प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
उगते सूरज की निथरी कोमल धूप राजस्थान में रह गई। मालवा लगा तो आसमान बादलों से छाया हुआ था। काले भूरे बादल। थोड़ी देर में लगने लगा कि चौमासा अभी गया नहीं है। जहाँ-जहाँ भी पानी भरा हुआ रह सकता था लबालब भरा हुआ था, मटमैला बरसाती पानी। जितने भी छोटे-मोटे नदी-नाले दिख रहे थे, सब बह रहे थे। इससे ज़्यादा पानी अब यह धरती सोख के रख नहीं सकती थी। ऊपर से बादल कि कभी भी बरस सकते थे।
नवरात्रि की पहली सुबह थी। मालवा में घट-स्थापना की तैयारी। गोबर से घर-आँगन लीपने और मानाजी के ओटले को रंगोली से सजाने की सुबह। बहू-बेटियों के नहाने-धोने और सजकर त्योहार मनाने में लगने की घड़ी। लेकिन आसमान तो घऊँ-घऊँ कर रहा था। रास्ते में छोटे स्टेशनों पर महिलाओं की ही भीड़ थी। मैं, उजली-चटक धूप, लहलहाती ज्वार—बाजरे और सोयाबीन की फ़सलें, पीले फूलोंवाली फैलती बेलें और दमकते घर-आँगन देखने आया था। लेकिन लग रहा था कि पानी तो गिर के रहेगा। ऐसा नहीं कि नवरात्रि में पानी गिरते न देखा हो। क्वांर मालवा में मानसून के जाने का महीना होता है। कभी थोड़ा पहले भी चला जाता है। इस बार तो जाते हुए भी जमे रहने की धौंस दे रहा है।
नागदा स्टेशन पर मीणा जी बिना चीनी की चाय पिलाते हैं। सारे ज़रूरी समाचार भी देते हैं। गई रात क्वालालंपुर में भारत के हारने से दुःखी थे। पूछने पर ही मौसम और खेती पर आए, “हाँ, अबकी पानी भोत गिर्यो। किसान कै कि हमारी सोयाबीन की फ़सल तो गली गई। पण अब गेहूँ-चना अच्छा होयगा। सार में उनने कहा और दुकान में लग गए। चाय और भजिया उनने अच्छा बनवा के दिया था। हम मियाँ-बीवी मज़े में खाते-पीते उज्जैन पहुँच गए। रास्ते में शिप्रा मिली। मैया ऐसी भरपूर और बहती हुई तो बरसों में दिखी थी। गए महीने टीवी पर लाइन पढ़ी थी कि उज्जैन में शिप्रा का पानी घरों घुस गया। भोपाल, इंदौर, धार, देवास सब में झड़ी लगी थी। सब जगह फ़ोन लगा के पूछा था। ख़तरा कहीं न था, लेकिन सब को पुराने दिन याद आ गए थे।
अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता जैसा गिरा करता था। इसलिए पहले का औसत पानी भी गिरे तो लोगों को लगता है कि ज़्यादा गिर गया। इस बार भी बरसात वही चालीस इंच गिरी है। कहीं ज़्यादा है कहीं थोड़ी कम। लेकिन लोग टीवी की समझ में अत्ति की बोलने लगे हैं। उज्जैन से देवास होते हुए इंदौर जाना मालवा के आँगन में से निकलना है। क्वांर की धूप होती तो भरी-पूरी गदराई हरियाली से तबीयत झक हो जाती, लेकिन कुएँ-बावड़ी और तालाब-तलैया के लबालब भरे, नदी-नालों को बहते और फ़सलों को लहराते देखो तो क्या ग़ज़ब की विपुलता की आश्वस्ति मिलती है! ख़ूब मनाओ दसेरा-दिवाली। अबकी मालवो ख़ूब पाक्यो है।
इंदौर उतरते ही गाड़ी में सामान रखते दव्वा को कहा कि अपने को सब नदियाँ, सारे तालाब, सारे ताल-तलैया और जलाशय देखने हैं। सब पहाड़ चढ़ने हैं।
उसने मुसकुराते हुए कहा—यहीं से?
