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यूरोप में मेरा प्रथम पर्यटन

Europ Mein Mera Pratham Paryatan

सत्यदेव परिव्राजक

सत्यदेव परिव्राजक

यूरोप में मेरा प्रथम पर्यटन

सत्यदेव परिव्राजक

और अधिकसत्यदेव परिव्राजक

    तीसवाँ पुष्प

    वर्तमान युग में यूरोप संसार का ज्ञानोद्यान है। यहीं के फूल पृथ्वी के भिन्न-भिन्न भागों में ले जाकर लगाए गए और उनके द्वारा भिन्न-भिन्न प्रदेशों में सौरभ-प्रसार हुआ। संयुक्त राज्य अमरीका में बसे हुए लोग यूरोप से ही गए थे। इसी प्रकार कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड तथा अन्य सब उपनिवेश योरुपीय उद्योग, सभ्यता और संस्कृति के बल से आज धन-धान्यपूरित हो रहे हैं। आधुनिक जापान भी यूरोप का ऋणी है और उसी से उसने यह सब ज्ञान विभूति पाई है। यूरोप की पुरुषार्थी जातियाँ अपने अदम्य उत्साह से सारी पृथ्वी पर अपनी संस्कृति का झंडा लेकर पहुँची हैं और जहाँ गई हैं वहीं उनकी ज़बरदस्त छाप दिखलाई देती है। मैं अपना विद्याध्ययन समाप्त कर सन् 1911 के मई मास के अंतिम सप्ताह ऐसे यूरोप में पहुँचा था। उस समय किसी को स्वप्न में भी ध्यान नहीं था कि सवा तीन वर्षों के बाद इसी यूरोप में महाभयंकर प्रलयकारी युद्ध प्रारंभ हो जाएगा। उस समय यहाँ पर अत्यंत शांति विराज रही थी। इंग्लिस्तान अपने सम्राट पंजम जार्ज के सिंहासनारूढ़ होने का महोत्सव मनाने की तैयारियाँ कर रहा था, फ़्रांस अपनी मौज-बहार में मस्त था; जर्मनी का कैसर विलियम अपनी शक्तिशालिनी प्रजा पर निर्भय राज्य करता हुआ नए क्षेत्रों की खोज में लगा हुआ था और बेचारे बेल्जियम को अपनी आने वाली मुसीबत का कुछ भी ज्ञान था। ईश्वर की अजब लीला है! भविष्य रहस्यों से परिपूर्ण है। काल बड़ा मसख़रा है। वह सब की खिल्ली उड़ाकर मुँह चिढ़ाता रहता है।

    इंगलैंड का अपना पैदल भ्रमण समाप्त कर मैं लंदन में आकर ठहर गया। लाला हरदयाल जी ने मुझे एक परिचयदायक पत्र भी श्री वेन्कर जी के नाम दिया था, जिसके कारण मुझे वहाँ रहने और घूमने में बड़ी सुविधा हो गई। जबलपुर के श्री ज्ञानचन्द्र जी बैरिस्टर इन दिनों यहीं थे; उनका भी मुझे सहयोग मिला। एक स्वतंत्र कमरा किराये पर लेकर ब्रिटिश साम्राज्य की इस सुविख्यात राजधानी में मैं विचरने लगा।

    यूँ तो संसार में बहुत से बड़े-बड़े नगर हैं, किंतु लंदन की अपनी ख़ास विशेषताएँ हैं। इसकी सबसे प्रधान विशेषता इसका हाइड पार्क नानक उद्यान है, जिसमें हर समय चहल-पहल रहती है। आप और कहीं जाएँ, सिर्फ़ हाइड पार्क में घूमें, बैठें। बस इतना ही आपके लिए काफ़ी मनोरंजन है। अनुभव-प्राप्ति के लिए यहाँ भरपूर सामग्री मिलती है। संसार के सभी देशों के नागरिक आपको इस बाग़ में मिलेंगे। इसके सवन कुंजों में जाने किस-किस मस्ताने ने विहार किया है और कैसे कैसे षड्यंत्र इसकी सुंदर स्थलियों में बैठकर रचे गए होंगे। प्रेमी प्रेमिकाओं का तो यह ख़ास अड्डा है। दुनिया के किसी बाग़ में प्रेमियों को ऐसी स्वतंत्रता नहीं मिल सकती जैसी यहाँ मिलती है। सायेदार वृक्षों के नीचे पड़ी हुई बैंचें यदि किसी प्रकार बोल सकें तो वे अद्भुत रहस्यों का उद्घाटन कर सकती हैं, किंतु वे मूक हैं, इसलिए युवक और युवतियाँ इन मूक पदार्थों से बड़ी मोहब्बत करते हैं और इन्हें अपना सच्चा मित्र समझकर इनसे कोई बात छिपाते नहीं।

