीतकार, नर्तक और नर्तकियाँ चलकर हुज़ूर के रूबरू पेश होते होंगे और अपनी कलाएँ दिखाते होंगे...!

    फिर मन में वही बेतुके विचार सिर उठाने लगे। लाहौरवाला शाहजहाँ वास्तव में पाकिस्तानी था, आगरेवाला शाहजहाँ हिंदुस्तानी था...पर नहीं। बार-बार ऐसी कसक और टीमें नहीं उठने देना चाहिए। राजनीति के दाँव-पेचों से मेरा क्या वास्ता? मैं एक मेहमान हूँ, डाक्टर नज़ीर मेरे मेज़बान हैं। इस प्रकार के प्रश्न दिल में उठाना ही शिष्टता से बाहर की बात है। यह चाहे कितना भी मुझे प्यारा क्यों हो, फिर भी अब यह शालीमार पराया है। इस हिसाब से डाक्टर नज़ीर भी पराए हैं। पर क्यों बार-बार उनसे पूछने का जी चाहता है, 'नज़ीर साहब, आपकी और मेरी मुलाक़ात बहुत पुरानी नहीं। पिछले साल, जब आप बंबई आए थे तभी तो पहली बार आपसे मिला था। फिर आपके पास बैठकर मुझे इतना सुकून, क्यों मिलता है, जो बंबई में मेरे लिए नायाब है?’ अभी नहीं, पर पूछूँगी अवश्य। डॉक्टर नज़ीर निस्संदेह एक असाधारण व्यक्ति हैं।

    फिर बाहर आकर मोटर में बैठते समय एक अधेड़-सी भिखारन, उंगली पकड़े एक आठ वर्ष की बच्ची, काफ़ी मैले, फटे-पुराने कपड़े, हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाई, “भइया जीते रहो, कभी तत्ती वही लगे। अल्लाह तेरी मुरादें पूरी करे, इक़बाल बढ़ाए, तेरे बच्चे जिएँ...”

    यह कमबख़्त आँखें क्यों चू-चू पड़ती है। यह औरत मेरी क्या लगती है? यह पाकिस्तानी, मैं हिंदुस्तानी...

    स्रोत :
    • पुस्तक : बलराज साहनी समग्र (पृष्ठ 544)
    • रचनाकार : बलराज साहनी

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