नी यार पेले माता बिठायंगा।
माता तो बैठ गई, आरती भी हो गई ताऊजी, एक बजने वाला है।
बाद में पाया कि उमर भी अब सत्तर की हो जाएगी। पहाड़ चढ़े नहीं जाएँगे। नदी-नाले पार नहीं होंगे। सूखती सुनहरी घास बुलाएगी लेकिन उस पर लेटकर रड़का नहीं जा सकेगा। मन से तो किशोर हो सकते हो। शरीर फिर वैसा फुर्तीला, लचीला और गर्वीला नहीं हो सकता। उमर जो ले गई उसे ले जाने दो। उसका जो है, रखे। अपना जो है उसे जिएँ।
इस त्रासदायी प्रतीति के बावजूद दो जगहों से नर्मदा देखी। ओंकारेश्वर में उस पार से। सामने सीमेंट कंक्रीट का विशाल राक्षसी बाँध उस पर बनाया जा रहा है। शायद इसीलिए वह चिढ़ती और तिनतिन-फिनफिन करती बह रही थी। मटमैली, कहीं छिछली अपने तल के पत्थर दिखाती, कहीं गहरी अथाह। वे बड़ी-बड़ी नावें वहाँ नहीं थीं। शायद पूर में बहने से बचाकर कहीं रख दी गई थीं। किनारों पर टूटे पत्थर पड़े थे। ज्योतिर्लिंग का तीर्थ धाम वह नहीं लग रहा था। निर्माण में लगी बड़ी-बड़ी मशीनें और गुर्राते ट्रक थे। वहीं थोड़ी देर क्वांर की चिलचिलाती धूप मिली, लेकिन नर्मदा के बार-बार पूर आने के निशान चारों तरफ़ थे। बावजूद इतने बाँधों के नर्मदा में अब भी ख़ूब पानी और गति है।
नेमावर के पास बजवाड़ा में नर्मदा शांत, गंभीर और भरी-पूरी थी। शाम हो जाने पर भी जैसे अपने अंदर के मंदे उजाले से गमक रही थी। चवथ का चाँद उस पर लटका हुआ था। मिट्टी की ऊँची कगार पर पेड़ों के बीच बैठे हुए हम चुपचाप उसे प्रणाम कर रहे थे। भेन जी ने जैसे उसे सहलाते हुए कहा—थक गई है। देखना अब रात को बहेगी।
रातभर हम उसके किनारे ही सोए। सबेरे उठकर फिर जैसे उसके नमन में उसके किनारे बैठे। अब वह शांत बह रही थी। अपन घाट नीचे नर्मदा किनारे के लोग। भेन जी गंगा किनारे की। हम नदी को नदी नहीं माँ मानते हैं। नर्मदा मैया है। उससे हम बने हैं। उसके किनारे बैठना माँ की गोद में डूबना है।
ओंकारेश्वर और नेमावर जाते हुए दोनों बार विंध्य के घाट उतरने पड़े। एक तरफ़ सिमरोल का घाट, दूसरी तरफ़ बिजवाड़। दोनों में सागौन के जंगल। पत्ते खाँखरे होते हुए, फिर भी फुनगियों पर फूल के झल्ले। सिमरोल के बीच से चोरल ख़ूब बहती हुई मिली। बिजवाड़ में हर नाला बह रहा था। हर पहाड़ी नदी की रपट पर पानी था। बचपन में पितृपक्ष और नवरात्रि पर ऐसा ही पानी मिलता था। सारे नदी, नाले ऐसे ही कलमल करते जीवित हो उठते थे। पहाड़ों के सीने में कितने स्रोत हैं। सब बहें तो नीचे की काली मिट्टी ख़ूब उमगकर फल-फूल और अन्न देती है। नेमावर के रास्ते पर ही केवड़ेश्वर है जहाँ से शिप्रा निकलती है। कालिदास की शिप्रा। बहुत बड़ी नदी नहीं है। लेकिन उज्जैन में महाकाल के पाँव पखारे तो पवित्र हो गई। चंबल विंध्य के जानापाव पर्वत से निकली और निमाड़, मालवा, बुंदेलखंड, ग्वालियर होती हुई इटावा के पास जमना में मिली।
चंबल को हमने घाटा बिलोद में देखा। काफ़ी पानी था। ख़ूब बह रही थी। उसमें नहाते लड़के को गर्व था कि यहाँ छोटी दिखती हो तो क्या! हमारी चंबल से गंगा ही बस बड़ी है। आगे बहुत बड़ा बाँध है। ख़ूब पानी है। इस बार गाँधी सागर के सब फाटक खोलने पड़े। इत्ता पानी भरा। गंभीर इतनी बड़ी नहीं है। लेकिन हालोद के आगे यशवंत सागर को इस बार फिर उसने इतना भर दिया कि पच्चीसों साइफ़न चलाने पड़े। सड़सठ साल में तीसरी बार ऐसा हुआ। पार्वती और कालीसिंध ने फिर रास्ता रोका। दो दिन उनके पुल पर से पानी बहता रहा। इस बार मालवा के पठार की सब नदियों में पूर आई। उसके पास से बहने वाली नर्मदा में भी ख़ूब पानी आया। बरसों बाद हज़ारों साल की कहावत सच्ची हुई—मालव धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर। दक्षिण से उत्तर की ओर ढलानवाले इस पठार की सभी नदियों के दर्शन हुए। ख़ूब पानी, ख़ूब बहाव और ख़ूब कृपा। नदी का सदानीरा रहना जीवन के स्रोत का सदा जीवित रहना है।