    ज्ञान-प्राप्ति के लिए तो यह पार्क सचमुच एक ईश्वर-दत्त साधन है। मुफ़्त में बड़े-विद्वानों के आल्यान, उनका रोचक वार्तालाप, धार्मिक वादविवाद और कवियों के दरबार यहाँ देखने में आते हैं। संध्या के समय आप नित्यप्रति ज्ञान-चर्चा और सत्संग के जमघट पाएँगे। एक स्थान पर नहीं, अलग-अलग जगहों में जुदा-जुदा विचारों के लोग अपना अखाड़ा जमाते हैं। कोई नास्तिक है और अपनी धुन में सारी दुनिया के लोगों को नास्तिकता के घाट उतारना चाहता है। रोमन कैथोलिक मिशनरी अपने लैक्चर झाड़ते हैं, प्रोटेस्टेंट पादरी लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। सोशलिस्टों का कैम्प अलग ही पड़ा है, वह पूँजीवाद की हत्या करने पर उतारू हैं। कोई मज़दूर नेता अपने हक़ों के लिए पार्लियामेन्ट को कोसता हुआ सुनाई देता है। कहीं कोई इस्लाम का प्रेमी दो, चार, दस आदमियों में बैठा हुआ अपना जी बहला रहा है। इस प्रकार एक ही समय में एक ही दिन अपनी-अपनी धुन के पक्के प्रचारक लंदन के इस मश्हूर बाग़ में अपनी-अपनी तान उड़ाते हुए दिखाई देते हैं।

    लंदन में में थोड़े ही दिन रहा। एक दिन भारतीय मित्रों से मिलने के लिए कामवेल रोड पर चला गया। वहाँ से लौटते हुए में हाइड पार्क सैर करने गया। पार्क के दक्षिणी द्वार से जब मैंने भीतर प्रवेश किया तो बहुत-से स्त्री-पुरुषों को सघन वृक्षों के नीचे बैठे हुए देखा। यहाँ बैण्ड बज रहा था और सब नागरिक उसका आनंद ले रहे थे। मैं आगे बढ़ गया। कुछ बुड्ढे लोग घास पर बैठे गुनगुना रहे थे। वे धार्मिक श्रद्धा युक्त हावभावों से दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने का उद्योग कर रहे थे, किंतु जाने क्यों यहाँ के सैलानी इनसे इतने उपराम थे! आठ-दस दर्शक इनसे कुछ फ़ासले पर खड़े हुए इन्हें निहार रहे थे, मानो इनसे भय खाते हों। इसी प्रकार एक दूसरा 'झक्की' खड़ा हुआ गला फाड़-फाड़ कर कुछ कह रहा था, जिसे सुन कर लोग हँसते थे और उसे पागल बनाते थे। मैं इस तमाशे में मशग़ूल था कि इतने में मेरे कानों में कुछ शोरोगुल सुनाई पड़ा। कौतूहलवश मैंने अपनी दृष्टि उधर दौड़ाई। देखता क्या हूँ कि एक मौलवी साहब शरई पाजामा पहने, सिर पर पगड़ी बाँधे और लंबा तुर्रा लटकाए वाँके-टेढ़े बने हुए अपने दो अँग्रेज़ साथियों के साथ चले रहे हैं। ख़ासी भीड़ उनके पीछे लगी हुई थी, जिससे पता चलता था कि लंदन के लोगों के लिए हिंदुस्तानी मौलवी की पोशाक एक अजूबे की चीज़ थी। जो कोई उस हुल्लड़ को सुनता वह उधर ही लपकता और मौलवी साहब के पीछे हो लेता।