नदियों के बाद नंबर था तालाबों का। हमारे आज के इंजीनियर समझते हैं कि वे पानी का प्रबंध जानते हैं और पहले ज़माने के लोग कुछ नहीं जानते थे क्योंकि ज्ञान तो पश्चिम के रिनेसां के बाद ही आया न! मालवा में विक्रमादित्य और भोज और मुंज रिनेसां के बहुत पहले हो गए। वे और मालवा के सब राजा जानते थे कि इस पठार पर पानी को रोक के रखना होगा। सबने तालाब बनवाए, बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ बनवाई ताकि बरसात का पानी रुका रहे और धरती के गर्भ के पानी को जीवंत रख सकें। हमारे आज के नियोजकों और इंजीनियरों ने तालाबों को गाद से भर जाने दिया और ज़मीन के पानी को पाताल से भी निकाल लिया। नदी-नाले सूख गए। पग-पग नीरवाला मालवा सूखा हो गया। लेकिन इस बार बिलावली भर गया है। पीपल्या पाला भर गया है। सिरपुर में लबालब पानी है और यशवंत सागर के सभी साइफ़न तो चले ही थे, फिर भी इंदौर की खान और सरस्वती नदियों में उतना पानी नहीं है जितने में कभी मैं नहाया हूँ और नाव पर सैर की है।
हाथीपाला का नाम इसलिए है कि कभी वहाँ की नदी को पार करने के लिए हाथी पर बैठना पड़ता था। चंद्रभागा पुल के नीचे उतना पानी रहा करता था जितना महाराष्ट्र की चंद्रभागा नदी में। इंदौर के बीच से निकलने और मिलने वाली ये नदियाँ कभी उसे हरा-भरा और गुलज़ार रखती थीं। आज वे सड़े नालों में बदल दी गई हैं। शिप्रा, चंबल, गंभीर, पार्वती, कालीसिंध, चोरल सबके यही हाल हो रहे हैं। ये सदानीरा नदियाँ अब मालवा के गालों के आँसू भी नहीं बहा सकतीं। चौमासे में चलती हैं। बाक़ी के महीनों में बस्तियों के नालों का पानी ढोती हैं। नदियों ने सभ्यताओं को जन्म दिया। हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को अपने गंदे पानी के नाले बना रही है। इस साल मालवा में सामान्य बारिश (35 इंच) से पाँच ही इंच ज़्यादा पानी गिरा है और इतने में ही नदी, नाले, तालाब, बावड़ियाँ और कुएँ चैतन्य हो गए हैं।
अपने पहले अख़बार 'नई दुनिया' की लाइब्रेरी में अब भी पानी के सन् 1878 से रेकार्ड मौजूद हैं। 128 साल की यह जानकारी ही आँख खोलने के लिए काफ़ी है कि इनमें एक ही साल था, 1899 का, जब मालवा में सिर्फ़ 15.75 इंच पानी गिरा था। लोक में यही छप्पन का काल है। लेकिन राजस्थान के ठेठ मारवाड़ से तब भी लोग यहीं आए थे और कहते हैं कि तब भी खाने और पीने को काफ़ी था। इन 128 सालों में एक ही साल अतिवृष्टि का था। सन् 1973 में 77 इंच पानी गिरा था। तब भी यशवंत सागर, बिलावली, सिरपुर और पीपल्या पाला टूटकर बहे नहीं थे।
28 इंच से कम बारिश हो तो वह सूखे का साल होता है। लेकिन ऐसे साल ज़्यादा नहीं है। छप्पन के काल ने देशभर में हाय-हाय मचाई हो लेकिन मालवा में लोग न प्यासे मरे न भूखे क्योंकि उसके पहले के साल ख़ूब पानी था और बाद के साल में भी। अपने नदी, नाले, तालाब सँभाल के रखो तो दुष्काल का साल मज़े में निकल जाता है। लेकिन हम जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है।
‘नई दुनिया' की ही लाइब्रेरी में कमलेश सेन और अशोक जोशी ने धरती के वातावरण को गर्म करने वाली इस खाऊ-उजाड़ू सभ्यता की जो कतरनें निकाल रखी हैं वे बताने को काफ़ी है कि मालव धरती गहन गंभीर क्यों नहीं है और क्यों यहाँ डग-डग रोटी और पग-पग नीर नहीं है। क्यों हमारे समुद्रों का पानी गर्म हो रहा है? क्यों हमारी धरती के ध्रुवों पर जमी बरफ़ पिघल रही है? क्यों हमारे मौसमों का चक्र बिगड़ रहा है? क्यों लद्दाख में बर्फ़ के बजाय पानी गिरा और क्यों बाड़मेर में गाँव डूब गए? क्यों यूरोप और अमेरिका में इतनी गर्मी पड़ रही है? क्योंकि वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। ये गैसें सबसे ज़्यादा अमेरिका और फिर यूरोप के विकसित देशों से निकलती हैं। अमेरिका इन्हें रोकने को तैयार नहीं है। वह नहीं मानता कि धरती के वातावरण के गर्म होने से सब गड़बड़ी हो रही है। अमेरिका की घोषणा है कि वह अपनी खाऊ-उजाड़ू जीवन पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा। लेकिन हम अपने मालवा की गहन गंभीर और पग-पग नीर की डग-डग रोटी देने वाली धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं। हम अपनी जीवन पद्धति को क्या समझते हैं!
ugte suraj ki nithri komal dhoop rajasthan mein rah gai. malava laga to asman badlon se chhaya hua tha. kale bhure badal. thoDi der mein lagne laga ki chaumasa abhi gaya nahin hai. jahan jahan bhi pani bhara hua rah sakta tha labalb bhara hua tha, matmaila barsati pani. jitne bhi chhote mote nadi nale dikh rahe the, sab bah rahe the. isse zyada pani ab ye dharti sokh ke rakh nahin sakti thi. uupar se badal ki kabhi bhi baras sakte the.
navratri ki pahli subah thi. malava mein ghat sthapana ki taiyari. gobar se ghar angan lipne aur manaji ke otle ko rangoli se sajane ki subah. bahu betiyon ke nahane dhone aur sajkar tyohar manane mein lagne ki ghaDi. lekin asman to ghaun ghaun kar raha tha. raste mein chhote steshnon par mahilaon ki hi bheeD thi. main, ujli chatak dhoop, lahlahati jvar—bajre aur soyabin ki faslen, pile phulonvali phailti belen aur damakte ghar angan dekhne aaya tha. lekin lag raha tha ki pani to gir ke rahega. aisa nahin ki navratri mein pani girte na dekha ho. kvaanr malava mein mansun ke jane ka mahina hota hai. kabhi thoDa pahle bhi chala jata hai. is baar to jate hue bhi jame rahne ki dhauns de raha hai.
nagda steshan par mina ji bina chini ki chaay pilate hain. sare zaruri samachar bhi dete hain. gai raat kvalalampur mein bharat ke harne se duःkhi the. puchhne par hi mausam aur kheti par aaye, “haan, abki pani bhot giryo. kisan kai ki hamari soyabin ki fasal to gali gai. pan ab gehun chana achchha hoyga. saar mein unne kaha aur dukan mein lag ge. chaay aur bhajiya unne achchha banva ke diya tha. hum miyan bivi maze mein khate pite ujjain pahunch ge. raste mein shipra mili. maiya aisi bharpur aur bahti hui to barson mein dikhi thi. ge mahine tivi par lain paDhi thi ki ujjain mein shipra ka pani gharon ghus gaya. bhopal, indaur, dhaar, devas sab mein jhaDi lagi thi. sab jagah fon laga ke puchha tha. khatra kahin na tha, lekin sab ko purane din yaad aa ge the.