    क्या बात है? मेरे मुँह से यह बेइख़्तियार निकला और मैं भी उस ओर बढ़ा। मैं तो चूँकि अमरीका से आया था, योरुपीय पोशाक में था, अच्छी अँग्रेज़ी बोलता था, इसलिए मुझे कोई पहचान नहीं सकता था। मैं उन सब में रलमिल गया। लेकिन भारतीय पोशाक में ये मौलवी ब्रिटिश साम्राज्य की इस प्रधान नगरी में कौतुक की वस्तु बन गए थे। भारतवर्ष को अँग्रेज़ी शासन के नीचे आए एक शताब्दी हो चुकी थी, लेकिन तिस पर भी अँग्रेज़ी जनता को हिंदुस्तानी वेशभूषा के विषय में बिल्कुल अनभिज्ञता थी, वह उनके लिए कौतूहल की चीज़ थी। ख़ैर, मैं भी इस तमाशे को देखने के लिए भीड़ के साथ हो लिया। मग़रिब की नमाज़ का समय होगया था। मियाँ मौलवी उस मज़हबी फर्ज़ को अदा करने के लिए एकांत तलाश कर रहे थे, पर यहाँ वह कहाँ! आख़िर उनके साथियों ने घास के एक टुकड़े की ओर इशारा कर उन्हें नमाज़ पड़ने के लिए कहा और वे स्वयं पास पड़ी हुई बैंच पर बैठ गए। मग़रिब की नमाज़ के लिए मौलवी साहब को मशरिक़ की ओर मुँह करना पड़ा, क्योंकि जो हिंदुस्तान में मग़रिब है वह लंदन में मशरिक़ बन जाता है। भाग्य का फेर ही तो है। जब यह मेरे भारतीय बंधु नमाज़ पढ़ने के लिए घुटने जोड़कर बैठे तो भीड़ इन्हें घेर कर खड़ी हो गई। नमाज़ उनके लिए एक नई चीज़ थी। गिर्जे में जाकर ख़ुदा की पूजा करना, इसे तो वे समझ सकते थे, लेकिन खुले मैदान में बैठना, उठना, झुकना, खड़ा होना और मत्था टेकना इस प्रकार का क़वायदी ढंग, ईश्वरीय पूजा, उनके लिए मनोरंजन की वस्तु हो गई। ऐसा मनोरंजन इन लोगों को सरकसों और थियेटरों में पैसा ख़र्च करने पर मिलता है, भला वे यह मुफ़्त की चीज़ क्यों छोड़ते! मौलवी साहब जब आँखें खोलते, तो ख़ुदा की बजाय भीड़ अर्थात 'शैतान' को सामने खड़ा हुआ पाते। इनके लिए नमाज़ पढ़ना मुश्किल हो गया। बेचारे बेग़ार पूरा कर, जल्दी-जल्दी रस्म अदा कर, खड़े हो गए और अपने अँग्रेज़ मित्रों से बोले—

    तोबा! तोबा!! यहाँ तो नमाज़ पढ़ना भी आफ़त है।

    इनके साथी हँसने लगे। एक ने कहा—लंदन के लोगों ने कभी किसी को नमाज़ पढ़ते हुए नहीं देखा। उनके लिए यह नई चीज़ है। एक तो आपकी पोशाक बिल्कुल अजीब और दूसरे ख़ुदा की परस्ति। (पूजा) का ढंग निराला; इसलिए ये लोग तमाशा देखने के लिए आए हैं।

    मौलवी साहब ने ख़फ़ा होकर विरोध के लहजे में कहा—

    इतनी मुद्दत से अँग्रेज़ लोग हिंदुस्तान पर हकूमत करते हैं, क्या वे मुसलमानों की पोशाक और उनकी नमाज़ से नावाक़िफ़ हैं? ख़ुदा का यह मज़हब इस्लाम, क्या यहाँ के बाशिंदे इससे ऐसे उम्मी (अनभिन्न हैं?”