ab malava mein vaisa pani nahin girta jaisa gira karta tha. isliye pahle ka ausat pani bhi gire to logon ko lagta hai ki zyada gir gaya. is baar bhi barsat vahi chalis inch giri hai. kahin zyada hai kahin thoDi kam. lekin log tivi ki samajh mein atti ki bolne lage hain. ujjain se devas hote hue indaur jana malava ke angan mein se nikalna hai. kvaanr ki dhoop hoti to bhari puri gadrai hariyali se tabiyat jhak ho jati, lekin kuen bavDi aur talab talaiya ke labalb bhare, nadi nalon ko bahte aur faslon ko lahrate dekho to kya ghazab ki vipulta ki ashvasti milti hai! khoob manao dasera divali. abki malavo khoob pakyo hai.
indaur utarte hi gaDi mein saman rakhte davva ko kaha ki apne ko sab nadiyan, sare talab, sare taal talaiya aur jalashay dekhne hain. sab pahaD chaDhne hain.
usne musakurate hue kaha—yahin se?
ni yaar pele mata bithayanga.
mata to baith gai, aarti bhi ho gai tauji, ek bajnevala hai.
baad mein paya ki umar bhi ab sattar ki ho jayegi. pahaD chaDhe nahin jayenge. nadi nale paar nahin honge. sukhti sunahri ghaas bulayegi lekin us par letkar raDka nahin ja sakega. man se to kishor ho sakte ho. sharir phir vaisa phurtila, lachila aur garvila nahin ho sakta. umar jo le gai use le jane do. uska jo hai, rakhe. apna jo hai use jiyen.
is trasdayi pratiti ke bavjud do jaghon se narmada dekhi. onkareshvar mein us paar se. samne siment kankrit ka vishal rakshsi baandh us par banaya ja raha hai. shayad isiliye wo chiDhti aur tintin phinphin karti bah rahi thi. matmaili, kahin chhichhli apne tal ke patthar dikhati, kahin gahri athah. ve baDi baDi naven vahan nahin theen. shayad poor mein bahne se bachakar kahin rakh di gai theen. kinaron par tute patthar paDe the. jyotirling ka teerth dhaam wo nahin lag raha tha. nirman mein lagi baDi baDi mashinen aur gurrate trak the. vahin thoDi der kvaanr ki chilchilati dhoop mili, lekin narmada ke baar baar poor aane ke nishan charon taraf the. bavjud itne bandhon ke narmada mein ab bhi khoob pani aur gati hai.
nemavar ke paas bajvaDa mein narmada shaant, gambhir aur bhari puri thi. shaam ho jane par bhi jaise apne andar ke mande ujale se gamak rahi thi. chavath ka chaand us par latka hua tha. mitti ki uunchi kagar par peDon ke beech baithe hue hum chupchap use prnaam kar rahe the. bhen ji ne jaise use sahlate hue kaha—thak gai hai. dekhana ab raat ko bahegi.
ratbhar hum uske kinare hi soe. sabere uthkar phir jaise uske naman mein uske kinare baithe. ab wo shaant bah rahi thi. apan ghaat niche narmada kinare ke log. bhen ji ganga kinare ki. hum nadi ko nadi nahin maan mante hain. narmada maiya hai. usse hum bane hain. uske kinare baithna maan ki god mein Dubna hai.
onkareshvar aur nemavar jate hue donon baar vindhya ke ghaat utarne paDe. ek taraf simrol ka ghaat, dusri taraf bijvaD. donon mein sagaun ke jangal. patte khankhare hote hue, phir bhi phunagiyon par phool ke jhalle. simrol ke beech se choral khoob bahti hui mili. bijvaD mein har nala bah raha tha. har pahaDi nadi ki rapat par pani tha. bachpan mein pitripaksh aur navratri par aisa hi pani milta tha. sare nadi, nale aise hi kalmal karte jivit ho uthte the. pahaDon ke sine mein kitne srot hain. sab bahen to niche ki kali mitti khoob umagkar phal phool aur ann deti hai. nemavar ke raste par hi kevDeshvar hai jahan se shipra nikalti hai. kalidas ki shipra. bahut baDi nadi nahin hai. lekin ujjain mein mahakal ke paanv pakhare to pavitra ho gai. chambal vindhya ke janapav parvat se nikli aur nimaD, malava, bundelkhanD, gvaliyar hoti hui itava ke paas jamna mein mili.