    उनके साथी मुस्कुराकर बोले—

    इस साठ लाख की आबादी के शहर में बहुत ही कम ऐसे अँग्रेज़ निकलेंगे जिन्हें हिंदुस्तान से वाक़फ़ियत हो। फिर यह तो लंदन ठहरा! यहाँ तो यूरोप के दूसरे मुल्कों—फ़्रांस, जर्मनी, इटली, डेनमार्क, हॉलैंड आदि के लोग हज़ारों की तादाद में आते रहते हैं। वे बेचारे हिंदुस्तानियों की बाबत क्या जानें!

    तीनों जने जिधर से आए थे, उधर ही लौट चले और दर्शकों का समूह उनके पीछे-पीछे हो लिया। मैं अपनी धुन में आगे बढ़ा।

    'Votes For Women' ये शब्द मेरे कान में पड़े। मेरी बड़ी इच्छा ऐसे व्याख्यानों को सुनने की थी। इसलिए मैं उधर ही चला। निकट पहुँच कर मैंने एक ऊँचे छकड़े पर तीन स्त्रियाँ देखीं—दो स्टूलों पर बैठी हुई थीं और एक खड़ी व्याख्यान दे रही थी। एक झंडा उनके पास था, जिस पर Votes For Women मोटे अक्षरों में लिखा हआ था। व्याख्यानदात्री स्त्री कोई पैंतीस वर्ष की होगी, पर थी बड़ी निपुण। उसने बड़े कौशल से स्त्रियों के अविकारों की चर्चा की और युक्तियों द्वारा सिद्ध कर दिखलाया कि स्त्रियों को राज्याधिकार दिए बिना कभी इंगलिस्तान का कल्याण नहीं हो सकता। श्रोताओं ने बहुत से प्रश्न किए, जिनका बड़ी योग्यता से समाधान किया गया।

    यह दृश्य मेरे लिए बड़ा शिक्षाप्रद था। भारत में तो स्त्रियों को साधारण अधिकारों से भी वंचित किया जाता है और वे अवलाएँ सब कुछ चुपचाप सहन कर लेती हैं। वे तो जानती ही नहीं कि अधिकार किसका नाम है। उनको तो घर में रोटी पकाने के सिवाए दूसरा ज्ञान ही नहीं। ऐसी अवस्था में हमारी स्त्रियों का इंगलिस्तान की स्त्रियों से भला मुक़ाबिला क्या! इंगलिश स्त्रियों के व्याख्यान सुन कर मैं बड़ा ही प्रसन्न हुआ, क्योंकि संसार के किसी देश की जागृति अपना असर दूसरे देशों पर डाले बग़ैर नहीं रह सकती। आज रेल, स्टीमर, तार तथा अख़बारों का ज़माना है। इस ज़माने में कैसी भी जागृति हो, उसका प्रभाव दूसरे देशों के समाज पर पड़े बिना नहीं रह सकता और भिन्न-भिन्न देश अपनी-अपनी योग्यतानुसार उससे हानि-लाभ उठाते हैं।

    ऐसे विचारों में मग्न मैं वहाँ खड़ा था। उस स्त्री का व्याख्यान अब ख़त्म हो चुका था। मैंने उस व्याख्यानदात्री रमणी के पास जाकर कई-एक प्रश्न किए और उसके साथ टहलता-टहलता थोड़ी दूर तक चला गया।

    इंगलिस्तान में यह समय ज़बर्दस्त नारी-आंदोलन का था। देवी पैन्कहर्स्ट स्त्रियों के सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की रक्षा के लिए कमर कसकर खड़ी हुई थीं। इंगलिस्तान में इस समय तक स्त्रियों को 'वोट' देने का हक़ नहीं था। देवी पैन्कहर्स्ट ने स्त्रियों के सामाजिक और राजनीतिक संघ की स्थापना की और सन 1908 में उन्हें औरतों को भड़काने और विद्रोही बनाने के अपराध में तीन महीने का कारावास हुआ था; सन् 1912 में इन्हें नौ महीने का जेलदण्ड हुआ, लेकिन शीघ्र छोड़ दी गई थीं। इस प्रकार के वातावरण में मैं नई दुनिया से लोटकर लंदन में पहुँचा था। हाइड पार्क ऐसे क्रांतिकारी आंदोलनों का अड्डा रहा है। यह भाषण-स्वतंत्रता और विचार-स्वातंत्र्य का केंद्र है। संसार भर के विद्रोही, क्रांतिकारी, आतंकवादी, नास्तिक और सत्यज्ञान प्रेमी लंदन के इस उद्यान में आकर अपने दिल के फफोले फोड़ते हैं और उन्हें ऐसी आज़ादी देने वाले इंगलिस्तान की जय मनाते हैं।