chambal ko hamne ghata bilod mein dekha. kafi pani tha. khoob bah rahi thi. usmen nahate laDke ko garv tha ki yahan chhoti dikhti ho to kyaa! hamari chambal se ganga hi bas baDi hai. aage bahut baDa baandh hai. khoob pani hai. is baar gandhi sagar ke sab phatak kholne paDe. itta pani bhara. gambhir itni baDi nahin hai. lekin halod ke aage yashvant sagar ko is baar phir usne itna bhar diya ki pachchison saifan chalane paDe. saDsath saal mein tisri baar aisa hua. parvati aur kalisindh ne phir rasta roka. do din unke pul par se pani bahta raha. is baar malava ke pathar ki sab nadiyon mein poor aai. uske paas se bahne vali narmada mein bhi khoob pani aaya. barson baad hazaron saal ki kahavat sachchi hui—malav dharti gahan gambhir, Dag Dag roti, pag pag neer. dakshin se uttar ki or Dhalanvale is pathar ki sabhi nadiyon ke darshan hue. khoob pani, khoob bahav aur khoob kripa. nadi ka sadanira rahna jivan ke srot ka sada jivit rahna hai.
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hathipala ka naam isliye hai ki kabhi vahan ki nadi ko paar karne ke liye hathi par baithna paDta tha. chandrbhaga pul ke niche utna pani raha karta tha jitna maharashtr ki chandrbhaga nadi mein. indaur ke beech se nikalne aur milne vali ye nadiyan kabhi use hara bhara aur gulzar rakhti theen. aaj ve saDe nalon mein badal di gai hain. shipra, chambal, gambhir, parvati, kalisindh, choral sabke yahi haal ho rahe hain. ye sadanira nadiyan ab malava ke galon ke ansu bhi nahin baha saktin. chaumase mein chalti hain. baqi ke mahinon mein bastiyon ke nalon ka pani Dhoti hain. nadiyon ne sabhytaon ko janm diya. hamari aaj ki sabhyata in nadiyon ko apne gande pani ke nale bana rahi hai. is saal malava mein samanya barish (35 inch) se paanch hi inch zyada pani gira hai aur itne mein hi nadi, nale, talab, bavaDiyan aur kuen chaitanya ho ge hain.
apne pahle akhbar nai duniya ki laibreri mein ab bhi pani ke san 1878 se rekarD maujud hain. 128 saal ki ye jankari hi ankh kholne ke liye kafi hai ki inmen ek hi saal tha, 1899 ka, jab malava mein sirf 15. 75 inch pani gira tha. lok mein yahi chhappan ka kaal hai. lekin rajasthan ke theth marvaD se tab bhi log yahin aaye the aur kahte hain ki tab bhi khane aur pine ko kafi tha. in 128 salon mein ek hi saal ativrishti ka tha. san 1973 mein 77 inch pani gira tha. tab bhi yashvant sagar, bilavli, sirpur aur pipalya pala tutkar bahe nahin the.
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ni yaar pele mata bithayanga.
mata to baith gai, aarti bhi ho gai tauji, ek bajnevala hai.
baad mein paya ki umar bhi ab sattar ki ho jayegi. pahaD chaDhe nahin jayenge. nadi nale paar nahin honge. sukhti sunahri ghaas bulayegi lekin us par letkar raDka nahin ja sakega. man se to kishor ho sakte ho. sharir phir vaisa phurtila, lachila aur garvila nahin ho sakta. umar jo le gai use le jane do. uska jo hai, rakhe. apna jo hai use jiyen.
is trasdayi pratiti ke bavjud do jaghon se narmada dekhi. onkareshvar mein us paar se. samne siment kankrit ka vishal rakshsi baandh us par banaya ja raha hai. shayad isiliye wo chiDhti aur tintin phinphin karti bah rahi thi. matmaili, kahin chhichhli apne tal ke patthar dikhati, kahin gahri athah. ve baDi baDi naven vahan nahin theen. shayad poor mein bahne se bachakar kahin rakh di gai theen. kinaron par tute patthar paDe the. jyotirling ka teerth dhaam wo nahin lag raha tha. nirman mein lagi baDi baDi mashinen aur gurrate trak the. vahin thoDi der kvaanr ki chilchilati dhoop mili, lekin narmada ke baar baar poor aane ke nishan charon taraf the. bavjud itne bandhon ke narmada mein ab bhi khoob pani aur gati hai.
nemavar ke paas bajvaDa mein narmada shaant, gambhir aur bhari puri thi. shaam ho jane par bhi jaise apne andar ke mande ujale se gamak rahi thi. chavath ka chaand us par latka hua tha. mitti ki uunchi kagar par peDon ke beech baithe hue hum chupchap use prnaam kar rahe the. bhen ji ne jaise use sahlate hue kaha—thak gai hai. dekhana ab raat ko bahegi.
ratbhar hum uske kinare hi soe. sabere uthkar phir jaise uske naman mein uske kinare baithe. ab wo shaant bah rahi thi. apan ghaat niche narmada kinare ke log. bhen ji ganga kinare ki. hum nadi ko nadi nahin maan mante hain. narmada maiya hai. usse hum bane hain. uske kinare baithna maan ki god mein Dubna hai.
onkareshvar aur nemavar jate hue donon baar vindhya ke ghaat utarne paDe. ek taraf simrol ka ghaat, dusri taraf bijvaD. donon mein sagaun ke jangal. patte khankhare hote hue, phir bhi phunagiyon par phool ke jhalle. simrol ke beech se choral khoob bahti hui mili. bijvaD mein har nala bah raha tha. har pahaDi nadi ki rapat par pani tha. bachpan mein pitripaksh aur navratri par aisa hi pani milta tha. sare nadi, nale aise hi kalmal karte jivit ho uthte the. pahaDon ke sine mein kitne srot hain. sab bahen to niche ki kali mitti khoob umagkar phal phool aur ann deti hai. nemavar ke raste par hi kevDeshvar hai jahan se shipra nikalti hai. kalidas ki shipra. bahut baDi nadi nahin hai. lekin ujjain mein mahakal ke paanv pakhare to pavitra ho gai. chambal vindhya ke janapav parvat se nikli aur nimaD, malava, bundelkhanD, gvaliyar hoti hui itava ke paas jamna mein mili.
chambal ko hamne ghata bilod mein dekha. kafi pani tha. khoob bah rahi thi. usmen nahate laDke ko garv tha ki yahan chhoti dikhti ho to kyaa! hamari chambal se ganga hi bas baDi hai. aage bahut baDa baandh hai. khoob pani hai. is baar gandhi sagar ke sab phatak kholne paDe. itta pani bhara. gambhir itni baDi nahin hai. lekin halod ke aage yashvant sagar ko is baar phir usne itna bhar diya ki pachchison saifan chalane paDe. saDsath saal mein tisri baar aisa hua. parvati aur kalisindh ne phir rasta roka. do din unke pul par se pani bahta raha. is baar malava ke pathar ki sab nadiyon mein poor aai. uske paas se bahne vali narmada mein bhi khoob pani aaya. barson baad hazaron saal ki kahavat sachchi hui—malav dharti gahan gambhir, Dag Dag roti, pag pag neer. dakshin se uttar ki or Dhalanvale is pathar ki sabhi nadiyon ke darshan hue. khoob pani, khoob bahav aur khoob kripa. nadi ka sadanira rahna jivan ke srot ka sada jivit rahna hai.
nadiyon ke baad nambar tha talabon ka. hamare aaj ke injiniyar samajhte hain ki ve pani ka prbandh jante hain aur pahle zamane ke log kuch nahin jante the kyonki gyaan to pashchim ke rinesan ke baad hi aaya na! malava mein vikramaditya aur bhoj aur munj rinesan ke bahut pahle ho ge. ve aur malava ke sab raja jante the ki is pathar par pani ko rok ke rakhna hoga. sabne talab banvaye, baDi baDi bavaDiyan banvai taki barsat ka pani ruka rahe aur dharti ke garbh ke pani ko jivant rakh saken. hamare aaj ke niyojkon aur injiniyron ne talabon ko gaad se bhar jane diya aur zamin ke pani ko patal se bhi nikal liya. nadi nale sookh ge. pag pag nirvala malava sukha ho gaya. lekin is baar bilavli bhar gaya hai. pipalya pala bhar gaya hai. sirpur mein labalb pani hai aur yashvant sagar ke sabhi saifan to chale hi the, phir bhi indaur ki khaan aur sarasvati nadiyon mein utna pani nahin hai jitne mein kabhi main nahaya hoon aur naav par sair ki hai.