    उत्तरी दरवाज़े पर दृश्य और ही प्रकार का था। यहाँ थोड़े-थोड़े फ़ासले पर व्याख्यानदाता सज्जन अपना-अपना राग अलाप रहे थे। कोई ईसाई धर्म का खंडन बड़े ज़ोर-शोर से कर रहा था, कोई रोमन कैथोलिक लोगों के पीछे हाथ धोकर पड़ा था। कोई वैज्ञानिक ढंग से धर्म की व्याख्या सुना रहा था, कोई राजनीतिक उलझनों में उलझ रहा था। अपनी-अपनी धुन में मस्त दीवाने अपनी-अपनी कह रहे थे। श्रोता भी उनके साथ-साथ करतलध्वनि कर उनको उत्साहित करते जाते थे। बीच बीच में कोई 'टेक' भी लगा देता और लेक्चरार की दिल्लगी उड़ाकर अपना दिल ख़ुश करता था। पर यह बात रोमन कैथोलिक मत के प्रेचारकों के विरोध में ही देखने में आई, या लेबर पार्टी के प्रेमी दूसरे दल वालों की हँसी उड़ाकर व्याख्यानदाता को हैरान करना चाहते थे।

    कहीं-कहीं शास्त्रार्थ सुनने में आया। कुछ आदमी घेरा डाले हुए प्रश्नोत्तर का आनंद ले रहे थे। एक रोमन कैथोलिक नवयुवक अपने प्रोटेस्टेंट विरोधी को आड़े हाथों ले रहा था। वह नवयुवक युक्ति लड़ाने में बड़ा चतुर था और अपने विषय का पंडित जान पड़ता था। उसकी सहायतार्थ तीन-चार महिलाएँ भी उसके पास खड़ी थीं। वे उसको होंसला देती जाती थीं। उस प्रोटेस्टेंट नवयुवक का निर्बल पक्ष देखकर मैंने उस रोमन कैथोलिक युवक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर उससे शास्त्रार्थ की ठानी। पर उस बेचारे ने स्पष्ट तौर पर हिंदू धर्म से अपनी अनभिज्ञता स्वीकार की और वादविवाद से इंकार कर दिया।

    उनका पीछा छोड़कर मैं दूसरी ओर चल पड़ा, जहाँ बहुत-से मनुष्य खड़े थे। वहाँ भी बहस हो रही थी। ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी भिड़े हुए थे। ईश्वरवादी एक फ़्रांसीसी नवयुवक था और अनीश्वरवादी था एक चलता-पुरज़ा अँग्रेज़। अँग्रेज़ नवयुवक ने अपने विरोधी का नाक में दम कर दिया। यह देखकर मैंने फ़्रांसीसी युवक की सहायता करना अपना कर्तव्य समझा। मैंने अनीश्वरवादी से पूछा—

    आप ईश्वरसिद्धि के लिए प्रमाण (proof) माँगते हैं; कृपया कहिए, प्रमाण से आपका क्या अभिप्राय है?

    अनीश्वरवादी ने मेरी ओर घूरकर देखा और बोला—ईश्वरवादियों के पास ईश्वर के अस्तित्व का कोई सबूत नहीं है। आप खड़े हैं, आपके अस्तित्व का सबूत मुझे आँखों से मिलता है, छूने से मिलता है। यही मतलब मेरा सबूत से है।

    इस पर मैंने ज़रा मुस्कुराकर कहा—

    अच्छा, तो आप उसी चीज़ को मानते हैं जिसका इन्द्रियों से ज्ञान हो सके।

    हाँ, जनाब।

    लेकिन आप कई-एक ऐसी बातों को मानते हैं जिनका ज्ञान आप को तो है पर आप दूसरों को उनका ज्ञान नहीं करा सकते, जब तक कि दूसरा स्वयं उन्हें अनुभव करे।

    मसलन?

    उदाहरण के तौर पर नींद को ही लाजिए। मैं आपसे पूछता हूँ नींद क्या चीज़ है? कृपया मुझे समझाइए और इसके होने का प्रमाण य।

    अब ईश्वरवादी का चेहरा खिलने लगा। ईश्वर के प्रेमी श्रोतागण भी उत्साहित हुए। अनीश्वरवादी युवक बोला—

    नींद शरीर की एक अवस्था का नाम है। जब काम करते-करते शरीर थक जाता है, तो वह अवस्था उत्पन्न होती है।

    “यह तो ठीक है, लेकिन जब आप सोकर उठते हैं और कहते हैं 'आज हम आनंद से सोए', बतलाइए, यह आनंद क्या वस्तु है? कृपया उसका प्रमाण दीजिए।

    तव अनीश्वरवादी चकराया और बोला—इसका ईश्वर के साथ क्या संबंध है?

    जिन लोगों ने ईश्वर को जाना है और उस आनंद को अनुभव किया है, वे आपको उसका प्रमाण क्या दे सकते हैं! उस आनंद को आप तभी जान सकते हैं जब आप उस दशा में ख़ुद पहुँचें। ईश्वर की सत्ता का आनंद वही जान सकते हैं जो उस दशा को प्राप्त हों।

    तो क्या आप उसका कुछ भी सबूत नहीं दे सकते?

    हम केवल आपको उसके अस्तित्व संबंधी बातें बतला सकते हैं और युक्तियों से समझा सकते हैं, परंतु उसका ठीक प्रमाण उसे ख़ुद जाने विना नहीं मिल सकता। उदाहरणार्थ—एक आदमी ने कभी नारंगी नहीं खाई। जिसने खाई है, वह उसका प्रमाण दूसरे आदमी को क्या दे सकता है? आवश्यक है कि दूसरा मनुष्य भी नारंगी को खावे। तभी उसका उसे ठीक स्वाद मिल सकता है।

    मेरे इस वार्तालाप से श्रोतागण बहुत ही प्रसन्न हुए। ईश्वरवादी नवयुवक के आश्चर्य की तो सीमा रही। हमारे लिए यह साधारण वातें हैं, पर वह फ़्रांसीसी नवयुवक वार्तालाप के इस ढंग पर लटू-सा हो गया। जब अनीश्वरवादी ने मुझसे ईश्वर-ज्ञान का मार्ग पूछा, तो मैंने योगसूत्रों के आशय को लेकर उसका अच्छी प्रकार समाधान कर दिया।

    गर्मी आज अधिक थी, इसलिए मैं पानी पीने चला गया। लौट कर आया तो उस फ़्रांसीसी नवयुवक ने मुझे घेर लिया। भाँति-भाँति के प्रश्न किए। भारतीय लोगों को वह अब तक काफ़िर (Heathens) समझता था। आज उसे पता लगा कि भारत की संस्कृत-विद्या अमूल्य रत्नों का आगार है। उसने बहुत-सी पुस्तकों का नाम तथा मिलने का ठिकाना मुझसे पूछा और अपनी नोट-बुक पर सब कुछ लिख लिया।