hathipala ka naam isliye hai ki kabhi vahan ki nadi ko paar karne ke liye hathi par baithna paDta tha. chandrbhaga pul ke niche utna pani raha karta tha jitna maharashtr ki chandrbhaga nadi mein. indaur ke beech se nikalne aur milne vali ye nadiyan kabhi use hara bhara aur gulzar rakhti theen. aaj ve saDe nalon mein badal di gai hain. shipra, chambal, gambhir, parvati, kalisindh, choral sabke yahi haal ho rahe hain. ye sadanira nadiyan ab malava ke galon ke ansu bhi nahin baha saktin. chaumase mein chalti hain. baqi ke mahinon mein bastiyon ke nalon ka pani Dhoti hain. nadiyon ne sabhytaon ko janm diya. hamari aaj ki sabhyata in nadiyon ko apne gande pani ke nale bana rahi hai. is saal malava mein samanya barish (35 inch) se paanch hi inch zyada pani gira hai aur itne mein hi nadi, nale, talab, bavaDiyan aur kuen chaitanya ho ge hain.
apne pahle akhbar nai duniya ki laibreri mein ab bhi pani ke san 1878 se rekarD maujud hain. 128 saal ki ye jankari hi ankh kholne ke liye kafi hai ki inmen ek hi saal tha, 1899 ka, jab malava mein sirf 15. 75 inch pani gira tha. lok mein yahi chhappan ka kaal hai. lekin rajasthan ke theth marvaD se tab bhi log yahin aaye the aur kahte hain ki tab bhi khane aur pine ko kafi tha. in 128 salon mein ek hi saal ativrishti ka tha. san 1973 mein 77 inch pani gira tha. tab bhi yashvant sagar, bilavli, sirpur aur pipalya pala tutkar bahe nahin the.
28 inch se kam barish ho to wo sukhe ka saal hota hai. lekin aise saal zyada nahin hai. chhappan ke kaal ne deshbhar mein haay haay machai ho lekin malava mein log na pyase mare na bhukhe kyonki uske pahle ke saal khoob pani tha aur baad ke saal mein bhi. apne nadi, nale, talab sanbhal ke rakho to dushkal ka saal maze mein nikal jata hai. lekin hum jise vikas ki audyogik sabhyata kahte hain wo ujaaD ki apsabhyta hai.
‘nai duniya ki hi laibreri mein kamlesh sen aur ashok joshi ne dharti ke vatavran ko garm karne vali is khau ujaDu sabhyata ki jo katarnen nikal rakhi hain ve batane ko kafi hai ki malav dharti gahan gambhir kyon nahin hai aur kyon yahan Dag Dag roti aur pag pag neer nahin hai. kyon hamare samudron ka pani garm ho raha hai? kyon hamari dharti ke dhruvon par jami baraf pighal rahi hai? kyon hamare mausmon ka chakr bigaD raha hai? kyon laddakh mein barf ke bajay pani gira aur kyon baDmer mein gaanv Doob ge? kyon yurop aur amerika mein itni garmi paD rahi hai? kyonki vatavran ko garm karne vali karban Dai auksaiD gaison ne milkar dharti ke tapaman ko teen Digri selsiyas baDha diya hai. ye gaisen sabse zyada amerika aur phir yurop ke viksit deshon se nikalti hain. amerika inhen rokne ko taiyar nahin hai. wo nahin manata ki dharti ke vatavran ke garm hone se sab gaDbaDi ho rahi hai. amerika ki ghoshna hai ki wo apni khau ujaDu jivan paddhati par koi samjhauta nahin karega. lekin hum apne malava ki gahan gambhir aur pag pag neer ki Dag Dag roti dene vali dharti ko ujaDne mein lage hue hain. hum apni jivan paddhati ko kya samajhte hain!
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।