    संध्या-सुंदरी के आगमन का समय हो गया। वह अपनी काली चादर से सब पदार्थों को ढाँकने लगी। लेकिन मनुष्य निशानाथ की तरह बिजली का लैम्प लेकर इस चादर को उतार देता है और अपने आनंद को क़ायम रखने का यत्न करता है। हाइड पार्क में भी बिजली के लैम्प जल गए और निशाचर लोग विहार करने के लिए पार्क में घुसने लगे। मैंने अपने कमरे की ओर जाने का निश्चय किया। मैं इधर-उधर देखता हुआ पार्क-पथ पर जा रहा था। मेरी निगाह एक नवयुवक पर पड़ी जो मझे ग़ौर से देख रहा था। मैंने अपनी निगाह फेर ली और पार्क से बाहर निकला। सड़क पर आकर में मोटरवत्त की इंतिज़ार में एक नुक्कड़ पर खड़ा हो गया। जव पीछे घूमकर देखा तो वह नवयुवक भी मेरे पास खड़ा था। मोटरबस आई और मैंने शेपहर्डवुश का टिकट ले लिया; उस नवयुवक ने भी ऐसा ही किया। अब मैंने उनका नाम-धाम पूछना आवश्यक समझा। पता लगा कि उसका नाम एलबर्ट सिन्कलेयर था। जब हम शेपहर्डवुश पहुँचे, तो हमारा आपस में ख़ूब परिचय हो गया। सिन्कलेयर ने मुझसे कहा कि वह बड़ा भूखा है और तीन दिन से उसे कोई काम नहीं मिला। मुझे भी पथ-प्रदर्शक की आवश्यकता थी, इसलिए मैंने उससे निवेदन किया कि वह दूसरे दिन से मेरे पास पथ-प्रदर्शक का काम करे। लेकिन उसने गिड़गिड़ाकर कहा—मैं बड़ा भूखा हूँ। इस पर मैंने एक शिलिंग निकालकर उसे दे दिया और जल्दी से सीढ़ियों पर चढ़कर तिमंज़िले में अपने कमरे में जा पहुँचा। बिजली की रौशनी से कमरा जगमगा उठा और मैं बैठकर उस नवयुवक की अवस्था पर विचार करने लगा—लंदन में भूखे नौजवान!

    कुछ दिनों के बाद मैंने पेरिस का टिकट ले लिया। फोक्सटोन से वोलोन तक इंगलिश चैनल स्टीमर द्वारा पार करनी पड़ती है। यद्यपि यह समुद्रयात्रा तो कुछ घंटों की ही होती है, लेकिन होती है बड़ी विकट। समुद्र प्रायः नाराज़ ही रहता है और अपनी भयंकर लहरों से इंगलिश जाति की प्रचंडशक्ति का परिचय देता है। मैं पेरिस में पहुँच गया। मुझे रूलाफायट नामक गली में जाना था। जिस बिजली की गाड़ी में मैं बैठा हुआ था उसके कंडक्टर से मैंने अँग्रेज़ी में अपने निर्दिष्ट स्थान पर गाड़ी रोकने के लिए कहा। वह अँग्रेज़ी समझता नहीं था। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा—क्या इतने थोड़े-थोड़े फ़ासले पर यूरोप में भाषाएँ बदल जाती हैं? संयुक्त राज्य अमेरिका में तो तीन हज़ार मील यात्रा करने के बाद भी भाषा बदली और मैंने लोगों को भाषा के सूत्र में बँधे हुए पाया। यहाँ यूरोप में इंगलैंड और फ़्रांस के बीच में इतना थोड़ा फ़ासला, पर दोनों देशों के लोग एक-दूसरे की ज़बान नहीं समझते। मेरे लिए यह अचंभे की बात थी। गाड़ी में बैठे हुए एक सज्जन ने उठकर मेरी सहायता की और जब मेरी गली गई तो मुझे धीरे से वहाँ उतार दिया।

    पेरिस में इन दिनों भारतीय क्रांतिकारियों का जमघट था। मैडम कामा, श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा, चट्टोपाध्याय तथा अन्य कई हिंदुस्तानी यहाँ रहते थे। मेरी इन सबसे मुलाक़ात हुई और इनकी सभाओं में मैंने बड़े जोशीले, गर्मागर्म व्याख्यान सुने। मुझ पर इन लोगों ने कुछ प्रभाव नहीं डाला, क्योंकि मैं जानता था कि जिस देश के छ: फ़ी-सदी लोग मुश्किल से पढ़ना-लिखना जानते हैं और जहाँ ज़रा भी धार्मिक सहन शीलता नहीं है, वहाँ ऐसी गर्म बातें किसी काम नहीं सकतीं।

    एक दिन अचानक मुझे शर्मण मिल गया—वही शर्मण जो बोस्टन में मुझे आइवेरियन वैल-जहाज़ पर चढ़ा गया था। उसे पेरिस में देखकर मैं बड़ा विस्मित हुआ। बाद में पता लगा कि वह संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में खुफ़िया पुलिस का काम करता था। उसने बोस्टन से ही मेरा पीछा किया था। उसे मेरा पेरिस जाने का प्रोग्राम मालूम था, इसलिए वह मेरे सब कार्यों का पता लगाने के लिए मुझसे पहले ही पेरिस पहुँच गया था। उसका पिता कलकत्ते में पुलिस विभाग में किसी बड़े ओहदे पर था। पेरिस में मैं कई दिन रहा और इसके मुख्य-मुख्य स्थानों को घूम-घूमकर देखा।

    पेरिस से हम दोनों स्विट्ज़रलैंड गए और जगत्प्रसिद्ध जेनेवा नगर के एक होटल में जाकर ठहरे। यहाँ भी शर्मण ने मेरी गति-विधि पर पूरी निगाह रक्खी और जो-जो चिट्ठियाँ मैंने भेजीं, उन सबका पता नोट कर लिया। जेनेवा झील का सौन्दर्य सचमुच अनुपम है। इसके किनारे-किनारे रमणीक विहारस्थल हैं, जहाँ दूर-दूर के घुमक्कड़ आकर नैसर्गिक छटा का मज़ा लेते हैं। अपने मनोहर दृश्यों के लिए यह नगर संसार-भर में प्रसिद्ध है, इसीलिए दुनिया के धनी-निर्धन इस नगर में खिंचे चले आते हैं। यह प्राकृतिक रत्नों का आगार है। स्वाधीनता के पुजारी यहाँ निर्भय घूमते हैं और मनमाने क्रांतिकारी ग्रन्थ लिखते हैं। मैं भी इस नगर में कुछ दिन रहा। संयुक्त राज्य अमेरिका में पैदल घूमने वाले इस भारतीय 'होवो' के पास भला इतना पैसा कहाँ था जो जेनेवा में चैन की बंसी बजा सकता! इसलिए वहाँ से जल्दी चल पड़ा और लोजेन होता हुआ इटली के प्रसिद्ध बंदरगाह जिनोआ पहुँचा। यहीं से मैंने भारत लौटना था। जर्मन-कंपनी के दफ़्तर में जाकर मैंने टिकट ख़रीद लिया और निश्चित तिथि पर जर्मन-स्टीमर में बैठकर इटली से भारत की ओर चला।

    बस, यूरोप में मेरा प्रथम पर्यटन इतना ही हुआ। मैं जर्मनी जा सका, क्योंकि मेरे पास पैसा नहीं था। यदि मुझे यह मालूम होता कि मैंने इस योरूप में कई बार लौटकर आना है तो मैं किसी-न-किसी प्रकार जर्मनी देख लेता, क्योंकि सन् 1911 का समृद्धिशाली जर्मनी देखने लायक़ चीज़ थी। सात करोड़ जर्मन किस प्रेम और श्रद्धा से पितृभूमि को आगे बढ़ा रहे थे, उनकी जंगी ताक़त कैसी ज़बर्दस्त थी और उनके नगरों में पुलिस का कैसा कड़ा प्रबंध था—सचमुच उस काल के महाप्रतापी और महाभिमानी जर्मन नागरिक निरीक्षण करने योग्य थे। पर भविष्य कौन जान सकता है! अपना विद्यार्थी जीवन समाप्त कर मुझे इस समय केवल एक ही धुन थी—स्वतंत्र विचारों का भारत में प्रचार। उसी धुन में मस्त मैं स्टीमर में बैठा हुआ भूमध्यसागर पार कर रहा था।

    पाठक, यहाँ मैंने आपको अपने प्रथम यूरोप-पर्यटन की कथा सुनाई है। तब से लेकर आज सन् 1954 तक, इन 43 वर्षों में कितना पानी पुलों के नीचे से गुज़र गया है और कितना परिवर्तन संसार में होगया है! जो क्षण निकल जाता है, वह फिर वापिस नहीं आता। धन्य हैं वे जो समय का मूल्य समझकर इसे सार्थक करने का प्रयत्न करते हैं और सदा जीवन-यात्रा में आगे पग बढ़ाते रहते हैं। लेकिन कितने हैं ऐसे?

    स्रोत :
    • पुस्तक : ज्ञान के उद्यान में (पृष्ठ 232)
    • रचनाकार : सत्यदेव परिव्राजक

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